
रानी गणेश कुँवरी (1512-1585)
February 7, 2025
मस्तानी बाजीराव बाजीराव पेशवा (1700-1740) की समकालीन
February 10, 2025-वन्दना अवस्थी दुबे
“विनती राय प्रवीन की, सुनिए शाह सुजान
जूठी पातर भखत हैं, बारी, बायस, श्वान।।”
ये वो कवित्त हैं, जिसने गुमनाम राय प्रवीण को इतिहास में उच्च सिंहासन पर स्थापित कर दिया। अफ़सोस कि इस बेहतरीन कवयित्री की रचनाएँ किसी ग्रन्थ में संकलित नहीं हैं। बहुत से पाठक अभी भी राय प्रवीण को लेकर संशय में होंगे। संशय, उनके महारानी होने पर, महाराज इंद्रजीत की पत्नी होने पर या राज नर्तकी होने पर संशय होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि राय प्रवीण पर जिसने भी लिखा, उन्हें राज नर्तकी के रूप में ही प्रस्तुत किया, लिहाजा उनकी घोषित छवि राज नर्तकी की बन गयी।
पृष्ठभूमि
भारतीय इतिहास के मध्ययुग में, भारत के मध्यवर्ती क्षेत्र में कला और संस्कृति का केंद्र ग्वालियर था। तोमर राजाओं ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किये। राजा डूंगर सिंह तोमर से लेकर मानसिंह तोमर तक अनेक नाम हैं, जिन्होंने कला और हिंदी भाषा के लिए उल्लेखनीय कार्य किये। राजा मानसिंह तोमर ने ग्वालियर-शिवपुरी मार्ग पर ग्राम बरई में ‘राछ’ नाम की एक अद्भुत रंगशाला का निर्माण करवाया था, जिसके भग्नावशेष आज भी उसकी गौरवगाथा कहते हैं। तोमरों के पतन के साथ ही वहाँ की भाषा, साहित्य, कला, संगीत और सांस्कृतिक गतिविधियों पर विराम लगना शुरू हो गया।1
इसी समय ओरछा में बुंदेलों का प्रभाव धीरे-धीरे बढ़ने लगा। बुंदेला राज्य के संस्थापक रूद्रप्रताप सिंह ने अपनी राजधानी गढ़ कुंडार से हटाकर ओरछा में बना ली थी। ओरछा नगर का अब नवनिर्माण हो रहा था। पत्थरों को काटकर विशालकाय दुर्ग तैयार किया गया जो आज भी दर्शनीय है। तोमरों का पतन और बुंदेलों का उत्थान लगभग एक साथ हुआ। बुंदेला नरेश भी भाषा, साहित्य, कला और संगीत को प्रश्रय देने वाले थे, लिहाजा ग्वालियर से निराश कला साधक अब ओरछा की ओर रुख करने लगे। इन कलाकारों को ओरछा के नरेश और यहाँ का माहौल तोमरों से भी ज्यादा अनुकूल लगा। उन्हीं दिनों बेतवा के किनारे, फूलबाग के निकट एक पाठशाला की स्थापना की गयी। इस पाठशाला में संगीत सिखाने के लिये ग्वालियर के संगीत साधकों को नियुक्त किया गया तो चित्रकला के लिए नाथद्वारा से कलाकार शिक्षक बुलाये गये। कत्थक नृत्य सिखाने वृंदावन की प्रसिद्ध रासमण्डली के संस्थापक गोस्वामी जी स्वयं आकर ओरछा में ही रम गए। नगर के संभ्रांत परिवारों की लड़कियों ने यहाँ प्रवेश लिया और शिक्षा ग्रहण की जिनमें नवरंगराय, विचित्र नयना, तरंग आदि के नाम प्रमुख हैं।2
इसी पाठशाला के प्रमुख गुरु थे महाकवि केशवदास। वे स्वयं विद्यार्थियों को कला और भाषा की शिक्षा देते। व्यावहारिक, सैद्धांतिक और प्रायोगिक शिक्षा देना उनकी विशेषता थी। प्रसिद्ध संगीतज्ञ बैजनाथ, जिन्हें हम बैजू बावरा के नाम से बेहतर जानते हैं, कालांतर में ग्वालियर छोड़, ओरछा में बस गये थे। बैजनाथ मुख्यरूप से राजघराने की राजकुमारियों, रानियों को ही संगीत की शिक्षा देते थे लेकिन बाद में उन्होंने फूलबाग में भी अपनी सेवाएँ दीं। स्त्री शिक्षा का अनुपम उदाहरण है यह काल और यह स्थान जहाँ नगर की बेटियाँ जो हर कला में दक्ष हो रही थीं। ये अलग बात है कि अपनी इन कलाओं का प्रदर्शन उन्होंने सार्वजनिक रूप से कभी नहीं किया। राजघरानों में भी राजकुमारियों को नृत्य की शिक्षा दी जाती थी, लेकिन ये भी स्वांतः सुखाय ही होती थी।
शेरशाह सूरी को खदेड़ने के बाद राजा भारती चन्द्र जू देव के छोटे भाई मधुकर शाह गद्दी पर बैठे। मधुकर शाह के आठ पुत्रों की जानकारी मिलती है, लेकिन आठों पुत्रों में वीरसिंह जू देव और इंद्रजीत सिंह ही चर्चित राजा हुए। वीरसिंह जूदेव (प्रथम) को बड़ौनी और इंद्रजीत सिंह को कछौआ की जागीरें प्राप्त हुई। मधुकरशाह के निधन के बाद ज्येष्ठ पुत्र रामशाह जूदेव गद्दी पर बैठे लेकिन अत्यंत साधु प्रकृति और राजकाज की लिप्सा न रखने वाले रामशाह जूदेव ने जल्दी ही कछौआ से इंद्रजीत सिंह को बुला कर उन्हें ओरछा का राज सौंप दिया।3
उसी काल खण्ड में बरधुआँ नाम के एक छोटे से गाँव के एक गरीब लुहार के घर एक बेटी का जन्म हुआ जिसे नाम दिया गया-पुनिया। बिना माँ की इस बेटी को ईश्वर ने बहुत सुरीला गला दिया था। उसके पिता भी संगीत प्रेमी थे।4
वरमाला
जब इंद्रजीत सिंह कछौआ के जागीरदार थे, तब वे अधीनस्थ गाँवों का हाल जानने के लिए खुद ही भ्रमण पर निकलते थे। इसी क्रम में वे बरधुआँ गाँव पहुँचे। रात्रि विश्राम के लिए वे जहाँ रुके थे, रात में उन्हें वहाँ से बेहद सुरीले कंठ से गाये जा रहे गीत की ध्वनि सुनाई दी। सुबह हरकारे से पता लगवाया तो मालूम हुआ कि ये तो लुहार की बेटी है जो काम करते हुए गीत गा रही थी। इंद्रजीत सिंह को वह आवाज इतनी भा गयी कि वे बार-बार बरधुआँ जाने लगे। इस बारे में उन्होंने राजकवि केशव से बात की और इस गरीब बालिका का गायन सुनने के लिये कछौआ में समारोह करवाया। इस संगीत समारोह में स्थापित गायकों के अलावा उन्होंने पुनिया का गायन भी रखवाया। असल में तो ये पूरा आयोजन ही पुनिया के लिए था बस महाराज ये भान नहीं होने देना चाहते थे किसी को भी। पुनिया ने इस समारोह में जो अद्भुत रसधार बहायी, उसे सुनकर बड़े-बड़े गायक भी चकित रह गये। समारोह की समाप्ति पर राजा इंद्रजीत सिंह ने प्रसन्न होकर भगवान को चढ़ायी जाने वाली माला पुनिया के गले में डाल, उसके आँचल में मिठाई का दोना रख दिया। भोली-भाली पुनिया ने इस हार को ही वरमाला मान लिया और खुद को राजा इंद्रजीत की पत्नी।
पुनिया का हठ
पुनिया के इस संकल्प से इंद्रजीत सिंह अनभिज्ञ थे। वे अपनी पत्नी रावरानी से बहुत प्रेम करते थे। पुनिया उम्र में छोटी थी और वे उसके गायन पर मंत्रमुग्ध थे, उन्होंने उस वक्त तक स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी कि वे पुनिया के प्रेम में पड़ेंगे। पुनिया के इस संकल्प का पता उसके पिता को तब चला, जब उन्होंने पुनिया के ब्याह की बात उठायी। दृढ़ संकल्प वाली पुनिया ने तब कहीं भी विवाह करने से स्पष्ट इंकार कर दिया। अब इस बात का खुलासा सबके सामने हो गया था। बात इंद्रजीत सिंह तक भी पहुँची। अत्यंत रूपवती पुनिया के गायन पर मोहित इंद्रजीत सिंह ने पहले तो पुनिया को समझाने की कोशिश की, लेकिन कोशिशें बेअसर होती देख उन्होंने भी यथास्थिति को स्वीकार किया और पूरे सम्मान के साथ उसे ओरछा तब बुलाया जब एक अलग महल का निर्माण करवा लिया। रनिवास में यह बात तब भी गुप्त ही थी कि राजा का तथा कथित गन्धर्व विवाह पुनिया से हो चुका है।
पुनिया से राय प्रवीण एवं अकबर का फरमान
ओरछा आने के बाद पुनिया की संगीत और शास्त्र शिक्षा की जिम्मेदारी महाकवि केशव को सौंपी गयी। वे पूर्व में ही उसकी लेखन क्षमता से परिचित हो चुके थे। केशवदास के सान्निध्य में पुनिया के भीतर का कवि अब मंजने लगा। उसकी योग्यताओं को देखते हुए कवि केशव ने ही पुनिया को राय प्रवीण नाम दिया। पुनिया भी उन्हें पितृतुल्य मानती थी।
रनिवास में ये खबर थी कि नये महल में कोई कन्या आयी है जो फूलबाग की पाठशाला में शिक्षा ग्रहण कर रही है। राजा का वहाँ नियमित जाना और एक अजनबी कन्या को पूरा महल देना अपने आप में संदिग्ध मामला था जिसे रावरानी ने ताड़ लिया। अब तक राय प्रवीण और इंद्रजीत सिंह का प्रेम गहरा चुका था। राय प्रवीण नृत्य-संगीत में प्रवीण होने के साथ-साथ बेहतरीन कवित्त लिखने लगी थी। इसी बीच रावरानी ने अकबर के पास अपने विश्वासपात्र के हाथों राय प्रवीण की कैफियत भेजी और यह भी कहलवाया कि ऐसे रत्न को तो उनके रनिवास में होना चाहिये था। खबर लगते ही अकबर ने ओरछा नरेश के पास सन्देश भेजा कि वे राय प्रवीण को तत्काल उनके दरबार में पेश करें अन्यथा एक करोड स्वर्ण मुद्राओं का हर्जाना उन्हें भुगतना होगा। इंद्रजीत सिंह इस सूचना से परेशान हो गये। ख़बर राय प्रवीण तक भी पहुँची, तब उसने एक कवित्त के जरिए इंद्रजीत सिंह को अपनी बात समझायी-
“आई हों बूझन मंत्र तुमें, निज सासन सों सिगरी मति गोई,
प्रानतजों कि तजों कुलकानि, हिये न लजो, लजि हैं सब कोई।
स्वारथ और परमारथ कौ पथ, चित्त, विचारि कहौ अब कोई।
जामें रहै प्रभु की प्रभुता अरु-मोर पतिव्रत भंग न होई।”
राजा इंद्रजीत सिंह को विश्वास हो गया कि राय प्रवीण का बाल भी बाँका नहीं हो सकता, लेकिन अपनी पत्नी को अकबर के दरबार में पेश करने की बात ही उन्हें बेहद अपमानजनक लग रही थी। भले ही उनका विवाह हिन्दू रीति से नहीं हुआ, लेकिन राय प्रवीण को पत्नी का ही सम्मान प्राप्त था और राजा तो जानते ही थे कि वो उनकी पत्नी है। लेकिन अकबर जैसे शक्ति सम्पन्न शासक से टकराना भी उनके बूते की बात नहीं थी। राय प्रवीण के बहुत समझाने पर वे कवि केशव के साथ उसे भेजने को तैयार हुए।
आगरा पहुँचने के अगले दिन जब राय प्रवीण को अकबर के दरबार में पेश किया गया तो उन्होंने बस एक कवित्त सुनाया-
“विनती राय प्रवीण की, सुनिए शाह सुजान,
जूठी पातर भखत हैं, वारी, बायस, स्वान। “
अर्थात् जूठी पत्तल को कौए और कुत्ते ही खाते हैं। कवित्त सुनते ही अकबर न केवल शर्मिंदा हुए, बल्कि उन्होंने राय प्रवीण को ससम्मान ओरछा वापस भेजा और तभी उनके सामने ये स्पष्ट हुआ कि राय प्रवीण दरबारी नर्तकी नहीं, बल्कि इंद्रजीत सिंह की अघोषित पत्नी हैं। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और इंद्रजीत सिंह ने अपमान की ज्वाला में दग्ध होकर प्राण त्याग दिये थे। ओरछा पहुँचकर राय प्रवीण ने जब महल पर राजपरिवार का ध्वज झुका देखा तो वह सीधे बेतवा के किनारे पहुँची, जहाँ इंद्रजीत सिंह की चिता ठंडी हो चुकी थी। व्यथित राय प्रवीण ने चिता की राख अपनी माँग में भर के बेतवा में छलांग लगा दी और इस प्रेमकथा का इस तरह अंत हुआ।
राय प्रवीण ने नायिका भूषण और प्रवीण विनोद नाम से दो ग्रंथों की रचना की।
राजनर्तकी नहीं थी राय प्रवीण
यह एक विडम्बना ही है कि अब तक राय प्रवीण पर लिखी गयी कहानियों और उपन्यासों में उन्हें राजनर्तकी के रूप में ही वर्णित किया गया। राजनर्तकी, उस पर राजा इंद्रजीत सिंह की प्रेमिका तो उपन्यासकारों ने स्वयमेव मान लिया कि यदि कोई नर्तकी प्रेमिका भी है, तो उसकी स्थिति क्या मानी जायेगी। स्तरीय भाषा में हम भले ही उसे राजनर्तकी लिखें, लेकिन अन्ततः राजनर्तकी जो राजा की प्रेमिका भी हो, को क्या उपाधि दी जा सकती है? रखैल से ज्यादा कुछ नहीं। चलताऊ भाषा में हम इस रिश्ते को यही नाम देते हैं। यह सत्य है कि राय प्रवीण घोषित पत्नी का दर्जा पाने से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गयीं। लेकिन महल में उकेरे गए, राय प्रवीण द्वारा रचित कवित्त अपने आप में महत्वपूर्ण प्रमाण हैं।
वास्तविकता तो यह है कि राय प्रवीण कभी दरबारी नर्तकी रही ही नहीं। इस सत्य को बहुत प्रामाणिक तरीके से प्रस्तुत करता है उपन्यास- ‘एक थी राय प्रवीण’. लम्बे शोध के बाद गुणसागर सत्यार्थी जी द्वारा लिखित यह उपन्यास एक ऐतिहासिक दस्तावेज है जो इतिहास में रुचि रखने वालों के लिये बहुत मददगार साबित हो सकता है।
हालाँकि उपन्यासों को काल्पनिक गल्प मात्र मानकर ऐतिहासिक सन्दर्भों से हमेशा बाहर रखा गया है, लेकिन चालीस वर्षों के शोध और अथक परिश्रम के बाद रचे गये इस उपन्यास के सन्दर्भों को ख़ारिज नहीं किया जा सकता। रेखांकित करने योग्य है कि राय प्रवीण से जुड़ी कोई भी लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं थी, सिवाय कवि केशव की कविप्रिया के। तब ज़रूरी था कि उस गाँव और कछौआ के बुजुर्गों से प्रामाणिक जानकारी जुटायी जाये और उन्हीं जानकारियों के आधार पर ‘एक थी राय प्रवीण’ की रचना हुई।
लेखिका सुपरिचित साहित्यकार हैं।
सन्दर्भ -
- बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य, लेखकः रामचरण हयारण राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या: 50-55
- ओरछा की नर्तकी- इकबाल बहादुर देवसरे, पू.- 15, 16, 17 स्मृति प्रकाशन, इलाहाबाद
- बुंदेलखंड का वृहद इतिहास- डॉ. काशीप्रसाद त्रिपाठी, पृष्ठ क्रमांक- 58 से 65 4. एक थी राय प्रवीण- गुणसागर सत्यार्थी
- एक भी राय प्रवीण- गुणसागर सत्यार्थी
- एक थी राय प्रवीण, लेखकः गुणसागर सत्यार्थी
- बुंदेलखण्ड का काव्य, इकाई 5, डॉ. पुनीत बिसारिया, पृष्ठ-6
सन्दर्भ स्रोत -
बुन्देलखंड की संस्कृति और इतिहास-रामचरण हयारण, राजकमल प्रकाशन
ओरछा की नर्तकी-इकबाल बहादुर देवसरे, स्मृति प्रकाशन, इलाहाबाद
बुन्देलखंड का वृहद इतिहास-डॉ. काशी प्रसाद त्रिपाठी, समय प्रकाशन
एक थी राय प्रवीण-गुणसागर सत्यार्थी
बुन्देलखंड का काव्य (इकाई-5) डॉ. पुनीत बिसारिया