पुस्तक - बुन्देलखण्ड की लोक परम्परा - डा.ए.के.पाण्डेय

डॅा.हरी मोहन पुरवार उरई

मनुष्य के जीवन में ध्वनि तरंगों का विशेष महत्व है। भारतीय परिवेश में ध्वनि तरंगों के माध्यम से ईश्वर से साक्षात्कार तक सम्भव है। मन्त्र विज्ञान पूर्णत्ः ध्वनि तरंगों पर आधारित होता है। जिस प्रकार से आज हम ध्वनित तरंगों को टेलीविजन यन्त्र की सहायता से चित्रों में परिवर्तित कर लेते हैं ठीक उसी प्रकार से प्राचीन काल में ऋषियों मुनियों ने सफल साधना के अन्तर्गत मन्त्रों के माध्यम से विभिन्न देवी देवताओं के प्रगटीकरण को सम्भव किया था। ध्वनि तरंगें कर्कशा होती हैं और ध्वनि तरंगें कर्ण प्रिय भी होती हैं। कर्ण प्रिय तरंगों से मन आल्हादित होता है और कर्कशा तरंगें मन उचाट कर देती हैं। मन की भावनाओं का दैनिक क्रियाओं पर भी पूर्ण प्रभाव पड़ता है। प्रफुल्लित मन सृजनात्मक होता है वहीं दुखी अथवा निर्बल मन हमारे शरीर क्रियाओं के लिये बाधा उत्पन्न करता है। इसीलिये कर्ण प्रिय ध्वनि तरंगों के लिये विभिन्न यंत्रों का प्रयोग किया जाता है जिनको बजाने से मन आनन्द व उत्साह से परिपूर्ण होकर अपने कार्य को दूने वेग से करने के लिये तत्पर हो जाता है।

दैत्य महिषासुर के साथ जब मॉं भगवती संग्राम कर रहीं थीं तो संग्राम में उत्साह, जोश, बना, रहे, इसीलिये देवीगण नगाड़े, शंख, मृदंग आदि बजा रहे थे। दुर्गा सप्तशती द्वितीय, अध्याय के श्लोक संख्या 50-66 में वर्णन मिला है।

अवादयन्त पटहान गणाः शंखास्तथापरे।

मृदगांच्श्र तथंवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।।

देवी के गण नगाडा़ और शंख आदि बजाने लगे। उस संग्राम महोत्सव में कितने ही गण मृदंग बजा रहे थे। ध्वनि तरंगों के माध्यम से उल्लासपूर्ण वातावरण का भी सृजन होता है। भगवान श्रीराम रावण को मार कर लंका से वापिस अयोध्या लौट रहे थे। सम्पूर्ण अयोध्या में भगवान श्री राम के स्वागत की तैयारी पूर्ण आनन्द के साथ हो रही थी। तभी तो –

बाल्मीकि रामायण के 177 अध्याय (बालकाण्ड) के श्लोक संख्या 6 में वर्णन मिलता है।

‘‘वताकाध्वाजिनी रम्यां तूर्योद्धुष्टनिनिदिताम्’’

अर्थात् उस समय अयोध्यापुरी में  सब ओर ध्वजपताकाओं से नगर की रमणीयता बढ़ रही थी और भांति-भांति के वाद्यों की ध्वनि से सारी अयोध्या गूंज उठी थी।

कर्ण प्रिय मधुर ध्वनि के साथ निद्रा देवी की गोद में सोया जाये तथा सूर्यदेव की लालित्यपूर्ण आभा का जागकर दर्शन किया जावे तो रात्रि तथा दिन के सभी प्रहर पूर्ण आनन्द से सन्मार्ग पर चलते हुये व्यतीत होते हैं इसी कारण तो

शंख शब्द प्रणादैश्च दुन्दुभीनां च निः स्वनैः।

प्रययो पुरूष व्याघस्तां पुरी हर्म्‍यमालिनीम्। 33

पुरूषसिंह श्रीराम शंख ध्वनि तथा दुन्दभियों के गम्भीर नाद के साथ प्रसाद मालाओं से अलंकृत अयोध्यापुरी की ओर प्रस्थित हुये।

आनन्द और उत्साहपूर्ण वातावरण के सृजन में सहायक वाद्य यंत्रों का बुन्देली लोक जीवन में भी अपना विशष्टि स्थान है। देव पूजन से जलेर विश्व के अन्तिम सत्य मृत्यु तक इन वाद्य यंत्रों का उपयोग स्थितिनुसार वातावरण के सृजन में किया जाता है। जहाँ ढोलक की थाप पर स्त्रियों के कोकिला कंठ  आनन्द की वर्षा करते हैं वहीं नगाड़ों की गूंज से उत्साह पूर्वक प्रेरणा प्राप्त होती है। जहाँ मंजीरों और इकतारों की झनझनाहट साधनारत होने को प्रेरित करती है वहीं ढ़ाक के बोल देवताओं के आवाहन में सहायक होते हैं। भगवान श्रीहरि होली खेलते हैं। उस समय वाद्य यंत्रों के समवेत् स्वरों से जो वातावरण बनता है उसकी बानगी यहॉं प्रस्‍तुत है –

आज हरि होरी है।

लाल गुलाबी पियरे हरे सुआ पंखी रंग,

इन सबमें मोए नीको लागे चटक लाल सो रंग,

बजत वीना मृदंग बाँसुरीउर्पण और उचंग,

टिमकी लोटा मटका बाजेझांझझालरी संग।

ढ़ोल ढ़ोलकी नौबत बाजेमुरली और मुहचंग,

बजे मधुर मृदंग नचूँ मैंसांवरिया के संग,

सब रंग भीजी कोरी चुनरियामैं कृष्णा के संग।