सांस्कृतिक व्यवस्थाएं – वहां सदा की भांति देवी-देवताओं का सदैव हर कार्य में महत्व रहा है। यहीं चूंकि इतिहास बताता है, कि रामायण एवं महाभारत में उद्धरण आये हैं कि पांडवों और राजा राम ने अपने प्रवास के दौरान इस क्षेत्र में निवास किया, अतः रानगिर एवं एरण (खुरई) शमी के वृक्ष राहतगढ़ के पास, गायों को लेकर भागने की जानकारी प्राप्त होती है। दशरथी टौरिया से पांच नदियां निकली हैं। कहा जाता है कि दशरथ ने तीर मारकर निकाला है। पारस पत्थर भी रानगिर के पास नदी में पड़ा है। इत्यादि इतिहास मिलने से धार्मिकता कूट-कूट कर भरी है। अतः लोकगीतों में भगतें, सावन गीत, बिल्वारी, संक्रांति गीत, जश, बम्म-भूलिया, आल्हा, तमूरा भजन, ढिमरयाई, बधाई, होली-दिवाली, बनरा सोहारों, दस्तोन, भागें-स्वांग, वसदेवा, ख्याल, फागें, वीरगाथा गीत (सैरा), भक्ति गीत आदि अनेकों गीत गाये जाते हैं।
वाद्य यंत्रों द्वारा चिकित्सा – तुमरा, बंशी, ढोलक, मटका, लोटा, एकतारा, लकड़ी, इत्यादि का इस्तेमाल अधिक होता रहा।
(1) वर्षा न होने पर – मेंढक की टांग पकड़कर डोरा से बांदकर, उसे उल्टा लटकाते हैं और गीत गाते हैं। जैसे मिन्दो-मिन्दो पानी दे, पानी दे गुड़ धानी दे।
(2) ओला पड़ने पर – निर्वस्त्र होकर, एक पेर पर खड़े होकर गीत व मंत्र पड़े जाते हैं। लोहे की बढ़ाई धरती पर रख दी जाती है।
(3) माहुलिया – बालिकाएं गाती हैं।
(4) बाबा-डंडियाई – बरात जाने पर महिलायें पुरुष के जाने पर पुरुष भेष में डंडे से बाकी लोगों की पिटाई करते हुये गीत गाती हैं।
इसके सिवाय अनेकों नृत्यों राई, ढिमरयाई, बरेदी नृत्य, आदि अनेकों परिपाटी बुंदेलखण्ड में मनोरंजक, मनोहारी सदैव से रही है। साथ ही अनेकों सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला में क्षेत्र-क्षेत्र के अनुसार निर्मित होती रही हैं।
इन यंत्रों द्वारा गीत संगीत, कहावतों का प्रयोग कर माताऐं बहिने घर के बुजुर्ग अनेकों नृत्य नाटिकाएं व आपस में बैठकर गीत संगीत सुन-सुनाकर अपने अनेकों मानसिक रोग, हृदयजन्य रोग, श्वास रोग, वात रोग इत्यादि अनेक रोगों पर यह चिकित्सा के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। इसी माध्यम से देवी-देवताओं को आहुत करके कष्ट निवारण की प्रथा रही है।