बुन्देलखण्ड में स्थित कोई नगरीय क्षेत्र हो, चाहे दूरस्थ अंचल में स्थित कोई छोटा सा ग्राम, कार्तिक माह में सूर्योदय से पूर्व, समूह में, कृष्ण भक्ति से ओत-प्रोत कार्तिक गीत गाती हुई महिलाओं का मधुर संगीत आपको आनंद विभोर कर देगा। ब्रह्म-मुहूर्त में गृह कार्यों से निवृत्त हो अड़ोस-पड़ोस की महिलाएँ एकत्र हो समूह गायन करती हुईं बसाहट के बाहर स्थित किसी नदी, नाला, तालाब अथवा कूप की ओर (कार्तिक) स्नान हेतु अग्रसर होती हैं। उनका यह क्रम निरन्तर पूरे कार्तिक माह में चलता है। इसी क्रिया को कार्तिक नहावो तथा स्नान करने वाली महिलाओं को कतकारी / कतक्यारी कहा जाता है। पद्म पुराण में कार्तिक स्नान एवं उसके माहात्म्यम् का वर्णन किया गया है-

यथा – कार्तिके मासि ये नित्यं तुलासंस्थे दिवाकरे। प्रातः स्नास्यन्ति ते मुक्ता महापातकिनोऽपि च ।।12।। स्नानं जागरणं दीपं तुलसीवन पालनम्ं। कार्तिकै मासि कुर्वन्ति ते नरा विष्णु मूर्तयः ।।13।। संमार्जनं विष्णुगृहे स्वस्तिकादि निवेदनम्। विष्णोः पूजां च ये कुर्युर्जीवन्मुक्तास्तु ते नराः।। 14।। इत्थं दिनेत्रयमपि कार्तिके ये प्रकुर्वते। देवानामपि ते वन्द्या किं चैवाजन्मतः कृतम्।। 15।। (द्वितीय अध्याय)

कार्तिक स्नान की इच्छुक महिलाएँ शरद पूर्णिमा के पूर्व से ही परस्पर सम्पर्क कर एक समूह का गठन कर लेंती हैं। एक समूह में कितनी ही कतकारी हो सकती हैं गिनती का बन्धन नहीं है। समूह में शामिल महिलायें सखियाँ कहलाती हैं। कार्तिक स्नान का निश्चय हो जाने पर उसकी पूर्व तैयारी के रूप में पूजन सामग्री एवं भोजन सामग्री की व्यवस्था की जाती है। भोजन में दिन में केवल एक बार गेहूँ, जौ अथवा चावल से निर्मित खाद्यान्न ही लिया जा सकता है। शाक-सब्जी के रूप में नौरपा, रजगिरा की भाजी, अरइ या शकरकंद लिया जा सकता है। घी, दूध, दही, शक्कर आदि एवं सेंधा नमक लेने की मनाही नहीं है।

दो दलीय अन्न तथा बहुबीजीय फल वर्जित होते हैं। स्नान का क्रम शरद पूर्णिमा से ही आरंभ हो जाता है। कार्तिक स्नान के संकल्प के रूप में कार्तिक कृष्ण पक्ष चौथ को गोधूलि बेला में गनेश पूजन कर एक श्वेत वस्त्र के आयताकार छोटे से टुकड़े में सैंगी सुपाड़ी, हल्दी की गाँठ, लौंग, इलायची, जौ, पंचरत्नी, कनेर के फूल की बौंड़ी एवं सवा रूपया रखकर उसमें गाँठ लगा दी जाती है। इसे स्नान का संकल्प लेना या गाँठ बाँधना कहा जाता है। अर्घ्य एवं पूजन हेतु धातु का एक नया पात्र भी क्रय कर लिया जाता है जिसे घट कहा जाता है। नदी, नाला, तालाब अथवा कूप के घाट के समीप की भूमि को साफ सुथरा कर वहाँ मिट्टी से एक छोटी वेदिका देवस्थापना हेतु निर्मित कर ली जाती है जो चौंतरिया कहलाती है।

कार्तिक कृष्ण पंचमी से नियमित रूप से कतकारीं अपने अपने समूहों में हर स्थिति में सूर्योदय से पूर्व कृष्ण लीला संबंधी गीत गाते हुए स्नान करने हेतु गन्तव्य स्थान को प्रस्थान करने लगती हैं। नदी तालाब में थोड़े चावल छोड़ती हुई स्नान कर गीले वस्त्रों में सर्वप्रथम ही घट गाँठ सहित सूर्य नारायण को अर्घ्य देकर फिर वस्त्र बदलकर विधिवत् यमुना जी की पूजन अर्चन कर दीपदान करती हैं।