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बुन्देलखण्ड सांस्कृतिक विविधता

बुन्देलखण्ड उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश दो राज्यों में विभक्त ,इसका भूभाग समवेत रुप से एक विशिष्ट सांस्कृतिक प्रदेश है । जिसकी जड़ें वैदिक संस्कृति से पोषित है । यह क्षेत्र सूर्य,अग्नि तथा इन्द्र की पूजा आराधना का विशेष केंद्र रहा है। प्राचीन काल में बुंदेलखंड भरुच , कच्छ, गुजरात, इलाहाबाद ,झूंसी ,श्रृंगवेरपुर से लेकर काफी विस्तृत , मध्यदेश के नाम से प्रसिद्ध रहा है। बुन्देलभूमि महान ऋषियों तपस्वियों की तपोभूमि रही है । नारद और सनकादि ऋषियों ने त्याग-साधना और तपस्या की धूनी यहीं रमाई है । दतिया जिला के सेंवढा सनकुंआ नामक ग्राम में पद्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा के मानस पुत्र सनत कुमार ने यहां तपश्चर्या की थी। नदी के तट पर एक शिव मंदिर है जहां गौमुख से शिवलिंग पर अविरत जल की धारा बहती है। यहीं पर वनस्थली में  शिला नारदा – नारद मुनि की सिद्ध तपस्थली है। झांसी से 16 मील दूर बीजौर और बाघाट   के पास दौन ग्राम में- महाभारत के गुरु द्रोण का जन्म स्थान माना जाता है । यहां छोटी-छोटी पहाड़ियां स्थित है जो द्रोन तलैया कहलाती हैं।  वेदव्यास के पिता महर्षि पाराशर जालौन के पास बेतवा तट पर स्थित पराशन नामक गांव में रहे।  पाराशर ऋषि की दीर्घकालीन साधना की शक्ति इस प्रदेश के कण कण को ऊर्जस्वित बनाती है। ब्रह्माण्ड पुराण में ऋषि पाराशर की प्रशस्ति वर्णित है। यहां अश्विन क्वार मास के पितृपक्ष में मेला भरता है तथा पाराशर तट पर मछलियां चुगाने का बहुत महत्व है। कहा जाता है कि यहीं पर पाराशर ऋषि ने वेतवा पार करते समय मछुआरे धीवर कन्या के प्रति आकृष्ट होकर गंधर्व विवाह किया था और भगवान वेदव्यास का जन्म हुआ था।   

महर्षि वेदव्यास ने कालपी क्षेत्र में महाभारत और पुराणों की रचना की है । पुरातन काल में कालपी में विश्वविद्यालय था।कल्प व्याकरण की शुरुआत सर्वप्रथम कालपी से ही हुई। कालपी में आज भी व्यास टीले के नाम से वेदव्यास का भव्य आश्रम है । बबीना बाल्मीकि की साधना स्थली रही। राठ हमीरपुर में राजा विराट की राजधानी थी। यहां पर दुर्योधन ने लाक्षागृह बनवाया था । कीचक वध स्मारक के स्तंभ यहां पर हैं । ऋषि उद्दालक जिनका दूसरा नाम वाजश्रवा ऋषि था इनका आश्रम बुन्देलखण्ड के उरई जिला जालौन में था । इनके शिष्य कुक्षि ने अपने गुरु बाजश्रवा से वेदों का अध्ययन किया था।  चंदेरी अशोक नगर में शिशुपाल  वर्षों तक शासन करता रहा। बानपुर ललितपुर जनपद में वाणासुर की राजधानी रही।  एरच के शासक हिरण्यकश्यप का वध करने भगवान विष्णु ने नरसिंह रूप यहीं धारण किया था।   

                 चित्रकूट में ऋषिअत्रि अनुसुइया की तपस्थली है । दत्तात्रेय, चंद्रदेव एवं दुर्वासा अत्रि पुत्रों का पालन पोषण इसी धरा पर हुआ। अत्रि-अनुसुइया की पुत्रियों -अपाला,विश्ववारा ने चित्रकूट में साधना की। ऋषि दुर्वासा तो कश्मीर के शैव दर्शन के प्रस्तोता शिव का साक्षात्कार करने वाले  प्रमुख साधक रहे हैं। पन्ना  सारंग  बृहस्पति कुण्ड के लिए प्रसिद्ध है। वृहस्पति पुत्री रोमशा की साधना स्थली पन्ना सारंग रही और भी बहुत सारे ऐसे स्थल हैं जिन्हें एक साथ रखने पर हम बुन्देलखण्ड की धर्म, अध्यात्म और दार्शनिक विरासत को विस्तार से समझ सकते हैं। महोबा  गुरु गोरखनाथ की तपस्थली गिरि पर्वत  और आल्हा ऊदल की वीरता के लिए प्रसिद्ध है।वैदिक ऋषिकाओं में ऋषि अगस्त्य को महर्षि बनाने वाली लोपामुद्रा की साधना स्थली कालिंजर रही।