अवनद्ध वाद्य यन्त्र
June 25, 2024अन्य वाद्य यन्त्र
June 25, 2024ये वे वाद्य यन्त्र हैं जिन पर खाल नहीं मढ़ी होती है तथा आपसी संघर्षण अथवा प्रहार से घनघनाहट, खनखनाहट, टनटनाहट, ढ़कढ़काहट, झनझनाहट आदि स्वर उत्पन्न करते हैं। इन घन वाद्य यन्त्रों में ऐसे भी यन्त्र हैं जिनका हम अपने दैनिक जीवन में अन्य कार्यों में भी उपयोग करते हैं।
मटका
बुन्देलखण्ड में जल को भरकर रखने अथवा नदी, कुऑं, बांवडी, तालाब आदि स्थानों से दैनिक उपयोग हेतु जल लाने के मिट्टी के बने जिस पात्र का उपयोग किया जाता है उसे मटका, घड़ा आदि नामों से जाना जाता है। इसका मुँह छोटा होता है तथा पेट बड़ा होता है एक हाथ में पैसा अथवा धातु की कोई वस्तु लेकर इसके ऊपर प्रकार से थाप निकाली जाती है ताकि दूसरे हाथ में उसे थाप को नियन्त्रित करते हैं। मॉं की अचरी गायन में इसका विशेष प्रयोग होता है। अब तो इसकी पहुँच शास्त्रीय संगीत तक हो गयी है-
कालका मैय्या की अक्षरी गाओं, सब धरम ध्वजा फहराओं।
लहुरे, मटका पर थाप लगाओं, सब मैय्या के ही गुण गाओं।
झांझ
यह वाद्य यन्त्र पीतल या कांसे से बना होता है। इसका आकार गोला होता है तथा इसका व्यास 6 इन्च से 12 इन्च के लगभग रहता है इसका मध्य भाग उभरा हुआ रहता है जिसमें एक डोरा डालकर अन्दर से गांठ लगाई जाती है तथा डोरे के ऊपरी सिरे पर हाथ से पकड़ने की पकड़ बनी होती है। दोनों हाथों में एक-एक झांझ को पकड़कर परस्पर एक दूसरे पर प्रहार करने से झनझनाती झंकार उत्पन्न होती है। यह एक अत्यन्त प्राचीन वाद्य है जिसका उल्लेख पौराणिक ग्रन्थों में झर्झर के नाम से मिलता है। मुरलीधर भगवान श्रीकृष्ण को हृदय में बसाकर उनकी ही आस लगाकर, झांझ चुटकी मृदंग आदि के साथ सखियां गाती हैं –
चुटकी झांझ मृदंग चिकारी, बिच बिच सखियां गावैं प्यारी।
हरदर बंसगुपाल बिहारी, चित में राखत आस जिहारी।।
यहॉं पर फाग, आल्हा, तथा भक्ति गीतों में इसका विशेष उपयोग किया जाता है।
मंजीरा
यह वाद्य भी लगभग झांझ के ही प्रकार का होता है। इसमें अन्तर केवल इतना ही होता है कि यह झांझ के आकार से लगभग एक चौथाई होता है। भक्ति से सराबोर गीतों में यह अच्छी संगत देता है। आजकल तो घरों में संस्कारोत्सवों के अवसर पर गाये जानेवाले गीतों में ढ़ोलक के साथ इसका समुचित प्रयोग होता है। इस वाद्य के प्राचीन होने के प्रमाण नहीं मिलते हैं। फिर भी लोक गीतों, भक्ति गीतों में हमें इसका वर्णन मिलता है। शेष, महेश, सुरेश भी जिन मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्री राम के नाम का स्मरण करते रहते हैं ऐ मन तू मजीरा, झांझ की झनझनाहट के साथ उन्हीं श्री राम जी को भज।
झांझ मजीरा की झान झान में भजले तू रघुराई,
शेष महेश, सुरेश, सदा, श्री राम की देत दुहाई
झींका
यह वाद्य लम्बी लकड़ी की दो पट्टियों के मध्य छै से लेकर दस मोटर तारों से बनता है। इन तारों में पीतल के गोल-गोल छोटे पहिये लगे होते हैं। इस वाद्य को दोनों हाथों से पकड़कर जब हिलाते हैं जब ये पहिये झनझनाहट उत्पन्न करते हैं। भक्ति गीत गायन पुरुष वर्ग द्वारा इसका विशेष प्रयोग किया जाता है।
कसारी
यह एक कांसे की थाली होती है। इसे कसावरी, कसेरू आदि नामों से भी पुकारते हैं। इसे एक हाथ से पकड़कर दूसरे हाथ में पकड़े किसी चमचे के प्रहार से इसे बजाया जाता है। पुत्र जन्म की सूचना देने तथा पुत्र को इस दुनिया की जानकारी देने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। कहते हैं इसके शब्द से नवजात बालक की ऑंखे खुलने लगती है और वह अपने रूदन के द्वारा अपनी ओर सबका ध्यान आकर्षित करताा है। वृन्दावन में नन्द रानी के द्वार पर बधाई बज रही हैं और घर-घर में इस कसारी को बजाकर सभी लोग भगवान श्रीकृष्ण के आगमन का आनन्दोत्सव मंगलाचार गा कर मना रहे हैं।
नन्द रानी महल के द्वारे बधाई बाज रही,
जुर मिलके सब सखी सहेली गा रही मंगलाचार।
घर-घर बजत कसारी सुन्दर, झूमल बन्दनवार।
लुटिया
घर की दिनचर्या में प्रति काम आने वाला गिलट अथवा पीतल को लोटा भी एक वाद्य के रूप में यहां पर प्रयोग किया जाता है। इसे खाली रखकर इस पर दो धात्विक क्षणों के प्रहार से बजाया जाता है। इसमें से निकलने वाली टन टन की ध्वनि बहुत मधुर होती है। मॉं की अचरी गायन तथा दीपावली के दीवारी नृत्य में इसका बहुत उपयोग होता है। आध्यात्मिक चेतना हेतु माया से विलगता एक अनिवार्य लक्षण है। इसीलिये इस लोटे वाद्य की टनटनाहट की तुलना मायाजाल से करते हुये परमेश्वर की आराधना हेतु प्रेरित करते हुये गाया जाता है –
रे मन तोहे प्रभु चरचा ना भावै,
लोटा की टनटन जैसी माया तोय भरमावै,
तू तो दुष्टन में सुख पावै, तोय धरम न भावै।
चटकोला
पीतल अथवा लोहे की दो पतली छड़ों की मदद से यह बनता है। जिसके एक ओर एक गोल छल्ला लगा रहता है। इसके दो अग्र भाग खुले रहते जिनके परस्पर आघात से किट-किट, चट-चट किटकिटाहट, चिटचिटाहट की ध्वनि को संगीतमय बनाते हुये बुन्देलखण्ड में सरमन वसुदेवा की कथा गाते समय, साधु लोग भजन करते समय तथा गौड़ जाति की महिलायें अपना शैताम नृत्य करते समय उपयोग करती हैं। इसे चिमटा, चिमटी, चमीटा भी कहते हैं। राधिका जी के जोगन होने तथा चमीटा बजाकर गॉंव में घूमने जैसी परम स्नेही स्थिति का दिव्य चित्रांकन महाकवि ईसुरी ने करते हुये लिखा है –
जोगन भई राधका तोरी बरस बीस की गोरी,
राख लगाये लटै छुटकायें डरी कदा पै झौरी।
गावें बजत चमीटा चुटकी चमक रही न चोरी,
उन गुपाल से कहौ ईसुरी जे गुपाल की गोरी।
लकड़ी
पतली-पतली दो लकड़ियों के आपसी प्रतिघात से उत्पन्न खट-खट खट खटाहट को बुन्देली लोक जीवन में संगीत के वैकल्पिक वाद्य के रूप में स्वीकार किया जाता है। तभी तो यहाँ पर दिवारी जैसे पुरुष प्रधान नृत्य में ये लकड़ियॉं आपसी खट खटाहट से वह लय और ताल पैदा करते हैं जिन पर पुरुषों के अंग-अंग थिरक उठते हैं। यह गीत यहॉं की थिरकन तथा लकड़ियों की खट खटाहट प्रदर्शित करता है –
दियन से फल रहो अजियारो, अज्ञानी करि को मौ
भओ कारो
सबरे मौड़ा, उछल-उछल के भर रये हैं हुंकारों
अपने हाथ से बजा के लकड़ी, समां बंधो मतवारो।