जातिगत लोक नृत्य
June 24, 2024मनोरंजन नृत्य
June 24, 2024बुन्देलखण्ड क्षेत्र एक विस्तृत भू भाग है जिस पर भौगोलिक दृष्टि से कहीं-कहीं विशाल जंगल हैं तो कहीं-कहीं पथरीली चट्टानें। इन्हीं क्षेत्रों में कोलभील, गोंड, बंगकाबर आदि प्राचीन आदिवासी प्राचीन आदिवासी जन जातियां रहती हैं और अपनी प्राचीन परम्पराओं पर दृढ़ आस्था एवं विश्वास रखते हुये हर्ष एवं उल्लास के क्षणों को इन नृत्यों के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं। ये नृत्य विशेषतः सामूहिक होते हैं। इन आदिवासियों के नृत्यों में तीन प्रकार के नृत्य प्रमुख हैं।
शैतान नृत्य
यह नृत्य भोई जाति के लोगों का नृत्य है जो कि विवाह के उल्लास पूर्ण वातावरण में होता हैं जिसमें समाज का ओझा ढाक लेकर मध्य में खड़ा होकर नाद करता है तथा भोई जाति की आदिवासी स्त्रियाँ उस ओझा को चक्रकार रूप में घेरकर खड़ी हो जाती हैं तथा ढाक की थाप के साथ-साथ अपने पैरों को कम्पन देती हैं और अपने हाथ में चटकोरा बजाते हुये नृत्य प्रारम्भ करती हैं। ओझा गीत गाता है और सभी स्त्रियां गीत को गाते हुये आनन्द में सरोवर हो उठती हैं। इस नृत्य के अवसर पर गाये जाने वाले गीत भावना प्रधान होते हैं एवं समाज सुधारक भी होते हैं। आदिवासियों में बालविवाह के विरोध का प्रथम स्वर यह लोक गीत प्रस्फुटित करता है –
मॉंगत माखन रोटी कन्हैयालाल, मॉंगत माखन रोटी
अपने लला कौं रोटी बनावौ रे एक छोटी एक मोटी
मॉंगत माखन रोटी…………………………………. ।
अपने लला कौं बहु ल्याओ एक छोटी एक मोटी
करमा नृत्य
यह नृत्य मूलतः वथेली लोक नृत्य था परन्तु अब यहाँ बुन्देलखण्ड में भी आदिवासी जनजातियों में यह नृत्य देखने को मिलता है। इस नृत्य को वर्तमान गोड, बेगकावर, भूमि आदि जन जातियों के लोगों के नृत्य के रूप में मान्यता मिलती है। यह एक प्रकार का कृषि नृत्य है जिसमें एक पुरुष कदम्ब की झाड़ी को लेकर मध्य में खड़ा हो जाता है तथा अन्य पुरुष गण अपने-अपने हाथों में कदम्ब की डाल लेकर झूमते हुये मस्ती में थिरकते हैं। इस नृत्य के बाद कदम्ब की डाली लेकर स्त्रियाँ उठाकर ग्राम की परिक्रमा करती हैं। यह नृत्य भगवान श्री कृष्ण को समर्पित करके होता है उन्हीं को करम भगवान कहा है। इस नृत्य के अलग-अलग अनेक भेद हैं जैसे- लहकी, झूमर खलहा, थापनी, झुलनिया, सिरकी, घटवार, एकतारिया, पेडेहर, दोहरी, तेगवानी करमा आदि। यह नृत्य वृन्दावन में महायोगी कृष्ण द्वारा शरद पूर्णिमा को किये गये महारास के नृत्य की स्मृति को ताजा करता है। इस नृत्य के समय का गीत भी मनभावन व वेदान्त से परिपूर्ण है –
या चोला का मत कर गुमान, बचाने वालों कोऊ नईयाँ रे,
कौड़ी-कौड़ी माया जोरै, हो गई लाख करोर।
निकर प्राण बाहर हो गये, मिचका मिचका होय,
इस करमा नृत्य के समय ददरिया गाया जाता है। समाज की यथार्थता का भान इन पंक्तियों से सहज ही हो जाता है।
चना तो फूटै फूटत गहियाय,
बालापन की दोसदारी फूटत नहिं आय।
नृत्य के समय श्रृंगार गीत भी गाये जाते हैं जो कि नर्तक की भाव प्रवणता में प्रखरित होकर और अधिक हृदयगामी एवं मन हृदय गुदगुदाने वाले हो जाते हैं। देखें –
छोटी-छोटी दुरिया के, लम्बे-लम्बे जूरा रे,
लहरि लगावै, मझोले के टूरा रे।
शैजा नृत्य
यह नृत्य बैंगा आदिवासियों का वह नृत्य है जो पुरुष प्रधान है इसमें एक पुरुष मध्य में खड़ा होता है तथा अन्य पुरुष मडण्लाकार या द्विपंक्तिबद्ध होकर अथवा जुट बन्दी में नृत्य को करते हैं। इस नृत्य में शारीरिक क्षमताओं का भी उछल कूद कर प्रदर्शन किया जाता है और अन्ततः सर्पाकार रूप में नृत्य होता है। इस नृत्य के कई प्रकार हैं। जैसे- हरौला शैला, भरोला शैला, शुलयों सकार शैला, अटरि शैला, लहकी बैठक आदि नृत्य में डंडों लाठियों का प्रयोग होता है। अतः छिन्दवाड़ा बैतूल आदि स्थानों पर इसे डण्डा नृत्य कहा जाता है। इस समय गाने वाले नृत्य नीरस होते हैं।