पपौरा जी
July 26, 2024भोजपुर
July 26, 2024कैमोर पर्वत की तलहटी और हिरन नदी के तट पर अतिशय दिगम्बर जैन तीर्थ-क्षेत्र कोनी जी जबलपुर से पाटन की ओर जाने पर मात्र 37 किलो मीटर दूर अवस्थित है। मध्य रेलवे से जबलपुर स्टेशन होकर बस से पाटन 35 किलो मीटर और वहाँ से 5 किलो मीटर दूर पक्के रोड पर ही कोनी जी दर्शनीय है। कुछ वर्षों पूर्व 108 आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ प्रवास पर यहाँ आये थे और तब इस पर्वत को कुण्डलाकार होने के कारण कुण्डलगिरि नाम दिया गया। इसलिये कोनी जी अब कुण्डलगिरि के नाम से भी जाना जाने लगा है।
इतिहास
इस तीर्थ पर विद्यमान शिल्पकला, कलचुरि कालीन और अधिकांश सृजन 10वीं-11वीं शताब्दी का है। प्राचीन और महत्वपूर्ण रचनाओं में यहाँ का सहस्रकूट चैत्यालय एवं नंदीश्वर द्वीप की रचना विशिष्ट रूप से उल्लेखनीय है। जो अन्यत्र विरल है।
पुरातत्व
वर्तमान में यहाँ कुल 9 मंदिर शेष हैं। हालांकि यहाँ के शिल्पावशेष इस तीर्थ की गाथा कुछ अधिक एवं प्राचीन ही कहते प्रतीत होते हैं। 1934 में भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी की रिपोर्ट में यहाँ के 13 मंदिरों का उल्लेख है। इसका आशय यह हुआ कि 1934 से 2003 की अवधि में ही 4 मंदिर धराशाई हो चुके हैं। आजादी के कुछ वर्षों पूर्व ही इस तीर्थ को प्रकाश मिल सका। विशेष अतिशयों में यहाँ पार्श्वनाथ भगवान की विशाल पद्मासन प्रतिमा और एक गर्म मंदिर भी चर्चाओं में रहा है।
तीर्थ-वर्णन
एक बड़े दरवाजे से प्रवेश कर परकोटे में क्षेत्र के समस्त जिनालय विद्यमान हैं।
पहले मंदिर में मूल नायक 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ जी हैं। एक 1 फुट 8 इंच ऊँचे शिलास्तंभ में भी तीर्थंकर मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। 1 फुट 5 इंच ऊँची पद्मासन तीर्थंकर मूर्ति के दोनों और चमरेन्द्र दर्शाये गये हैं। चन्द्रप्रभु तीर्थकर की 2 पद्मासन प्रतिमायें भव्य हैं। तीसरे मंदिर के मूल नायक पार्श्वनाथ स्वामी हैं। यह सन् 1828 की प्रतिष्ठित पद्मासन प्रतिमा है। एक फुट 2 इंच के एक पाषाण खण्ड में विदेह क्षेत्र के 20 तीर्थंकरों की रचना है। 2 फुट 5 इंच की 2 प्राचीन तीर्थंकर मूर्तियाँ भी यहाँ विद्यमान हैं।
सहस्त्रकूट चैत्यालय
वस्तुतः सहस्र अर्थात एक हजार और कूटं का तात्पर्य चोटी से होता है। चैत्यालय, जिनालय तो नहीं होते पर जिनालय की प्रतीकात्मक विधा के रूप में मान्य हैं। जैन दिगम्बर परम्परा में ऐसे निर्माणों में एक हजार आठ मूर्तियाँ निर्मित की जाती हैं। चूँकि यह मूर्तियाँ एक जैसी होती हैं और इनका कोई चिन्ह नहीं होता। अतः विशेष तीर्थंकर के आलय तो यह होते नहीं पर एक हजार आठ एक जैसे भगवान के रूप बनाने का आशय कदाचित भगवान के एक हजार आठ नामों के प्रतीकों की एक सी रचना कर उन समस्त नामों से स्तुति अर्थात् पूजन से होता है। आदि पुराण पर्व 25 श्लोक 224 में आदिनाथ भगवान की स्तुति इन्द्र द्वारा सहस्र नामों से की गई है।
सहस्रकूट की रचना गुप्तोत्तर काल में ही प्रायः मिलती है और यह विरल ही उपलब्ध है। यथा-बानपुर, पटनागंज, देवगढ़ आदि। कोनी जी में आठवें मंदिर से सहस्रकूट चैत्यालय छटवें मंदिर में स्थानांतरित किया गया था। अष्टकोणीय इस सृजन में तीन भाग हैं। नीचे के भाग में 1 फुट 10 इंच की 408 मूर्तियाँ, मध्य में 1 फुट 11 इंच की 360 और फिर 1 फुट 11 इंच की 120 मेरुओं में 118, इस तरह कुल 1008 मूर्तियाँ जड़ी हुई हैं।
अन्य सातवें मंदिर में सफेद, पद्मासन, 4 फुट ऊँची विघ्नहरन भगवान पार्श्वनाथ की सन् 1806 ई. में प्रतिष्ठित सिद्ध मूर्ति है। आठ प्राचीन एवं नवीन अन्य मूर्तियाँ भी यहाँ है।
नौवें जिनालय में 52 मंदिरों वाले नन्दीश्वर द्वीप की रचना भी दर्शनीय है। चार स्तम्भों पर एक वेदी, मण्डप में नीचे है। यह महत्वपूर्ण सृजन वंदनीय है। यह भी मध्य लोक में स्थित आठवें द्वीप के प्रतीक रूप में पूज्य होता है। चूँकि वास्तव में वहाँ पूजा करने मनुष्य पहुँच नहीं सकता इसलिये उन स्थलों की यहाँ रचना कर प्रतीक रूप में स्तुति की जाती है।
इस तीर्थ पर यात्रियों के ठहरने के लिये पर्याप्त सुविधायुक्त व्यवस्था है शांति है, दर्शन है, पुरातत्व है, अध्यात्म है, पूजा है, और प्राकृतिक रूप से सुखद है।