
राय प्रवीण महाकवि केशवदास (1552-1608) की समकालीन
February 10, 2025
रानी लक्ष्मी बाई (1935-1858)
February 10, 2025-सारिका ठाकुर
मस्तानी बाजीराव का जीवन जितना संघर्षपूर्ण और विवादित रहा है, उतना ही विवादित उनका वास्तविक परिचय भी है। छतरपुर जिले से लगभग 15 कि.मी. दूर मऊ सहानिया में ‘मस्तानी महल’ सैलानियों के लिये मुख्य आकर्षण है। इसे 1696 में महाराजा छत्रसाल ने अपनी बेटी मस्तानी के लिये बनवाया था। इस प्रमाण के बावजूद इतिहास के दस्तावेजों में मस्तानी के जन्म स्थान को लेकर कई तरह की कहानियाँ पढ़ने को मिलती हैं।
मस्तानी का उलझा हुआ परिचय
कुछ इतिहासकार उन्हें अफ़गान मूल का, तो कुछ उन्हें गूजर जाति का मानते हैं। गुजरात के लोकगीतों में तो इन्हें ‘नृत्यांगना’ या ‘यवन कांचनी’ के नाम से संबोधित किया गया है। इतिहासकार भगवानदास गुप्ता के अनुसार, “मस्तानी के प्रारंभिक जीवन के सम्बन्ध में कोई भी विश्वसनीय विवरण उपलब्ध नहीं है। अधिकतर यही धारणा प्रचलित है कि छत्रसाल ने ही उसे पेशवा को भेंट किया था। बुंदेलखंडी जनश्रुतियों के अनुसार वह छत्रसाल की मुगलानी उप पत्नी से उत्पन्न कन्या थी।” इतिहासकार पुरुषोत्तम राव ‘नायक’ डबीर लिखते हैं “यह तरुण बाला (मस्तानी) अत्यंत सुंदरी थी और छत्रसाल की कोई यवन कुलोत्पन्न संभ्रांत उप पत्नी की गर्भजात कन्या थी।”
तारीखे मुहम्मदशाही में उल्लेख है कि “यह एक कचनी (नर्तकी) है जो घोड़े की सवारी करने तथा तलवार और भाला चलाने में निपुण है। वह बाजीराव के अभियानों में सदैव उसके साथ रहती है और उसके साथ कदम मिलाकर चलती है।”
दूसरी तरफ सुप्रसिद्ध इतिहासकार गोविंद सखाराम सरदेसाई ने लिखा है कि “मस्तानी का वंश अज्ञात है। परंपरा से वह एक हिंदू पिता और मुसलमान माता की संतान कही जाती है। उसके नाम का सर्वप्रथम उल्लेख बाजीराव के ज्येष्ठ पुत्र नाना साहेब के विवाह सम्बन्धी वृतांत के पत्रों में है। यह विवाह 11 जनवरी, 1730 को हुआ था। उसी वर्ष बाजीराव ने पूना में अपने ‘शनिवारवाड़ा भवन’ का निर्माण किया था जिसका नाम उसकी प्रेयसी के नाम पर ही रखा गया।”
बुन्देलखंडी जनश्रुतियों और स्थूल प्रमाण ‘मस्तानी महल’ की रोशनी में मस्तानी को मध्यप्रदेश की बेटी स्वीकार किया जा सकता है। बेहद खूबसूरत मस्तानी कुशल नृत्यांगना और गायिका होने के साथ-साथ कुशल योद्धा भी थी। श्री सरदेसाई एवं श्री राव की पुस्तकों में दर्ज विवरणों से ज्ञात होता है वह घुड़सवारी, तीरंदाजी एवं भाला फेंकने में माहिर थीं। उसकी परवरिश राजकुमारियों की तरह हुई थी। कलाप्रेमी राजा छत्रसाल अपनी इस बेटी से बहुत प्रेम करते थे। सन् 1727 में मोहम्मद ख़ान बंगश – जो उस समय प्रयाग का सूबेदार था, ने बुंदेलखंड पर हमला कर दिया। राजा छत्रसाल जैतपुर किले में शत्रुओं से चारों तरफ से घिर गये थे, जिसमें मराठा पेशवा बाजीराव प्रथम ने उनकी मदद की और बंगश को पराजित होना पड़ा। छत्रसाल ने पेशवा को धन्यवाद स्वरूप अपनी पुत्री और अपने राज्य का एक तिहाई भाग सौंप दिया।
पुरुषोत्तम राव मुंशी श्यामलाल की पुस्तक ‘तवारीख-ए-बुंदेलखंड’ के हवाले से लिखते हैं कि वीर पेशवा की अनिच्छा होने पर भी वह वृद्ध राजा छत्रसाल का अनुरोध न टाल सके और मस्तानी का पाणिग्रहण किया। परन्तु कुछ काल के उपरान्त वही पेशवा नृत्य-गान और वाद्य प्रवीणा विदुषी मस्तानी के बिना एक क्षण नहीं रह पाते थे।
इस विवरण से यह स्पष्ट होता है कि मस्तानी, बाजीराव की रक्षिता न होकर परिणीता थीं जिसे उनके परिवार ने स्वीकार नहीं किया। मराठों का नवीन इतिहास भाग-2 के अनुसार बाजीराव का उस पर प्रगाढ़ स्नेह था तथा अपने घटनापूर्ण जीवन की समस्त प्रेरणा वह उसकी संगति में प्राप्त करता था। वह हिन्दू महिलाओं की भाँति कपड़े पहनती, बातचीत करती तथा रहती थी और एक पत्नी की भाँति बाजीराव की सुविधाओं का सदैव ध्यान रखती थी। अतः कोई आश्चर्य की बात नहीं कि आयु के साथ-साथ बाजीराव की आसक्ति उसके प्रति बढ़ती ही गयी।
पुरुषोत्तम राव भी लिखते हैं कि “उस रमणी में नृत्य गान विद्या आदि गुणों के साथ साहित्य, राजनीति और युद्ध कौशल आदि के भी गुण विद्यमान थे। इसलिये वीर पेशवा वीरांगना मस्तानी को युद्धक्षेत्र में भी सदा अपने निकट रखते थे और मस्तानी भी उनकी आज्ञा का सर्वदा पालन करती थी।”
पारिवारिक विरोध एवं षड्यंत्र
ब्राह्मण कुल के बाजीराव विवाहित थे, उनकी पत्नी का नाम काशी बाई था। उनका एक पुत्र भी था बालाजी बाजीराव, जो कालांतर में नाना साहेब के नाम से प्रसिद्ध हुए। महाराज छत्रसाल ने भले ही मस्तानी का लालन-पालन पुत्रीवत किया हो, बाजीराव की द्वितीय पत्नी बनने के बाद भी ससुराल पक्ष के लोगों ने उनका एक मुसलमान की पुत्री कहकर तिरस्कार ही किया। 1730 ईस्वी में बाजीराव ने पुणे में मस्तानी के लिये शनिवारवाड़ा भवन का निर्माण करवाकर उसे मस्तानी महल और उसके द्वार को मस्तानी दरवाजे का नाम दिया। दूसरी तरफ बाजीराव से परिवार के लोग रुष्ट होकर उन्हें एक प्रकार से पतित मानने लगे थे, क्योंकि बाजीराव माँस और मदिरा का सेवन करने लगे थे जो कि महाराष्ट्र के ब्राह्मण समाज में पूरी तरह निषेध माना जाता है। परिवार का मानना था कि यह सब मस्तानी के प्रभाव में ही हुआ। इस सन्दर्भ में श्री सरदेसाई एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखते हैं, “उस समय बाजीराव सामाजिक समालोचना का कारण बन गया था। यह संभव है कि उस समय इस संकट का तत्कालीन कारण रघुनाथराव का यज्ञोपवीत संस्कार तथा सदाशिवराव का विवाह संस्कार हो, उस समय पुरोहित लोग इन संस्कारों में बाजीराव सदृश दूषित व्यक्ति की उपस्थिति में अपना कार्य करने को तैयार न थे।”
वैसे श्री सरदेसाई इस तर्क से असहमति दर्ज करते हैं कि बाजीराव माँस एवं मदिरा का सेवन मस्तानी की संगति के कारण करते थे। वे लिखते हैं, “बाजीराव सदृश व्यक्ति जिसको एक सैनिक का जीवन व्यतीत करना पड़ता था, ब्राह्मण जाति के कठोर नियमों का पालन नहीं कर सकता था क्योंकि सभी प्रकार के लोगों से उसका स्वतंत्रतापूर्वक मिलना होता था। महाराष्ट्र के एक ब्राह्मण के संकीर्ण निषेधात्मक जीवन में ये आकस्मिक परिवर्तन स्वाभाविक एवं अनिवार्य थे क्योंकि उसको दूरस्थ प्रदेशों में प्रयाण करना होता था तथा राजपूत दरबारों के संपर्क में आना पड़ता था, जहाँ पर मदिरापान, माँसाहार तथा धूम्रपान प्रायः हुआ ही करता था।”
पारिवारिक विरोध एक समय में अपने चरम पर पहुँच गया। उस समय बाजीराव अपनी समस्त जिम्मेदारियों को भूलकर मस्तानी के साथ जीवन व्यतीत करने लगे थे। क्रोधित होकर उनके छोटे भाई चिमाजी बल्लाल भट्ट ने संन्यास लेने की घोषणा कर दी, जिसके बाद बाजीराव जैसे नींद से जागे और पूर्ववत अपनी पेशवाई संभालने लगे, लेकिन मस्तानी को उन्होंने खुद से दूर नहीं किया।
समय के साथ इस प्रेमी युगल के खिलाफ चल रहे षड्यंत्रों ने परिवार की दहलीज को लाँघकर राजनीतिक रूप धारण कर लिया। विरोधी इस प्रेम सम्बन्ध का कुत्सित प्रचार कर आम लोगों की नजर से उन्हें गिराने की कोशिश करने लगे। दोनों के बीच सम्बन्ध विच्छेद करवाने की भी कई कोशिशें हुईं। 1734 में मस्तानी ने बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम शमशेर बहादुर रखा गया। इसी के साथ षड्यंत्रों की आग भी भड़कती चली गयी।
सन् 1739 में बाजीराव, पुणे से बाहर नासिर जंग के साथ अपने अंतिम युद्ध में व्यस्त थे। मस्तानी उनके साथ नहीं जा सकीं। चिमाजी और नाना साहब (बाजीराव और काशीबाई के पुत्र) ने मिलकर एक योजना बनायी और पूना के पार्वती बाग़ में मस्तानी को बंदी बना लिया गया। इस घटना से बाजीराव अत्यधिक दुःखी हुए और अवसादग्रस्त रहने लगे। वे पूना आकर अपनी प्रेयसी को अपने बाहुबल से मुक्त करवा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उन्हें समाज के लोगों का क्रोध भड़क जाने का अंदेशा था।
श्री सरदेसाई लिखते हैं कि कट्टर दल मस्तानी को शायद मार ही डालना चाहता था, क्योंकि उनके अनुसार उनके कष्ट का एकमात्र कारण वही थी। उन लोगों ने राज्य के मंत्री को इस हिंसक कार्य के लिये राजा से (छत्रपति राजा शाहूजी) आज्ञा प्राप्त करने के लिये लिखा, परन्तु राजा अधिक बुद्धिमान था। 24 जनवरी, 1740 को गोविन्दराव (मंत्री) लिखता है ‘मस्तानी के विषय पर मैन निजी तौर पर राजा की इच्छा का पता लगा लिया है। बलपूर्वक पृथक्करण या व्यक्तिगत निरोध के प्रस्ताव के प्रति उसको गंभीर आपत्ति है। वह बाजीराव को किसी भी प्रकार अप्रसन्न किया जाना सहन नहीं करेगा क्योंकि वह उसे सदैव प्रसन्न रखना चाहता है। दोष उस महिला का नहीं है। इस दोष का निराकरण उसी समय हो सकता है जब बाजीराव की ऐसी इच्छा हो। बाजीराव की भावनाओं के विरुद्ध हिंसा प्रयोग की कैसी भी सलाह, राजा किसी भी कारण से नहीं दे सकता।”
इधर घर के बड़ों ने बाजीराव को समझाने की असफल कोशिश की। उस समय वे पुणे के निकट पटास नामक स्थान पर थे। बाजीराव मस्तानी से अलगाव के साथ ही उसे कारागार से न छुड़ा पाने के दुःख से भी व्याकुल थे।
बाजीराव का निधन एवं मस्तानी का अज्ञात अंत
उस समय तक किसी को अनुमान नहीं था कि बाजीराव कुछ ही दिनों के मेहमान हैं। 7 मार्च, 1740 को नाना साहेब के नाम लिखी गयी चिमाजी की एक चिट्ठी से ज्ञात होता है कि उस समय बाजीराव अवसादग्रस्त थे। “जब से हम एक-दूसरे से विदा हुए हैं, मुझको पूजनीय राव से कोई समाचार प्राप्त नहीं हुआ है। मैंने उसके विक्षिप्त मन को यथाशक्ति शांत करने का प्रयास किया, परंतु मालूम होता है कि ईश्वर की इच्छा कुछ और ही है। मैं नहीं जानता हूँ कि हमारा क्या होने वाला है। मेरे पुणे वापस होते ही हमको चाहिये कि हम उसको (मस्तानी को) उसके पास भेज दें।” स्पष्ट है उस समय बाजीराव, मस्तानी के वियोग में बेचैन और दुःखी थे जिसकी वजह से उनका स्वास्थ्य निरंतर गिर रहा था। श्री सरदेसाई लिखते हैं “28 अप्रैल, 1740 को नर्मदा के दक्षिणी तट पर रावर (वर्तमान में रावरखेड़ी) के स्थान पर अचानक बाजीराव का देहांत हो गया।” रावरखेड़ी में आज भी उनकी समाधि देखी जा सकती है।
उनके अंतिम क्षण में उनकी पत्नी काशी बाई उनके साथ थीं जो बहुत पहले उन्हें माफ़ कर चुकी थीं। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इसके बाद मस्तानी बाजीराव की चिता के साथ सती हो गयीं। इस तरह मस्तानी के जन्म की तरह उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में भी कई कहानियाँ प्रचलित हैं। एक मत के अनुसार उन्होंने आत्महत्या कर ली, कुछ मत के अनुसार अत्यधिक शोक के कारण उनकी मृत्यु हुई। उनका शव पूना के पूर्व में स्थित गाँव पाबल भेज दिया गया जो बाजीराव ने उन्हें उपहार स्वरूप दिया था। यहीं मस्तानी को दफना दिया गया, जीर्ण-शीर्ण अवस्था में एक साधारण सी कब्र आज भी यहाँ देखी जा सकती है। बाजीराव और मस्तानी के पुत्र शमशेर बहादुर उस समय बहुत छोटे थे, उनका पालन-पोषण काशी बाई की देखरेख में हुआ। अपने जीवन काल में ही बाजीराव ने कालपी और बाँदा की सूबेदारी उन्हें देने की घोषणा कर दी थी। शमशेर बहादुर जीवन भर परिवार के वफादार रहे। वर्ष 1761 में पानीपत की लड़ाई में वे मारे गये।
सन्दर्भ स्रोत -
वीर मराठा बाजीराव पेशवा, पुरुषोत्तम राव ‘नायक’ डबीर, प्रकाशक-चौधरी एंड संस-1935
मराठों का नवीन इतिहास भाग-2, गोविन्द सखाराम सरदेसाई
बुंदेलखंड केसरी महाराजा छत्रसाल बुंदेला, डॉ. भगवानदास गुप्ता, प्रकाशक-शिवलाल अग्रवाल एंड कं.-1958