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भाषा समिति

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बुन्देल धरा अत्‍यन्‍त प्राचीन है। आदिमानव इस पुण्‍य धरा पर रहा होगा और मानव-जीवन के साथ भाषा, संस्कृति का विकास भी इसी बुन्देलखंड से अवश्य हुआ होगा। तब न तो इस भू-भाग का नाम बुन्देलखंड था और न ही भाषा का कोई नाम था। परन्तु था सब कुछ यही; यही जमीन और प्राकृतिक परिदृश्य-पर्वत, नदियाँ, वन-उपवन… आदि सब। इस प्राकृतिक वातावरण में आदि मानव ने जब बोलना-बतियाना शुरू किया होगा तो उस भाषा को संस्कृत भाषा कहा गया। जिसे आज के भाषा वैज्ञानिक प्राकृत भाषाएँ अथवा अपभ्रंश नाम देते हैं। इन ऊबड़-खाबड़ भाषाओं को कालान्तर में संस्कारित किया गया।

सबसे पहले ऐसी सु-संस्कृत भाषा ने संस्कृत नाम पाया। शेष जो सु-संस्कृत नहीं हो सकीं वे प्राकृत या अपभ्रंश के रूप में संस्कृत के समानान्तर लोक में प्रचलित रहीं, जिन्हें कालान्तर में ‘लोक भाषा’ कहा गया। इन्हीं लोक भाषाओं की एक इकाई बुन्देली है वह न तो संस्कृत की बेटी है न ही हिन्दी की और न सौरसेनी… आदि से आयी…। सभी प्राकृत रूप में एक साथ जन्मीं, वे सभी परस्पर बहिनें ही थीं उन बहिनों में एक ने संस्कार प्राप्त कर संस्कृत का रूप धारण कर लिया। फिर आज जो समृद्ध साहित्य धारिणी संस्कृत हमारे समक्ष है, वह पाणिनि की ही देन है। पाणिनि पूर्व की संस्कृत बुन्देली के अधिक निकट थी। इसीलिए वर्तमान संस्कृत की प्रकृति हिन्दी की अपेक्षा अनेक भाषाओं विशेषतः बुन्देली के अधिक निकट हैं। मानव संस्कृति के साथ सबसे पहले जन्मी इसलिए सबसे ज्येष्ठ भी है वह।

लोक भाषाएँ जिनमें बुन्देली अति प्राचीन है संस्कृत की बहिनें हैं, संस्कृत सु-संस्कार प्राप्त करके बड़े घर में पहुँच गयी और शेष बहिनें अनपढ़-अनपढ़ रहकर विन्ध्याचल के लोक साहित्य में सिमटकर रह गयीं। संस्कृत में अभिजात्य साहित्य रचा जा रहा था और लोक साहित्य अपनी मौखिक परम्परा में फूल-फल रहा था। लोक साहित्य में भी बुन्देल धरा पर लोक गाथाएँ गायीं गयीं ‘जिनमें ‘आल्हा’ की गाथा (1230) भारत की अन्य लोक भाषाओं में अधिक प्रचलन है। जबकि उस समय संस्कृत साहित्य तो राज दरबारों में स्थापित था। कालान्तर में विद्वान मनीषियों की दृष्टि इन लोक भाषाओं और उनके मौखिक परम्परा में विकसित लोक साहित्य पर पड़ी और इनमें भी अभिजात्य साहित्य लिखने क्रान्तिकारी कदम आगे बढ़ाया। पहला कदम तो ग्वालियर के महाराजा डूंगरेन्द्र सिंह तोमर (शासन 1425-1459 ई.) के राजकवि विष्णुदास ने ही आगे बढ़ाया था। इन लोक भाषाओं में रचे गये अभिजात्य साहित्य की भाषा को ‘भाखा’ ‘या’ ग्वालेरी’ नाम दिया गया। विष्णुदास ने 1435 ई. में ‘महाभारत’ नामक महाकाव्य रचा।

यह पहली घटना थी जब संस्कृत की परम्परा से हटकर भाखा (ग्वालेरी) में अभिजात्य साहित्य प्रणीत हुआ। आज विद्वानों ने इस ‘महाभारत’ को हिन्दी का पहला महाकाव्य एक स्वर में स्वीकारा। जबकि उस समय हिन्दी भाषा तो क्या हिन्दी नाम का भी जन्म नहीं हुआ था। विष्णुदास के पूर्व लोक में व्याप्त लोक साहित्य के आधार पर ही वेद से संस्कृत में ‘महाभारत’ और वाल्मीकि ने ‘रामायण’ की रचना की थी। इन दोनों महाकाव्यों के पूर्व ये लोक साहित्य की मौखिक परम्परा में गायी जा रही थीं। बुन्देलखंड में ‘पंडवा’ छत्तीसगढ़ में पंडवानी राजस्थान में ‘पाँचकड़ा’… आदि लोक गाथाओं का अनादिकाल से लोक में प्रचलन इसका प्रमाण समक्ष है तात्पर्य यह कि लोक भाषाओं और उनके लोक साहित्य ने संस्कृत में लिखे गये अभिजात्य एवं उसके रचनाकारों तक को प्रेरणा व ऊर्जा प्रदान की है। हिन्दी तो बहुत बाद में यानी कि अब से डेढ़ सौ वर्ष अस्तित्व में आयी और अपनी कलाबाजी करके एक-एक करके इन लोक भाषाओं में चलती चली गयी। ‘विष्णुदास कृत ‘भाखा’ (बुन्देली का पूर्व नाम) के महाकाव्य ‘महाभारत’ (1435 ई.) को प्रथम महाकाव्य कहा जाना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

बुन्देली की प्रकृति में ‘श’ के स्थान पर दन्त्य ‘स’ और ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ ध्वनि का प्रयोग है- सीस, बीर आदि। इतना ही नहीं वर्तमान बुन्देली में प्रयुक्त एवं प्रचलित शब्द श्री ज्यों के त्यों हैं–सुपेती, गेंडू (तकिया जिसे बुन्देली में गेंडुआ भी कहते हैं) उसी से (सिरहाने) पिछा (पश्चिम दिशा) पियासी, बान, पर्यो आदि शब्द ठेठ बुन्देली के हैं हिन्दी के नहीं। फिर यह कैसी माया ? कि उसको हिन्दी का पहला महाकाव्य कहा जा रहा है? भले उस काल में इस भाषा के लिए बुन्देली शब्द का प्रयोग नहीं होता था। तब तो ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, मैथिली…. आदि शब्द भी चलन में नहीं थे। न सूर ने स्वयं अपनी रचना को ब्रजभाषा कहा, न तुलसी ने अपनी रचना को अवधी स्वयं कहा। यह शब्द तो बाद में समीक्षकों द्वारा ही आये। केशव ने तो स्पष्ट शब्दों में अपनी रचनाओं की भाषा को ‘भाखा’ ही कह दिया था-

‘भाखा बोल न जानहिं, जिनके कुल के दास;

भाखा कवि भौ मन्द मति, तिहि कुल केसौदास।’

समीक्षक तो आज भी केशव की भाषा में ब्रजभाषा की अपेक्षा बुन्देली ही अधिक मान रहे हैं। तुलसी की भाषा को समीक्षकों ने अवधी तो कहा परन्तु उसमें भी बुन्देली के शब्दों की भरमार यथावत् उन्होंने देखी ही है। ऐसे उदाहरणों के आधार पर मैं पूर्ण विश्वास के साथ छाती ठोंककर कह सकता हूँ कि’ भाखा’ या ग्वालेरी में सर्व प्रथम जो अभिजात्य साहित्य पन्द्रहवीं सती के आरम्भ से लिखा गया वह बुन्देली ही है। तब निश्चय ही लोक साहित्य की चिर परम्परा से निकल कर अभिजात्य साहित्य की सर्जना में भी अन्य लोक भाषाओं में बुन्देली ही अग्रणी है।

बोल-चाल की ऊबड़-खाबड़ बोली से वह सबसे पहले विकसित हुई। लोक साहित्य भी सबसे पहले उसी में प्रकृत रूप में अपनी मौखिक परम्परा में आया। जिसने पहली सु-संस्कृत भाषा संस्कृत के रचनाकारों को भी प्रेरणा प्रदान करते हुए प्रभावित किया। संस्कृत के बाद अभिजात्य साहित्य भी सबसे पहले ‘भाखा’ नाम से बुन्देली में ही आया। जैसा कहा जा चुका है कि विष्णुदास उसके पहले कवि हैं उनकी उस भाखा नामक साहित्यिक भाषा में वर्तमान बुन्देली स्पष्ट रूप में हम देख रहे हैं। अतः बुन्देली संस्कृत की बहन तो हो सकती है , बेटी कदापि नहीं। जिसने अपनी बहन संस्कृत के समानान्तर लोक साहित्य का भंडार भरा है, और उस लोक साहित्य ने आगे चलकर न केवल अभिजात्य साहित्य को प्रेरित किया वरन् संस्कृत के बाद सर्वप्रथम अभिजात्य साहित्य की गंगोत्री भी बुन्देली ही बनी। उसी बुन्देली का दूसरा कुछ सुधरा हुआ स्वरूप हम ब्रजभाषा के साहित्य में भी यथावत् पाते हैं। अन्ततः विश्व की प्राचीनतम भाषा बुन्देली ही है, जिसकी प्राचीन संस्कृति हमारी विरासत है।

 

पं. गुणसागर सत्‍यार्थी

कुण्‍डेश्‍वर, म.प्र.

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