भारत की हृदय स्थली मध्य प्रदेश जिसके मध्य में बुन्देलखंड यहाँ की संस्कृति-इतिहास, कला-शिल्प की पहचान भारत में अलग स्थान रखती है। भारत के हरेक लोकांचल की अपनी-अपनी कलायें हैं जो यहाँ की धार्मिक-सांस्कृतिक-सामाजिक गतिविधियों से जुड़ी हैं।
इसी तरह से समस्त कलाओं में शस्त्रकला का एक विशिष्ट स्थान है। हर अंचल की शस्त्रकला अपनी परम्परागत शैली में विद्यमान है जिसकी प्रतिष्ठा धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर सामाजिक स्तर पर देखी जा सकती है। मध्य प्रदेश के मालवा, निमाड़, वघेलखंड सभी अंचलों में खासकर धार्मिक सन्दर्भों में शस्त्रकला अखाड़े अपनी निजी अस्मिता बनाये हुए हैं। अन्य कलाओं जैसे नृत्य संगीत विविध लोक-कलाओं के साथ अखाड़ा या शस्त्रकला भी एक आवश्यक अंग है।
अखाड़ा हर क्षेत्र का वह धार्मिक पवित्र स्थल है जहाँ गुुरुओं के माध्यम से प्रशिक्षार्थी विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों, कुस्ती, मल्लविधा आदि का प्रशिक्षण लेते हैं और इसके माध्यम से समाज का एक ऐसा वर्ग तैयार होता है जो अपने साथ समाज की रक्षार्थ एक आवश्यक अंग होता है। अखाड़े से प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति अनुशासित होने के साथ-साथ आत्म-सम्मान, शारीरिक-मानसिक रूप से अपने-आपके सबल महसूस करता है आज के आपाधापी वाले समय में भी हमारी अमूल्य धरोहर अखाड़े एवं उनकी शस्त्रकला अपने मूल रूप में बरकरार है। परम्परा की निर्वाह हेतु बुन्देलखंड की शान यह शस्त्र विद्या सप्रमाण मौजूद हैं। किसी भी तीज, त्यौहार, राष्ट्रीय पर्वों पर इनकी झलक देखने को मिलती है और अपनी कला-कौशल से आम दर्शकों को परिचित कराते हैं इनके प्रदर्शनकारी कला रूप देखने से यह प्रतीत होता है कि एक तरफ करने वाले का शारीरिक व्यायाम तो होता ही है उसके साथ वह शस्त्र विद्या में पारंगत भी हो जाता है। स्वयं की रक्षा के साथ समाज की रक्षा में भी इनका योगदान शामिल होता है। अखाड़ों में ढाल, तलवार, लाठी, भाला, त्रिशूल, कटार आदि का प्रमुख रूप से प्रशिक्षण दिया जाता है।
इनके साथ लेजम, पटा, बनेटी, मलखम्भ, कुस्ती, पल्टी आदि भी शामिल हैं। भारतीय संस्कृति में ये अखाड़े सामाजिक और धार्मिक शोभा यात्रा में अपनी भागीदारी करते हैं। लेजम चलाने में इनके पदचालन, ढोल की ताल पर पंक्तिबद्ध एवं लयबद्ध घंटों चलते रहते हैं।
हमारी संस्कृति में शक्ति उपासना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। शस्त्र शक्ति का प्रतीक है इनकी पूजा की जाती है। पूजा करने वाले के मन मेंं पवित्रता के साथ शक्ति का संचरण भी होता है। शस्त्र पूजा में देवी के समक्ष अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन होता है। हमारे शास्त्रों में हर देवी-देवता का अपना शस्त्र है। देवी-देवता के ये प्रतीक रूप शस्त्र हमारे जीवन में लोक विश्वास, मिथक, रूपक, संस्कारों की पहचान देते हैं। शिव का अस्त्र त्रिशूल है, देवी का खड़क, विष्णु का सुदर्शन, श्री राम का धनुष दुर्गा का शूल– ये सभी शस्त्र हमारी मिथकीय आस्था के प्रतीक हैं। शक्ति पूजा का आशय देवी उपासना ही है शस्त्र कौशल शक्ति और कला की एक ऐसी दुनिया है जो भगवती के चरणों में अपने को समर्पित कर दे, अपनी साधना में सफल होता है।
मानवीय सुरक्षा और शत्रुओं के संहार के लिए आदिम काल से शस्त्र की व्यवस्था रही। आत्मरक्षा और क्षुधा पूर्ति की आवश्यकता के साथ ही शस्त्र का उपयोग भी बढ़ा, पत्थरों के शस्त्र अस्त्रों से धातु के भस्म तक एक लम्बी ऐतिहासिक परम्परा है। आज जबकि दुनिया में न जाने वैज्ञानिक शस्त्र विकसित हो गये परन्तु भारतीय सांस्कृतिक परम्परा ने वीरता और स्वयं के शस्त्र कौशल पर से कभी भरोसा नहीं छोड़ा, जैसे झाँसी की रानी, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, महाराजा भूषण, छत्रसाल आदि अनेक उदाहरण हैं।
एक विशेष अर्थ में शस्त्र कला की उपयोगिता मानवीय सुरक्षा वृत्ति की सांस्कृतिक परम्परा है। यह हमारी बुन्देली संस्कृति का अंग है। यह सांस्कृतिक परम्परा अपनी आश्चर्यकारी प्रदर्शन क्षमता और उपयोगिता से हमेशा जीवित रहेगी। इसके प्रति वर्तमान युवाओं में आकर्षण बढ़ रहा है। दशहरा, दीवाली, रामदल व धार्मिक उत्सव में उनका उत्साह देखा जा सकता है, आज जरूरत है कि कराटे कला के साथ इस शस्त्र कला को कठिन यथार्थ से जोड़कर उसे उपयोगी बनाया जाये। इसका अभ्यास और सफलता एक सच्ची साधना को सफल बनाना है।
बुन्देलखंड में अनेक अखाड़े सक्रिय हैं, जिन्होंने भारत सरकार द्वारा आयोजित लोक-कलाओं व उत्सवों में भाग लेकर सम्मान पाया है। अपने क रतबों से जनता को चमत्कारित कर दिया है। आज संघर्षशील प्रयासों की जरूरत है। यदि हमारे युवा चाहें तो इसकी जरूरत समझ के इनके प्रशिक्षण केन्द्रों को बढ़ावा दे सकते हैं।
सांस्कृतिक सन्दर्भों में जिस तरह रक्षा के लिए जूडो कराटे कला के केन्द्र सक्रिय हैं उसी प्रकार शस्त्र कला, मार्शल आर्ट के केन्द्रों को सक्रिय करके उसे सार्थकता प्रदान करें। स्त्रियाँ भी इस कला को योग्यता से सीख सकती हैं।
अब समय बदल गया है और महिला कलाकारों को इस कला से अवगत होना जरूरी है। हमारी सरकार इस कला को तभी प्रोत्साहित करेगी जब हमारे युवा पीढ़ी के नौजवान उपयोगिता को समझें। सरकार को इस मार्शल आर्ट के प्रशिक्षण केन्द्रों को खोलना समय की बढ़ी जरूरत है।
शस्त्रयुद्ध (मार्शल आर्ट्स) से लाभ
लाठी– लाठी चलाते समय व्यक्ति को चारों तरफ सतर्कता बरतनी होती है, इसमें उसकी आँखों का स्वयं ही अभ्यास हो जाता है। आँखों के अलावा उसके हाथ जिनमें लाठी होती है कई कोणों से घूमते हुए लाठी का प्रदर्शन करते हैं हाथों से पंजे, कलाई, भुजाओं का अलग-अलग तरह का अभ्यास हो जाता है। हाथ के अलावा पैरों का भी चलना उसे प्रदर्शन के अनुसार ही उठना-बैठना, झुकना आदि होता है। इस तरह से एक लाठी चलाने वाले कलाकार को पूरे शरीर के अभ्यास की आवश्यकता होती है उसमें फुर्तीलापन भी आवश्यक है।
तलवार/ढाल– ढाल-तलवार में भी समस्त शरीर का अभ्यास हो जाता है। दोनों आँखें, हाथ, पैर, कमर, कन्धे, उठना, बैठना, उछलना, कूदना ये समस्त क्रियायें उसके शास्त्रों के क्रियान्वयन में अनुरूप होती जाती हैं।
त्रिशूल– त्रिशूल चलाने वाले के कौशल में शारीरिक अभिनय होता है इसके साथ युद्ध का अनुसरण भी करना होता है, अपनी रक्षा शत्रु से करना है अपने को बचाये भी रखना है तो स्फूर्ति आवश्यक है। इस शस्त्र को चलाने वाला ये सब गुण रखता ही है।
पटा– पटा तलवार से भी फुर्तीला होता है उसमें शारीरिक सन्तुलन की आवश्यकता होती है।
कुल मिलाकर अस्त्र-शस्त्र सीखने वाला शारीरिक अभिनय में पारंगत हो जाता है। पूरे शरीर का अभ्यास हो जाता है जिनमें आँखों की भूमिका उतनी ही आवश्यक होती है जितनी समस्त शरीर की। सारा शरीर गतिशील एवं फुर्तीला बनता है मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। हमारा शरीर स्वस्थ होगा तो मन भी स्वस्थ होगा और अखाड़े के प्रशिक्षार्थी में ये गुण स्वमेव ही आ जाते हैं।
बुन्देलखंड की संस्कृति और अखाड़ा (शस्त्रकला)
मानव ने जन्म लिया इसके बाद मानव-समाज का विकास हुआ तभी से मल्ल युद्ध एवं शस्त्र युद्ध का जन्म हुआ और अखाड़ा संस्कृति का भी विकास हुआ है। मानव ने सबसे पहले पत्थर के शस्त्र का प्रयोग किया था। प्राचीन काल में गुरुकुलों एवं राजा-महाराजाओं के यहाँ शस्त्र प्रशिक्षण अनिवार्य था। शस्त्र देवी शक्ति की देन है उदाहरण- रामायण महाभारत आाज भी भारतवर्ष में अखाड़ों की परम्परा चली आ रही है।
भारतीय संस्कृति और कला की पहचान विश्व में अपना अलग-अलग स्थान रखती है। मूर्तिकला, चित्रकला, नृत्यकला, नाटककला और लोककलाओं में भी वास्तु शिल्प, मिट्टी शिल्प, काष्ठ शिल्प, नृत्यों में लेाक नृत्य, राई, नाच, नाचा, स्वाँग, गरवा, लावनी आदि-आदि अनेक लोक नृत्य हैं। भारत के विभिन्न अंचलों में अनेक तरह की कलाएँ प्रचलित हैं। विशेष धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक अनुष्ठानों से जुड़ी भारतीय कला बेजोड़ हैं।
भारतीय कलाओं में अखाड़ा का अपना वैशिष्ट्य है, भारत के भिन्न-भिन्न अंचलों में यह कला अपनी परम्परागत शैलियों में आज भी प्रचलित है। इसकी प्रतिष्ठा धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर तक सराहनीय रही है। सांस्कृ तिक रूपों में रामलीला के कुछ प्रसंगों में अखाड़ा की उपादेयता विशेष रही है।
हमारे देश में मालवा, निमाड़, छत्तीसगढ़, बघेलखंड महाकौशल, बुन्देलखंड सभी क्षेत्रों में धार्मिक सन्दर्भों में शस्त्रकला या अखाड़े अपनी निजी अस्मिता बनाये हुए हैं। इसी क्रम में बुन्देलखंड में कुछ अधिक आवेश से अखाड़े, स्कूल अपना महत्त्व रखते हैं। नृत्य संगीत की अनेक परम्परायें जैसे सेरा, ढिमरयाई, कांडरा नृत्य, वरेदी नृत्य, जवारा नृत्य, बधाई नृत्य बमबुलिया, रैयया भक्ता प्रचलित हैं इन सभी के साथ अखाड़ा या शस्त्रकला अपनी विशिष्टता लिये हैं।
आज के विषमता भरे समय में भी हमारे शस्त्रकला उसी योग्यता से कला में संलग्न है इस शस्त्रकला की प्रवीणता को कायम रखने वाले अखाड़े बुन्देलखंड की अस्मिता और शस्त्र के साक्षात् प्रमाण के रूप में मौजूद हैं।
इन अखाड़ों में शस्त्र युद्ध का प्रदर्शनकारी रूप हमें मिलता है। अखाड़ों के माध्यम से हमारे ग्रामांचलों में शस्त्रकला के प्रति परम्परागत आस्था और धार्मिक विश्वास जीवन्त बने हुए हैं। इन अखाड़ों में युद्ध की प्राचीनकला का प्रारूप हमें मिलता है, जिसमें ढाल, तलवार, लाठी, भाला, त्रिशूल एवं कटार युद्ध इसके साथ ही महत्त्वपूर्ण हैं। लेजम नृत्य, पटा बनेटी, देश-चकरी, मलखम्भ, अधर पल्टियाँ नाल उठाना, डम्मल चलाना, मुगद्र आदि। इन सभी शस्त्रों का कुशलता से चलन अखाड़ों की विशेषता है। धार्मिक आस्थाओं को इन अखाड़ों ने बहुत महत्त्व दिया वस्तुत: भारतीय संस्कृति में अखाड़े सामाजिक और धार्मिक सन्दर्भों में अपने दल सहित शोभा यात्रा की अपनी विशेषता रखते हैं। इसमें लेजम नृत्य को शोभा यात्रा में विशेष श्रेण्ी दी गयी है, लेझम नृत्य सबसे ज्यादा महत्त्व उसके अनुशासनात्मक लय-ताल का होता है पंक्तिबद्ध होकर लोग ढोल ताल पर लेझम बजाकर करतब दिखाते हैं। लेझम नृत्य 4-5 घंटा लगातार चलता है, लेझम बजाने और उसकी लय तान का विशद् अभ्यास जरूरी होता है।
शक्ति पूजा से सम्बद्ध शस्त्र पूजा
देवी भगवती की उपासना पद्धति से शस्त्र पूजा जुड़ी हुई है, वस्तुत: शक्ति के प्रतीक माने जाते हैं, शक्ति पूजा का एक रूप शस्त्र-कला का देवी के सामने नमन व आंशिक प्रदर्शन के रूप में किया जाता है।
शस्त्र पूजा करते हुए
भारतीय सन्दर्भों में शक्ति का संकेत सभी देवी-देवताओं के प्रतीक चिह्नों से मिलता है, सभी देवी-देवताओं में शस्त्र प्रतीकों को लेकर शक्ति की एक आश्चर्यजनक समानता देखी गयी इसीलिए इन शस्त्र प्रतीकों का रचनात्मक वैशिष्ट्य है– इन प्रतीकों से हमारे जीवन के लोक विश्वास, मिथक, रूपक और संस्कारों की पहचान निर्मित होती है। चाहे शंकर का त्रिशूल हो या इन्द्र का वज्र या विष्णु का सुदर्शन चक्र हो या दुर्गा का शूल हो या तलवार सभी शक्ति की मिथकीय आस्था के प्रतीक हैं। देवियों की सृजन-शक्ति और संहार शक्ति का सामंजस्य हमारी शस्त्रकला में एक साथ मिलता है। इसी शस्त्र पूजा अप्रत्यक्ष रूप से देवी की ही उपासना का एक रूप ही है। शस्त्र कौशल शक्ति और कला की एक ऐसी दुनिया है जो भगवती के चरणों में अपने को समर्पित करके अपनी साधना में सफल होती हैं।
मानवीय सुरक्षा और शत्रुओं के संहार के लिए, आदिम काल से शस्त्र की व्यवस्था रही आत्मरक्षा और सुधार पूर्ति की आवश्यकता के साथ ही शस्त्र विकसित हो गये, परन्तु भारतीय सांस्कृतिक परम्परा ने वीरता और स्वयं के शस्त्र कौशल पर कभी भरोसा नहीं छोड़ा जैसे झाँसी की रानी, छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, बुन्देलखंड के महाराज छत्रसाल आदि अनेक उदाहरण हैं।
भारत ग्रामों का देश है। यहाँ आज भी अपनी रक्षा के लिए अस्त्रों-शस्त्रों का ही सहारा लिया जाता है, इसीलिए आज भी बुन्देलखंड के अंचलों में लाठी चलाने वाले तलवार के करतब वाले, लेझम की लय-ताल वाले कितने आचार्य हैं जो अपने अंग से शस्त्रकला को विकास के तहत कर रहे हैं, आज भी योग्य लाठी चालक और भाला चालक सैनिक वस्त्रों का उपयोग करते हैं। पुलिस की लाठी चार्ज आज का ज्वलन्त उदाहरण है, क्योंकि यह सुलभ मितव्ययी साधन है, इसीलिए यह हमेशा एक विशेष अर्थ में शस्त्रकला की उपयोगिता मानवीय सुरक्षा वृत्ति की सांस्कृतिक परम्परा है यह हमारी बुन्देली संस्कृति का अंग है। यह सांस्कृतिक परम्परा अपनी आश्चर्यकारी प्रदर्शन क्षमता और उपयोगिता से हमेशा जीवित रहेगी, इसके प्रति वर्तमान युवाओं में आकर्षण बढ़ रहा है, दशहरा, दीवाली, रामदल व धार्मिक उत्सव में उनका उत्साह देखा जा सकता है, आज जरूरत है कि कराटे-कला के साथ इस शस्त्र कला को भी बढ़ावा मिले, भारतीय संस्कृति की विविध श्रेणियों ने शस्त्रकला को कठिन यथार्थ से जोड़कर उसे उपयोगी बनाया है, इसका अभ्यास और सफलता एक सच्ची साधना को सम्भव बनाना है।
बुन्देलखंड में अनेक अखाड़े सक्रिय हैं, जिन्होंने भारतीय सरकार द्वारा आयोजित लोककलाओं व उत्सवों में भाग लेकर सम्मान पाया है अपने करतबों से जनता को चमत्कृत कर दिया है, आज संघर्षशील प्रयासों की जरूरत है यदि हमारे युवा चाहे तो इसकी जरूरत समझके इनके प्रशिक्षण केन्द्रों को बढ़ावा दे सकते।
सांस्कृतिक सन्दर्भों में जिस तरह रक्षा के लिए जूडो कराटे कला के केन्द्रों को सक्रिय करके उसे सार्थकता प्रदान क रे। छात्रायें भी इस कला को योग्यता से सीख सकती हैं। अब समय बदल गया है और महिला कलाकारों को इस कला से अवगत होना जरूरी है, हमारी सरकार इस कला को तभी प्रोत्साहित करेगी जब हमारे युवा पीढ़ी के नौजवान उपयोगिता को समझें। सरकार को इस मार्शल आर्ट्स के प्रशिक्षण केन्द्रों को खोलना समय की बड़ी जरूरत है।
शौर्य कला शारीरिक प्रदर्शन या अखाड़ा शस्त्र युद्ध
(मार्शल आर्ट)
इसकी शुरुआत जब से मनुष्य है, तभी से मानी जाती है सबसे पहला शस्त्र नुकीला पत्थर था। शस्त्र की उत्पत्ति दैवी शक्ति से मानी जाती है।
शारीरिक प्रदर्शन के दो प्रकार होते हैं–
- शस्त्र युद्ध– लाठी, तलवार, ढाल, भाला, कटार, फरसा, त्रिशूल एवं अन्य प्राचीनतम शस्त्र।
- करतब खेल– मल्लखम्ब, जिमनास्टिक, करतब, जूडो कराटे
अखाड़ा प्रदर्शन
शस्त्र युद्ध
- लाठी– यह बाँस की तनी होती है। यह प्राकृतिक या दैवी हथियार है। बाँस के पेड़ काटकर इसको तैयार किया जाता है। यह 2 फुट से 5 फुट लम्बे टुकड़ों के रूप में होती है। काटने के बाद इसको हल्की आँच से सेका जाता है। (जब तक उसका रंग हरे से कत्थई न हो जावे) ज्यादा मजबूत बनाने के लिए इसे तेल पिलाते हैं, लाठी चलाते समय निगाह सामने वाले पर पूरी तरह से जमी होनी चाहिए जिससे की उसके हाथों के मूवमेंट को देखकर हमें प्रहार का पता चल सके। इस कला में दिमाग की चंचलता और होशियारी की आवश्यकता होती है। इसके पैंतरे होते हैं जिससे लाठी द्वारा प्रहार किया या बचाया जाता है।
- तलवार– यह लोहे की बनी अर्द्ध चन्द्राकार होती है इसकी लम्बाई सवा 2 फुट से ढाई फुट तक होती है। तलवार का निचला सिरा धारदार होता है और दुधारग्ी तलवार में दोनों ओर धार होती है। इसके पकड़ने वाले भाग को मुठिया कहते हैं, तलवार को जंग से बचाने के लिए म्यान में रखते हैं और म्यान तलवार के आकार की होती है। यह लकड़ी की बनायी जाती है एक म्यान में एक ही तलवार रखी जाती है। यह माँ देवी का मुख्य शस्त्र है।
- ढाल– यह लोहे की बनी गोलाकार होती है। गोलाई में अन्दर की तरफ बीच में एक मुठिया पकड़ने के लिए लगायी जाती है। इससे किसी भी प्रकार का, प्रहार रोका जा सकता है। इसके कई प्रकार होते हैं, प्रमुख दो प्रकार हैं– गोलाकार और चौकोर।
गोलाकार 10 इंच से 2 फुट तक की परिधि की होती हैं। ढाल के ऊपरी हिस्से पर चार गुट्टे होते हैं ताकि वार फिसलकर हाथ पर न लगे वहीं रुक जाये। कभी-कभी यह गुट्टे पाँच भी होते हैं।
- भाला– तीर का बड़ा रूप है, भाला 5 फुट से 7 फुट लम्बा होता है, यह लकड़ी का बना होता है जिस पर आगे की ओर लोहे का बना 6 इंच से डेढ़ फु ट तक पैना होता है, जो नुकीला होता है इसके दोनों ओर धार होती है आजकल इसकी मजबूती के लिए इसमें लोहे का पाइप भी लगा देते हैं। पकड़ते समय बायाँ हाथ आगे और दायाँ हाथ पीछे होता है, फना आगे की ओर होता है। इसका प्रहार बायें हाथ की कोहनी के ऊपर से होता है भाले को बीचोंबीच से पकड़ते हैं। यह महाराजा महाराणा प्रताप का मुख्य शास्त्र था।
- कटार– तलवार का छोटा रूप होती है, लोहे की बनी होती है, मूठ लकड़ी का होता है, यह छ: इंच से एक फुट की होती है। कटार से प्रहार करने के दो तरीके होते हैं–
(1) कटार को मूठ से ऐसे पकड़ते हैं कि उसका नुकीला सिरा ऊपर होता है। इस तरह से वार बायें हाथ से दायें हाथ को और दायें से बायें ओर कर सकते हैं तथा पेट में सीधा प्रहार कर सक ते हैं।
(2) कटार से दूसरा वार करने का तरीका है हाथों से ऐसे पकड़ें कि उसका निचला हिस्सा नुकीला हो इस तरह से कंठ और सीने पर वार कर सक ते हैं।
- फरसा– 1 फुट से 3 फुट तक का लकड़ी का मेट या लोहे का पाइप होता है और उस पर लोहे का बना फरसे का फना छ: इंच से 1 फुट तक का होता है। यह अर्द्ध चन्द्राकार होता है। यह कुल्हाड़ी का बड़ा रूप होता है। यह भगवान परशुराम जी का मुख्य शस्त्र है।
- त्रिशूल– लोहे का बना होता है, इसमें बीच का फना भाले की तरह होता है और उसके दोनों तरफ अर्द्ध चन्द्राकार नुकीले फन होते हैं। इसकी लम्बाई 2 फुट से 7 फुट तक ही होती है। इसकी मार फन और निचले हिस्से दोनों से की जा सकती है। निचला सिरा नुकीला होता है, यह शंकर भगवान का मुख्य शस्त्र है।
लाठी चलाना
- लाठी पकड़ने का तरीका– लाठी को पतले सिरे की ओर से दायें हाथ की कोहनी से नाप कर जहाँ पंजा आता है वहाँ हाथ रखते हैं और बायाँ हाथ उसके आगे रखते हैं।
- खड़े होने का तरीका (पैंतरा)– बायाँ पैर आगे (पंजा सीधा सामने की ओर) दायाँ पैर पीछे (पंजा आड़ा) करके, शरीर के सामने की ओर तिरछा रखते हैं, इस समय लाठी शरीर से चिपकी रहती है।
- प्रहार– पैंतरा लेने के बाद लाठी को शरीर से सटाते हुए सीधे हाथ से सिर के ऊपर ले जाकर लाठी को पीछे लटका देते हैं और सीधा सामने की ओर प्रहार करते हैं, इसी समय एक कदम आगे बढ़ाते हैं। बचाव करते समय एक कदम पीछे हटाते हैं। यही क्रम चलता है।
- दो मुखी उल्टी व सीधी– लाठी सीने से लगी होती है। लाठी पहले दोनों ओर ऊपर से नीचे की ओर चलती है फिर उलटी में दोनों ओर नीचे से ऊपर की ओर चलती है। यह कलाई खोलने का अभ्यास है।
- चौमुखी– उलटी व सीधी दो मुखी को मिलाकर जब एक साथ लाठी घुमाते हैं तब वह चौमुखी कहलाती है।
- सरवार– पैंतरे में खड़े होकर प्रहार करते हैं और बचाव में सामने वाला व्यक्ति बायाँ पैर 1 फीट बायीं ओर खिसकाते हुए शरीर को उसी ओर ले जाकर अपना बचाव करता है और दोनों हाथ ऊपर की ओर होते हैं। लाठी दायीं ओर झुकी रहती है ताकि प्रहार का बार उस पर से फिसल जाये यही क्रम दायीं ओर होता है।
- चीर लपेट– पैंतरा लेकर खड़े होते हैं, इसके प्रहार की पोजीशन में सिर के पीछे तक लाने के बाद थोड़ा तिरछा ले जाते हुए कान पर वार करते हैं। इस वार को करते समय एक कदम आगे बढ़ाते हैं। बचाव करने वाला व्यक्ति एक कदम पीछे हटकर उसी प्रहार को रोकता है उसका हाथ विपरीत तरफ से आता है।
- गाँठ वार– पैंतरा लेकर खड़े होते हैं। यह पूर्ण रूप से चीर लपेट की तरह होता है सिर्फ इसमें वार पैर की गठान पर किया जाता है। बचाव भी विपरीत दिशा से उसी प्रकार किया जाता है।
बन्दिश
बन्दिश का मतलब होता है आदमी जब युद्ध करता है लाठी से सामने वाले योद्धा को ऐसे फँसा देता है जैसे रस्सी से बाँध दिया हो।
बन्दिश लगाते हुए प्रदर्शन
अखाड़ा शस्त्र युद्ध कला हमारे शारीरिक बचाव एवं दुश्मन को अपने शस्त्र से युद्ध करके सामने वाले को किस तरह पराजित किया जा सकता है। चाहे तलवार हो, भाला, त्रिशूल, फरसा, कटार एवं लाठी व अन्य शस्त्र इस युद्ध कला में एक से अनेक व्यक्तियों से युद्ध किया जाता है। लाठी से एक आदमी से अनेक आदमियों का युद्ध करके आदमियों को बाँधा जाता है। जिसे हम बन्दिश कहते हैं। एक आदमी की बन्दिश हो चार आदमी हों उन्हें लाठी से बाँधा जा सकता है। अनेक प्रकार की बन्दिशें होती हैं। इस युद्ध कला में प्रहार एवं पैंतरों का खेल होता है।
बन्दिश 1. आदमी की– इस बन्दिश में दो योद्धा एक-दूसरे पर प्रहारों द्वारा युद्ध करते हैं। इस युद्ध में सिर पे, कमर में, हाथों पर, शरीर के अनेक अंगों पर प्रहार किये जाते हैं। इस युद्ध में अपना-अपना बचाव करके बन्दिश लगाकर सामने वाले को पराजित करते हैं। यह बन्दिश कई प्रकार से की जाती है।
बन्दिश 2. यह बन्दिश तीन व्यक्तियों द्वारा की जाती है। एक आदमी दो आदमियों से युद्ध करता है। एक आदमी दो आदमियों से घिरा रहता है। दो आदमी एक पर अनेक प्रकार से प्रहार करते हैं, बीच में घिरा व्यक्ति अपना बचाव करके दोनों को लाठी से बाँधता है यह बन्दिश भी कई प्रकार की जाती है।
बन्दिश 3. इस बन्दिश में एक आदमी तीन आदमियों से युद्ध करके तीनों को लाठी द्वारा बाँधता है। यह बन्दिश भी अनेक प्रकार से की जाती है।
बन्दिश 4. इस बन्दिश में एक आदमी चार आदमियों से युद्ध करता है। इस बन्दिश में चार आदमियों की लाठी प्रहार द्वारा हाथों से लाठियाँ गिरा दी जाती हैं। इस बन्दिश में भी अन्य बन्दिशों की तरह अनेक प्रकार से दुश्मन को परास्त किया जाता है।
छतरी– इस बन्दिश में एक आदमी अनेक आदमियों से घिरा रहता है। चारों तरफ से घेरा जाता है। वह अपना बचाव बीच में लाठी चलाकर, जिसे हम चौमुखी कहते हैं वह चलाता है। चारों तरफ से उसे प्रहारों द्वारा उस पर प्रहार करते हैं, वह अवसर पाकर घेरे से प्रहार करता हुआ बाहर निकलता है और उन पर अलग प्रहार करता है। सब लोग उस पर सिर पे प्रहार करते हैं। वह अपने सिर के ऊपर लाठी से सब लाठियों को रोकता है सब लोग पुन: सिर पे प्रहार करते हैं, वह पलटकर अपने सिर को बचाता हुआ सब की लाठियाँ अपनी लाठी पर रोक कर नीचे बैठते हैं। अपने पैरों कैंची में सारी लाठियों को पाँव से पकड़कर एवं दोनों हाथों से लाठियों को पकड़ लेता है सब लोग अपनी ओर खींचते हैं। उस समय वह लाठियों को अपनी ओर पकड़े रहता है। जिससे लाठियाँ नहीं छूटती हैं जब लाठियाँ खींचते हैं उस समय वह लाठियों के साथ ऊपर उठता है जैसे छतरी खुल जाती है वह आकार बन जाता है। और पीछे गिर जाता है। इस पोजीशन में सब लाठियाँ ढीली पड़ जाती हैं जिसका फायदा वह उठाता है और उनकी लाठियाँ छुड़ा लेता है उन पर प्रहार करता है इसे हम छतरी कहते हैं।
छतरी का प्रदर्शन
रस्सी द्वारा बन्दिश– इस बन्दिश में एक अनेक आदमियों से युद्ध करता है बचाव करता है चारों तरफ घिरा रहता है। वह चौमुखी चलाकर अपना बचाव करता है चारों तरफ चौमुखी चलाते हुए अवसर पाकर घेरे से बाहर निकलता है लेकिन जैसे ही वह बाहर आता है दो आदमी उसे रस्सी से कमर में अंटी लगाकर बाँध लेते हैं बाकी प्रहारों से उस पर प्रहार करते रहते हैं वह प्रहारों का बचाव अपने सिर के ऊपर को रोकता है वह भागने की कोशिश करता है, पुन: सभी लोग उस पर प्रहार करते हैं वह पलटी लगाता है अंटी से बाहर हो जाता है तभी दूसरी तरफ से वो लोग सभी लोगों को कमर से रस्सी बाँध दिया जाता है। और वह बच जाता है।
भाला लाठी युद्ध– इस बन्दिश में एक व्यक्ति भला दूसरा व्यक्ति लाठी लेता है इन दोनों में युद्ध होता है। एक-दूसरे पर युद्ध करते हैं। पैंतरों द्वारा बचाव करते हुए भाला वाला व्यक्ति बचाव करते हुए लाठी वाले व्यक्ति पर हाथों (कलाइयों के पास) भाला के पिछले हिस्से से प्रहार करता है जिससे उसकी लाठी गिर जाती है। वह खाली हाथ हो जाता है तभी भाला वाला व्यक्ति उसे भाला मारता है।
त्रिशूल भाला फरसा का युद्ध– इस युद्ध में दो व्यक्ति अपने-अपने शस्त्र लेकर एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं। यह युद्ध लाठी भाला जैसा ही होता है।
ढाल तलवार– युद्ध में एक व्यक्ति से अनेक व्यक्तियों का युद्ध होता है इसे दो व्यक्तियों से लेकर कई व्यक्तियों का अलग-अलग ढंग से युद्ध होता है। ढाल तलवार युद्ध में प्राय: नौ प्रहारों का उपयोग किया जाता है जिसमें गर्दन, पेट में तलवार घोंपना, हाथों को काटना, कमर पर प्रहार करना, योद्धाओं के हाथ में एक हाथ में ढाल दूसरे हाथ, तलवार रही है। अधिकतर बायें हाथ में ढाल दायें हाथ में तलवार होती है यह युद्ध आमने-सामने होता है। इस युद्ध में गर्दन हाथ-पैर एवं कमर पर प्रहार करते हैं। यह युद्ध अनेक प्रकार से होता है।
ढेरा प्राचीन काल में युद्ध में शस्त्र जैसा उपयोग किया जाता था। युद्ध में बहुत योद्धा चारों ओर से घेर लेते थे तो इसे घुमाकर बचाव किया करते थे, इसे चकरी भी कहते हैं। इसके चलाने से तीन चलाने वाले योद्धा तीर नहीं भेद पाते थे इस ढेरा की रस्सी में तीर फँस जाता था। देश (चकरी) की उत्पत्ति महाभारत के समय में हुई इसकी उत्पत्ति भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा की गयी। महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण जी ने शस्त्र चलाने की शपथ ली थी, किन्तु युद्ध के समय उन्होंने रथ के पहिये को शस्त्र बनाया। पहिया शस्त्र में नहीं आता था ढेरा गोल चक्राकार में पहिये जैसे होता है। ढेरा घुमाया जाता है वह उस समय पहिये जैसा हो जाता है। उसी समय से ढेरा का चलन हुआ और यह शस्त्र बन गया। पहले ढेरा लोहे का बना होता था, इसके चक्राकार में लोहे का फना लगे रहते हैं जिसके घुमाने से दुश्मन पीछे को भागता है। वर्तमान ढेरा में चक्र की लम्बाई 1 फुट होती है एवं लम्बाई 3 फुट तक बनायी जाती है, डोरी के निचले हिस्से में लकड़ी की गेंदें लगायी जाती हैं इसमें 16 गेंंदें लगायी जाती हैं जिसे हम झूल कहते हैं। इसको चारों तरफ घुमाया जा सकता है। यह कला अनादिकाल से चली आ रही है। वर्तमान में इस ढेरा का उपयोग अखाड़ों में खेल के रूप में किया जाता है।
ढेरा का प्रदर्शन
धार्मिक त्यौहारों (उत्सवों) में अखाड़ों की अहम भूमिका
भारतवर्ष में हर समुदाय के धार्मिक त्यौहार एवं उत्सव होते हैं। हर भारतीय अपने त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाते हैं जैसे दुर्गा पूजन, दशहरा, दीवाली, होली एवं ईद, गुड फ्राइडे, बड़ा दिन, गुरुनानक जयन्ती, बैशाखी इत्यादि त्यौहार इन त्यौहारों में चल समारोह शोभा यात्रा निकाली जाती है। इन शोभा यात्राओं में अखाड़ा संस्कृति की अहम भूमिका रहती है। इन त्यौहारों की विशेषता पर मध्य प्रदेश के बुन्देलखंड में जो वीरों की भूमि कहलाती है इस भूमि पर अनेक वीरों ने जन्म लिये हैं। अपनी वीरता के जौहर दिखाते वीरगति को प्राप्त हुए जैसे महारानी लक्ष्मीबाई, महाराजा छत्रसाल, मधुकर शाह, आल्हा ऊदल इत्यादि।
बुन्देलखंड में अनेक त्यौहार बड़ी धूम से मनाये जाते हैं जैसे– होली, गणेश उत्सव, नवरात्रि पर दुर्गा पूजा इन त्यौहारों में अखाड़ों की भूमिका मुख्य होती है। बुन्देलख्ंाड में नवरात्रि पर्व साल में दो बार मनाया जाता है– पहले हिन्दू संस्कृति के अनुसार चैत्र की नवदुर्गा (अप्रैल में) हिन्दू कैलेंडर का पहला माह होता है दूसरो क्वार महीना में नवदुर्गा पर मनाया जाता है।
चैत्र कामहीना नवदुर्गा पर मनाया जाता है। इन दिनों नौ दिन देवी की पूजा होता है। अष्टमी के दिन कुल देवी की पूजा होती है नौमी के दिन रामनवमी मनायी जाती है। जिसे हम राम जन्म उत्सव के रूप में मनाते हैं, इसमें भगवान राम की शोभा यात्रा निकाली जाती है इसमें अखाड़े अपने करतब दिखाते हैं। बिना अखाड़े के शोभा यात्रा अधूरी लगती है अधूरी मानी जाती है। इसके पश्चात् क्वार के महीने में नवदुर्गा पर सप्तमी, अष्टमी, नौवीं एवं दशहरा पर्व मनाया जाता है। क्वार की नवदुर्गा पर्व हर मुहल्ला चौराहों पर माँ दुर्गा की मूर्ति विराजमान होती है। दशहरा तक धार्मिक कार्यक्रम होते हैं। इन कार्यक्रमों की तैयारी के लिए अखाड़े वाले एक माह पहले से अपनी तैयारियाँ शुरू कर देते हैं। बुन्देलखंड अंचल एक ऐसा अंचल है जहाँ आज भी सप्तमी के दिन रामदल निकालने की परम्परा है।
इस राम दल में सभी अखाड़े वाले अपने-अपने अखाड़ों में वेश-भूषा के साथ संगीत में ढोल, तासा बजाकर साथ में शस्त्र लेकर जिसमें लाठी, ढाल, तलवार, भाला, त्रिशूल, फरसा एवं ध्वज के साथ शहर के चौराहों पर लेजम की धुन पर अपना-अपना प्रदर्शन करके अपने अखाड़े की कला का प्रदर्शन करते हैं। इस रामदल को रामायण में भगवान की राम सीता को लेने हेतु रावण से युद्ध करते हैं। उस समय सेना गठित की गयी (रामदल के रूप में की गयी थी) इस राम दल में वानर सेना एवं अन्य योद्धा अपने शस्त्र लेकर श्री राम के साथ दल बनाकर रावण से युद्ध करने गये थे। दशहरा के दिन रावण पर विजय पायी। दशहरा के दिन रावण वध मनाया जाता है। उसी समय से रामदल की परम्परा आज भी अखाड़े वाले इस त्यौहार के मनाते हैं यह परम्परा आज भी बुन्देलखंड में प्रचलित है। इसी प्रकार गणेश पर्व पर गणेश विसर्जन के समय लेजम की लय-ताल पर अखाड़ा अपनी-अपनी कला-प्रदर्शन करते हैं।
जुलूस में अखाड़ा
ऐसे ही मुस्लिम समुदाय हजरत मुहम्मद शाह के जन्म पर (ईद) के दिन जुलूस निकालते हैं मुस्लिम समुदाय अपने अखाड़ों का प्रदर्शन करते हैं।
सिख समुदाय गुरु नानक जयन्ती पर शोभायात्रा निकालते हैं। उस समय अपने अखाड़ों-पंजाब में जिसे गतका कहते हैं अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। इसी तरह मध्य प्रदेश के अलग-अलग अंचलों में अपने त्यौहारों पर अखाड़ा संस्कृति का प्रदर्शन करते हैं इसलिए हमारे अखाड़ा संस्कृति की धार्मिक उत्सवों में अहम भूमिका रहती है।
– आज के विषमता भरे समय में भी हमारे हस्तकला उसी योग्यता से कला में संलग्न हैं। इस हस्तकला की प्रकीर्णता को कायम रखने वाले अखाड़े शस्त्र के साक्षात् प्रमाण के रूप में मौजूद हैं। अखाड़ों के माध्यम से हमारे ग्रामीण अंचलों में शस्त्रकला विद्या के प्रति परम्परागत आस्था और धार्मिक विश्वास जीवन्त बने हुए हैं। धार्मिक आस्थाओं को इन अखाड़ों ने बहुत महत्त्व दिया वस्तुत: भारतीय संस्कृति में अखाड़े सामाजिक और धार्मिक सन्दर्भों में अपने दल सहित शोभायात्रा की अपनी विशेषता रखते हैं। इन धार्मिक आस्थाओं में शक्ति पूजा से सम्बन्ध शस्त्र पूजा का है।
लेजिम
अखाड़ा संस्कृति का मुख्य खेल है। लेजिम को भारत की शालाओं में व्यायाम के लिए जोड़ दिया है। लेजिम प्रचलन को तीन नामों से जाना जाता है।
लेजिम का प्रदर्शन
1. लेजिम 2. लेजिम और 3. लेजियम– ये सब अँग्रेजी नाम हैं। लेजिम में कई प्रकार होती हैं। महाराष्ट्र में सबसे छोटी लेजिम होती है जिसका वजन एक किलो से ज्यादा नहीं होता है। महाराष्ट्र की धार्मिक उत्सवों के समय उपयोग की जाती है। लेजिम के अलग-अलग दल होते हैं। महाराष्ट्र में लेजिम गणेश उत्सव या धार्मिक उत्सवों के समय उपयोग किया जाता है, और नृत्य में ज्यादा उपयोग करते हैं, इसे हम लेजिम नृत्य भी कहते हैं, लेजिम धनुषाकार की होती है। धनुष में बाँस की या लकड़ी की पट्टी के दोनों सिरों पर पतली सुतली एवं रस्सी का उपयोग किया जाता है। धनुष हमारा पुराना शस्त्र है इसके प्रमाण हमारे वेद, रामायण, महाभारत हैं। आज भी ओलम्पिक में तीरन्दाजी की प्रतियोगिता होती है। इसी तरह लेजिम में लकड़ी एवं लोहे के पाइप जो 1 फुट से 3 फुट का होता है इसमें दोनों छोर पर एक-एक कुन्दा लगाया जाता है। इन कुन्दों में तीन-तीन कड़े लगाये जाते हैं। यह जैसे मकान दरवाजों में साँकल लगायी जाती है।
उसी का बड़ा रूप लोहे की साँकल है। साँकल लगायी जाती है, बीच में एक मुठिया होती है। जो दांये से पकड़ते हैं इन साँकलों में प्रत्येक एक साँकल में 48 या 72 लोहे या पीतल की पलियाँ रहती हैं। जिससे चलाते समय आवाज होती है। लेजिम में बायें हाथ मुठिया रहती है। सिर के ऊपर दोनों हाथों को सीधा ऊपर रखते हैं। सबसे पहले सीधा रहता है। उसके बायें हाथ की तरफ ले जाते हैं बायाँ हाथ सीधा रहता है। उसके बाँयें हाथ की तरफ ले जाते हैं। दायाँ हाथ सीधा रहता है। उसके बायें हाथ की तरफ ले जाते हैं। दायाँ हाथ सीधा रहता है तीसरी बार भी दायाँ हाथ बायें हाथ की तरफ जाता है चौथी बार में लेजिम गले में डाली है। गले में ऐसी जाती है जैसे हम फूलों की माला पहनते हैं। एक प्रकार लेजिम 4 हाथ चलने 1, 2, 3, 4 क्रम यही रहता है। इसी क्रम से नृत्य भी करते हैं आगे-पीछे, नीचे सभी प्रकार से लेजिम चलाते हैं। लेजिम अखाड़े वाले खिलाड़ी ही चलाते हैं। लेजिम के अलग-अलग दल होते हैं। उनके अपने अखाड़ों के नाम होते हैं। दशहरा, काली चल समारोह, गणेश विसर्जन, धार्मिक उत्सव एवं आजकल तो राजनीति में नेताओं को आमन्त्रित किया जाता है। लेजिम दल में 10 व्यक्ति से लेकर 100 व्यक्ति तक रहते हैं। लेजिम नृत्य खेल या संगीत पर आधारित है। इसमें ढोल एवं तासा, बाँसुरी मुख्य वाद्य रहते हैं।
लेजिम का उपयोग व्यायाम के लिये किया जाता है। लेजिम से हाथों की भुजायें, छाती चौड़ी एवं कन्धों पर कसाव आता है। वैसे तो पूरे शरीर का व्यायाम होता है। व्यायाम के लिए सबसे अच्छा साधन है। सबसे पहले इसका प्रयोग सेना को मजबूत-शक्तिशाली बनाने के लिए आर्मी मिलट्री में उपयोग किया जाता है। जो सेना में लेजिम होती थी। 10 किलो से 40 किलो पुराना तौल-नाप 10 से एक मन तक होता था, आज लेजिम का वजन घटकर 1 किलो से 10 किलो तक रह गया है। विशेष 10 किलो तक लेजिम बुन्देलखंड के अखाड़ों में ही है। बुन्देलखंड के सागर जिला में अधिक लेजिम का उपयोग होता है। कुछ लोगों का अनुमान है लेजिम बुन्देलखंड में ही बजती हैं, हालाँकि यह गलत है, मैं ऊपर लिख चुका हूँ कि लेजम महाराष्ट्र में बजायी जाती है किन्तु महाराष्ट्र की लेजिम का वजन एक किलो से ज्यादा नहीं होता है। बुन्देलखंड की लेजम का वजन 2 किलो से 40 किलो तक होता है। बुन्देलख्ंाड के सागर में 5 किलो से 40 किलो वजन है। इन लेजिमों में लोहे की छड़ जिसका वजन 8 किलो है उसके मोटे लोहे के कड़ों में मोटे लोहे बड़े छल्ले डले हैं।
जिसे हम ओरिजिनल लेजिम कहते हैं। सागर जिले में सैकड़ों दल हैं। आज भी बुन्देलखंड के अखाड़े लेजिम बजाने की प्रथा कायम किये हुए हैं। लेजिम के चलाने वाले 2 घंटे से लेकर 7 घंटे तक लगातार लेजिम बजाते हैं। बुन्देलखंड में धार्मिक आयोजन लेजिम चलाने की परम्परा बना चुकी है।
मध्य प्रदेश में अखाड़ों की भूमिका
भारत ग्रामों का देश है यहाँ आज भी अपनी रक्षा के लिए शस्त्रों का सहारा लिया जाता है, इसलिए आज भी बुन्देलखंड के अंचलों में लाठी चलाने वाले तलवार के करतब दिखाने वाले लेजम की लय-ताल वाले कितने आश्चर्य हैं। जो अपने ढंग से शस्त्र कला के विकास के तहत कर रहे हैं, आज भी योग्य लाठी चालक और भाला चालक सैनिक शास्त्रों का उपयोग करते हैं। पुलिस की लाठी चार्ज आज का ज्वलन्त उदाहरण है। क्योंकि यह सुलभ और मितव्ययी साधन है इसलिए यह हमेशा प्रासंगिक रहेगा।
मध्य प्रदेश में अखाड़ों की अहम भूमिका है। मध्य प्रदेश के मालवा, निमाड़, इन्दौर, उज्जैन, झाबुआ, जबलपुर, दमोह, भोपाल, सिहोर, ग्वालियर एवं सागर (बुन्देलखंड) में अखाड़े सक्रिय हैं। इन अखाड़ों में शस्त्रयुद्ध, मल्लयुद्ध, मल्लखम्भ इत्यादि खेलों का काम होता है। इसमें ज्यादातर अखाड़े जबलपुर, इन्दौर, उज्जैन, सागर में सक्रिय हैं। बुन्देलखंड में सबसे ज्यादा अखाड़े सक्रिय हैं इनमें शस्त्रयुद्ध का काम ज्यादा होता है। लेकिन वर्तमान में अखाड़ा संस्कृति सैकड़ों वर्षों से अस्तित्व में रही किन्तु बीसवीं सदी में प्रदेश की जीवन-पद्धति का अंग बनकर रही संस्कृति इसी सदी के अन्तिम दशक तक आते-आते अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्ष कठिन दौर से गुजर रही है। अफसोसजनक तथ्य यह है कि शासकीय प्रकाशनों में प्रदेश के इतिहास में इस संस्कृति का उल्लेख नहीं किया गया है। शासन प्राचीन सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने के दावे करे किन्तु अखाड़ा संस्कृति की सुरक्षा के नाम पर शासन मौन है। शासन की इस घोर उपेक्षा से अखाड़ा संस्कृति (मार्शल आर्ट्स) शस्त्रयुद्ध कुश्ती के खिलाड़ी गर्दिश के दौर से गुजर रहे हैं।
उद्देश्य– अखाड़ा संस्कृति अनादिकाल से चली आ रही बेजोड़ कला है। यह हमारी धरोहर है। इसको जीवित रखना हर भारतीय का धर्म है। हमारी भारतीय संस्कृति का अखाड़ा सांस्कृतिक अंग है। इसको खोया नहीं जा सकता, जिन्दा रखना है। इस कला से मानव जीवन में विशेषकर युवा पीढ़ी को लाभदायक है। शारीरिक व्यायाम बचाव पक्ष खेलों में सहायक है यह कला।
समाज में जरूरत– वर्तमान परिवेश में मानव समाज में अखाड़ा संस्कृति अनिवार्य है। समाज के हर वर्ग के लिए उपयोगी है, इससे बल शक्ति मिलती है। शारीरिक व्यायाम होता है वर्तमान में छात्राओं को इस कला को सीखना चाहिए।
पूर्व एवं वर्तमान में अन्तर– प्राचीन समय में अखाड़ा संस्कृति को प्रमुख प्रोत्साहन मिलता था। हर वर्ग एवं हर समाज के लोग सक्रिय रहते हैं। हृष्ट-पुष्ट रहते हैं खाना-पीना शुद्ध मिलता था। राजा-महाराजा भी सहयोग करने के पहले राजा महाराजा अपनी सेना को ताकतवर बनाने के लिए इन कलाओं का अपनी सेना के लिए प्रशिक्षण शिविर लगाते थे, इसका व्यय अपने राजकोष से करते थे। प्रशिक्षण का सम्मान किया जाता था। इन कलाओं की कीमत होती थी। वर्तमान समय में अखाड़ा संस्कृति की स्थिति खराब है, शासन सहयोग नहीं करता है। समाज में युवा पीढ़ी रुचि नहीं लेती है सिनेमा, टी वी सीरियल पश्चिमी संस्कृति ने युवा पीढ़ी को गुमराह कर दिया। खान-पान शुद्ध नहीं मिलता, महँगाई ने खिलाड़ियों की कमर तोड़ दी, पुराने खेलों को प्रोत्साहन नहीं मिलता, क्रिकेट का जमाना है। शासन द्वारा जो सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं उनमें नृत्य एवं गायन को भारतीय संस्कृति मानते हैं। करोड़ों रुपया खर्च किया जाता है। शासन द्वारा अखाड़ा संस्कृति को कोई स्थान नहीं मिलता। सांस्कृतिक आयोजनों में (मार्शल आर्ट्स) अखाड़ा संस्कृति को शामिल किया जाना चाहिए। एक समय अखाड़े, कसरत शौक नहीं जरूरत होती थी व दिनचर्या का अंग थे।
कलाकारों की स्थिति– वर्तमान में हमारे कलाकारों की स्थिति बड़ी दयनीय है। शास्त्रीय गायन नृत्य वालों को हवाई जहाज से यात्रा, पाँच सितारा होटल आवास एवं करोड़ों मानदेय राशि भुगतान की जाती है। हमारे लोक कलाकारों को रेल गाड़ी में दूसरा दर्जा में यात्रा, धर्मशाला एवं लोकल होटलों में आवास मानदेय राशि 400/- भुगतान की जाती है। खाने के नाम पर कहीं-कहीं कलाकारों को पूड़ी के पैकेट दिये जाते हैं जैसे किसी मन्दिर में गरीबों को दिया जाता है। यह हमारे कलाकारों की दुर्दशा है। जो गलत है।
गुरुओं की दशा एवं दिशा
प्राचीन समय में गुरुओं को शिष्यगण अति सम्मान देते थे, चरण स्पर्श करना, अनिवार्य आध्यात्मिक भाषा का उपयोग होता था। आज्ञा का पालन होता था। गुरु किसी भी कला का हो वह अपने शिष्यों को हृदय से कला-संस्कृति में निपुण करते थे। शिक्षा से चरित्र का निर्माण करते थे। वर्तमान समय में गुरुओं की दिशा-दशा ठीक नहीं है, क्योंकि पहले जैसा समय नहीं रहा। आज का युवा आधुनिकता में बह गया है। सिनेमा, सीरियल, आधुनिक खेल पश्चिमी संस्कृति पर विश्वास करता है। गुरुओं का केवल उपयोग करते हैं, उनकी इज्जत मान-सम्मान से कोई मतलब नहीं। आधुनिक कला पर विश्वास करता है। गुरुओं ने अपनी दिशा बदल दी है। शिष्यों को ज्ञान देना, कला में निपुण करना व्यवसाय बना लिया है। भाई-भतीजावाद हो गया है बिना अर्थ के कोई काम नहीं होता। आज के समय में हर इन्सान धन से हर चीज खरीदना चाहता है, इसीलिए खेलकूद सांस्कृतिक क्षेत्र के अलावा हर विद्या व्यावसायिक हो गयी है। अगर इस पर समाज एवं शासन ने ध्यान नहीं दिया तो आने वाले समय में हर विद्या विलुप्त हो जायेगी। जिस प्रकार से हमारी सांस्कृतिक विद्या में लोक संगीत, लोक कलायें, अखाड़ा संस्कृति विलुप्त होती जा रही हैं।
भगवानदास रैकवार
सागर (म.प्र.)