रंगमंच समिति

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बुन्देलखंड की लोक नाट्य परंपरा बुन्देली लोकभाषा के जन्म से पूर्व की है। बुन्देली का उद्भव आठवीं-नवीं शती में हुआ था, परन्तु उसके पूर्व बुन्देलखंड में दूसरी बोलियों का प्रचलन था। उस समय पुलिन्द, निषाद, शबर आदि आदिम जातियाँ ही थीं। उनमें लोकोत्सवों, लोकनृत्यों, लोकनाट्य-रूपों का प्रचलन था।

इस युग में खास बात यह थी कि लोकनाट्य का जो भी रूप प्रचलित था, वह धर्म की जकड़न से मुक्त होने के कारण परवर्ती लोकनाट्यों की अपेक्षा अधिक स्वच्छन्द था। वे आदिम जातियाँ किसी जाति या दल की निजी सम्पत्ति न होने की वजह से सामूहिक या सामाजिक चेतना से अधिक जुड़े थे।

गुप्त-काल से लेकर हर्षवर्धन (606-47 ई.) तक संस्कृति और कला का उत्कर्ष रहा और संस्कृत नाटकों का मंचन इस क्षेत्र में भी होता रहा। स्वाभाविक है कि लोकनाट्य इस दौड़ में पीछे हो गया। बुन्देलखंड के सामन्तों का बोलबाला था, जिससे प्रजा का शोषण अधिक तेजी से हुआ। ऐसी परिस्थिति में लोककलाओं के विकास की ओर लोगों का ध्यान कम गया।

उसके बाद नौवीं शती तक का समय बुन्देलखंड के इतिहास में अन्धकार-युग कहा जाना चाहिए, क्योंकि यहाँ प्रतिहारों, राष्ट्रकूटों और पालों के आक्रमण  होते रहे और किसी का भी शासन सुस्थिर नहीं रहा। 9वीं शती के उत्तरार्द्ध में चन्देलों ने अपने पैर मजबूती से जमा लिए और इसी वजह से बुन्देली लोकभाषा का उद्भव और विकास सम्भव हो सका।

बुन्देली लोक नाट्य का उद्भव-काल  (1000-1400 ई.)

बुन्देली जनजातियों की लोकसंस्कृति को भी व्यापक प्रसार मिला। मतलब यह है कि 8वीं-9वीं शती में लोकचेतना के आन्दोलन ने इतना जोर पकड़ा कि संस्कृत और प्राकृत भाषाएँ एक खास वर्ग तक सीमित रह गईं और लोकभाषा बुन्देली का विकास हुआ। प्रमाण के लिए तत्कालीन शिलालेखों में चैंतरा’ और बारी’ जैसे लोकशब्दों को लिया जा सकता है और 12वीं शती के जगनिक कृत आल्हखंड’ में बुन्देली महाकाव्य की रचना हुई है ।

खजुराहो के मन्दिरों में लोकोत्सवों और लोकनृत्यों के दृश्यों, गाँव और नगरों में प्राप्त स्तम्भों से लोककलात्मक मूर्तिशिल्प के प्रभाव का पता चलता है। चन्देल-नरेश वाक्पति (845-60 ई.) तो क्रीडागिरि में किरात स्त्रिायों से लोकगीत और लोकसंगीत सुनकर आनन्दित होता था। सम्राट कीर्तिवर्मन (1040-1100 ई.) के समय कृष्ण मिश्र काप्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक अभिनीत किया गया था और चन्देलकालीन रंगशाला के अवशेष महोबा उत्तर प्रदेश में आज तक विद्यमान हैं।

जनता के मनोविनोद के लिए रंगशालाओं या मन्दिरों के महामंडपों का उपयोग किया जाता था। ऐसे उदाहरणों  से स्पष्ट है कि लोकनृत्य और लोकनृत्य के साथ लोकाभिनय भी लोककला-प्रदर्शन का विशिष्ट अंग था। इस दृष्टि से लोकनाट्य स्वाँग इसी समय विकसित हुआ था। लोकधर्म और लोकविश्वास को अनुसरित करनेवाले अभिनय भी होते थे, क्योंकि चन्देलकालीन समाज में कृषि और धर्म सम्बन्धी विविध रीतियाँ प्रचलित थीं और अनार्य जातियों में तंत्र-मंत्र के प्रभाव के कारण भूत-प्रेत में दृढ़ विश्वास था।

देवी का भाव’-अभिनय, उत्सव-यात्रा में नृत्यादि के साथ अभिनय, नकल, मूक अभिनय तो होता ही था, मन्दिरों में नृत्यपरक अभिनय भी प्रचलित थे। चन्देल-नरेश परमर्दिदेव (1165-1203  ई.) के समय लाखा पातुर इतनी विख्यात थी कि दिल्ली के पृथ्वीराज चैहान ने उसकी माँग की थी। जनश्रुति है कि वह खजुराहो के उत्सवों में नृत्य करने में सर्वाधिक कुशल मानी गई थी। नृत्य और अभिनय की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती थीं, पर यह कहना कठिन है कि इनमें लोकनाट्य भी सम्मिलित थे।

परमर्दिदेव के मन्त्री नाटककार वत्सराज केषट् रूपकम्’ से स्पष्ट है कि वसन्तोत्सव में उसके रूपक मंचित किए गए थे जिनमें ऐसे भी थे जो लोकनाट्य कहे जा सकते हैं और जिनसे यह भी सिद्ध है कि भँड़ैती जैसी लोकनाट्य-कला उस समय विद्यमान थी। संक्षेप में, लोकनाट्य का उद्भव 10वीं शती में हो चुका था और आदिकाल में यह विधा निरन्तर विकास करती रही।

मध्ययुग का उत्कर्ष-काल (1401-1840 ई.)

13वीं शती तक चन्देलों के राज्य में यह प्रदेश शान्त रहा, लेकिन 14वीं-15वीं शती में विदेशी आक्रमणों से बिखरने लगा था। तभी ग्वालियर पर तोमरों का अधिकार हो गया और लगभग एक सौ वर्ष साहित्य और कला की प्रगति के लिए उल्लेखनीय रहे। तोमरनरेश डूँगरेन्द्रसिंह (1424.54  ई.) और मानसिंह (1486-1516  ई.) के समय कविवर विषणु दास और संगीतकार बैजू बावरा द्वारा विष्णु पदों और ध्रुवपदों की रचना तथा उनकी गायकी की प्रतिष्ठा कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण थी।

देसी संगीत के आन्दोलन ने लोककलाओं और लोकाभिनय को प्रोत्साहन दिया। दूसरा आन्दोलन था भक्ति-आन्दोलन, जिसने उस समय की अनुकूल परिस्थिति में लीलापरक लोकनाट्यों का विकास किया। रासलीला का लोकरूप ब्रज से प्रभावित होकर जन्मा और रासलीला का भी विकास हुआ। मध्यकालीन बुन्देलखंड में रियासतें ही थीं, कुछ मुगलों के अधीन और कुछ स्वतन्त्र।

सामन्तवाद और दरबारीपन दोनों में था, इस लिये राई लोकनृत्य का प्रचलन अधिक लोकप्रिय हुआ और भोगलिप्सु सामन्तों तथा रसिक जनता ने उसे बहुत प्रश्रय दिया। मनोविनोद और चुहलबाजी के लिए विदूषक जैसे पात्र उससे जुड़ गए। इस प्रकार वह नृत्यपरक लोकनाट्य में परिवर्तित हो गया। विदेशी संस्कृति की प्रतिक्रिया बौद्धिक मस्तिष्क से लोकचेतना में आई और स्वाँग लोकनाट्य में व्यंग्यप्रधान होकर अभिव्यक्त हुई। इस कारण आदिकालीन स्वाँग अब काफी चुटीला हो गया और लोकचेतना को झकझोरने के लिए यह अनिवार्य भी था।

मध्ययुग की देन नौटंकी लोकनाट्य थी, जो तत्कालीन विलासितापरक वातावरण और पर्सियन शैली के नाटकों से जन्मी थी। दूसरे जनपदों में उसे भगत, स्वांग और संगीत कहा जाता है, पर बुन्देली प्रदेश में भगतें देवी के भजन हैं, जबकि स्वाँग नौटंकी या संगीत से बिल्कुल भिन्न है। यहाँ नौटंकी सम्भवतः हाथरस से आई और बुन्देली रंग से रंजित होकर प्रचलित हुई। उसमें भाषा का खड़ापन और उर्दुआना अन्दाज वैसा ही रहा, केवल स्वर बुन्देली का हो गया था।

ग्वालियर के तोमरों के आश्रित रचे गए कथाकाव्यों में प्रमुख छिताई कथा’ (1516  ई. के लगभग) के कई स्थलों में अखाड़े का वर्णन मिलता है। विश्णु दास की कृति महाभारत’ (1435  ई. के लगभग) से लेकर बोधा कवि के प्रबन्ध विरह वारीश (संवत् 1812 अर्थात् 1755 ई. के लगभग) तक तीन सौ वर्षों के ग्रन्थों में अखाड़ों का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि मध्ययुग में अखाड़ा एक लोकप्रिय संस्था थी।

काव्य, संगीत, नृत्य, नाटक आदि ललित कलाओं की प्रतियोगिता और प्रदर्शन के सर्वमान्य मंच ये अखाड़े राज्याश्रित और लोकाश्रित थे। छिताई कथा के छन्द 210 से स्पष्ट है नित नवरंग अखारे होई। नट-नाटक-आवई सब कोई।। नट तो लोकनाट्य का प्रमुख पात्र था। अखाड़ों के नाटक लौकिक प्रेम से अधिक जुड़े थे। उनमें मनोविनोद और दरबारीपन का प्रभाव था, लेकिन धार्मिक नाटक भी मंचित होते थे।

प्रेम-श्रंगार-परक लोकनाट्यधारा के साथ धार्मिक या भक्तिपरक लोकनाट्यधारा भी चलती रही। सगुण  भक्ति के लोकनाट्य अधिक थे, निर्गुनिया कम। निर्गुनियों में अब काँड़रा लोकनाट्य ही शेष है। काँड़रा पहले लोकनृत्य था, जो निर्गुनिया भजन पर होता था। बाद में आख्यानक होने पर वह लोकगीतनाट्य बन गया तथा काफी लोकप्रिय हुआ। ग्वालियर के निकट बरई गाँव से मानसिंह तोमर ने राछ नामक रंगशाला बनवाई थी । तत्कालीन कवि खड्गसिंह ने अखाड़े का निर्माण भी इसी जगह बताया है…..

पर्वत घाटी बाँधी जहाँ, खेले भूप अहेरैं तहाँ।
डाँग बँधाई महल जु भए, तहँ तहँ भूप अखारैं ठाए।।

राछ शब्द रास से निकला है। इस वन्य प्रदेश की रंगशाला में लोकनाट्य ही खेले जाते थे। भँड़ैती’ भी इस युग में सर्वप्रिय लोकनाट्य थी। वैसे आदिकाल में उसकी मौजूदगी के संकेत मिलते हैं, पर उसे उतना विकास नहीं मिल सका, क्योंकि उस समय का सांस्कृतिक परिवेश उसके लिए उतना उपयुक्त नहीं था जितना मध्ययुग का। मध्ययुग की दरबारी संस्कृति में वह पल्लवित-पुष्पित हुआ। आचार्य केशव की रामचन्द्रिका’ में भँड़ैती के द्वारा भाँड़ों के सम्मान पाने का उल्लेख इस तथ्य का साक्षी है कि 17वीं शती में लोकनाट्य उत्कर्ष पर था।

लोक चेतना का पुनरूत्थान (1841-1910 ई.)

17वीं शती के बाद सौ-सवा सौ वर्ष तक लोकनाट्य परम्परित स्थैर्य से जकड़ा रहा, क्योंकि लोक श श्रंगारपरक कविता की रंगीनी और रसिकता में उलझा रहा। 1840 ई. में जैतपुर नरेश पारीछत का अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध और 1840 ई. से 1857 ई. तक की बुन्देलों हरबोलों की कविताई राष्ट्रीयता के साक्ष्य हैं। लोककवि ईसुरी भी लोकचेतना के उत्थान का प्रतिनिधित्व करते है।

उन्नीसवीं सदी के चौथे चरण  के बाद स्वाँग के विषय नए सन्दर्भों से जुड़े और रामलीला मे राक्षसों के संहार तथा रासलीला के कंस-वध जैसे प्रसंगों को और अधिक बल दिया गया। नृत्यपरक लोकनाट्यों में धार्मिक कथाओं के स्थान पर प्रेमकथाएँ मंचित की जाने लगीं जिससे समाज में प्रेम के नए अंकुर फूटें। सामाजिक समस्याओं की अभिव्यक्ति के लिए जातिपरक लोकनाट्यों में जातीय भेदभाव, द्वेष आदि को स्थान दिया जाने लगा। मतलब यह है कि पुनरुत्थान की वैचारिकता के लिए बुन्देली लोकनाट्य काफी लचीले होते गए और उन्होंने नवजागरण के दायित्व का निर्वाह किसी-न-किसी रूप में  अवश्य किया।

आधुनिक काल (1911-1986 ई.)

ईसाई मिशनरियों और अंग्रेज विद्वानों के लोकसाहित्य-सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण कार्य से प्रेरित होकर बंगाल, बिहार, गुजरात आदि प्रदेशों में सर्वेक्षण और संग्रह का कार्य 20वीं शती के दूसरे दशक से प्रारम्भ हुआ था। (1929  ई.) से आधुनिक काल का प्रवेश माना जाता है। जहाँ तक लोकनाट्यों का सम्बन्ध है, उनकी आधुनिकता के दो पक्ष बुन्देली प्रदेश मे मिलते हैं।1. सृजन की परम्परा और, 2. मंचन के प्रयोग।

सृजन-परम्परा का क्रमबद्ध अनुशीलन प्रस्तुत करना तो कठिन है, पर उदाहरण के तौर पर  टीकमगढ़-महारानी बृषभान-कुँवरि का सम्भ्रम मानलीला (1914  ई.) से स्पष्ट है कि दूसरे दशक मे ही लोकनाट्यों का सृजन प्रारम्भ हो गया था। रामरसिक कवयित्रियों ने जहाँ विभिन्न प्रकार के लोकगीतों की रचना की थी, वहाँ लीलापरक लोकनाट्यों का उद्भव हुआ। 

बिजावर महारानी का श्री युगल विरहलीला रहस रासपद्धति का लीला-लोकनाट्य है। ऐसे लोकनाट्य सिर्फ पद्यबद्ध होते हैं, इसलिए उन्हें लोकगीतिनाट्य कहना ठीक होगा। आधुनिक परिवेश और समाज की समस्याओं पर स्वाँग और नौटंकियाँ अधिक लिखे गए। आजादी के पहले के मंचन-प्रयोग परम्परित थे, पर बाद की नवीनता और मौलिकता के नाम पर विकृतियों के प्रतीक। लोकमंच में नए वैशिष्ट्य की तलाश लोकनाट्यों के प्रति आत्मीयता का रिश्ता कायम करने से ही होगी।

नाट्य रूप  और उसकी परम्परा

लोकनाट्यों का वर्गीकरण कई दृष्टियों से किया जा सकता है, लेकिन यहाँ बुन्देली के सात प्रमुख रूपों की क्रमबद्धता उनके विकास के आधार पर निश्चित की गई है। स्वाँग सबसे प्राचीन है क्यों कि बुन्देली के जन्म से जुड़ा है। राई लोकनृत्य के रूप में मध्ययुग से शुरू का है और लोकनाट्य के रूप में भी शेष नाट्यरूपों से पहले प्रचलित हुआ है।

भक्ति-आन्दोलन से प्रेरित रासलीला- रामलीला के बाद की है। इतना अवश्य है कि रासलीला के अनुकरण पर रामलीला की नई शैली प्रारम्भ हुई है। काँड़रा लोकनृत्य सगुण भक्तिपरक लीलाओं के समानान्तर उनकी प्रतिक्रिया मे जन्मा, पर लोकनाट्य के रूप में बाद में विकसित हुआ। भँड़ैती स्वाँग का ही अंकुर है जो ‘भाण’ के रूप मे चन्देल-कालीन रूपककार वत्सराज के ‘कर्पूर-चरित’ मे दिखाई पड़ता है।

मध्ययुग के सामन्ती परिवेश मे महफिली हास-परिहास से भाँड़ों का मसखरापन और नकल प्रचलित है। 18वीं-19वीं शती की दिल्ली और अवध की महफिलों मे भाँड़ों का बहुत जोर रहा जिससे पूरा उत्तर भारत प्रभावित हुआ। नौटंकी 20वीं शती के प्रारम्भ मे यहाँ प्रचलित हुई और किसी नए नाट्यरूप की उद्भावना नहीं हुई।

बुन्देलखण्ड में प्राचीनकाल में चरखारी पारसी थियेटर का केंद्र  रहा है। संस्कृत नाटककार भवभूति के नाटकों का मंचन कालपी के निकट कालप्रियनाथ मन्दिर की विशाल रंगशाला में हुआ करता था । भवभूति ने उत्तर रामचरितम् की प्रस्तावना में स्वंय स्वीकार किया है कि कालप्रियनाथ-यात्रा के समय कालप्रिय नाथ मंदिर की रंगशाला में उनके नाटकों उत्तर रामचरितम्, मालती माधव तथा महावीरचरितम् का प्रथम मंचन हुआ था।

दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी चरखारीसे दी जय हिन्द थियेट्रिकल कंपनी तक

ओरछा का अखाड़ा कला, संगीत एवं रंगकर्मो के संबर्द्धन के लिये अति विख्यात रहा है । सुप्रसिद्ध नर्तकी राय प्रवीण वहा नृत्यांगनाओं की प्रमुख थी । प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के पूर्व झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के पति राजा गंगाधर राव की रंगशाला उच्च्चकोटि की सुविधाओं से युक्त थी। राजा गंगाधर राव स्वंय अच्छे रंगकर्मी थे। उन्होंनें रंगमण्डल गठित करके उसे पोषित और संवर्धित किया था। अंग्रेजों ने उस रंगशाला को नष्ट करके एक सांस्कृतिक केन्द्र को ध्वस्त कर दिया था।

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में, हिन्दी फिल्म उद्योग प्रारम्भ होने के पूर्व देश में पारसी थियेटर का वैभव शिखर पर था। उस समय यह थियेटर्स लोकरंजन का सबसे बड़े साधन थे। कलकत्ता, बम्बई तथा देश के बड़े नगरों में पारसी एलफिंस्टन थियेट्रिकल कंपनी तथा अल्फ्रेड कंपनियों का बोलबाला था।

उस समय के अग्रणी नाटककार आगाहश्र कश्मीरी दि ग्रेट शैक्सपियर थियेटर कंपनी कलकत्ता का स्वयं संचालन कर रहे थे। इन सभी थियेर्स में आगाहश्र द्वारा लिखित नाटकों की धूम रहती थी। देश के कोने-कोने से हजारों नाट्यप्रेमी उनके नाटक देखने इन नगरों में जाते थे।

इस वातावरण में बुन्देलखण्ड के चरखारी राज्य के नाट्यप्रेमी महाराजा अरिमर्दन सिंह जूदेव ने बुन्देलखण्ड की जनता को पारसी थियेटर का आनन्द देने के लिये चरखारी को पारसी नाटकों का सशक्त केन्द्र बनाने का संकल्प लिया तथा वे इसमें सफल भी हुये। उन्होंने दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी चरखारी की स्थापना की थी। वहां एक भव्य रंगशाला का निर्माण कराया तथा नाटककार आगाहश्र कश्मीरी को चरखारी लाकर राजकीय अतिथि का सम्मान दिया । वहां लगभग ढाई वर्ष रहे। वहीं उन्होंने अपने सर्वोत्तम नाटक सीता बनवास तथा राम अवतार (अप्रकाशित ) की रचना की थी ।

चरखारी में ही सीता बनवास लिखने के पश्चात् उसके पूर्वाभ्यास में अत्यन्त श्रमपूर्व समय दिया तथा उसका मंचन कराया। इन नाटकों को देखने बुन्देलखण्ड के छोटे-मोटे अन्य राज्यों के सुदूर क्षेत्रों से जनता चरखारी आती थी। इस प्रकार चरखारी देश में पारसी थियेटर का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया था।

चरखारी उत्तर प्रदेश राज्य में महोबा से 21 किमी दूर स्थित है। यहां के बुन्देला शासकों ने वहां मंगलगढ़ का भव्य दुर्ग, उसका कलात्मक प्रवेशद्वार ड्योढ़ी दरवाजा, अनेक सरोवर, महल तथा कलात्मक मंदिर बनवाकर उसे बुन्देलखण्ड का कश्मीर बनाने की कोशिश की थी। इसे देखने दूर दराज से लोग आते थे।

यहां के शासक राजा अरिमर्दनसिंह जूदेव की नाट्यप्रियता ने यहां भव्य रंगशाला भी बनवाई तथा वार्षिक राजस्व का एक बड़ा भाग उसके रखरखाव पर व्यय किया। स्वयं रंगकर्मी के रूप में रंगमण्डल का विकास किया था। आगाहश्र कश्मीरी जैसे श्रेष्ठ नाटककारों को भारी मानदेय देकर सम्मानपूर्वक रखा।   

किन्तु चरखारी का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि भौगोलिक स्थिति की विडंबना, रेल एवं लेक व्यू पैलेस, चरखारी जहाँ रह कर आग़ाहश्र ने सीता वनवास” नाटक लिखा राजपथ से उपेक्षित तथा सुदूर होने कारण यह नगर देश में पारसी थियेटर का तीसरा सशक्त केन्द्र होने के बावजूद, राष्ट्रीय मानचित्र पर स्थान नहीं पा सका ।

केवल चरखारी नरेश अरिमर्दन सिंह जू देव ही नहीं, उनकी महारानी (राजकुमारी नेपाल) भी रंग-प्रेमी थी। वह उनके साथ कलकत्ता नाटक देखने जाती थीं। एक बार यह राजदम्पत्ति अपने सेकेट्री यहिया अलवी तथा ए.डी.सी. उम्मेद खां के साथ कलकत्ता गये। न्यू अलफ्रेड कंपनी के कोरंथियन थियेटर्स में आगाहश्र का नाटक आंख का नशाचल रहा था। बुकिंग काउन्टर से पता चला कि शो हाउस फुल हो चुका था।

महाराज इसी शो में नाटक देखना चाहते थे। उनका थियेटर प्रबंधकों से विवाद हो गया तथा बात की बात में उन्होंनं थियेटर के पारसी मालिक से मिलकर न्यू अल्फ्रेड कंपनी लगभग सवा लाख रूपये में खरीद ली। वह उसे पूरी साज सज्जा तथा प्रमुख कलाकारों के साथ चरखारी ले आये। प्रथम चरण में इस कंपनी को वहां के रावबाग पैलेस के निकट ठहराया गया।

चरखारी में भगवान गोवर्धननाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। जो वहां के शासकों द्वारा प्रबंधित रहा है। इस मंदिर की ओर से कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक विशाल व्यापारिक मेला लगता है, जिसमें बुन्देलखण्ड के दूर दराज से व्यापारी तथा दर्शक आते हैं। पहली बार इस मेले में प्रतिदिन एक नाटक मंचित किया गया।

इस प्रकार आगाहश्रृत पंद्रह नाटक मंचित किये गये। इससे इन नाटकों की लोकप्रियता पूरे क्षेत्र में फैल गयी । इससे उत्साहित चरखारी के रंगमण्डल के सदस्यों तथा कम्पनी के कलाकारों को मिलाकर दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी चरखारी की स्थापना की गयी ।

भव्य रंगशाला बनाने का निर्णय लिया गया। पहले इस कंपनी का नेतृत्व आगाहश्र के छोटे भाई आगा महमूदहश्र कर रहे थे किन्तु तय हुआ कि आगाहश्र को ही निर्देशक बनने के लिये तैयार किया जावे। महाराज आगाहश्र से अभिभूत थे। उस समय चरखारी के तहसीलदार का वेतन प्रतिमाह चांदी के पच्चीस कलदार थे किन्तु आगाहश्र को पन्द्रह सौ चांदी के कलदार प्रतिमाह मानदेय देना तय किया गया। साथ ही चरखारी के विशिष्ट राजकीय अतिथि गृह लेक व्यू पैलेस”, जिसे जनभाषा में ताल कोठी कहते हैं, उनको उपलब्ध कराया गया ।

कमल के सौन्दर्य-वैभव से भरपूर 56 हेक्टेयर में विस्तृत इस सरोवर का नैसर्गिक दृश्य मनभावन था। खान-पान तथा सुरा का व्यय राजकीय कोष से दिया जाना स्वीकार कर लिया गया। इन समस्त सुविधाओं तथा चरखारी के वैभव से प्रभावित आगाहश्र ने चरखारी आना स्वीकार कर लिया। वे जनवरी 1926 में चरखारी पहुंचे तथा मई 1928 तक उनके चरखारी में रहने की सूचना मिलती है।

चरखारी नरेश ने आगाहश्र से यह भी अनुरोध किया वे अपने चरखारी को ऐतिहासिक बनाने के लिये एक सुन्दर धार्मिक नाटक लिखें, उसका पूर्वाभ्यास कराकर तैयार करायें। साथ ही स्वयं निर्देशन करके उसके शो मंचित करायें। उक्त अनुरोध पर आगाहश्र ने सीता वनवास तथा रामअवतार नाटकों की रचना की। दो लिपिकों बरजोरे, (गुजराती) तथा गोकुलप्रसाद डुलिया (स्थानीय) द्वारा आगाहश्र के डिक्टेशन पर यह नाटक लिखा गया । इसके कापीराइट भी दि रायल ड्रामाटिकल सोसायिटी ने ले लिये थे। इसके साथ ही चरखारी नरेश ने उनसे एक भव्य रंगशाला के निर्माण का निर्देशन करने का भी अनुरोध किया।

नाट्य विशेषज्ञों तथा वास्तुविदों की देख-रेख में रंगशाला का निर्माण 1927 ई.  में दीपावली के पूर्व ही लगभग डेढ़ वर्ष में पूर्ण कर लिया गया । 1927 के गोवर्धन नाथ मेले में रंगशाला का शुभारम्भ हो गया। इसके निर्माण, सहयोगी व्यवस्थाओं तथा साज-सज्जा पर चरखारी नरेश अरिमर्दन सिंह जू देव ने उदारता से पैसा खर्च किया।

मंच लकड़ी की तखतों से पाटा गया था। श्रोताओं तक ध्वनि-प्रेषण की समुचित व्यवस्था करने तथा ध्वनि-ईकों रोकने हेतु ऊपर छत में मिट्टी के घड़े लटकाकर पांरपरिक विधि से ध्वनि – नियंत्रण की व्यवस्था की गयी थी । थियेटर की स्वनियंत्रित रंगदीपन व्यवस्था, यवनिका – विधान, दृश्य सज्जा एवं चित्रकला विभाग, वेश सज्जा विभाग, अभिनय विभाग नृत्य विभाग एवं संगीत विभाग थे। रंगदीपन के लिये श्रेष्ठतम् उपकरण लाये गये थे। मंच पर रंगदीपन एवं परिसर को निर्बाध आलोकित रखने हेतु हालैण्ड से आयातित पचास HP का जैनरेटर लगाया गया था।

यवनिका-विधान भी अभूतपूर्व था । यवनिकाओं पर जीवन्त दृश्य एवं चित्रावलियां बनाने के लिये दिल्ली तथा बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध चित्रकारों को लगाया गया था । यवनिकाओं को लपेटने के बजाय लकड़ी के फ्रेम में लगी पूरी सीनरी मंच के ऊपर चढ़ाने ओर नीचे गिराने की विशेष व्यवस्था थी। इसके लिये दृश्य सज्जा विभाग में तीस दृश्य-परिवर्तक (सीनरी शिफ्टर) कर्मचारी थे।

वेष-भूषा  विभाग के भी दो अनुभाग थे। एक वेष निर्माण का तथा दूसरा वेष-सज्जा का। वेष-भूषा निर्माण विभाग में कुशल दर्जियों की नियुक्ति की गयी थी। जो पात्रों के वस्त्र – विन्यास के अनुरूप, उनकी नाप की पोशाकें तैयार करते थे। अभिनय विभाग में लगभग 20 अभिनेता तथा 32 नर्तक थे। इसमें कुछ अभिनेता कलकत्ता से आये थे शेष चरखारी के थे।

महिलाओं की भूमिका के लिये एक अति सुन्दर युवक साबिर कश्मीरी” को आगाहश्र अपने साथ लाये थे। उसकी महिलानुरूप भाव-भंगिमाओं और प्रस्तुति ने थियेटर को चर्चा का विषय बना दिया था। स्थानीय लोग उसका अभिनय देखने दूर-दूर से आते थे। चरखारी में महिला कलाकारों की व्यवस्था नहीं थी, इसलिये कुछ महिला कलाकार बाहर से बुलाये जाते थे । किन्तु उनमें अधिकांश नृत्यांगनायें ही होती थीं।

थियेटर का अपना संगीत विभाग था। जिसमें विभिन्न वाद्यों के सिद्धहस्त वादक नियुक्त किये गये थे। थियेटर में प्रमुख दायित्व निम्न प्रकार थे-

निर्देशक एवं लेखक – आगाहश्र कश्मीरी,
नृत्य निदेशक –  मास्टर चमन लाल तथा नर्वदाशंकर,
सह निर्देशक एवं प्रभारी एक्टर विभाग – वाहिद अली,
रंगदीपन प्रभारी  –  अल्ताफ हुसैन,
दृश्य सज्जा (कला प्रभाग) प्रभारी  –  पुरूषोत्तम तथा गिरजा पेन्टर,
दृश्य सज्जा प्रभारी – रामगोपाल चौबे, बापे, मुन्नी बाबू,
वेष निर्माण  –  फूल खां, प्राम्टर – गोकुलप्रसाद दिहुलिया,
भण्डार प्रबंधक  –  जुगल प्रसाद श्रीवास्तव, शो प्रबंधक-शंकर प्रसाद त्रिपाठी,
सामान्य प्रबंधक – कामता प्रसाद सक्सेना,
स्वत्वाधिकारी  –  मु.यहिया अलवी, सेक्रेटरी चरखारी स्टेट ।

थियेटर में कुल मिलाकर एक सौ बीस से अधिक कलाकार एवं कार्यकर्ता थे। जिनके ऊपर चरखारी राज्य का साठ हजार रूपया वार्षिक बजट था। केवल सीता वनवास नाटक के लेखन और तैयारी पर पचास हजार रूपयों से अधिक व्यय किया गया था। इसे फिजूलखर्ची मानते हुये ब्रिटिश शासन के नौगांव स्थित पालिटिकल एजेन्ट ने आपत्ति की थी।

उसके द्वारा बार-बार परेशान किये जाने पर महाराजा अरिमनर्दन सिंह चरखारी छोड़कर दिल्ली चले गये और थियेटर अनाथ हो गया। बाद में बड़ी महारानी (नेपाल वाली महारानी) ने अपने व्यक्तिगत कोष से थियेटर चलाने की अनुमति दे दी। किन्तु थियेटर अधिक दिन चल नहीं सका। प्राचीन रंगशाला की सीनरियां, पोशाकें, सजावटी सामान कौड़ियों के भाव बेच डाले गये ।

स्वाधीनता के बाद हमीरपुर, जालौन के सांसद मन्नूलाल द्विवेदी ने स्थानीय कलाकारों को जोड़कर दी जय हिन्द थियेट्रिकल कंपनी चरखारी की स्थापना की किन्तु धनाभाव के कारण यह कंपनी भी अकाल काल कवलित हो गयी। किन्तु स्थानीय कलाकार निराश नहीं हुये। वे फाका मस्ती के माहौल में भी मंच को जिन्दा रखने की कोशिश करते रहे किन्तु शासकीय संरक्षण के अभाव मं यह रंगमण्डल बिखर गया।

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

शोध एवं आलेख
गौरीशंकर रंजन

रंगमंच समिति
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डॉ वीरेन्द्र कुमार निर्झर जी 

आपने बुन्देली कहावतों का भाषा वैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय अनुशीलन कर मध्यप्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग के सेवासदन महाविद्यालय बुरहानपुर मप्र में विभागाध्यक्ष के रुप में पदस्थ रहे।

बुन्देली धरती के सपूत डॉ वीरेन्द्र कुमार निर्झर जी मूलतः महोबा के निवासी हैं। आपने बुन्देली कहावतों का भाषा वैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय अनुशीलन कर मध्यप्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग के सेवासदन महाविद्यालय बुरहानपुर मप्र में विभागाध्यक्ष के रुप में पदस्थ रहे। अखिल भारतीय साहित्य परिषद मालवा प्रांत, हिन्दी मंच,मध्यप्रदेश लेखक संघ जिला बुरहानपुर इकाई जैसी अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष रहे। आपके नवगीत संग्रह -ओठों पर लगे पहले, सपने हाशियों पर,विप्लव के पल -काव्यसंग्रह, संघर्षों की धूप,ठमक रही चौपाल -दोहा संग्रह, वार्ता के वातायन वार्ता संकलन सहित अनेक पुस्तकों का सम्पादन कार्य किया है। आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से कहानी, कविता,रूपक, वार्ताएं प्रसारित हुई। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक लेख प्रकाशित हैं। अनेक मंचों से, संस्थाओं से राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया है। वर्तमान में डॉ जाकिर हुसैन ग्रुप आफ इंस्टीट्यूट बुरहानपुर में निदेशक के रूप में सेवायें दे रहे हैं।

डॉ. उषा मिश्र 

सेवा निवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी केमिस्ट्री और टॉक्सिकोलॉजी गृह विभाग, मध्यप्रदेश शासन।

नाम – डा. उषा मिश्रा
पिता – डा.आर.सी अवस्थी
पति – स्व. अशोक मिश्रा
वर्तमान / स्थाई पता – 21, कैंट,
कैंट पोस्ट ऑफिस के सामने,
माल रोड, सागर, मध्य प्रदेश
मो.न. – 9827368244
ई मेल –
usha.mishra.1953@gmail.com
व्यवसाय – सेवा निवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी ( केमिस्ट्री और टॉक्सिकोलॉजी ) गृह विभाग, मध्यप्रदेश शासन।
शैक्षणिक योग्यता – एम. एससी , पीएच. डी.
शासकीय सेवा में रहते हुए राष्ट्रीय – अंतराष्ट्रीय कान्फ्रेंस में शोध पत्र की प्रस्तुति , मिनिस्ट्री ऑफ़ होम अफेयर, गृह विभाग द्वारा आयोजित वर्क शॉप, सेमिनार और गोष्ठीयों में सार्थक उपस्थिति , पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज सागर में आई. पी. एस., डी. एस. पी. एवं अन्य प्रशिक्षणु को विषय सम्बन्धी व्याख्यान दिए।

सेवा निवृति उपरांत कविता एवं लेखन कार्य में उन्मुख, जो कई पत्रिकाओं में प्रकाशित।
भारतीय शिक्षा मंडल महाकौशल प्रान्त से जुड़कर यथा संभव सामजिक चेतना जागरण कार्य हेतु प्रयास रत।