विशेष नृत्य
June 24, 2024तत् वाद्य यंत्र
June 25, 2024जन सामान्य जब अपने मुदुल आनन्द के सागर में डूबने उतराने लगता है तब स्वतः ही उसके हृदय से उठने वाले भाव, अंगों प्रत्यंगों में गतिशीलता उत्पन्न कर देते हैं। यही गतिशीलता नृत्य का स्वरूप धारण कर मन मयूर को झंकृत कर देती है। बुन्देलखण्ड की रसदार लास्यामी माटी ने अंग प्रत्यंगों की गतिशीलता को नृत्यरूप अंगीकार कर अपने उल्लसित भावों की माला में पिरोया है। यहॉं के लोक नृत्यों की अपनी विशिष्टतायें हैं जो सृजन में मौलिकता लिये है। भावों में उत्साह लिये है, पदसंचलन में गतिशीलता है। अंग- प्रत्यंगों में उल्लास है। नेत्रों में जागृति है एवं सम्पूर्णता में दिव्यता का आभास संचारित करते हैं। यहॉं के लोक नृत्यों की विशिष्टतायें क्रमबद्धता की मोहताज नहीं। फिर भी विनम्र चेष्टा निम्नवत् हैं –
आनन्द सागर का उमड़ाव
यहॉं के लोक नृत्यों से वातावरण में आनन्द ही आनन्द व्याप्त हो उठता है। नृत्यों की गति के साथ लोगों के हाथ पैर स्वतः थिरकने लगते हैं। लोग नृत्य की लय में उल्लास युक्त होकर अपनी निजी व्याधियों को, उलझनों को भूल जाते हैं और आनन्द सागर के उमड़ाव में गोते लगाकर अपने मन को लहरों की भांति उन्मुक्त विचरने को छोड़ देते हैं। चारों ओर सिर्फ उल्लास ही उल्लास हुमकने लगता है।
नृत्यों की सरसरता व सरलता
बुन्देलखण्ड के लोक नृत्य सरस हैं। लोक गीतों की मधुरता के साथ इनकी थिरकन सरसता से ओत-प्रोत हो उठती है। ये नृत्य सभी के लिये गम्य है एवं सर्व साधारण इनको अपनाते हुये आनन्द का अनुभव करता है। इन नृत्यों में अंगों प्रत्यंगों का संचालन अत्यन्त सरल है। इनके संचालन हेतु सतत् अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है और न ही किसी गुरु से गुरुदीक्षा लेनी पड़ती है। इन नृत्यों के लिये किसी गुरु को अपने विशेष शिष्यों की उन्नति हेतु एकलव्य की बलि देने का स्वप्न नहीं आता है।
जीवन को गति प्रदान करते हैं
आज के भौतिक एवं उपभोक्तावादी संस्कृति के युग में आमतौर पर व्यक्ति तनावग्रस्त रहता है जिसके कारण उसकी जीवन शैली में एक स्थिरता सी आ जाती है। जब वह तनावग्रस्त व्यक्ति इन लोक नृत्यों के वातावरण में प्रवेश करता है तो वह अपने तनाव को विस्मृत पाता है और नृत्यों की सरसता में उसका मन आल्हादित हो झूम उठता है। यही आल्हाद उसके जीवन को गतिशीलता प्रदान करता है।
नृत्य स्वयं के सृजित होते हैं
यहॉं के नृत्य मन की थिरकन पर आधारित होते हैं। मन के उल्लसित मनोभावों के कारण अंगों का स्वसंचलन ही लोक नृत्यों का आधार है। मन मयूर जब हर्ष से थिरकता है तो अंगों का रक्त प्रवाह स्वमेव अंगों को नृत्यरत कर देता है। अतः लोक नृत्य मन के भावों से संचालित होकर अपनी लयबद्धता स्वतः निर्धारित करते हैं। इसी कारण ये स्वसर्जित होते हैं।
विभिन्नता में एकरूपता का निरुपण
आज का समाज भिन्न-भिन्न प्रकार की विभिन्नता में विभक्त है। कहीं ऊँच नीच है, कहीं जातिगत एकता का अभाव है, कहीं जातिगत विभिन्नता है। परन्तु लोक नृत्यों के धरातल पर सब विभिन्नतायें समाप्त होकर नृत्य की लास्य चेष्टाओं के वशीभूत होकर, विभोर होने लगते हैं। नृत्य के समाज में सभी विविधतायें एकरूपता में परणित हो जाती है।
शास्त्रीयता का अभाव
जिस प्रकार से वेदों और शास्त्रों की उत्पत्ति का आधार लोक है उसी प्रकार से शास्त्रीय नृत्यों का आधार भी लोक नृत्य हैं। परन्तु लोक नृत्य शास्त्रीयता के नियमों से मुक्त है। इन लोक नृत्यों पर अंग संचलन के कोई नियम उपनियम लागू नहीं होते हैं। मनमयूर के डोलने से इन लोक नृत्यों की लयबद्धता निर्धारित होती है। अस्तु ये नृत्य नियमबद्धता की बेड़ियों से विलग रहते हैं।
संस्कार व परम्पराधारित
बुन्देली लोक जीवन के ये नृत्य यद्यपि शास्त्रीय नियमों से बँधे नहीं हैं तथापि इनका आधार संस्कार युक्त जीवन शैली से ओतप्रोत है। हिन्दू समाज में मान्य षोड़स संस्कार ही इन लोक नृत्यों की भाव भूमि है जिस पर परम्पराओं की थाती ने श्रृंगार किया है और अध्यात्मिक विश्वासों ने दृढ़ सम्बल प्रदान किया है। ये लोक नृत्य अध्यात्मिक भावनाओं को अपने हृदय में बसाकर प्रेम व स्नेह की परम्पराओं के रस में डूबकर ऐसे संस्कार युक्त वातावरण का सृजन करते हैं जो शास्त्रीय नृत्यों के विशाल गगनचुंभी प्रसादों के आधार बनते हैं। इसी कारण इन लोक नृत्यों में आध्यात्मिक विश्वास व परम्पराओं का बाहुल्य होता है एवं अन्य चेष्टायें गौण होती हैं।
अप्रत्यनशील सरलता
यहॉं के लोक नृत्यों में नृत्यन हेतु कोई विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। ये तो ऐसे सरल होते हैं जैसे हृदय के भाव। हृदय से जब कोई भाव निकलता है तो स्वतः ही वह भाव सामने वाले के हृदय द्वारा सुगमता पूर्वक ग्रहण कर लिया जाता है। उसी प्रकार से जब सामने लोक नृत्य होता है तो हृदय के भावानुवेग के कारण शरीर स्वतः ही थिरकने लगता है। अतः ये नृत्य बिना किसी प्रयत्न के स्वमेव होने लगते हैं।
सरस अभिव्यक्ति
मन में उमड़ते-घुमड़ते उल्लसित मनोभावों की सरस अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम हैं ये लोक नृत्य। जैसे-जैसे मन में भक्ति अथवा उत्साह व आनन्द के भावों से मन विभोर होता है वैसे इन नृत्यों की गति में तीव्रता बढ़ती है, भाव भंगिमाओं से अन्तर के बोल प्रस्फुटित होते हैं।
हर्षपूर्ण वातावरण का सृजन
जहॉं ये नृत्य नृत्यित होते हैं वहां का प्रदूषण समाप्त हो जाता है। लोक वाद्यों की झनकार जहॉं शरीर में रक्त के प्रवाह को तीव्रता प्रदान करती है वहीं मन मयूर झंकृत हो झूमने लगता है। देखादेखी सभी उपस्थित जन समुदाय भी थिरकने लगता है। सभी के मन के विषाद समाप्त हो जाते हैं। सभी चिन्तामुक्त हो जाते हैं। सभी हर्षातिरेक होकर आनन्द में विभोर हो जाते हैं। मन के सभी संताप तिरोहित हो जाते हैं और सम्पूर्ण वातावरण में चारों ओर सिर्फ प्रफुल्लता और आनन्द की भीनी-भीनी सुगन्ध ही सुवासित रहती है।