तालबेहट, उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिला में झाँसी-ललितपुर राजमार्ग पर झाँसी से 60 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। तालबेहट, उत्तर-मध्य रेलवे के झाँसी-भोपाल मार्ग का रेलवे स्टेशन भी है। इसके पश्चिमी-उत्तरीभाग से बेतवा नदी प्रवाहित है, जिस पर माता टीला का प्रसिद्ध बाँध बना हुआ है, जो बुन्देलखण्ड का प्रमुख पर्यटन स्थल है।
तालबेहट काकिला दक्षिण से उत्तर की ओर जाती एक लंबी-सी पहाड़ी के शिखर पर निर्मित है। पहाड़ी की लम्बाई लगभग एक किलोमीटर है, जिसमें दो खंदक तथा दो शिखर ऊँट की कूबड़़ों की भाँति उठी हुई हैं। दक्षिणी छोर की खंदक को बाँधकर सुंदर विशाल तालाब निर्मित है। तालाब का भराव पहाड़ी बाँध के पूर्व में है तथा बाँध को किला प्राँगण के रूप में स्थापित किया गया है। बाँध के मैदान के दक्षिणी पार्श्व के पहाड़ी टीले पर घुड़शाला एवं सैनिकों के आवास तथा निगरानी चौकी है, जबकि बाँध के मैदान के उत्तरी भाग की ऊँची पहाड़ी पर किला, रिहायशी परिसर निर्मित हैं। जितना लंबा किला है, उससे अधिक लंबा तालाब है। किला के परकोटा की उत्तरी-दक्षिणी भुजाओं को तालाब के भराव में मोड़कर किला को बाहरी शत्रुओं से सुरक्षित करने का प्रयास किया गया है। तालाब की ओर का परकोटा लगभग सौ फुट ऊँचा है।
तालबेहट किले का मुख्य द्वार पहाड़ी के पश्चिमी-दक्षिणी कोण में उत्तराभिमुखी है, जिसे पार करके पचास फुट प्राँगण में पहुँचते हैं। इस प्राँगण में पूर्व दिशा की ओर दो विशाल बुर्जों के मध्य से लगभग 50 फुट ऊँचा, बुंदेला-मुगल स्थापत्य में बना हुआ सुंदर, कलात्मक दरवाजा है, जो बाँध के किला प्राँगण में खुलता है। दरवाज़े के अंदर के प्राँगण से उत्तर की ओर की पहाड़ी चढ़ने के लिए चूना-पत्थर की सीढि़याँ बनी हुई हैं, जो नरसिंह मंदिर की ड्योढ़ी (पौर) तक हैं। जहाँ पश्चिम की ओर मंदिर प्राँगण है। प्राँगण में हनुमान जी का मंदिर है, जिसमें बेलों, फूल एवं रामायण आधारित सुंदर चित्रकारी है। मंदिर के पूर्वीभाग तालाब की ओर सुंदर कुआँ है, जिस तक उतरने को सीढि़याँ बनी हुई हैं। कुआँ से आगे चलने पर तालाब की ओर परकोटा पर पक्का खुला छत है। मंदिर प्राँगण के उत्तरीभाग में राजपरिवार के आवासीय महल हैं।
महल के नीचे तालाब की ओर तीन विशाल दरवाज़े बनाये गये हैं। दक्षिणी एवं उत्तर की ओर के दरवाजे़, महल के दक्षिणी-उत्तरी प्रांगणों की ओर खुलते हैं, जबकि मुख्य दरवाजा़ पूर्वाभिमुखी है, जो तालाब की ओर खुलता है। यह पूर्वाभिमुखी महल दरवाज़ा परकोटे की दो बुर्जों के मध्य बना हुआ है। दरवाज़े के सामने पहाड़ की ढाल से नीचे तालाब तक पूर्वी परकोटे के किनारे-किनारे ढालदार मार्ग बनायागया है, जो हजारिया शिव मंदिर तक है। इस भव्य त्रिमुखी दरवाज़े को बादामी लाद से बनाया गया है। यह दरवाजा बुन्देली वास्तु का अनूठा प्रतीक है। दरवाज़े के पश्चात् महल के आवासीय कक्ष हैं। इस राजमहल के आसपास अनके भवन हैं, जो अब खंडहर रूप में है। महल के दक्षिणी पार्श्व भाग में एक बाबरी है। राजमहल के उत्तरी भाग के प्राँगण के परकोटे पर सुरक्षा चौकी है।
तालबेहट किले का परकोटा पहाड़ी के दक्षिणी भाग से पश्चिमी किनारे-किनारे मख्य ऊँचाई उत्तरीभाग के शिखर से घुमाकर तालाब के भराव तक में निर्मित किया गया है। किला लंबाई में बड़ा दिखता है, परंतु पश्चिमी और पूर्वीअंचल के परकोटे में मध्य प्राँगण की चौड़ाई मात्र 80 फुट ही है। इसी संकीर्ण गलियारे जैसे भाग में मंदिर, महल, कुआँ आदि हैं। किले लगभग 15 बुर्जें में है।
तालबेहट किले का निर्माण चंदेरी के राजा भरतशाह (1612-30 ई.) ने सन् 1618 में कराया था। उस समय न यहाँ गाँव था और न ही तालाब। केवल एक छोटी सी बस्ती झिरिया खेड़ा नाम से थी। भरतशाह ओरछा महाराजा वीरसिंह देव बुन्देला प्रथम (1605-27) के समकालीन थे। किले के दरवाजो़ं का वास्तुशिल्प एवं विशाल महल दरवाज़ा देखने से स्पष्ट होता है कि उनके स्थापत्यों पर वीरसिंह देव प्रथम ओरछा की वास्तुशैली का प्रभाव था। भरत सागर तालाब एवं तालाब के पश्चिमी भाग की पहाड़ी पर किला निर्माण कराना उनकी स्थापत्य रचना एवं प्राकृतिक सौंदर्य कला को प्रदर्शित करता है। तालाब एवं किला निर्मित कराकर पीछे (बीहट) बसाकर तालबेहट नाम रखा गया। भरतशाह ने अपने चौथे भाई ध्रुव सिंह को खड़ेसरा की जागीर देकर तालबेहट किले की सुरक्षा-व्यवस्था का दायित्व सौंपा था।
सन् 1811-12 में ग्वालियर के सेनापति जॉन बैप्टिस्ट ने तालबेहट किले पर आक्रमण कर तीन माह तक किले को घेरे रहने के पश्चात् परेशान होकर किलेदार को लालच देकर किले को अपने कब्जे में ले लिया था। इसकी शिकायत राजा मोरप्रहलाद ने बाँदा में अँग्रेज प्रतिनिधि से की, जिसने 1830 ई. में मोरप्रहलाद को कैलगुबाँ, बानपुर सहित तालबेहट किले वापसदिला दिये थे। पर चंदेरी क्षेत्र सिंधिया के पास चला गया। मोरप्रहलाद के पुत्र मर्दन सिंह चंदेरी क्षेत्र को अपने अधिकार मं वापिस लेने के लिए प्रयत्नशील रहे। इसी कारण वह 1857 के सैनिक विद्रोह का लाभ उठाकर अँग्रेजों के विरुद्ध विद्रोही हो गये थे। 11 मार्च 1858 को जब अंग्रजी सेना ने बानपुर किले को तोड़ा तो मर्दन सिंह कैलगुवाँ किले में एवं विद्रोही सैनिक सरदारों ने तालबेहट किले में अँग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा लिया। अंग्रेजी सेना ने कैलगुवाँ किला तोड़कर मर्दन सिंह का पीछा किया