सूखा निसई
July 25, 2024उदयपुर
July 25, 2024स्थिति
मध्यप्रदेश का जिला मुख्यालय विदिशा मध्य रेल्वे की मुख्य देहली-मद्रास- बम्बई लाइन पर स्थित है। म.प्र. की राजधानी भोपाल से इसकी दूरी मात्र 55 कि.मी. है।
इतिहास
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों आम्नाय के अनुसार विदिशा जिसका प्राचीन नाम भद्रिलपुर या भद्दिलपुर था, आजादी के बाद भी अनेक वर्षों तक भेलसा कहलाता रहा है। दसवें तीर्थंकर शीतल नाथ के गर्भ, जन्म एवं तप कल्याणकों की यही पुण्य भूमि है। निकट स्थित उदयगिरि की गुफाओं के तीर्थंकर-चरण एवं विजया मंदिर आदि पुरातात्विक स्थलों के महत्वपूर्ण भाग आज भी इसकी प्राचीनता के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं।
विदिशा को जैन तीर्थकर नेमिनाथ की समवशरण भूमि का सौभाग्य प्राप्त हुआ था (हरिवशं पुराण पृष्ठ 704)। इसी तरह यहाँ अंतिम जैन तीर्थकर भगवान महावीर स्वामी के समवशरण आने की भी चर्चा पुराणों में है (त्रिषष्टि शलाका- पुरुष चरित्र पर्व 10 सर्ग 11)।
प्राचीन इतिहास के अनुसार अवन्ति के पूर्व में आकर देश था और विदिशा इसी देश की राजधानी थी। मेघदूत में दशार्ण प्रदेश, विदिशा के आस-पास के क्षेत्र का ही नाम था। इस भूमि का यह नाम ईसा पूर्व छटवीं शताब्दी से प्रचलित है।
पाली ग्रन्थों में इस स्थान का नाम वेसनगर या चेत्यनगर लिखा गया है। बारहवीं शताब्दी के चालुक्य ग्रन्थों में इसे भैल्य स्वामिन और ब्राम्हण पुराण में इसे भद्रावती कहा गया है। ईसा की पहली शताब्दी में सातवाहनों और नागों ने यहाँ राज्य किया था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्राचीनकाल में यहाँ हैहय वंशी राजा राज्य करते थे।
रामायण कथाओं के अनुसार राम के भाई शत्रुघ्न ने इस प्रदेश के यादवों को खदेड़कर अपने बेटे सुबाहु को विदिशा का शासक नियुक्त किया था।
इस प्राचीन सांस्कृतिक नगर विदिशा का जन साधारण में प्रचलित नाम आज भी भेलसा है। विदिशा का भेलसा नाम पड़ने का कारण विभिन्न विद्वानों द्वारा पृथक पृथक अनुमाना गया है। डॉ. कनिंघम ने 1874-75 की अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि राजा भील अथवा भिलस द्वारा बसाये जाने के कारण इसका नाम भेलसा पड़ा। डॉ. हॉल के अनुसार भाहल नामक सूर्य मंदिर के कारण भूलसा नाम पड़ा, जिसकी स्थापना राजा कृष्ण के मंत्री वाचस्पति ने की थी।
महाकवि कालीदास ने इस स्थान का उल्लेखनीय वर्णन अपने प्रसिद्ध ग्रंथ मेघदूत और अभिज्ञान शाकुंतलम् में किया है।
गुप्तकाल में यहाँ शिल्प कला के अनेक सृजन किये गये। सम्राट अशोक की यह नगरी व्यापार और शिक्षा के लिये महत्वपूर्ण केन्द्र रही है, उन्होंने यहाँ की वणिक कन्या महादेवी से विवाह भी किया था। यद्यपि यह विवादास्पद विषय है। कहा जाता है कि सम्राट अशोक के बाद चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य द्वितीय के ज्येष्ठ भाई रामगुप्त ने यहाँ से जैन धर्म का महत्वपूर्ण प्रचार कराया और अनेक निर्माण कराये थे। निकट स्थित दुर्जनपुर ग्राम की तीन जैन तीर्थकर प्रतिमाओं के लेखों से इसकी पुष्टि हुई है।
पुरातत्व
विदिशा नगर में 10 जैन मंदिर हैं। समस्त मंदिर भव्य, प्राचीन और दर्शनीय हैं। श्री जैन बड़ा मंदिर रथाकार है जो किले में स्थित है और अपनी स्थापत्य शैली के लिये उल्लेखनीय है। नई बस्ती का श्री शीतलनाथ दिगम्बर जिनालय, तीर्थ-क्षेत्रों का विशाल मॉडल, समवशरण मंदिर, नंदीश्वर मंदिर और पुरातत्व संग्रहालय भी दर्शनीय है।
पुरानी बस्ती में स्थित बेतवा के निकट विजय मंदिर (बीजा मंडल) अवशिष्ठ अवस्था में भी दर्शनीय है। विजय मंदिर की खुदाई से प्राप्त यक्ष यक्षिणी, सूर्य- प्रतिमा, स्तंभों के शिलालेख जिनका प्रारंभ ‘ऊँ नमः सिद्धम्’ से होता है और ‘जिनेन्द्र’ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, आदि महत्वपूर्ण हैं। आसपास भी पुरातत्व सामग्री उपलब्ध हुई है।
शहर के मध्य भव्य गिरि लुहांगी आज राजेन्द्र गिरि कहलाता है इस पर गुफा के रूप में जिनालय के अवशेष, गुबंजबन्द मकबरा, अशोक के स्तम्भ भाग, शिला में उत्कीर्ण वेदी, सर्व धर्म समभाव का अनोखा स्वरूप प्रस्तुत करते हैं।
विदिशा का पुरातत्व संग्रहालय प्राचीन सांस्कृतिक रहस्यों के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। श्री महावीर पुरातत्व संग्रहालय में गुप्त और कलचुरि कला, अनुमानतः 9वीं से 10वीं शताब्दी की कलाकृतियाँ दर्शनीय हैं।
विदिशा से लगभग 8 किलोमीटर दूर उदर्यारि जैन तीर्थ पुरातत्व और इतिहास का महत्वपूर्ण केन्द्र है। इसके अतिरिक्त उदयपुर, पठारी, बड़ोह, ऐरन, निगोवा, ग्यारसपुर, हिन्डोला और फूफेर गुफाएँ भी जैन कला तीर्थ के रूप में दर्शनीय स्थल हैं। विदिशा के निकट साँची तो विश्व प्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ, अपने स्तूपों के लिये दर्शनीय है ही।