जल संबंधी आदर्श कथन
February 4, 2025
राय प्रवीण महाकवि केशवदास (1552-1608) की समकालीन
February 10, 2025-गौरीशंकर रंजन
ओरछा की रानी गणेश कुँवरी का जन्म संवत् 1569 में अर्थात् सन् 1512 में हुआ। वे काशी नरेश महाराज अनिरुद्ध सिंह की पुत्री थीं। उनका विवाह ओरछा नरेश महाराज मधुकर शाह जू देव से हुआ था मधुकर शाह कृष्ण भक्त थे, जबकि रानी गणेश कुँवरी राम भक्त थीं। मुंशी अजमेरी द्वारा रचित ‘मधुकर शाह चरित्र’ के पृष्ठ 14 पर उल्लेख है कि –
मन, बच, काय, रघुनाथ की उपासना।
करती थीं त्याग भोग वैभव की वासना।।
सरस बजातीं वे सितार और वीणा।
रम्य पद रचना में थीं परम प्रवीणा ।।
इन पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि गणेश कुँवरी सात्विक प्रकृति की स्त्री थीं और कला-साहित्य में उनकी गहरी रूचि थी। मधुकर शाह जू देव और गणेश कुँवरी का वर्णन भक्तमाल में भी किया गया है। ओरछा में प्रसिद्ध लोककथा के अनुसार मधुकर शाह ने एक बार रानी गणेश कुँवरी को वृंदावन चलने को कहा पर महारानी अयोध्या जाने की जिद करने लगीं। महाराज ने कहा, राम सच में हैं तो उन्हें ओरछा लाकर दिखाओ।
भगवान राम की तीन शर्तें
महारानी ने भगवान राम से ओरछा में विराजने का निवेदन किया। श्रीराम ने तीन शर्तें रखीं – पहली, मैं आपके साथ ही निवास करूँगा। दूसरी, जिस नगर में मैं रहूँगा, वहाँ मेरा ही राज होगा। तीसरी, मैं केवल पुष्य नक्षत्र में ही यात्रा करूँगा। अपने आराध्य की इन तीनों शर्तों को रानी गणेश कुँवरी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया और पुष्य नक्षत्र लगते ही अपनी यात्रा प्रारम्भ कर दी। अपनी साधना में सफल होकर रानी पहुँचीं। ओरछा के रामराजा मंदिर में लगे शिलालेख के अनुसार गणेश कुँवरी ने अयोध्या से ओरछा तक की पैदल यात्रा 8 महीने, 28 दिन में पूरी की। उनकी योजना भगवान राम को चतुर्भुज मंदिर में प्रतिष्ठित करने की थी। जनश्रुति है कि भगवान राम ने एक रात मधुकर शाह को स्वप्न में कहा कि तुमने हमारे लिये जो मंदिर निर्माण कराया है, उसमें श्री चतुर्भुज जी निवास करेंगे और यह प्रतिमा तुम्हें अनायास ही प्राप्त होगी। मैं अपनी माता के साथ महल में रहूँगा, अतः अब ओरछा में तुम्हारा नहीं, मेरा राज होगा।
ओरछा में रामराज
यह भी कहा जाता है कि गणेश कुँवरी ने पहली शर्त भूलकर भगवान को रसोई में ठहरा दिया। इसके बाद श्रीराम के बालरूप का यह विग्रह अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ, इसलिये चतुर्भुज मंदिर आज भी सूना है। बाद में महल की यह रसोई रामराजा मंदिर के रूप में विख्यात हुई इधर, मधुकर शाह ने अपनी राजधानी टीकमगढ़ में बना ली और भगवान राम के प्रतिनिधि के रूप में टीकमगढ़ में शासन करने लगे।
बहरहाल, मधुकर शाह और रानी गणेश कुँवरी ने निश्चय किया कि अब से ओरछा में श्रीराम का राज्य होगा और हम सेवा रूप में उसका संचालन करेंगे। उसी समय से ओरछा राम राज्य के नाम की मोहर चलने लगी। यह सिलसिला सन् 1947 में बीर सिंह जू देव द्वितीय द्वारा स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को कोष समर्पित करने तक जारी रहा। आज भी ओरछा में प्रतिदिन मध्यप्रदेश पुलिस के जवान सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद राजा राम को सलामी देते हैं।
श्री सीताराम सिरवैया की पुस्तक ‘गणेश कुँवर के अनुसार अपने वनवास के समय भगवान राम ने भक्त शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान देकर अगले जन्म में महारानी होने का वरदान दे दिया। वही शबरी कलयुग में ओरछा की महारानी कुँवर गणेश बनी। एक दिन कुँवर गणेश, रामचंद्र जी की पूजा अर्चना कर रही थी और उसी समय मधुकर शाह वहाँ से निकले। रानी को पूजा करते देख वे हँसते हुए वहाँ से चले गये। महाराज का यह व्यवहार कुँवर गणेश को अच्छा नहीं लगा। सो पूजा से निवृत्त होकर उन्होंने महाराज से पूछा कि आप हँसे क्यों थे, क्या मेरी पूजा में कोई दोष था? तब महाराज ने कहा कि हे देवी, तुम्हारी पूजा में कोई दोष नहीं था। लेकिन बात इतनी-सी है कि स्वामी खड़े हों और भक्त बैठकर पूजा-सेवा करे, यह उचित नहीं है, उसकी पूजा भगवान कैसे स्वीकार करेंगे। इतना सुनते ही रानी को लज्जा होनी लगी और उन्होंने पूछा कि बैठी मूरत कहाँ से लाऊँ जिसकी मैं सेवा कर सकूँ। महाराज ने उन्हें अयोध्या जाने को कहा और महारानी ने उसी समय प्रण किया कि अब मैं बैठी मूरत की ही पूजा करूँगी। इसके साथ ही उन्होंने अन्न-जल भी त्याग दिया। एक दिन महारानी को राम मिलन की प्रेरणा हुई और दूसरे दिन ही वे अयोध्या के लिए प्रस्थान कर गयीं। ज्येष्ठ शुक्ल 5 विक्रम संवत 1642 अर्थात् 1585 को रानी गणेश कुँवरी का देहावसान हो गया।
लेखक बुन्देली झलक डॉट कॉम के संस्थापक हैं।
सन्दर्भ स्रोत :
बुंदेलखंड की कवयित्रियाँ (1500ई-1996ई), संकलन एवं संपादन-डॉ. हरिविष्णु अवस्थी
बुन्देली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री रामचरण हयारण ‘मित्र’
बुंदेलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुन्देली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषा शास्त्रीय अध्ययन – रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल