
मस्तानी बाजीराव बाजीराव पेशवा (1700-1740) की समकालीन
February 10, 2025डॉ. राकेश पाठक
इतिहास प्रसिद्ध लक्ष्मी बाई का जन्म 16 नवम्बर, 1835 में हुआ। उनके पुरखे महाराष्ट्र में सतारा के पास ‘वाई’ नामक गाँव के निवासी थे। ताम्बे ब्राह्मण कुलनाम वाले उनके पूर्वजों ने कालांतर में पेशवाओं से निकटता प्राप्त कर ली थी। लक्ष्मी बाई के पिता मोरोपंत ताम्बे पेशवा बाजीराव द्वितीय के भाई चिमाजी अप्पा के निकट सहयोगी थे। सन् 1817 में पेशवाई समाप्त हो जाने के बाद बाजीराव बिठूर चले गये और चिमाजी अप्पा पूना से काशी आकर बस गये और उनके साथ मोरोपंत ताम्बे भी पत्नी और बेटी के साथ काशी आ गये। सन् मोरोपंत ताम्बे की पत्नी ने एक बेटी को जन्म दिया जिसका नाम मणिकर्णिका रखा गया। यही आगे चलकर मनु बाई और कालांतर में लक्ष्मी बाई के नाम से प्रसिद्ध हुईं। कुछ समय बाद चिमाजी अप्पा का निधन हो गया और उसके कुछ समय बाद ‘मनुबाई’ की माता भागीरथी भी चल बसीं। दुःखी मनु बाई के पिता उन्हें लेकर बाजीराव के पास बिठूर आ गये।
बाल्यावस्था एवं विवाह
विष्णु भट्ट गोडसे अपनी पुस्तक ‘माझा प्रवास’ के पृष्ठ 55 पर लिखते हैं “चार वर्ष की मनु तो बाजीराव के लिये जैसे जीती-जागती गुड़िया-सी बन गयी। मनु की सहज बाल सुलभ चपलता और मनहारिणी छवि से प्रमुदित होकर बाजीराव ने उसका नाम ‘छबीली’ रख दिया। मणिकर्णिका मनु से छबीली बन गयी और भाग्य उसे झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई बनाने का मार्ग प्रशस्त कर रहा था।” बिठूर में मनु को पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहब, पांडुरंग साहब और तात्या टोपे का साथ मिला। उनके साथ ही मनु ने घुड़सवारी, बन्दूक और तलवार चलाना सीखा। किशोरावस्था में मनु के पिता ने झाँसी के एक ब्राह्मण तात्या दीक्षित के माध्यम से उनका विवाह झाँसी के राजा गंगाधरराव से तय कर दिया। इस विवाह सम्बन्ध में मनु के पिता की दो शर्तें शामिल थीं। पहला कि विवाह झाँसी में होगा और व्यय गंगाधरराव देंगे। दूसरी शर्त यह थी कि स्वयं मोरोपंत ताम्बे झाँधी में रहेंगे और उनकी गिनती राजा के प्रमुख सरदारों में होगी। इस शर्त को गंगाधरराव ने सहज ही स्वीकार कर लिया। विवाह के बाद महाराष्ट्र की परंपरा के अनुसार वधू का नाम बदलकर ‘लक्ष्मी बाई’ रखा गया। गंगाधर और लक्ष्मी बाई में आयु का बड़ा अंतर था, साथ ही गंगाधर की कतिपय चारित्रिक दुर्बलताओं ने भी दोनों के बीच सम्बन्ध को सहज नहीं रहने नहीं दिया। इसके अलावा गंगाधरराव ने लक्ष्मी बाई पर तरह-तरह की बंदिशें भी लगा रखी थीं। उस समय की घटनाओं के साक्षी लेखक विष्णु भट्ट गोडसे ने लक्ष्मी बाई का वर्णन अपनी पुस्तक ‘माझा प्रवास’ में इस तरह किया है –
“विवाह हो जाने पर लक्ष्मी बाई सुखी न हुई। पति बड़े कड़े स्वभाव का था और उसका शासन भी कठोर था। उसे (लक्ष्मी बाई) जरा भी स्वतंत्रता नहीं दी गयी। महल के बाहर निकलने की तो बात ही न की जाये, महल के अन्दर भी बाई साहब अधिकतर ताले में रहती थीं। सशस्त्र स्त्रियाँ हर समय पहरा दिया करती थीं। पुरुषों की तो वहाँ हवा भी नहीं पहुँचने पाती थी।”
वैवाहिक जीवन के इसी उतार-चढ़ाव के बीच लक्ष्मी बाई के अपने जन्म स्थान काशी और दूसरे तीर्थों पर जाने के अनुरोध पर गंगाधरराव उन्हें सन् 1850 में तीर्थाटन पर लेकर गये। काशी, प्रयाग और गया आदि तीर्थों से लौटकर लक्ष्मी बाई ने 1851 में पुत्र को जन्म दिया। झाँसी के नेवालकर वंश के लिये यह सुखद अवसर था क्योंकि लम्बे समय से राजाओं की निःसंतान मृत्यु के कारण कोई भी औरस पुत्र गद्दी पर नहीं बैठा था, लेकिन मात्र तीन माह की आयु में लक्ष्मी बाई और गंगाधरराव के पुत्र की मृत्यु हो गयी। झाँसी में मातम छा गया। गंगाधरराव अवसाद में चले गये और दिन-प्रतिदिन उनकी दशा बिगड़ने लगी। उनका अंतिम समय निकट है, यह महसूस होते ही उन्होंने नेवालकर वंशवृक्ष के ही पांच वर्षीय बालक ‘आनंद राव’ को 20, नवम्बर 1853 को विधिवत आयोजित समारोह में दत्तक पुत्र स्वीकार किया। दत्तक विधान के बाद आनंदराव का नामकरण दामोदरराव किया गया।
गंगाधरराव के निधन के बाद झाँसी का विलय
उस समय तक झाँसी पूरी तरह अंग्रेज़ शासन के अधीन हो चुका था। गंगाधरराव के राज्याभिषेक से पहले सत्ता के कई दावेदार खड़े हो चुके थे। इसलिये राज्याभिषेक के बाद भी तीन सालों तक ब्रिटिश एजेंसी ही झाँसी का राजकाज संभाले रही। गंगाधरराव द्वारा अंग्रेज़ सरकार के साथ कई पत्र-व्यवहार के बाद 1842 में एक संधि हुई और गंगाधरराव को वास्तविक राजा स्वीकार कर लिया गया और 1843 से गंगाधरराव का शासन काल प्रारंभ हुआ, लेकिन अंग्रेज़ों की नज़र तब भी झाँसी पर बनी रही। पुत्र की मृत्यु के बाद जब गंगाधरराव बीमार हुए तब भी बुंदेलखंड के पॉलिटिकल एजेंट आपस में झाँसी की आगामी परिस्थितियों को लेकर पत्र-व्यवहार कर रहे थे। दत्तक समारोह के बाद गंगाधरराव ने स्वयं पॉलिटिकल एजेंट मेजर एलिस को पत्र लिखा था कि दामोदरराव को उनका उत्तराधिकारी स्वीकार करते हुए लक्ष्मी बाई उनकी संरक्षिका स्वीकार किया जाये।
दत्तक समारोह के अगले ही दिन 21 नवम्बर, 1853 को गंगाधरराव का निधन हो गया और इसके साथ ही लक्ष्मी बाई पर जैसे मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। अब सबसे पहले आवश्यकता थी कि अंग्रेज़ दामोदरराव को राज्य के उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता प्रदान करें। पॉलिटिकल एजेंट एलिस भी इससे सहमत थे और उन्होंने भी इस दामोदर को मान्यता देने की सिफारिश लॉर्ड डलहौजी से की। लेकिन एलिस की सिफारिश को डलहौजी ने खारिज कर दिया। इस बीच दिवंगत राजा गंगाधरराव के दो सम्बन्धी कृष्णराव और सदाशिव राव ने गद्दी पर अपना दावा पेश कर दिया। झाँसी को पूरी तरह हड़पने का मन बना चुके लॉर्ड डलहौजी ने अपने निजी सचिव जे. पी. ग्रांट को एक प्रस्ताव तैयार करने के लिये कहा।
ग्रांट द्वारा दिये गए प्रस्ताव की स्थापना के अनुसार झाँसी एक स्वतंत्र राज्य न होकर पेशवा की सूबेदारी थी। पेशवाई ख़त्म हो जाने के बाद रामचंद्रराव और अंग्रेज़ों के बीच हुई संधि में रामचंद्रराव की हैसियत ‘सूबेदार’ जैसी थी, राजा जैसी नहीं। लार्ड विलियम बैन्टिक ने रामचंद्रराव की सेवाओं से प्रसन्न होकर उन्हें राजा की उपाधि मात्र दी थी। वंश परम्परानुसार वे राजा नहीं थे।
इधर रानी दतिया, ओरछा और जालौन का उदाहरण देकर दामोदरराव के उत्तराधिकार के लिये जो माँग कर रही थीं, उसे भी ग्रांट ने खारिज कर दिया। डलहौजी की मान्यता भी यही थी कि झाँसी की जागीर पूना पेशवा द्वारा नेवालकर सूबेदारों को दी जाती रही थी। जब 1817 में झाँसी राज्य पर अंग्रेज़ों का अधिकार हो गया तो वे अब अंग्रेज़ सरकार के सूबेदार हो गये। डलहौजी की स्पष्ट मान्यता थी कि दत्तक लेना व्यक्तिगत अधिकारों के लिये ठीक था लेकिन सत्ता हस्तांतरण के लिये नहीं। इसी आधार पर उसने झाँसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने का निश्चय किया और 7 मार्च, 1854 को यह विलय हो गया। पॉलिटिकल एजेंट एलिस ने ही यह सूचना रानी झाँसी को दी जिसे सुनने के बाद उन्होंने कहा था- “मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।” इस हुंकार के बावजूद रानी उस समय अत्यंत असहाय थीं। पाँच हजार प्रतिमाह उनकी पेंशन बाँध दी गयी, दामोदरराव को दिवंगत गंगाधरराव का उत्तराधिकारी घोषित कर झाँसी के खजाने से छह लाख निकालकर दामोदर के नाम जमा कर दिये गये। यह तय किया गया कि जब दामोदरराव बालिग हो जायेंगे तब वह रकम ब्याज सहित उन्हें दे दी जायेगी। इसके बाद राज्य के विलय की मुनादी करवाकर आइन्दा मालगुजारी अंग्रेज़ सरकार को अदा करने का निर्देश नागरिकों को दे दिया गया। रानी को किले पर स्थित महल खाली कर शहर के महल में रहना पड़ा। किले के सैनिकों की कमान अंग्रेज़ अधिकारी कैप्टन डनलप को सौंप दी गयी। गंगाधरराव के समय के अस्थायी सैनिकों को छह महीने की पेशगी देकर नौकरी से निकाल दिया गया।
झाँसी के विलय को कुछ अंग्रेज़ विद्वान भी अन्यायपूर्ण मान रहे थे। एक इतिहास लेखक इवांस बेल ने इसकी कटु आलोचना करते हुए लिखा था कि “गोद लेने का संस्कार बिलकुल ठीक-ठाक हिन्दू शास्त्र की मर्यादा के अनुसार किया गया। अंग्रेज़ अफ़सर संस्कार में मौजूद थे और राजा ने मरने से पहले बाज्प्रा पत्र द्वारा अंग्रेज़ सरकार को इसकी सूचना दी थी।”
न्याय की आस में लक्ष्मी बाई लगातार प्रयासरत थीं। उन्होंने अंग्रेज़ बैरिस्टर जॉन लैंग और अपने बंगाली वकील उमेश चन्द्र बनर्जी के जरिये लंदन तक अपील की। लक्ष्मी बाई के वकील बनकर अजीमुल्ला ख़ान भी लंदन गये। उन्होंने इंग्लैण्ड की महारानी और संसद तक में रानी के हक़ में जिरह की, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली। 2 अगस्त, 1854 को बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स ने विलय को मंजूरी दे दी।
रानी का अपमान
अपनी नियति को स्वीकार कर चुकीं रानी सामान्य विधवा की तरह जीवन यापन का अभ्यास करने लगीं लेकिन झाँसी की प्रजा के साथ उनका संपर्क और भी प्रगाढ़ होने लगा, जबकि अंग्रेज़, रानी के अपमान का कोई अवसर नहीं छोड़ रहे थे। सबसे पहला अवसर आया रानी के केश उतरवाने का। गंगाधरराव के निधन के बाद रानी अपने केश काशी में उतरवाना चाहती थीं लेकिन अंग्रेज़ों ने इसकी अनुमति उन्हें नहीं दी। दूसरा अवसर आया जब रानी ने दत्तक पुत्र दामोदरराव के यज्ञोपवीत के लिये अंग्रेज़ों के खाते में दामोदरराव के नाम से जमा छह लाख रुपये में से एक लाख रुपये की माँग की। लेफ्टिनेंट गवर्नर काल्विन ने यह शर्त थोप दी कि अगर बालिग होने पर दामोदरराव ने यह रकम वापस माँगी तो रानी इसे वापस करने की पाबन्द होगी। इसके अलावा रानी चार जमानतदार प्रस्तुत करें तभी यह रकम उनको दी जा सकेगी। विवश रानी को अपने ही राज्य के चार धनी सेठ-साहूकारों को प्रस्तुत करना पड़ा तब उन्हें यह रकम मिली। इसके अलावा दो और घटनाएँ हुईं जिसकी वजह से झाँसी की प्रजा में विद्रोह की चिंगारी सुलग उठी। इसके अलावा कुछ अन्य कारणों ने भी आग में घी का काम किया।
झाँसी के शासक ब्राह्मण थे और गाय को पूजनीय मानते थे इसलिये यहाँ गोवध प्रतिबंधित था। राज्य विलय के बाद गौ हत्या भी शुरू भी हो गयी। इसके बाद अंग्रेज़ों ने झाँसी राज्य और नेवालकर वंश की कुलदेवी महालक्ष्मी मंदिर से सम्बंधित दो गाँवों को हड़पने की कोशिश शुरू कर दी। मंदिर की देखरेख दोनों गाँवों से होने वाली आय से होती थी। यह व्यवस्था गंगाधरराव के पूर्वजों ने की थी। रानी के कई प्रयासों के बावजूद दोनों गाँवों को भी अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया गया।
अपमान का सिलसिला यहीं नहीं थमा। राज्य के सामान्य कामकाज पर अंग्रेज़ काबिज थे। स्थानीय अधिकारी रानी के साथ बहुत ही अपमानजनक व्यवहार करते थे। रानी ने कोशिश की कि उनका संवाद स्थानीय अधिकारियों की बजाय अंग्रेज़ सरकार के राजनीतिक विभाग से कर दी जाये, लेकिन उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी गयी।
झाँसी में विद्रोह
झाँसी में असंतोष की भावना फैल रही थी, जबकि उस समय देश के बाकी हिस्सों में विद्रोह की आग सुलग रही थी। अंग्रेज़ अधिकारी झाँसी को लेकर निश्चिन्त थे। अंग्रेज़ों की छावनी शहर की चार दीवारी के बाहर थी, पास ही तारे जैसी आकृति वाला एक छोटा-सा किला था जिसे स्टार फोर्ट कहा जाता था। 1 जून, 1857 को छावनी क्षेत्र में अंग्रेज़ अधिकारियों के दो बंगले आग के हवाले कर दिये गये। विद्रोही सिपाहियों की एक टुकड़ी ने 6 जून को ‘स्टार फोर्ट’ पर हमला कर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद विद्रोहियों की संख्या बढ़ती चली गयी, जिसका कोई स्पष्ट नेतृत्वकर्ता नहीं था। लेकिन इस विद्रोह में छावनी में मौजूद हिन्दू सिपाही और आम जनता बड़ी संख्या में शामिल होने लगे थे। उन्होंने जेल पर कब्ज़ा कर कैदियों को मुक्त करवा दिया, झाँसी के सरकारी दफ्तरों में मौजूद दस्तावेजों में आग लगा दी गयी। 6 जून, 1857 में दिन भर विद्रोहियों की गतिविधियाँ जारी रहीं जिसे अंग्रेज़ रोकने में असफल रहे। तब तक इस विद्रोह में रानी की प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई भूमिका नहीं थी, अराजक विद्रोह की कमान उस समय 14वीं अस्थायी घुड़सवार सेना के रिसालदार फैज अली, जेल दरोगा बख्शीश अली, डॉ. सालेह मुहम्मद, लाल बहादुर सूबेदार आदि के हाथ में थी। अब उन्होंने झाँसी के किले की ओर रुख किया लेकिन जवाबी हमले में कुछ विद्रोही मारे गये। इसके बाद विद्रोहियों का दल रानी के पास सहायता माँगने पहुँचा। पहले तो वे तैयार नहीं हुई लेकिन बाद में उन्होंने दो तोपें और कुछ सैनिक उन्हें दे दिये। संयोगवश उसी दिन झाँसी के सुपरिटेंडेंट ने रानी के पास सहायता माँगने अपने तीन सहयोगियों हेड क्लर्क स्काट, पर्सेल बंधु और सदर अमीन एंड्रयूज को भेजा और विद्रोहियों से उनका सामना हो गया। इन्हें महल के दरवाजे पर ही मार डाला गया। रानी से मिलीं तोपें और सैन्य सहायता से विद्रोहियों को आंशिक सफलता मिली। उन्होंने किले के निचले हिस्से पर कब्जा कर लिया। जान बचाने के लिये किले में छिपे अंग्रेज़ों को अब तक बाहर से कोई सहायता नहीं मिल पायी थी। वहाँ कुछ हिन्दुस्तानी भी थे। इस संघर्ष में कुछ हिन्दुस्तानी और कुछ अंग्रेज़ अधिकारी मारे गये। कैप्टन गार्डन किले के झरोखे से झाँकते समय विद्रोहियों की गोली का शिकार हो गया जबकि कुछ अन्य विवरणों के अनुसार चारों तरफ दुश्मनों से घिर जाने के कारण उसने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली।
अंग्रेज़ों के पास हथियार डालने के सिवा कोई चारा नहीं था, 8 जून को विद्रोहियों की ओर से सालेह मुहम्मद ने अंग्रेज़ों को वचन दिया कि उन्हें झाँसी से सुरक्षित जाने दिया जाएगा लेकिन वे अपनी बात पर कायम नहीं रह सके। कोई 60-65 अंग्रेज़ स्त्री-पुरुषों को किले से जोखनबाग़ ले जाकर मार डाला गया। विद्रोहियों का दल अपनी सफलता से उत्साहित होकर दिल्ली की ओर निकल गया। बिना किसी प्रशासनिक व्यवस्था के अगले तीन दिन झाँसी में अराजक स्थिति रही। ऐसी परिस्थिति में झाँसी के गणमान्य नागरिकों ने रानी लक्ष्मी बाई से शासन की बागडोर अपने हाथ में लेने का अनुरोध किया। रानी अपनी कमज़ोर स्थिति जानती थीं इसलिये पहले तो उन्होंने मना कर दिया लेकिन बाद में उन्होंने यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। चूँकि अंग्रेज़ों के पास भी उस समय कोई उपाय नहीं था इसलिये उन्होंने भी रानी द्वारा राजकाज संभालने की घोषणा कर दी। इसके लिये सागर के अंग्रेज़ कमिश्नर इर्सिकन ने अपने दस्तखत और मुहर से घोषणा-पत्र जारी किया था। लेकिन रानी पर उन्हें भरोसा नहीं था।
यद्यपि झाँसी के प्रारंभिक विद्रोह और जोखनबाग़ हत्याकांड में रानी की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन अंग्रेज़ उनकी भूमिका लेकर संशंकित हो चुके थे। रानी ने सागर के अंग्रेज़ कमिश्नर इर्सिकन को दो-दो पत्र भी लिखे और यह विश्वास दिलाने की कोशिश की, कि इस विद्रोह में उनका कोई हाथ नहीं है और विद्रोहियों ने उनके महल को तोप से उड़ाने की धमकी दी थी इसलिये उन्हें उनकी सहायता के लिये विवश होना पड़ा। लेकिन अंग्रेज़ों ने उन पर विश्वास नहीं किया।
रानी की चुनौतियाँ
लगभग एक साल के शासन काल में रानी चारों ओर से चुनौतियों से घिरी हुई थीं। अंग्रेज़ सरकार उन पर मुकदमा चलाने और दण्डित करने पर विचार कर रही थी, दूसरी तरफ़ विद्रोही भी उनसे सहयोग की आस लगाये बैठे थे। रानी दोनों के साथ संतुलन साधने का प्रयास कर रही थीं। तीसरी तरफ़ सदाशिव नारायण पारोलकर झाँसी की गद्दी पर दावा करने सैन्य अभियान पर निकल चुका था। 13 जून, 1857 को उसने करैरा के किले पर कब्ज़ा कर लिया जिसे रानी के सैनिकों ने खदेड़ दिया और सदाशिव नारायण को झाँसी के किले में कैद कर लिया गया। झाँसी की हालत देख दतिया और ओरछा के राजाओं ने भी संघर्ष छेड़ दिया। इस परिस्थिति में रानी को अंग्रेज़ों की मदद की भी ज़रूरत थी इसलिये वे अंग्रेज़ सरकार से लगातार पत्र-व्यवहार कर रही थीं। ओरछा का दीवान नत्थे ख़ान दो महीने तक झाँसी का घेरा डालकर बैठा रहा। रानी ने अंग्रेज़ों से पत्र लिखकर सहायता माँगी लेकिन तब तक अंग्रेज़ यह विश्वास कर चुके थे कि रानी विद्रोहियों के संपर्क में हैं। उन्होंने रानी के पत्रों का उत्तर देना भी बंद कर दिया।
इधर विद्रोह की लपट बुंदेलखंड के छोटे-छोटे राज्यों तक फैल चुकी थी। इस विद्रोह को कुचलने के लिये अंग्रेज़ सरकार ने दिसंबर 1857 में सर ह्यूरोज़ को तैनात कर दिया। मध्यभारत के एजेंट के तौर पर सर रॉबर्ट हैमिल्टन को भेजा गया। उनका मुख्य लक्ष्य मध्यभारत के विद्रोह को कुचलना था लेकिन असल मकसद झाँसी को पूरी तरह अपने अधिकार में करना था। अंग्रेज़ सरकार रानी झाँसी को कैद कर उन पर मुकदमा चलाने की मंशा स्पष्ट कर चुकी थी।
अब रानी लक्ष्मी बाई के सामने दो ही रास्ते थे। या तो वे मुक़दमे का सामना करें और यह सिद्ध करें कि विद्रोह में उनकी संलिप्तता नहीं है या फिर युद्ध में प्राणोत्सर्ग कर दें। उन्होंने दूसरा विकल्प चुना। इतिहासकार एस.एन. सेन ने भी बाद में अपनी पुस्तक ‘अठारह सौ सत्तावन’ में लिखा है कि महारानी लक्ष्मी बाई का 1857 के विद्रोह की पूर्व योजना में कोई हाथ नहीं था और न वे उसमें भाग लेना चाहती थीं। यह तो अंग्रेज़ों की रानी को विद्रोही समझ बैठने की भूल थी जिसके कारण वे झाँसी पर आक्रमण कर बैठे और रानी को आत्मसम्मान की रक्षा के लिये तलवार उठानी पड़ी।
युद्ध का निर्णय लेने के बाद भी रणनीति के तहत रानी अंग्रेज़ों से पत्र-व्यवहार करती रहीं। वे अंग्रेज़ विरोधी राजाओं और सूबेदारों से दूरी रखने लगीं, अंग्रेज़ों से पराजित लोगों को झाँसी में शरण देने से इन्कार कर दिया। इस तरह वे एक तरफ युद्ध को ज्यादा से ज्यादा टालने की कोशिश कर रही थीं तो दूसरी तरफ उसके लिये तैयारी भी कर रही थीं। सेना को सुदृढ़ करके किले और शहर के महत्वपूर्ण ठिकानों पर तैनात कर दिया। किले की मरम्मत करवाकर तोपें लगवा दी गयीं, गोला-बारूद का भण्डारण करवा दिया गया। भारी मात्रा में खाद्यान भी इकट्ठा करवा लिया गया। अंग्रेज़ों के आक्रमण के समय उन्हें खाद्यान न मिल सके इसके लिये झाँसी के आसपास की भूमि उजड़वा दी गयी, यहाँ तक कि घास भी नहीं छोड़ी गयी। लेकिन यह रणनीति काम नहीं आयी।
बाद में अंग्रेज़ अफसरों के पत्र-व्यवहार में लिखा विवरण मिलता है कि सिंधिया और तेहरी के राजा की राजभक्ति के लिये धन्यवाद है कि उन्होंने पूरे आक्रमण काल तक घास, लकड़ी, साग, भाजी पहुँचायी। आसपास के राजा अगर इस अवसर पर मदद न करते तो अंग्रेज़ी सेना को न रसद मिलती और न अन्य आवश्यक सामग्री। घोड़ों के लिये घास भी न मिल पाती। टीकमगढ़ के राजा और भूपाल की बेगम ने इस समय ह्यूरोज़ को रसद और अन्य आवश्यक सामान से बड़ी सहायता की। रणनीतिक कुशलता का परिचय देते हुए रानी ने अपनी सेना को अलग-अलग टुकड़ियों में बाँट दिया।
किले के हर हिस्से के लिये अलग-अलग सरदारों के नेतृत्व में टुकड़ियाँ तैनात कर दी गयीं। उस समय रानी के पास पर्याप्त सैन्य बल था। हैमिल्टन को जो सूचना मिली थी उसके अनुसार रानी की सेना में लगभग दस हज़ार बुंदेले और विलायती (अफ़गानी सैनिकों को विलायती कहा जाता था) रणकुशल सैनिक थे। इसके अलावा 15 सौ सिपाही और भी थे जिसमें 400 घुड़सवार थे। किले में लगभग 40-50 तोपें थीं।
झाँसी किले पर अंग्रेज़ों का आक्रमण
उस समय तात्या टोपे चरखारी के अंग्रेज़ परस्त राजा को हराकर झाँसी की दिशा में यात्रा कर रहे थे। उनके पास पर्याप्त तोपें और हजारों सैनिकों की फौज भी थी। यह सूचना जैसे ही ह्यूरोज़ को मिली, उसने झाँसी पर चढ़ाई करने से पहले तात्या टोपे से निपटने का निर्णय लिया। 31 मार्च, 1858 को बेतवा के किनारे हुए युद्ध में तात्या की सेना को पराजय का सामना करना पड़ा। उनके सैनिक बिखर गये और उनके गोला-बारूद अंग्रेज़ों के हाथ लग गये। ह्यूरोज़ को अपने दमनकारी सैन्य अभियान में लगातार जीत मिल रही थी। उसने पूरी शक्ति से झाँसी पर हमला किया। लगभग ग्यारह दिनों के संघर्ष में अंग्रेज़ों ने कत्लेआम मचाया। किले के झरोखे से यह सब देख रही रानी गहरी हताशा में डूबने लगीं। ग़दर के समय झाँसी में मौजूद रहे विष्णु भट्ट गोडसे लिखते हैं- “उधर बाई साहब किले में आकर बड़ी शोक विह्वल होकर दीवान खाने पर बैठ गयीं। उस तेजस्वी स्त्री की उस समय की स्थिति और उसके अतिमानवीय पराक्रम का यह अत्यंत दुःखकारक परिणाम देखकर हम सब के हृदय भर आये। ” वे आगे लिखते हैं, “एक पहर के बाद बाई साहब शहर का हाल-चाल लेने के लिये छत पर आयीं, उस समय शहर का जो अति दीन दृश्य उनकी आँखों के सामने आया उसे देखकर यह लगा कि मेरे कारण इन बेचारे निरपराध प्राणियों की जानें जा रही हैं। सब लोगों को बुलाकर उन्होंने कहा – मैं महल को गोला-बारूद भरकर इसी में आग लगाकर मर जाऊँगी। आप लोग रात होते ही किला छोड़कर चले जाएँ और अपने प्राणों की रक्षा के उपाय करें।” लेकिन एक बुजुर्ग सहयोगी के कहने पर उन्होंने ऐसा नहीं किया।
बुजुर्ग सरदारों और अन्य सिपहसालारों से मंत्रणा के बाद झाँसी किले से निकलकर जल्द से जल्द कालपी में पेशवा के पास पहुँचने का निर्णय लिया गया। पुस्तक ‘आँखों देखा ग़दर’ – जिसका अनुवाद अमृतलाल नागर ने किया था, में विष्णु भट्ट लिखते हैं, “किले से निकलते समय रानी ने पिता समान वृद्ध सरदार के पैर छुए। उसके बाद भिक्षुक मण्डली को बख्शीशें देकर बाई साहब ने बड़े प्रेम से विदा किया। जो लड़वैये नहीं थे उन्हें, और दास-दासियों को भी सब तरह से संतुष्ट करके जाने की परवानगी दी गयी। इस तरह सब लोग किले से निकलकर शहर में आये।”
आधी रात बीतने पर रानी अपने पिता मोरोपंत ताम्बे और अन्य सहयोगियों काशीनाथ, लक्ष्मणराव, नत्थू ख़ान और जवाहर सिंह आदि के साथ किले से बाहर निकलीं। एक रेशमी धोती से उनकी पीठ पर बारह साल का दत्तक पुत्र दामोदर बंधा हुआ था। रानी सफ़ेद घोड़े पर पुरुष वेश में सवार थी। गोडसे के अनुसार – “बाई साहब पजामा, स्टॉकिंग, बूट वगैरह पुरुष वेश धारण किये हुए थीं और हरबे-हथियार से पूरी तरह लैस थीं।”
इस काफिले में दो सौ पुराने विश्वासपात्र सरदार और बारह सौ विलायती बहादुर भी चल रहे थे। बीचों बीच चल रहे हाथी पर झाँसी का बचा-खुचा खजाना रखा हुआ था। रास्ते में अंग्रेज़ों की छोटी-सी फ़ौज मिली जिसके साथ मामूली-सी झड़प हुई। आगे भांडेरी दरवाजे के पास ओरछा के दस्ते का पहरा था, वहाँ भी टोका गया। रानी के दल ने कहा ये टेहरी नरेश की फ़ौज है और ह्यूरोज़ की सहायता के लिये जा रही है। सुबह तक अंग्रेज़ों को खबर लग गयी कि रानी सदल-बल झाँसी से निकलकर कालपी की ओर निकल गयी हैं। अंग्रेज़ों की फ़ौज ने पीछे रह गये दल पर हमला किया जिसमें रानी लक्ष्मी बाई के पिता मोरोपंत ताम्बे घायल हो गये। वे जैसे तैसे दतिया पहुँचे और वहाँ शरण की याचना की लेकिन दतिया के राजा ने यह खबर अंग्रेज़ों को दे दी। मोरोपंत को झाँसी लाया गया और ह्यूरोज़ के हुक्म से रानी के महल के सामने उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया।
इधर रानी घोड़ा दौड़ाते हुए जब भांडेर पहुँची तो लेफ्टिनेंट वॉकर को रानी के पीछे भेज दिया गया। उस समय रानी बालक दामोदरराव को कलेवा करवा रही थीं। अधखाया कलेवा छोड़कर रानी फिर से घोड़े पर सवार होकर चल पड़ीं, लेफ्टिनेंट वॉकर का दस्ता करीब आ गया, छोटे से संघर्ष में वॉकर घायल हो गया और उसके सैनिक उसे लेकर झाँसी लौट गये। रानी तेज रफ़्तार से घोड़े दौड़ाती हुई आधी रात को कालपी पहुँचीं।
कालपी में रानी, तात्या टोपे और राव साहब की भेंट
1857 का स्वातंत्र्य समर में विनायक दामोदर सावरकर पृष्ठ 368 पर लिखते हैं, “रानी ने एक सौ दो मील का सफ़र और वह भी वॉकर जैसे योद्धा से जूझते हुए, पीठ पर एक बालक का बोझ लेकर तय किया। वह घोड़ा कालपी तक रानी को सुरक्षित पहुँचाने के लिये प्राण धारण किये हुए था। अमूल्य रत्न को अपनी पीठ से उतारने के बाद वह लड़खड़ाया और स्वर्ग सिधार गया।”
रानी के किला छोड़ने के बाद अगले 8 दिन तक झाँसी में कहर बरपाया गया। हजारों नागरिक मारे गये। सोना, चांदी, बर्तन-भांड़े से लेकर कपड़े तक लूट लिये गये, रानी के पूजाघर तक को नहीं छोड़ा गया। इस रक्तपात के समय झाँसी में मौजूद विष्णु भट्ट गोडसे लिखते हैं – “सारा शहर प्रेतभूमि के समान दिखाई पड़ता था। शहर में भयंकर आग लगी होने के कारण रात्रि के अंधकार में भी सब कुछ स्पष्ट दिख रहा था। सगे- सम्बन्धी शोक में पागल होकर अपने-अपने स्वजनों के प्रेतों (शवों) के पास बैठे हुए गली में बड़ा करुण आर्तनाद कर रहे थे। झाँसी का यह महा भयंकर अंत देखकर मुझे सिर से पैर तक कँपकँपी छूटने लगी थी।”
झाँसी से लूटे गये माल को नीलाम कर दिया गया। युद्ध सामग्री के साथ झाँसी के महल से लूटा गया पीतल का शानदार पालना सस्ते दामों पर शिंदे सरकार (ग्वालियर के सिंधिया) ने खरीद लिया। रानी पर हमला करने की नीयत से कर्नल ह्यूरोज़ ने 25-26 अप्रैल, 1858 को कालपी की ओर कूच किया।
इधर रानी लक्ष्मी बाई के कालपी पहुँचने से पहले ही वहाँ तात्या टोपे और राव साहब मौजूद थे, नाना साहब लखनऊ की ओर बढ़ती फ़ौज को रोकने अवध क्षेत्र के फ़तेहपुर चौरासी में थे, तात्या टोपे के सन्देश भेजने पर उन्होंने अपने भतीजे राव साहब को कालपी भेज दिया था। रानी झाँसी, तात्या टोपे के अलावा अन्य क्रांतिकारी राजा, सूबेदार और नवाब भी एकत्र हो गये थे जैसे- बाँदा के नवाब अली बहादुर, फ़र्रुखाबाद के नवाब ताफज्जुलह हुसैन, कानपुर के राजा मर्दन सिंह, शाहपुर के राजा बख्तअली, नरवर के राजा मानसिंह अपने-अपने सैन्य दल के साथ कालपी पहुँचे। इस दल का नेतृत्व एक तरह से तात्या टोपे कर रहे थे। हालाँकि यह व्यवस्थित नेतृत्व नहीं था।
विनायक दामोदर सावरकर के अनुसार ये सब एक ही झंडे के नीचे इकट्ठा हुए थे, फिर भी एक विशाल सैनिक संगठन के अंतर्गत अनुशासित होकर नहीं आये थे। दूसरी ओर सर ह्यूरोज़ की नियुक्ति के बाद उसका मत ही सबका मत था। वह जो आज्ञा देता वह ठीक मानी जाती और उसका पालन होता।
क्रांतिकारियों और अंग्रेज़ों के बीच पहला मुकाबला कोंच में हुआ। यहाँ राव साहब, तात्या टोपे और रानी की सेना का मोर्चा था। युद्ध का नेतृत्व राव साहब के हाथ में था। 7 मई, 1858 को भीषण युद्ध हुआ। अंग्रेज़ों ने क्रांतिकारियों के दल को तीन तरफ से घेर लिया, फलस्वरूप क्रांतिकारियों के 300-400 सैनिक मारे गये। 9 तोपें सहित भारी मात्रा में युद्ध सामग्री अंग्रेज़ों के हाथ लगी। इस पराजय के बाद तात्या अपने माता-पिता के पास चरखी गाँव चले गये, जहाँ उनके माता-पिता कानपुर पराजय के बाद रह रहे थे। क्रांतिकारियों का मनोबल गिरा हुआ था, लेकिन रानी लक्ष्मी बाई और राव साहब ने फिर उन्हें संगठित किया, बाँदा के नवाब ही दो हजार सैनिकों और तोपों के साथ कालपी पहुँच गये। एक बार फिर अंग्रेज़ों से मुकाबले के लिये विचार मंथन शुरू हो गया।
दूसरी तरफ ह्यूरोज़ क्रांतिकारियों को संभलने का अवसर नहीं देना चाहता था। राव साहब का अनुमान था कि वह सीधा रास्ता पकड़कर कालपी की ओर आएगा, इसलिये कालपी पहुँचने वाले मार्गों पर मोर्चाबंदी की गयी, लेकिन ह्यूरोज़ की सेना ने लम्बा चक्कर काटकर गलोती में अपना पड़ाव डाला। यहीं निर्णायक युद्ध हुआ। पिछली पराजय से सबक सीखकर रानी लक्ष्मी बाई, राव साहब ने इस बार सोच-समझकर व्यूह रचना की। इधर जनरल ह्यूरोज़ को भी क्रांतिकारियों की बढ़ती हुई ताकत का अंदाजा हो गया। उसने बंगाल से यमुना पर तैनात मैक्सवेल की कमान वाली बंगाल सेना को बुलवा लिया। इसके अलावा हैदराबाद की टुकड़ी भी जनरल की मदद के लिये आ गयी।
22 मई, 1858 को राव साहब और बाँदा के नवाब की अगुआई में क्रांतिकारियों का दल कालपी-जलापुर मार्ग पर आगे बढ़ा और गोलाबारी शुरू कर दी। योजनानुसार सुबह दस बजे रानी लक्ष्मी बाई और अली बहादुर ने अंग्रेज़ सेना पर आक्रमण कर दिया। रानी और उसके लाल कुर्ती दल ने अंग्रेज़ दल के भीतर घुसकर भयंकर मारकाट मचायी। अंग्रेज़ सैनिक पीछे हटने लगे तभी ह्यूरोज़ ने ऊँटों की सेना लेकर रानी की सेना पर हमला किया। रानी की सेना के पैर उखड़ने लगे। रानी ने उनमें जोश भरने की कोशिश की लेकिन सैनिकों का पलायन नहीं रुका। अंत में रानी और बाँदा के नवाब को भी पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। 24 मई, 1858 को कालपी शहर और किले पर कब्जा कर यूनियन जैक फहरा दिया गया।
ग्वालियर विजय
अंग्रेज़ सरकार यह मान रही थी कि ह्यूरोज़ का काम पूरा हो गया लेकिन कालपी पराजय के बाद बिखर चुके विद्रोही एक बार फिर एकजुट होकर ग्वालियर की ओर बढ़ने लगे थे। दरअसल कालपी से निकलने के बाद रानी लक्ष्मी बाई आदि जालौन होते हुए ग्वालियर से लगभग 46 कि.मी. दूर गोपालपुरा पहुँच गयीं थीं, उनके साथ ही बाँदा के नवाब अली बहादुर, तात्या टोपे और नाना साहब का एक सिपाहसालार लालपुरी गुसाईं भी गोपालपुरा आ पहुँचे थे। अनुमानतः क्रांतिकारियों के दल ने कालपी से निकलते समय ही यह आपस में तय कर लिया था। 26 मई, 1858 को क्रांतिकारियों की बैठक हुई। लगभग पूरे बुंदेलखंड पर अंग्रेज़ काबिज हो चुके थे। उत्तर भारत में भी वे बढ़त बना चुके थे, दक्षिण का मार्ग भी सुगम नहीं था। ऐसे में लक्ष्मी बाई ने ग्वालियर के सिंधिया से सहायता प्राप्त करने का सुझाव रखा। रानी का तर्क था कि चूँकि सिंधिया भी पूर्व में पेशवा के सूबेदार थे इसलिये वे अभियान में मदद करेंगे। राव साहब और तात्या टोपे का विचार था कि सिंधिया अगर सहायता न दें तो ग्वालियर पर अधिकार कर लेना चाहिए। तात्या ने यह भी बताया कि वे ग्वालियर में कुछ सरदारों और सिंधिया की फ़ौज के कुछ सिपाहियों से क्रांति में साथ देने का वचन ले आये हैं।
उस समय जयाजी राव ग्वालियर के राजा थे, जिनके दरबारी दो खेमे में बँटे हुए थे। एक खेमा अंग्रेज़ों का हिमायती था तो दूसरा क्रांतिकारियों का। राव साहब क्रांति की संभावना तलाशने जयाजी राव से मिलते रहे थे, तात्या टोपे भी बीच में सैनिकों और सरदारों को टटोल चुके थे। इसके बावजूद जयाजी राव को सहमत नहीं किया जा सका। अंग्रेज़ों की सरपरस्ती में वे स्वयं को महफूज समझ रहे थे, लेकिन 1857 को दिल्ली और मेरठ में हुए विद्रोह के समय से ही एक खेमे में क्रांति की तैयारी शुरू हो गयी थी जिससे स्वयं जयाजी राव भी भयभीत थे। 7-8 जून, 1857 को झाँसी में सुलगी विद्रोह की चिंगारी को ग्वालियर पहुँचने में देर नहीं लगी। 14 जून, 1857 को एक खाली बंगले को आग लगा दी गयी जिसकी चपेट में आकर मैस हाउस और मैस बैटरी बंगला भी ख़ाक हो गया। उस दिन 12 अधिकारी, एक कर्मचारी, तीन महिलाएँ और तीन बच्चे मारे गये। ग्वालियर के विद्रोहियों ने पहली रेजिमेंट के सूबेदार अमानत अली को जनरल की उपाधि देकर अपना नेता मान लिया। अब जयाजी राव असहाय हो गये, विद्रोहियों के साथ रस्साकशी चलती रही। इस बीच जून के अंतिम सप्ताह में सरकारी खजाने के तेरह हज़ार रुपये लूट लिये गये। जयाजी राव एक ओर विद्रोहियों से कहते कि वे उनके साथ हैं, दूसरी ओर वे अंग्रेज़ सरकार से पत्र-व्यवहार भी कर रहे थे। इस बीच ग्वालियर में दूसरे शहरों से भी विद्रोही आने लगे थे। जुलाई 1857 के अंत तक ग्वालियर में विद्रोहियों का भारी भरकम जमावड़ा हो गया।
ग्वालियर में चल रहे उठापटक के बीच 31 मई, 1858 को लक्ष्मी बाई, राव साहब और तात्या टोपे की अगुवाई में विद्रोहियों का दल ग्वालियर की सीमा के नज़दीक बड़ागाँव पहुँच गया। ग़दर 1857 के लेखक मौनिद्दीन हसन लिखते हैं कि राव साहब ने हरकारों को चिट्ठी देकर महाराजा सिंधिया के पास भेजा। चिट्ठी में लिखा था – “हमें तुम्हारे राज्य से कुछ लेना देना नहीं है केवल मार्ग और रसद चाहते हैं, अर्थात् मार्ग में हमें रसद मिलती रहे। हम तुमसे किसी प्रकार का झगड़ा नहीं करेंगे।” लेकिन ग्वालियर के महाराज ने यह याचना स्वीकार नहीं की। इसके बाद उन्होंने विद्रोहियों पर हमला कर दिया। 1 जून, 1858 को खुद जयाजी राव सिंधिया लाव-लश्कर के साथ लड़ने पहुँचे थे लेकिन विद्रोहियों के सामने टिक नहीं सके, क्योंकि खुद उनकी सेना के कई सिपाही क्रांतिकारियों के खिलाफ लड़ना नहीं चाहते थे। रानी लक्ष्मी बाई और राव साहब की विद्रोही सेना ने पलटवार किया और लगभग 6 घंटे चले संघर्ष में जयाजी राव के पैर उखड़ गये।
विनायक दामोदर राव सावरकर ने इस दिन के संघर्ष का वर्णन करते हुए लिखा है, “शिंदे अपनी सेना और तोपों के साथ ग्वालियर के पास पेशवा की सेना पर चढ़ाई करने चला। श्रीमंत पेशवा ने सैन्य दल को आते देख, यह जाना कि शिंदे पछताकर स्वदेश के झंडे की वंदना करके अगवानी कर रहा है, किन्तु रानी लक्ष्मी ने यह स्पष्ट बता दिया कि ग्वालियर नरेश स्वदेश के झंडे को ठुकराने आ रहा है। रानी ने अपने तीन सौ सैनिकों के साथ शिंदे के तोपखाने पर धावा बोल दिया।”
इसके बाद जयाजी राव आगरा भाग गये, रनिवास में बायजा बाई सहित 141 लोगों को नरवर भेज दिया गया। जयाजी राव के ग्वालियर से भागते ही लड़ाई बंद हो गयी और ग्वालियर पर राव साहब, रानी लक्ष्मी बाई का अधिकार हो गया और श्रीमंत पेशवा की शहनाई बजने लगी। इस ऐतिहासिक विजय से अंग्रेज़ सरकार हिल चुकी थी। लेकिन पेशवा राव साहब राग रंग में डूब गये।
रानी का बलिदान
रानी लक्ष्मी बाई ने तात्या टोपे से बात की, उनकी सलाह थी कि सभी प्रकार के उत्सव समारोह तत्काल बंद कर दिए जाएँ, युद्ध की तैयारी ही एक मात्र कार्य है, लेकिन तात्या पेशवा के अधीन थे इसलिये संकोच वश कुछ न कह सके। विजय के बाद दस बारह दिन हुई लापरवाही ने क्रांति पर कुठाराघात की नींव रख दी। चिंतित रानी दिन भर अपनी कोठरी में पड़ी रहती और रात में गश्त पर निकलतीं। उन्होंने अपने गुप्तचर भी फैला रखे थे। उन्होंने बाँदा के नवाब से भी विचार-विमर्श किया। रानी ने पूछा अगर ग्वालियर पर अंग्रेज़ों ने हमला किया तो क्या होगा? उन्होंने रानी से विकल्प पूछा। रानी का विचार था कि अब बहुत सीमित विकल्प शेष हैं। हैदराबाद के नवाब को पत्र लिखना तय हुआ क्योंकि बाँदा के नवाब भी दक्षिण को सुरक्षित मानते थे। उनका विचार था कि दक्षिण पहुँचकर स्वतंत्रता का संघर्ष फिर से शुरू किया जाये। कुछ और राजाओं को भी पत्र लिखकर मदद माँगी गयी तो वे भी अपनी पलटनें लेकर ग्वालियर आ गये। इधर जनरल ह्यूरोज़ निर्णायक प्रहार करने की नीयत से ग्वालियर की ओर बढ़ने लगा।
अंग्रेजी सेना के हमले की सूचना पाकर राव साहब और विद्रोहियों की सेना में खलबली मच गयी। राव साहब की आज्ञा से तात्या टोपे ने मोर्चाबंदी की। बाद में राव साहब भी पहुँचे, लेकिन अपने महाराज जयाजी राव को अंग्रेज़ सेना के साथ देख कई सिपाहियों ने हाथ खड़े कर दिये और अपने महाराज की जय-जयकार करने लगे। मुरार छावनी पूरी तरह अंग्रेज़ों के कब्जे में आ गयी, अब बस ग्वालियर शहर और किला ही बचे थे। अब रानी लक्ष्मी बाई के पास भी लड़ने के सिवा कोई अन्य विकल्प नहीं बचा, हालाँकि वे राव साहब के व्यवहार से अत्यंत दुःखी थीं। आसन्न युद्ध के लिये रानी की तलवार म्यान से बाहर थी। उसने राव साहब को हौसला बँधाया और सेना को पुनर्गठित कर व्यवस्थित करने लगीं। पूर्वी द्वार की रक्षा का भार उन्होंने पूरी तरह स्वयं पर ले लिया। उनकी एक ही माँग थी – ‘मैं अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी अपने प्रण को निभाऊँगी। तुम अपने कर्त्तव्य का पालन करो।’
मैदानी मोर्चाबंदी पूरी करके स्वयं रानी लक्ष्मी बाई रणभूमि में उतरने के लिये फौजी पोशाक पहनकर तैयार हुईं। सावरकर लिखते हैं, “सिर पर जरीदार चंदेरी का साफा, शरीर पर अंगरखा, पायजामा और गले में हीरों का हार पहनकर वह साक्षात रणचंडी जान पड़ती थीं। रत्न जड़ित तलवार लेकर रानी ने अपने सैनिकों को आज्ञा दी – आगे बढ़ो।”
अंग्रेज़ों की सेना जैसे ही आगे बढ़ी रानी के तोपखाने ने गोले बरसाने शुरू कर दिये। कई बार स्मिथ की सेना ने पूर्वी फाटक पर हमला किया लेकिन हर बार हारकर उसे पीछे हटना पड़ा। रणभूमि में पूरे दिन बिजली की तरह रानी दौड़ती भागती रही और अंग्रेज़ सेना को पीछे हटने पर मजबूर करती रही। 17 जून, 1858 का मैदान रानी लक्ष्मी बाई के हाथ रहा। शाम को युद्ध विराम के बाद रानी ने अगले दिन के युद्ध के लिये विचार-विमर्श किया, जिन योद्धाओं ने उस दिन युद्ध भूमि में पराक्रम दिखाने वाले गुल मुहम्मद और कुंवर सिंह को रानी ने सम्मानित किया, लेकिन 18 जून, 1858 की सुबह कुछ और ही होना था। नियति इस दिन भारत की स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम में पहली आहुति दिया जाना तय कर चुकी थी।
अगले दिन के युद्ध की कमान खुद सर ह्यूरोज ने संभाल ली। उस दिन भी रानी ने असाधारण शौर्य का परिचय दिया। युद्ध में रानी लक्ष्मी बाई की सखी मुन्दर को एक गोली लगी और वह वीरगति को प्राप्त हो गई। गोली मारने वाले अंग्रेज़ को रानी ने एक ही वार में धराशायी कर दिया। इसके बाद वे आगे बढ़ीं तो सामने एक नाला आ गया। महज एक छलाँग के बाद रानी अंग्रेज़ों की जद से दूर हो जातीं लेकिन नया घोड़ा अड़ गया और गोल-गोल चक्कर काटने लगा, अंग्रेज़ सैनिक और भी करीब आ गये। चारों ओर से घिरी रानी अकेली कई तलवारों का सामना कर रही थी। पहला वार रानी के सिर के पीछे हुआ, दूसरा छाती पर। रानी अंतिम साँसें लेने लगीं। रानी के विश्वासपात्र रामचंद्र राव देशमुख पास ही थे, वे उन्हें उठाकर एक झोपड़ी में ले गये। बाबा गंगादास ने उन्हें पानी पिलाया। रानी के अंतिम शब्दों के अनुसार घास का ढेर लगा दिया गया और उसी चिता पर अंग्रेज़ों की नज़र बचाकर रानी का अंतिम संस्कार कर दिया गया। रानी किस दिन वीरगति को प्राप्त हुई इस विषय पर कुछ इतिहासकारों और उस समय ग्वालियर में मौजूद कुछ व्यक्तित्वों के विवरण में भिन्नता है। कुछ लोगों का मत है कि वे युद्ध करते हुए 17 जून, 1858 में वीरगति को प्राप्त हुईं जबकि कुछ लोग 18 जून, 1858 को उनका शहादत दिवस मानते हैं।
सन्दर्भ स्रोत -
- झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, वृन्दावन लाल वर्मा
- झाँसी राज्य का इतिहास और संस्कृति, डॉ. भगवानदास गुप्त
- आँखों देखा ग़दर, विष्णु भट्ट गोडसे, अनुवाद-अमृतलाल नागर
- लक्ष्मीबाई, पारसीनस
- भारत में अंग्रेजी राज, द्वितीय खण्डः सुन्दरलाल
- अठारह सौ सत्तावन, सुरेन्द्रनाथ सेन
- 1857 का स्वातंत्र्य समर, विनायक दामोदर सावरकर
- इण्डिया म्यूटिनी ऑफ़ एटीन फिफ्टी सेवन, मेल्सन (खंड -5)
- ग्वालियर रियासत में 1857 का महासंग्राम, डॉ. सुरेश मिश्र