
रानी लक्ष्मी बाई (1935-1858)
February 10, 2025खंड-2 लोकवार्ता के तत्व तथा लोक-मानस
March 28, 2025लोक से आशय, परिभाषा, अवधारणा
लोक शब्द अत्यन्त प्राचीन व व्यापक है। सृष्टि की हर धड़कन में, हर वस्तु में लोक व्याप्त है। इस संसार में जो कुछ भी इन्द्रिय गोचर है वह सब लोक है। डॉ. विद्यानिवास मिश्र जी के शब्दों में लोक का विस्तृत अर्थ है लोक में रहने वाले मनुष्य,अन्य प्राणी और स्थावर, संसार के पदार्थ जो भी प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं सब लोक है। लोक को सूर्य की तरह माना गया है। लोक की सत्ता को विद्वानों ने वेदों से भी पूर्व की स्वीकार की है। लोक- परलोक की धारणा यहीं से आई। हमारे यहां तीन लोक माने गये हैं- पृथ्वी लोक, आकाश लोक, पाताल लोक। कहा जाता है कि ब्रह्मांड में सबसे पहले सिर्फ शून्य लोक था, धीरे धीरे धरती- आकाश, दिन-रात बने। हिरण्य गर्भ की मार्तण्ड की कथा पुराणों में है, इसप्रकार लोक का जन्म हुआ। सबसे पहले प्रकृति लोक बना, जीव-जंतु लोक, फिर मनुष्य लोक बना। लोक यानि अनन्त। पृथ्वी लोक अर्थात संसार,समूचा जीव,जगत, प्रकृति, स्वर्ग नरक, यथार्थ कल्पना सब लोक है। लोक सृष्टि के अन्दर और बाहर सर्वत्र परिव्याप्त है। जीवन में जो कुछ भी जीवित और जागृत सत्ता है सब लोक है। इसमें भूत, भविष्य और वर्तमान सब संचित है। लोक जीवन का प्रतीक है। जन-जन का पर्याय है। जहां तक भूमण्डल वहां-वहां लोक का विस्तार है। लोक की धरित्री – धरती माता हैं और लोक का व्यक्त रुप मानव है। यही लोक के जीवन का अध्यात्म है। लोक की त्रिलोकी में- 1.लोक 2. पृथ्वी और 3. मानव तीनों समाये हैं। इसी त्रिलोकी में सबके कल्याण की भावना समायी है।
लोक का प्रत्यक्ष-दर्शन लेख में डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल कहते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले हुए भू-भाग पर पनपता हुआ मानव-समाज भारतीय लोक है। भारतीय लोक-जीवन हमारे सुदीर्घ इतिहास का अमृतफल है। जो कुछ हमने सोचा, किया और सहा, उसका प्रकट रूप हमारा लोक-जीवन है। लोक राष्ट्र की अमूल्य निधि है। हमारे इतिहास में जो भी सुन्दर, तेजस्वी तत्त्व है; वह लोक में कहीं न कहीं सुरक्षित है। हमारी कृषि, अर्थशास्त्र, ज्ञान, साहित्य, कला के नाना रूप, भाषाएँ और शब्दों के भंडार, जीवन के आनन्दमय पर्वोत्सव, नृत्य, संगीत, कथा-वार्ताएँ, आचार-विचार-सभी कुछ भारतीय लोक में ओत-प्रोत हैं। लोक की गंगा युग-युग से बह रही है। उसके ओजायमान प्रवाह में हमारी संस्कृति के मेघजल पूर्व युगों में बरसते रहे हैं, सम्प्रति बरस रहे हैं और आगे भी उनकी सहस्त्र धाराएँ लोक जीवन की भागीरथी को आगे बढ़ाती रहेंगी। लोक हमारे जीवन का महासमुद्र है, उसमें भूत, भविष्य, वर्तमान- सभी कुछ संचित रहता है। लोक ही राष्ट्र का अमर स्वरूप है। लोक के ज्ञान और सम्पूर्ण अध्ययन में सब शास्त्रों का पर्यवसान है। अर्वाचीन मानव के लिए लोक सर्वोच्च प्रजापति है। लोक, लोक की धात्री सर्वभूतमाता पृथ्वी और लोक का व्यक्त रूप मानव- यही हमारे नये जीवन का अध्यात्मशास्त्र है। इनका कल्याण हमारी मुक्ति का द्वार और निर्वाण का नवीन रूप है। लोक-पृथ्वी-मानव इसी त्रिलोकी में जीवन का कल्याणतम रूप है।
लोक शब्द संस्कृत के ’लोक दर्शने“ धातु से घञ’ प्रत्यय करने पर निष्पन्न हुआ है। इस धातु का अर्थ ’देखना’ होता है जिसका लट् लकार में अन्य पुरुष एक वचन का रूप ’लोकते’ है अतः लोक शब्द का अर्थ हुआ देखने वाला।वह समस्त जन समुदाय जो इस कार्य को करता है लोक कहलाएगा। लोक शब्द अत्यन्त प्राचीन है। साधारण जनता के अर्थ में इसका प्रयोग ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर आया है ऋग्वेद में लोक शब्द के लिए ’जन’ का भी प्रयोग उपलब्ध होता है। कि वैदिक ऋषि कहता है कि विश्वामित्र के द्वारा उच्चरित यह ब्रह्म या मंत्र भारत के लोगों की रक्षा करता है।
’य इमे रोदसी उभे अहर्मिद्रमतुष्टवं। विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मोदं भारतं जनं। ऋग्वेद के सुप्रसिद्ध पुरुषसूक्त में लोक का व्यवहार जीव तथा स्थान दोनों अर्थों में किया गया है यथा – नाभ्या आसीद अंतरिक्षं शीष्णोः द्यौ समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रतथा लोकाँ अकल्पयन्। उपनिषदों में अनेक स्थानों में लोक शब्द व्यवहृत हुआ है। जैमिनीय उपनिषद ब्राह्मण में यथार्थ ही कहा गया है कि यह लोक अनेक प्रकार फैला हुआ है। प्रत्येक वस्तु में यह प्रभूत या व्याप्त है। कौन इसे पूरी तरह से जान सकता है।
बहु व्याहितो वा अयं बहुतो लोकः। क एतद अस्य पुनरीहतो अयात्।
अतः लोक संग्रह का अर्थ साधारण जनता का आचरण, व्यवहार तथा आदर्श है।
लोक साहित्य का अर्थ, परिभाषा
लोक साहित्य का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। साधारण जनता जिन शब्दों में गाती है, रोती हैं, हँसती है. खेलती है। पुत्र जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कारों के अवसर पर उत्सव मनाती है। ऋतुओं में प्रकृति के परिवर्तन को देखकर हृदय का उल्लास, आनन्द की अनुभूति खेतों की बुआई, निराई, कटाई के अवसर पर उल्लास ,बच्चों के खेलते समय के गीत, लोरी गीत, कहावतें, मुहावरें, लोकोक्तियां आदि लोक साहित्य है।
लोक साहित्य के गुण – लोक साहित्य का विशेष गुण स्वाभाविकता, स्वच्छंदता और सरलता है। लोक साहित्य उतना ही स्वाभाविक है जितना जंगल में खिलने वाला फूल। उतना ही सरल जितना पावन पवित्र गंगा का निर्मल जल। उतने ही स्वच्छंद जितनी आकाश में विचरने वाली चिड़ियां।
लोक साहित्य की विशेषता – लोकसाहित्य लोकभाषाका वह साहित्य है, जो अपने अन्तर्निहित लोकत्व के कारण लोकमान्य होकर लोकगृहीत हो गया हो और लोकमुख में जीवित हो।
साहित्य की अनुभूति के तीन पक्ष- 1-भाव, 2-विचार और 3-कल्पना होते हैं. उसी प्रकार लोकसाहित्य की लोकानुभूति के तीन पक्ष लोकभाव, लोकविवेक और लोककल्पना होते हैं, तीनों का अस्तित्व महत्त्वपूर्ण है। लोकभाव लोकरचना का केन्द्रीय तत्त्व है। लोकभाव लोकविवेक से पुष्ट होकर विविधता, व्यापकता और सघनता पाता है। लोकविवेक और लोककल्पना का स्तर लोक के अनुरूप रहता है। लोककाव्य में भावुकता की प्रधानता रहती है।
लोक साहित्य के प्रमुख तत्व – लोक जीवन की विविधता के दर्शन लोकसाहित्य में स्थान स्थान पर परिलक्षित होते हैं। लोकसाहित्य के प्रमुख तत्वों में निर्वैयक्तिकता, वाचिकता, सार्वभौमिकता, गत्यात्मकता, पारम्परिकता, सामाजिकता, मांगलिकता, वैचारिक निरपेक्षता के साथ लोकरस की अन्तर्धारा प्रवाहित होती है।
निवैयक्तिकता- निवैयक्तिकता का अर्थ है व्यक्तित्व का सर्वथा अभाव। लोकसाहित्य की रचना-प्रक्रिया में रचनाकार दो रूपों में भाग लेता है एक भोक्ता के रूप में और दूसरा रचनाकार (सृष्टा) के रूप में। दोनों रूप लोकत्व के धर्म को धारण करने के कारण लोकमय रहते हैं और उनकी अनुभूति से व्यक्तित्व बिल्कुल विसर्जित हो जाता है। लोक साहित्य का प्रमुख तत्व निवैयक्तिकता है।
लोकगीत गाने-सुनने से गायक या गायकों का आभास होता है। लोकगीत का उदाहरण देखिए जिसमें गीत की एक कड़ी कुछ प्रचलित शब्दों के साथ दोहराई जाती है। एक उदाहरण……
अबेरे दूला काये सजे महराजा ?
बना के आजुल कौ भारी परवार सजत बेरा हो गई महाराज।
बना के बाबुल कौ भारी परवार सजत बेरा हो गई महाराज…।
इसी तरह फूफा, ननदेउ और न जाने कितने नातेदारों के नाम जोड़कर काई भी गायक गा सकता है। ऐसे गीतों को लोकरचित कहा जाता है।
लोक वाचिकता – लोकसाहित्य का प्रमुख तत्त्व उसकी लोकवाचिकता है, जिसका अर्थ है उसका मौखिक परम्परा में जीवित रहना। लोकसाहित्य लोकमुख में ही रहता है और उसकी गतिशीलता मौखिक प्रसारण में है। वाचिकता तो परिनिष्ठित साहित्य में भी होती है, क्योंकि उसमें वही साहित्य आता है, जिसमें वक्ता का श्रोता से सीधा सम्बन्ध हो। लेकिन समूचे लोकसाहित्य में गायक या वक्ता श्रोताओं में सीधे साक्षात्कार द्वारा जुड़ता है और वाचिकता उसका अनिवार्य तत्त्व है। लोक वाचिकता में इतनी शक्ति है कि एक जनपद से दूसरे जनपद तक यात्रा करते हुए देशभर को वह जगा देती है। बुन्देलखंड का आल्हा और हरदौल गाथाएँ पूरे उत्तर भारत में ही नहीं, देश के अधिकांश भागों में यात्राएँ कर चुकी हैं और हर जनपद की लोकभाषा में जीवित होकर वहीं की हो गई हैं। इसी तरह व्रज के कृष्णपरक आख्यानक गीतों और अवध की रामपरक गाथाओं ने कई जनपदों को प्रभावित किया है।
सार्वभौमिकता – लोकसाहित्य जनपदों की अपनी-अपनी लोकभाषाओं में होते हुए और जनपदीय संस्कृतियों को अपनाकर भी केवल अपने जनपदों तक सीमित नहीं रहता, वरन् क्षेत्रीयता की दीवारें लॉघकर सर्वदेशीय हो जाता है। लोकसाहित्य उन मानवीय लोकभावों और लोकानुभूतियों का साहित्य है, जो सार्वभौमिक हैं।भाई-बहिन, ननद, भौजी, माता-पुत्री, पति-पत्नी, सास-बहू, पिता-पुत्र, प्रेमिका-प्रेमी आदि के सम्बन्धों और खासतौर पर उनमें निहित भावनाओं का चित्रण सब जगह एक-सा है। इसी प्रकार हर जनपद के गीतों के विषय, विम्ब या चित्र, प्रतीक और शैलियां भी एक समान हैं। हर जनपद का लोकसाहित्य एक कालविशेष में एक-सी वस्तु और शिल्प का प्रयोग करता रहा है।जनपदीय लोकसाहित्य में भारत की आत्मा रहती है और देश के सुख-दुख में जब भी जरूरत होती है, लोकसाहित्य उसमें साथ देता है। इस तथ्य का साक्षी है राष्ट्रीय लोकसाहित्य, जो देश की गुलामी के खिलाफ अपनी गायकी द्वारा आक्रमण करता रहा।
भाई-बहिन, ननद, भौजी, माता-पुत्री, पति-पत्नी, सास-बहू, पिता-पुत्र, प्रेमिका-प्रेमी आदि के सम्बन्धों और खासतौर पर उनमें निहित भावनाओं का चित्रण सब जगह एक-सा है। इसी प्रकार हर जनपद के गीतों के विषय, विम्ब या चित्र, प्रतीक और शैलियां भी एक समान हैं। हर जनपद का लोकसाहित्य एक कालविशेष में एक-सी वस्तु और शिल्प का प्रयोग करता रहा है।जनपदीय लोकसाहित्य में भारत की आत्मा रहती है और देश के सुख-दुख में जब भी जरूरत होती है, लोकसाहित्य उसमें साथ देता है। इस तथ्य का साक्षी है राष्ट्रीय लोकसाहित्य, जो देश की गुलामी के खिलाफ अपनी गायकी द्वारा आक्रमण करता रहा।
लोकसाहित्य की गत्यात्मकता – हर जनपद के लोकसाहित्य में देश और काल का महत्त्व है, क्योंकि लोक उपयोगिता के मानदंड का निर्धारण देश-काल पर निर्भर है। आशय यह है कि लोककवियों की दृष्टि तत्कालीन परिस्थितियों पर टिकी रहती है। समाज या लोक परिवर्तनशील है, इसलिए उसे वर्णित करनेवाला लोकसाहित्य भी गतिशील है। लोक के लिए उपयोगी लोकगीत तब तक ताजा रहता है। आवश्यकतानुसार लोकगीतों का जन्म होता है और लोकमुख में आते ही उपयोग शुरू हो जाता है। कभी-कभी सैकड़ों वर्ष की आयु पाकर भी वह पुराना नहीं होता। परिनिष्ठित साहित्य की तरह उसके शब्द बासी नहीं होते। फिर भी कोई नियमितता या निश्चितता और नियमबद्धता को लोकसाहित्य में स्थान नहीं है। ठहरे जल की गतिहीनता उसे सह्य नहीं, लोकसाहित्य तो निर्झर की गतिशीलता के प्रवाह का अभ्यस्त है।
लोकसाहित्य की पारम्परिकता- लोकसाहित्य में लोक परम्परा से पहचान की अपार क्षमता है। चाहे वस्तु हो या शिल्प, दोनों में परम्परा का निर्वाह सहज रूप में होता रहता है। शर्त यह है कि वह परम्परा लोकोपयोगी हो और लोकप्रचलन में भी हो। लोकसाहित्य के विषय लोक से गृहीत होते हैं, इसलिए लोकप्रचलित परम्पराएँ उसकी वस्तु बनते हैं। लोकसंस्कार और लोकोत्सवों की परम्पराओं के उदाहरण सम्बंधित लोककाव्य में विद्यमान हैं। पारम्परिक सूक्तियाँ और शब्दावली दोहराने के अनेक साक्ष्य भी मिलते हैं। कंचन, कलश, मुतियन चौक, चन्दन पटरी, चौमुख दियरा, सोने को गड्डुआ, गंगाजल पानी, ताती जलेबी, दूध के लडुआ आदि न जाने कितने लोकगीतों में बार-बार आए हैं। इन पारम्परिक प्रयोगों का अर्थ लोक द्वारा आसानी से समझ लिया जाता है, अतएव नये या वैयक्तिक शब्द समूहों के बाहर होने कारण उचित नहीं समझे जाते। इसी कारण परम्परिक प्रतीक और सूक्तियाँ दोहराने को शिल्प का गुण ही माना जाता है। जिस प्रकार जंगल के पौधों में हर बार वहीं पुष्प आते हैं, पर वे हर बार मोहक होते हैं, ठीक उसी प्रकार पारम्परिक प्रयोग हर बार अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं।
लोकसाहित्य की सामाजिकता – लोकसाहित्य का रचयिता, सहज और निश्छल लोकजन है। इसमें कुंठा या दुराव-छिपाव नहीं है। उसे कोई भी मनोग्रन्थि या मनोविकृति नहीं जकड़ती। वह जैसा बाहर है, वैसा ही भीतर। इसी कारण उसे लोकजन कहना उचित है। यदि कोई लोकादर्श या लोकहित के लिए अपने को निछावर कर देता है अथवा कोई लोकमूल्य स्थापित करता है, तो वह लोकसाहित्य की वस्तु बन जाता है। लोकमानस में छा जानेवाला व्यक्ति लोक का विषय होने से लोकसाहित्य में स्थान पा लेता है।
लोकसाहित्य में लोकव्याप्ती के रूप में ही लोक साहित्य ग्रहण किया जाता है। दैवी व्यक्तित्वों या देवों का अपना दैवीपन या देवत्व लोकमानवीय भूमिका में दिखाई पड़ता है। एक तरफ आल्हा- दल, जगदेव या जगद्देव, हरदौल और गांधी जैसे व्यक्ति हैं, तो दूसरी तरफ शिव, राम, कृष्ण, पार्वती, सीता, दुर्गा, कौशिल्या, यशोदा आदि दैवी व्यक्तित्व हैं। लोकसाहित्य दोनों को लोक के साँचों में ढालकर ही अपनाता है। लोक साहित्य में उसी समाज का चित्रण है, जो तत्कालीन लोक में जीवित है।
लोकसाहित्य में मांगलिकता – लोकमंगल ही लोकसाहित्य का प्रधान उद्देश्य है। वह लोकहित के लिए ही गाया या कहा जाता है और तन्मय होकर उसे सुनने से मन उल्लसित रहता है। लोककथाओं में अपार पीड़ा, ईष्या-द्वेष, प्रतिहिंसा, कलह, संघर्ष आदि के बाद अन्त में मांगलिक भाव भरे वाक्य रहते हैं, जिसका तात्पर्य लोककल्याण ही है। हर लोककथा की अन्तिम पंक्तियों कुछ इसप्रकार होती हैं….
जैसी उनकी मंसा पूरी करी, ऐसई करियौ।
जैसी उनकी लाज राखी, वैसई सबकी राखियौ।
जैसो उनें आनन्द भओ, बैसई सबखों होय। आदि।
लोककाव्य में सरस्वती, महादेव तथा अन्य देवों की स्तुति का भी समावेश हुआ है। स्थानीय लोकदेवी और लोकदेवता की भक्ति में भी लोककाव्य रचा गया है। उन भक्तिपरक गीतों और गाथाओं में लोकमंगल की भावना रही है। वस्तुतः लोकसाहित्य में लोकानुभूति की लोकाभिव्यक्ति होती है, अतएव उसमें लोकमंगल की भी अनुभूति रहती है, व्यक्तिगत मंगल की नहीं। यही कारण है कि लोक की सारी पीड़ाएँ लोकमंगल में पर्यवसित हो जाती हैं। सहृदय या श्रोता पूरी तन्मयता से लोककाव्य या लोकसाहित्य का आस्वादन करते हैं।
लोकसाहित्य मे मूल और प्रकृत का प्रयोग – लोकसाहित्य के अध्ययन से स्पष्ट है कि उसमें निहित विषय, घटनाएँ, पात्र, वातावरण, रंग, शैलियाँ, लय आदि मूल होते हैं, क्योंकि कल्पित के लिए लोकसाहित्य में कोई स्थान नहीं होता। वस्तुतः लोकसाहित्य प्रकृत साहित्य है, बनावटी का उपभोगी नहीं। लोकजीवन में जो कुछ प्रत्यक्ष है, वही लोकसाहित्य की वस्तु बनता है। परिष्कृत साहित्य विशिष्ट का चयन करता है, पर लोकसाहित्य हर क्षेत्र को लेता है। भले-बुरे, सीधे-टेढ़े और सभी विषय उसे स्वीकार्य हैं, लेकिन देश-काल का ध्यान उसकी प्राथमिक विशेषता है। मनुष्य को सर्वाधिक महत्त्व देने और मूल्यों को प्रतिपादित करने में लोकसाहित्य अग्रणी रहा है, क्योंकि उसने मनुष्य से सम्बन्धित सभी क्षेत्रों को वाणी दी है।
लोकसहज शिल्प – लोकाभिव्यक्ति किसी शिल्प-कौशल की वांछा नहीं रखती, यह बात अलग है कि समीक्षकों ने उसमें शिल्प परखने का प्रयास किया है और लोकछन्दों, उपमानों, प्रतीकों, मिथकों आदि की खोज कर ली है। लोकसाहित्य का शिल्प अनगढ़ होता है, उसमें किसी कृत्रिम बुनावट की गुंजाइश नहीं होती। अभिव्यक्ति का लोकसहज रूप ही उसका लक्ष्य होता है।
लोकसहजता से तात्पर्य है प्रकृत या स्वाभाविकः उदाहरणार्थ गोचारण करने वाले गायक हिंसक जानवर के कारण तारसप्तक स्वरों में दिवारी गीत गाकर अपनी उपस्थिति का पता देते हैं। लोकगीतों की लयों की उत्पत्ति या तो श्रम की गति के अनुरूप हुआ है या मानवीय भावों और प्रकृति के अनुकूलित अभिव्यक्ति देने के लिए। शिल्प के उपकरण और अलंकरण द्वारा लोकसाहित्य को सजाने-संवारने में रत्ती भर आग्रह दृष्टिगत नहीं होता। जो कुछ सहजतः एवं स्वतः गीतों या कथाओं में आ गया है, वहीं उनकी धरोहर बन गया है। वह भी लोकभावों और लोकसंवेदना को व्यक्त करने के उद्देश्य से ग्रहण किया गया है। वैसे तो लोकभाषा के शब्दों, उपमानों, मिथकों, प्रतीकों आदि ने परिनिष्ठित साहित्य के शिल्प को हर युग में नई ताजगी दी है। लोकसाहित्य का अनायास, किन्तु लोकसहज शिल्प ही कविता का आदर्श शिल्प है।
लोकसाहित्य में संगीतात्मकता – लोकसंगीत के अनुशीलन से स्पष्ट है कि संसार का आदिम संगीत लोकसाहित्य में ही बचा है। आदिम संगीत से लेकर आज तक का संगीत लोकसंगीत का ऋणी है। लोकसाहित्य का लोकसंगीत प्रकृति में फूटकर अपने प्रकृत रूप में तरंगायित रहा है। बुन्देलखंड का आल्हा और कारसदेव की लोकगाथाएँ कथनशैली अपनाकर भी सांगीतिक लय को स्पर्श करती हैं। वैसे तो समूचा लोककाव्य लयात्मक माधुर्य से बँधा है। विषयानुरूप ओज और करूण भी है। राग-रागनियों से युक्त लोकसंगीत लोकभाव के प्रवाह का संगीत है, जिससे लोकगीतों में भावुकता गतिशीलता और मधुरता बनी रहती है। भाव और कल्पना की स्वच्छन्दता के अनुरूप लोक धुनें भी मुक्त होकर विचरित है। लोकसंगीत की मुक्तता, सहजता और सरलता ने लोकसाहित्य से आत्मिक सम्बन्ध स्थापित कर लिया है, इसलिए संगीतात्मकता उसका अनिवार्य तत्त्व बन गई है।
लोकसाहित्य मे वैचारिक निरपेक्षता – लोकसाहित्य की लोकसंवेदना में विचार-तत्त्व लोकविवेक के रूप में होता है, लेकिन वह किसी विशिष्ट दर्शन, धर्म और मतवाद से प्रभावित नहीं होता। लोकविवेक ऐसा आश्चर्यजनक संघटन है. जिसमें सभी प्रकार के दर्शन, धर्म और वैचारिक मतवाद अपनी विशेषता और कट्टर दृष्टिकोण त्यागकर सामान्य रूप में घुलमिल गए हैं।
लोकसाहित्य में लोकरस – लोकसाहित्य के लोकरस का आनन्द लोकानन्द है, जिसे एक व्यक्ति नहीं, वरन् लोक सामूहिक रूप में एक समान अनुभूत करता है। परिष्कृत साहित्य की रचना में अर्थ-बोध एवं सहदय के स्तर की समस्या रहती है, अतएव उसकी रसानुभूति में बाधक तत्त्व भी रहते हैं। लोककृति में लोकभाव और लोकविवेक तथा उनकी संयोजक लोककल्पना, सभी पहले से ही लोकीकृत रहती है। लोकसाहित्य में लोकभाव की भावुकता लोकविवेक की वैचारिकता से अधिक प्रभावी होती है। यहाँ तक कि कुछ रचनाओं में लोक विवेक न्यून रहता है केवल लोकभाव ही अपने प्रवाह से लोक वृति को बाँधे रखता है।
लोक-साहित्य तथा अन्य समाज-विज्ञान
लोकवार्ता के शास्त्रीय क्षेत्र का जहाँ तक सम्बन्ध है, वहाँ तक लोक-साहित्य का सम्बन्ध स्पष्टतः पुरातत्त्व, इतिहास, धर्मतत्व, गाथा, भाषा-विज्ञान, मनोविज्ञान, नृविज्ञान, दर्शन से बहुत घनिष्ठ विदित होता है।
पुरातत्व :
पुरातत्व लोक-वार्ता से प्रभावित भी होता है, और लोकवार्ता स्वयं पुरातत्व का एक अंग मानी जा सकती है, क्योंकि पुरातत्व के अनेकों अन्वेषणों की आधारशिला और प्रेरणा लोकवार्ता ही होती है।[1] कितने ही स्थानों की खुदाई का कार्य प्रवल लोकवार्ता से प्रभावित होकर किया गया और परिणामतः अनेकों ऐतिहासिक रहस्यों का उद्घाटन हुआ। ‘मोहनजोदड़ो’ का उदाहरण लिया जा सकता है। ऐसे ही अनेकों उदाहरण आर्यालौजी और ऐण्टीक्विटीज के विश्वविख्यात विवरणों से मिल सकते हैं। ऐसे उदाहरणों से भी अधिक वे उदाहरण, हैं जिनमें किसी पुरातत्व के अनुसंधान में मिली वस्तु या तत्व से कोई लोक-वार्ता जो मात्र गप्प या कहानी मानी जाती थी, ऐतिहासिक रूप ग्रहण कर लेती है, और पुरातत्व-अनुसंधित्सु को अनुसंधान की कड़ियों को बिठाने में सहायक होती हैं।[2] लोकवार्ता में यह बात प्रचलित थी कि पृथ्वीराज ने मुहम्मद गौरी को कई बार हराया पर बहुत समय पूर्व तक इतिहास इसे स्वीकार नहीं करता था, तब आधुनिक ऐतिहासिक शोधों से लोकवार्ता विषयक तत्व को पुष्टि हुई, और लोकवार्ता की सामग्री ने इतिहास के अनुसंधान से प्राप्त बिन्दुओं की कड़ी को जोड़ने में सहायता प्रदान की। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि लोकवार्ता में जो कुछ प्रचलित है वह सब ज्यों का त्यों पुरातत्व में ग्रहणीय होता है। नहीं, लोकवार्ता में विविध ऐतिहासिक-अनैतिहासिक सूत्रों का ऐसा लोकतात्विक गुम्फन होता है कि पुरातत्व को उससे संकेत लेकर प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिल सकती है और समय पाकर उपलब्ध सामग्री से ऐतिहासिक सन्धि बिठाकर वह लोकवार्ता की सामग्री में से आवश्यक तन्तु निकाल कर कड़ी जोड़ सकता है। इतिहास के वृत्तों के लिए हो नहीं, सांस्कृतिक गवेषरणा और अनुसंधान में भो लोकवार्ता और लोक-साहित्य सहायक होता है।
इस प्रकार लोकवार्ता पुरातत्व-विज्ञान के लिए आरम्भ में तो प्रेरणा देने का काम करती है। बाद में घटनाओं के तारतम्य बिठाने और विविध कड़ियों को बिठाने में और व्याख्या में काम आती है। इस दृष्टि से लोकवार्ता भी पुरातत्व-विज्ञान का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सहायक तत्व माना जाता है।
इतिहास-
जो सम्बन्ध पुरातत्व और लोकवार्ता का है, उससे अधिक गहरा सम्बन्ध लोकवार्ता और इतिहास का है। जब तक पुरातत्व से प्राप्त प्रमाणों से पुष्ट इतिहास उपलब्ध नहीं होता तब तक लोक-वार्ता से प्राप्त सामग्री को ही इतिहास का रूप देने की चेष्टा को जाती है, और जैसे-जैसे प्रमाण उपलब्ध होते जाते हैं, लोकवार्ता से प्राप्त तत्वों की परीक्षा होती जाती है, और उन्हें प्रामाणिक रूप प्रदान किया जाता है। एक ऐसे ही उद्योग का आधुनिक उदाहरण कर्नल टाड का ‘एनाल्स चाफ राजस्थान’ है।[1] टाड महोदय ने राजस्थान का यह इतिहास लोक-वार्ताओं के ग्राधार पर लिखा। श्रव इन्हीं वार्ताओं को ऐतिहासिक प्रमाणों ने परखकर इतिहास प्रस्तुत किया जा रहा है। इतिहासकार लोकवार्ता का दो रूपों में उपयोग करता है-एक तो जैसा ऊपर उल्लेख किया गया, इतिहास के कच्चे मसाले के रूप में, जिसमें एतिहासिक तथ्य के दाने निहित हो सकते हैं। दूसरे लोकवार्ता से लोक जीवन के ऐतिहासिक स्वरूप को आँकने के लिए। क्योंकि लोकवार्ता का सम्बन्ध लोक-जीवन से बहुत घनिष्ठ होता है। उसमें लोक रुचिअरुचि और उसके संस्कार प्रतिविम्बित रहते हैं। इतिहास के विकास में एक ऐसी स्थिति भी होती है जब इतिहास और लोक-वार्ता में भेद करना कठिन हो जाता है, अतः बहुत से इतिहासों में लोकवार्ता के अच्छे संग्रह मिल जाते हैं। ऐसा भी माना जाता है कि लोकवार्ता, उसमें भी मुख्यतः लोक गाया या लोक कहानी का आधार किसी सत्य घटना पर निर्भर करता है। वह सत्य घटना ऐतिहासिक महत्व, की भी हो सकती है।
उधर लोकवार्ता के अध्ययन के लिए भी पुरातत्व और इतिहास बहुत बड़े सहायक है। लोकवार्ता में अनेकों नाम और अनेकों घटनाएँ होती है, अनेको तथ्य तथा अनेकों सूचनाएँ होती है। उसमें अनेकों निर्माण स्तर होते है। इन सबका उद्घाटन पुरातत्व और इतिहास के द्वारा ही हो सकता है।
धर्म-तत्व-गाथा, शास्त्र (दर्शन) :
धर्म-तत्व का लोकवार्ता से बहुत गहरा सम्बन्ध है। धर्म की नीव लोक विश्वास है। यह लोकवार्ता से गुँथा हुआ ही विकास पाता है। धर्म का वास्तविक मूल लोकवार्ता में सन्निहित आदिम मूल विश्वास ही होता है। ये आदिम मूल निश्वास ऐनोमिज्म, मैजिक तथा पूर्वज पूजा (एन्सेस्टर वरशिप) प्रायः इन तीन तत्वों ने निर्मित होते हैं। ये तीनों लोक तत्व अगे धर्म नाम की महान् प्रवृत्ति में परिणति पाते हैं। अतः किसी भी धर्म के ऐतिहासिक विकास को समझने के लिए लोकवार्ता की शरण आवश्यक है। आज धर्म में प्रचलित विधियों का मूल रूप लोकवार्ता के द्वारा ही ठीक-ठीक समझा जा सकता है, क्योंकि लोकवार्ता में मूल आदिम काल के अवशेष किसी न किसी रूप में सुरक्षित चले ही आते हैं। धर्म-गाथा को मैक्समूलर ने ‘भाषा का विकार’ बताया था। आदिम मानव के दिये विविध व्यापारों के नाम किस प्रकार आगे पौराणिक गाथा के निर्माण में सहायक हुए, इसे मैक्समूलर तथा उसके अनुयायी पुराणगाथावादी लेखकों (माइथालाजीकल स्कूल) ने सिद्ध करने की पूरी चेष्टा की है, अतः धर्म के मुख्य आधार धर्मगाथाओं के वास्तविक ज्ञान के लिए भी लोकवार्ता और लोक-साहित्य का उपयोग आज अनिवार्य हो गया है। प्रत्येक धर्म की एक विशद ‘धर्मगाथा’ पुराण कथा अथवा ‘माइथालाजी’ अवश्य होती है। इसी प्रकार धर्म-गाथा के द्वारा लोकवार्ता और लोक साहित्य के स्वरूप का भी ज्ञान होता है। लोक साहित्य के अनेकों अभिप्रायों का स्वरूप धर्मगाथा से स्पष्ट हो पाता है। धर्म-तत्व के सम्बन्ध में यह भी समझ लेना आवश्यक है कि केवल गाथा ही नहीं धर्म-शास्त्र और दर्शन के ऐतिहासिक स्वरूप और मूल को समझने के लिए भी लोकवार्ता विज्ञान ‘फोकलोरिस्टिक्स’ की आवश्यकता है, चाहे वह धर्म का कोई अनु-ष्ठान अथवा आचार हो, उसकी शास्त्रीय पद्धति के साथ संलग्न कोई न कोई वार्ता भी अवश्य होगी। इसी प्रकार दर्शन के सिद्धान्तों के मूल में भी लोक-बीज मिलेगा। चाहे वह ईश्वर की अद्वैत सत्ता हो, पुनर्जन्म अथवा आवा-गमन का सिद्धान्त हो, अथवा परलोक का, आत्मा का अथवा परमात्मा का, साकार का अथवा निराकार का, मूर्तिकला का, यज्ञ का, बलि का, धर्म के समस्त संस्थान का मूल आदिम स्थिति के विश्वासों में दिखायी पड़ेगा जो आज भी हमें लोक साहित्य में और लोकवार्ता में किसी न किसी रूप में अवशिष्ट दिखायी पड़ते हैं।
भाषा-विज्ञान
धर्म-गाथा के साथ भाषा-विज्ञान का प्रश्न जुड़ा हुआ है। मैक्समूलर ने धर्मगाथा को भाषा का विकार (मैलेडो आब लेंग्वेज) बताया था। ग्रिम से आरम्भ होने वाले वैज्ञानिक शोध में प्रवृत्त लोकवार्ताविदों का वह दल जो माइथालोजीकल थ्यौरी का प्रतिपादक था, भाषाविद (लिंग्विस्ट) भी था। लोक-वार्ता के अध्ययन से भाषा के अर्थ-विकार के उस रूप का पता चला जो किसी एक ही अभिज्ञान को विविध रूपों में प्रस्तुत करता है। इतना ही नहीं भाषा, भाषा के रूप और अर्थ दोनों तत्वों के विषय में कभी-कभी ठीक-ठीक परिज्ञान कराने में लोकवार्ता-साहित्य बहुत सहायक होता है। अनेको शब्द लोक वार्ता साहित्य में ऐसे संजीवित पाये जाते हैं जो भाषा-विज्ञान के लिए भी लाभप्रद होते है और इतिहास तथा धर्म के लिए भो। उदाहरणार्थ हिन्दी में ‘अलाइ बलाइ’ का प्रयोग है। यह आलिगी बालिगी का अवशेष है। इससे इतिहास और धर्म तथा भाषा-विज्ञान तत्वों को नयी दृष्टि मिली। इस प्रकार लोकवार्ता को भाषा-विज्ञान का आश्रय लेना होता है, और भाषा-विज्ञान को लोक वार्ता का। शब्द के यथार्थ अर्थ के लिए जिन परिस्थितियों का ज्ञान आवश्यक है वे भाषा-विज्ञान को लोकवार्ता से ही तो मिलती है। वे पीछे इतिहास से सिद्ध होती है। जैसे ब्रज में जसैया की पूजा होती है। यह ‘जखैया’ क्या है ? इसके लिए भाषा-विज्ञान को एक ओर लोकवार्ता का आश्रय लेना पड़ेगा कि लोक-वार्ता ‘जखैया देव’ के सम्बन्ध में क्या सूचना प्रदान करती है, दूसरो ओर उसे धर्म की शरण में भी जाना होगा, और धार्मिक साहित्य की शरण में भी, तब इतिहास की शरण में। इसी प्रकार लोकवार्ता के जखैया को भाषा-विज्ञान से ज्ञान होगा कि यक्ष का थान ही जखैया है, जो जैन ग्रन्थों में महावीर के ठहरने के स्थान ‘जक्ख-चेइय’ या ‘जक्खायतन’ से उद्भुत है। इस प्रकार भाषाविज्ञान और लोकवार्ता का परस्पर अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है।
पाठानुसंधान
लोकवार्ता पाठानुसंधान में भी सहायक है। पाठानुसंधान में तथा पाठ-व्याख्या (Textual Interpretation) में कितने ही प्रकार से यह सहायक होती है। ऊपर भाषा-विज्ञान के लिए जिस रूप में यह उपयोग में आती है, उससे भी पाठानुसंधान में सहायता मिलती है। अनेकों शब्द जो किसी युग में प्रचलित थे एक विशेष युग में साहित्यिक प्रयोग से वहिष्कृत हो जाते हैं, किन्तु लोकवार्ता में और लोकभाषा में जीवित रहते हैं। उनसे बीते युग के पाठ के शब्दों का उद्धार हो सकता है। अनेकों लोकवृत्त जो किसी ग्रन्थ अथवा कोश में नहीं मिलते लोकवार्ता में मिल जाते हैं। जायसी तया अन्य कवियों ने जगदेव के नाम का एक विशेष प्रसंग में उल्लेख किया है। इस जगदेव को लोकवार्ता से ही प्राप्त किया जा सका था।
मनोविज्ञान
लोकवार्ता साहित्य की व्याख्या के लिए जर्मन विद्वान विलहल्म वुंट ने ‘मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय’ ही स्थापित किया था, और राष्ट्रों के मनोविज्ञान (National Psychology) में लोकवार्ता के मनोवैज्ञानिक स्रोत पर बल दिया था। फायड ने भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण से काम-प्रकृति से लोकवार्ता के मूल को व्याख्या की थी। इन कारणों से मनोविज्ञान और लोकवार्ता का घनिष्ठ सम्बन्ध सिद्ध होता है पर आज लोकवार्ता के मनोवैज्ञानिक सम्प्रदाय का इतना महत्व नहीं रहा फिर भी मनोविज्ञान के लिए तो लोकवार्ता साहित्य के पास विचारार्थ इतनी सामग्री है कि वह समाज के व्यष्टि और समष्टि विषयक मनोविज्ञान के स्वरूप के अंकन के लिए अनिवार्य है। जातीय मनोविज्ञान, लोक मनोविज्ञान, आदिम मनोविज्ञान केवल लोकवार्ता के अध्ययन पर ही खड़े होते हैं। लोकवार्ता जन-जीवन के संचित विश्वासों का स्वरूप प्रस्तुत करती है, और विश्वासों की व्याख्या मनोविज्ञान की सामग्री है। विश्वास कितने प्रकार से मूर्त होते हैं, उन मानसिक मूर्तरूपों का क्या मनो-वैज्ञानिक पहलू हैं, यह मनोविज्ञान की शोध का विषय है। लोकवार्ता मनोविज्ञान की सहायता से लोक-मानस को और उसके ऐतिहासिक स्तरों को समझने की चेष्टा करता है। इस प्रकार मनोविज्ञान भी लोकवार्ता का घनिष्ठ सहायक है।
नृविज्ञान तथा जाति-विज्ञान
नृविज्ञान मानव-विज्ञान तो लोक-वार्ता से और भी घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। पहले तो लोकवार्ता को एन्थ्रापालाजी का एक सहायक अंग ही स्वीकार किया जाता था, जब लोकवार्ता साहित्य की व्याख्या के लिए फ्रेजर-टेलर आदि द्वारा प्रवर्तित ‘ऐन्थापालाजीकल सम्प्रदाय’ खड़ा हुआ, तब लोकवार्ता की व्याख्या के लिए ‘एन्थ्रापालाजी’ सहायक बनकर खड़ी हुई। फलतः न तो नृविज्ञान एक कदम बिना लोक-वार्ता के चल सकता है, न लोक-वार्ता नृविज्ञान के बिना।[1] नृ-विज्ञान शरीर और रक्त की परम्परा का अध्ययन है तो लोकवार्ता उस शरीर की वाणी का। लोकवार्ता में लोक-तत्वों के वर्गों को समझते और उनके ऐतिहासिक कालांकन के लिए एन्थ्रापालाजी या नृविज्ञान के बिना काम नहीं चल सकता। लोकतत्वों में जातीय लोक-मानस व्याप्त रहता है।
[1] नृविज्ञान अथवा ‘मानव-विज्ञान’ के लिए विशेष देखिए इस अध्याय का परिशिष्ट ‘मानव-विज्ञान’
जीवन और लोक-वार्ता :
वस्तुतः लोकवार्ता साहित्य का जीवन के आस्थामय पहलू से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है अतः जीवनव्यापी समस्त कला, शास्त्र और विज्ञान लोकवार्ता से लेते भी है और लोकवार्ता को देते भी हैं। सभी का अध्ययन अपेक्षित होता है।
चिकित्सा-विज्ञान
इस विज्ञान का वास्तविक मूल लोकवार्ता में हो है। प्रत्येक क्षेत्र में विविध रोगों को दूर करने की एक लोकवार्ता तो होती ही है जिसमें झाँड़-फूक, टोने-टमने, टोटके सम्मिलित है, वरन् वैद्य और डाक्टर जिन औषधियों आदि का उपयोग करते हैं, उनकी भी एक वार्ता खड़ी हो जाती है। वस्तुतः लोकवार्ता चिकित्सा-विज्ञान को पूर्वज मानी जा सकती है।इस प्रकार आज सामाजिक, शास्त्रीय और वैज्ञानिक अध्ययन के लिए लोकवार्ता और लोक-साहित्य एक प्रकार से अनिवार्य हो चले हैं। पर लोक साहित्य का साहित्यिक दृष्टि से भी पूरा महत्व है।
साहित्य और लोक-तत्व
इसमें तो कोई सन्देह ही नहीं कि साहित्य एक अभिव्यक्ति है, और यह मानवीय अभिव्यक्ति है। मनुष्य के पास अभिब्यक्ति के कितने ही साधन है, उनमें से ‘वाणी’ का माध्यम अत्यन्त प्रवल है, किन्तु जब यह लिपिबद्ध हो जाती है, तब प्रबल हो नहीं रहती, शाश्वतत्व से भी मुक्त होने लगती है। ‘बाणी’ को एक तो क्षण भंगुर-कण्ठ मिला हुआ है जिसके द्वारा उत्पन होते हो वाणी मृत हो जाती है- मुख से निस्रत हो, कानों से टकराती हुई शून्य में सदा के लिए विलीन हो जाती है। दूसरा परम्पराश्रित कण्ठ उपलब्ध है जिस प्रकार एक दीपक से दूसरा दीपक उसी प्रकाश से युक्त हो उठता है, उसी प्रकार ‘वाणी’ के शब्द कानों में प्रवेश कर दूसरे की वाणी के द्वारा अपनी जीवन-परम्परा को स्थिर रखते हैं। पिता से पुत्र अथवा गुरु से शिष्य के पास उतरती हुई वाणी को सरिता अपने प्रवाह को अक्षुण्ण रखती है। इस प्रकार स्वयं वाणी में ‘मृतत्व’ और ‘श्रमृतत्व’ दोनों समाविष्ट है, जिससे वैदिक ऋषि के उन मन्त्रों का मर्म सिद्ध होता है, जिसमें कहा गया है:
‘य आत्मदा बलदा यस्य विश्व
उपास्यते प्रशिंशं यस्य देवाः।
यस्यच्छायाऽमृतं यस्य मत्युः
कस्मै देवाय हविषा विधेम् ॥
‘अक्षर’ का ब्रह्मत्व भी यही सिद्ध होता है। मनुष्य-परम्परा के अनुतत्व के साथ वाणी का अमृतत्व घनिष्ठ रूपेण सम्बद्ध है। किन्तु विचारणीय यह है कि क्या यह समस्त अभिव्यक्ति ही एक साथ ‘मृतत्व’ और ‘अमृतत्व’ ने संयुक्त है- निश्चय ही ऊपर जिस प्रकार ‘वाणी’ का उल्लेख किया गया है, उससे तो दोनों का एक साथ होना सिद्ध होता है, फिर भी यह समझ लेने की बात है कि मनुष्य की परम्परा की भांति वाणी की परम्परा भी ‘मृत्यु और जन्म’ के आवागमन में ग्रथित है। शब्द उत्पन्न होता है, और मरता है, मरते-मरते पुनः जीवित होता है। इस प्रक्रिया में मनुष्य की यह सचेत चेष्टा रहते हुए भी कि वह पूर्व शब्द का यथातथ्य पुनरावतरण कर सके, वह सफल नहीं होता, और वही शब्द, वही वाणी पुनः नहीं सुनी जा सकती, उसके कुछ तत्व मृत होकर झड़ जाते हैं, कुछ ज्यों के त्यों बने रहते हैं, कुछ नए तत्व प्रत्येक अवतारणा में. प्रस्तुत हो जाते हैं। यदि प्रथम उच्चारण में एक शब्द अथवा ‘वाणी’ स्फोट, नाद, ध्वन्यावतरण, ध्वनि गौरव, लय, भावस्पर्श से एक और शब्द के रूप पक्ष में, और अर्थ, भाव, रस, ज्ञान-वस्तु, बोध-क्रिया आदि से नाम पक्ष में संयुक्त हो तो इनमें से रूप पक्ष में स्फोट जीवित रहेगा और नाम पक्ष में ज्ञानवस्तु का सार-भाग, भाव का सामयिकता-रूप, परक, संशोधित प्रकार और रस पुनरावतरण में अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं। इन्हीं के कारण किसी भी युग में हमको प्राचीन से
प्राचीन वाणी का मर्म व्याप्त मिल सकता है। विशेषतः उन क्षेत्रों में जिनमें कि वाणी यथार्थतः वाणी होती है, जिन क्षेत्रों में कि वाणी को लिपिवद्ध नहीं किया जाता है। लिपिबद्ध होने की योग्यता पाते ही वाणी को आत्म-निर्भरता समाप्त हो जाती है घोर तब वह साहित्य का नाम पाकर विशेष संस्कारों से युक्त होते-होते अपने मूल
स्रोत से पृथक होती चली जाती है, लिपिबद्धता उसके ऐतिहासिक स्वरूप की रक्षा करती है, और उसी ऐतिहासिक सत्ता को शाश्वत कर देती है। लिपिबद्ध होने पर वाणी का तात्कालिक स्वरूप स्थिर होकर अमृतत्व प्राप्त करता है-इसी को बड़े गौरव से ‘साहित्य’ कहा जाता है।
वाणी का यथार्थ मूल स्रोत लोकोद्गार का साधारण क्षेत्र है। फलतः किसी भी महान साहित्य के मर्म को समझने के लिए हमें लोक-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेना अनिवार्य है। यह कहा जा सकता है कि अध्ययन की दृष्टि से ‘लोक-तत्त्व’ को आप भले ही समझने की चेष्टा करें, पर किसी काव्य को समझने के लिए उसे अनिवार्य नहीं कहा जा सकता। जायसी, सूर अथवा तुलसी के काव्य को समझते, उसके यथार्थ आनन्द को प्राप्त करने के लिए अथवा उसके मर्म को ग्रहण करने के लिए लोक-तत्त्व को हृदयंगम करने की आज तक आवश्यकता नहीं समझी गयी है, और जिस प्रकार बिना इसे हृदयंगम किये हो इन तथा अन्य महान कवियों की कविता का आनन्द प्राप्त किया जाता रहा है, अब भी किया जा सकता है। किन्तु इस युक्ति को हम तभी मान्यता दे सकते हैं जबकि हम यह स्वीकार कर लें कि पहले दिन हमने जिस वस्तु का ज्ञान प्राप्त किया, वह पूर्ण था, अब उसमें किसी संशोधन अथवा परिवर्द्धन का स्थान नहीं। उसमें न तो हमसे ऐसा कुछ छूट गया है, जो आज उद्घाटित हो सकता है, और न उसमें स्वयं ऐसी सम्भावनाएँ हैं जो नयी भूमिकाओं में नयी चेतना प्रदान कर सकती हैं। यह दृष्टिकोण ही अवैज्ञानिक है। यह प्रश्न भी कोई साधारण प्रश्न नहीं है कि हमें कविता से आनन्द क्यों प्राप्त होता है ? यह प्रश्न भी असाधारण ही है कि कवि कविता क्यों लिखता है ? और यह प्रश्न तो सबसे अधिक उद्वेगजनक है कि वह क्या लिखता है ? कारण यह है कि आनन्द ‘वस्तु’ और ‘व्यक्ति’ से सम्बन्धित इकाई है, जिसको तीन स्तरों पर देखा जा सकता है पहला स्थूल स्तर ‘सामयिक’ है-शुद्ध उपयोगिता-वादी, वाच्य और भौतिक विज्ञान की सीमा में जिसे प्रगतिवाद-मार्क्सवाद सबसे अधिक महत्व देता है। दूसरा ‘भूतात्म’ समन्वयकारी स्तर है ‘मानसिक’- ‘व्यक्ति’ और ‘वस्तु’ की जो ऐतिहासिक रसायन बनती है वही इसके अन्तर्गत आती है। ‘व्यक्ति’ और ‘वस्तु’ केवल वर्तमान में ही नहीं रहते, वे भूत-परम्परा से घनिष्ठ-रूपेण सम्बद्ध हैं। वे रहते हैं हमारे रक्त में जिससे स्वभाव, प्रकृति, प्रवृत्ति में उतरते हैं वे रहते हैं हमारी रुचि में, हमारे मानस में जिससे विचार और विश्वास में उतरते हैं और कर्म में भा; तथा वे रहते हैं हमारी सामयिक भूमि में जिससे हमारे गर्व, दृष्टिकोण ओर साधन में प्रतिफलित होते हैं। प्राणि-विद्या, दर्शन तथा तत्त्व-शोध से हमारे प्राचीनतम ही नहीं आदिम से आदिम पूर्वज पुरुष और प्रकृति की देन को उद्घाटित किया जाता है। इसी दूसरे स्तर के कारण किसी रचना को ऐतिहासिक अमृतत्व प्राप्त होता है, और इसी को हृदयंगम करने के लिए लोक-तत्त्व का अध्ययन अनिवार्य हो जाता है। हम तुलसी का अध्ययन करके यदि केवल इतना ही समझ पायें कि-
एक राम हतो, एक रामन्ना
वानें बाकी सिया हरी
अरु वानें वाको मारन्ना
जाई बात को तोतन्ना
रु पंडित बाँधे पोथन्ना।
यानी राम सीता की स्कूल कहानी मात्र ही हम उससे ग्रहण करें तो हम उससे यथार्थ आनन्द नहीं पा सकते। हम पहले उसके अलंकार-रस आदि को भोर प्राकपित होते हैं, फिर धार्मिक अभिप्राय की ओर, उसमें वर्णित मानवीय चरित्र-विकास हमें विशेष प्रभावित करता है, उनके दार्शनिक ज्ञान और भक्ति के प्रतिपादन पर हम मुग्ध होते है। इन सबसे हम तुलसी के मानस और व्यक्ति-वस्तु-रसायन का बहुत अधूरा और स्थूल अर्थ ग्रहण कर पाते हैं। बिना लोक-तत्त्व का अध्ययन किये न तो समस्त समस्याएँ हा पूर्णतः इम समझ पाते है न मानव-मानस का ऐतिहासिक विकास का परम्परा में रामचरित का स्पष्टीकरण कर पाते है, और न तुलसी को यथार्थ महानता के साथ, उसके साथ लगे ‘क्यों’ और ‘क्या’ को व्याख्या कर पाते हैं। लोक-तत्त्व का अध्ययन ही हमें कवि की व्यक्ति-रसायन का रहस्य बता सकता है। पर लोक-तत्त्व का अध्ययन श्रानन्द विषयक तुतीय स्तर से भो उसका कम सम्बन्ध सिद्ध नहीं करता। तीसरा स्तर होता है आध्यात्मिक अनुभूति का। जहां वस्तु अथवा
प्रकृति मात्र प्रेरणा का काम करक पीछे रह जाती है, और पुरुष का शुद्ध चेतन आत्मा ‘अनादि अनन्त’ स्वरूप में अपनी आध्यात्मिक अनुभूति से निविकार आनन्द में मग्न प्रतीत होता है, जिस आनन्द में ही उसे ‘ब्रह्मानन्द’ मिलता है, और जिस अवस्था के लिये ही कहा गया है कि-
‘सिन्धु समानो बुन्द में’
जिसमें ही किसी काव्य की सार्थकता है और जो काव्य की चरम परिणति है, जो इस विशाल शरीर में ‘काव्य-शरीर’ में वैदिक ऋषि की अनुभूति के अनुरूप युद्ध से गुह्य गुहा में बंगुष्ठ-परिमाण स्थित है-यह तत्त्व साहित्य में वैयक्तिक तपस्या, साधना अथवा प्रतिभा से स्वयं प्रादुर्भूत नहीं होता यह लोक-अभिव्यक्ति से उसी प्रकार साहित्यकार में पुनर्जन्म पाता है, जैसे बौद्ध-धर्मानुयायियों में मनुष्य पुनर्जन्म पाता है। इसी के कारण वाणी को यथार्थ अमृतत्व प्राप्त होता है।
लोक साहित्य का शास्त्र और विज्ञान
फलतः लोक-साहित्य का एक ओर तो अभिव्यक्ति के रूप (form) के आधार पर, और मानवीय भाव-संपत्ति और अनुभूतियों से लहराते होने के कारण साहित्य-शास्त्र को दृष्टि से भी अध्ययन हो सकता है; और उसका शास्त्र वैसा ही प्रस्तुत किया जा सकता है। रस, अलंकार, आदि इसमें भी देखे जा सकते है। पर पिंगल के साथ-साथ लोक-संगीत का भी शास्त्र और कसौटी तैयार करना पड़ेगा। इसी प्रकार कोई भी लोक-साहित्य ध्वनि से शून्य नहीं होता। उसके प्रतीक अपना निजत्व रखते हैं। इसी प्रकार उसके अलंकारों और रसों, नायक-नायिकाओं, आलंबनों ओर उद्दीपनों में एक विशेषता होती है, जिससे लोक-साहित्य का शास्त्र शिष्ट या मनीषी साहित्य के अनुरूप होते हुए भी उससे भिन्न हो जायेगा।
पर लोक-साहित्य में जीवन का पहलू बहुत प्रबल होता है, जीवन का बहुधा एक अकृत्रिम स्वरूप है। उसमें अवतरित होता है अतः लोक-साहित्य का एक विज्ञान भी प्रस्तुत होता है। यह विज्ञान लोक-साहित्य के वर्ण्य और अवणर्य, विषय, वस्तु और आधार शैली सभी का लोक-वार्ता विज्ञान की दृष्टि से ग्रहण करता है। यह विज्ञान लोक-साहित्य में से साहित्य-तत्वों का और लोक-वार्ता को पृथक करता है। तदनन्तर साहित्य-तत्त्वों में भी लोकमूल का उद्घाटन करता है।
इसके लिए उसे ‘वर्णनात्मक विज्ञान’ की प्रणाली का उपयोग करना पड़ता है। पहले वह आज जो लोक-साहित्य है उसका विवरण वैज्ञानिक प्रणाली से प्राप्त करता है। उसका वैज्ञानिक प्रणाली से हा वर्गीकरण करता है। तब वह क्षेत्रगत (भौगोलिक) तथा कालगत तुलना और इतिहास-क्रम का उपयोग करके लोक-साहित्य की सामग्री को लोकवार्ता के क्षेत्र में पहुंचा देता है। इस क्षेत्र में पहुंचकर लोक-साहित्य को यह सामग्री लोक-सामान्य भूमि पर खड़ी होकर विविध लोक उपादाना को दृष्टि से परखी जाती है।
जैसे भाषा-विज्ञान के दो पहलू हैं एक ऐतिहासिक और दूसरा वर्णनात्मक (descriptive) वैसे ही लोक-वार्ता विज्ञान के हैं। जैसे शब्द और भाषा-तत्व यात्रा करते हैं, वैसे ही लोक-वार्ता, लोक-तत्व भी यात्रा करते हैं। जैसे भाषा-विज्ञान भाषा के विकारों और विकास का पता लगाता है वैसे ही लोक-वार्ता विज्ञान भी; जैसे भाषा-विज्ञान व्युत्पत्ति पर दृष्टि रखता है, वैसे ही लोक-वार्ता भी विविध तत्वों और अभिप्रायों (motifs) की व्युत्पत्तियों पर विचार करता है। जैसे भाषा के वंश वृक्ष देखे जाते हैं, और विन्यास-तत्त्व भी वैसे ही लोकवार्ता और उसके साहित्य के भी वंश-क्रम को देखा जाता है और उसके विन्यास-तत्वों को भी परखा जाता है।
अतः आज लोक-वार्ता अथवा लोक-साहित्य का विज्ञान एक उन्नत समाज विज्ञान में स्थान पा चुका है, अतएव हमें इस दृष्टि को भी लोक-साहित्य के किसी भी प्रकार के व्यापार में प्रवृत्त होते समय भूल नहीं जाना चाहिये।