खंड-4 बुंदेली लोक साहित्य की विधाएँ
April 8, 2025खंड-6 : बुंदेली लोकसाहित्य का महत्व
April 29, 2025(अ) बुंदेली लोक साहित्य में विषय वस्तुएँ
भारतीय लोक साहित्य में भारतीय समाज, इतिहास, धर्म, अर्थ, संस्कृति और प्रकृति आदि प्रमुख विषयों की अचल धरोहर निहित है। बुंदेली लोक साहित्य में भी समाज और मानव जीवन के विविध चित्र अंकित हुए हैं। इसकी विषय वस्तु इस प्रकार है।
- सामाजिक विषय वस्तु 2. ऐतिहासिक विषय वस्तु 3. धार्मिक विषय वस्तु 4. सांस्कृतिक विषय वस्तु 5. प्रकृति परक विषय वस्तु 6. अर्थ परक विषय वस्तु
1. सामाजिक विषय वस्तु
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसका जन्म समाज से होता है। वह समाज के लिए जीता है और समाज में ही जीवन लीला समाप्त कर देता है। इसी क्रिया प्रक्रिया का सजीव चित्रण बुंदेली लोक साहित्य की विषयवस्तु है। लोक जीवन के गृहस्थ जीवन परक चित्र बुंदेली लोक साहित्य में प्राप्त होते हें। संसार के समस्त रिश्ते स्वार्थ पूर्ण हैं इस भाव को, बैन बड़ी न भइया, सबसें बड़ौ रूपइया बुंदेली कहावत प्रकट करती है। इसी विषय की पुष्टि, माया कौ बाप, मोह की मताई, होती की बैन, न होती कौ भइया लोक कथा व्यक्त करती है। लोक गाथा आल्हा में माहिल अपने स्वार्थ के कारण बहिन के परिवार को युद्ध की आग में झोंक देता है। अविश्वास के जाल में फंसी बुंदेली नायिका स्वजनों का तिरस्कार करती है। देखिये :-
मैं अकेली मोरो घर न उजार दिओ।
सासोजू आवें उनें लौटाय दियो। में अकेली मोरो घर न उजार दिओ।
बुंदेली लोक साहित्य में अनमेल विवाह और बाल विवाह आदि कुरीतियों का वर्णन प्राप्त होता है। बुंदेली नायिका छोटे पति को पाकर अपने भाग्य पर बिसूरती है।
बरजाय पड़कुलिया तोरो भाग, बलम हलके से मिले।
जो मोरे बलमा स्याने होते, जो मोरे बलमा स्याने होते।
मै तो सेजें लगाउती दो दो बेर, बलम हलके से मिले।
अन्य नायिका बुड्ढे पति के कारण अपने भाग्य को कोसती है।
मोरे नसा गये भाग, अभाग, बलम बूडे से मिले।
सबके सइयां मारे मछइयां, मोरो बुड़रा बुन रओ खाट। बलम बूड़े से मिले।
सबके सइयां होरी खेलें, बूड़ो करै पूजा औ पाठ। बलम बूड़े से मिले।
बुंदेली नायिका की कैसी कथा है, यौवन की होली में पूजा पाठ का विधान हृदय विदीर्ण कर देता है। बुंदेली लोक साहित्य में सौतिया डाह का अनूठा चित्रण हुआ है। बनखण्डी रानी स्वर्ण कैसी आदि लोक कथाएँ ऐसे तथ्यों का उद्घाटन करती हैं जिनमें छोटी रानी को सौतों के डाह का शिकार होना पड़ा है। गीतों में भी सौतिया डाह की झलक मिलती हे।
भगजा मोरी सौत पुरा में सें।
कजरा बिंदुला की कौ दर देवै, टिकुली उठा लई डबा में सें।
लांगा नुगरे की कौ दर देवे, चोली उठा लई मढ़ा में से।
दूदा दई की कौ दर देवे, नैनू उठा लओ मटकी में सें। भगजा ……।
प्रिय संबंधों में बहिन भाई, पिता पुत्र, माँ पुत्री के मधुर संबंध बुंदेली लोक साहित्य में प्राप्त होते हैं क्योंकि, घूंटो नउत जब पेटई खों नउत, अतः बुंदेली काग बिड़ारनी कथा में बहिन भाई के प्रेम का स्नेहिल रूप प्रकट हुआ है। गीतों में बहिन भाई के हित के लिए, बदली की चिरौरी कर, उसे बदरिया रानी कह भाई के देश में बरसने का आग्रह करती है।
बदरिया रानी बरसो बिरन के रे देसा।
कांनां सें ऊनीं भाई कारी बदरिया, कांनां बरस गये मेंह।
पूरब से ऊंनीं भाई कारी बदरिया, अग्गम बरस गये मेह। बदरिया …।
2. ऐतिहासिक विषय वस्तु
बुंदेली लोक साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं का सजीव चित्रण हुआ है। का पमांरो सो गाउत, आल्हा सौ गा रये, उरइ की बेला बनी फिरत, माहिल कैसे सैरे के डड़ा मिलाउत आदि बुंदेली कहावतों में ऐतिहासिक विषय प्रयुक्त हुआ है। आल्हा, पमांरो, गोटें, अमानसिंह जू का राछरा आदि गाथाओं में ऐतिहासिक घटनाओं का विशद वर्णन है। कथाओं में भी इतिहास छिपा पड़ा है। अकबर बीरबल के चुटकुले या बीर विक्रमाजीत की कथा इसका प्रमाण हैं। लोक गीतों में तो इसकी भरमार है, ‘‘छत्ता तोरे राज में, धक-धक छाती होय इस पंक्ति में छत्रसाल की वीरता, सिंह गर्जना सी सुनाई देती है। पन्ना के राजा अमान सिंह जू बहुत दानी थे इसीलिए उनके निधन पर मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी तक रोते हैं।
कां हिरा गये ओ पन्ना के राजा अमान, तुमाय लानें रो रई बन की चिरइयां।
अन्य गीत में अमानसिंह जू की दान प्रियता देखिये।
पन्ना के राजा अमान, तुमाय संग खेलत में बेंदी गिर गई।
काय की री मोरी बेंदी बनीं, काय की री धरी रबार।
रूपे की री मोरी बेंदी बनीं, सोने की धरी रबार।
अमान जू तुमांय संग खेलत में बेंदी गिर गई।
इस गीत की गायिका को अमान सिंह जू ने लाख (चपड़ा) की बेंदी के बदले एक लाख मुद्राओं की कीमत की बेंदी बनवा कर दी थी। कुँवर हरदौल जू की घटना भी गीतों में गाई जाती है। निरपत जुझार कयें रानीं सें, हरदौलन विष दे देना। येई हमारौ हैं कैंना। कान के कच्चे राजा जुझार सिंह मूर्खतावश रानी से बीरवांकुरे हरदौल को जहर दिलवा देते हैं जिससे बुंदेलों की संगठन शक्ति का क्षय होता है।
3. धार्मिक विषय वस्तु
बुंदेलखंड का लोक जीवन वीर पूजक रहा है। इसका स्वरूप बुंदेली लोक गाथाओं में प्रकट हुआ है। कारस देव की गोटें, जगदेव को पमांरो में वीर पूजा ही प्रधान है। गोटों के नायक सूरजमल ने गांवों की रक्षा कर पशुपालन को प्रोत्साहित किया था जिससे यहाँ की जनता इन्हें राम कृष्ण से अधिक महत्व देकर प्रत्येक माह की चौथ को गा बजाकर पूजती है। जगदेव ने देवी को प्रसन्न करने हेतु अपने सिर का दान कर दिया था उनके त्याग की कीर्ति नवरात्रि के समय देवी की भगतों में गाई जाती है। लोक कथाओं में भी धार्मिक भावनाओं की सफल अभिव्यक्ति हुई है। भाट बाबा की कथा में कानव को धार्मिक शिक्षा प्रदान की गई है। भइया दोज की कथा में बहिन भाई के प्रेम की अनूठी अभिव्यक्ति है। बुंदेली नारियाँ देवी माँ से पुत्र आकांक्षा एवं परिवार के सुख की लालसा गीतों में प्रकट करती हैं। देखिये-
कैसे कें दर्सन पाऊं री, माई तोरी लागीं किवरियां।
लांगी किवरियां मइया, चंदन दोअरियां। कैसे कें दर्शनपाऊंरी …..।
माई के दुआरें एक लंगड़ा पुकारे, देव गोड़े घर जांवरी, भाई तोरी किवरियां।
माई के दुआरें एक अंदरा पुकारे, देव आँखें घर जांवरी, माई तोरी लागीं ,,।
माई के दुआरें एक बाँझ पुकारे, देव ललन घर जांवरी ……………………………।
गीत के अंत में बुंदेली नारी कहती है ‘‘हे दुर्गा रानी सबके मोड़ी, मौड़ा खुसी राखियो, ताके पाछूं मोरे खुसी राखियो’’, कितनी महिमामय लोक मंगल की भावना है, बुंदेलखंड के मानव हृदय की। इन पंक्तियों में जगत हित के उपरांत निज की भलाई की आकांक्षा व्यक्त की गई है। अतः कहा जा सकता है कि बुंदेली लोक साहित्य में धार्मिक विषय की भरमार है।
4. सांस्कृतिक विषय वस्तु
बुंदेली लोक साहित्य की समस्त विधाओं में, बुंदेली लोक संस्कार अभिव्यक्त हुए हैं। लोक विश्वासों का अमूर्त रूप मूर्त होकर प्रकट हुआ है। बुंदेली लोक कथाओं में आर्य एवं अनार्य लोक संस्कृति का मेल दानव की बेटी एवं राजा के राजकुमार के विवाह अंतर्गत देखा जा सकता है। (कथा अंतर्गत देखिये) बुंदेली लोक संस्कृति में पारिवारिक जीवन के वृत, शकुन, विश्वास, रूढ़ियाँ आदि एवं सामाजिक जीवन के तीज त्यौहार, पर्व स्नान आदि आते हैं। इन सबका विशद वर्णन लोक कथाओं, गाथाओं, गीतों एवं कहावतों में प्राप्त होता है। सिंह और सुरहिन गऊ की गाथा में अहिंसा की हिंसा पर विजय होती है जिसमें मानवीय भावनाओं की अनुपम व्यंजना हुई है। लोक गीतों के अंतर्गत जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों का वर्णन मिलता है। (विशेष अध्ययन हेतु संस्कृति का अध्याय देखिये)
5. प्रकृति परक विषय वस्तु
प्रकृति की रम्य गोद में लोक मानव का जन्म हुआ है। ऊषा का मुस्काना, दिवाकर का तेज, दोपहरी का यौवन, सन्ध्या का लजाना, तारों का छिटकना, चांदनी का विहंसना, रात्रि का शीतलता प्रदान करना मानव ने अधिक पास से देखा है। मानव का संसर्ग जन्म से मृत्यु तक प्रकृति से रहता है। यही कारण है कि लोक साहित्य का प्राण प्रकृति ही है। प्रकृति लोक साहित्य में प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत दोनों रूपों में प्रकट हुई है। नदी, नाले, पहाड़, जंगल, वृक्ष, पत्थर, सूर्य, तारे, चन्दे, ऊषा, सन्ध्या आदि सभी प्रकृति के दृश्य लोक मानव के भावों की अभिव्यक्ति हेतु प्रयुक्त हुए हैं। बुंदेली पहेलियों में प्रकृति का रूप देखिये। 1. एक पार पै गलगल व्यानी, ऊ की तेली बड़ी मिठानी। (शहद) 2. टाठी भर राई सबरें बगराई (तारे)। 3. खूंटा गड़ो रओ, दल्ल उखर गओ (महुआ)। 4. लाला पार पै करिया बूंदा (गुमची)।
कहावतों में प्रकृति इस प्रकार व्यक्त हुई है। काले मनुष्य के लिए, अदबरो डूंड़, लम्बे मनुष्य के लिए, खजरी सौ बड़ गओ, असहाय व्यक्ति के लिए, ककरी सौ जउआ तथा निर्बल व्यक्ति के लिए कुटकी सौ जीव आदि प्राकृतिक प्रतीकों का प्रयोग होता है। बुंदेली लोक गीतों में प्रकृति के द्वारा संसार असार है, जीवन क्षणभंगुर है आदि भावों की शिक्षा प्रदान की गई है। फूल खिलकर कुम्हला जाते हैं, सुवास शेष रह जाती है। उसी प्रकार जीवन नष्ट हो जाता है, मात्र सुंदर कर्म ही स्मारक बनकर रह जाते हैं। ईसुरी ने कहा भी है ‘‘बातें कैवे खों रे जानें, ऐसे हते फलाने’’ यही भाव इस गीत में देखिये।
मलिनिया फूलवा ल्याव नदन वन के।
बीन-बीन फुलवा लगाई बड़ी रास, उड़ गये फुलवा रे गई बास।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि बुंदेली लोक साहित्य में प्रकृति विषय वस्तु के रूप में प्रयुक्त होती रही है।
6. अर्थ परक विषय वस्तु
बुंदेलखंडी लोक साहित्य में अर्थ परक विषय वस्तु का विशद चित्रण हुआ है। इस भू भाग में जंगल अधिक पाया जाता है जिसे बुंदेली में डांग कहते हें। बुंदेलखंड पहाड़ी, जंगली प्रदेश होने के कारण यहाँ पर आर्थिक वैषम्य अधिक है। यहाँ की भूमि उपजाऊ नहीं है। क्षेत्र सूखाग्रस्त रहता है। इसलिए डांग के फल ऊंमर, गूलर, करौदा, चिरौंजी, आँवरे, गोंद, मउआ, बेर, कचरिया आदि उदर पूर्ति के साधन बनते हैं। यहाँ के मनुष्य भूख मिटाने के लिए ऊमर कूट-कूट कर खाते रहे हैं उन्हें महुआ ने कई अकालों से लड़ने की क्षमता प्रदान की है। बुंदेलखंड की लोक गाथाओं में आर्थिक स्थिति का सजीव चित्रण हुआ है। राजा नल की गाथा में नल अकाल के कारण ही दर-दर की ठोकरें खाते हुए राजा रनवीर के दरवार में शरण पाते हैं। नल की रानी को गरीबी के कारण ही रनवीर की रानी के व्यंग्य का शिकार होना पड़ता है। देखिये-
जरैं बरैं री तोय देस री, जां कुदवन के खरयान,
देसा तो नोने जेई री, जां तें विपता काटी आन।
बढ़ई का कुँवर रानी स्वर्णकेशी आदि कथाओं में नायक को या नायिका को आर्थिक विषमता के कारण ही घर से निकाल दिया जाता है। लोक गीतों में भी इस पहलू पर अनेकानेक गीत सृजित हुए हैं। सूखे के कारण बुंदेली भावी की फुंदइया सी सुंदर ननद बिक जाती है। देखिये-
बर जावै सूका तोरी साल, हमाई ननद बिका गई फुंदइया सी।
अरे हों हो जो कऊं घरै मोरीं सासो होतीं, उनई खों देती चुकाय। मोरी ननद
प्रस्तुत गीत में बुंदेली भावी ननद को पाने के लिए सास-ससुर, जेठ-जिठानी, देवर-देवरानी सभी को चुकाय रे (चुकाना) में देना चाहती है क्योंकि उसकी प्राण प्यारी ननद कर्ज के कारण बिक गई है। अन्य गीत में अभाव के कारण भूख मिटाने के लिए नायिका जबा खा गई है जिससे उसके पेट में दर्द है। देखिये-
बर जाय जबन को खानों री, मोरो सब रातन पेट पिरानो।
इतना ही नहीं बुंदेलखंड की एक युवती डंगइया (डांग) में विवाह दी है जहाँ पर उसे महुओं को खाकर जीवन यापन करना पड़ता है। अनाज के नाम पर जबा और ज्वांर मिलती है। ज्वांर पीसते-पीसते वह थक गई है इसी चित्र को इस गीत में देखियेः-
काय खों दई मोरे राम, डंगइया में काय खों दई मोरे राम।
एक तो डंगइया में जुनरी को पीसवो, दूजे लटन सों काम।
डंगइया में काय खों दई मोरे राम।
बुंदेलखंड का किसान अकाल के कारण परेशान है उसकी फसल नष्ट हो गई है उसे लगान चुकाना दूभर हो रहा है उसकी व्यथा इस गीत में देखिये-
हमाई कैंसे चुकत तियाई।
मेंड़न-मेंड़न हम फिर आये, डीमां देत दिखाई।
छोटी-छोटी बाल कड़ी है, कूरा रओ फर्राई।
मांते जिमींदार को आव बुलउआ, कौ आ करत सहाई।
टलिया, बछिया ले लई बानियां, रै गई पास लुगाई।
हमाई कैसें चुकत तियाई।
इस तरह से हम कह सकते हैं कि बुंदेली लोक साहित्य में अर्थ परक विषय वस्तु का विशद चित्रण हुआ है।
अंत में कहा जा सकता है, विषय वस्तु की दृष्टि से बुंदेली लोक साहित्य को सीमित दायरों में नहीं बाँटा जा सकता है। वह अनेकानेक प्रकारों में बिखरा हुआ साहित्य है।
(ब) बुंदेली लोक साहित्य में भाव सौंदर्य
मानव शरीर में हृदय और मष्तिष्क दो प्रधान अंग हैं। भावों का संबंध हृदय से है, बुद्धि का मस्तिष्क से है। बुंदेली लोक साहित्य हृदय पक्षीय साहित्य है इसीलिए यह भावना प्रधान है। मानव का कथाओं, पहेलियों, कहावतों एवं मुहावरों से समीप का संबंध रहा है इसी से उसके जिज्ञासा, कौतूहल एवं विस्मय आदि भावों की तुष्टि हुई है। मानव ने स्वयं एवं प्रकृति के रहस्यात्मक रूप को समझने बूझने हेतु कथाओं की सर्जना की है। बुंदेली लोक साहित्य में मानव ने पशु-पक्षी, वृक्ष आदि जड़ पदार्थों से आत्मीयता का नाता जोड़ा है जिसमें मानव की सात्विकता, सहजता, उदारता एवं कोमल भावनाएँ कार्य करती रहीं हैं। विस्तारवादी सिद्धांत के अनुसार मानव ने अपने विशाल हृदय की झलक बुंदेली लोक साहित्य में व्यक्त की है। मानव ने अपने अनुभवों एवं सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा जीवन एवं प्रकृति के सत्य को समझकर, जीवन जीने के ढंग को कलात्मक रूप देने का प्रयास किया है। इसी कलात्मक ढंग की आदि युग से चली आ ती हुई सहज यात्रा बुंदेली लोक साहित्य की विधाएँ हैं। इन विधाओं का जन्म मानव की मूल वृत्तियों- काम, क्रोध, मोह, मद, लोभ का आधार लेकर हुआ है जिसमें प्रकृति मानव की सहचरी बनकर प्रकट हुई है। इनका धरातल मनोवैज्ञानिक आधारशिला पर अवस्थित है। यथार्थता इनकी गरिमा है। आदर्शवादिता इनकी मंगलमयी भारतीय संस्कृति के अनुरूप, पावन भावना है।
बुंदेली लोक कथाओं में उदात्त भावों की अभिव्यक्ति हुई है। इनमें वसुधैव कुटुम्बकम् की पावन भावना पाई जाती है। मानव कल्पना के सहारे नूतन कल्पनाओं की उड़ानें मानव को पशु-पक्षी, वृक्षों, जड़ वस्तुओं से निजी संबंध स्थापित करने में सहायक हुईं हैं। कथाओं में मनुष्य के काठ के घोड़े़ उड़ते हैं सात समुन्दर पार कर लेते हैं। दानव उनके इशारे पर पहाड़ हटाकर सुंदर महल निर्मित कर देता है। नाग, बिल्ली, चूहा, चींटी से उसकी अभिन्न मित्रता रहती हे। ये सब वचन के पक्के होकर अपने कर्तव्यों का पूर्ण निर्वाह करते हैं। तोता मैना परमार्थ करते हुए स्वयं पर मिट जाते हैं। मनुष्य को पौरूष से इन्द्र की परियाँ प्राप्त हो जाती हैं। दानव पुत्रियाँ प्रत्येक राजकुमार की मदद करती हैं। मनुष्यों को सिंहों से गाय जैसी मित्रता होती है। (देखिये कथाओं की विधा)
मनुष्य सामाजिक प्राणी है उसका निर्माण समाज द्वारा समाज के लिए होता है। यही महान् भाव लोक कथाओं में प्राप्त होता है। आदिम मानव ने स्वयं को अकेला अनुभव कर प्रकृति के जड़ चेतन दोनों रूपों से नाता जोड़ा है। उसके मूल में प्रेम की भावना कार्य करती रही है। मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मानव प्रेम का भूखा होता है। इसी की तृप्ति के लिए उसने माँ, बहिन, भाई, पिता, काका, काकी, मौसी, मामा बहू, बेटा आदि के मानवीय रिश्ते जोड़े हैं। जब इन रिश्तों से पूरा नहीं पड़ता है तब वह प्रकृति की शरण में जाकर पशु-पक्षियों से प्रीति करता है। इसी भावना में बुंदेली कथाओं को व्यक्ति परक होने से बचाकर उन्हें सामाजिक बना दिया है। आदिम मानव के नदी, नाले, जंगल, पहाड़, गाय, शेर, चीता, उल्लू, कउआ, बिल्ली, परियां, दानव, देवता आदि सभी परिवार के सदस्य बनकर इन कथाओं में प्रस्तुत हुए हैं।
मानव प्रवृत्ति है कि वह दुख से छुटकारा पाकर सुख की प्राप्ति करना चाहता है। इसी भावना ने आदिम मानव को प्रकृति के सौम्य रूप का उपासक बनाया है। प्रकृति के भयंकर रूप के प्रति सृजित कर पूजा भाव को निर्मित किया है। बुंदेली लोक कथाओं में इसी रूप में धार्मिक भावना प्राप्त होती है।
बुंदेली लोक कथाओं में अलौकिकता का भाव विद्यमान है। कथाओं के द्वारा प्रेरणा पाकर मानव जीवन अपने को उन्नतिशील बनाता रहता है। बुंदेली कथाओं का बालकों के कोमल मन पर अधिक प्रभाव पड़ता है उनका जिज्ञासु मन कौतूहल के वशीभूत होकर साहस एवं वीरता मण्डित चरित्रों का अनुकरण करने की कल्पनाएँ सजोने लगता है जिससे उन्हें आत्म सुख की प्राप्ति होती है
बुंदेली लोक कथाओं में उपदेशात्मक भाव निहित है। प्रत्येक कथा कोई न कोई उपदेश लेकर कही जाती है। लोक जीवन आदि रूप में प्रकृति का अंग रहा है। प्रकृति के मौलिक रूपों के द्वारा इन कथाओं में उपदेशात्मकता विद्यमान है। यही कारण है कि बुंदेली कथाओं में पशु-पक्षी एवं नदियां मानव की सहायता करती हैं। बुंदेली लोक कथा में एक राजकुमार की मदद नदी करती है इससे यह उपदेश प्राप्त होता है कि जब निर्जीव नदी अपने वचन का निर्वाह करती है तो मनुष्य को निश्चित रूप में अपने दिये वचन का पालन करना चाहिए।
बुंदेली लोक कथाओं में मंगल की भावना निहित है। सत्य की असत्य पर विजय इनका मूल आधार है। कथाओं में नायक एवं नायिकाऐं विपत्तियों में घिरते हैं। अंत में विपत्तियां समाप्त होती हैं। अवरोध स्वतः नष्ट हो जाते हैं। असत्य के प्रतीक खलनायकों का विनाश होता है। बुंदेली लोक कथाओं में पात्रों का चरित्र चित्रण जन साधारण रूप में होता है। सभी पात्र वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं जिससे कथाएँ स्वाभाविक बन जाती हैं। राजा नल और उनकी रानी विपत्ति के समय में साधारण ग्रामीणों की तरह मछली, परेवाऊ दूध आदि वस्तुएं मांगते जाते हैं। बुंदेली लोक कथाओं एवं गाथाओं में दाम्पत्य प्रेम त्याग मण्डित है। कथाओं में देश काल एवं वातावरण की दृष्टि से, लोक जीवन के विविध दृश्य चित्रित हुए हैं।
बुंदेली लोक साहित्य की पहेलियाँ, मुहावरे एवं कहावतें लोक जीवन के अनुभवों के, गढ़े हुए धन के, खजाने हैं। जिस प्रकार बुंदेलखंड का मानव जीवन में धनोपार्जन कर उसे स्वर्ण के रूप में जमीन में गाड़ कर रखता है उसी प्रकार लोक जीवन के अनुभव एवं सूक्ष्म निरीक्षण परक ज्ञान को पहेलियों एवं कहावतों में पुंजीभूत कर भरा गया है। संक्षिप्तता इनका प्राण है, प्रभावोत्पादकता इनकी विशेषता है। बुंदेली सूक्तियों में नीति परक भावों की अभिव्यंजना हुई है। सामाजिक एवं राजनैतिक चित्रण निम्नांकित सूक्तियों में देखिये।
- आलस नींद किसानें नासै, चोरे नासै खांसी। हँसी मसखरी राँड़ै नासै, बाबै नासे दासी। समाज में आलस और नींद किसान को, खांसी चोर को, हँसी मसखरी विधवा को एवं दासी बैरागी को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। अतः इन्हें इन बुराइयों से बचना चाहिए।
- नदी किनारें गोंदरा, लफ-लफ दूनर होय। दो जोरू को बालमा, सूक बहेरो होय। नदी किनारे की गोंदरा घास जल एवं शीतल वायु से इतनी लचीली हो जाती है कि दिन-रात झुकती रहती है। उसी प्रकार दो औरतों के बीच में फँसा पति बहेरे की तरह सूख जाता है। लोकोक्तिकार ने बहेरे प्रतीक द्वारा अपने कटु किंतु सत्य अनुभव की व्यंजना सुंदर ढंग से की है।
अन्य :- दाता बक्ता सूरमा, ज्ञानी गुनी प्रवीन। पंडित कविता मौखरा, जै नौ आगे कीन। दान करने वाला, बोलने बाला, शूर, ज्ञानी, गुणवान, चतुर, पंडित, कवि, मुखिया ये सभी आगे प्रतिष्ठित होना चाहिए।
दाता, दानी, शूर, नृप, मंत्री वैद्य निदान। जै नौ निरमर चाहिए, जुआ, जुवान, किसान। दान कर्ता शूर, राजा, मंत्री, वैद्य, जुआ, जवान, किसान सभी निर्भय होना चाहिए तभी वह अपने कर्तव्यों का सही पालन कर सकते हैं।
ये वस्तुऐं टेढ़ी होनी चाहिए-
हर हंसिया पच फावरा, शिव का ऊंट प्रमान। जै नौ टेड़े चाहिए, अंकुश भोहें कमान।
ये वस्तुऐं मीठी चाहिए-
पय पानी अरू पानहूं, दान मान सम्मान। जै नौ मीठे चाहिए, हय राजा दीवान।
ये वस्तुएं दाबने पर अधिक उपयोगी हो सकतीं हैं।
कागद केरा केवरा, दासी दुर्जन दाम। जै नौ दाबें ही भले, रउआ मउआ आम।
ये वस्तुएं फूटने पर आपत्ति कारक बन जाती हैं-
कान आँख मोती मतौ, गड़ भढ़ डोंड़ा ताल। दलमल बाजो बन्दुआ, जे फूटें जन्जाल।
ये वस्तुएं लंबी होनी चाहिए-
पाग पिछौरा परदनी, खोर गदेला खाट। जे नौ लम्बे चाहिए, हाट सगाई खाट।
ये वस्तुऐं नीची होनी चाहिए-
त्रिय घूंघट कटि घांघरौ, और नारि प्रिय नैन। इतने जै नीचे भले, नमस्कार गुरू देन।
इन सूक्तियों में बुंदेली संस्कृति के आदर्श भावों की व्यंजना हुई है। बुंदेली नारी का घूंघट, घांघरा एवं नेत्र मर्यादा के घोतक हैं। विनम्रता झुककर चलने में ही देखी जा सकती है। गुरू के समक्ष दीनता बड़प्पन की निशानी है।
बुंदेली लोक साहित्य की विधाएँ
कथाएँ, गाथा, मुहावरे, पहेलियाँ, कहावतें एवं सूक्तियों में ऐसे भावों की भरमार है जिनका संबंध जीवन, प्रकृति एवं जगत से है। लोक नाट्य-स्वांगों एवं नृत्यों में भी इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति हुई है। समाज के विभिन्न दृश्यों को स्वांगों द्वारा अभिनीत किया जाता है जिसमें आनंद की प्राप्ति ही परम उद्देश्य रहता है।
बुंदेली लोक गीतों में भाव सौंदर्य- रसानुभूति
साहित्य समाज का दर्पण है। कवि, जीवन, समाज एवं प्रकृति की स्वानुभूति परक भावों को काव्यमय बनाकर प्रकट करता है। यही रसात्मक अभिव्यक्ति कविता है। कवि को तीव्रानुभूति परक भावों की अभिव्यक्ति में अलौकिक आनंदानुभूति होती है। लोक काव्य में अनायास ही प्रकृति, समाज या जीवन की किसी अनोखी ठेस युक्त घटना से, कभी कभी हृदय तंत्री के तार हिलाकर, एक असीम आनंद परक रागिनी, स्वर अलाप कर निकल जाती है जो सहज रसमयी होती है। यही सहज अभिव्यक्ति लोक साहित्य के प्राण हैं।
जब कभी लोक मानस अभावों में, विषम परिस्थितियों के कारण उत्पन्न विशद क्षणों में, थोड़ा सा सुख अनुभव करता है उसी समय ऐसे साहित्य की सर्जना कर बैठता है जिससे उसे आनंद मिलता है। जीवन को गति मिलती है। जीवन जीने की लालसा जीवन के प्रति लगाव पैदा किये रहती है। यही लोक साहित्य लोक जीवन में मनोरंजन घोलता रहा है। लोक मानव का परिस्थितियों, अभावों एवं सामंतों द्वारा कुचला जीवन, शोषण की टीसजन्य पीर से कसकता हृदय, आशा की स्फूर्ति पाता रहा है। इन सभी भावों से बुंदेली लोक साहित्य पूर्ण संपन्न है। इसने मानव को रूदन के दल-दल से खींचकर जीवन जीने की ठोस कला से परिचय कराया है । शुष्क हृदय को रसानुभूति की तरलता से रसमय बनाया है। जीवन एक कल कल बहती सरिता है। कभी न सूखने वाला निर्मल झरना है। मधुर स्वर लहरी युक्त सुंगीत की प्रवाहमयी लहर है। बुंदेली लोक गीतों में इन्हीं भावों की अभिव्यंजना हुई है। बुंदेली लोक गीतों का रस ही जीवन और प्राण है। मैं तो कहूंगा आत्मा है। मानव के मौलिक मनोविकार-रति (काम), क्रोध, भय, उत्साह, आदि प्रिय प्रिया के संयोग वियोग के चित्र, जन्म पर वात्सल्य, युद्ध में उत्साह, क्रोध में भय आदि की झांकी प्रस्तुत करते रहे हैं। बुंदेली लोक गीतों में सहज रूप में यह भाव आवेग के समन हेतु गीत बन कर ढलते रहे हैं।
‘‘भरत नें नाट्य शास्त्र में रस के संबंध में कहा है, विभावानुभाव व्यभिचारी संयोगाद्रस निष्पत्ति: इसका अर्थ है कि विभाव, अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से रस की उत्पत्ति होती है।’’ ‘‘रति आदि स्थायी भाव हैं सत्य तथा विज्ञान रूप होने से स्वतः प्रकाशमान आत्मानन्द के साथ अनुभूत होकर रस में परिणित हो जाते हैं। समस्त संस्कृताचार्य रस को आनंद रूप मानते हैं।’’
‘‘सहृदय पुरूषों के हृदय में वासना रूप में स्थित रति आदि स्थायी भाव ही विभाव, अनुभाव और संचारी के द्वारा अभिव्यक्त होकर रस के स्वरूप को प्राप्त होते हैं।’’ मानव मन के विकार ही भाव हैं। मन में स्थिर भाव, रति, भय, क्रोध आदि स्थायी भाव कहलाते हैं। विभाव दो प्रकार के होते हैं- आलंबन और उद्दीपन। स्थायी भावों को जाग्रत करने वाले भाव आलम्बन कहलाते हैं तथा भावों को तीव्रता प्रदान करने वाले भाव उद्दीपन भाव कहलाते हैं। जो क्षणिक बनकर रस पुष्टि कर मिट जाते हैं उन्हें संचारी भाव कहते हैं। यह तेंतीस प्रकार के होते हैं। भारतीय काव्य शास्त्र में नौ प्रकार के रसों का उल्लेख है। 1. श्रृंगार, 2. हास्य, 3. अद्भुत, 4. वीर, 5. रौद्र, 6. करूण, 7. वीभत्स, 8. भयानक, 9. शांत।
लोक गीतों में प्रायः सभी रसों की अभिव्यंजना हुई है किंतु बुंदेली लोक गीतों में आचार्य सम्मत रस रूप उपलब्ध नहीं होता है क्योंकि लोक गीत शास्त्र नियमों से उन्मुक्त, सहज स्वाभाविक हृदय के उल्लास का तरलतम पेय होते हैं। जिनमें भाव विह्ववलता ही प्रधान है कठोर नियम नहीं। इन गीतों में श्रृंगार, हास्य, वीर, करूण, भयानक, शांत आदि रसों का बाहुल्य है। सोहरों में बात्सल्य भी दिखाई पड़ता हे। विवाह एवं सोहरे गीतों में करूण रस एवं संयोग वियोग श्रृंगार के दोनों पक्षों की प्राप्ति होती है। बेटी की बिदाई गीतों में करूण रस का वेदना पूर्ण स्वर, हृदय में विवशतायुक्त टीस पैदा करता है। बरात के आगमन एवं ज्योनार गीतों में हास्य के दर्शन होते हैं। आल्हा में बीर, रौद्र, भयानक रस मिलता है। देवी की भगतों में शांत रस की झलक मिलती है। अनमेल विवाह-डला भांवरों की प्रथा का दुष्परिणाम द्योतक गीतों में अद्भुत रस की व्यंजना हुई है। बुंदेलखंड के लोक मानव की भावनाएँ अभावों के कारण स्वार्थ परक रहीं हैं उन्हीं की अभिव्यक्ति, बूढ़ों के प्रति उपेक्षित व्यवहार परक गीतों में, मनोवैज्ञानिक ढंग से हुई है।
श्रृंगार रस
श्रृंगार रस रसराज कहलाता है। उसके दो पक्ष होते हैं संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार। बुंदेली लोक गीतों में श्रृंगार के दोनों रूप बड़े तुष्ट रूप में प्रयुक्त हुए हैं बुंदेली लोक गीतों में प्रयुक्त रस में आनंद पक्ष के विह्वल रूप की प्रधानता है उसके शास्त्रीय परिष्कृत रूप का सर्वथा अभाव है क्योंकि बुंदेली लोक गीत अनगढ़ पत्थर से खजुराहो की कलाकृतियाँ बने हैं जिनमें हृदय की भावमयी उठान ही उभरी है मष्तिष्क की शुष्क सूझ बूझ नहीं है। यह कृतियाँ खुरदरी होते हुए भी रसयुक्त हैं। बुंदेली लोक गीतों में सांगोपांग रस चित्रण के अभाव में, उनमे पूर्ण रसानुभूति की गहरी प्रभावमयी क्षमता है। रस मधूक के फूलों सद्दृश्य अपने आप टपकता (चूंता) है, निचोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती। संयोग रस का उदाहरण देखियेः-
हर ली लिया बारी श्री राधा प्यारी।
वृन्दा विपन सुहावन अति ही, सरद रैन उजियारी।
जमुना तीर पुलन की सोभा, फूल रही फुलवारी।
चलत पवन मन मौज बड़ावत, मंद सुगंदित प्यारी।
निरतत लाल सहित बृजबाला, चपल तुरंग गत न्यारी।
बजत अनेक भांत मृदु बाजे, बीन बजत सुक्कारी।
दूगन सुर कोउ सखी अलापत, कहत लाल गिरधारी।
नाचत सीस फूल झर परते, बदन बिन्दु श्रम न्यारी।
कबहुँक स्याम विलग हो नाचत, ताल देत बृजनारी।
फूलमती कह सुर बरसावत, सुमन देव सहनारी।
यह गीत श्रृंगार रस की पूर्ण व्यंजना करता है। इसमें स्थायी भाव रति है। विभाव- आलम्बन-राधा कृष्ण हैं। उद्दीपन-वृन्दावन, सरद की उजियारी रात्रि, यमुना तीर और फुलवार है। अनुभाव-नाचना, टकटकी बाँधकर देखना, चपल गति से चलना आदि है। संचारी भाव-हर्ष, मोह, शैथिल्य आदि हैं। बुंदेली लोक गीतों के अमर गायक ईसुरी ने संयोग श्रृंगार के कई चित्र उतारे हैं। देखिये-
मोहन भर पिचकारी खींचे, मारें जांघ दुबीचें।
लगतन पीक लौट गई सारी, गई तिन्नी के नीचें।
हांत लगाय भुजन के भीतर, चली गई दृग नीचैं।
तेईं पै स्याम पर गये पाछैं, लगे गुलाल उलीचें।
वृंदावन में भई ईसुरी, रंग केसर की कीचैं।
इस फाग में राधा कृष्ण के रंग केशर की होली खेलने का चित्र उपस्थित हुआ है। ईसुरी की एक पंक्ति ही रति भाव की सुंदर व्यंजना कर देने में पूर्ण समर्थ है। राते परदेसी संग सोई ……।
वियोग श्रृंगार
श्रृंगार का दूसरा पक्ष विरह है। बुंदेली लोक गीतों में विरह की मार्मिक व्यंजना हुई है। नारी जीवन इस विरह में भाड़ के चने की तरह भुँजता रहा है। उछल-उछल छटपटाता रहा है। विदेश गये पति की प्रतीक्षा में नायिका ने बारह मास अंगुलियां गिन-गिन, रात-रात तारे निहार कर व्यतीत किये हैं। नारी हृदय के मचलते प्राकृतिक काम परक तूफान को झेलकर, जीवन की थाती-सतीत्व की रक्षा करती रही है। बुंदेलखंड की विरहनी राधा बनकर प्रियतम कृष्ण को तरस रही है उसे सारा संसार निस्सार लगता है।
कन्हैया बन कौन हरै मोरी पीरा।
असाड़ मास घन गरजन लागे, सहुंना गगन गम्भीरा।
भादों में नम बिजली चमकै, जौ मन धरत न धीरा।
क्वाँर मास की छुटक चांदनी, कातक निरमल नीरा।
अगन मास में बौनी हुइये, जौ तन धरत न धीरा।
पूस मास में ठंड जो व्यापै, माव में हलत सरीरा।
फागुन में हरि होरी खेलें, कौन पै छिटकें नीरा।
चैत मास बन टेसू फूलें, बैसाखें रन धीरा।
जेठ मास की भरी दुपइंया, व्याकुल होत सरीरा।
इस गीत में स्थायी रति (प्रेम) है। विभाव-आलम्बन-नायक, नायिका (राधा कृष्ण) हैं। अनुभाव-आंसू गिराना, आहें भरना है। संचारी भाव- विषाद, चिंता, मोह, चपलता, शैथिल्य, आवेग आदि हैं। एक अन्य गीत में स्वकीया नायिका प्रकृति के मंगलदायी उपादानों को हटाती है क्योंकि उसे प्रिय के वियोग में वे अच्छे नहीं लगते हैं। उसे वही अच्छा लगता है जो प्रिय का यश सुनाये।
हम पै वेरन वरसा आई, हमें बचालो माई।
चड़कें अटा घटा न देखे, पटा देओ अंगनाई।
बारादरी दोरियन में हो, पवन न जावै नाई।
जे दुम कटा छटा फुलवगिया, हटा देओ हरयाई।
पिय जस गाय सुनाओ ईसुर, जो जिय चाव भलाई।
वात्सल्य रस
बुंदेली लोक गीतों में वात्सल्य रस की व्यंजना हुई है। माँ गर्भवती होने के पूर्व भी कल्पनाओं में डूबकर हर्ष विव्हल होने लगती है। गर्भ आ जाने पर शिशु की कल्पना स्वप्न के माध्यम से व्यक्त करती है। देखिये-
पहले पहर को सपनों सुनो मोरी सासोजू महाराज।
राम लखन दोउ भइया अँगन विच, तप करैं महाराज।
बइया लयें वेला भर तेल, सांतिया लिख रहीं महाराज।
भौजी बैठी मांझ मझौटें, हार नौने गुह रहीं महाराज।
इन कल्पनाओं में तिरती नायिका आनंद रस लूटती है किंतु वात्सल्य भाव इतने में ही पुष्ट नहीं होता है। बच्चे के रूप को निहार कर, चूम पुचकार कर अपनी खुशी व्यक्त करती है। देखिये-
मोरे डरे-डरे कहरांय, गोविन्द लाल भों में डरे।
जाय जो कइयो उन राजा ससुर सें, थैली देय लुटाय। गोविन्दलाल ….।
जाय जो कइयो उन राजा जेठ सें, बजाजी देंय लुटाय। गोविन्दलाल ……।
जाय जो कइयो उन राजा देउर सें, गन्ता देंय कराय। गोविन्दलाल …..।
जाय जो कइयो उन राजा नन्देउ से, डेवड़ा देय छुटाय। गोविन्दलाल ….।
जाय जो कइयो उन बारी ननद सें, सांतिया देंय धराय। गोविन्दलाल …..।
जाय जो कइयो उन रानी सासो सें, चरूआ देंय धराय। गोविन्दलाल ….।
जाय जो कइयो उन पुरापरोसन सें, सरिंया देय गुआय। गोविन्दलाल ….।
इस गीत में स्थायी भाव वात्सल्य है। विभाव-आलम्बन-माँ है। उद्दीपन- बालक का सौंदर्य, कराहना, हंसना आदि है। अनुभाव-दान देना, चूमना, पुचकारना है। संचारी भाव- हर्षित होना, विह्ववल होना है।
करूण रस
आदि कवि बाल्मीकि जी का काव्य करूणाजन्य काव्य है। करूणा परोपकार की जननी है। मानवीय गुणों-दया, माया, ममता, अहिंसा, परोपकारिता आदि का विस्तार करूणा से ही होता है। यही कारण है कि मनुष्य करूणा के कारण एक दूसरे के प्रति उदार रहा है। बुंदेली लोक गीतों में नारी की करूण कहानी सोहर, बारहमासा, झूला गीत, विलवाई, राछरे एवं वैवाहिक गीतों में मूक वेदना बनकर गिरती है। बुंदेली कहावत है कि ‘‘बिटिया होतन बुरई और पठैउतन बुरई’’। बेटी की विदा के क्षण, माता-पिता एवं अन्य स्वजनों को हृदय विदारक होते हैं क्योंकि बेटी चिर परिचितों को छोड़कर नये वातावरण में होती है इन्हीं भावों का करूण क्रंदन विदा गीत में देखिये।
कच्ची ईंट बाबुल देरी न धरियो, बिटिया न दियो परदेस मोरे लाल।
काय खों माई मोरो जनम धरो तो, काय खों करो पराई मोरे लाल।
नाव करन खों बेटी जनम धरे ते, सुक्खन कों करैं पराई मोरे लाल।
सुक्ख तो माता मोय सपन नइयां, दुख सजीवर होंय मोरे लाल।
कौना खों दईं बाबुल अटा अटरिया, कौना खो दये परदेस मोरे लाल।
बीरन खों दई बाबुल अटा अटरियां, बेटी खों दये परदेस मोरे लाल।
माता कयें बेटी रोजईं आइयों, बाबुल कयें दोई जोर मोरे लाल।
बीरन कयें बैना औसर आइयो, भौजी कयें कौन काज मोरे लाल।
माता के रोंय-रोंय नदियां बहत है, बाबुल के रोंय बेलाताल मोरे लाल।
बीरन के रोंय-रोंय छतियां फटत हैं, भौजी के जीवरा कठोर मोरे लाल।
इस गीत में स्थायी भाव शोक है। विभाव-आलम्बन-माता-पिता, भाई, भौजी, सखी, एवं रिश्तेदार हैं। उद्दीपन-विदा के क्षण, कहारों से लदी डोली आदि। अनुभाव-कुंहकना, गले लिपटना, भेंट करना, सिर पर हाथ फेरना आदि है। संचारीभाव शोक की धारा उमड़ना, विशूरना, फपक-फपक कर रोना है। नारी के जीवन में पति वियोग ही सबसे अधिक दुखदायी होता है। दुखिया स्मृति के माध्यम से पति सुखों का वर्णन कर विलख-विलख कर रोती है। अभावों को व्यक्त कर सिर पीटती है।
मोरे लटकनियां राजा कां गये रे।
मो दुखनी कों इतै छोड़कें, अपुन सरग राजा हो गये रे।
जो काचौ कुड़वाव, मो दुखनी कों छोड़ गये रे।
उनकी जांगा मैं भट्टी काय नईं चली गई रे।
विधना तैने मोरी का बनी बिगारी रे।
मोरे लटकनिया राजा चले गये रे।
स्थायी भाव
शोक। विभाव-आलम्बन-पति का मरण। उद्दीपन-पति की वस्तुएँ। अनुभाव-विसूरना, सिर ठोकना, पछाड़ें खाना। संचारीभाव-मूर्छा, ग्लानि, विषाद। बुंदेलखंड में विधवा हिरणी का गीत भी प्राप्त होता है जिसमें मानव के विशाल हृदय की करूणा पशुओं के प्रति उमड़ने लगती है। राजा दशरथ ने हिरण का बध कर दिया है हिरणी रानी कौशल्या से अपनी व्यथा प्रकट करती हुई पति की छाल माँगती है ताकि उसे देखकर वह जी सके, किंतु रानी कौशिल्या यह कह कर कि राम की खंजड़ी इस खाल से मढ़ी जायगी, उसे इंकार कर देती हैं। राम जब खंजड़ी बजाकर खेलते हैं, हिरणी शब्द सुनकर चरना छोड़ देती है। गीत ये है।
ठांड़ी हिरनी अरज करै, मोरे हिरनै गिर गई गलफांस।
मोरे हिरनै छोड़दो, मोरो डूबो जात परिवार।
यही गीत बघेली एवं अवधी में भी प्राप्त होता है। अवधी गीत की पंक्तियां ये हैं।
जब-जब बजह खंजड़िया, सबद सुन अनकई।
हिरनी ठांड़ि ढकुलिया के निचवा, हरिन क विसूरई।
वीर रस
बुंदेली लोक गीतों में वीर रस की सर्जना हुई है। गाथाओं का मुख्य वर्ण्य विषय ही वीरता है। देखिये-
दोउ फौजन में मोरा जुरगओ, मेरो परो समैं पै आन।
सूत सिरोही वर्दसान की, आगैं सामूं भिड़े जुआन।
पैदल सें तो पैदल भिड़ गये, औ असवारन में असवार।
थोंदू टकराने थोंदन सें, होरई छुरी, गुरज की मार।
होदन सें तो होदा भिड़ गये, हांती बोलें माँ चिक्कार।
सूंड़ लपेटा हांती भिड़ गये, औ बै चली खून की धार।
स्थायी भाव
सैनिकों के हृदय में उत्साह। विभाव-आलम्बन-शत्रु और उसके पराक्रम का प्रभाव। उद्दीपन-युद्ध के बाजे, हाथियों की चिक्कार, वीर गान एवं ललकार। अनुभाव-बांह फड़कना, नथुने फूलना, आँखें लाल होना। संचारीभाव-गर्व, अमर्ष, असूया, उग्रता आदि। बुंदेलखंड वीरों की युद्ध भूमि है। महाराज छत्रसाल की तलवार यहीं खेली थी। गीत की एक पंक्ति में महाराज छत्रसाल की वीरता उफनाती दिखाई देती है। छत्ता तोरे राज में, धक-धक छाती होय।
हास्य रस
बुंदेली लोक गीतों में- वैवाहिक गारी एवं सोहरों में- मधुर हास्य का सृजन हुआ है। फूहड़ स्त्री परक हास्य गीत इस प्रकार है-
रांटा करै न पौनी, देखत की नौनी।
रायते में खूबई नोन मसकदओ, भुंजयां धरीं हैं रौनी। देखत की नौनी।
गाय भैंस के लिंगा न जावै, तनक करै न दौनी। देखत की नौनी।
भर-भर टाठीं मैरी मसके, ऐसी मत अनहोनी। देखत की नौनी।
रो-रो कय वा अपने खसम सें, बनवादो करदोनी। देखत की नौनी।
चोखी चाँदी को जेबर गड़वादो, मैके जेंहों हो आज पठोनी। देखत की नौनी।
इस गीत में स्थायी भाव हास्य है। विभाव-आलम्बन-औरत का फूहड़पन, अस्त-व्यस्त वेशभूषा। उद्दीपन-मूर्खता पूर्ण कार्य। अनुभाव-भावभंगिमा। संचारीभाव- हर्ष उत्सुकता।
शादी गीत में हास्य
कचरिया तोरो विआव री, खरबूजा नेवतें आइओ।
मूरा दूला भटा बराती, चिरपोटा सज ल्यइयो।
सजी गड़ेलू बजे तूंमरा, कुमड़ा ढोल बजइओ।
चले पटाका आतिसवाजी, घुंइयां आन चलइओ।
केरा, करेला भय मामाजू, केंथा ससुर बुलइयो।
सेंमें घुंइयां भईं गौरइयां, मिरचें दोड़ लगइओ।
पाँव पखरई में डंगरा, कन्यादान कलींदो दइओ।
परियो सकारें, उठियो अबेरे, दुपरै चौका लगइओ।
मौड़ा, मौड़ी मांगे कलेवा, दो-दो घूंसा दइओ।
इस गीत में कचरियां एवं मूली के विवाह की कल्पना कर हास्य निर्मित किया गया है। बहू छोटी सी ‘कचरिया’ है। दूल्हा लम्बा मूली सा है। लोक कवि की कल्पना शिष्ट हास्य प्रकट कर, समाज पर व्यंग्य करने में नहीं चूकी।
शांत रस
बुंदेली लोक गीत भगतों में शांत रस के दर्शन होते हैं। देखिये-
मोरी मइया पत राखिओ, बारे जन की।
मइया के मड़ में चमको घनेरौ, बास भई फुलवन की।
मइया के मड़ में गऊंऐं घनेरी, पौद बड़ी बछलन की।
मइया के मड़ में बहुऐं भौत हैं, भीर भई लरकन की।
मइया के मढ़ में धाम लगी है, बास भई घी गुर की।
स्थायी भाव
निर्वेद। आश्रय-भक्त। आलम्बन-मोह। उद्दीपन-संसार कष्ट। अनुभाव-स्मरण दैन्य, हर्ष।
रौद्र रस
बुंदेली लोक गाथा मान गूजरी में रौद्र रस प्राप्त होता है। मान गूजरी के रूप पर मुगल मोहित हो उसका अपहरण करता है। मानो का पति एवं भाई विकट युद्ध करते हैं जिसमें खून की नदियां बह जाती है, लोथों के पहाड़ लग जाते हैं।
कानां से मुगला चले री, कांना लेत मिलान।
पच्छम सें मुगला चले री मानो, अग्गम लेत मिलान।
सोउत चन्द्रावल ओंध कें, तेरी व्याही मुगल लयें जाय।
मुगला मारे गरद कर डारे, विननें लोथन के लगा दये पार।
रक्तन की नदियां बईं रे, मुन्डन के लगे पहार।
स्थायी भाव
क्रोध। आश्रय-पति। आलम्बन-मुगल। उद्दीपन-मुगल द्वारा किया अपमान। अनुभाव-ललकारना, क्रोध आना। संचारीभाव- ईर्ष्या, असूया।
भयानक रस
बुंदेली लोक गीत में वृद्धा की दुर्दशा का वर्णन कर भय सृजन किया गया है।
डुकरा तोखों मौत कितउं नइयां।
डुकरा की खाट मरेला में डारी, करिया नाग डसत नइयां।
डुकरा की खाट बमीठे पै डारी, करिया नाग डसत नइयां।
डुकरा की खाट मडै़या पै डारी, टूट बड़ेरी गिरत नइयां।
डुकरा की खाट नदी पै डारी, आउत नदी बउत नइयां। डुकरा …..।
अदभुत रस
बुंदेली युवती के ढाई वर्ष के पति को बिल्ली चुरा ले जाती है। सास ननद के ढूढ़ने पर वह खाट के नीचे मिलता है। देखिये-
काय राजा मुख डारो रूमाल, ढाई बरस के बालमा।
ढाई बरस के बालमा, बिल्लू ले गई चुराय। काय राजा मुख…..।
सासो जू ढूँढ़ै ननदिया ढूँढ़ै, मोरी ढूँढ़ै बलाय।
ढाई वरस के बालमा विल्लू ले गई चुराय। काय राजा मुख…..।
सासो जो रोवै, ननद मोरी रोवे, रोवे मोरी बलाय। ढाई वरस ……।
कुठवा जो ढूँड़ो अटरिया जो ढूँड़ी, खटिया तरैं दुके बालमा। ढाई वरस ….।
स्थायी भाव
आश्चर्य। आश्रय-स्त्री। आलम्बन-ढाई वर्ष के बालम। उद्दीपन- बिल्ली का चुरा लेजाना, बालम की हरकतें। संचारी भाव- औत्सुक्य, भ्रान्ति आदि।
वीभत्स रस
बुंदेली लोक गाथा आल्हा में वीभत्स रस प्राप्त होता है। देखिये-
काट-काट कें दल ऊदल ने, दुश्मन कौ दओ खोज मिटाय।
चार टाप सें घुरवा मारै, पाँचये खों मों में जाय चवाय।
कट-कट मुन्ड गिरैं धरती पै, उठ-उठ रून्ड करैं तरवार।
मूंड़न के तो लगे चौंतरा, और लौथन के लगे पहार।
नदियां बै गईं उते खून कीं, कछवा भई ढाल तरवार।
लासें उतरा रईं डांड़ा सीं, कौआ चील अँतड़ियाँ खायँ।
पी-पी खून नचैं सब जोगिन, सबरीं मन में मौज उड़ायँ।
इसमें खून, लोथ, अंतड़ियों आदि का फैलना वीभत्स भावों को चित्रित करता है।
बुंदेली लोक साहित्यकार ने साहित्य की समस्त विधाओं में, हृदय की विभिन्न भाव दशाओं को प्रयुक्त किया है।
(स) बुंदेली लोक साहित्य में संस्कृति एवं जीवन दर्शन
साहित्य समाज का दर्पण है। प्रकृति, समाज एवं मानव अपने स्वाभाविक रूप में साहित्य के दर्पण में प्रतिविम्बित होता है। ‘‘जाति विशेष के उत्कर्षापकर्ष का, उसके ऊँच नीच भावों का, उसके धार्मिक विचारों और सामाजिक संगठन का, उसके ऐतिहासिक घटना चक्रों और राजनैतिक स्थितियों का प्रतिबिम्ब देखने को यदि कहीं मिल सकता है तो उसके ग्रंथ साहित्य में मिल सकता है। सामाजिक शक्ति या सजीवता, सामाजिक आसक्ति या निर्जीवता और सामाजिक सभ्यता तथा असभ्यता का निर्णायक एकमात्र साहित्य है। …. जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है उसका साहित्य भी वैसा ही होता है। जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है तो उनके साहित्य रूपी आइने में ही मिल सकती है।’’[1] शिष्ट साहित्य के विषय में द्विवेदी जी का कथन लोक साहित्य पर भी खरा उतरता है क्योंकि लोक साहित्य शिष्ट साहित्य का जनक है। लोक साहित्य में लोक जीवन के संपूर्ण झाँकी अंकित होती है। सहज रूप में ही लोक का वातावरण, जनजीवन, संस्कार, रीति-रिवाज, व्रत-त्यौहार उत्सव, परंपराएँ, लोक विश्वास, रूढ़ियाँ एवं अन्य मान्यताऐं सभी कुछ लोक साहित्य बनकर प्रकट होती हैं। यही साहित्य व्यापक रूप में लोक संस्कृति के नाम से जाना जाता है। बुंदेलखंड के सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के संस्कार बुंदेली लोक साहित्य की समस्त विधाअें में व्यक्त हुए हैं। बुंदेली लोक साहित्य विशाल वट-वृक्ष है जिसकी पाँच विधाएँ उसकी विस्तृत फैली हुई शाखाएँ हैं। बुंदेलखंड जन-जीवन की संस्कृति-रीतिरिवाज, खानपान, रहन-सहन, वेशभूषा, संस्कार, लोक विश्वास आदि- उसकी टहनियां एवं घने असंख्य पत्ते और फल हैं। अनार्य संस्कृति परक लोक विश्वास आदिम जातियों की संस्कृति के रूप में इस वृक्ष की हवाई जड़ें हैं जिसके सहारे बुंदेली लोक साहित्य सुदृढ़ है। बुंदेलखंड की धरती में यह जड़ें अभी भी अपनी पैठ किये हुये हैं।
बुंदेली लोक साहित्य में सामाजिक जीवन चित्रण
लोक साहित्यकार लोक समाज के सुंदर एवं असुंदर चित्रों को चित्रित करता रहा है। बुंदेली लोक साहित्य में समाज के दोनों रूप प्राप्त होते हैं। पारिवारिक जीवन की झांकी इसमें अंकित हुई है। पिता-माता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन, सास-बहू, पति-पत्नी, ननद-भाभी आदि के आदर्श रूपों का वर्णन तथा सती नारियों के गुणों का गान इस साहित्य में किया गया है। दूसरी ओर ननद भाभी की कलह, पति द्वारा पत्नी की उपेक्षा, पत्नी द्वारा पति को धोखा, देवर भाभी के वासना परक संबंध, सास बहू का झगड़ा और वृद्धों की उपेक्षा बुंदेली लोक साहित्य में प्रकट हुये हैं।
आदर्श सतीत्व
बुंदेली लोक साहित्य में आदर्श सतीत्व की भावना व्याप्त है। लोक कथाओं में पशु-पक्षी तक सतीत्व की रक्षा करते दर्शाये गये हैं। तोता-मैना, चिरई-चिरवा, लड़इया और लड़ेन ऐसे ही पात्र हैं जो सतीत्व रक्षार्थ प्राणों का उत्सर्ग करते हैं। मानो गूजरी के सतीत्व की रक्षा के लिए भयंकर युद्ध हुआ है। पति पनमेसुर बिरोबर होत, कोड़ी, लंगड़ा, लूला कैसउ पति होय, वो तो भगवान बिरोबर होत, पराये पुरूष को नाव जिन लिइये, नईं तौ टका सौ ज्वाब देदौं आदि कहावतों में इन्हीं भावों की भरमार है। लोक नाट्य रावला के स्वांगों में भी सतीत्व की महिमा दिखाई गई है। मोदी मोदिन का स्वांग इसका उदाहरण है। सोहर गीतों में भी एक साधू बुंदेली नारी के रूप पर मोहित होकर उसे मन भर स्वर्ण देता है किंतु नारी अपनी चतुराई से अपने सतीत्व की रक्षा कर लेती है।
जुगिया इतनी सुनकें पलंग चड़ बैठो रे महराज।
मन भर सोनों निकारो, सुंदर नौने पैरो रे महराज।
पहिर ओड़ ठाँड़ी भई गोरी, झरोखों से झांकी रे महराज।
जोगीरा, भगने होय भगजाव, घरइया मोरे आ गये रे महराज।
माता-पुत्री के संबंध
बुंदेली लोक साहित्य में माँ और पुत्री का असीम प्रेम दर्शाया गया है। बुंदेली कथाओं में पिता जब पुत्री की उपेक्षा कर कोढ़ी अपाहिज को पति रूप में वरण करा देता है माँ चुपके से उसके बालों में मोती, लाल, असरफी आदि गुह देती है। माँ का पुत्री के प्रति प्रेम भाव विदा गीतों में देखिये-
रामा लिबांय लयें जात हो, माई मोरी सुद न बिसारियो।
कौनां कें रोंय माई नदियां बहत हैं, कौनां कें रोंय बेलाताल हो।
माई कें रोंय माई नदियां बहत हैं, बाबुल कें रोंय बेलाताल हो। माई मोरी …..।
प्रस्तुत गीत में माँ के आँसुओं की आर्दता प्रत्येक को गीला कर देती है।
भाई-बहिन के संबंध
भाई बहिन का स्नेहिल रिश्ता भारत की मौलिक धाती है। यह पावन रूप सिक्के के दो पहलू हैं जो द्वैत में अद्वैत है। बुंदेली लोक साहित्य में इसी भाव को चना और उसके दल (देवल) के द्वारा प्रकट किया गया है। चना एक होता है विलग करने पर उसके दो देवल होते हैं ऐसा ही भाई-बहिन का रूप है। बहिन भाई भिन्न होकर भी अभिन्न होते हैं। इसी भाव का गीत बहिन झूला झूलकर गाती है।
एक चना दो देवली, मोई सावन आई। कथाओं में बहिन अपने भाईयों के लिए बन-बन मटक कर उन्हें जीवन दान देती है। गाथा में, चन्द्रवली बहिन के लिए आल्हा ऊदल छुपे वेश में युद्ध लड़कर उसके रक्षाबंधन के पावन त्यौहार को संपन्न करा देते हैं। बदरिया रानी बरसौ वीरन कै री देसा। गीत में बहिन का भाई के प्रति अपार स्नेह व्यक्त हुआ है।
सास और बहू के संबंध
बुंदेली लोक साहित्य में सास बहू के संबंध मधुर नहीं हैं। बहू के आते समय सास को खुशी होती है किंतु बाद का पूरा जीवन लड़ते-लड़ते व्यतीत होता है। बुंदेली कहावत भी है ‘‘जबलौ बहू बहू रत तौ लौ सास सौं लरत रत और जबईं सास हो जात सो अपनी बऊ सौं लरत। इसका कारण सास बहू के पारिवारिक, सामाजिक पीढ़ी परक विचारों का अंतर है। एक गीत में सास अपनी बहू से इसलिए नाराज हो गई है कि वह अपने पति को पंखा झल रही थी अतः वह जलभुन कर अपने पुत्र से दूसरे विवाह के लिए हठ करती है। देखिये-
रंगामहल में पोंड़े राजा स्वामी, धनिया विजनियां डुलाये मोरे लाल।
बा विजनिया मोरी सासौ ने लख लई, जर कें होगई झोल मोरे लाल।
कै तो धनियां मांयकें पठादै, के तैं रच दूसरो व्याव मोरे लाल।
लेंव लेंव बेटा बहू के करिजवा, जी सें सरीर जुड़ाय मोरे लाल।
बुंदेलखंड में इन्हीं भावों युक्त ‘‘सास लटी का राछरा’’ भी गाया जाता है जिसमें सास बहू के खाने में जहर मिला देती है। देखिये-
सास बहू दोई पनियां खों निकरीं, ऊपर नगन मंड़रांय, सास लटी कौ राछरौ।
विस की हंड़ियां विस की तौलियां, विस के दये बगार, सास लटी कौ राछरौ।
विस के भोजन परोस धरे सासो, बहू ने करी ज्योंनार, सास लटी को राछरो।
जेवत भोजन आये तमारे, बऊ कौ भओ तुरत काल, सास लटी को राछरो।
ननद भाभी के संबंध
बुंदेली लोक साहित्य में ननद भाभी के संबंध मधुर नहीं है। सीता वनोवास की गाथा में सीता को वनवास दिलाने में ननद का हाथ रहता है। लोक कहावत भी हे ‘‘ननद रैन की भली नई होत’’ क्योंकि भाभी आकर ही उसके प्रिय भइया पर जादुई अधिकार जमा लेती है उसके अपने घर की स्वामिनी बन जाती है अतः ननद भाभी से जलती है। संस्कृत के किसी कवि ने दुष्टा सास और मर्म भेदन में पटु ननद का बड़ा सुंदर चित्रण किया है।
श्वस्रू पश्यति नैव पश्यति यदि भ्रूभंगवक्रेक्षणा,
मर्मच्छेदपटुः प्रतिक्षणमसो ब्रूते ननान्दा वचः।
अन्यासामपि किं ब्रवीमि चरितं स्मृत्वा मनो वेपते,
कान्त स्निग्धदशा विलोक्यपि मामैताव्दागः सखी।
बुंदेली लोक गीतों में भाभी भी ननद का अंत कर देना चाहती है क्योंकि उसे डर है कि कहीं पुत्र पैदा होने पर नैग में ननद उसका हार न ले जाये इसीलिए वह ननद को धतूरे की जड़ें पिलाने की सोचती है।
गाँव के ढिमरा पकर मंगवइयो महराज। अवकी धतूरे की जरैं खुदवा मंगवइयो महराज।
घिस लुड़िया पिसवइयो, कटोरन छानियो महराज।
सो बारी बया खों दियो पियाय, हार मोरे बच जैहे महराज।
सौतिया डाह
बुंदेली कहावत है कि ‘‘सौत कठवा की साजी नईं होत’’ क्योंकि सौतें कलह का अखाड़ा होती हैं। सौतिया डाह परिवार की सुख शांति तथा पति के जीवन को नष्ट कर देता है। लोक कथाओं, गाथाओं एवं गीतों में इन्हीं भावों की भरमार है। बुंदेली नायिका अपने पति से रात भर गायब रहने का प्रश्न करती है। रातै पिया कां गये ते, दरवाजे के खोलो तो किबार। राते ….
रातै धनां माँ गये ते जां तोरी बाई डरी बीमार। राते पिया काँ गये ते।
पिया झूठ अब जिन बोलो, तैं राखें दूसरी नार। राते पिया काँ गये ते।
सौतिया डाह के कारण पति पत्नी में कलह पनपता है। नायिका सौत के कारण परेशान है।
बंगर जोत बयै, चना मैंने बंगर जोत बये।
जब-जब वे चना भये दो दो पतउअन, सौतन नें खोंट लये। चना मैंने….।
बुंदेली लोक साहित्य में अनार्य संस्कृति के कारण देवर भाभी के संबंध मधुर हैं। ‘‘भइया की भौजाई, लौरे भइया की आदी लुगाई होत’’ यह कहावत इन्हीं भावों को व्यक्त करती है। बुंदेलखंड में देवर भावी से हँसी मजाक करता है और कभी-कभी पत्नी रूप में भी ग्रहण कर लेता है। देखिये-
मैं तो देवरा की राजी, मैं तो देवरा की राजी।
मोरों देवरा हंसई न बोले, बो तो भौत मिजाजी। मैं तो देवरा ….।
भाभी देवर से प्रेम करना चाहती है देवर उसके भाव नहीं समझ पा रहा है कि लोक कवि पुकार उठता है।
भौजाई तोरे मान, देवरा राख न जानैं रे।
भौजाई के घुँगटा अजब बने, देवरा खोल न जानैं रे।
भौजाई की चोली अजब बनी, देवरा मींड़ न जानैं रे।
भौजाई की तिन्नी अजब बनी, देवरा खोल न जाने रे।
भौजाई तोरे मान, देवरा राख न जानैं रे।
आर्थिक पक्ष
बुंदेली लोक साहित्य में बुंदेलखंड के आर्थिक जीवन का विशद चित्रण हुआ है। बुंदेलखंड पहाड़ी प्रदेश है, पत्थर, जंगल इसकी सुषमा हैं इसी से इसे डंगाई कहते हैं। मउआ, बेर, कचरियाँ, करौंदा मुख्य फल ही जीवन आधार हैं। कोदों, समा, फिकार, जबा मुख्य खाद्यान्न हैं। मउवा, मेवा, बेर, कलेवा गुलगुच बड़ी मिठाई, यहाँ की सर्व प्रिय मिठाइयाँ हैं।
अकालों का वर्णन
बुंदेलखंड में वर्षा कम होती है। अतः यहाँ आये वर्ष अकाल पड़ते हैं, हर वर्ष फसल विगड़ती है। ऐसे समय में बुंदेली मानव को बेर, करौंदा जीवन दान देते हैं।
साल करौंटा ले गई, राम बांद गये टेक।
बेर करौंदा जा कयें, मरन न देंहो एक।
अकालों के कारण यहाँ के व्यक्ति मालवा में चैत काटने चैतुआ बन कर जाते हैं इस सत्य का उद्घाटन बुंदेली कहावत करती है। ‘‘साल विगर जैये तो का मालये खों न जान देय’’। इतना ही नहीं यहाँ अकालों में मनुष्य तक बिकते रहे हैं। बर जावै सूका तोरी साल, हमाई ननद बिका गई फुंदइया सी। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति इस पंक्ति में प्राप्त होती है।
निर्धनता
बुंदेलखंड पथरीला देश है। बुंदेली नारी अपने पति से शिकायत करती है।
पथरीले पिया तोरो देस, हमाई अनी मुरकगई विछिया की।
ससुरा ने विछिया विसा दये, सासो ने धरा दई रबार। हमाई ….।
इतना ही नहीं अन्य नारी यहाँ के जंगलों से और अधिक परेशान है क्योंकि करौंदी के झाड़ में उसका पति उलझ गया है। वह करोंदी को कोसती है।
बर जावै करोंदी तोरो झाड़, हमाय बीदे पिया निनुरत नइयाँ।
ससुरा जो मोरे घरै होते, जर सें देती कटाय। मोरे बीदे पिया ….।
अनमेल विवाह
अनमेल विवाह का मुख्य कारण गरीबी है। यहाँ पर लड़कियाँ गरीबी के कारण चंद चाँदी के टुकड़ों में बिकती रहीं हैं। युवतियों को पति के रूप में बुड्ढा मिला है।
बुड़रा बंदो तोय भाग ससुर की, बुड़रा बंदो तोय भाग।
गीत की पंक्ति इसी भाव को प्रकट करती है। अन्य गीत में बुंदेली युवती मजदूरों की जिंदगी के कष्ट देखकर माँ से अनुनय विनय करती है कि हे माँ मुझे वेतवा नदी में फेंक देना किंतु मजदूर से शादी न करना।
नदी वेतवा में दिये बुआय, मताई मोरी व्याव जिन करिये मजूरा सें।
घुंघटा हते री गांने धर दये, बिंदिया दई बिकाय।
चोली हती री गांने धरदई, तिन्नी दई बिकाय। मताई मोरी ….।
मजदूर ने अपनी मजबूरी के कारण नारी के श्रृंगार प्रसाधन ही नहीं उसकी इज्जत चोली, तिन्नी-कटि बेच दी है। बेचने का कारण बुंदेलखंड की गरीबी ही है।
गहनों की ललक
बुंदेली नारियों को गहनों का बहुत शौक है। पैरों का गहना पैजना इनका प्रधान और प्रिय गहना है। दतिया और चरखारी के पैजना उत्तम बनक के होते हैं उन्हीं के लिए यहाँ की नारी ललकती है। देखिये-
चरखारी को सुगर सुनार, पैजना अजब बने चरखारी के।
किन्नें री पैजना ले दये, किननें चुका दये चोखे दाम।
सासो पैजना लै दये री, ससुरा चुका दये चोखे दाम। पैजना अजब ….।
किसानों का जीवन
बुंदेली लोक साहित्य में किसान कठिन परिश्रमी और अभावग्रस्त चित्रित हुआ है। देखिये-
सबसें बज्जुर की छाती किसान की, खबर नईं रात जान की।
ठनको काश्तकार को सीना, जबसें लागो जेठ महीना।
टपकै ऐड़ी तलक पसीना। खाद कूरा में भूली सुद किसान की। खबर रात नई …।
धार्मिक जीवन
बुंदेलखंड में अनेक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। पूजन विधि सहज एवं लोक सामग्री युक्त हुआ करती है। लोक मानस के उपासना आलंबन इस प्रकार हैं। 1. देवी 2. देवता, 3. वनस्पति 4. पशु-पक्षी 5. मिश्रित
- देवीः- बुंदेलखंड में देवी की उपासना आदि शक्ति की उपासना है। इनमें दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, पारवती, चण्डी, कालका माई, अछरू माता, विन्ध्यवासिनी, गिदवासिनी, मरईमाता, खेरे की माता, बीजासेन, कालीमाता, बड़ीमाई, हल्की माई, महामाई, चन्द्रिकादेवी, भुमानी, बैमाता की उपासना दुख निवृत्ति एवं सुख की प्राप्ति हेतु की जाती है।
- देवता :- बुंदेलखंड में निम्नांकित देवताओं की उपासना की जाती है। शिव, गणेश, राम-कृष्ण, हनुमान, आदि शाश्वत देवता हैं जिनकी उपासना सवर्ण एवं हरिजन सभी करते हैं किंतु ग्रामीण देवता और ही हैं जिसकी उपासना जाति विशेष, वर्ग विशेष एवं क्षेत्र विशेष में भिन्न-भिन्न प्रकार से की जता है। बुंदेलखंड के प्रमुख देवता निम्नांकित हैं- 1. हनुमानजी, 2. शंकरजी, 3. हरदौल, 4. दूलादेव, 5. मिड़ोइया बब्बा, 6. घटोइया बब्बा, 7. कुअत बब्बा, 8. गौड़ बब्बा, 9. नागदेव, 10. बरमदेव, 11. नटबाबा, 12. रअकस बब्बा, 13. भेरों बब्बा, 14. खाती बाबा, 15. खन्जा बाबा 16. बऊ बाबा, 17. भैंसासुर, 18. गउअन बब्बा 19. कारसदेव, 20. भुमिया देव, 21. मेर बब्बा, 22. ठांटिया बब्बा 23. सिद्ध बब्बा, 24. कुचबंदिया बाबा, 25. मसान बाबा आदि। इन देवताओं में कुअत बाबा धोबियों के, खन्जाबाबा काछियों के, ठांटिया बाबा अहीरों के और बऊ बाबा चमारों के देवता हैं।
प्रकृति की पूजा
बुंदेलखंड में नदी, पहाड़, जल, कुआँ, तालाब, पत्थर, अग्नि आदि को देवता मानकर पूजा जाता है। वनस्पति में तुलसी, पीपल, बरगद, केला, नींम, आंवला, बेल, आम, जामुन आदि वृक्षों को जल और नारियल चढ़ाकर पूजा जाता है। लोक विश्वासानुसार पीपल को ब्राह्मण माना जाता है।
जरिया लोदन खैर खंगार, पीपर बामुन कैंथ चमार।
पशु पक्षी
बुंदेलखंड में मुख्य पूज्य पशु गाय, बैल, हाथी, घोड़ा, ऊंट आदि हैं। पक्षियों में मोर, कउआ, हंस, नीलकण्ठ आदि की पूजा की जाती है। दशहरे के दिन मछली की पूजा होती है क्योंकि उसका दर्शन शुभ माना जाता है।
मिश्रित
बुंदेलखंड में प्रत्येक जाति की प्रसवनी औरत कुयें की पूजा करती हैं। वाद्य यंत्रों में ढोलक, पाटी, चौराहा, दीपक, मूसल, झाडू आदि दैनिक प्रयोग की वस्तुओं की पूजा की जाती है।
लोक विश्वास
बुंदेली लोक साहित्य में बुंदेलखंड के आम प्रचलित लोक विश्वासों का अपूर्व भण्डार सुरक्षित है। बुंदेली लोक विश्वासों के प्रमुख दो रूप हैं।
- पौराणिक लोक विश्वास 2. सामाजिक लोक विश्वास स जीवन में आशा संचरित करते हैं इनमें बड़े से बड़े कार्य करने या रोकने की शक्ति निहित रहती है बुंदेली लोक साहित्य में इनकी पुष्टि मिल जाती है।
- पौराणिक लोक विश्वास :- पुराणों की आस्थाऐं एवं मान्यताऐं बुंदेली जनपद के लोक मानस में व्याप्त हो गई हैं जो कि लोक साहित्य में अभिव्यक्त हुईं हैं।
- श्राप और वरदान :- श्राप से लोक जीवन भयभीत तथा वरदान से कर्तव्यरत होता है इस भाव की व्यंजना लोक कथा में हुई है। शंकर-पारवती जी प्रत्येक अभावग्रस्त कथा पात्र की अमृत दान कर मदद करते हैं। कहीं-कहीं साधू श्राप देते हैं।
- कथाओं में पशु-पक्षी बोलते हैं उनकी शादी मनुष्यों से हो जाती है।
- नदी, नाले, पहाड़ मनुष्यों के सच्चे साथी हैं। समय पड़ने पर मानव रूप धारण कर उनकी मदद करते हैं।
- राक्षस दानव अपनी बेटियाँ मनुष्यों से विवाह देते हैं। आवश्यकता पड़ने पर असंभव कार्य को संभव कर दिखाते हैं।
- गुरू की महती कृपा से मनुष्य सिद्धि की प्राप्ति करता है।
- जड़ी-बूटियाँ सेवन करने से मनुष्य जीवित हो जाते हैं।
- अतिथि में देवता का बास होता है। (सभी लोक विश्वास कथाओं में आये हैं)
- सामाजिक लोक विश्वास :- बुंदेली लोक साहित्य में सामाजिक लोक विश्वासों को निम्नांकित प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है।
मानव जीवन लोक विश्वासों में जकड़ा हुआ है। अन्य विश्वास जीवन में आशा संचरित करते हैं इनमें बड़े से बड़े कार्य करने या रोकने की शक्ति निहित रहती है बुंदेली लोक साहित्य में इनकी पुष्टि मिल जाती है
मनुष्य संबंधी लोक विश्वास
- मनौती- बुंदेलखंड में बाँझ स्त्री गोद भरने के लिए देवी-देवता की मनौती करती है। गोद भरने पर भेंट में सोने चाँदी के कलश या छत्र चढ़ाती है। बुंदेलखंड में अछरू माता, मरई माता, मैर बाबा, गौड़ बाबा आदि की मनौती मनाई जाती है। इन्हें बकरा या घिटला की बलि दी जाती है।
- गर्भवती स्त्री को बुंदेली में पाँव भारी कहते हैं। पाँव भारी स्त्री घर से बाहर नहीं जाती है क्योंकि उसे भूत प्रेत लगने का भय होता है।
- गर्भवती स्त्री ऊमर, बरगद और पीपल के पेड़ के नीचे पाखाना नहीं कर सकती है क्योंकि इनके ऊपर मसा भूत रहता है जो पेट के बालक को मरोड़कर फेंक देता है।
- गर्भ रक्षा हेतु औरतें गले में ताबीज पहिनती हैं जिसे गाँव का ओझा मंत्र पढ़कर देता है।
- गर्भवती स्त्री बनाव श्रृंगार से परहेज करती है। चन्द्र ग्रहण या सूर्य ग्रहण के दिन उसके पेट पर गेवरी लगाई जाती है जिससे बच्चा गानेरा नहीं होता है।
- गर्भवती स्त्री भारी चीज नहीं उठाती है। इससे गर्भपात नहीं होता है।
- गर्भवती स्त्री की हर खाने पीने की इच्छा पूर्ति की जाती है ऐसा विश्वास है कि इससे पुण्य की प्राप्ति होती है प्रसूति गृह में प्रसूता के पास कोई न कोई स्त्री सदैव रहती है। खाट पर लोहा, दरवाजे पर नींम के झोंका रखे जाते हैं।
- छैमाह के बच्चे के दाँत शुभ माने जाते हैं इसे कच्ची बत्ती कहते हैं।
- झूडूले बच्चे के कपड़े इधर-उधर नहीं फेंके जाते हैं ऐसा लोक विश्वास है कि ये कपड़े घुवारा (घुग्घु) ले जाकर नदी की रेत में गाढ़ देता है, ज्यों-ज्यों कपड़ा सड़ता है बच्चा सूखता जाता है। इसे सूकी रोग कहते हैं।
- बच्चे के गले में उसकी रक्षा हेतु मछली के दाँत, शेर के नाखून, तांबे के पैसे एवं जड़ी बूटियाँ आदि पहिना दिये जाते हैं।
- बच्चों को मीठा दूध तथा पूड़ी खाने के बाद भूत के डर के कारण बाहर नहीं जाने देते हैं यदि बाहर जाना पड़ता है तो कण्डी की राख उसके मुँह में रख देते हैं।
- बच्चे सोते में दाँत किटकिटाते हैं तो अशुभ माना जाता है।
- छिंगा लड़का या लड़की अशुभ माने जाते हैं।
- बच्चे के सिर पर भौंरिया होने पर पुनः पुत्र प्राप्ति की आशा की जाती है।
- तीन पुत्रियों के बाद पैदा हुआ लड़का चौपटया होता है। चार पुत्रों के बाद की बिटिया चौपटयाऊ कहलाती है। ये दोनों अशुभ होते हैं। तीन पुत्रों के बाद की बिटिया शुभ मानी जाती है।
- बच्चों के हंसने से गाल में गड़्ढे पड़ते हैं तो वह शुभ माना जाता है।
- औरतें हुनमान जी के मंदिर में प्रविष्ट नहीं होती हैं।
- मामा तथा भांजा नदी में एक नाव में बैठकर नहीं जाते हैं। ऐसा करने से नाव डूबने का भय रहता है।
- बच्चों के दाँत टूटने पर घिनौंची पर गगरी के नीचे रख देते हैं। इससे दाँत आसानी से निकलते हैं।
21.रात को खाट की अदवाइन नहीं कसी जाती है ऐसा करने से लड़की पैदा होती है।
- सूप में या देहरीज पर बैठकर खाने से कर्ज बढ़ जाता है।
- पुरूष की पीठ पर उगे बड़-बड़े बाल अशुभ होते हैं। जिस पुरूष की छाती पर बाल नहीं होते वह अविश्वासी, पौरूषहीन माना जाता है। औरतों की मूँछें होने पर उसे करकसा मानते हैं। जिस पुरूष या नारी की भोंह मिली होती हें उसकी दो शादियां होती हैं ऐसा लोक विश्वास है।
- दांये अंग पर तिल, भौंरा, मसां, लहसुन आदि शुभ माने जाते हैं। बायें अंग पर अशुभ होते हैं।
तिल, भौरा, लहसुन, मसों, होंय दाहिने अंग।
जाय बसो बन खण्ड में, रहे लक्ष्मी संग।
- स्वप्न में चाँदी और मृत्यु देखना शुभ, विवाह नृत्य आदि अशुभ माने जाते हैं।
- दूध आंटने से गाय भैंस का दूध जल जाता है।
- खड़े होकर पानी पीने से स्त्री को जुएँ पड़ते हैं, पुरूष को हानि होती है।
- उल्टी खाट खड़ी करना अशुभ है ऐसा मौत पर किया जाता है।
- विवाह के समय हाथ में लोहा पहिनना पड़ता है। दूल्हा-दुल्हिन कुआँ, तालाब या नदी पर नहीं जाते हैं।
- जब कोई यात्रा पर जाता है, उस दिन टाल (लीपना-पोतना) नहीं होती है।
- पुरूष की दांयी हथेली, स्त्री की बांयी हथेली खुजलाने पर पैसे की प्राप्ति होती हे। इसके विपरीत होने पर पैसा खोने की संभावना रहती है।
- सोना मिलना और गिरना दोनों ही अशुभ माने जाते हैं।
- पुरूष की दांयी, स्त्री की बांयी आँख फड़कना शुभ है। इसके विपरीत अशुभ होता है।
- किसी को भोजन के समय तीन रोटी नहीं परोसी जाती हैं। यात्रा पर कोई दूध पीकर नहीं जाती है यह अशुभ होता है। दही खाकर यात्रा करना शुभ है।
- गर्भवती औरत को आलस आने पर लड़की तथा चुस्त रहने पर पुत्र पैदा होने की आशा की जाती है।
- पाँव में खुजली होने पर हितैषी द्वारा चर्चा करना माना जाता है। औरतें इस समय पाँव चूमना शुभ मानती हैं। सन्तान का सिर सूँघना शुभ होता है इससे संतान को कष्ट नहीं होता है।
- छोटे बच्चों को शीशा नहीं दिखाया जाता है ऐसा करने से दाँत निकलने में कष्ट होता है।
- सुहागिनें शनिवार को सिर नहीं धोती और मंगलवार को सिर में तेल नहीं डालती हैं। औरतें जूड़ा बाँधते समय के टूटे बाल सँभाल कर रखती है यदि बाल संभाल कर नहीं रखती हैं तो बालों की तरह ही उनके भाई उड़ते उड़ते परेशान रहते हैं।
- संध्या के समय धोबी को कपड़े नहीं दिये जाते हैं। यह सूतक के सूचक होते हैं।
- पिता के जीते जी पुत्र का मूँछें मुड़वाना अशुभ माना जाता है।
- कर्ज न चुकाने वाला व्यक्ति बैल तथा लोभी व्यक्ति मरकर साँप बनता है।
- जिनके लड़के जिन्दा नहीं रहते हैं उनके कड़ोरा, घसीटा, घपुआ, घोंचा, लम्पुआ, रेंपउंआं आदि असुंदर नाम रखे जाते हैं। लड़के न जीने पर नाक छिदवा कर नथुआ तथा कान छिदवा कर कन्छेदिया नाम भी रखते हैं। बुंदेलखंड में देवी देवताओं या तीर्थस्थलों के नाम पर भी नामकरण करते हैं। देवीलाल, रामप्रसाद, गंगाप्रसाद, जमुना बाई, बैकुण्ठिया आदि शुभ माने जाते हैं।
- अंगुलिया चटकाने वाली लड़की या लड़का अशुभ होते हैं ऐसा करने वाली लड़की के दोनों कुल नष्ट हो जाते हैं।
- निपूते, बंध्या, विधवा, कनवाँ, लूला, लँगड़ा, कूबड़ा, तेली आदि का सुबह मुँह नहीं देखते। इनका मुँह देखने से हानि होती हे अतः इन्हें कुलच्छी कहते हैं।
- सुबह हथेली देखकर तथा धरती के चरण छूकर उठने से दिनभर लाभ होता है।
- स्त्रियाँ पतियों का नाम नहीं लेती हैं ऐसा करने पर उनकी संतान नहीं जीती है।
- पैरों की पनइयाँ (जूतियाँ) रगड़ने पर दुश्मन द्वारा चर्चा करना माना जाता हैं। औरतों में सौतों की चर्चा से अर्थ लिया जाता है।
- भादौं में औरत के पहली बार लड़की पैदा होना अशुभ माना जाता है।
- शादी में लाल दान अशुभ तथा पीला दान शुभ माना जाता है।
तिथि, वार और मास संबंधी लोक विश्वास
बुंदेली लोक साहित्य में जनजीवन में व्याप्त तिथि, वार और मास संबंधी लोक विश्वासों की भरमार है जिसके द्वारा बुंदेली जीवन की सांस्कृतिक झलक मिल जाती है। बुंदेलखंड में निम्नांकित लोक विश्वास प्रचलित है।
- परमा (प्रतिपदा) के दिन यात्रा नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से हानि होती है।
- मंगलवार, शनिवार, को दाढ़ी मूंछ नहीं बनवाते, नया जूता और वस्त्र नहीं पहिनते, चारपाई नहीं बुनवाते तथा मंगल को बहू बेटी की विदा नहीं करते।
- देव उठाई एकादशी के पूर्व हिन्दुओं में शादियां नहीं होती हैं। एकादशी के दिन मृत्यु होने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
- मंगलवार को स्त्रियाँ चूड़ी नहीं पहिनती तथा शनिवार को पीपल नहीं पूजती हैं। शनिवार को तेल का दान शुभ माना जाता है इससे शनि का कोप उतरता है।
- क्वाँर में करेला, कार्तिक में दही, अगहन में और माघ में मट्ठा का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य बीमार हो जाता है। बुंदेलखंड में चैत माह के पूर्व बाहर खुले मैदान में नहीं सोते हैं क्योंकि बाहर सोने में लकवा लगने का डर रहता है। खेत की जुताई बुवाई सोमवार या बुधवार को की जाती है। मंगल एवं शनि के दिन नहीं की जाती है।
पशु-पक्षी संबंधी लोक विश्वास
- बिल्ली अशुभ तथा कुत्ता शुभ माना जाता है क्योंकि बिल्ली यह सोचती है कि परिवार के सभी सदस्यों की आँखें फूट जायें जिससे मैं संपूर्ण भोजन खा सकूँ। कुत्ता चाहता है कि परिवार के अधिक सदस्य हों जिससे अधिक टुकड़े मिल सकें।
- गाय, बैल, हिरन, नेवला, तोता, नीलकण्ठ शुभ माने जाते हैं। सुअर, स्यार आदि अशुभ माने जाते हैं। सुअर यदि किसी के आँगन में प्रवेश कर जाता है तो उसे मारकर आँगन में ही गाढ़ दिया जाता है ऐसा न करने से परिवार के मुखिया की मौत का डर रहता है।
- नागिन अंकित बैल धनी के लिए अशुभ होता है। जो गाय स्वयं अपना दूध पीती है वह परिवार की सुख शांति एवं धन विनाशक होती है। काला घोड़ा शुभ माना जाता है किंतु जिस घोड़े पर नागिन अंकित होती है वह सवार को खा जाता है। भादों में व्याने वाली भैंस अशुभ मानी जाती है। उल्लू, स्यार, भेड़िया अशुभ होते हैं इनका रात्रि में नाम नहीं लिया जाता।
- काली गाय और उसका दूध शुभ माना जाता है।
पशुओं की बीमारियों के लोकोपचार परक लोक विश्वास
- पशुओं को खुशीटा रोग होने पर उन्हें कीचड़ में खड़ा कर देते हैं जिससे पैरों के कीड़े मर जाते हैं। बीमार पशुओं को अजवाइन, गुड़ तथा सौंठ के लड्डू खाने को देते हैं।
- अधिक दूध पीने से बछड़ों के पेट में पटेरे (कीड़ा) पड़ जाते हैं उन्हें नमक मिला मट्ठा पिलाते हैं। भैंसों को गोंचे (कीड़ा) पड़ जाने पर हरियाथूथा मट्ठे में घोलकर पिलाते हैं। चेचक निकलने पर देवल (चने की दाल) पानी में भिगोकर खिलाते हैं और देवी को जल चढ़ाते हैं।
- बकरी को झाडू मारने से कटीला रोग होता है अतः उसे झाडू नहीं मारी जाती है। मुर्गा के पंख खाने से भैंस सूख कर मर जाती है अतः इससे बचाव करते हैं।
- बुधवार, इतवार, को गाय भैंस का दूध मट्ठा रोगी पशु को पिलाने से एक-दूसरे को रोग लग जाता है। अतः किसी को दूध दही नहीं देते हैं।
पक्षी सबंधी विश्वास
- उल्लू अशुभ पक्षी है इसके रात्रि में बोलने से देश पर विपत्ति आती है। उल्लू का प्रयोग तांत्रिक वशीकरण तथा रोग निवारण में करते हैं। गिद्ध, चील का मकान पर बैठना अशुभ माना जाता है।
- कउआ किसी के सिर बैठ जाता है तो मौत से बचने के लिए उस व्यक्ति की मृतक की तरह सब क्रिया कर्म संपन्न किये जाते हैं जिससे अशुभ मिट जाता है।
- मुसलमान मकड़ी को शुभ, गिरगिट को अशुभ मानते हैं। ऐसा विश्वास है कि मकड़ी ने जाला बुनकर मियाँ हसन की रक्षा की थी। गिरगिट ने उन्हें जाल से बाहर निकलवाकर दुश्मानों द्वारा उनका वध कराया था।
- हिन्दू गिरगिट को शुभ मानते हैं उससे पानी बरसने का शकुन पूछते हैं। गिरगिट के गर्दन हिलाने पर पानी बरसने की स्वीकृति मानी जाती है।
- हिन्दू नीलकण्ठ को शुभ मानते हैं। ऐसा विश्वास है कि जब नीलकण्ठ दायीं ओर मिल जाता है तो घर पर अतिथि जरूर आता है। नीलकण्ठ दायनों, घरै- बैठो पावनों। चिरइया का ऊपर बैठना शुभ माना जाता है। गर्भवती स्त्री के ऊपर बैठने पर पुत्र की प्राप्ति होती है। ऐसा लोक विश्वास है।
- कउवा को उड़ाने से ‘‘उड़ जा कउआ, कऊं वे आउत होंय’’ प्रियतम का आगमन होता हे। नाचता हुआ मोर देखने पर यात्रा शुभ होती है।
- सर्प दर्शन शुभ होता है। बच्चों के गले में सर्प डालने पर उन्हें सूखा रोग नहीं होता है। सर्प की केंचुली दुष्ट ग्रह नाशक मानी जाती है।
प्रकृति संबंधी लोक विश्वास
- वृक्ष :- 1. बुंदेलखंड में तुलसी के पौधे की पूजा की जाती हे। ऐसा विश्वास है कि इसके समीप सर्प नहीं आता है। रात्रि में तुलसी के पत्र नहीं तोड़े जाते हैं ऐसा करना अशुभ होता है।
- पीपल वृक्ष को ब्राह्मण मानकर पूजा की जाती है इस पर विष्णु का निवास रहा है। अतः हिन्दू इसके नीचे मल-मूत्र नहीं त्यागते हैं और न इसे काटते ही हैं। नीम और पीपल को हरि-शंकर मानते हैं इसके पूजने से ज्ञान, संतान और सुहाग में वृद्धि होती है।
- चैत्र मास में नीम पर देवी का निवास मानकर उसकी पूजा की जाती है। इसकी पत्तियों का सेवल स्वास्थ्यवर्धक होता है। कार्तिक में आँवले की पूजा की जाती है। बेल की पूजा भी बुंदेलखंड में होती है। इसकी पवित्र पत्तियों को शंकर जी को चढ़ाया जाता है।
- विवाह का मण्डप हरे बांस से सजाया जाता है। आम, जामुन के बंदनवारे बँधते हैं तथा छेवले की लकड़ी का खम्ब (खांम) बनता है जिससे भांवरें पड़ती हैं। अतः इन सबकी पूजा की जाती है। क्वाँरी लड़कियाँ सुयोग्य वर पाने के लिए गुरूवार के दिन केले को जल चढ़ाकर उसकी पूजा करती हैं।
- सभी फलदायक वृक्षों के लगाने से पुण्य की प्राप्ति होती है। अतः सौभाग्य शालिनी रमणियाँ आम जामुन के वृक्ष लगाकर पूजा करती हैं।
- अक्षयतृतीया के दिन लड़कियाँ और औरतें बट-वृक्ष को पूजती हैं। इससे उनकी मनोवांछित अभिलाषाओं की पूर्ति होती हे। वट-वृक्ष सुख सौभाग्य देने वाला माना जाता है।
स्वास्थ्य संबंधी लोक विश्वास
बुंदेलखंड में स्वास्थ्य संबंधी लोक विश्वास भी अंध विश्वास परक है जिन्हें लोक मानस स्वास्थ्य लाभ हेतु नित्य प्रति करता रहता है।
- चेचक के रोग निवारण हेतु बुंदेलखंड में देवी की भगतें गाई जाती हैं। रोगी के पैर में बालों की रस्सी में कांड़ी पिरो कर पहनाई जाती है। ऐसा विश्वास है कि इससे रोगी कमजोर नहीं होता है।
- बच्चों की निमोनिया (शीका) रोग में कमजोरी बढ़ जाती है। ग्रामीण इसका इलाज बच्चों के पेट को गर्म सलाखों से दाग कर करते हैं।
- औरतें गर्भ रक्षा हेतु मंत्र सिद्धि युक्त ताबीज पहिनती हैं। बच्चों को नजर डीठ से बचाने के लिए तबिजिया पहिनाई जाती है।
- सूकी रोग हो जाने पर बच्चे को मरघट में स्नान करवाते हैं। उसे मनुष्य का कलेजा या गौरोचन घोलकर पिलाते हैं जिससे रोग ठीक हो जाता है। कभी-कभी दस्त लगने पर कबूतर की बीट घोलकर पिलाते हैं।
- नजर लगने पर इतवार, बुधवार को राई-नोन से नजर उतारी जाती है। राई-नमक-मिर्च और चौकर को सात बार बच्चे के सिर से फेरकर चूल्हे में डाल देते हैं इससे नजर-डीठ उतर जाती है।
- आँख दुखने पर तेल डूबी रस्सी में अग्नि लगाकर उसकी पानी में बुंदियां टपकाते हैं और इस पानी को चौराहे पर डाल देते हैं इसे आँख झारना कहते हैं।
- दाँत कीलना :- ओझा जादू से दाँत कील देता है फिर कील को नींम के वृक्ष में ठोक देता है। ऐसा विश्वास है कि जब तक कील ठुकी रहती है दाँत में दर्द नहीं होता है।
- आधा सिर दर्द को इतवार बुधवार को झारते हैं। बासे मुँह देहरी पर बैठकर जलेबी खाने से यह दर्द ठीक हो जाता है। आधा सिर दर्द को अंधांसी कहते हैं।
- मलेरिया बुखार के उपचार हेतु टोने टोटके का सहारा लिया जाता है। एक दिन छोड़कर चढ़ने वाला बुखार इकतरा, दो दिन छोड़कर चढ़ने वाला बुखार तिजाई कहलाता है इससे बचने के लिए केंथ वृक्ष की पूजा की जाती है। इतवार बुधवार के दिन एक रस्सी में पत्थर बाँधकर कैंथ वृक्ष से लटका दिया जाता है इसे धन्नों धरना कहते हैं। रोग ठीक हो जाने पर अण्डा, शराब से कैंथ की पूजा की जाती है और धन्नों को फेंक दिया जाता है। ऐसे बुखार फेंले होने पर शाम को कोई जोर की आवाज लगाकर किसी को पुकारता नहीं है ऐसा माना जाता है कि वह बुखार वाला मरीज भय देगा जाओ वह बुला रहा है, तो वह बुखार चला जायेगा और बुलाने वाले को लग जायेगा।
- लू-लपट से बचने के लिए प्याज, आम और चने की भाजी (सकसा) का प्रयोग किया जाता है। मूंदी चोट लगने पर चूना हल्दी का लेप किया जाता है। गुड़ और हल्दी का घोल पिलाया जाता है। दस्त लगने पर आम जामुन का रस पिलाते हैं। फोड़ा फुंसी पकाने के लिए अल्सी की पुल्टस बांधी जाती है। मवाद निकालने के लिए घी चुपड़ा पीपल का पत्ता फोड़े पर बाँधा जाता है। मूंदी चोट सेंकने के लिए प्याज को घी में भूनकर उसकी पोटली बनाकर सेंकते हैं। सिर में फुंसी होने पर पीली मिट्टी (पोतनी) का लेप चढ़ाया जाता है। अधिक रक्त बहने से आई कमजोरी पर महुओं का मुरका (चूर्ण) दूध में घोलकर दिया जाता है। शाम के खाने में महुओं की डुबरी दी जाती है जो अति बलबर्द्धक होती है। पेट दर्द में गन्ने का रस या जामुन के रस का सिरका दिया जाता है। कफ खांसी में रूसे की जड़ का काढ़ा दिया जाता है। बुखार एवं मलेरिया में ‘‘ना’’ (नाथ) जड़ी का काढ़ा दिया जाता है। धातु गिरने पर बरगद का दूध बताशा में भरकर इक्कीस दिन तक देते हैं। ऊमर का चूर्ण गाय के दूध में पिलाते हैं। केले की जड़ पिलाने से आदमी नपुंसक हो जाता है। लगातार सिर दर्द होने पर मेंहदी बांट कर चढ़ाई जाती हे।
- चेचक निकलने पर परिवार के लोग बाल नहीं बनवाते, सब्जी में छोंक नहीं लगवाते और चारपाई पर नहीं सोते हैं।
शकुन अपशकुन संबंधी लोक विश्वास
बुंदेलखंड में निम्नांकित शकुन एवं अपशकुन उपलब्ध होते हैं।
शकुन
निम्नांकित वस्तुऐं शुभ मानी जाती हैं। 1. भरी खेप 2. गाय बछड़ा चुखाती हुई 3. गर्भवती या सुहागिन स्त्री 4. क्वाँरी कन्या 5. धोबी या धोबिन 6. वेश्या 7. रास्ते में नेवला तथा हिरण का दायें से बायें जाना 8. नीलकण्ठ या मछली दर्शन 9. स्वयं की छींक 10. मकान में लखाई लगना 11. ब्राह्मण दर्शन 12. चिरइया का ऊपर बैठना 13. दूध, हल्दी, चन्दन, चावल, दूध, दही आदि पदार्थ 14. हथेली खुजलाना 15. औरत की बायीं, पुरूष की दायीं आख फड़कना।
अपशकुन
निम्नांकित वस्तुऐं अशुभ मानी जाती हैं 1. निपूते, बाँझ और विधवा का मुँह देखना 2. पराई छींक 3. तेली या तेलिन 4. रीती खेप 5. कनवा ब्राह्मण या कनवा व्यक्ति तथा लूला, लंगड़ा, भेंड़ा आदि 6. रास्ता काटती बिल्ली 7. रात्रि में सेही का बोलना 8. पुच्छल तारा का निकलना 9. कउआ का ऊपर बैठना 10. सुबह-सुबह तेली का नाम लेना 11. नागिन अंकित गाय या बैल 12. पश्चिम की ओर एक तारा- एक तरइया पापी देखे, दो देखे चंडालं तीन तरइयां राजा देखे, सब देखे संसार। 13. औरत की दायीं और पुरूष की बायीं आँख फड़कना 14. एक मास में दो ग्रहण पड़ना 15. कार्य के शुभारंभ में टोक देना 16. शाम के समय दरवाजे से भिखारी का लौटाना।
जादूटौना, मंत्र-जंत्र, टोटके
बुंदेलखंड में मंत्र को मन्तर, जादू या टोना या टोटका कहते हैं इनकी सिद्धि करने वाले अगोरी या नावते कहलाते हैं। ये नावते मंत्रों की सिद्धि मरघट में मनुष्य की खोपड़ी रखकर करते हैं। मंत्र के संबंध में कहा है ‘‘अंध विश्वास का दूसरा बड़ा वर्ग मंत्र तंत्र है’’। इस वर्ग के भी अनेक उपभेद हैं- मुख्य भेद-रोग निवारण, वशीकरण, उच्चाटन, मारण आदि। विविध उद्देश्यों की पूर्ति के लिए मंत्र प्रयोग प्राचीन तथा मध्य काल में सर्वत्र प्रचलित था। मंत्र द्वारा रोग निवारण अनेक लोगों का व्यवसाय था। विरोधी व उदासीन व्यक्ति का अपने वश में करना या दूसरों के वश में करवाना मंत्र द्वारा संभव माना जाता था।[1] बुंदेलखंड में इन्हीं भावों को लेकर मंतर, टोना, टोटका का प्रयोग होता है। वैसे सभी जातियों के लोग इनका प्रयोग करते हैं किंतु निम्न जातियों में इनके विशेषज्ञ- नावते हुआ करते हैं इन्हें बुंदेली में घटोइया कहते हैं। मंत्रों का प्रयोग रोग निवारण करने, नजर उतारने, विषैले कीड़े का विष उतारने, आग की जलन उतारने, भूत प्रेत भगाने, बहते हुए खून को बंद करने के लिए होता है।
मूंठ मारना
बुंदेलखंड में नावते शत्रु का नाश करने के लिए दिवाली की रात्रि में मूंठ का प्रयोग करते हैं। मूंठ में एक कोरा करवा होता है जिसमें दीप, होम, धूप, शराब, मनुष्य का कलेजा आदि चीजें रखी जाती हैं। जादू के बल पर इस करवा को शत्रु के पास भेजा जाता है। यह करवा शत्रु के पास पहुँचकर उसका नाम लेकर उसे पुकारता है। इसके पुकारने पर यदि वह बोल देता है तो उसकी मृत्यु हो जाती है। यदि वह मुँह नहीं बोलता है तो मूंठ लौटकर वापिस आ जाती है।
राम-राम
बुंदेलखंड में नावती अपने शत्रु के विनाश के लिए मंत्र सिद्ध रामराम भेजता है। यदि शत्रु राम-राम स्वीकार कर लेता है तो उसकी मृत्यु हो जाती है। यदि वह कह देता है कि पत्थर पर रखदो तो पत्थर के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं। यदि वह किसी वृक्ष पर रखने के लिए कहता है तो वृक्ष जल जाता है। इसकी पुष्टि नल की लोक गाथा से होती है जिसमें रेवा की नजर से नीम जल गया था।
कै निमला तोरी जर पाठें परीं, के तोय लगो तुसार।
ना मोरी जर पाठै परीं, ना मोय लगो तुसार।
मोय तरे से रेवा कढ़ गई, लग गई जादुई नैनन की झार।
नजर उतारना
छोटे छोटे बच्चों व नई बहुओं की नजर डीठ उतारी जाती है। कटे हुए निब्बू को इनके सिर से फेरकर चौराहे पर फेंक दिया जाता है। नावतो इस मंत्र को पढ़ता है- ओ काली कलकत्ते वारी, विरमा की बेटी इन्द्र की सारी। मदमास की करे व्यारी, दोनों हात बजावै तारी। गुनिया गुन न कर पाय, दिया बात न चड़ पाय। इत्ती बात मान कही, नातर माता कालका न बचा।
मसान भगाना
छोटे बच्चों एवं नव प्रसूता स्त्रियों को मसान लग जाता है। इसे हटाने के लिए बकरा काटकर यह मंत्र पढ़ा जाता है और पूजा की जाती है।
काली काली महाकाली, ब्रह्मा की बेटी इन्द्र की सारी।
बांध खव्वीस मसान, राख में मोरो ध्यान।
तो खों देंव में मद की धार, तें दुसमन की कर दे बंटाढार।
मोरी सक्त गुरू की भगत, बांध बचन में सांचा, नई तोय अजयपाल की दुहाई।
कुम्हार का अबा, चूल्हा, कढ़ाई तथा ढीमर का बाल बांधने का मंत्र
जन्तर-मंतर से बुंदेलखंड के नावते कुम्हार का अबा, चूल्हा, कढ़ाई और ढीमर का जाल बांध देते हैं जिससे अबा में बरतन नहीं पकते हैं, चूल्हा जलता नहीं है, कढ़ाई में पूड़ी नहीं सिकती है और जाल में मछली नहीं फँसती है।
जल बांदों जलधारी बांदों, जल को बांदो कीरा।
सियों जार ढिमरा कौ बांदों, हनुमत चड़ादों वीरा।
मोरी भगत गुरू की सकत, बचन की साँची काली।
तोसें पार न पावै कोउ, दुहाई हनुमत की।
साँप, बिच्छू के मंत्र
बुंदेलखंड में साँप, बिच्छू, ततइया एवं पागल कुत्ता आदि के काटने पर उनका जहर मंत्रों से उतारा जाता है। साँप काटे व्यक्ति को प्राथमिक उपचार में मंत्र से उरवा पढ़कर ऊतरी बाँधी जाती है। रोगी को दरवाजे की देहरी लाँघने तथा सोने के लिए मना कर दिया जाता है। इसके उपरांत जहर चढ़े व्यक्ति को मैर फोरे जाते हैं। मैर न आने पर जिन्दा सर्प को मंत्र के बल बुलाया जाता है। साँप का मंत्र इस प्रकार है।
डूड़ा मउआ झकझालरौ, जामं साँप कुड़मुड़ाय। साँप मारै सांपनी, जा रांदी खीर।
उठो संख भोजन करौ, संख जात हैं दूर। संख जात की पाउनीं, गड़लंक सें कोस।
झार झार रे मंत्र, हनुमान की दुहाई, फुरे मंत्र गुरू वाचा।
विच्छू का मंत्र
करिया विच्छू कंकर काला, भूरा विच्छू विष की ज्वाला।
कारो जलवर गोरा-पारवती की आन, उतरै न जो तोखों घट जेये संकर की सान।
दुहाई हनूमान की।
मरघट जगाने का मंत्र
नावते मरघटिया देवता सिद्ध करते हैं जिन्हें जिन्द भी कहते हैं। जिन्द मन चाहा कार्य करते हैं। मरघटिया का मंत्र इस प्रकार है।
मरघट में लोटे, खप्पर में खाय, बैठो अगोरी हाड़ चवाय।
बारा भाटी मद पिये, सोरा बुकरा खाय।
घर बांध, घिनौंची बांध, घरके चारउ कोने बांध।
इतनी मान कही न करे, तो तें मरघटिया न कुआय।
बुंदेलखंड में इनके अतिरिक्त पशुओं के रोग निवारण के मंत्रों का भी प्रयोग होता है जिसमें कारस देव और अजयपाल की दुहाई दी जाती है।
बुंदेलखंड के टौने-टोटके
बुंदेलखंड में अनिष्ट की आशंका से टौने टोटके का सहारा लिया जाता है इनमें लोक विश्वास की जड़ें बहुत गइराई तक फैली हैं।
- गर्भवती औरत की कमर में हर्र, बहेरे की गांठ लटका दी जाती हे। इससे गर्भ के शिशु को मसान नहीं लगता है। नजर से बचने हेतु शिशुओं को काला डिठूला लगाया जाता है। कमर में काला डोरा भी पहनाया जाता है।
- औरत को वश में करने के लिए मंत्र सिद्ध लौगें पान में खिलाईं जाती हैं। विशेष विधि द्वारा बनाया काजल या चावल का प्रयोग भी किया जाता है। इन चावलों को दातुन के फकों में दिवाली की रात मरघट की आगी से पकाया जाता है। काजल बनाने के लिए औरत के मासिक धर्म का कपड़ा जलाकर उसकी राख लहू में सानी जाती है। किसी भी युवती या रमणी के वस्त्र में इस काजल या चावल को लगा देने से वह निश्चित ही मोहित हो जाती है।
- किसी के घर में लड़ाई कराने के लिए किरकिचयाऊ (जंगली पौधा) की जड़ ढाल देते हैं तथा किसी घर में फूट कराने के लिए इतवार या बुधवार को सेही का कांटा डाला जाता है।
- जिस व्यक्ति की शादी अधिक दिनों तक नहीं होती है वह शादी के लिए कुम्हार के चाक की लकड़ी, धोबी का मोंगरा चुराकर दोनों की शादी पूजा कर करता है जिससे उसकी शादी शीघ्र हो जाती है।
- किसी का अनिष्ट करने के लिए दीपक जलाना, चोटी काटना, धोती का खूंट काटना तथा बाल काटना आदि टोने टोटके किये जाते हैं।
- काले तिल, सिंदूर, चावल, हल्दी, लोभान आदि से चौराहा पूजने से गृहस्थों के भूत-प्रेत बाधाऐं नष्ट हो जाती हैं।
- इक्कीस दिन लगातार नंगे होकर बेरी पूजने से मन चाही स्त्री बस में की जा सकती है। यह पूजा आधी रात को की जाती है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है बुंदेलखंड में टोने टोटके लोक विश्वास के अभिन्न अंग हैं। इनका उद्देश्य दुख निवारण तथा सुख की प्राप्ति करना है। कहीं-कहीं इनमें प्रतिशोधात्मक भावना भी पाई जाती है।
श्रृंगार-परक लोक विश्वास
जीवन जीना एक कला है। इसका कलात्मक रूप ही संस्कृति है। नारी जीवन कलात्मक रूप का अनुपम प्रतिबिंब है वह परिवार, पुरूष तथा संतान के सुख अर्जित करने में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देती हे। देवी देवताओं की मनोतियां मना, उनके चित्र अंकित कर सुख प्राप्ति की आशा करती हे। वह प्रत्येक मांगलिक अवसर पर नाना प्रकार के बेल बूटे बनाती है, चौक पूरती है, सांतिया अंकित करती है तथा अल्पना की रेखाऐं खींचती है। पारिवारिक साज-सज्जा हेतु गुड़ियों का निर्माण करती है। दैनिक उपयोग की अन्य कलात्मक प्रिय वस्तुओं, सिकौली, मटेलनी आदि का सृजन करती है। हरी-हरी मेंहदी पीसकर हथेलियों पर रचाती है। मेंहदी रचाने में अनेक सुंदरतम बेल बूटे बारीकी से खींचे जाते हैं जिसमें बेल पत्ती, पशु-पक्षी, कौड़ रेखाऐं सभी कुछ होते हैं। नारी के मेंहदी, माहुर, हल्दी तथा सेंदुर सौभाग्य चिन्ह हैं जिसका प्रयोग वह पति सुख हेतु करती है। बुंदेली नारियाँ अनेक प्रकार के गुदने गुदवाती हैं। उनका विश्वास है कि मृत्यु के उपरांत गुदना ही शरीर के साथ जाते हैं। गुदना सौंदर्य-वर्द्धक होते हैं इसमें औरतें फूल पत्ते, बेल-बूटे तथा दैनिक प्रयोग की वस्तुऐं चपेटा, घिंनौची, ककई, दौरी, ककना आदि गुदवाती हैं। स्मृति के लिए प्रियतम, भाई, सहेली तथा बहिन आदि का नाम भी गुदवाती है। इन सबके पीछे मनोवैज्ञानिक भावना कार्य करती है। नारी हृदय का मिठास विभिन्न प्रकार के व्यंजनों में रस घोलता है और उसका निश्छल स्नेह सभी को शीतलता प्रदान करता रहता है।
अन्य लोक विश्वास
बुंदेलखंड में कुछ सामान्य लोक विश्वास भी हैं।
- औरतें चूड़ी टूटने पर चूड़ी टूटना नहीं कहती बल्कि बाँह मुरकवावने या लौटावनें कहती हैं।
- त्यौहार के दिन किसी की मृत्यु हो जाने से वह त्यौहार खोटा हो जाता है।
- भोजन करते समय छींक आने पर किसी अतिथि का आना समझा जाता है।
- मुँह से कौर गिरने का अर्थ किसी के भूखे होने से लिया जाता है।
- संध्या समय किवाड़ नहीं लगाये जाते हैं क्योंकि इसी समय घर में लक्ष्मी प्रविष्ट होती है।
- बिटिया के टेढ़ी माँग निकालने से बिटिया को टेढ़ी सास मिलती है।
- हँसने से गाल पर गड्ढ़े पड़ने वाले व्यक्ति की सास उसे बहुत चाहती है।
- जिसे मेंहदी अच्छी रचती है उसे पति बहुत प्यार करता है।
- जिसे पान अच्छा रचता है उसे सभी प्यार करते हैं।
- पाँच, सात, ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन तथा एक सौ एक और एक सौ इक्यावन संख्याऐें शुभ तथा तीन, तेरह तथा पूरी संख्याऐं अशुभ मानी जाती हैं। शादी के नेग शुभ संख्याओं में दिये जाते हैं।
- शादी में काला धन, छिरिया, भैंस, लोहा देना अशुभ होता है।
- गर्भवती स्त्री किसी के पैर नहीं छूती है इससे गर्भपात होने का डर रहता है।
- छोटे बच्चों को विमान या अर्थी के नीचे से निकालते हैं जिससे उन्हें रोग तथा भूत प्रेत नहीं सताते हैं।
- चूल्हे का मुंह, मकान का मुख द्वार, चारपाई का सिरहाना दक्षिण दिशा की ओर नहीं करते हैं क्योंकि यह दिशा भारमुख होती है। हनुमान जी के मंदिर का मुख्य दरवाजा दक्षिण दिशा की ओर होता है। मकान तथा मस्जिद का मुख्य द्वार पूरब की ओर करते हैं।
- कुछ ऐसे व्रत होते हैं जिसमें नमक और कनक न खाकर सिंगाड़े का चून खाया जाता है।
- कुछ छोटी जातियां नाक न छिदवाकर गुदना गुदवाती हैं।
- मृत्यु के छह महीने बाद तक औरतें दूसरे के घर नहीं जाती हैं एक बरसात व्यतीत होने पर जाती हैं। मृत्यु के छह माह पूर्व से व्यक्ति को अपनी नाक का अग्र भाग नहीं दिखाई देता है।
- तारा टूटने पर राम-राम कह देने से उसे मनुष्य का जन्म मिलता है। बुंदेलखंड में तारा टूटने का अर्थ किसी की आत्मा से लिया जाता है।
- लोभी व्यक्ति साँप बनकर धन पर बैठता है। साँप को मारने से उसे मनुष्य जन्म मिलता है।
- शिवजी की पूजा में स्त्रियाँ शिव लिंग स्पर्श नहीं करती हैं। हनुमानजी के मंदिर में भी स्त्रियाँ नहीं जाती हैं।
- दुकानदार बौनी के समय उधार नहीं देता है ऐसा करने से सौदा कम बिकता है। संध्या के समय उधार देना अशुभ माना जाता है।
- यात्रा करते समय मुँह में राख या कोयला रख लेने से भूत प्रेत नहीं सताते हैं।
- संध्या समय दीपक जलाने पर हाथ जोड़ना शुभ माना जाता है।
- हिन्दुओं में पुनर्जन्म होता है।
बुंदेली लोक साहित्य में लोक मंगल तथा सहयोग की उदात्त भावना व्याप्त है। ये पावन भावनाएँ ही बुंदेली संस्कृति की मूल आधार हैं।
बुंदेली लोक साहित्य में जीवन दर्शन
मानव ने प्रकृति एवं जगत का दर्शन कर आध्यात्मिक सुख प्राप्त करने की चेष्टा की है। दर्शन का अर्थ है देखना। मानव ने स्वयं जगत तथा प्रकृति के रहस्य की गुत्थी ज्ञान द्वारा सुलझाने का प्रयास किया है। ज्ञान उसके अनुभवों के निष्कर्षों का दूसरा नाम है। बुंदेलखंड के जनजीवन ने जो जीवन यापन किया है उसका निचोड़ बुंदेली लोक साहित्य है। संसार की असारता, मायावाद, पुनर्जन्म, मृत्यु, मोक्ष तथा स्वर्ग प्राप्ति आदि की दार्शनिक भावनाऐं बुंदेली कथाओं, गाथाओं, सूक्तियों एवं गीतों में विशेषतया मुखरित हुई हैं।
संसार की असारता
संसार में कोई किसी का नहीं है। मनुष्य काम, क्रोध, मोह, लोभ के वशीभूत हो बेकार भटकता रहता है। बुंदेली लोक कवि धोखेबाज संसार के प्रति कहते हैं।
अब न होबी यार किसी के, जनम जनम खाँ सीके।
समझें रइओं नेकी करतन, जे फल पाये बदी के।
यार करे सें बड़ो बखेड़ा, बिना यार के नीके।
अब मानुस सें करिओ ईसुर, पथरा राम नदी के।
देह की नश्वरता
बुंदेली लोक साहित्य में शरीर की नश्वरता का विशद चित्रण हुआ है। ‘‘हाड़ जरैं ज्यों लाकड़ी, बार जरैं ज्यों घास, यह सोने की देह इस तरह नष्ट हो जाती है क्योंकि यह मिट्टी की है, इसका कोई भरोसा नहीं।
तन कौ तनक भरोसो नईंयां, राखें लाज गुसईंयाँ।
तरूवर पत्र गिरत धरनी में, फिर न लगत डरईंया।
जरवर खाक मिलत माटी में, फिर न चुनें चिरईंयाँ।
जा नर देही काम न आवै, पशु की बनें पनईंयां।
ईसुरी का कथन कितना सत्य है मनुष्य का शरीर निश्चित ही मिट्टी में मिल जायगा। आगे कवि कहता है, यह शरीर कितना निरर्थक है कि पशु के चाम की जो जूती बन जाती है किंतु मनुष्य के चाम से कुछ नहीं होता है। यह तो पानी का पिण्ड है, पानी का बरबूला है। नईंया ठीक जिंदगानी को, बनो पिन्ड पानी को। इतना ही नहीं ईसुरी ने शरीर की उपमा किराये की बखरी से दी है जो अत्यधिक सटी है। शरीर अपना नहीं ईश्वर प्रदत्त है वे उसे कभी भी ले सकते हैं।
बखरी रइयत हैं भारे की, दई पिया प्यारे की।
कच्ची भींत उठी माटी की, छाई फूंस चारे की।
बे बन्देज बड़ी बेबाड़ां, तेई में दस दुआरे की।
किवार किबरिंया एकउ नइयां, बिना कुची तारे की।
ईसुर चाय निकारो जिदना, हमें कौन उआरे की।
मौत की निश्चयता
जो संसार में आया है वह निश्चित ही जायगा इसी सत्य को लोक कवि ने प्रकट किया है।
एक दिन होनें सबको गौनो, होनों उरअनहोंनो
जानें परत सासरें सांसऊँ, बुरव लगै चाय नौनों।
संसार में चोला छोड़कर जाना ही पड़ता है। धरम करम ही शेष रह जाते हैं।
राखे मन पंछी न रानें, इक दिन सबखां जानें।
खालो, पीलो, लेलो, दैलो, ये ही रहें ठिकानें।
करलो धरम कछू बा दिन खां, जा दिन होत रमानें।
ईसुर कई मानलो मोरी, लगी हाट उठ जानें।
मोक्ष के प्रति आस्था
बुंदेली लोक साहित्य में मोक्ष के प्रति आस्था व्यक्त की गई है। जो व्यक्ति धरम करम करते हैं उन्हें बैकुण्ठ मिलता है।
जो कोउ जोग जुगत कर जानें, चड़-चड़ जात विमानें।
ब्रह्मा ने बैकुंठ रचौ है, उनई नरन के लानें।
होन लगत फूलन की बरसा, जिदना होत रमानें।
ईसुर कहत सबई के देखत, ब्रह्म में जात समानें।
माया निस्सार है
माया के प्रति लगाव व्यर्थ है। इससे जीवन संसार में जकड़ता है। इसीलिए लोक कवि पुकार उठता है- माया महा ठगन में जानी, माया ठगनूं है इसके जाल में पड़कर घमंड नहीं करना चाहिए।
माया देख फूलो नहीं, विपत देख जिन रोव।
सूम के आंगे माँगकें, अपनो दीदर खोव।
राम नाम ही सार है
बुंदेली लोक साहित्य में राम नाम को ही जीवन का सार कहा है। राम नाम लड्डू, गुपाल नाव घीव। हरी कौ नाव मिसरी, सो घोर-घोर पीव। इसी तथ्य को लोक कवि ईसुरी समझाते हुए कहते हैं।
भजमन राम सिया भगवानें, संग कछू नईं जानें।
धन सम्पत सब माल खजानों, रै जै येई ठिकानें।
भाई बंद सब कुटुम कबीला, जे स्वारथ ही जानें।
केंड़ा कैसो छोर ईसुरी, हंसा हुयें रमाने।
राम का नाम संजीवनी बूटी है अतः मानव को इस रस का पान करना चाहिए।
रसना राम-राम कयें जा री, कौन जात तें हारी।
जौ हर नाम सजीवन बूटी, खात बनें तो खारी।
निर्वेद की भावना
संसार से उदासीनता- जीव जगत में आकर व्यर्थ ही भटकता है अतः काव आत्मा को परमात्मा के पास जाने का आग्रह करता है।
हंसा उड़ चल देस विराने, सरवर जात सुखानें।
यहाँ बसे की कौन भलाई, जहाँ बकन के थाने।
उत चल समुद अगम्म भरे हैं, सुक पायें मनमानें।
बचत बचत तौ बचौ ईसुरी, ताने काल कमानें।
मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता
मनुष्य जीवन समस्त जीवधारियों में श्रेष्ठ है। भजन द्वारा आत्मा को परमात्मा बनाया जा सकता है।
मानस होत बड़ी करनी सें, रजउ सें कइये तीसें।
नेकी बदी पुन्य परमारथ, भक्ति भजन होंय जी सें।
इस तरह से कह सकते हैं कि बुंदेली लोक साहित्य में प्रकृति, जीव, ईश्वर तथा संसार की विशद विवेचना हुई है। सूक्तियों में समाज के प्रति उपदेशात्मक भाव भी वर्णित हुए हैं। देखिये-
माया के सुख चार हैं, दाम, आग, नृप, चोर।
जेठे को अपमान कर, तीन करें भड़फोर।
इस सूक्ति में कहा गया है कि धन होने पर दान करना चाहिए। अन्यथा धन व्यर्थ ही चला जाता है। दूसरी सूक्ति में त्याज्य धन का वर्णन है।
भीख दायजो नाठ धन, चोरी जुआ अगात।
इतने धन खों पर हरौ, जै नाहीं ठहरात।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि बुंदेली लोक साहित्य में जीवन उपयोगी सारयुक्त सामग्री भरी पड़ी है। चिर संचित संस्कार, रीति-रिवाज, आदर्श परंपरायें तथा मान्यतायें बुंदेली जन-जीवन की दीप्ति प्रखर करती हैं। संक्षेप में यही बुंदेली जनजीवन की संस्कृति एवं दर्शन है।
(द) बुंदेली लोक साहित्य में शिल्प सौष्ठव
भाषा भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है। विचारों का आदान-प्रदान भाषा द्वारा ही संभव है। अतः गद्य-पद्य की विधाएँ-कथाएँ एवं गीत-दोनों ही बुंदेलखंड के जन-जीवन को लेकर चली हैं। शिष्ट साहित्य सायास तथा लोक साहित्य अनायास ही जन्मता है। बुंदेली लोक साहित्य में प्रियत्व, लघुत्व, तत्सम, तद्भव शब्दों के प्रयोग से ध्वन्यात्मक नाद सौंदर्य सहज ही प्रकट होता रहा है। बुंदेली गीतों में लोक अनुभूति, माधुर्य, ओज एवं प्रसाद गुणों द्वारा अभिव्यंजित होती रही है। भावावेश के क्षणों में अंग्रेजी, उर्दू एवं अन्य बोलियों के शब्द बुंदेली रंग में रंगकर, बुंदेली भाषा का भण्डार भरते रहे हैं। शब्द और अर्थ अन्योन्याश्रित होते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है ‘‘गिरा अर्थ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न। शब्द की रमणीयता उसके अर्थ तत्व से नि:सृत होती है। आचार्य ने इसके तीन भेद किये हैं- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। इन्हें शब्द शक्तियाँ कहते हैं। अभिधा से वाच्यार्थ, लक्षणा से लक्ष्यार्थ और व्यंजना से व्यंजनार्थ का बोध होता है। बुंदेली लोक गीतों में शब्द शक्तियां सर्वत्र रमणीयता की श्रीवृद्धि करती हैं। इसीलिए कहा जाता है ‘‘बुंदेली लोक गीतों में जो भाषा का लालित्य प्रकट हुआ है उसके सामने बृज भाषा पानी भरती है’’।
लोक गीतों में शब्द शक्ति सौंदर्य
बुंदेली लोक गीतों में तीनों प्रकार की शब्द शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।
अभिधा शक्ति
उच्चारण मात्र से सहज में ही जहाँ भिन्न अर्थ ज्ञात हो जाता है वहाँ वाच्यार्थ होता है। विना स्वार्थ के कोई व्यक्ति किसी का कार्य नहीं करता है इस भाव को लोक कवि ने इस पंक्ति में दर्शाया है।
दीजै दोस कहा काऊ खों, भई सो लिखी कपाला।
ईसुर कोऊ देत न देखो, धुंआं पराई शाला।
कोई भी पराई सार में (पशु-गृह) धुआँ करते नहीं देखा है। यह काम स्वयं ही करना पड़ता है। अन्य पंक्ति में बिना अपने मरे स्वर्ग नहीं मिलता, भाव को दर्शाया है।
नइयां कोऊ को कोऊ सहाई, सब दुनिया भजयाई।
अपने मरें बिना कब ईसुर, देतई सुरग दिखाई।
लक्ष्यार्थ की रमणीयता
जब अचेतन चेतन की तरह प्रयोजन सिद्धि सहायक होता है वहाँ लक्षणा शक्ति के आधार पर लक्ष्यार्थ की रमणीयता होती हे।
गौरी तोने नैन उरजेला, छले छवीले छैला।
गैलारन में चोट करत हैं, बादे रात चुगैला।
बुंदेलखंड में झाड़ीदार वृक्ष कटीले होते हैं जो राहगीर को अपने काँटों में उलझा लेते हैं। बुंदेली नायिका के नेत्र जरिया सदृश हैं। राहगीर इनमें उलझ जाते हैं। कविता की दूसरी पंक्ति में गैलारे पर चोट का प्रभाव उसे दयनीय बना देता है। यहाँ बहुत ही सुंदर लक्ष्यार्थ व्यंजित हुआ है।
व्यंग्यार्थ सौंदर्य
जहाँ वाच्यार्थ से भिन्न एक नवीन अर्थ उत्पन्न होता है, वहाँ व्यंग्यार्थ होता है।
को रओ रावन कें पनदेवा, बिना किये हर सेवा।
कहनासिंध करौ कुल भरकौ, एक नाव को खेबा।
बांकन लगे काग मैलन मै, भीतर बसत परेवा।
ईसुर नास मिटावत, पाउत पाप करे को मेवा।
प्रस्तुत गीत का वाच्यार्थ यह है कि रावण ने राम की सेवा नहीं की अतः उसका विनाश हो गया। महलों में कउवा बोलने लगे, व्यंग्यार्थ यह है कि जो व्यक्ति राम से विमुख होता है उसकी गति रावण जैसी ही होती है। अतः राम से विमुख नहीं होना चाहिए।
व्यंग्यार्थ सौंदर्य
बुंदेली लोक गीतों में शब्दों के माध्यम से ध्वन्यात्मकता उत्पन्न होती है जिससे काव्य सौष्ठव बढ़ जाता है।
नेहा करौ जान लेवे खां, रजऊ ने जी खैवे खां।
उतै हतै वे नैन कसाई, बिना पांख दैवे खां।
इतै दु:ख दूनों दे देकें, देह करी जैवे खां।
हम तौ भये बदनाम ईसुरी, दुनिया के कैवे खां।
इसमें खैवे खाँ, दैवे खाँ, जैवे खाँ से सुंदर ध्वनि निकलती है जिससे नाद सौंदर्य बढ़ जाता है। नाद सौंदर्य द्वारा ही गुणों की भी योजना की जाती है। बुंदेली लोक गीतों में प्रसाद, ओज और माधुर्य तीनों गुण मिलते हैं। ट, ठ, ड, ढ़ आदि वर्णों के अधिक प्रयोग से ओज गुण, क वर्ग से ष वर्ग तक व्यंजनों की योजना से माधुर्य गुण तथा अनुनासिक, लघु व्यंजक शब्दों के नादात्मक सौंदर्य से प्रसाद गुण प्रकट होता है।
प्रसाद गुण
गौदो गुदनन की गुदनारी, सबरी देह हमारी।
गालन पै गोविन्द गोददो, कर में कुंजविहारी।
बैंयन भौत भरौ बनमाली, गरैं धरौ गिरधारी।
आनंद कंद लेव अंगियां में, माँग में भरौ मुरारी।
करया कोद कनइया ईसुर, गोद सुखद मनहारी।
ओज गुण
राधे सजी सखिन की पलटन, आप बनी लफटनटन।
ललिता सूबेदार सलामी, दैन लगी फरचनटन।
पथर कला पै सैन समारी, वरदी पैरी बनठन।
राइट लैफ्ट मिचन नैनन की, खोलन खोल फिरन्टन।
ईसुर कृष्णचंद मन व्याकुल, बनो रओ है घंटन।
माधुर्य गुण
करती रजउ अकेली नइयां, बतकाओ खां गुंइयां।
मिल जातीं मन की कै लेते, जाने हते कबइयां।
बृज के लोग बाग जुर आये, जौ लो हते बतइयां।
भीतर सें जब बायरें कड़तीं, कुल्ल लुलाइन भइंयां।
ईसुर फिरत तुमाये लाने, छानै कुंआं तलैयां।
बुंदेली लोक साहित्य के पद्य में भाव दशाओं के आधार पर कई स्थलों पर भाव सौंदर्य दर्शनीय है, प्रेम दर्शन, स्थानीयता का भाव, विवशता का भाव, विनम्रता का भाव तथा निर्वेद का भाव अति उत्तम है।
प्रेम दर्शन
बुंदेली में प्रेम दर्शन के लिए लड़की को प्रेम से मौंड़ी, लड़के को मौंड़ा पुकार कर संबोधित किया जाता है। बहिन का बैन या बिन्नू बन जाता है। भाभी ननद को बिन्नू जू कहती हैं, माँ को बाई या मताई कहते हैं। भाभी का भौजी या भुजाई या भुज्जी संबोधन है। पिता का बप्पा या बाप या बाबुल है। बब्बा को अजा तथा बऊ को आजी कहते हैं। देवर को लाला तथा पुत्र-पुत्री की संतान को नाती या नातिन कहते हैं।
स्थानीयता का प्रभाव
स्थानीय प्रभाव के कारण प्रकृति, भाषा में नये प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त हो उठती है। बुंदेलखंड में भाभी ननद को दुलार से कचरिया, देवर को कचरा कहती है। नाटे कद को बैर कैसी गुठली, सुंदरी को कलींदे सी फांक, छोटे को कुटकी कैसो जीव, तेज को जरिया कैसो कांटो, लंबे को खजूर कैसो पेड़ विशेषण प्रदान किये जाते हैं।
विवशता का भाव
बुंदेली लोक गीतों में बिटिया के विदा गीतों में विवशता का अनूठा भाव व्यक्त हुआ है। रामा लिवांय लैं जात हो, माई मोरी सुद न विसारियो। कच्ची ईंट बाबुल देरी न दइयो, बिटिया न दियो परदेश मोरे लाल। आदि गीत इसके उदाहरण हैं।
विनम्रता का भाव
‘‘सीता वनोवास’’ के समय सीता राम से वनवास का कारण पूछती हैं जिसमें नारी की विनम्रता क्रन्दन करती है।
काय छोड़ी रे कितै छौड़ी, मोरे राम बन में अकेली सीता काय छोड़ी।
निर्वेद का भाव
बुंदेली लोक गीतों में निर्वेद भावों की भरमार है। संसार असार है, जीवन क्षणिक है, शरीर नश्वर है अतः राम नाम ही सत्य है।
बीन बीन फुलवा लगाई बड़ी रास, उड़ गये फुलवा रै गई बास।
बुंदेली भाषा में उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्द
बुंदेली लोक साहित्य में अंग्रेजी और उर्दू के शब्द लोक रूप धारण कर प्रविष्ट हो गये हैं जिससे बुंदेली भाषा का विकास हुआ है। उर्दू के शब्द इस प्रकार हैं- दवात, बना, मैफिल, नमकहराम, किस्मत, गरीब, मालिक, मुकाम आदि।
अंग्रेजी के शब्द
बिलोक, पिलान, राइट, लेफ्ट, फिरन्टन, घंटन, फरचंट।
आभूषण, श्रृंगार परक शब्द
ककना, दौरीं, पटेला, चूरा, बाजूबंद, गजरा, गुंजे, चुरियां, पैंती, बरा, छला आदि हाथों के गहने हैं। पैजना, गूजरी, ऐंठी, चुल्ला, छीताफली, झांझे, लच्छा, तोड़, विछिया, पांवपोस आदि पैरों के गहने हैं। हमेल, लल्लरी, हरा, विचौली, तिदानें, सुतिया, खंगोरिया, गढ़ा तावीज, वीजा सेन की पुतइया आदि गले के आभूषण हैं। करदौनी कमर का गहना है। तरकिया, कनफूल, ऊपर की बारीं आदि स्त्रियों के तथा मुरकीं, उपरकना, बिजलीं, बरा, चौकड़ा, पुरूषों के कानों के गहने हैं। अन्य शब्दों में टिपकिया, बिंदी, बूंदा, ककई, ककवा, माउर, माऊंदी आदि।
संगीत संबंधी शब्द
सोहरे, बना, बनरी, गारीं, आल्हा, फागें, विलवांई, दिनरी, रामा, राछरे आदि। वाद्य यंत्रों संबंधी शब्द- ढुलक, तवला, रमतूला, ढांक, मजीरा, कसावरी, झीका, मटका, गड़ई, ढपली, नगड़िया, डढ़ा, खंजरी, अलगोजा, तुरई आदि।
शिक्षा संबंधी शब्द
पाटी, बस्ता, बोरका, घुट्टा, खरिया मांटी, बई की कलम, कापी, होल्डर, निब, पैन आदि।
खेती संबंधी शब्द
खुरपी, खुरपा, हर, बखर, जोत, जुंआं, पगा, पगइया, टोरका, गिरमां, नाथ, जुआंरी, सैल, पचा, जैरी, चकील, जैरा, बारोंदो आदि।
अन्य शब्द
लांक (कटी फसल को कहते हैं) सिलौ (खेत कटने के बाद गिरी हुई बालें)। उड़ावनी (अनाज को भुसी से अलग करना)। दांय (लांक का चूर्ण)। मुसीका (बैलों के मुँह का बंधन)। डोर (रस्सी)। फार (हल की लोहे की नोंक) गठुआ (मोटा भूसा)। उसैंड़ा (भूसा तथा अनाज युक्त डलिया)। टलिया (बूढ़ी गाय)। टलवा (बूढ़ा बैल)। कलोर या कलुरिया (नई गाय)। बैला (नया बैल)। सांड़ (जो बैल प्रजनन हेतु रखा जाता है।)। उसरिया (अनवियानी भैंस)। पड़िया (भैंस का बच्चा स्त्री लिंग)। पड़ा (भैंस का बच्चा पुंलिंग)।
अनाज व फलों के नाम
कोदों, कुदई, कुटकी, समा, फिकार, बाजरो, जुनई, गोंऊं, चना, मसरी, बटरा, तेवरा, कर्र, लासुन, प्याज, आंवरो, भेड़ा, हरदी, करोंदा, बेर, निबुआ, ऊमर, गूलर, सूरन, कंदौरा, मावरीं, सक्ला, अरईं आदि।
कुछ नये शब्द
विलोक, तैसीली, थानों, रेलवई, टेशन, कीलो, लीटर, मीटर, कुंटल, जोजना, पंचाइति दफ्तर, गांदी चौंतरा, पंचपन मैसुर, परदान, सैकारी।
अलंकार सौंदर्य
बुंदेली लोक साहित्य में अनायास ही सहज रूप में अलंकारों की छटा देखने को मिलती है। अलंकारों में शब्दालंकार ग्राम गीतकारों की अपनी निजी पूंजी है जो गीतों में विखरी पड़ी है। अनुप्रास अलंकार देखिये-
नैनन स्यामलिया लग जैहें, जो कोऊ जमनें जैहे।
उनको राज उनई की रहयत, उनकी की सें कैहे।
लगे आन अचानक भग में, मन चाई कर लैहें।
जो चाहें कुलकान अपनी, बाहर पाँव न देहें।
गंगाधर ऐसे गोकुल में, काकी रऔ पतयेहै।
इसमें राज रइयत, की सें कैहे, आन अचानक, कुलकान और गंगाधर, गोकुल आदि में र, क, अ, ग वर्णों की आवृत्ति दो बार हुई है अतः छेकानुप्रास है।
वृत्यानुप्रास
जाती नींर भरन जमुना के, देकें काजर बांके।
पाँव पीस पैजनियां पैरें, धरतन होत छमाके।
इन पंक्तियों में पांव, पीस, पैजनियां, पैरें में प, वर्ण की कई बार आवृत्ति हुई है। अतः वृत्यानुप्रास है।
लाटानुप्रास
सारंग की पुनरूक्ति विभिन्न अर्थों में हुई है अतः लाटानुप्रास है।
सारंग ले सारंग चली, कर सारंग की ओट।
सारंग झीनों जानकें, सारंग कर गई चोट।
सारंग-सारंग खां कर जोरे, सारंग ठांड़ी दौरें।
सारंग सजकें आप गई है, सारंग जात निहोरें।
यमक की छटा
अब ऋतु आई बसंत वहारन, लगे फूल फल डारन।
बागन वनन वंगलन बेलन, वीथी बगर बजारन।
हारन हद पहारन पारन, धवल धाक जल धारन।
श्लेषालंकार
पल पल की को जानें ईश्वर, पल में प्रान निकरते। ईसुर में श्लेष होने के कारण श्लेषालंकार है।
उपमालंकार
ईसुरी ने नायिका सौंदर्य चित्रण में, उपमा की अनूठी सृष्टि एक पंक्ति में की है।
रूर कें केस भुजन पै आये, कारे नाग से सोये।
यहाँ लटें उपमेय, काली नाग उपमान, सोये साधारण धर्म और से वाचक शब्द है। अतः पूर्ण उपमालंकार है।
रूपक अलंकार
दोऊ नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उगारें।
अलेमान गुजरात सिरोही, सुलेमान झक मारें।
ऐंचम बाढ़ म्यान घूंघट की, दै काजर की धारें।
ईसुर स्याम बरकते रइयो, अंदियारें उजियारें।
नेत्र उपमेय में तलवारों की ऐंचन (घूंघट सरकाने की क्रिया) में बाढ़ का, घूंघट में म्यान का तथा काजल में धार का आरोप करके उपमेय और उपमान में अभेद की स्थापना की गई है। अतः सांग रूपक अलंकार है।
संदेहालंकार
गुदना लसत भोंह विच बांको, परत चंद में टांको।
के तो परौ सेज के ऊपर, सोवै कंत रमाको।
गरल कंठ लै आन विराजो, कै तो पती उमा को।
कै तो गोद लिये ससि बुध खाँ, कै तो नग पन्ना कौ।
कवि ख्याली लग जाय नजर ना, पट घूंघट लै ढांकौ।
नायिका का गुदना चिन्ह नायक को नारायण, शंकर, बुध का संदेह पैदा कर रहा है अतः संदेहालंकार है।
भ्रांतिमान अलंकार
ईसुर कयें दाडि़म के धोकें, सुक ने चोंच चलाई।
इस पंक्ति में नायिका के मुस्कराने से अधरों के बीच दंत पंक्ति के सौंदर्य चित्रण में भ्रांति मान अलंकार सृजित हो उठा है।
उल्लेखालंकार
बापू तुम नैनन के तारे, रये पिरान से प्यारे।
मारत के थे हिमगिरि रक्षक, खंबा अटल सहारे।
निर्धन के धन, हरिजन के मन, भूतल के उजयारे।
खेत सिंह थे हीरा जग में, वे अनमोल हमारे।
इसमें बापू के गुणों का तारे, प्राण, धन, मन, उजयारे आदि शब्दों में उल्लेख हुआ है अतः उल्लेखालंकार है।
अनन्वय
हमखों मिलो न हमसो कोई, ढूंढ फिरे दृग दोई।
यहाँ उपमेय के लिए उपमेय को ही उपमान बनाया गया है अतः अनन्वय अलंकार है।
अपह्नुति अलंकार
चितवन न असि करत कटा है, फेरत फिरत पटा है।
सारी स्याम न ससि मुख ऊपर, घूमत घोर घटा है।
अपह्नुति का अर्थ छुपाना है। यहाँ चितवन नहीं तलवार है, काली साड़ी नहीं घटा है आदि में प्रकृति चितवन, सारी का निषेध कर अप्रकृत तलवार और घटा का आरोप हुआ है अतः अपन्हुति अलंकार है।
उत्प्रेक्षालंकार
जहाँ मनो, जनों, किवों का प्रयोग होता है वहाँ उत्प्रेक्षालंकार होता हे।
धरती धरीं लटें लमछारीं, मनो नागनें कारीं।
अतिशयोक्ति अलंकार
अतिशयोक्ति अलंकार लोक गीतकारों का प्रिय अलंकार है। आल्हा लोक गाथा में इसका प्रयोग देखिये।
बड़े लड़इया महवे बारे, इनसें हार गई तरवार।
गिर-गिर मुंड परत धरती पै, उठ-उठ रूंड करें तरवार।
रूपकातिशयोक्ति अलंकार
तुमने सनम सपोले पाले, रूख सारन पै ढाले।
काले, पीले औ कोड़ीले, कीलें किलें न काले।
नायिका के कपोलों पर पड़ी लटें साँप के बच्चों जैसी असर करने वाली हैं। यहाँ उपमेय का निर्देश न होकर केवल उपमान का निर्देश है।
इस तरह से हम देखते हैं कि बुंदेली लोक गीतों में अलंकारों का प्रयोग सहज ही हुआ है। इन अलंकारों की विशेषता यह है कि ये रूढ़ि परक होते हुये भी कुछ मौलिक उपमानों को लेकर प्रकट हुये हैं। ईसुर नचत मांय से आ गईं, गज घूमत मतवारो। इस पंक्ति में नर्तकी को गजगामिनी कह कर रूढ़ि परक उपमान का प्रयोग हुआ है किंतु अन्य फागों में नायिका को नैनु का लौंदा कहकर नवीनतम उपमानों की सर्जना की गई है।
बुंदेली लोक गीतों में प्रकृति की सुषमा का अनूठा वर्णन हुआ है। प्रकृति के उपमानों को प्रयुक्त कर गीतकारों ने गीतों में अलंकारों की छटा को दर्शाया है। यौवनमयी नायिका को ईसुरी ने बाग का उपमान दिया है जो सूर की याद दिला जाता है।
बालम नऔ बगीचा जा री, छिन छिन पै तैयारी।
इस तरह से बुंदेली गीतों में प्रकृति तथा ग्राम जीवन की चिरपरिचित वस्तुऐं उपमान बनकर प्रकट हुईं हैं।
गीतों में गेय तत्व
लोक गीत सृष्टि के सृजन से आबद्ध हैं। हृदय का उल्लास गीत बनता है किंतु उनकी प्राणिम आभा संगीत ही होती है। यही प्राणिम आभा- गेय बुंदेली लोक गीतों में सर्वत्र व्याप्त है। प्रकृति, जनजीवन, भावातिरेक इन्हें संगीत के पालने में सुष्ठुता प्रदान करते रहे हैं। गीत तथा उसके तत्व अनेक हो सकते हैं अनेक विद्वानों के कथन इस प्रकार हैं।
संगीतात्मकता और उसके अनुकूल सरस प्रवाहमयी कोमलकांत पदावली निजी रागात्मकता (जो प्रायः आत्म निवेदन के रूप में प्राप्त होती है।) संक्षिप्तता और भाव एकता है’’।
साधारणतया गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र सुख दु:खात्मक अनुभूति का वह शब्द रूप है जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके।
गीति काव्य अंतर्तम हृदय का काव्य है। उसका प्रधान गुण आत्माभिव्यंजना है।
इन परिभाषाओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि आत्माभिव्यक्ति, कोमलकांत पदावली, संक्षिप्तता, संगीतात्मकता और भावान्विति प्रकृति के साथ तादात्म्य आदि गीतों के तत्व हैं जो इन्हें मधुरिमा प्रदान करते हैं।
आत्माभिव्यक्ति
बुंदेली लोक गीतों में गीतकार ईसुरी की आत्माभिव्यक्ति दर्शनीय है।
घूंघट काय खोलतीं नइंयां, दिखनौसू है मुइंयां।
गोरो बदन गुलाबी नैना, बोंग नाव खों नइयां।
चूमत गलुआ मन में आउत, झपट उठालें कइंयां।
ईसुर जिनकीं आंय दुलइया, बड़े भाग वे सइंयां।
कोमलकांत पदावली
बुंदेली भाषा की सबसे बड़ी विशेषता उसकी कोमलता है। देखिये नारी के गौरांगों का चित्रण कितना अनूठा है।
निखरी है गोरी देय कहा खांय, कै तुमने खाई दूद मलाई,
कै काऊ रसिया नें रस पियांय? नें हमनें खाई दूद मलाई,
ने काऊ रसिया नें रस पियाओ। निखरी है गोरी देय ललन जायें।
संक्षिप्तता
बुंदेली लोक गीतों में संक्षिप्तता का रूप व्याप्त है। एक ही पंक्ति में मेलों की भीड़ भाड़ का दृश्य चित्रित हो उठा है।
बर जावै पन्ना तोरो बजार, हमाई ननद हिरा गई बटुआ सी।
जो कऊँ ससुरा मोरे घरै होते, उनसें लेती ढुड़ाय। ननद ……….।
संगीतात्मकता
बुंदेली गीत रामा रे, दिन री, विलवाई, राछरे सभी संगीतमय हैं इनकी अपनी स्वयं की लय है। कहीं-कहीं जाति विशेष, स्थान विशेष अवसर विशेष पर धुनों में अंतर आ जाता है।
प्रकृति का रूप
बुंदेली लोक गीतों में प्रकृति सज संवर कर प्रकट हुई है। कहीं वर्षा सुखदायक बनकर आई है तो कहीं दु:खदायी बन गई है। हर्ष में नायिका गाती है।
गाड़ी बारे मसक दै वैल, पुरवइया के बादर ऊन आये।
किंतु दु:ख में – हम पै वैरन वरसा आई, हमें बचालो भाई।
चड़कें अटा घटा न देखें, पटा देव अंगनाई।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि बुंदेली लोक साहित्य लोक ध्वनि युक्त है जिसमें शास्त्रीय बंधन नहीं, सहज स्वछंदता है। लय ही गीतों का प्राण है।
बुंदेली लोक गीतों में छंद
बुंदेली लोक साहित्य के अंतर्गत गीतों में सोहर, आल्हा, फागें, विरहा, कजली, सावन आदि प्रमुख छंद हैं। सभी गीत (आल्हा को छोड़कर) स्त्रियों द्वारा गाये जाते हैं। स्त्रियाँ मात्राओं एवं वर्णों के शास्त्रीय झगड़े में न उलझ गीतों की पंक्तियों को अपनी लोक लय अनुसार घटा बढ़ा कर गाती हैं। बुंदेली लोक गीतों की ये ही सबसे बड़ी विशेषता है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि बुंदेली लोक गीतों में भाषा माधुर्य के साथ गेय तत्व की प्रधानता है। इन गीतों में लोक जीवन की मार्मिक अभिव्यंजना है।
कथाओं का शिल्प सौंदर्य
बुंदेली लोक कथाओं का कलात्मक एवं रोचकता परक रूप इन कथाओं के सुनने पर ही ज्ञात होता है। कथा वस्तु की दृष्टि से बुंदेली लोक कथाएँ अति संपन्न हैं इनमें लोक जीवन की समस्याऐं, परंपरायें, लोकविश्वास, अंधविश्वास, नैतिकता, अनैतिकता, धर्म, अधर्म सभी कुछ मानव जीवन को सुधारने हेतु उपदेशात्मक रूप में प्रयुक्त हुये हैं। पात्रों की दृष्टि से बुंदेली कथायें प्रकृति तथा सृष्टि के जड़-चेतन, लोक पात्रों युक्त हैं। इन कथाओं का हर पात्र बात करता है। नदी, पहाड़, पेड़, पशु तथा शंकर जी सदा सहायतार्थ तत्पर रहते हैं। इन पात्रों की विशेषता है कि ये समुदाय या वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये पात्र लोक जीवन या लोक मानव के समीप के होते हैं। कथाओं के अंत में आदर्श पात्र ही फलभोग करते हैं। चरित्र चित्रण की दृष्टि से जाति विशेष की चर्चा ही बुंदेली कथाओं में प्राप्त होती है। कहीं-कहीं रूप वर्णन, चरित्र चित्रण से प्रधान रूप ग्रहण कर लेता है। बुंदेली कथाओं में अक्सर कथोपकथनों का अभाव रहता है। कहने वाला स्वयं ही कथा को गति देता है। कथाओं में लोक वातावरण, लोक प्रकृति तथा लोक जीवन प्रतिविम्बित होकर सजीव होता है जिससे कहानियों की रोचकता बढ़ जाती है। कहानियों में प्रायः सभी रस प्राप्त होते हैं किंतु वीर, श्रृंगार, करूण एवं हास्य रस प्रधान है। उद्देश्य की दृष्टि से बुंदेली कथायें उपदेशात्मक हैं। ये कथायें लोक मानव को आशावादी तथा जीवन के प्रति आस्थावान बनाकर मनोरंजन करतीं हैं।
शैली
कथाओं की शैली गद्यात्मक तथा गद्य पद्य मिश्रित चम्पू शैली है किंतु कथाओं की वास्तविक शैली कहने वाले के ढंग पर अवलंबित है जिससे कहानी में जिज्ञासा, कौतूहल तथा आनंद पैदा होता रहता है। बुंदेली कथाओं की जिज्ञासात्मक तथा कौतूहलवर्द्धक शैली का नमूना इस प्रकार है।
‘‘कहानी का प्रारंभ बहुधा इन शब्दों से किया जाता है- …. किस्सा सी झूंठी नईं, बातों सी मीठी नईं। घड़ी घड़ी को विसराम, जानें सीताराम।
सक्कर का घोड़ा, सकलपारे की लगाम। छोड़ दो दरया के बीच में, चला जाय छमाछम छमाछम। इस पार घोड़ा उस पार घांस, न घोड़ा घांस खों खाय, न घांस घोड़ा खों खाय। इतने के बीच में दो लगाईं घींच में। तऊ न आये रीत में, तब धर कड़ोरे कीच में, झट आ गये बस रीत में। हंसिया सी सीदी, तकुआँ सी टेड़ी, पाला सो कर्रो, पथरा सो कोंरो। हांत भर ककरी, नौ हांत बीजा, होय होय खेरे गुन होय। जरिया को कांटो, अठारा हांत लामो, आदौ छिरियन नें चर लओ, आदे पै बसे तीन गाँव, एक ऊजर, एक खूजर, एक में मांसई नइयां। जीमें मानस नइयां, ऊ में बसे तीन कुमार- एक डूंठा, एक लूला, एक कें हांतई नइयां। जीकें हांतई नइयां, ऊनें रचीं तीन हंड़ियां, एक ओंगू, एक बोंगू, एक कें ओंठई नइयां। जीमें ओंठई नइयां, ऊमें चुरए तीन चांवर- एक कच्चो, एक अदकच्चो, एक कें चोटई न आई। जीमें न्योंते तीन बामुन, एक अफरौ, एक डफरो, एक खों भूंकई नइयां। जो इन बातन खों झूठी समझे तो राज को दंड और जात खों रोटी। कहता सो कहत, पै सुनता सावधान चइये, न कहने वाले खों दोस न सुनने वाले खों दोस, दोस बाखों जानें रचकें किस्सा खड़ी करी ……….।
इस कथन को सुन कर श्रोता आकर्षित हो एकाग्र चित्त से कहानी सुनने लगते हैं। कथा वक्ता नायिका सौंदर्य वर्णन पर पुनः भावुक हो उठता है जिसमें भावात्मक शैली दर्शनीय हो जाती है ‘‘वह कैसी है? बार-बार में मोतीं गुंहें, सोलह सिंगार करें, बारह आभूषण पैंनें, सेंदुर सुरमा लगांय, विछिया, अनौटा पैनें, मोतियन सें माँग भरें, केसर कसतूरी को लेप करें, पान खांय, अतर लगांय, लौंग, इलायची को बटुआ कमर में खोंसे। ऊको शरीर कैसो है- पान खाय से गरे में पीक दिखाय, कंकड़ मारो तो लोहू कड़ आय, होली कैसी झार, नैनू कैसो लौंदा, पूनों कैसो चन्दा, दिवाई कैसो दिया, कनैर कैसी डार, लफ लफ कें दूनर हो जाय, फूंक मारो तो आकास में उड़ जाय, बीच में खेंचदो तो गाँठ पड़ जाय, लकड़ी सें पछार दो तो साँप सी लिपट जाय, पलंग पै हिरा जाय तो बारा बरस लौ ढूंड़े न मिलै …. इत्यादि।
बुंदेली नायक का रूप वर्णन देखिये ‘‘गुलाब कैसो फूल, चम्पे कैसो रंग, कैर कैसो गावौ, सूरज कैसी जोत, तोता कैसी नाक, भौंरा कैसे बाल, सिरपै धरजरी का मंडील बांदें, शरीर पै तीन खाव का अंगा, और मिसरू का पैजामा पैंनें, कमर में रेसमी फेंटा बांदें जीमें चाँदी की मूंठ को पेसकव्ज खुसो, कानों में दो बड़े-बड़े मोती लगौ बाला, गले में सूबेदारी कंठा और हांतों में जड़ाऊ अंगूठी पैंने, हांत में लफलफाती छड़ी लयें, पैरों में लड़ी के चर्राटे जूता पैंनें, मुँह में पान का बीड़ा चबाता हुआ छैल छबीला गबडू ज्वान ……..।
बुंदेली नायक का रूप वर्णन नायिका से कम नहीं है। नायक और नायिका के रूप वर्णन में लोक कथाकार कवि की तरह भावुक बन जाता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि बुंदेली कथाओं में सरस, रोचक एवं प्रभावोत्पादक शैली का प्रयोग होता है। श्रोता मनोरंजन करता हुआ वक्ता की ओर एकटक निहारता रहता है। बुंदेली कथाओं में तर्क को स्थान नहीं होता है। श्रोता कहानी कहने वाले की प्रत्येक अस्वाभाविक बात को स्वाभाविक सत्य स्वीकारता है।
अन्ततः मैं कह सकता हूँ कि बुंदेली लोक साहित्य कलात्मक दृष्टि से भी पूर्ण संपन्न है।
बुंदेली लोकमूल्य
डॉ. प्रमोद पाठक
लोकमूल्य किसी वैचारिक क्रांति का परिणाम नहीं है। लोक में प्रचलित श्रेष्ठ रीति-रिवाज, परम्पराओं और आदर्शों का निरंतर अनुकरण धीरे-धीरे लोकमूल्यों के रूप में प्रतिष्ठा पाता है। लोकमूल्यों से लोकसंस्कृति और फिर किसी देश विशेष की संस्कृति का निर्माण होता है। संस्कृति के निर्माण में लोकमूल्यों का सर्वाधिक योगदान है। किसी भी देश की संस्कृति का सच्चा प्रतिविम्ब वहाँ के लोकमूल्यों में होता है। सांस्कृतिक मूल्यों की अपेक्षा लोकमूल्यों में अधिक स्थाईपन होता है, क्योंकि लोकमूल्य राजनीति और अर्थनीति से अपेक्षाकृत कम प्रभावित होते हैं, जबकि शिष्ट संस्कृति, सभ्यता के आधुनिकीकरण और वैज्ञानिकीकरण से प्रभावित होकर रंग बदलने लगी है। आज की भौतिकवादिता और वैज्ञानिकता लोकमूल्यों पर आघात नहीं पहुँचा पाई, जबकि शिष्ट सांस्कृतिक मूल्यों में मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। लेकिन लोकमूल्यों के साथ ऐसी बात नहीं है, इसका कारण लोकमूल्यों का स्थाईपन है। उनमें परिवर्तन लगभग पचास-साठ वर्ष में होते हैं।
कुछ लोकमूल्य स्थाई होते हैं और कुछ अस्थाई। उदाहरणार्थ हरदौल का देवत्व आज से शताब्दियों पूर्व भी था और आज भी है। इसी प्रकार कुछ लोक मूल्य अस्थाई होते हैं। उदाहरणार्थ आज से चालीस वर्ष पूर्व सामंती व्यवस्था में राजा का जो सम्मान था, अब बहुत कुछ कम हो गया है। तात्पर्य यह है कि लोकमूल्य लोक में प्रचलित रीतिरिवाजों, परम्पराओं और आदर्शों का पूँजीभूत रूप है जो शिष्ट संस्कृति से अपेक्षाकृत अधिक स्थाई और व्यावहारिक होते हैं। उनमें परिवर्तन धीरे-धीरे आता है। एकाएक वैचारिक आंधी या तूफान उनकी अस्मिता को झिंझोड़ नहीं सकते। जीवन का प्रत्येक पहलू, रिश्ते-नाते, पशु-पक्षी, द्रुम-लता आदि सभी के साथ लोकमूल्य जुड़े हैं, इसलिए ये व्यापक भी बहुत हैं। यहाँ कुछ प्रमुख लोकमूल्यों का आकलन मेरा अभिप्रेत है।
वीरत्व और स्वाभिमान बुंदेली धरती सदैव वीरों की भूमि रही है। लगातार विदेशियों के आक्रमणों ने वीरत्व और स्वातंत्र्य रक्षा के जीवन मूल्यों को और भी सघन बना दिया है। आल्हा-ऊदल से लेकर वीरसिंह देव, चम्पत-राय, छत्रसाल, सभासिंह, अमानसिंह, मर्दनसिंह, बखतबली और लक्ष्मीबाई तक वीरों की एक लम्बी श्रृंखला यहाँ मिलती है। जो यहाँ के वीरत्व का ज्वलंत प्रमाण है। लगातार संघर्ष और देशरक्षा के कारण प्राचीन और मध्ययुग में क्षत्रियों का जीवन-मूल्य ही प्रजापालन और देशरक्षा बन गया। कायरों की भाँति जीवन जीने की अपेक्षा वे मृत्यु को अधिक श्रेष्ठ समझते है। क्षणभंगुर जीवन से उन्हें कोई मोह नहीं है, मोह है तो केवल अपनी मातृभूमि की रक्षा का, स्वाभिमान का और नारियों के सतीत्व और सम्मान का, इसीलिए वे कहते हैं-
बारह बरस लौ कूकर जीवै, और तेरह लो जिये सियार।
बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवै तो धिक्कार।।
ये पंक्तियाँ क्षत्रियों की रणप्रियता, संकल्पप्रियता, अपनी आन-बान-शान पर मर मिटने की प्रवृत्ति का द्योतन कराती है। क्षत्रिय अपनी आन-बान-शान की रक्षा के लिए मर मिटते हैं। ऐसे वीरों का सम्मान करना भी बुंदेले जानते हैं। ऐसे वीरों के लिए मानवत्व में देवत्व का आरोपण बुंदेली क्षेत्र की अपनी विशेषता है। क्षत्रिय यदि जाति-रक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग करता है, तो यह उत्सर्ग उसका व्यर्थ नहीं जाता। बुंदेली क्षेत्र में उसे अमर करके देवता बना दिया जाता है। इसलिए इन गुणों का यहाँ निरंतर विकास हुआ है। आल्हा ऊदल, हरदौल, अमानसिंह, प्राणसिह, लक्ष्मीबाई, बखतबली आदि ऐसे ही वीर, अमर और इतिहास-पुरुष हैं।
ईश्वरीय सत्ता में अडिग आस्था सुख-दुःख, हर्ष-विषाद जीवन के सभी पहलुओं में ईश्वर की आराधना बुंदेलों के जीवन का अभिन्न अंग है। प्रकृति की दी गई कोई भी भेंट सबसे पहले देवताओं को अर्पित की जाती है, उसके बाद ही वह उपयोग में लाई जाती है। उदाहरण के लिए देवउठानी एकादशी, बसन्त पंचमी और शिवरात्रि के अवसर पर सर्वप्रथम ऋतु के धान्य, फल-फूल आदि से देवताओं का पूजन करके उपयोग में लाये जाते हैं। सर्वात्मवाद का सुन्दर उदाहरण बुंदेली क्षेत्र में दिखाई देता है, इसीलिए हर पशु-पक्षी, हरेक तृण-धान्य, पेड़-पौधा, मनुष्य सभी किसी-न-किसी रूप में कभी-न-कभी पूजे जाते हैं। वे प्रकृति के कण-कण में, व्यक्ति, नदी, नाले, पेड़, पौधे, आदि समस्त जड़चेतन में परमात्मा को देखते हैं, इसलिए सभी पूजा करते हैं। देवताओं में छत्तीस करोड़ देवताओं की कल्पना यहाँ की गई है, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देवी, नृसिंह, हनुमान, सूर्य, अग्नि आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे अलौकिक व्यक्ति जो मानव की रक्षा करने में बलिदान हो गये, वे लोक देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। हरदौल, कारसदेव, मनियादेव, हिंगलाज महारानी, कुलदेव, दूलहदेव, बीजासेन, रक्कसबाबा आदि यहाँ लोक देवताओं के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन देवताओं में लोगों की अडिग आस्था है, इसलिए धार्मिक यात्राओं का, तीर्थाटनों का यहाँ विशेष महत्व है। साधन-हीन और निर्धन होने पर भी लमटेरा की पुकार यहाँ हर गृहस्थ को प्रेरित करती है-
दरस की तो बेरा भई,
बेरा भई पट खोलो छबीले घनस्याम, दरस की तो बेरा भई,
परिजन, बन्धुजन, पुक्तकलन, धन-धान्य आदि लौकिक व्यामोह हैं। परम सत्य तो ईश्वर है, इसलिए सारे मोह तोड़कर ईश्वर आराधना की बात हमारे लोकदर्शन में कही गई है-
राम नाम सुमरो नहिं रे मोरे प्यारे, करो न हरि से हेतु।
वे नर ऐसे जायेंगे ज्यों मूली कौ खेत रे भजन करौ हो।
मानवीयता
व्यापक मानवता, करुणा, अहिंसा, दया, दान, धर्म आदि मानवीय मूल्यों का बुंदेली जन-जीवन में प्राधान्य है। हाथी से चींटी तक को मारना जघन्य अपराध समझा जाता है। निर्वलों पर दया करना, दान देना, धर्म में निरत रहना सज्जनता की कसौटी समझी जाती है। कोई भी शुभ कार्य करने से पहले दान देने का विधान है। अशुभ कार्य हो जाने पर भी उसके अशुभ फल के निवारण के लिए दान देना अनिवार्य समझा जाता है। दानों में सर्वश्रेष्ठ कन्यादान समझा जाता है-
बिच गंगा बिच जमुना, तीरथ बड़े है पिराग।
जहाँ बिच बैठे बाबुल मोरे, देत कुवाँरिन दान।
दान देने का प्रचलन यहाँ बहुत है। यहाँ तक कि भाई बहिन को लिवाने श्वसुर-गृह जाता है, तब मार्ग में कुआँ खुदवाने, चिड़ियों को अन्न चुगवाने, बाग-बगीचे लगवाने जैसे पुनीत कार्य करता चलता है।
इसी प्रकार अतिथि सत्कार पुनीत कर्तव्य समझा जाता है। धर्म यहाँ मानव के प्रत्येक कार्य के साथ जुड़ा है। बुंदेलखण्ड में अन्य प्रांतों की भाँति सामन्तवाद प्रचलित था। इसलिए राजाओं, जागीरदारों के प्रति आदर भाव आज भी यहाँ है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रवृत्ति खत्म होती जा रही है। ‘महाराज’ और ‘जू’ सम्बोधन का प्रयोग आदर सूचक प्रवृत्ति का सूचक है।
प्रेम का औदात्य
भाई-बहिन, पति-पत्नी, बाप-बेटे, माँ-बेटी, आदिे प्रत्येक रिश्ते में प्रेम का औदात्य देखने को मिलता है। बहिन भाई की मंगल-कामना के लिए व्रत और त्योहार मनाती है। यहाँ तक कि बहिन भाई की जीवन रक्षा के लिए अपने लाड़ले पूत तक का त्याग कर देती है।[1] भाई भी अपनी बहिन की रक्षा तन-मन-धन से करता है। आल्हा और ऊदल का सर्वस्व त्याग बहिन चंद्रावलि के लिए भी तो था। हरदौल और बहिन कुंजा का उदात्त प्रेम बुंदेलखंड में भाई-बहिन के उदात्त प्रेम का उदाहरण है। भाई-बहिन के प्रेम की उदात्त भावना सीमित न होकर बड़ी व्यापक है। लोक का हर भाई हर बहिन का भाई है, और लोक की हर बहिन हर भाई की बहिन है। हरदौल का अमर भ्रातृत्व पूरे बुंदेलखंड में आज भी अपनी अमर कथा कहता है। बहिन व्याह के बाद ससुराल तो चली जाती है, पर अपने भाई के प्रति मंगलकामना करना वह वहाँ से भी नहीं भूलती। श्वसुर-गृह तो वह अपने प्राण रस से सींचती है, पर आत्मा से भाई के प्रति मंगल भावना को नहीं भुला पाती ‘बदरिया रानी, बरसो बिरन के देस में।’
पति-पत्नी हों, भाई-बहिन, बाप-बेटे या माँ-बेटी- सभी के प्रेम में मर्यादा की विशेष छाप है। इसीलिए लोककवि कहता है-
नई गोरी नए बालमा, नई होरी की झाँक,
ऐसी होरी दागियो, कुल खों न आवै आँच।
सँम्हर के यारी करौ मोरे बालमा।
कुल की मर्यादा न घटे भले ही व्यक्ति को कितना भी कष्ट क्यों न सहन करना पड़े, भावनाओं का गला घोंटना पड़े। सर्वत्र अनन्य, एकनिष्ठ और निष्कलुष और मर्यादित प्रेम को ही श्रद्धा और आदर का पात्र समझा जाता है। आर्थिक दृष्टि से विपन्नता के कारण बेटी का व्याह आस-पास के क्षेत्र में इसलिए कर दिया जाता है जिससे उसे बार-बार बुलाने में आर्थिक भार न सहना पड़े और सुविधा भी रहे, लोकगीतों, लोक कहावतों में यह बात बहुत अधिक कहीं गई है-
माई के रोये नदिया बहत है, बाबुल के रोये बेला ताल।
कच्ची ईंट बाबुल देही न धरियो, बिटिया न दइयो परदेस मोरे लाल।
द्वारे की इंटिया खिसक जैहै बाबुल, बिटिया बिसूरै परदेस मोरे लाल।
त्याग एवं सतीत्व
नारियों में त्याग और सतीत्व का इतिहास यहाँ बहुत पुराना है। वह अपनी ममता और त्याग से पुरुष के एकांगी जीवन को सफल और सार्थक बनाती है। पति के जीवित रहते वह अपने को सौभाग्य-बती समझती है और पति के न रहने पर अपनी प्रेम की एकनिष्ठता का उदाहरण देती हुई या तो सतीत्य को वरण करती है या फिर कर्तव्य की वेदी पर भावनाओं को तिल-तिल जलाकर सारा जीवन बिताती है। दूसरी ओर एक पत्नी के रहते यदि पुरुष दूसरी स्त्री का वरण करता है, तो वह सामाजिक बहिष्कार का पात्र होता है। फिर भी नारी की स्थिति यहाँ अत्यंत दयनीय है। जीवन का पुरुषार्थ अर्जित करने में उसका स्थान सबसे श्रेष्ठ है, किन्तु समाज में उसको वह सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है जो उसके त्याग, बलिदान और सतीत्व के कारण उसे प्राप्त होना चाहिए। पुत्र जन्म के साथ ही जहाँ बधाइयाँ बजती हैं, परिवार में खुशी का पारावार नहीं रहता, वहीं कन्या के जन्मते ही जैसे सबको साँप सूंघ जाता है। कन्या को बोझ समझा जाता है। सृष्टि के विकास क्रम में नारी-पुरुष का समान योगदान है। वहाँ नारी की ऐसी उपेक्षा एक प्रश्नचिह्न तो उपस्थित करती ही है। साथ ही किसी भी देश और जाति की संस्कृति के विकास का सबसे बाधक तत्व है। लोकमूल्यों की दृष्टि से यह सबसे दुर्बल पक्ष है जिसमें सुधार होना नितांत आवश्यक है। नारी-जीवन ही बड़ा रहस्य, उलझन पूर्ण और यंत्रणाओं से भरा हुआ है, इसीलिए हमारे लोक साहित्य में ‘त्रिया चरण पलोटते’ की बात हर नारी के अंतर्मन की पुकार और ईश्वर से वरदान की चाह होती है। इतना दुखी और अभिशप्त जीवन व्यतीत करते हुए भी वह त्याग, बलिदान, ममता और न जाने कितने गुणों से युक्त आदर्श नारी है।
जीवन का मोल
मनुष्य जीवन बड़ा दुर्लभ है। असंख्य पुण्यों के उदय से मनुष्य का जन्म मिलता है, इसलिए इस दुर्लभ जीवन की हर महत्वपूर्ण घड़ियों के विविध संस्कार यहाँ प्रचलित हैं। शिशु के जन्मते ही मंगल गीतों की गमक सारे वातावरण को गुदगुदाने लगती है। तरह-तरह के शुभकार्य उसी क्षण से शुरू हो जाते हैं-
सगुन भए महाराज राजा महलन आए।
सो मोरी गुइयाँ सखियन मंगल गाए।
सो मोरी गुइयाँ कंचन कलश धराए।
दुआरिन चौमुख दियला जराये।
सो मोरी गुइयाँ सब सुख आज सुहाये।
दरस पाके सबके मन हरषाये।
चतुर्विध जीवन-दर्शन में पुत्र को मोक्ष मार्ग का प्रकाशक और बुढ़ापे का आसरा माना जाता है, अतः पुत्र जन्म की रौनक बहुत होती है। इसी प्रकार जन्म के बाद के अन्नप्रासन, कनछेदन, पाटीपूजन, उपनयन, विवाह आदि से सम्बन्धित विविध संस्कारों के प्रचलन जीवन-मूल्य को उकेरते हैं, और जीवन में रस घोलते हैं।
इसी प्रकार बचनबद्धता, परस्पर प्रेम-सौहार्द्र आदि अनेक मूल्य लोक में प्रचलित हैं। लोकगीतों, लोककथाओं, कहावतों में लोकमूल्यों के उदाहरण मिलते हैं। देशकाल और परिस्थिति के अनुरूप लोकमूल्यों में परिवर्तन होता रहता है। उदाहरणार्थ स्वातंत्र्यप्रियता और वीरत्व का मूल्य मध्ययुग में अपेक्षाकृत अधिक प्रबल था, क्योंकि शलुओं से जूझने और मातृभूमि की रक्षा करने के लिए ये गुण आवश्यक थे, जबकि विदेशियों के पैर पूरी भारतभूमि पर जमे थे, किन्तु आज भारत स्वतन्त्र है, इसलिए इन मूल्यों का उतना प्रखर रूप आज नहीं है। इनका पूरा लोप भी नहीं है, पर वह पहले की तरह अब प्रखर नहीं है। तात्पर्य यह है कि ऐसे मूल्य समाज में हैं तो अवश्य, पर किन्हीं कारणों से प्रकाश में अपेक्षाकृत कम हैं। वैज्ञानिकीकरण, अर्थ की प्रधानता, बौद्धिकता तथा शहरी सभ्यता ने इन मूल्यों को थोड़ा बहुत प्रभावित अवश्य किया है। किन्तु अपने मूल रूप में वे समाज में आज भी वर्तमान हैं, भले ही वे किन्हीं कारणों से प्रकाश में न आएँ।
बुंदेली लोकाचरण
डॉ. गनेशी लाल बुधौलिया
प्रत्येक जनपद के पास अपनी एक परम्परागत विरासत होती है जो उस ‘जनपद की संस्कृति’ कहलाती है। लोक-जीवन के संस्कार, उसकी मान्यतायें, लोकाचरण, लोक-धर्म, लोक साहित्य, लोकगीत-संगीत इनका समन्वित रूप ही ‘लोक संस्कृति’ कहलाती है। लोकधर्मी चेतना एक प्रकार से स्वयंभू होती है। लोक चिंतन ही लोकजीवन के दर्शन और साहित्य में ढलता है। लोक-जीवन में जो सजीवता है, वह उसके शाश्वत सौंदर्य के कारण है। लोकजीवन की अभिव्यक्ति, उसके मनोविज्ञान और रागात्मक बोध को लेकर चलती है। लोकजीवन का प्रतिबिम्ब उसका लोक-साहित्य है। किसी भी देश के सामाजिक, साहित्यिक और धार्मिक जीवन को अनुप्राणित करने वाली शक्ति उसका लोकसाहित्य व लोकाचरण है। लोकाचरण की कई विधायें हैं, उसके कई अंग हैं। उसका क्षेत्र व्यापक है। लोकजीवन का आचार-विचार, उसके संस्कार, उसका खान-पान, रहन-सहन, लोक विश्वास, लोकोक्तियाँ-कहावतें, अहाने-कानातें, वस्त्राभरण, लोकदेवता, मनौतियाँ, जंत्र-मंत्र, टोने-टोटके, मनोरंजन के साधन, खेल-कूद (घरेलू और मैदानी), लोक गीत, लोक कथाएँ, लोक-त्यौहार या लोकोत्सव, गाँव के पनघट और मरघट, व्याव-बारातें, चौपाल और अधाइयाँ, भूत-प्रेत, चुड़ैल, खेत-खलिहान, ताल तलैया, पशु और पक्षी, लोक अर्थशास्त्र, लोकसंगीत, लोकवाद्य, लोकनृत्य, आतिथ्य सत्कार और शिष्टा-चार आदि न जाने कितने अंग हैं जिनका समुचित विवेचन-विश्लेषण इस लेख की सीमा-क्षमता के बाहर है, हाँ उसकी एक झाँकी अवश्य प्रस्तुत की जा सकती है।
बुंदेली संस्कृति की अपनी एक विशेषता रही है, जनपदीय संस्कृति के जीवन-मूल्यों की रक्षा और उसका व्यक्तित्व लोक-संस्कृति में समाया हुआ है। संस्कारों में भी कहीं-कहीं उसका निजीपन है। गर्भाधान संस्कार से लेकर मरण तक उसकी कुछ परम्पराएँ हैं जो उसकी लोक-संस्कृति में परिलक्षित होती हैं। बच्चे के जन्म के समय घर का मुखिया नरा छीनने के लिए अपना जनेऊ देता है और यदि बालक का जन्म होता है तो उसकी सूचना कांसे या फूल की थाली बजाकर दी जाती है और जहाँ संभव हो बंदूक छुटाई जाती है और मंगल-गान शुरू हो जाता है जिसे सोहर कहते हैं –
आज दिन सौने को महाराज।
सौने को सब दिन, सौने की रात, सौने के कलस घराओ महाराज।
गौआ को गोबर मंगाऔ वारी सजनी, ढिंग दै आंगन लिपाऔ महाराज।
आज दिन सौने को महाराज।
ढिंग दे अंगन लिपाओ वारी सजनी, मौतिन चौक पुराऔं महाराज।
मोतिन चौक पुराओ वारी सजनी, चंदन पटरी उराऔ महाराज।
आज दिन सौने को महाराज।
चंदन पटरी उराऔ बारी सजनी, चौमुख दिअल जराऔ महाराज।
इमरत अरग दिवाऔ बारी सजनी, जसुदै चौकै ल्याऔ महाराज।
आज दिन सौने को महाराज।चौकै ल्याकै पूजा कराऔ, लालन कंठ लगाऔ महाराज।
आज दिन सौने को महाराज।
प्रसूता को पीने के पानी के लिये ‘चरुआ’ धरा जाता है, इसमें कुंआरी कन्यायें भाग लेती हैं। मिट्टी के एक मटके में पानी भरा जाता है, उसको जौ के दानों से सजाया जाता है, चरुआ का ढक्कन भी होता है। चरुआ में ‘दसमूल’ (आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियाँ) की पोटली डाली जाती है। चरुआ का पानी चुरते-चुरते जब लगभग आधा हो जाता है, तो वह पानी जच्चा के पीने के लिए काम आता है। ऐसे चरुये कई बार चढ़ाये जाते हैं। जच्चा की दो सोरें उठती हैं, जिसमें प्रसूता को स्नान कराया जाता है- गर्म पानी से। पानी में नीम के झोंके डाले जाते हैं। इस काम को दाई या नाइन करती है। जच्चा को अजवाइन की धूनी दी जाती है ताकि सर्दी और ठंड के कुप्रभाव से बचाया जा सके। जच्चा के स्वास्थ्य को देखकर पंडित से मुहूर्त पूछकर सोर उठती है। फिर एक माह बाद मसवारा नहाया जाता है। कहीं-कहीं दसवें दिन ‘दसटौन’ मनाया जाता है। प्रसूता द्वारा जब पानी भरा जाता है तो उस दिन भी उत्सव होता है। सायंकाल प्रसूता का पूजन होता है, श्रृंगार के बाद वह अपने घर तथा पुरा-पड़ोस की महिलाओं के साथ पानी भरने (कुआँ पूजने) जाती है। महिलाएँ लोकगीत गाती हुई चलती हैं।
कुआँ पूजन के बाद जब प्रसूता गगरी भर कर अपने द्वार पहुंचती है तो फिर एक लोकगीत गाया जाता है।
हम पैरें मूंगन की माला, हमाइ कोऊ मगरी उतारौ।
कहाँ गये मोरे सइयाँ-गुसइयाँ, कहाँ गये बारे लाला।
एक हाँत मोइ गगरी उतारी, दूजे से घूंघट सँभारी।
हम पैरें मंगल की माला, हमाइ कोउ गगरी उतारी।
गगरी प्रायः देवर ही उतारता है और उसे गगरी उतराई का नैंग दिया जाता है अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार। प्रसूता के घर में प्रवेश के बाद पुरा-पड़ोस की महिलाओं को बतासे या कुछ बँटना बाँटा जाता है। बच्चे का झूला घलता है। यह लोकाचरण एक उत्सव के रूप में होता है। घर में समूँदी रोटी [कढ़ी-दाल-चावल (भात) वरा, गोरस] बनती है। परिवार और मान्यों का भोजन होता है। प्रसूता को जवारी (जौ के दानों की माला) पहनाई जाती है।
बालक के जन्मोत्सव पर कई प्रकार के लोकाचार बुंदेलखंड में प्रचलित हैं। ननद जब पच या पथ लेकर आती है तो ‘चंगेल’ बाजे-गाजे के साथ गाँव में फिराई जाती है। पथ में बच्चे के लिए हाय (गले में पहनने का ताबीज), पूरा, कमर के लिए चाँदी का डोरा, कपड़े-गद्दा-तकिया, मिठाई-फल आदि सामग्री होती है। खटोला या पलना और खिलौने भी होते हैं। यह भी एक प्रकार का उत्सव है। प्रीतिभोज दिया जाता है, नाच-गान होता है। ननद की विदाई ससम्मान होती है। कहीं-कही नौटंकी भी कराई जाती है। ननद जब चंगेल लेकर आती है, तो उसकी भाभी हँसी में या प्रसन्नता के अतिरेक में व्यंग्य कसती है। एक लोक गीत देखें-
ननद विरहुलिया, झंगुलिया न ल्याई।
टोपी न ल्याई, कतैया न ल्याई, पै दरजी कौ यार संगइ लै कै आई।
चूरा न ल्याई, कर दौनी न ल्याई, सुनरा को यार संगइ लै कै आई।
अलना न ल्याई, न पलना ल्याई, बढ़ई, को यार संगइ लै कै आई।
छूटा न ल्याई, पौंचिया न ल्याई, पटवा को यार संगइ लै कै आई।
पेरा न ल्याई, बतासा न ल्याई, मिठया को यार संगइ ले के आई।
बच्चों के नजर उतारने की कई क्रियायें हैं। राई-नौन उतारने की आम प्रथा है। बच्चा दूध डाल दे, राइ नौन उतर जाता है। तेल की बाती जलाने की प्रथा है। बच्चों के सामान्य रोगों में कई प्रकार के जंत्र-मंत्र-तंत्र, टोने-टोटके, झाड़-फूँक चलता है। घरेलू दवाइयाँ भी चलती हैं। आँखों का काजल घर पर महिलाएँ पार लेती है। जन्मघुटी, काढ़ा, लेप फोड़ा-फुंसी का मरहम आदि भी घर की बड़ी-बूढ़ी महिलाएँ बना लेती हैं। चेचक को देवी निकलना कहते हैं। दानों के मवाद को चंदन कहा जाता है। देवी ढारी जाती है और उनका जल चेचक के रोगी को लगाया जाता है। मालिन फूल डालती है। इसी प्रकार महिलाओं को कभी-कभी भाव आ जाते हैं। कभी देवी के भाव आते हैं, कभी उन पर किसी प्रेतात्मा की सवारी हो जाती है। उसके लिए भी तांत्रिक या ओझा, झड़-फूंक, पूजा-पाठ के लिए बुलाए जाते हैं। बुंदेली लोकजीवन में अनेक प्रकार के लोकविश्वास-अंधविश्वास, मनौतियाँ चलती हैं। पुरुषों में महिलाओं की अपेक्षा अंधविश्वास कम है। महिलाएँ गनिवार को तेल और लोहा खरीदने से बचती हैं। सिर निश्चित दिन धोए जाते हैं। परिवार का सदस्य यदि बाहर जा रहा हो तो उसके जाने के तुरन्त बाद घर की सफाई का काम बंद हो जाता है।
घरेलू खेलों में चंदा पडवा, नो गृट्ट, चौपर, शतरंज, ताश, चपेटा, आदि; मैदानी खेलों में कबड्डी, नौना पारी, मरे की माटी, सिलोर डंडा, कौवा-भुंटिया, आती-पाती; पानी का खेल है- डूबा डूबा कै मन को-पाँच पसेरी नौ मन को, पतंग उड़ाना, गुल्ली-डंडा, बंटियों के खेल, गुली के खेल आदि। तीतर लड़ाना, चकरी चढ़ाना, झूला चढ़ाना, दंगल कुश्ती के लोक गीतों के फड़-ख्यालों के, फागों के, सैरों के, कीर्तन के फड़ जनता का बड़ा मनोरंजन करते हैं। जनजातियों के अपने लोक-वाद्य, लोक-गीत और लोक नृत्य होते हैं। डीमरों या कहारों के, धोबियों और काछियों के, कोरी और चमारों के। रात-रात भर आत्मविभोर होकर लोक-जीवन इसमें लहराता रहता है।
नृत्य की लास्य विधा बुंदेलखंड की जनजातियों में प्रचलित है। विवाह, शादियों में या किसी सामाजिक उत्सव में महिलाएँ सामूहिक रूप से नृत्य करती हैं और कभी-कभी पुरुष भी उसमें साथ देते हैं। महिलाएँ लहँगा, चुनरिया, चोली और पारंपरिक गहने पहन कर नाचती हैं। मृदंग और कैंकड़िया तथा कसावरी (बिलिया) झींका लोक वाद्यों की संगत में जोक गीतों के साथ यह नृत्य घंटों जमता है।
बुंदेली लोकाचरण में लोक त्यौहारों का भी अपना स्थान है। जैसे नौरता या सुअटा, झिझिया, अकती। ये लोक त्यौहार बुंदेली बालिकाओं के हैं, मामु-लिया भी इन्हीं का उत्सव है। क्वार के कृष्णपक्ष में कन्याओं का यह मामुलिया उत्सव मनाया जाता है। इस त्यौहार में वे किसी कंटीले वृक्ष की टहनी को मौसमी फूलों से सजाकर अपने पूरा-पड़ोस में मामुलिया को लेकर द्वारे-द्वारे यह लोकगीत गाते हुए उसका प्रदर्शन करती है-
ल्याओ ल्याओ गुलफुंदरिया-गैंदा के फूल
सजाऔ मोरी मामुलिया।
मामुलिया के आये लिनौआ
झमक चली मामुलिया।
बदले में मकान मालकिन या कोई भी घर का सदस्य उन्हें अनाज या पैसे दानस्वरूप देते हैं। कन्याएँ उन्हें मिल-बाँट कर खा लेती हैं। सुअदा या नौरता- आश्विन शुक्ल परया से नवरात्रि प्रारम्भ होती है। इसी दिन बालिकाएँ नौरता खेलना शुरू करती हैं। इसमें सुअटा (नौरता) की एक मिट्टी की प्रतिमा किसी पारंपरिक स्थान पर बनाई जाती हैं। उसको सजाया जाता है और उसके सामने रंग-बिरंगे चौक कलात्मक ढंग से पूरे जाते हैं। लोक-कला का यह प्रारंभिक रूप है। चौक पूरने के बाद प्रत्येक कन्या के नाम (उसके पिता सहित) की कायें (अर्ध्य) डाली जाती हैं। लोकगीत के साथ-
हिमांचल की बेटी कुँअर लड़ायतीं
नारे सुअटा; गौरा बेटी नेरा तो अन्हीओ बेटी नौ दिना
दसएँ दसारो बेटी जीतियो, बीसयें दिन दिवारी की रात।
झिंझिया का लोकोत्सब उत्तर बिहार में भी मनाया जाता है। यह भी बालिकाओं का त्यौहार है। इसमें एक घड़े में नौ छेद करते हैं। इसमें एक तेल का जलता हुआ दीपक रखा जाता है, और ऊपर भी एक जलता हुआ तेल का दीपक रखा जाता है। एक बालिका अपने सिर पर पूनों के दिन उस बड़े को लेकर चलती है, उसके पीछे बालिकायें लोकगीत गाती हुई चलती हैं और अपने पुरा-पड़ोस में झिंझिया फिराई जाती है, फिर रात को गाँव के ग्योंड़े (सीमा) पर या किसी जलाशय में उसका विसर्जन किया जाता है। अकती (अक्षय तृतिया) का त्योहार भी कन्याओं का है। इसमें कन्यायें, पुतरियाँ (गुड्डा-गुड़िया) लेकर और मिट्टी के कोरे सकोड़ों या चुकरियों में देवल फुलाकर गुड़ डालकर किसी वट वृक्ष के नीचे पूजन को ले जाती हैं। इसमें बालक भी भाग लेते हैं। वे रंग-बिरंगी पतंगें उड़ाते हैं या तीर-गुलेल से निशानेबाजी करते हैं। कन्याएँ पूजन के बाद भीगे हुए मीठे देवल अपने भाइयों-बालकों को बाँटती हैं।
टेसू भी एक लोकोत्सव है। यह बालकों का है। इसमें एक बड़ा सा पुतला जिसको टेसू कहा जाता है। बालक सामुहिक रूप से पुरा-पड़ोस में टेसू का प्रदर्शन करते हैं। बदले में उन्हें जो दान-स्वरूप मिलता है उसको मिल-बाँट कर खा लेते हैं।
बुंदेली लोक-संस्कृति में कई प्रकार के परम्परागत लोकाचार हैं। लोक-संस्कृति की रक्षा और उसके संपोषण में महिलाओं का विशेष योगदान है। बुंदेलखंड के इन लोकाचारों में सुहागिन नारियों के सम्मान और उनके पूजन की रीति है। इनमें देवी की भावना है, उसकी आराधना और उसके अर्चन-पूजन का विधान। देवी की अवमानना से संकट में फँसना होता है और उसके पूजन से संकट कट जाता है। ये लोकाचार लोक-संस्कृति की आस्थाओं के फूल हैं।
बुंदेलखंड में कई जगह मंशा देवी की प्रतिमाएँ लक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इस जनपद की महिलाएँ इन्हीं मंशा देवी की पूजा दशारानी के रूप में करती हैं, जो मनोकामना पूरी करने के लिए की जाती है। इस पूजा में गड़ा (सूत के धागे का गंडा) लिए जाते हैं। गड़ा, जब कोई गाय, बछड़ा पहली बार ब्याती है या तुलसी के बिरवे में बाल मंजरी निकलती है तो गड़ा लिए जाते हैं। इसमें गड़ा लेने वाली महिलाएँ, नौ दिन दशारानी की कथा कही जाती है। ये एक प्रकार की लोक कथाएँ हैं जिनमें दशारानी रूपी लक्ष्मी के महात्म का वर्णन होता है। दसवें दिन अपने-अपने घर में पूजन करती हैं। उस दिन उन्हें उपवास रखना पड़ता है। इस उपवास में उपवासी महिला दस फरा, दस गुलेला (बुंदेली व्यंजन, आटे की रोटी और गोला पानी में उबाल लिए जाते हैं), लपसी (आटे का एक प्रकार का हलुवा) का भोग लगाती हैं और वही प्रसाद रूप में ग्रहण करती हैं।
इसी प्रकार गौरइंयाँ- यह लोकाचार लड़के के विवाह में बारात जाने के बाद होता है। महिलाएँ जो गौरइंयाँ आमंत्रित होती हैं। चौक पूर के, पूजन करके दूध-भात के भोजन करती हैं। रात्रि को महिलाएँ खेल-तमाशे कस्ती है, स्वांग बनाये जाते हैं जिन्हें बाबा कहते हैं। रात-भर ये खेल तमाशे होते हैं, मनोरंजन होता है। बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों में विवाह के अवसर पर महिलाओं का विशेष स्वांग बाबा बड़ा लोकप्रिय है। विवाह के आनंद के अतिरिक में कुछ गीत गाए जाते हैं, कुछ दोहे के ढंग के होते हैं। इसमें श्लील-अश्लील सब चलता है।
गड़गड़ाइयां या दरजिनियां या होर्रइयां
यह लोकाचार लड़की के विवाह के बाद होता है। लड़की जब ससुराल से लौट आती है, तब दो प्रकार के लोकाचार होते हैं- गड़गड़ाइयां और सुहागिलें। ये लोकाचार भी महिलाओं का है। इसमें विशेष बात यह है कि सुहागिलों में केवल सुहागिन स्त्रियाँ आमंत्रित की जाती हैं। गड़गड़ाइयों में यह बंधन नहीं है। इसमें प्रत्येक महिला को आधा किलो पुआ, चना और गुड़ दिया जाता है। पूजा के विधान में मिट्टी के पाँच ढेले, एक नुकीला पान, सेंदुर, भुने चने, गुड़, काँच के बूंदे प्रयोग में लाए जाते हैं। कभी-कभी मनौती के रूप में संकटा देवी की सुहागिलें की जाती हैं।
बुंदेलखंड के लोकाचरण में लोक-देवता, उनकी मनौती और पूजा का विधान लोक-जीवन में प्रचलित है। बुंदेलखंड के लोक-देवताओं में कुछ इतिहासपुरुष हैं और कुछ परम्परागत। लाला हरदौल इतिहासपुरुष हैं, ओरछा के महाराज जुझारसिंह के अनुज जो विष पीकर अमर हो गये, जिनके चबूतरे बुंदेलखंड लोक-जीवन में स्थापित हैं। विवाह या किसी मांगलिक अवसर पर लाला हरदौल का आह्वान किया जाता है। चबूतरों पर मिट्टी का घोड़ा और झूमर रखी होती है।
दूसरे लोक देवता हैं कारसदेव तथा हीरामन। कारसदेव और हीरामन की प्रशस्ति में उनकी गोंदें प्रसिद्ध हैं। कारसदेव के भी चबूतरे होते हैं। इसमें किसी व्यक्ति को देवता के भाव आते है जिसे घुल्ला कहते हैं। मृदंग के ढंग का एक लोकवाद्य होता है जिसे डाक कहते है। यह घनवाद्य है। इसके बजाने का विशेष ढंग होता है। लोग अपनी मनौतियाँ लेकर निश्चित दिन को कारसदेव के स्थान पर जाते है और देवता से अपनी मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना करते हैं। इसी प्रकार कई लोक-देवता बुंदेली लोकजीवन में अपना एक स्थान बनाये हुए हैं। सिद्धबाबा, नदी के देवता, घटोईबाबा, खैरादेब, ब्रह्म देव, बूढ़ेवाबा, मैकासुर आदि लोकदेवता हैं। इनकी पूजा के ढंग भी विशेष प्रकार के हैं। मैकासुर (महिषासुर) जानवरों की कुशलता के देवता हैं। जब कोई दूध देने वाला जानवर व्याता है तो उसकी तेली (शुरू के दिनों का दूध) मैकासुर को चढ़ाई जाती है। उनके रोगों के अच्छा करने के लिए उनकी मनौती की जाती है। जब कोई नवविवाहिता बहू किसी नदी-नाले को पार करती है (चाहे बाहन पर भी हो), तो घटोई बाबा की पूजा में पूड़ी या नारियल चढ़ाया जाता है, उसकी कल्याण कामना के लिए।
बुंदेली लोकाचरण में खान-पान और वस्त्राभरण की अपनी विशेषता है। बुंदेली व्यंजन कुछ ऐसे हैं जो शायद बाहर नहीं बनते। दो प्रकार की रसोई होती है। कच्ची और पक्की। कच्चे खाने में समूंदी रोटी का विशेष महत्व है। इस समूंदी रोटी में कढ़ी (पकौड़ी या मगौड़ी दार), दाल (चने की), फुलका, भात, माड़े, बरा, मगीरा, पापड़, बेसन आदि होते हैं। माड़े शुद्ध घी में डुबे दिये जाते हैं। फुलका घी में चुराये जाते हैं। दाल में बी और गोरस या पष्ठयार (दही, मठ्ठी, गुड़, कपूर, मेवा डालकर) बनाई जाती है। ग्रामीण अंचलों में जहाँ महुआ अधिक है उसके फल महुआ से कई व्यंजन बनते हैं-डुबरी, लटा, मुरका। छूना (बेसन और मट्ठा से), ओंरिया, मींड़ा, लपटा, पनपथू रोटी, गकरियां आदि।
लाला हरदौल को भोजन कराने के लिए उनकी भाभी ने भोजन तैयार किया।
सैर छंद में देखें-
इत रानी असनान करे तपी रसोई।
रच बरा, बरीदार कढ़ी चांवर सोई।
सुंदर शिकार मछरी, मृग लबा अकोई।
बरनन करें कहां लों न बाकी कोई।
बुंदेली लोकाचरण की एक झांकी इसी छंद में देखें। नाउन जब लाला हरदौल को बुलाने गई-
सैर-
बुलवाये तुम्हें लाला भाभी ने हरबरी।
कपड़ा मंगाय लाला ने जल्द उस धरी।
पोसाक पहिन पगड़ी जो सीस पै धरी।
भई बाएँ छींक, कर से तरवार गिर परी।
तरवार गिरत चौंचर कुंवरावर में मची।
असगुन बड़ो विशेष भवो सबै जा जंची।
उठ चले लाला, बैठे कछु जात न बनी।
होना है वही जो कछु करतार ने रची।
दोहा-
रची विधाता जौन विध होनहार बलवान।
काग बैठ गओ सीस पर भीतर चाहो जान।
सोरठा-
भीतर चाहो जान होन लगे असगुन महा।
स्वान हलाये कान मंजारी रोदन कियो।
सैर-
कर रुदन लरत भीतर मंजार तुम्हारे।।
लाला ने ये बचन भाभी से उचारे।
गड़ुवा लै तुरत दासी ने चरण पखारे।
कुँवरन समेत भीतर भोजन कों पधारे।
इस छंद में बुंदेली लोक विश्वास भरे हुए हैं। बायें छींक होना, कौआ सिर पर बैठना, कुत्ते के कान हिलाना, बिल्ली का रोना ये सब बुंदेली लोकाचरण में असगुन माने जाते हैं। भोजन से पहले पैर धोने का भी प्रचलन है। गड़ुवा बड़े लोटे को जिसमें टोंटी होती है- कहा जाता है।
बुंदेली लोक-संस्कृति में लोकाचरण के अन्तर्गत वस्त्राभरण आते हैं। बुंदेली लोकजीवन में अधिकतर साफा, पगड़ी, अंगौछी और टोपी सिर के वस्त्र हैं। कुर्ता-धोती, मिर्जई (अंगरखा), बंडी, फतुई, कमीज, जाड़े में रूई भरी बंडी, डबल बरेस, टोपा, सराई और तहमत का रिवाज है। कंधे पर पटका, तौलिया या साफी का भी प्रयोग होता है। दतिया, झाँसी में बुंदेली पगड़ी का कहीं-कहीं पुराने लोगों में प्रचलन है। मधुकरशाही टीका भी कोई-कोई लगाते हैं। मधुकरशाही टीका के पीछे बुंदेली स्वाभिमान और शौर्य का इतिहास है। बाँदा क्षेत्र में और लुधियाँत में हाथ में डंडा लाठी लेने का रिबाज है। इस क्षेत्र में सुपाड़ी तम्बाकू, खैर-चूना, लोंग के बटुए जिसमें सुपाड़ी काटने की सरौती भी होती है
महिलाओं में कुर्मियात (जालौन क्षेत्र) में लहँगा, चुनरिया, ब्लाउज या चोली लोकजीवन में प्रचलित है। वैसे महँगाई के या आधुनिकता के प्रवेश के कारण अब साड़ी-ब्लाउज का प्रचार अधिक है। लहँगा महँगा पड़ता है। वैसे बुंदेली नारी अपनी परम्परागत पोशाक में सुन्दर लगती है। लोक-जीवन में पुरुषों में तथा महिलाओं में कहीं-कहीं धोती बाँधने की भी अपनी कला है।
दो काँछ की धोती लोक-जीवन के सर्वहारा वर्ग (श्रमिक) में महिलाओं में प्रचलित। इस ढंग में परिश्रम के काम में उन्हें सुविधा होती है। अधिकतर धोती बारह गजा की होती है। इन लम्बी धोतियों में दो काँछ की सुविधा होती है। धोतियाँ रंगरेजों से अपने मनपसंद रंगों में रंगवा कर प्रयोग में लाई जाती हैं। अधिकतर हरी, लाल और बैंगनी रंग की मोटी धोतियाँ पहनी जाती हैं। क्योंकि इनके नीचे पेटीकोट या साया नहीं होता। बुंदेलखंड के ग्रामीण अंचलों में एक विशेष प्रकार के देशी जूते का रिवाज है जिसे फिचऊँ पन्हाँ या फिचा जूता कहा जाता है। यह जूता खेत-खलिहान और जंगलों में चलने-फिरने के लिए बड़ा सुविधाजनक होता है। इसमें पैर सुरक्षित रहता है। कीचड़ में भी यह उतरता नहीं।
बुंदेली नारी आभूषण प्रिय है, कुछ परम्परागत जेबर है जैसे-पैंजना, चुल्ला, गुजरिया, कड़ा, लच्छा, झांझे ये पैरों के आभूषण, जिनका स्थान अब पायल या तोड़िया ने ले लिया है। कमर में करधौनी, हाथ में चूरा पटेला, बगवाँ, बजुल्ला, ककना, दुहरी, वकरई आदि गले में लल्लरी, विचीली, सुतिया, तिधाना, टकावर, मूंगा की माला, सर-माला आदि-कानों में गुच्छा, कनफूल, बाती – पाँव में पाँव पोस, हाथ में हथफूल, अंगूठियों, नाक में पुंगरिया, दुर, तथ, माथे पै वैदी, टिकुली आदि। अब आज के फैशन में इन परम्परागत आभूषणों का प्रचलन लगभग समाप्तप्राय है। पुरुषों में भी पहले ब्याव-बारातों में जेवर पहनने का शौक था। गले में गोप-गुज सांकर, पैरो में तोड़ा, कानों में बाला, बिजुरी, बाँह में भुजबंद, अंगूठी आदि। ये आभूषण भी लगभग समाप्त से हैं।
बुंदेली नारी में घूंघट का चलन है। नारी का लील-सौन्दर्य अवगुण्ठन में, साड़ी के आँचल में सुरक्षित है। नारी सुलभ लज्जा की रक्षा घूंघट करता है। बुंदेली नारी में गुदना गुदवाने का शौक रहा है, विशेषकर जनजातियों में। जनजातियों का शिष्टाचार, अतिथि सत्कार, उनकी पंचायतें, विवाह, सामाजिक दण्ड-प्रक्रिया, उनके रोने-गाने-बजाने-नाचने, लोकवाद्य, आदि पारम्परिक हैं और विशेग प्रकार का है। बुंदेली नारी की जब विदाई होती है तो गांवों में अपने मायके के गाँव के ग्योंड़े (सीमा) तक रोती जाती है। वे एक प्रकार के लोक-जीवन के रुदन गीत हैं।
बुंदेली लोकाचरण में पुरुषों में रंगीन धोती पहनने का शौक था। व्यास गंगाधर स्वयं अपनी पुरानी बुंदेलखंडी पोशाक पहनते थे। सिर पर साफा, मिरजई, कमल पत्नी (गुलाबी) घोती तथा पैरों में बुंदेलखंडी चमरौधां जूता। बुंदेली लोकाचरण में ‘पनघट’ का अपना आकर्षण है। बुंदेली युव-तियाँ, किशोरी बालायें, नवयौवनायें जब पनघट पर इकट्ठी होती हैं तो उनके पानी खींचने का ढंग, नहाने का ढंग और तीन-तीन घड़े पानी भरके सिर और कमर पर रख कर चलना बरबस मोह लेता है।
बुंदेली लोकाचरण में श्रम के बदले पारिश्रमिक के रूप में पैसे का विनिमय बहुत कम होता है। नाई बाल बनाता है, बसोर सफाई करता है, लोहार और बढ़ई किसानों का काम करते है। माली फूल डालता है, धोबी सोरें, मरग-मौत के कपड़े धोता है। बदले में अनाज, रोटी, कपड़े, तिथि पावन पकवान आदि मिलते हैं। पारस्परिक सहयोग का आदान-प्रदान चलता है।
बुंदेलखण्ड के रीति-रिवाज
डॉ. सीता किशोर
लोक-जीवन को सहूलियत देने में जो चलन मदद करते हैं, वे रीति-रिवाज की सीमा में गिने जाते हैं। इनका रूप-स्वरूप बदलता रहता है और समय के अनुसार इनमें कमी-वेशी होती रहती है। रीति-रिवाज समाज में परस्पर संबंधों को एकरूपता देते हैं और सहयोग को आधार प्रदान करते हैं। इन चलनों से आंतरिक प्रभाव मजबूत होता है और लोक-संस्कृति समानता की ओर बढ़ती है। रीति-रिवाजों को धीरे-धीरे समाज की स्वीकृति मिल जाती है और ये सामूहिक आदत हो जाते हैं। बुंदेलखंड के प्राणवान लोक-आचरणों को संजीवनी देने वाले रीति-रिवाज सदा-सर्वदा समाज के अंग हैं। व्यवहार के ये तरीके तर्क-सम्मत न होने के बाद भी सनातन-विरासत की भाँति सुरक्षित हैं। रीति-रिवाज का सिलसिला लोक-संस्कृति के साथ आरंभ से जुड़ा है।
रीति-रिवाज उपयोगी-चलन के रूप में लोकजीवन द्वारा अंगीकार कर लिये जाते हैं। ये जितना आदमी को समाज से जोड़ते हैं, उतना ही पर्यावरण के अनुकूलन में सहयोग देते हैं। न इनकी संख्या निर्धारित है और न स्वीकृत रूप-स्वरूप। मानवीय व्यवहारों को सलीका देने वाले ये रीति-रिवाज लोक-संस्कृति की सम्पन्नता को प्रमाणित करते हैं। अनुभवों की यह अनमोल विरासत पीढ़ी-दर-पीढ़ी फूलती-फलती चलती है। परम्परा के द्वारा निर्धारित इनका रूप और इनकी संख्या निश्चित नहीं है।
रीति-रिवाज शिष्टता की ओलम सिखलाते हैं, लोक-मन को चाल-चलन का अक्षर-ज्ञान कराते हैं। रीति-रिवाज की पाटियाँ वेद के ऋषि ने भी पढ़ाई और सबक देने का यह सिलसिला आज भी चल रहा है। ऋग्वेद में लोक-मन की झलक है और अथर्ववेद का मंत्रदृष्टा गर्भस्थ तथा नवजात शिशु की कल्याण-कामना करता है। वशिष्ठ और गौतम धर्म सूत्त, गोपथ और शतपथ-ब्राह्मण-ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद् तथा गृहसूत्र और स्मृतियाँ निरंतर ऐसी रीतियों की ओर संकेत करती रहीं हैं, जो कालजयी संस्कृति और बहुवर्णी समाज के लिए जरूरी हैं। अविवाहित कन्या के गर्भ धारण करने पर आरण्यक और उपनिषद् ने बुरा माना है। बहुविवाह को रेखांकित किया है, और संन्यासी की अन्त्येष्ठि-विधि निश्चित की है। स्मृतियों ने संस्कार निश्चित किये और संस्कारों ने समाज को परिपाटियाँ दी, परिपाटियों का सहज और सरल उल्था रीति-रिवाजों में है। देशाचार, कुलाचार और जात्याचार की सीमा में जिन आचार-विचारों को बाँटा गया, उनका कच्चा रूप-स्वरूप संस्कार-धर्मियों ने लोक-जीवन से ही उठाया है। जात्याचार का आधार जाति-बिरा-दरी से है, देशाचार और कुलाचार के पूर्वपद भी भू-भाग और कुल-विशेष का अर्थ त्याग नहीं सकते। ‘रघुकुल रीति’ को तुलसी ने सील-मुहर लगाई है, ‘जल सफरी की रीति’ को बिहारी ने स्वर दिया है और ‘प्रेम पंथ की रीति’ को रसनिधि ने निरखा-परखा है। रीति के साथ मध्यकाल में समान-धर्मी रिवाज और मिल गया तथा लोक-जीवन के रोम-रोम को अच्छे और बुरे से परिचित कराने का क्रम चलता रहा। विधि-निषेधमय जीवन हो गया। चलने, उठते, बैठने, बतयाने को रीति-रिवाज ने अपनी ओली में रख कर पुचकारा और आँखें तरेरीं, बुंदेलखंड के लोक जीवन को समर्थ बनाया गय
रीति-रिवाज का फैलाव व्यापक है। खान-पान, वेशभूषा, विदाई-अगवानी, शिष्टाचार-सत्कार, संस्कार-अनुष्ठान, हेती-नातेदारी, अभिवादन-आदर, छिपाना-इठलाना, प्रहसन-पर्दा, पावनता-अपावनता व्यवहार के सामान्य नियम बन गये। रूचि में परिवर्तन हुआ और रीति-रिवाज भी बदल गये, साफा और अँगौछिया, नजर उतारबौ और छींछौ लैबो- अब विरल हो रहे हैं। रीति-रिवाज सामाजिक-सीख की प्राथमिक पाठशालायें हैं। वे एकरूपता का पाठ पढ़ाती हैं, सामाजिक अनुकूलन का पथ-प्रशस्त करती हैं। समूह का कल्याण उनका ध्येय है। व्यक्तित्व के विकास का हिसाब-किताब रखती हैं और लोक-जीवन को सांस्कृतिक गरिमा से मंडित करती रहती हैं। व्यक्ति-परक होने से रीति-रिवाज का रूप न तो स्थिर है और न लिखित। ये चलन व्यक्ति के साथ जुड़े हैं। ये थे और हैं, तभी तो संस्कार किया गया इनका। संस्कार करने के लिये कुछ-न-कुछ असंस्कारित था। सहज और सामान्य था अनगढ़ लोक का। इस सहज-सामान्य को ही माँज-तराश कर वेद-विहित किया गया। वेद व्यवस्था देता रहा पर लोक को त्याग नहीं पाया। लोक के घटा देने पर वेद का काम ही क्या रह जाता ?
बुंदेलखंड के रीति-रिवाज का एक वर्ग विधि का निर्देश देता है तो दूसरा निषेध का। ‘यह करो’ के साथ ‘यह न करो’ की हिदायतें हैं रीति-रिवाज। इनसे लोक जीवन गुंधा है आदि से अंत तक। आग के साथ पानी और तेल के साथ घी शव-दाह में जाते हैं, इसी से इन्हें साथ-साथ ले जाना वर्जित है। विलम्ब दिखलाई देने के बाद भी शव के समीप से घर लौट आना किसी की हिम्मत कहाँ ? संझा विरियाँ चूना नहीं दिया जाता। नमक हाथ पर देने से स्नेह में कमी आती है। गरम तवा पर पानी के छींटे डालना वैरी की छाती को शीतलता देना है और उरसा पर रोटी ठोकना सास की छाती पर रोटी ठोकने के समान माना जाता है। कांसे की थाली रात में जूँठी छोड़ने का चलन नहीं है। कांसे की थालियां गंगा किनारे पहुँच कर गृहस्वामिनी की बदनामी करवाती हैं। यथार्थ में कांसा न जुड़ने वाली धातु है, इसीसे सुरक्षा की सर्वोपरिता ने यह चलन चलाया। मटयानौ, मूसर बदलबी और जुगिया में पति का नाम श्लेष के आधार पर बतलाने का आधार भी मजबूत है। विदा के अवसर पर भेंट करवी और नई बहू कौ पालागन एक स्थान पर करुणा को सदेह करते हैं, तो दूसरे स्थान पर लक्ष्मी के गृह प्रवेश का पूजन है।
मौं पोंछबौ, आंचर खुर्सबौ, सीदौ और रोटी छीबौ, पेंड़ भरबौ और नौकटी का महत्व उतना ही है, जितना पौन्छक, बायनौ और पालागैं का है। खाट पर जूता पहिन कर चढ़ना, रात में अद्वान कसने का निषेध करने के लिये ‘मौंड़ियई मौड़ी हूँ हैं’ की घोषणा करने में सीधे-सीधे सुरक्षा के हेतु समाये हैं। दिया बुझाना वंशनाश का ऐलान है, इसीसे दिया अंचराया जाता है। फूंक की अपावन वायु, ज्योति स्वरूप को स्पर्श न करे, आँचल की वायु से दिया बुझाया जावे- कित्ती पावनता का ध्यान रखा गया। चुरियाँ सुहाग हैं, इनका फूटना वैधव्य है और अचानक किसी अरझट्टे से पनघट पर चूड़ी का दरकना तो और बुरा। इसी-चुरिया दूस गई-बोलने का चलन है, और पनघट पर अनायास फूटने वाली चूड़ी के टुकड़ों को भरी गागर में डाल लेने का रिवाज है।
बुंदेली व्यवहार-सूत्र
हरगोबिन्द गुप्त
मन के धोखे-बिचारे बिना ही न जाने कहाँ का किस युग का पुराना अनजान-अपरिचित विचार मन में आया और चुपचाप कहने लगा- ‘यद्यपि शुद्धम् लोकविरुद्धम् ना करगीयम् ना करणीयम्’। संस्कृति के व्याकरण-सूत्रों और उसके अपने शब्द-कोष से कोसों दूर होने पर भी मन ने इस वाक्य का अर्थ लगाने का प्रयत्न किया और ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ के अनुसार उसकी समझ में आया कि शास्त्रसम्मत होने पर भी लोकविरूद्ध होने से किसी कार्य-व्यवहार को व्यवहार में नहीं लाना चाहिए। विनय-पत्रिका के 272वें पद में बाबा तुलसीदास ने भी ‘लोक कि वेद बड़ेरो’ कहकर वेद की अपेक्षा लोकमत पर ही अपनी मान्यता की मुहर लगाई है। बात कुछ जंचती-सी लगती है। यद्यपि यह ठीक है कि शास्त्रीय मत से हमारी आध्यात्मिक उन्नति होगी, मानसिक विकास मी होगा, तथापि आध्यात्मिक उन्नति या मानसिक विकास अथवा मुक्ति की बात तो हम तब सोचें, जब नित्य प्रति की इहलौकिक समस्याओं और उलझनों से निबट सकें। यहाँ गृहस्थी के कीचभरे पल्ले से निस्तार पाये बिना वहाँ का विस्तार कैसा? उसमें तो दोनों लोक नसेंगे, नसेंगे नहीं तो दोनों को साथ ले चलना भी सहज संभव नहीं होगा।
एक विचार में दृढ़ता आते ही दूसरा विचार अपने-आप सामने आ उप-स्थित होता है। शास्त्रीय ज्ञान का रहस्य तो तत्ववितक ऋषियों के अनुभव-सिद्ध श्रुति-स्मृति-पुराणादि आर्य ग्रंथों में उपलब्ध होता है, पर लोकव्यवहार के ज्ञान की अलभ्व मंजूषा कहाँ से कैसे प्राप्त हो। न तो वह किसी भोजपत्र या ताम्रपव पर लिखी है, न किसी पोथी-पुरान में ही ‘सनद रहे वक्त पर काम आवे’ की दृष्टि से लिखी है। तब उसे कहाँ से कैसे जाना जाय ?
मन में यह प्रश्न उठा ही था कि दूसरे ही क्षण किसी ने तपाक से कहा-लोक-व्यवहार की बात तो किसी पोथी-पत्ता में नहीं, लोक-मानस की पृष्ठ-भूमि पर अलिखित रूप में ही सुलभ है। न तो उसके भावना में रमे अक्षर कभी मिटते या धूमिल होते हैं। उन्हें रटना या घोखना भी नहीं पड़ता है। जो पाँड़े के पत्ना में होता है, उससे कहीं अधिक स्पष्ट लोकमानस में रमा होता है, जो समय पर अपने आप बिना रील घुमाये स्मृति-पटल पर आ उत्प्राणित करता है। हाँ, उसके लिये यह आवश्यक है कि आप तन-मन के कान खुले रक्खें, जागरुक रहें। यदि जिज्ञासु सजग है, तो अपने-आप रास्ता चलते उन लोक-व्यवहार-सूत्रों की उपलब्धि होती रहती है। परीक्षा में पास होने के लिये किसी ट्यूटर या मास्टर की आवश्यकता नहीं होती। खेतों-खलिहानों और चौपालों की गोष्ठियों में काम करते, बतियाते ही उन्हें सहेजा-संजोया जा सकता है। किसी प्रसंग के बिना उसके निरक्षर भट्टाचार्य भी उन्हें नहीं सोच-बता सकते हैं। उनके लिये तो आवश्यकता ही आविष्कार की जननी होती है।
यहाँ बुन्देली जनपद के कुछ व्यवहार-सूत्र उपस्थित हैं जिन्हें उपस्थित-निवेदित करते मेरी अपनी मान्यता है कि आपकी कसौटी पर उन्हें कसरीला नहीं उतरना चाहिये। इतना तो निश्चित ही है कि उनसे मिलते-जुलते बहुत से व्यवहार-सूत्र और दूसरे जनपदों में व्यवहरित होंगे। क्योंकि मूलतः तो हमारी, आपकी और दूसरे सभी की संस्कृति एक ही है। भाषा या बोली का शाब्दिक भेद उनमें भले ही हो जाय, पर आत्मा तो उनकी सभी कहीं एक ही है। उसी में हम आप सब निर्वेर भाव से सम्बद्ध हैं, समाये हैं। कहा जाता है “वही कौर दे लिये, बड़ी बात न बोलिये भोजन करने में साधारणतः छोटे-छोटे कौरों से चबा-चबाकर खाना चाहिये, परन्तु आवश्यक होने पर बाहे बड़ा कौर देकर जल्दी छुट्टी पा लें, पर बात करते समय तो ‘हर-हमेश’ सावधान रह, मंह सम्हार कर ही बात करनी चाहिये। ऐसी नहीं कि उसके लिये कभी पछताना पड़े। कहा जाता है “गोली से बचे, पर बोली से न बचे।” गोली तो चूक भी सकती है. उसका घाव भी भर सकता है, पर बोली जो ठिकाने पर लगती है, ऊपर घाव न दिखने पर भी मन की ‘कसक’ या कचोट पीढ़ियों तक रह-रहकर कसकती है। ‘तरकस का तीर और जबान से से निकली बात’ प्रयत्नतः भी लौटती, फिरती नहीं है। साकेत के राम ने स्वयं कहा है- “रघुकुल में जो वचन दिया जाता है, वह लौटकर फिर लिया नहीं जाता है।”
यों बात को लेकर बात का ‘बतंगर’ बनाया जा सकता है। ‘बात’ और ‘बान’ को लेकर ही आकाश-पाताल के कुलावे भी मिलाये जाते हैं। अवसर पर उनकी रक्षा के लिये प्राण भी होमे जाते हैं। उसी पर तो हमारे प्रान-सम्मान निर्भर हैं ‘धन दै धरती राखिये, धरती दै के प्राण। प्रान देय पत राखिये, पतहि न वीजे जान’। बात और वान या प्रान के लिये यही हमारी संस्कृति का सन्देश है।
बात के प्रसंग के साथ ही भोजन में बड़ा कौंर देने की बात आ चुकी है, अस्तु यहाँ भोजन-पान से सम्बन्धित भी कुछ सूत्र प्रस्तुत हैं “अपुन सुहातौ खैये, जगत सुहाती पैरिये।” भोजन भले ही अपनी रुचि को कर लें, पर पहनावे-ओढ़ावे में जनरुचि का, अपने संस्कारों का ध्यान रखना चाहिये। यही कारण है कि प्रारम्भ से ही राज-दरवारों में, स्कूली छात्र-छात्राओं की पोशाक में, सेवादलों में एक-सी ही वेश-भूषा रखी जाती है, जो उनके संस्कारों की, भावनाओं की परिचायक होती है। “रोटी खांय कै न खांय, न खांय”, टट्टी जांय कै न जांय, जांय” ऐसे प्रसंगों में इनके साथ यह जुड़ा है- रोटी खांय कै न खांय, तब कहा है-‘न खांय’ और जब प्रश्न आता है ‘टट्टी जांय के न जांय’ तब कहते हैं ‘अवश्य जांय’। “कै मरै बड़पेटा, कै मरै बड़-जोता” नुकसान होने पर या तो अधिक खानेवाला घाटे के संकटों के फेर में पड़ता है या अधिक खेती करने वाला।
“चाय देह में लोऊ, भोरई करै कलेऊ” शरीर सशक्त बनाने के लिये आवश्यक है कि सबेरे अवश्य कुछ खा लें। इसलिये कि सभी के “पाँव पेट से लगे होते हैं।” “भूखे भजन न होंय गुपाला. जा लेव अपनी कण्ठी माला” इसी के साथ यह भी स्मरणीय है कि “कनक डार उयें जाव, चाय जौ लयें जाव।” एक बात और है “व्यारी कमऊँ न छोड़िये, बिन व्यारी बल जाय, जो व्यारी औगुन करै तो दूपरै बोरी खाय” व्यारी अर्थात् रात का भोजन अवश्य करना चाहिये, रात में व्यारी न करने से शक्ति कम होती है। हाँ, यदि व्यारी नुकसान करती है, तो दोपहर में थोड़ा खाना चाहिये। एक और भी सिद्धांत है-
साउन ब्यारी जब कब कीजै, भादों ब्यारी नाम न लीजै।
क्वार मास के दो पखवारे, सम्हर-सम्हर चलियो मोरे प्यारे।
आधे कातिक पूज दिवारी, फिर मनमानी करौ बियारी।
भोजन के ही प्रसंग के दो सिद्धांत और हैं “मठा तरे को, दूध सिरे को, और ‘रायतौ नेचे को, पंचामृत ऊपर को” मठा का गाढ़ापन नीचे बैठ जाता है और पानी ऊपर आ जाता है। दूध की मलाई ऊपर रहती है। इसी प्रकार रायते में डाली गयी साग-सब्जी नीचे बैठती है और मट्ठा या पानी ऊपर होता है। इसी प्रकार पंचामृत का मेवा ऊपर तैरता है और दूध, दही आदि का पानी नीचे रहता है।
बेटी-बेटों के सगाई सम्बन्धों को लेकर भी कुछ पुरानी मान्यतायें हैं, जो आज भले ही उपयोग की न हों, पर एक समय का संकेत तो देती ही हैं-
“आँगें ताकदान’ पीछे नाबदान” अपने पुत्र या पुत्री का सम्बन्ध निश्चित करते समय घर-बर देखने की मान्यता पुरानी है। उस समय जो बड़े-बूढ़े घर देखने जाते थे, वे बाहर से ही अपना गणित लगाते थे। आगे ताकदान’ यानी घर के उजेले के लिये जहाँ दीपक रक्खा जाता है, वहाँ उस स्थान पर नीचे कितनी तेल की चीकट है और ऊपर कितनी कालिख है। और घर के पीछे बहने वाले नाबदान से कितना पानी बहता है। इसी से घर के रहन-सहन, सफाई और प्रकाश का परिचय मिलता है। ‘मार जोतिए, कुलैं ब्याहिये’ अर्थात् भूमि मार जोतना चाहिये और बेटे-बेटियों का सम्बन्ध कुल की कुलीनता देख, समझ कर करें। “घरै उसारौ, लरकै सारौ” घर के आगे दुसारा-दालान होने से घर की भीतरी प्रतिष्ठा रहती है; और लड़के का साला होने से मान-सम्मान रहता है। लोक-व्यवस्थाकारों ने गाँव में ही बेटी-बेटा का सम्बन्ध करना अनुचित माना है-
“दूर नतैंती दूध बरोबर, नीरौ नतैंत आधौ।
गाँव नतैंती गधा बरोबर, जब चाहे तब लादौ।
दूर की नतैती अर्थात् रिश्तेदारी देखने में भले ही दूरन्देशी लगे, पर वह रहती निर्मल है, इससे कि छटे-छमासे ही आना हुआ, एक-दो दिन प्रेम से रहे और फिर मिलन की आस में ही बिदा हुए। समीप के लोगों की नातेदारी भी ऐसी है-कभी हाट-बाजार में मिले, थाना-कचहरी में या और कहीं आते-जाते मिले, राम-राम हुई और बस और गाँव की रिश्तेदारी की तो बात ही क्या कहना, सबेरे से सन्ध्या तक कितनी ही बार मिलना। खेती-किसानी में बंज-व्यापार के लेने-देन में बात बिगड़ी और सुना ‘पाँव पूजे हैं, पीठ नहीं।’ जरा-जरा सी बात में अनबोला, मना-मनौअल का तमाशा। ‘रोज-रोज घर आए त होत मान की हान।’ यही देखकर कहा है- ‘गेंवड़ें खेती, गाँव सगाई, पहले सुख पाछे दुखदायी; मतकर भाई, मतकर भाई।’
नाते-रिश्ते भी कहाँ, कब तक, कैसे निभते-बनते हैं, वह भी थोड़े में जान लें “माई नौं मायको सासनों ससुरार” बिटिया के मायके की उमंग, वहाँ का प्रेम माता के रहते तक ही है, तभी तक वह उसका घर है, फिर तो यही है-
मैया कहै बेटी नित उठ अइयो, पिता कहै दोई जोर।
भैया कहे बना औसर अइयो, भौजी कहै कौन काम।।
इतने से ही समझ लीजिये। और एक बहू अपनी सासों का सम्बन्ध बताती कहती है- ‘अपनी सास सो अपनी सास, पराई सास कौन सास। ककिया सास कुदई कौ फटकन, फफुआ सास कथरी कौ थिंगरा। जुग जुग जीवै ननिया सास, जीनें जाई हमाई सास।’ इतने में ही सब समझ लीजिए।
यहाँ मैंने कुछ व्यवहार-सूत्र अपनी समझ के अनुसार प्रस्तुत किये हैं। नहीं जानता कि पाठकों को कहाँ तक रूचिकर प्रतीत होते हैं। अस्तु, अब कुछ सूत्र, सूत्र रूप में ही प्रस्तुत हैं। आशा है, सुधी पाठक थोड़ा बुद्धि-व्यायाम कर उन्हें अपने दृष्टिकोण से परखेंगे।
- घर गुन बहू, सार गुन बच्छा।
- सीखा सीख, परौसिन कौ, घर ही सीख जिठानिया की।
- भींत भीतरी, कुआँ बायरौ।
- साफा ढीलौ, कांछ कर्री।
- बाढ़ई की बगल, लुहार कौ आँगौ, देख चलो नहिं होबे खांगौ।
- लरका बोई जो बैठे सें न उठै, बहू वा जो परे सें न उठै।
- काल कट जात, कलंक नईं कटत।
- गव (गया) बिसरत जात, आव नईं बिसरत।
- ना साव मिलै, न टोटौ परै।
- गाड़रें बिडर जातीं, टिटकारी नईं भूलत।
- रांड़ को पेट, ऐबाती की खाट।
- छूटौ जगाती, नौ मइना पुजत
- नामी साव कमा खाय, नामी चोर पकरौ जाय।
- खेती कर तौ गाड़ौ राख, भैंस राख तौ पाड़ौ राख।
- चार उलीचा को चौमासो, दो मों मोरा को व्याव।
- बिटिया नवाई, लरका चबाई।
- सुगर कौ काम न करै, फुअर कौ लरका न खिलावै।
- उधार बारौ पासंग नई देखत।
- 19. नाँ ऊमर फोरौ, नाँ पखेरू उड़ाव।
- 20. जैसी कोंरी तैसे गीत।
- नां दारी की दारी कौ, नां मूंछन बरौ कुआव।
- तैं राख घूँघट की, मैं राखौं दाढ़ी की।
- पाँवनों देख कें रसोई होत।
- मों देख के थापर मारी जात।
- दिन भलौ नां रात, सबसें भली स्यात्।
- पहली रोटी गाय या कन्या को और अंतिम कौए को दी जाती है।
- तवे को चूल्हे पर से बिना रोटी के खाली नहीं उतारते हैं।
- तवे को चूल्हे पर चढ़ा छोड़कर रोटी बनाने वाली भोजन नहीं करती है।
- 29. किसी के दिवंगत होने पर शुद्धता में जो कढ़ी बनाई जाती है, उसमें पकौड़ी नहीं पड़ती है।
- मृतक की शुद्धता पर जब घर-आंगन लीपते हैं तब उसके पूर्व पोतनी मिट्टी से किनारे की ढिकें नहीं लगाई जातीं हैं, सीधे गोबर से लीपते है, जबकि साधारणतौर पर बिना ढिक लगाए अशुभ माना जाता है।
- कुँवारी कन्यायें और विधवायें न तो मांग भरतीं हैं और न विछिया पहनतीं हैं।
बुंदेलखण्ड के पुराने जेबर
दंगलसिंह
एक बखत हतो जब जेबर भौत पैरो जाततो। सोनों चाँदी और सबरी धातें सस्ती हतीं। मेला-ठेला, बिआओ, भये-बधाये और त्योहारन पै तो अटकर्क जेबर पैरे जातते। कऊँ-कऊँ ऐसो देखो गओ कै जेबर निरैबे के लानें तिया, सारी, उडैनिया, रेजा, चोली, पोलका ऐसी तराँसें पैरीजाततीं कै उनके जेबर सबखाँ दिखात राबैं। कछू जेबर तऊपै ढकेरातते। फगवारन ने इन सबको बखान भौत नौनी तरां से करो है। पुराने जेबर ऐसी-ऐसी विन्नू, रजऊ, गौरी, धनिया, पाऊनी हन खाँ पैराये, जिनके सरीर खूब गदगदे, लिलोर, पंछीले और नुनाई से भरेते। ऐसी जनी जब हाट बजार, पुरायाले की गलन-खोरन होकैं जातीतीं तो झन्नाटे परतते और सन्नाटो खिच जाततो। जे जेबर ऊ बखत के आयें जब सोनो पन्द्रा रुपैया से बीस रुपैया तोला हतो। आजकाल सोनों तीन हजार रुपैया तोला है, सो अब वे पुराने जेवर नई चलत। कछू हैं जौन चलत है।
कबि दुजकान की फाग की ‘मामुलिया’ खाँ देखबी-
फाग :
हमखाँ सजवा लाये बिदुलिया, बिरन तोर नंदुलिया।
हीरा लाल लगे नये पन्ना, गढ़ा ल्याये चौफुलिया।
भीतर से बाहर कड़आई, लै जेबर की चुलिया।
कर सिंगार सेज के ऊपर, बन बैठी मामुलिया।
कहैं दुजकान नजर लग जैहै, दैलेव तनक डिठुलिया।
पाँव की उगरियन के जेबर
- गैंदैं – सोने, चाँदी और सब धात की, छल्लन के ऊपर गोला-गोला गैंदन की तराँ गुट्टा बने।
- घुच्ची – सोने, चाँदी, गिलट की छलन पै गुच्छादार बोरा लगे। चलतन में कभऊँ-कभऊँ एरो करती।
- कटीला – सोने, चाँदी, गिलट के छलन पै काँटेदार आधी-आधीं कलसियन घाईं बने। हँसी में पल्लीफार कहाउत।
- चुटकी : सोने, चाँदी, कसकुट, गिलट की छलन के ऊपर पट्टेदार, नोराँ की, रबादार, य पलियादार बनती हैं। इनकी मुलक चलन हैं।
- बिछिया – सोने, चाँदी, गिलट, कसकुट मीना के छलन के ऊपर दो गुटियाँ बती। इनकी बन्नक में मुलामियत की ओज झलकत।
- बिरमिदी – एक साँकर में जुड़ी छल्ली। उनके ऊपर खुरमा बने। जे सब धात की बनती हैं।
- छल्ली – सब धात के बारीक बने छल्ला।
- पाँतें – पाँव के ऊठा के छला पातैंदार मय पाँब की छिगरी के। इने बिआओ में बिसेक कैं दओजात। चढ़ाये में चढ़त। इने छला-छिंगरी सोई कओ जात।
- गरगज के छला – ऊठा में पैरत के। सब धात के बनत। मोतीचूर की लरैं और पटा लगे गैंदनदार।
- बाँकैं : इनमें साँकरैं नईं होती। ऊठा के नैंगर की उगरिया सें लैकैं छिंगुरी तक पट्टा लगो और पँजा कुदाई ऊपर खाँ पान फूल बने। सोने चाँदी के बनत।
- अनौटा: पाँव के ऊठा के छला, ऊपर बड़ो चौरौ पत्ता कौ बनो। नैचै चाँदी, तामों, पीतर की पत्ती लगी टूटदार। सब धात के बनत।
- जुड़वाँ – पाँव के ऊठा के छला। बीच में रखादार पट्टी नैचैं डरी या पाँत लगी टूटदार। कोऊ कोऊ इमें बैंड़ादार कात। सब धात के बनत हैं।
दूसरे जेबरन के संगै पाँवपोस पै अनुचर कवि जू की जा फाग देखी जाबै-
पाउन पायजेब प्यारी के, राजत बदन ससी के।
ताके के नीचैं पाँवपोस की, साँकर लसित लली के।
सोभैं द्रव्य अँगूठन ओंटा, उगुरिन गैंद अली के।
धरत भूम पग सब्द श्रवन सुन, चौंकत लोग गली के।
अनुचर धोती और कछोटो, जे गोने में सीके।।
कमर के जेबर
- करधोनी : सादा साँकर की बनी, कमर के चारऊ तरफ पैरबे लाख। ईमें एक से लेकै कुल्ल लरैं होतीं। बड़ी नोनी-नोनी बनती हैं। अच्छी झालरें मोना, कटमा, डैमन की बनती। बीच-बीच में पक्खादार फूलपत्ता ठाड़े बने। झालरदार, इमरतीदार, बनारसी पट्टेदार, पेटी की। सब तरां की होत। सोनो चाँदी गिलट की बनती।
- चौरसी: बारालर की करदोनी, जीमें बोरा लगे। सोने-चाँदी की बनती हैं।
- बिछुआ : दो लर की, बीच बीच में पान चिड़ी बने। सब धातन के बनत।
- अध करबोनी : आदी करदोती। ईखाँ पूरी कम्मर में नई पैरोजात। सारी, घुतिया के छोर से जौन जगाँ कमर की खुली रात उतनई जगा में पैरी जात (लटकाई जात)। बन्नक में पूरी करदोनी घाँई बनत है। सोने चाँदी की बनती।
- डोरा : एक दो लर की सादा करदोनी। सब धात को बनत।
हाँत की उगरियन के (गानें) जेबर
- अँगूठी : सब धात की बनती। मुख्ख तो छल होत, ऊके ऊपर भौत नोनो नोनो बनाओ जात। जे जड़ाऊ ककरा, मोती, रतन, काँच और नये-नये तरां के पथरन की जड़ाऊ बनती है। अष्टधात की सोई बनती हैं।
- पोरा: चौरे चपटे छला। सव धात के। मुसलामान्नी पैरती हैं।
- अंगोस्थानो : ऊठा में पैरत की अँगूठी सब धात की।
- अर्स्याऊ : उगरिया में पैरत की अँगूठी, ईमें आरसी जड़ी होत और चारऊ तरफ नग जड़े होत। ईमें अगूठी खाँ पैरै-पेरै पछाऊँ में कोऊ आउत होबै तो विना मूंड मुरकायें अंगूठीं में देखलओ जात कै यार है कै बैरी है।
- जहयाऊ: जा अँगूठी सुन्दर जड़ाऊ होत, ईमें डिबिया बनी होत जीमें जहर घरो रात। सोने की जड़ाऊ बनत।
- इलयाऊ : ई अँगूठी में अतर कौ फुहा एक डबिया में धरो रात। सोने की जड़ाऊ बनत।
- नोरत्नी: जा अँगूठी सोने की जड़ाऊ होत। ईमें हीरा, मूँगा, मोती, नीलम, गोमेद, मानिक, पुखराज, पन्ना और लासुनिया जड़े होत। फिर जोखाँ जौन नग सुभ होबै सो इमें जड़वा लेत।
- छाप : सोनें चाँदी के पत्ता ने तसबीर, अठन्नी, चौवन्नी बनी होती है। इनखाँ एक छल्ला पे बनाओ जात। राजन की छापवारी अनूठी सोई बनतीतीं उनमें कछू लिखोरात्तो।
- फिरमा : पतरे तार को गोला-गोला बनत। सोने को बनत।
- छला : गोला, मोटे, पतरे सब तरों के सब धात के होत।
कौंचन के जेबर
- हथफूल: पाँच छला साँकरन से जुरे, बीच में पान फूल बने। ऊपर कलाई में पैरबे के लाने लंबी साँकर बनी। सादा जड़ाऊ सोने के और चाँदी के बनत।
- वस्तबंद : साँकरदार पट्टा कलाई के। सोने-चाँदी के मुसलमान पैरत।
- गजरा: जालीदार, गोला और पट्टीदार। सोने-चाँदी के बनत।
- ककना : सब धात के ककनियनदार, जालीदार और कुल्ल किसम के बनत। सब धात के।
- बंगलियाँ : फूलदार चुरियाँ। इनखाँ कोऊ कोऊ छन्ने कात। जे सादाँ सोई बनतीं। सब धात की।
- दौरी: रवादार, दाहरी चुरियाँ। सब धात की बनती।
- पटेला : सीदे-सादा नालीदार पट्टा के। सब धात के।
- चूरा : गोला, जालीदार, जड़ाऊ, इमरती के सादा, मीना के ठोस, पोले, चपरा भरे, नक्कासीदार और सब तराँ के टूटदार सोइ बनत।
- नोगरई: नीम की निबोरी की तराँ गुटियाँ बना के डोरा में बरीं जातीं। सब घात कीं बनतीं।
- चूहा दत्ती : चूरन के मौं चुखरवन घाँई वनत। सोने के, चाँदी के जड़ाऊ बनत।
- गजरियाँ: छीताफली निकासी बारी, ऊपर और बगल में उठी। चूरा खाँ चौपयलो करकै फिर निकासी करीजात। सब धात की बनती। सागर तरफ इनकी चलन भौत है।
- बगुआँ : अच्छे भरावदार चूरा, सब धात के बनत।
- लिड़याऊ पौचियाँ : छिरिया की लैंड़ी घाँई गुरिया बने और डोरा में गुबे। सब धात के बनत।
- पौचियाँ : जालीदार पट्टों की चाँद सितारे बोरा लटकनदार बने। चाँदी की जादा बनती है। मुसलमाननी पैरती हैं।
- बैल चूड़ी: सोने-चाँदी की जालीदार पट्टी बनी होती हैं।
- गुज्जैं : कौंचन में पैरत की साँकरें। छोड़न में वैंच और कुन्दा लगे। सोने-चाँदी कीं बनती है।
- चुरियाँ : सादाँ कामदार सब घात् की बनती है।
- तैंतियाँ: छोटी-छोटी तबिजियाँ डोरा में बरी भौत तराँ की बनती हैं। सोने चाँदी की। दतिया तरफ चलन है।
- रुमझूनियाँ : छोटी तबिजियाँ और कुलनियाँ कुन्दन में डोरा में गुबी और रौना लगे। चाँदी सोने की। दतिया तरफ चलन है।
- कचेरा : काँच की कारी चुरियाँ। ब्याओ में पैरी जातीं, नई दुलैन पैरत। एक हाथ में कुल्ल पैरीं जाती और उतनइ दूसरे हाँत में पैरी जाती।
- लाखें : लाख की बनी चुरियाँ। इनके ऊपर काँच, पोत, मूंगा, मोती, चिलकना चिपकाये जात। इनें बिटियाँ, बहुएँ, बूड़ी, सुहागनें साउन में बिसेख के पैरकै कजरियाँ (मुजरियाँ) देखवे, लूला-झूलबे, मेला-ठेला में जाती हैं।
- जुरिया : कुल्ल किसम की लाखें एक ठठेरे, चारे, प्याँर, या पोली, पतरी, नकरियन की सींकन के मूठा में पुबी होती हैं। इनमें से लाखें निकार के हाँतन में लाखों जाती है। लाख खाँ सिरौता में काट के उनखों तपाकैं पैरी जाती है। दोई छोरनखाँ कुल्ल तपाओजात, जीमें बाद में छोड़ आपुस में चिपक जाबैं। जे साबन में साबनी के संगै भेजी जाती है।
- छैलचूड़ी: चाँदी सोने की पट्टा की बनी झिझरियनदार होती है।
कौनी के ऊपर के जेबर
पैलाँ कवि ईसुरी जू की फाग जेबरन सें भरी देखी जाबै-
बैंयाँ लगे बरन से नोनी, खग्गन सहित सलौनी।
इनईं करन में ककना दौरीं, बाजूबंद मिलीनी।
पोचों पैर पटेला पैरें, पीछैं छैल रिजौनी।
ईसुर इन गोरी बैंयन पै, करैं बजुल्ला बौनीं।
- बरा: कौनी के ऊपर और बाजू के नैचै पैरे जात। ऊपर सपाट छोटी पैजनियन घाईं बनती। जारीदार, डरमा, गढ़ता के सपाट, पोले चाँदी, गिलट, कसकुट के होत।
- बजुल्ला : वरन के संगै पैरे जात। सत्ताईस तार के गोकै पखियादार छापदार बनत। चाँदी और गिलट के बनत।
- बाँकें: कोनी के ऊपर पैरत के लहरियादार पटा के बने। चाँदी, गिलट के बनत।
- टड़ियाँ : नक्कासीदार चुरियाँ कौनी के ऊपर पैरत की। सब धात की बनतीं।
- अनंता: सोने, चाँदी, लोओ, गिलट, तामों सबके बनत। अनंत-चउदस की पूजा में पुजत, फिर पैरो जात।
- बाजूबंद : डोरा, जरी में गुबे बीच-बीच में ताबीज घाईं बने जड़ाऊ, नोरत्नी, सादाँ। बाजू में बाँध के पैरे जात। डोरन की गुटियाँ (छोरन की) सोई जड़ाऊ बनती है। सोने के बनत।
- भुजबंध: जड़ाऊ टिकिया गोला पक्खावारी दोई कुदाऊँ डोरा सें बदी। सोने के जड़ाऊ और सादा बनत।
- बगुआँ : छोटी पैजनियाँ घाँई पोले, उमठा के सब धात के बनत। कोनी के उपर पैरे जात।
- खग्गा : बरा बजुल्लन के ऊपर पैरै जात। लमाँनी इनें पैरो करतीतीं। दो तार के उमठा के बनत। चाँदी गिलट के बनतते। जे काँच के सोई होतते। अब इनको चलन बंद हो गओ।
- बखौरियाँ : चाँदी की लहरियादार तारन की होती हैं। बीच में टूटदार छोड़न में कुन्दा लगे जिनमें पतरी सींक डरी कुन्दन में होकै।
गरे के जेबर
पैलाँ रजऊ के गाने, कवि ईसुरी की फाग में देखे जायें–
जिदना रजऊ पैरतीं गानों, जियरा जात बिरानो।
सरमाला लल्लरी बिचौली, मोंहरन हार सुहानो।
पावन पोस पैजना बोरा, जानक जिया लुभानो।
ईसुर देत बदन अति सोभा, जब चोली बंद तानो।
- खँगौरिया : सोनो छोड़ कें सब धात की बनती। जा एबात की मानीजात। बीच में मोटी सादा, बेलबूटा बारी छोड़न पै पतरी, गूजैं बनी होती है।
- सुतिया : सोने की बनी खँगौरिया। ईखाँ धनबारे पैरत।
- कठमा : मड़ियादार छब्बीस फल को होत। फल पट्टा में बने होत और पत्तादार चपरा के भरे होत। ठोस सोई बनत। सोने चाँदी के जादा बनत।
- गजरा : डोरा में तबिजियाँ और कुलनियाँ बरी होती। सोने के होत। ईखाँ आदमी पैरत।
- कंठा: मोटे-मोटे गोला गुरिया सोने के जरी में बरे। मोटी लल्लरी घाँई। सोने के गुरियन की तरा जरी की गुटियाँ (गरियाँ) सोने के गुरियन के संगै बरे। ईखाँ राजा अपने आदमियों को इनाम में दओ करतते।
- तबिजियाँ : चौखुटी सोने की कुन्दन में जरी या डोरा में बरी। आदमी जादा पैरत। सोने की जादा होती।
- ढुलनियाँ : ढुलकी तरा बनी। बीच में थोरी मोटी और छौरन पै पतरी। कुन्दन सें डोरा में बरी सोने की। आदमी जादा पैरत। कुल्ल ढुलनिया और तबिजियाँ डोरा में बर कैं सोई पैरी जाती।
- गुलूबंद : सोने-चाँदी के पट्टा में नैचै मखमल य उन्ना लगो, दोई छोरन पै डोरा फुदनियनदार लगो। मुसलमान्नी पैरती है।
- ठुसी : सोने-चाँदी के गुरिया और मौंती एक पट्ट में बरे, बीच-बीच में सोने चाँदी की पट्टी डरी।
- तिदाना : तीन गुरिया या चाँदी के डोरा में बरे। जौ ब्याओ में चढ़ाये में चढ़त।
- लल्लरी : सोने के गोल गर्रनदार बीच-बीच में रबा धरे, बीच-बीच में जरी या डोरा की गर्रियाँ बनी। जे सब डोरा में बरी, दोई छोरन खाँ एक सोने की गुटिया में हो छोर निकरे। लल्लरी खाँ छोटो बड़ो करबे के लानें। जा सोई चढ़ाये में चढ़त है।
- माला : सोने के छोटे गुरिया, चना में तनक बड़े, गोला, अठपायले, चौखूंटे बने एक डोरा में बरे। माला लंबी बनत है। राजपूतों में राछबधाये में नई दुलैन खाँ ससुर पैराऊत।
- सर : सोने, चाँदी की लंबे गुरियन की डोरा में गुबी। ईखाँ सरमाला सोई कओजात। चढ़ाये में चढ़त।
- चम्पो : चम्पा के फूल की पखुरियन घाँई बनो हार। कुन्दन में बोरा डरों। कोऊ कोऊ सोने के तार में जड़देत, जे जड़ाऊ सोई बनत।
- हार : ईमें भौत किसमें होती हैं। मोतिन के, जड़ाऊ, नोरत्नी सब तराँ के और सादा बनत हैं। नौलखा हार की बड़ी-बड़ी किसा हैं।
- गुंज : सोने की चार पाँच लरें, लंबी, जी में गरे में लटकतरायें। इनें आदमी पैरत। पाँच तोला सें दस-पंद्रा तोला तक को बनत। हरएक लर सोने के बारीक बारीक तारन की बनी होत। अब चलन बंद सौ हो गओ।
- गोप: सोने की दो मोटे तार की लरैं। इनकी लरैं बारीक सोने के तारन की बिनी होती हैं। बीच में टिकरा बनो जीमें पन्ना, हीरा, मानिक, मोती, काँच, ककरा जड़ाये जात। गुंज और गोप कौ जोड़ा मानों जात। तौल में भारी होत।
- बधिया : सोने चाँदी की चार लरें। जे लरैं ऐसी बनतीं कै गरे में चिपकी राबैं। आदमी पैरत। ईके छोरन पै कुन्दा बने होत, उनमें पैंच डरत।
- सेली : कुल्ल लरन की भारी लंबी, छोरन पै सराबैं लगी, छइयाँ-उतार गुरियन की। लंबी इतनी कै टुड़ी तक पौंचै। सोने की बनाई जातींती। अब चलन कम हो गओ है। आदमी और लुगाई दोई पैरत। तौल में पउआ भर सें अस्सेरा तक की बनतीतीं।
- हमेल : सोनें की मोहरें चाँदी के कल्दार, अठन्नी-चौअन्नी इनमें कुन्दा जड़े। नौने डोरा में बरे। जा कुल्ल लंबी होतती। अब मागाई ने मारखाओ। सब जातें पैरती हतीं।
- बिचौलो : जड़ाऊ, सादाँ पत्तीं बनी, गुरिया बने, मोतिन कीं लरै लगीं, डोरा में गुबी। सोने की बनत।
- करसली : लम्बे गुरियन की बनी मालाघाँई, सोने चाँदी की मुसलमाननी पैरती।
- सारक : सादाँ साकर की बनी, सब धात की।
- हाय : सोने चाँदी की गोल टिकिया ने छोटे-छोटे रबन सें ‘हा’ बनो। एक कुन्दा सें करिया रेसम य डोरा से बरो। छोटे लरका बिटिया पैरत जीमें उने दूसरे की हाय न परै।
- चन्दा: सोने-चाँदी को, चौथ की जुदइयाघाई बनो और एक कुन्दा से बरो। छोटे लरका बिटिया पैरत।
- बगनथा: अरुआ, नाहर, तिंदुआ के दो नौअन खाँ सोने-चाँदी की पत्ती में जड़ो। नौअन की नौखनखाँ सोने-चाँदी की पत्ती से ढको। छोटे लरका पैरत और आदमी पैरत। डोंरा में या जरी में बरो होत।
- धुकधुकू : सोने को हार जीमें हीरा जड़े। बीच में घड़ी की बाल-कमानी के बल पै सोने में बड़ो हीरा जड़ो और कमानी बड़े लटकन से जुरी। साँस लेत में जो हलत है।
- पुतरिया: सोने, चाँदी, पीतर की पत्ता पै पुतरिया बनी। एक कुन्दा सें डोरा में गुबी। ईखाँ सौत कओजात। दूसरे ब्याओ बारी लुगाई पैरत, जब पैलाँ बारी मर गई होबै।
- जबारी : जबा फुलैकै, गुच्छनदार, बड़ी माला, गोई जात। ऊमें लोंग, लाइची, डोंडा, सुपारी तीन लर या पाँच लर की बनत (सोने चाँदी के फूल बडे घरन की जबारी में लगाउत) भैजी की नंद पैला-वैला भतीजो भये की खुसी में भौजी खाँ जवारी पैराउत। जबारी में नारियल के भेला सोई गोये जात।
कवि ईसुरी की फाग जबारी पै
पैरी जीरा हरन जबारी, ललना के भये प्यारी।
ओई में लोंग लाइची गोकैं, सब सामान सुपारी।
उठत सोर निकसत है अैसैं, नारंगी सी नारी।
जैसें मधुकर कमल काली पै, आँख करी कजरारी।
ईसुर दिन दसटौन सें उठकैं, अति रंभा संभारी ॥
कान के जेवर
जेबरन पे कवि अनुचर ने कैसो नोनो लिखो उनकी फाग देखबी-
कान करनफूल कंचन के, दमकै प्रीत बरन के।
लोलक ललित कपोलन ऊपर, लटकत चित्त हरन के।
फिटियन ऊपर देख कनौती, जीब होत रनबन के।
हेम बिचित्त बिचौली कंठन, छूटा कई तरन के।
अनुचर जलजमाल हिय राजें, सिब सिर गंगधरन के।
- कनफूल : जे छीताफली, अँतखड़ा, रबादार, झुमकन के संगै सोने चाँदी के जड़ाऊ और सादाँ बनत। सब धात के बनत।
- ढ़ारैं: सोने चाँदी, की जड़ाऊ गोला चपटी बनती है। इनके संग में साँकरें हड़स के पैरी जाती। फिर चैरा पे भराब दिखात। जे ढरमा की सोई बनती है।
- झेला: काँनन की साँकरे नैचै लटकवे बारी। इतखाँ ढारन और कनफूलन के संगै पैरो जात। सब धात की बनती है। हाथी की झूल के संगै साँकरन से दोई तरफ घंटा लटकत रात। उन साँकरन खाँ सोई ‘झेला’ कात।
ऊपर के जेबर पै कवि ईसुरी के विचार देखबी-
लटकैं दोई गालन पै ढारै, रजुजा आँगन झारैं।
जारीदार लगे नये पखिया, तैरी साँकर डारैं।
सीसफूल माथे पै बैंदा, उपर पटियाँ पार।
ईसुर कहैं दरस खाँ ठाड़े, रोजउ छैंला द्वारै।
- कनौती: कान में डारखे की साँकरें। जे छोटी होती है। कोऊ-कोऊ इनें कानचिड़ी कात। मुख्ख रूप में सोने की बनतीं फिर जी खाँ जोन धात जमें, रचै।
- झुमकी : जे कुल्लतराँ की बनतीं, गोला, चौखूँटीं अठपायली, बोरा सब धात की बनती है। अपने पूरे उत्तर लगे कनफूलन के संगे पैरी जाती। के प्रान्तन में सब कोऊ जानत।
- बारी: सोने, चाँदी, पीतर की, तार की सबतराँ की बनती।
- तिगड़ी : सोने की जड़ाऊ और सादा सब धात की। तीन गुरिया चपटे तार में गुबे।
- दुरबच्ची : छीटी बारी में बोरा लगे। ककरा, मोती गुने। छोटी बिटियाँ पैरती। सोने चाँदी की।
- गुरखूरूँ : बारी में बोरा परे। कुल्ल बारी पैरीं जाती सोने-चाँदी की। मुसलमाननी पैरतीं।
- मुरकी: सोने, चाँदी की मोटे तार की, छोड़न पै पतरी। कान में लौंडी से तनक ढीली पैरी जाती।
- खुटियाँ: सब धात की बनती हैं। इनमें पान, चिड़ी, ईंट, फल, पत्ता और जड़ाऊ हीरा, मोती, नीलम की बनती हैं। चना से बड़ी होती है। आदमी और लुगाई पैरत।
- सुराई : गोला मोटी बारीघाँई, कछू कसी। सोने-चाँदी को मदारी (जादूगर) पैरत।
- बाला : थोरे मोटे तार के सोने के बने। तार में ककरा, मोंती, मूंगा पुबे। छोटे लरका पैरत और दूला खाँ सोई पैराये जात।
14 कुन्डल : बाला से बड़े। नौरत्नी और सादा, मोती पुबे होत। दूला बिसेक कै बागे के संगै पैरत। जे सोने के बनत। इनमें मोती और मानिक की बरी लरें लगी रातीं। जे पैरत में लटकत राती है।
कबि अवध की फाग “लोलक” की देखी जाबै-
लोलक लली कान रतनारे, लगै लटकतन प्यारे।
कसकें काम करे कारीगर, कौन दुकान समारे।
नग जड़ दये जड़ाऊ बिच बिच, हीरन के उजयारे।
ऐसो लगत लाड़ली आँनन, चन्द गेर गये तारे।
अबध झाँक छूना हो पाई, हो गये प्रान दरारे।
- लोलक : इनै अकेलो सोई पैरो जात। कनफूलन के संगैतो पैरोअई जात। सोने-चाँदी के झुमकन सें और नौने बनाये जात। जड़ाऊ और सादाँ बनत।
- बिजली : सादाँ बारी में नग पुबे। जड़ाऊ सोई बन जात। जा कान के ऊपरी भाग में पैरीजात। सोने-चाँदी की बनती है। कायदे से एकई पैरी जात। कनफूलन की साँकरें अच्छे-अच्छे पैलवानन की चालन नै गरका लगा देती है। अपने कवि गंगाधर व्यास जू की जा फाग देखबी-
साँकर करमफूल की झूमें, गौरी कौ मौ चूंमें।
झुकझुक परत गिरत आनन पै, लेत चलत में लूमें।
थिर नई रात करत चंचलता, दमकत घूँघट हुँमें।
देखी नहीं आजलों ऐसी, न छवि और किसू में।
गंगाधर मनमोहन को मन, रात नहीं काबू में।॥
- साँकरें: कनफूल और ढारन के संगै पैरीं जाती। जे दोहरी दोहरी दो-दो बेता की लंबी बनती हैं। फिर चउअर होकै कनफूलन में गूँज सें, कुन्दन से लटकाई जाती (टगी राती) सब धात की बनतीं।
ईसुरी की फाग में देखबी-
दुर सें लगै लाड़लो चैरा, रजौ रंगीली तेरा।
मजेदार मोतिन कौ गुच्छा, टोड़ी ऊपर डेरा।
जुर लुर परत कपोलन के ढिग, सुन्दर आनन फेरा।
हीरा लाल जड़े सिरजा में, मुखपै होत उजेरा।
ईसुर श्याम तनक न छोड़ैं, नजर गई है भैंरा।
- दुर: सादाँ सोने को झुलनीदार। बारी से बड़ो और मौंटो।
- बेसर : दुर में जड़ाऊ या मोतिन की पत्तीदार बनी। सोने की।
- सिरजा: दुर को पत्ता, जड़ाऊ, मोती बरे, सोने को।
रोज की बातें ईसुरी ने नौनी तराँ से कै डारी-
बन कैं आज पुँगरिया आई, देखो जिजी हमाई।
हीरा मनी कनी लगवाकैं, नो रतनन सजबाई।
ऐसी करी तुमारे देबरा, सुधर सुनार बनाई।
ईसुर अब जिन जिन ने देखी, तिन तिन ने साराई।
- पुँगरिया : सोने की गर्रयाऊ, फूलदार, पालदार, जड़ाऊ नाक में डेरी तरफ पैरी जात।
- कील: छोटी जड़ाऊ या सादा सोने और सब धात की बनत।
- खुटिया: पुँगरिया सें तनक छोटी होत। सब घात की बनत औ सब तराँ की बनत।
- बुल्लाख: सोने की। नाक में दोई नकुअन के बीच में लटकत रात, ऐसी पैरी जात। ऊपर के ओंठ पै लटकत। जड़ाऊ और सादाँ बनत। मुसल-माझी पैरती।
- नथ: सादा सोने के तार की बनो मोटो। एक तरफ पतरो नाक में पैरबै लायक, फिर गूँज से बंद हो जात। श्री रामनारायण पट्ट की माता जी ने बताओ कैं बाँदा जिला में सौ बरस पैलाँ इतनो बड़ो नथ बनत तो कै नाक में पैरैं-पैरैं मूड़ में पुब जात तो। मतलब आठ इंच गुलाई को होत तो।
- बारी : सत्र घात की पतरी तार की और ककरा, नग पुबे बारी सोई होती।
- फूल : पुँगरिया को दूसरो रूप, बनफरी तरफ लोदिनें बीच नाक में पैरतीं। सोने-चाँदी के होत।
- टिप्पो : फूल घाँई बनत, नाँक की टॉन पे बीच में पैरत, सोने-चाँदी को होत। वनफरी और दमोह जिला तरफ पैरत।
माथे के (गानें) जेबर
ईसुरी के पार भूरे मिसर हते। इनकी फाग देखी जाबै-
बैंदा से जुलम करें बूँदा, बूँदा ने जब से दओ बूँदा।
फैली इस्कबाज सब मोलये, पंडित मोलये सूदा।
मोलय, जती-सती-सन्यासी, मोहनी मोलय मुख मूँदा।
उपमा दैंय कौन कबि ईकी, उपमा कौ घर रूँदा।
भूरे मिसर लिखौ नदनंदन, चित्त फिरैं कूँदा-कूँदा।
- बैंदा : सोने को सादा जड़ाऊ। मोती चारऊ कुदाई छोटे-छोटे कुन्दन में बरे। हीरा और हीरन की परवै, मानिक, मोती, नीलम सब किसम के नग और ककरा, काँच जड़े। तीन डोरा कुन्दन में बँदे माथे में बाँधवे के लानें।
- टीका: सोने की पत्ती दो अँगुरा सें चार अँगुरा लंबी, और एक, डेड़, अँगुरा चौरौ। दोई तरफ कुन्दा बने डोरा से बाधबे के लानें।
- तिलक: सोने को तिलक बनो। तिलक जौनतरा को जीखाँ रुचो सो बनबा लेत। बामनन कैं चढ़ाये में चढ़त। छौरन पे डोरा से या सोने की साँकर से लिलार में बाँधो जात।
- टिकुलो : गोला पलियादार सोने-चाँदी की। डोरा या जरी से बँधी या फिर रार से चिपकी।
- खुसमा : जो दावनी से मिलत-जुरत है। चाँदी सोनो, गिलट, कसकुट सब को बनत। चढ़ाये में चढ़त।
दावनी पै कबि मनभावन की फाग देखी जाबै-
सिर पै दमक दावनी सोहै, मनमोहन को मन मोहे।
झालर झूँम रही मोतिन की, हीरा लाल गसो है।खासो खुबो माँग के नैचैं, बूँदा लाल लगो है।
तापर आड़ खैंच सैंदुर की, भौंहन जोड़ लसो है।
मनभावन नित दैंय राधिका, तीनों लोक में को है।
- बावनी: सोने, चाँदी, मोतीं कीं लरैं, (जड़ाऊ लरै सोई बनती) बीच माथे सें (माँग की जर सें) दोई तरफ कानन लों गई। उतै बारन में कुन्दन सें खुसीं। सब धात की सोई होती है।
बुंदेलखंड को खास गानौ सीसकूल है। कवि मनभावत ने कैसो प्रतक्ष बखान करो –
पटियाँ मनहरबे खाँ पारैं, रुच रुच माँग समारैं।
चुटिया चुस्त बदी चुटला सें, गुटिया कुच पै डारैं।
ऊपर माँग भरी मोतिन की, सीसफूल को धारैं।
मनभावन मनहरवे कारन, हर हर बेर उतारैं।।
- सीसफूल : तीन गोला कल्दार (रुपया) के बरोबर सोने के कुन्दन से आपस में जड़े और छोरन पै जरी या डोरा सें बरे। जे ठोस, जड़ाऊ, चपरा भरे सादा बनत। सामने माथे में पेरे जात, पाछै डोरा या जरी से बँधे रात।
- बीज : सोने को जड़ाऊ, सादाँ, ठोस, चपरा भरो, कामदार बेलबूटा बने, कछू लंबी परबर के बरोबर और आगे तनक मौटो होत। अगाडूँ अलग गोला गटा बनो पीछू थोरो पतरो और लंबो तीन कुन्दन में डोरा या जरी से माथे (मूँड़) में बँधो रात। मालवा में ईखाँ बोर कहत।
- सिरपैच : सोने को जड़ाऊ सादा और रतन जड़े। ईमें कलगी खौंसबे के लाने जगा बनी रात। साफा, टोपी, पाग में सिरपैंच लगाओ जात। दरबार में राजा, शादी में दूल्हा, तित्योहारन पै बड़े ठाकुर लगाऊत ते।
- कलगी : जा छोटी-बड़ी सब प्रकार की होत। बगुला शुतुरमुर्ग के पंखा ईमें काम आऊत। अब बजार में साधारण कलगीं मिलतीं हैं। दूला भर लगाऊत। बैसें जोड़ा तो सिरपैंच के संग को आय।
- खौर: सोने को त्रिपुन्द घाँई बनो। छोड़रन पै कुन्दा बने, डोरा गुबे माथे (लिलार) में बाँदते है।
- कौकर पान : सोने-चाँदी को एक गोला छोटी लहरियाँदार (बारीक खुरमा से कटे) एक पान की तरा पत्ती को बनो। मूँड़ में माँग की जगाँ पैरत। जैनी पैरती हैं। अबलन बंद हो गयो है।
- छैलरिजोनी : सोने-चाँदी को पान की तराँ बनो और एक लंबे कुन्दा में एक छोटी सॉकर से जुड़ी पीछू चुटिया सें, जाँसें चुटिया गौने होत उतै कुन्दा से लटकतरात।
बुंदेलखण्ड के लोक-पर्व
वीरेन्द्र शर्मा “कौशिक”
हमारा देश-भारत विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और धर्मों का बृहद देश है, जिसके हृदय-स्थल मध्यप्रदेश में स्थित है वीरप्रसू भूमि बुंदेलखण्ड, जिसकी सीमा कवि के शब्दों में-
“इत् यमुना उत् नर्मदा, इत चम्बल उत टोस।”
निर्धारित की गई है। इस सीमांतरगत मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के लगभग चौबीस जिले आते हैं किंतु हम यहाँ बुंदेलखण्ड की संस्कृति के प्रतीक तीज-त्यौहारों के विषय में चर्चा करना चाहते हैं, उसकी सीमा-निर्धारण की नहीं। सम्पूर्ण भारत की भांति बुंदेलखण्ड में भी सभी राष्ट्रीय, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक तीज-त्यौहारों जैसे- रक्षाबंधन, दशहरा, दीपावली, होली, रामनवमी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि को बड़े उल्लासपूर्वक मनाया जाता है। इन सभी पवों, त्यौहारों का राष्ट्रीय महत्त्व है किंतु बुंदेलखंड के कुछ अपने अलग अनोखे त्यौहार हैं, जिनका संक्षित परिचय हम यहाँ देना चाहते हैं।
चैती पूनें
बुंदेलखंड में चैत मास की पूर्णिमा को यह पर्व मनाया जाता है। उस दिन चौक पूजकर मिट्टी के कोरे घड़े में लड्डू या खुरमा बना कर भरे जाते हैं। हल्दी-चन्दन-अक्षत आदि उस बड़े पर लगा कर होम-दीप से पूजन होता है और प्रसाद वितरित किया जाता है।
गनगौर-पूजन
बुंदेलखंड का गनगीर-पूजन पर्व चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाने बाला स्त्रियों का प्रमुख पर्व है जिसमें सुहागिन स्त्रियाँ दिन-भर व्रत रखती हैं और रात्रि में गौरी पूजा करती है। वेसन का पकवान गनगौरा इस पर्व पर प्रमुख रूप से बताया जाता है, जो आभूषण की भांति माँ गौरी की प्रतिमा को पहिनाया जाता है। यही इस पर्व का नैवेद्य (प्रसाद) है, जो पुरुषों को नहीं दिया जाताः-
“गनगौर के गनगौरा, पुरुष खों न देऊं एकऊ कौरा।”
आसमाई
वैशाख माह के प्रथम (कृष्ण) पक्ष की दोज को मनाया जाने वाला आसमाई त्यौहार भी स्त्रियाँ ही मनाती है। स्त्रियाँ इस दिन गुड़ के घोल में आटा माड़कर जो पूड़ियाँ बनाती हैं उन्हें आस कहा जाता है। व्रत धारण करने वाली स्त्रियाँ सात आसें पटा पर रखतीं हैं और पहले से ही पूर रक्खे गए चौक पर उस पटा को रक्खा जाता है। फिर पानी की भरी गगरी और चार कौड़ियों की पूजा होती है। किसी छोटे बालक द्वारा उन कौड़ियों को पासों की भांति पारा (फेंका) जाता है। तदुपरांत व्रतधारक स्त्री उन आसों को खाकर पूजा की गगरी का जलपान करती है। गनगौर की भांति ही पूजा के बाद स्त्रियाँ कहानी भी कहती हैं।
सिड़ौरा
यह पर्व वैशाख माह की अमावस्या को होता है और स्त्री-पुरुष सभी इसे समान रूप से मनाते हैं। कृषक गण इस त्यौहार को चौक पूरते हैं, उस पर भरा हुआ कलसा रखते हैं और इस कलसे पर गुड़ तथा सत्तू किसी कटोरे में भरकर रखा जाता है। तब फिर भूमि-पूजन कर बैलों और हरवारे को तिलक लगाया जाता है। इस तरह कृषिकार्य का उद्घाटन हो जाता है, जिसे ‘हरायतें लेना’ कहा जाता है।
अकती (अक्षय तृतीया)
वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में तीज के दिन नारी-उल्लास का यह पर्व कुंवारी कन्याओं एवं विवाहित महिलाओं के लिए अलग-अलग तरह से महत्व रखता है। इस पर्व को कृषक-नाण भी बड़े उत्साह और उल्लासपूर्वक मनाते हैं। वे चार कलशों में पानी भरकर पहले से पूरे गए चौक पर रखते हैं। इन घड़ों पर वर्षा के चार माहों- क्रमशः असाड़, सावन, भादों तथा कुंआर के नाम लिखते हैं। इन घड़ों पर अमियाँ (कच्चे आम) और रोटियाँ रखी जातीं हैं तथा प्रत्येक घड़े में चनों के दाने डाल दिए जाते हैं। फिर पूजा-होम आदि करके दूसरे दिन प्रतीक्षा की जाती है कि जिस घड़े के चने फूल जाते हैं, उस घड़े पर अंकित मास में ही वर्षा होगी, ऐसा अनुमान व विश्वास किसानों में होता है। इस तरह ही इस त्योहार से कृषि-वर्ष का आरम्भ माना जाता है। गाँव का लम्बरदार / जमींदार / मुखिया बसोरों से बाजा बजवाता हुआ किसानों के साथ खेत पर नया बखर लेकर जाता है। पंडित / पुजारी उस बखर की पांस पर गोबर और हल्दी लगाकर पूजन करता है। तदुपरांत खरीफ फसल के अन्नों ज्वार, उर्द, मूंग, तिल, मक्का आदि के दाने और सवा रुपया बखर पर रखकर मुखिया /जमींदार पूजन करता है। तब रुपये, दाने और मिट्टी को अपने हाथ से उठाता है और उन दानों को खेत में बोकर हल / बखर चलवा देता है। ऐसा ही अन्य किसान भी अपने-अपने खेतों पर जाकर करते-कराते हैं। अंत में सभी लोग मुखिया/जमींदार के घर जाते हैं जहाँ उन्हें पान और स्त्रियों को घुघरी (उबले हुए गेहूँ तथा चने) दिए जाते हैं। उधर कन्यायें और स्त्रियों संध्या होते ही अकती के गीत गाते हुए किसी सरोबर या नदी पर जातीं हैं और सोन (गले हुए देबल) वितरित करतीं हैं। कन्यायें पुतलियों सजातीं हैं और उनकी पूजा करती है। बालक पतंग उड़ाते हैं। स्त्रियाँ परस्पर हास्य-विनोद करती हुई अपने-अपने पतियों के नाम जोड़कर इस प्रकार रसमग्न होती है-
‘टाठी भरो घिऊ, हमाओ और … को एकई जिऊ।’
इसी प्रकार नवविवाहित किशोरियां भी ‘दिनरियाँ’ या ‘दुलरियों’ इन शब्दों में गाती है-
‘अकती खेलन कैसे जाऊँ री,
बर तरें मेले लिवौआ।
मेले री मेले मोरी सकियन के मेले।
ससुरा के संग न जाऊँ री,
बर तरें मेले लिबोना।’
इस हास-परिहास में देवर भी साथ रहते हैं। वे पूँछते हैं-
“हँस-हँस पूँछे देवरा सिया जू सों,
कहा पिया कौ नाव जू !
कौन वरन देइया, की के वश रऊत,
बसत की गाँव जू !!”
इस प्रकार बुंदेलखंड के ये दो पर्व सिड़ौरा और अकती शुरूआती पर्व हैं, जो हमारी संस्कृति के हास-परिहास युक्त सुमधुर कृषि कार्य के प्रतीक हैं।
बरा-बरसात
अकती-पूजन के बाद ज्येष्ठ मास के आगमन पर प्रथम पक्ष के अंतिम दिन (अमावस्या) बरा-बरसात का पावन पर्व बुंदेलखंड की स्त्रियाँ बरगद की पूजा कर मनातीं हैं। इस दिन गाती-बजाती महिलायें बरगद वृक्ष के समीप जाती हैं और वृक्ष के तने को सूत के धागों से लपेटतीं और श्रद्धापूर्वक पूजन करती हैं। सूत का इस तरह प्रयोग शायद सूत कातने के प्रति रुचि जागृत करने की दृष्टि से होता है। इस पर्व पर मान्य अतिथियों को भोजन पर आमंत्रित करने की परंपरा है।
असाढ़ी देवी-देवता
असाढ़ मास से वर्षागम माना जाता है। आगामी चार मासों में वर्षा की विकटता को देखकर देवी-देवतागण पाताल में राजा बलि के यहाँ-पाताल में चले जाते हैं। इसी मान्यता को दृष्टि में रख कर ही लोग गाँव के बाहर जाकर समस्त देवी-देवताओं की पूजा करते हैं और वहीं गकरियाँ बनाकर खाते हैं तथा पिकनिक का आनंद लेते हैं।
कुनघुसी पूनें
‘यन्त्र पूज्यन्ते नार्यास्तु, तत्न रमन्ते देवता’ की उक्ति को सही अर्थ में चरितार्थ करता बुंदेलखंड का यह पर्व असाढ़ मास की पूर्णिमा को हर घर में गृह लक्ष्मियों की पूजा से मनाया जाता है। इस उत्सव में सास घर की दीवार पर उतनी ही पुतलियाँ बनाती है जितनी उसकी बहुयें होती हैं और फिर उनकी पूजा करती है। पूजोफ्रांत इष्ट देवी से प्रार्थना करती है- ‘हे पत्मेश्वरी बहू ! घर में लक्ष्मी बनकर तू इस घर को धन-धान्य और सन्तान से भर दे।’ कुनघुसू पूनें को गुरुपूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है।
हरी ज्योति-पर्व
कुनघुसू पूनें को जिस प्रकार गृहवधुओं का पूजन किया जाता है, उसी प्रकार श्रावण कृष्ण अमावस्या को बेटियों की पूजा की जाती है। इस पर्व के दिन मातायें, भाभियाँ तथा घर की अन्य बड़ी जेठी महिलायें दीवार पर कन्याओं की पुतलियाँ बनातीं हैं तथा उनकी पूजा करतीं है। कन्याओं के प्रति सम्मान प्रकट करने वाला यह त्यौहार भी ‘जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का निवास होता है’ की उक्ति को चरितार्थ करता है।
श्रावण तीज
श्रावण शुक्ल तृतीया को मनाया जाने वाला यह पर्व ‘झूले का पर्व’ कहलाता है। वृक्षों पर झूले डाल कर स्त्री-पुरुष श्रावण-राग गाते हुए झूलने का पूरा आनंद उठाते हैं। वर्षा की बहार इस माह में पूर्ण यौवन पर होती है। चकरी, भौरा, चपेटा, बाँसुरी आदि से खेलते लोग आनंद-राग में खूब मौज मस्ती से सारे श्रावण-मास को सरस बना देते हैं। इसका अभिप्राय अच्छी फसल को आमंत्रण देना होता है। महिलायें अपने हाथ की हथेलियों पर मेंहदी रचाती है।
श्रवण शुक्ल
नवमी पर्व स्त्रियों का यह पर्व जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है सावन मास में शुक्ल पक्ष की नवमी को होता है। स्त्रियाँ आज के दिन व्रत रखतीं हैं और कुठिया (अनाज रखने का मिट्टी से बना एक पान) या कुठलिया को गोबर और पोतनी मिट्टी से लीप-पोतकर उसके ऊपर नी पुतरियाँ बनातीं हैं, उनकी श्रद्धापूर्वक पूजा करतीं और पकवान मिष्ठान चढ़ाकर परस्पर कहानी सुनातीं हैं। बुन्देली में कही जाने वाली इस कहानी का सारांश इस प्रकार है किसी समय पण्डित और पण्डितानी एक गाँव में रहते थे। बाल-बच्चे थे नहीं। खेती-बारी का धंधा था। पत्नी कुछ चटोरी किस्म की थी और प्रायः पति को मोटे अनाज को रोटी-दाल खेत पर दे आती और घर पर खूब पकवान आदि बनाकर उड़ाती। किसी प्रकार यह बात पण्डित को मालूम हो गई तो एक दिन खेत पर जाने का कह वे घर में ही एक कुठिया में छिपकर बैठ गए। उस दिन संयोग से श्रावण शुक्ल नवमी का दिन था। पण्डितानी ने पण्डित को गया समझ कुठिया की पूजा की और छिप कर बनाए गए पकवानों का भोग लगाकर नवमी की विनती, इन शब्दों में की-
“नमें बाई, नमें बाई नों बिड़ई खेव।
नमें खां रेव औ दसें खां घर जेव।।”
इसके उत्तर में कुठिया में छिपे पण्डित ने ‘हूँ’ कह कर स्वीकृति दी। पण्डितानी खुश होकर पास-पड़ोस की स्त्रियों को ले आई कि मेरी नमें देवी बोलतीं हैं। बस फिर क्या, पण्डित ने बाहर निकल पण्डितानी की पोल खोल दी। फिर एक दिन पण्डित जी ने भी हर पूजा के बहाने खूब पकवान तैयार कराए तथा खेत पर ले जाते हुए पण्डिताइन से बोले-हर की हरयानी, काऊ खाँ न देवी वायनी। बाद में पण्डित-पण्डितानी में परस्पर समझौता हो गया और तब से दोनों मिलकर रहने लगे। इस प्रकार यह पर्व पति-पत्नी को परस्पर मेल करके रहने की प्रेरणा देता है।
मामुलिया
वर्षा के मौसम में श्रावण-भादों के मास पर्वों के मास हैं। इनमें सर्वाधिक पर्व होते हैं जिनमें एक है लड़कियों का पर्व माहुलिया या मामुलिया जिसे लड़कियाँ खेल के रूप में मनाती हैं। लड़कियाँ बेरी की कांटेदार डाल के प्रत्येक कांटे पर रंग-बिरंगे अनेकानेक पुष्प, खीरे की फांकें, जलेबियों आदि से सजा-संवार कर पिरोती हैं जिसे ‘मामुलिया’ का नाम देती है। इस सजी-संवरी हुई डाल को भूमि पर सीधा खड़ा करती हैं। उसको घेरकर नाचती, गाती, बजाती हैं। फिर उसी प्रकार गाती-बजाती, उचकती, कूदती, नाचती हुई गाँव में घूमती हैं। गीत यों चलता रहता है
मामुलिया ! मोरी मामुलिया! कहाँ चली मोरी मामुलिया।।
मामुलिया के आए लिवौआ, झमक चलीं मोरी मामुलिया।
ले आओ-ले आओ चम्पा चमेली के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया।
ले आओ-ले आओ घिया तुरैया के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया।।
जहाँ राजा अजुल जू के बाग, झमक चलीं मोरी मामुलिया।
मामुलिया ! मोरी मामुलिया! कहाँ चलीं मोरी मामुलिया।।
गाती-नाचती ये लड़कियाँ गाँव का चक्कर लगाकर किसी तालाब में “मामुलिया’ को सिरा देती हैं। फिर ककड़ी-खीरे खाकर अपने-अपने घरों को लौट जाती हैं। इस समय वे पीछे घूमकर नहीं देखतीं क्योंकि उनका विश्वास है कि पीछे घूम कर देखेंगी तो उन्हें भूत लग जाएगा। इसलिए वे यह कहती हुई भागती हैं- ‘पन्ना के भूत लगे तीन।’ लड़कियाँ इस खेल ‘मामुलिया’ को वर्ष में कई बार खेलती और मौज-मस्ती करती हैं।
कजली अथवा भुजरियों का पर्व
श्रावण मास में यह पर्व होता है। पत्तों के छोटे-छोटे दोनों अथवा मिट्टी के पात्रों में गेहूँ या जी के पौधे उगाए जाते हैं। आठ दिनों के अंदर उगाए गए इन पौधों को श्रावण मास की पूर्णिमा तथा भाद्रपद की प्रथम प्रतिपदा को गाँव के बाहर स्थिर सरोवर में सिराया जाता है। आल्हा ऊदल के नगर महोवा में यह पर्व बड़े उत्साह और उल्लासपूर्वक मनाया जाता है।
हरछठ
भादों बदी छठ को स्त्रियाँ यह पर्व मनातीं हैं, जो श्रीकृष्ण के अग्रज बलराम का जन्मदिन भी है। संतान हित में मनाये जाने वाले इस पर्व को स्त्रियाँ व्रत रखतीं हैं और स्वयं उत्पन्न हुई खाद्य-वस्तुयें तथा भैंस का दूध, दही, मक्खन, घी आदि खातीं हैं। जोत-बोकर पैदा किया गया अन्न या फल वे नहीं खातीं।
संतान-सातें
भाद्र पद शुक्ल की सप्तमी को यह पर्व अपनी संतत्ति की आयुवृद्धि हेतु स्त्रियाँ मनातीं है और व्रत रखतीं हैं। उस दिन सात पुन अथवा सात मीठी पूड़ियाँ वे खाती हैं। सोना या चाँदी की उतनी चूड़ियाँ बनवा कर, जितनी संतानें होतीं हैं, हर स्त्री उनकी (चूड़ियों की) पूजा करती है और पहनती हैं।
नौरता और झिंझिया
क्वांर मास के शुक्ल पक्ष की परवा से नवमी तक मनाया जाने वाला यह पर्व कुंवारी (अविवाहित) कन्याओं का त्यौहार है। कई दिनों पूर्व से इस त्यौहार के लिए कन्यायें पत्थर गिट्टी को महीन पीस कर चूरा (दुधि) बनातीं हैं जिसमें विविध प्रकार के रंग मिलाकर रंग-बिरंगे चूरे से नौ दिन तक अपने पड़ौस के चुने हुए चबूतरे पर विभिन्न प्रकार के चौक पूरतों हैं। मां गौरी की प्रतिमा सजाकर उसकी पूजा करतीं हैं। प्रातःकाल नित्य नौ दिनों तक यह कार्यक्रम चलता है जिसके साथ-साथ वे लड़कियाँ प्रातः की मधुर वेला को अपने इस गीत से और सरस बना देतीं है-
हिमांचल जू की कुंवरि लड़ांयती, नारे सुआटा,
मेरी गौरा बेटी नेबातौ बनइयो बेटी नौ दिना,
नारे सुआटा, दसारे दिन करहों सिंगार।
प्रातःकालीन बेला को पावनता प्रदान करते और भाइयों को जगाने की प्रेरणा देते गीत आगे चलता है-
उठौं उठौं सूरजमल भैया भोर भये, नारे सुअटा,
मालिनीं खड़ीं हैं तेरे द्वार।
इन्दरगढ़ की मालिनीं नारे सुअटा,
हाटई हाट विकाय।
उठो, उठो चन्द्रामल भैया भोर भये, नारे सुअटा,
मालिनीं खड़ीं हैं, तेरे द्वार।
इन गीतों की डोर काफी लम्बी है जिसे ये लड़कियाँ निरंतर गाती हुई अपने-अपने चौक पूरतीं रहती है। इन लम्बे गीतों में अपने भाई-बहिनों तथा उनके आभूषणों के नाम जुड़ते चले जाते हैं। साथ ही अपनी गौर की अच्छाई और पराई गौर की बुराई का बखान होता चलता है। सात दिनों तक चले इस प्रातःकालीन क्रम में थोड़ा परिवर्तन आठवें दिन होता है। तब कन्यायें ‘सुअटा’ न खेलकर रात्रि में झिंझिया का खेल खेलती है। यह खेल ‘झिंझिया’ गीत गायन करते हुए संध्या के उपरांत सम्पन्न होता है जिसमें एक कोरे घड़े में अनेक छेद कर लिए जाते हैं। उस घड़े में जलता हुआ दिया रखकर लड़कियाँ उसे सर पर रखे हुए झिझिया गीत गाती हुई द्वार-द्वार जाकर आटा, अनाज व पैसों की उगाही करती है जिसे ‘डिरिया’ मांगना कहा जाता है। गीत की शुरुआत इस तरह होती है-
पूँछत-पूँछत (बुझत-बूझत) आये हैं,
नारे सुअटा, कौन गली तोरी पौर,
बड़ी अठारी बड़े ढवा,
नारे सुअटा, बड़ेई तुम्हारे नांव।
यह गीत काफी लम्बा है जो ये लड़कियाँ गाती हुई गाँव का चक्कर लगाती हैं। फिर किसी सरोवर या सरिता में ‘डिरिया’ सिरा दी जाती है और अपनी वसूली से ‘गोट’ या हप्पू’ (एक प्रकार की बुंदेलखंडी पिकनिक) का सामूहिक आयोजन करती है। ‘सुअटा’ और ‘डिरिया’ गीतों के बीच हमें इस आरती को भी नहीं भूलना चाहिए जो बीच-बीच में गौरी-पूजन के समय लड़कियाँ गाती हैं-
झिलमिल झिलमिल आरती,
महादे तोरी पारती।
को बऊ नौनी, चन्दाबलि नौनी,
मुरजावलि नौनी,
नौनी तो नौनी, भौजी भौत सलौनी।
विरन हमाए भौजी कन्त तुमाये,
झिलमिल ……………..
महालक्ष्मी और इंच्छा नौमी
क्वांर मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को महालक्ष्मी पर्व का आयोजन स्त्रियों लक्ष्मी-पूजन करके करती हैं तथा कार्तिक सुदी नवमी को इंच्छा नौमी का पर्व आंवले के वृक्ष की पूजा करके मनाया जाता है। आंवले के वृक्ष की इतनी पवित्रता मानी जाती है कि इस दिन उसके नीचे ब्राह्मण भोज कराने से किसी के भी धन-हरण का पाप मिट जाता है तथा मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
टीसू' या 'टेसू' पर्व
क्वांर मास में शुक्ल पक्ष के आरम्भ होते ही ‘नौरता’ अथवा ‘सुअटा’ का बेलोत्सव जिस प्रकार कन्यायें प्रातःकालीन बेला में अपने मधुर कंठ से ‘नौरता’ गीत गाकर गातीं हैं, उसी प्रकार अष्टमी के दिन बुंदेलखंड के बालक ‘टीसू’ या ‘टेसू’ का खेलोत्सव मनाते हैं, जिसमें ये लड़के मिट्टी, बांस, खपच्ची आदि सामग्री से तीन टांग वाला पुतला बनाकर रूई और रंग-बिरंगे कपड़ों व कागजों से बढ़िया सजाते हैं और फिर उत्साह तथा उल्लासपूर्वक गीत गाते हुए जुलूस निकालते हैं। तीन टांगों और चार भुजाओं वाले साज-सज्जित इस पुतले के साथ ही एक बालक को भी टेसू की भांति सजाया जाता है जो अपने ‘टेसू’ की स्तुति-गान करता चलता है। एक ओर जहाँ कन्याये झिझिया गीत गाती हुई अपनी सरस स्वर लहरियों द्वारा मानस के मन को मोहती चलती हैं, तो दूसरी ओर ये किशोर बालक टेसू गीत इस प्रकार गाते हुए जनमानस का मनोरंजन करते द्वार-द्वार घूमते हैं-
टेसू अगड़ करें, टेसू बगड़ करें।
टेसू झगड़ करें, टेसु लेई कें टरें।।
टेसू मारें घर बल्लायें,
चकिया-चूल्हे सब वह जाये।
पानी पीते तीन घड़ा, खाने को चाहिये तीन पड़ा।
टेसू बब्बा हैंई अड़े, खाने को मांगे दही बड़े।
दही बड़े में मिर्ची भौत, टेसू पहुंचे कानी हौद।।
टेसू बब्बा कों के ? धरम पुरा के।
टेसू जाते द्वार द्वार, हाथ लिए पैनी तलवार।।
टेसू लिए वीर कौ रूप, वे हैं बुंदेलखंड के भूप।
उनकी अजब निराली शान, भागें नर या हों शैतान।।
इसलिए दैदो इनकी चौथ, चाहे थोंड़ी ही या भौत।
इससे बे टकराते पामर, जिनकी खड़ी सामने मौत।।
इस प्रकार एकत्र किया गया अन्न-धन शरद पूर्णिमा के दिन वीर ‘टेसू’ और ‘सुअटा’ सुन्दरी के विवाह के उपलक्ष में आयोजित प्रीतिभोज पर व्यय होता है। ऐसा लगता है कि यह उत्सव बच्चों के भावी जीवन की तैयारी का पर्व है।
करवा-चौथ
कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को सौभाग्यवती नारियाँ अपने पति की रक्षार्थ जो व्रतोत्सव मनाती हैं, वह सम्पूर्ण बुंदेलखंड में करवा चौथ के नाम से जाना जाता है। स्त्रियाँ स्नान करके चौक पूरती हैं। उस पर पटा रखती हैं। उस पटे पर जलभरा लोटा रखा जाता है। मिट्टी का एक करवा भी रखा जाता है जिसमें गेहूँ भरे होते हैं। करवे पर रखे ढक्कन में कुछ रुपये-पैसे और चीनी भर दी जाती है। फिर रोली, गुड़, चावल आदि से पूजन होता है। करवे का टीका तेरह बार किया जाता है, तथा उसे पटे के चारों तरफ घुमाया जाकर उसी पर रख देते हैं। तब लोटे को, जिसे श्री गणेश जी का कलश कहते हैं, गुड़, चावल आदि स्त्रियों द्वारा ही चढ़ाया जाता है। हाथों में गेहूँ के तेरह दाने लेकर स्त्रियाँ करवा चौथ पर्व की कथा का श्रवण करतीं हैं। कथा सुनने के बाद करवा पर हाथ फेरतीं हैं और फिर अपनी-अपनी सासों के चरण स्पर्श करतीं हैं। हाथों में लिए गेहूँ के दानों और कलश को फिर यथा स्थान रख देती हैं। रात्रि में चन्द्रदर्शन के उपरांत उसे अर्घ्य देकर प्रसाद ग्रहण करतीं हैं। इस तरह दिनभर रखा गया स्त्रियों का व्रत रात्रि में खुलता है और वे प्रसन्नता-पूर्वक वस्त्राभरण धारण कर खूब सजती-संवरतीं हैं।
बुंदेलखंड में इन लोक-पर्वों के अलावा तीजा, ऋषि-पंचमी, गड़ालेनी आठें, ढोल ग्यारस, मैराईछठ, बाबू की दोज, अनंत चौदस आदि तीज-त्यौहार भी श्रद्धा-विश्वास के साथ मनाए जाते हैं। दशहरा, दीपावली, होली आदि धार्मिक सामाजिक पर्वों के साथ-साथ स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, गांधी जयंती आदि राष्ट्रीय पर्व भी हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं। इन सबमें होली और दीपावली पर्वों में बुन्देली छाप क्रमशः फाग-गायन और भौनियों लोकनृत्यों में दर्शनीय होती है। होली पर राई नृत्य और फाग-गायन की अनोखी धजा बुंदेलखंड में ही देखने को मिलती है। बुंदेलखंड के इन लोक-पर्वों में लोकसंस्कृति कूट-कूट कर भरी हुई है जो वैज्ञानिक दृष्टि से भी कम महत्वपूर्ण नहीं।