खंड-2 लोकवार्ता के तत्व तथा लोक-मानस
March 28, 2025खंड-4 बुंदेली लोक साहित्य की विधाएँ
April 8, 2025‘‘बुंदेलखंड में बोली जाने वाली भाषा बुंदेली भाषा कहलाती है। यहाँ का लोक साहित्य बुंदेली लोक साहित्य कहलाता है। बुंदेली वस्तुतः बुंदेलखंड जनपद की भाषा है। बुन्देले राजपूतों की प्रचीनता के कारण ही इस प्रदेश का नाम बुंदेलखंड तथा इसकी भाषा का नाम बुंदेली पड़ा है। इण्डियन गजेटियर के अनुसार बुंदेलखंड की सीमा-उत्तर में यमुना नदी, उत्तर तथा पश्चिम में चम्बल नदी, दक्षिण में मध्यप्रदेश के जबलपुर तथा सागर जिले तथा दक्षिण-पूर्व में रीवा अथवा बघेलखण्ड एवं मिर्जापुर के पहाड़ हैं।’’
(अ) लोक साहित्य के अध्ययन की ऐतिहासिक दृष्टि एवं बुंदेलखंड
साहित्य निर्माण में शिष्ट भाषा एवं लोक भाषाएँ एक साथ प्रयुक्त होती हैं। इनके ऐतिहासिक विकास क्रम में एक सिद्धान्त लागू होता है जो ‘‘भाषा के साहित्यिक भरण’’ से सम्बन्ध रखता है। ‘‘जब कोई बोलचाल की भाषा व्याकरण के नियमों से परिनिष्ठित होकर साहित्यिक भाषा बन जाती है तो उसके कुछ आगे बढ़ी हुई भाषा बोलचाल की भाषा का स्थान ग्रहण कर लेती है। धीरे-धीरे साहित्यिक भाषा रूढ़ग्रस्त होकर नवीन साहित्य प्रवृत्तियों के विकास में पूर्ण योग देने योग्य नहीं रह जाती, तब उससे आगे बढ़ी हुई बोलचाल की भाषा का संस्कार होता है और वह साहित्यिक प्रवृत्तियों के विकास में सहायक होती है। हिन्दी के प्राचीन रूप से पूर्व परिनिष्ठित अपभ्रंश साहित्यिक संस्कार से पूर्ण भाषा थी और कुछ आगे बढ़ी हुई बोलचाल की देश भाषा प्रचलित थी। धीरे-धीरे परिनिष्ठित अपभ्रंश ‘साहित्यिक भरण’ को प्राप्त हुई और उससे आगे बढ़ी हुई देश भाषा या लोक भाषा में उसका स्थान ग्रहण किया।’’
देश की प्रान्तीय विभाषाओं या बोलियों का जन्म इसी सिद्धान्त के आधार पर, विभिन्न अपभ्रंश बोलियों से हुआ है। बुन्देलखण्डी, शौरसेनी प्रकृति की प्रपौत्री, शौरसैनी अपभ्रंश की पौत्री हैं और पश्चिमी हिन्दी की पुत्री के रूप में राष्ट्रभाषा से सम्बन्धित है। बृजभाषा, खड़ी बोली, कन्नौजी, बांगरू आदि उसकी सगी बहनें हैं। बृज, कन्नौजी एवं बुंदेली का विकास वैदिक (छांदस), पांचाली शौरसेनी पाली, पांचाली शौरसेनी प्राकृत और पांचाली शौरसेनी (मध्य देशीय) अपभ्रंश से क्रमशः हुआ है। वस्तुतः हिमालय की तराई से लेकर सतपुड़ा के समीप तक कन्नौजी, बृज, बुंदेली के रूप में एक ही भाषा प्रवाहित है। पश्चिमी हिन्दी की उपभाषा होते हुए भी बुन्देलखण्डी अपने फैलाव सामर्थ्य के बल पर विभाषाओं की श्रेणी में आ सकती है।
बुंदेली में विशेषतया आनुवंशिक रूप में शौरसेनी प्राकृत, शौरसेनी अपभ्रंश तथा पश्चिमी हिन्दी का प्रभाव है। इस पर बुंदेलखंड की भौगोलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थिति का भी प्रभाव है जिससे इसके रूप में नया परिवर्तन हुआ है। बुंदेली का आदर्श रूप झाँसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, चरखारी, दतिया, बिजावर, सागर, दमोह आदि में मिलता है। बुंदेली के प्राचीनतम रूप में आज अधिक हेर-फेर हो गया है। नवीन रूप अन्य बोलियों से प्रभावित है किन्तु इसका विशुद्ध रूप प्राचीन लोक साहित्य में अभी भी उपलब्ध होता है।
हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ, पृष्ठ 3-4, डॉ. जय किशन खण्डेलवाल
बुंदेली भाषा की सीमाएँ
बुंदेली के पूर्व में, पूर्वी हिन्दी से विकसित बघेली का क्षेत्र है। उत्तर में पश्चिमी हिन्दी की कन्नौजी और बृज भाषा शाखा, उत्तर पश्चिम में राजस्थानी की शाखाएँ तथा मालवी और दक्षिण में मराठी की शाखाऐं हैं। बुंदेली इन भाषाओं एवं जनपदियों के सम्पर्क में आकर विकृत रूप में प्राप्त होती है।
बुंदेली के ऐतिहासिक विकासक्रम में स्वतंत्र साहित्य का विशेष विकास नहीं हो सका है। इसका मुख्य कारण बृजभाषा में साहित्य रचना होना है। काव्य रसिक ओरछा बृजभाषा में काव्य रचना करता रहा है। बुंदेली पुट उसमें अवश्य विद्यमान है। इसके बावजूद भी बुंदेली का जितना साहित्य है उसकी मधुरिमा अन्य भाषाओं से कहीं अधिक है।
(ब) लोक साहित्य के विकास के आधार :
लोक कवि जो कुछ प्रकृति एवं जगत में देखता है उसकी तीव्र अनुभूति कर, अभिव्यक्ति करता है, वही लोक साहित्य कहलाता है। साहित्य का विकास सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक रूपों में विकसित होने के साथ होता चलता है। ये ही लोक साहित्य के विकास के आधार कहे जा सकते हैं। एक समय था जब स्त्री पुत्रवती होने पर हर्षित होती थी। आठ बच्चों की माँ शुभ मानी जाती थी। ‘‘तिरिया सुहानी रे जबहीं लगे, जब ललना खेले थोर की दोर’’। समय परिवर्तन के साथ आज उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। इन्हीं भावनाओं को समयानुसार लोक कवि लोक साहित्य का आधार बनाता है।
सामाजिक आधार
किस प्रकार समाज अपना क्रम बदलता जाता है उसी प्रकार साहित्य भी अपने रूप को समाज के अनुरूप कर लेता है। प्राचीन समय में समाज के रिश्ते, भाई-बहिन, माता-पिता, पुत्र-पुत्री सभी के सम्बन्ध अत्यधिक मधुर होते थे किन्तु आज जगत में सभी रिश्ते गौण हो गये हैं सिर्फ पैसा प्रधान है। इसी तथ्य को एक उचित में दर्शाया गया है- ‘‘बैंन बड़ौ न भइया, सबसें बड़ौ रुपइया’’।
राजनैतिक आधार
कवि राज्य की स्थिति के अनुरूप चित्रण करता है। आल्हा लोक गाथा इसका प्रमाण है-
बड़े लड़इया महुवे बारै, इनसे हार गई तरवार।
खट-खट-खट-खट तेगा बोले, बोले झपक-झपक तरवार।।
किन्तु आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। तलवार का काम बन्दूक करने लगी है। बन्दूकों का आधार ग्रहण कर ईसुरी ने नायिका के नेत्रों की उपमा उनसे दी है।
अँखियाँ पिस्तौलें सीं भरकैं, मारत जात समरकैं।
दारू दरज लाज की गोली, गज कर देत नजर कें।
देत लगाव सेन की सूजन, पलकी टोपी धरकें।
ईसुर फेर होत फुरती सें, कोउ कहाँ लौ बरकें।।
बुंदेलखंड में हिन्दू राजाओं के शासन एवं अँग्रेजों के शासन का समयानुसार चित्रण हुआ है और स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभ होते ही, गाँधी जी लोक साहित्य के विषय बन गये हैं।
अँग्रेजों की प्रशस्ति-
देखो अँगरेजन चतुराई, कर से रेल चलाई
सन-सन-सन-सन चली जात है, फिर नई छिड़त छिड़ाई।
बापू की प्रशस्ति –
गाँधी तुम हौ गुरू गुसईंया, परूँ तुमारी पईंया।
जगा दये भारत के वासी, दे-दे सत्य धनैंयाँ।
तारे धूत अछूत विधरमीं, उड़ी छूत की छईयाँ।
कहत महेस कलेस नसाकें, घालीं दीन चिरईयाँ।।
आर्थिक आधार
बुंदेली लोक साहित्य के विकास का आधार यहाँ की आर्थिक स्थिति रही है। प्राचीन समय में जैसी अर्थव्यवस्था थी उस दयनीय स्थिति का चित्रण लोक साहित्य में उपलब्ध है। ‘‘पर जावै सूका तोरी साल, हमाई ननद बिका गई फंदइया सी’’। इस गीत की पंक्ति दर्शाती है कि अकालों में मनुष्य तक बिक जाते थे। प्राचीन समय में पैसे की क्रय शक्ति अधिक थी सम्वत् 1899 में घटकर इस प्रकार हुई। देखिये –
निन्नयान्वे की साल में, जो पर गओ कठिन समस्या।
रुपयाकिलो बिकानी शक्कर, घी ने मारी सौ पै टक्कर।
अरे हो रई हा-हा दइया।
समय बदला; अब वस्तुऐं आसानी से प्राप्त नहीं होती हैं प्रत्येक वस्तु पर कन्ट्रोल है। लोक कवि पुकार उठता है- ‘‘ठाँड़े कन्ट्रोल के दौरे, अपने दाँत निपौरें। इस तरह बुंदेलखंड की बदलती आर्थिक स्थिति के साथ लोक साहित्य विकसित होता रहा है।
धार्मिक आधार :
प्राचीन बुंदेलखंड में देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी। इन भावों की व्यंजना देवी के भजन, पवारें-गाथाओं में उपलब्ध होती है। पहले पत्थर पूजा को महत्व दिया जाता था किन्तु आधुनिक युग में इसका विरोध हुआ है। देखिये-
का मिल जात दतरिया पूजें, तुमें कछू ने सूजें।
पूजन करत सदा जड़केरौ, जड़ बुद्धि बन गूँजें।
पूजों सदा आत्मा भूकी, सादू सज्जन पूजें।
बल्देव सदा असीसें तुमकों, सुख सों जीवन मूजें।
अर्थात् धर्म की मान्यताओं के अनुसार लोक साहित्य गतिशील रहा है।
सांस्कृतिक आधार
बुंदेली लोक साहित्य बुंदेलखंड के जन-जीवन के सांस्कृतिक आधार को लेकर विकसित हुआ है। आनार्य संस्कृति के लोक विश्वास, अन्धविश्वास एवं रूढ़ियाँ इसमें व्यक्त हुई हैं। समयोपरान्त आर्य संस्कृति की भावनाऐं अनार्य संस्कृति में मिल कर लोक साहित्य का विषय बन गई। तदन्तर मुसलमानों की संस्कृति, रीति-रिवाज, खान-पान, अँग्रेजों की पाश्चात्य संस्कृति इस प्रदेश की संस्कृति को प्रभावित करती रही है। इन सभी परिवर्तनों को बुंदेली लोक साहित्य में देखा जा सकता है। आर्य समाज की स्थापना से हिन्दू धर्म एवं हिन्दुओं के संस्कारों की रक्षा हुई। इन भावों को एक फाग में देखिये –
जग में दयानन्द न होते, कइयक फिरते रोते।
हिन्दू सें ईसाई बनते, मुसलमान के पोते।
आर्य धरम जिन केर चलाओ, जगा दियो जग सोते।
करौ भजन बलदेव ओमकर, खाव न जग के गोते।।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है, बुंदेली साहित्य, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आधारों पर उत्तरोत्तर विकसित हुआ है।
(स) लोक साहित्य के विकास के चरण :
लोक साहित्य के विकास के चरण :
बुंदेली लोक साहित्य के विकास को देखते हुये इसे हम तीन कालों में विभाजित कर सकते हैं- 1. आदि काल, 2. मध्य काल, 3. आधुनिक काल।
आदि काल – बुंदेली भाषा का साहित्य लगभग बारहवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है। सन् 1180 ई. में महोबा के राजा परमाल के दरबार में जगनिक कवि हुये थे उन्होंने आल्ह खण्ड तथा महोबा खण्ड की रचना की थी। आल्हा खण्ड मूल बुंदेली भाषा में लिखा काव्य है इसमें बनाफर वंश के आल्हा ऊदल वीरों की वीरता का वर्णन है। मौखिक परम्परा में यह ग्रन्थ अब तक विद्यमान है किन्तु जगनिक का मूल हस्तलिखित ग्रन्थ अप्राप्त है। आल्हा के समय या काल से पूर्व की घटनाओं का वर्णन, जगदेव के पंवारों, देवी के भजनों एवं कुछ गीतों में प्राप्त होता है जिन्हें इस काल के अन्तर्गत रखा जा सकता है। इस काल में लिखित शुद्ध बुंदेली लोक साहित्य का अभाव है।
मध्य काल : मध्य काल में बृजभाषा इतनी गौरवमयी रही है कि बुंदेली का साहित्य इस काल में सृजित ही नहीं हो सका है। बुन्देल भूमि के कवि विष्णुदास के अतिरिक्त गोस्वामी तुलसीदास, केशव एवं बिहारी जैसे कवियों ने बुंदेली में काव्य सृजन नहीं किया है। उनके काव्य में बुंदेली भाषा के शब्द प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुये हैं। इस काल में लोक गीतों का सृजन अवश्य हुआ है किन्तु सृजनकर्ताओं एवं सृजन के समय का पूर्ण अभाव इन गीतों की अपनी विशेषता है। मुगलों के अत्याचारों का वर्णन होने से इनके समय का आभास मात्र मिलता है। मथुरा वाली एवं मानो गूजरी के गीत ऐसे हैं जिनमें मुगलों से संघर्ष होता है। ये सती देवियाँ मुगलों का प्रणय निवेदन ठुकराकर अपने सतीत्व की रक्षा करती हैं। इस तरह इस काल में भी फूटकर लोक गीतों के अतिरिक्त विशेष साहित्य का अभाव है।
आधुनिक काल : आधुनिक काल बुंदेली लोक साहित्य के सृजन का गरिमामय काल कहा जा सकता है। इसके पहले के कवियों पर मात्र बुंदेली की छाप है। ‘‘बुंदेलखंड की गहरी छाप बृज के अनेक बड़े-बड़े कवियों पर पाई जाती है। कभी-कभी तो वह बिल्कुल बुन्देलखण्डी जान पड़ने लगते हैं। मध्यकाल और आधुनिक काल के संक्रमण काल के कवि बख्शी हंसराज के पश्चात् ठेठ बुन्देलखण्डी में कई कवि हुए हैं जैसे- एनसांई, ईसुरी, गंगाधर।’ वास्तव में इस काल के प्रमुख बुंदेली जन कवि ईसुरी, गंगाधर, ख्याली, ऐनसाईं ने ही बुंदेली के साहित्य की सच्ची सेवा की है। इन कवियों ने अपनी कविताओं से बुंदेली के रिक्त कोष को भरा है। उनसे प्रेरित होकर ही अन्य कवियों ने रचनाएँ की हैं।
ईसुरी
ईसुरी बुंदेलखंड के जयदेव हैं। इनका जन्म सम्वत् 1865 तथा मृत्यु सम्वत् 1966 है। ईसुरी जनप्रिय कवि हैं इन्होंने जन-जन की भावनाओं की अनुभूति गहराई से की है इसीलिए उसकी अभिव्यक्ति इतनी सफल बन गई है कि प्रत्येक श्रोता के हृदय पर इनकी फागों की चोट होती है। मानव का जन्म पुण्य करने से होता है अतः लोभ को छोड़कर धर्म पुण्य करना चाहिए। इसी सम्बन्ध में ईसुरी ने कहा है-
मानस बड़े भाग सें होवे, रजऊ छोड़ दो लाये।
संसार में कोई किसी का नहीं है। भगवान का भजन ही सार है। अतः भगवान का भजन करना चाहिए। देखिये-
भज मन राम सिया भगवानें, कछु संग नईं जानें।
भाई बन्द अरू कुटुम कबीला, जे स्वारत सब जानें।।
ईसुरी ने कितना बड़ा सत्य दो पंक्तियों में ही कह दिया है। इसीलिए ईसुरी की फागों की विशेषता के सम्बन्ध में कहा है-
रामायण तुलसी कही, तानसेन ज्यों राग।
सोई ई कलिकाल में, कही ईसुरी फाग।
छतरपुर निवासी गंगाधर जी व्यास ने ईसुर एवं रसिया की फागों पर मुग्ध हो कहा है-
गंगाधर, ईसुर, रसिया ने, फाग कहे के जादू।
सुनतन लगै लुगायन आँदूं, बाय गिने न दादू।।
श्री गंगाधर व्यास
जन्म सम्वत् 1899, मृत्यु सम्वत् 1972। आप बुंदेलखंड की त्रयी के दूसरे कवि हैं। आपने बुंदेली में सैर एवं फागें लिखी हैं जो अति उत्तम हैं। बुंदेली ग्रामीणों का चित्र देखिये-
गमहयाँ फिरैं नाँय के माँय, दीनन मर-मर सतुआ खाँय।
मूछें फिरें भिड़ायँ, पौदन पाछूँ खुसी थैलिया, चूना तमाखू खाँय।
पित से न्यारे डारत जायें, गमहयाँ फिरैं नाँय के माँय।
लऐं संग में मौड़ी मौड़ा, तिनें फिरैं डुरयांयँ।
जब राजा की कड़ी सवारी, हाथी देख डरांयँ।
अरे तो हतै आंय औ जांय
धजी गजी की बंदी मूँड़ पै, टोपी फटी लगांयँ।
चुटइयाँ फंडी सी फारांय।
गंगाधर कऐं गुलै तिवारी, किनें-किनें समजांय।
गंगाधर जी ने बुंदेली नारी को पुत्र कामना परक ललक को एक फाग में इस प्रकार कहा है-
तुमलों लला-लला मर जानें, एक लला के लानें।
बहुतक पूजे देवी-देवता, भूत प्रेत ओ दानें।
जन्त्र मन्त्र चेटक ओ टोंना, कर-कर हारै स्यानैं।
कइयक गड़ा तमिजियां बाँदी, तोऊ न लगीं ठिकानें।
जौ है हाल कहत गंगाधर, करम करे मनमाने
श्री ख्याली राम
जन्म सम्वत् 1906, मृत्यु सम्वत् 1961, बुंदेली लोक त्रयी में आपका तीसरा स्थान है। इनकी फागें ईसुरी की फागों के समकक्ष बन पड़ी हैं। प्रस्तुत फाग में कृष्ण की छवि का बड़ा ही सुन्दर चित्रण है-
एैसी कस बाँधन कटिपट की, जा अटपट तिरपट की।
कुहरे छटा छोट जामा की, लटकन मोर मुकुट की।
दै तिरपुंड श्री खण्ड तिरभंगी, चाल जमुन के तट की।
कवि ख्याली बनमाली की छवि, राधा के मन खटकी
श्री प्यारे जू :
जन्म सन् 1901, मृत्यु सन् 1948। श्री प्यारे जू ने अपने जेल जीवन में फागों, सेरों, नारियों एवं दादरों का सृजन किया है। विरही को कृष्ण की छवि विस्मृत नहीं हो रही है। देखिये –
छग में फूलत मूलत नइयाँ,
सीस मुकुट मकराव्रत कुण्डल, वनमाला सांमत हिय मइयाँ, नीकी गुइयाँ।
वन्दत चरण कमल प्यारे जू, करियो दीन जान के छइयाँ, त्रिभुवन सइयाँ
श्री मनभावन
जन्म सम्वत् 1929, मृत्यु सम्वत् 1947। आपने बुंदेली में सुन्दर फागों का सृजन किया है। वंशी स्वर में मुग्ध गोपियों की मनोदशा देखिये-
भई विवस बाँसुरी चोरन में, विस भरौ बाँस की पोरन में।
विकल भई थांई बृजबाला, लाला तज-तज खोरन में।
सिर में ओढ़ घाँघरों लीनों, विछिया कर के पोरन में।
कर सिंगार आभूषण उलटे, सिंदूरा दे दृग कोरन में।
मनभावन जा मिली श्याम सौं, कामिन काम मरोरन में।
श्री रसिया
(जन्म सम्वत् आदि अप्राप्त हैं) बुंदेली के रसिया कवि ने विरह जन्य सुन्दर फागों का निर्माण किया है जिनमें स्वः अनुभूति का प्रावधान है। इन्हें बुंदेली का घनानन्द कहा जाता है। प्रेम की धीर का चित्रण देखिये-
जा भई दसा प्रीत में फस कें, निर्मोहीं सें गस कें।
मूँदी चोट लगी हाड़न में, गुरा-गुरा सब कसकें।
नई रऔ माँस रकत की बूँदा, कड़ै न मसकैं-मसकें।
भिद गऔ जहर रोम-रोमन कें करिया डस गओ हँस कें
श्री वजीर मुहम्मद
जन्म सन् 1900, मृत्यु सन् 1948। आपने बुंदेली लोक गीतों में गरियों और दादरों का भण्डार भरा है। प्रस्तुत गारी में बुंदेली कृषक का यथार्थ चित्र उभरा है।
सबसें बज्जुर है छाती किसान की, खबर नई रात जान की।
ठनको कास्तकार को सीनां, जबसें लागौ जेठ महीना।
टपकै ऐड़ी तलक पसीना, खाद कूड़ा में सुद भूली प्रान की।
खबर नई रात जान की।
गाड़ी भर-भर कैं ले जावै, चाये लपट भले लग जावै।
ठंडी चीज कभऊँ नईं खावै, जो हिम्मत तौ देखो बलवान की।
खबर नई रात जान की।
करकैं बैला की जब सानीं, रोटी लएँ ठांड़ी तब रानी।
ठंडो चपिया में भर पानी, सूकी रोटी पै जिन्दगानी किसान की।
खबर नई रात जान की।
श्री हरनाथ भट्ट
जन्म सम्वत् 1975, हरनाथ जी छतरपुर में रहते हैं। आपने बुंदेली भाषा में गारियाँ एवं लेदें रचीं हैं। परिवार नियोजन पर इनकी कविता देखिये-
चौथौ पलना न घालौ भौजी अँगना, बिक जैहै तोरो कँगना।
भौजी एक बात हम काबैं, थोरो कातन में सरमावैं।
बालक तीन सें ना बड़ पावैं, जो कऊँ मइया डाँट बतावें।
कहबो नस को चलो है वंदना।
जिनकें जादा लरका वारै, वे तो फूटे भाग हमारे।
उननें दुख के बैलए व्यारे, पटका ओड़ें फिरें विचारे।
उनके तन पै नईं फंगना।
दो बालक में सुख को डोरो, जादा दवे न ऊपर फोरो।
नईंतर हुइओ सूख ठटेरो, जो है चिरइया रैन बसैरो।
जादा केल में नई रंगना
इसके अतिरिक्त अन्य कवि भी बुंदेली भाषा में काव्य रचना कर रहे हैं। भूपत सिंह यादव कठोपारी, परम काछी चिरगाँव, दुर्गेश दीक्षित कुण्डेश्वर, हास्य कवि चतुरेस दतिया, कुँवर सन्तोष सिंह बुन्देला पहाड़गाँव, कवि रामनाथ गुप्त, हरदेव छतरपुर, रामचरन हयारन मित्र झाँसी आदि मुख्य हैं। इनका योगदान बुंदेली साहित्य को गति प्रदान करता है।
वास्तव में बुंदेली का आधुनिक काल विविध विषयों को लेकर पनप रहा है। ओरछा के ठाकुर भगवान सिंह गौर ने ‘‘अथाई की बातें’ बुंदेली गद्य में लिखीं हैं जिससे गद्य का विकास हुआ है। इनके गद्य में वर्तमान समस्याओं पर तीखे व्यंग्य व्यंजित हुए हैं जिससे समाज को, सरकार को कर्तव्य के प्रति चेतावनी मिलती है।
बुंदेली लोक साहित्य का वर्गीकरण
शिष्ट साहित्य का वर्गीकरण गद्य एवं पद्य के रूप में होता है। गद्य के अन्तर्गत उपन्यास, कहानी, नाटक एवं एकांकी आदि तथा पद्य में प्रबन्ध- महाकाव्य, खण्डकाव्य एवं मुक्तक आते हैं। लोक साहित्य का वर्गीकरण शिष्ट साहित्य से भिन्न होता है। बुंदेली लोक साहित्य का वर्गीकरण इस प्रकार है- 1. विधागत, 2. विषयगत, 3. कालगत।
(अ) विधागत वर्गीकरण
बुंदेली लोक साहित्य की पाँच विधाएँ हैं- 1. बुंदेली लोकगीत, 2. बुंदेली लोक गाथाएँ, 3. बुंदेली लोक कथाएँ, 4. बुंदेली लोक नाट्य एवं लोक नृत्य, 5. बुंदेली कहावतें, मुहावरें एवं पहेलियाँ।
बुंदेली लोकगीत – लोकगीत शब्द अँग्रेजी के फोक सांग का पर्याय रूप है। बुंदेली लोकगीत वास्तव में लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के लिए लिखे गीत हैं जिसमें रचनाकार अपना व्यक्तित्व लोक समर्पित कर देता है। इन लोकगीतों की सामान्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- रचयिता के नाम का अभाव, 2. स्वयं की लय, 3. सामूहिक प्रवृत्ति, 4. लोक संस्कृति चित्रण, 5. कृत्रिमता का अभाव, 6. सहजता, 7. मौखिक परम्परा, 8. संगीत और गेयता, 9. संक्षिप्तता, 10. प्रभावोत्पादकता।
बुंदेली लोक गाथा : लोक गाथा शब्द अँग्रेजी बैलाड शब्द के पर्याय रूप में गृहीत हुआ है। ‘‘बैलाड वह कथात्मक ज्ञेय काव्य है जो या तो लोक-कण्ठ से विकसित होता है या लोक गाथा के सामान्य रूप विधान को लेकर किसी विशेष कवि द्वारा रचा जाता है। जिसमें गीतात्मकता और कथात्मकता दोनों होती हैं जिनका प्रभाव जनसाधारण में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में मौखिक रूप में होता रहता है।’’ बुंदेली लोक कथाएँ अपने में इन्हीं भावों को समेट कर चली हैं। इनकी विशेषताएँ ये हैं-
- कथा एवं संगीत का मिश्रण, 2. मौखिक परम्परा, 3. वीर भावों की व्यंजना, 4. सुष्ठु श्रृंगार की व्यंजना, 5. सरस छन्द, 6. तुकों में खींचा तानी।
बुंदेली लोक कथाएँ : बुंदेली लोक कथाएँ मौखिक रूप में सांस्कृतिक उद्गारों एवं धार्मिक अभिप्रायों को व्यक्त करती हैं। इन्हें किस्सा या किसा भी कहा जाता है। अँग्रेजी में इस विधा के लिए फोक टेल शब्द प्रयुक्त होता है। कथाओं की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- मौखिक परम्परा, 2. अश्लील श्रृंगार का अभाव, 3. प्रेम का सुस्पष्ट चित्रण, 4. मंगल भावना, 5. सुखान्त, 6. रहस्य, रोमान्च एवं अलौकिकता, 7. उत्सुकता की भावना, 8. वर्णन की स्वाभाविकता।
बुंदेली लोक नाट्य : बुंदेली लोक नाट्य समाज के चित्रों को रंगमंच पर प्रस्तुत करता है। समाज की कुरीतियों का पर्दा-फाश नक्लें या स्वांग भरकर किया जाता है। रंगमंच साधारण होता है। पात्रों की साज-सज्जा लोक उपलब्ध प्रसाधनों से की जाती है। इनका मुख्य उद्देश्य जनजीवन को मनोरंजन प्रदान करना है। लोक नाट्यों की विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
- समाज की कुरीतियों की नक्लें या स्वांग, 2. लोक से चुने पात्र, 3. साधारण चबूतरे पर रंगमंच, 4. एक ही व्यक्ति पात्र, संयोजक, निर्देशक एवं संगीतज्ञ, 5. पुरुषों द्वारा स्त्रियों एवं पुरुषों का अभिनय, 6. साज-सज्जा का अभाव, 7. श्रृंगार प्रसाधन में खड़िय मिट्टी, गेवरी, कोयला आदि का प्रयोग, 8. मनोरंजन प्रधान उद्देश्य।
बुंदेली कहावतें, मुहावरे एवं पहेलियाँ : बुंदेली भाषा में प्रकृति तथा जगत् के रहस्य की पहेलियों में बुझाया गया है। कहावतें एवं मुहावरों का प्रयोग, भाषा को सबल बनाने, अपने कथन में शक्ति प्रदान करने हेतु किया जाता है। मुहावरों के प्रयोग से बुंदेली भाषा चुस्त हो जाती है। बुंदेली लोक साहित्य में कहावतें एवं मुहावरों के प्रयोग से गागर में सागर भरने का सफल प्रयास किया गया है। इनकी विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
- लघुत्व, 2. लय या गति, 3. तुक या अनुप्रास, 4. निरीक्षण और अनुभूति की अभिव्यंजना, 5. प्रभावशीलता और लोक व्यंजकता, 6. सरस शैली।
(ब) विषयगत वर्गीकरण
बुंदेली लोक साहित्य का विषयगत वर्गीकरण इस प्रकार है-
- भौगोलिक वर्गीकरण – बुंदेली साहित्य में बुंदेलखंड की भौगोलिक स्थिति तथा उसके प्रभाव का वर्णन समस्त साहित्य में मिलता है। नदियाँ, पहाड़, प्रकृति की छटा एवं वातावरण इसमें स्वतः चित्रित हो गये हैं।
- राजनैतिक वर्गीकरण – ऐतिहासिक घटनाक्रम एवं राजाओं की शासन व्यवस्था का सजीव चित्रण बुंदेली लोक साहित्य में हुआ है। बुन्देलों की शक्ति, चन्देलों का शौर्य, मुगलों के अत्याचार, अँग्रेजों का शोषण, स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानी एवं गाँधी की सत्य, अहिंसा की भावना लोक साहित्य के विषय बनकर प्रकट हुई है।
- सामाजिक वर्गीकरण – प्रागैतिहासिक काल से आज तक की बुन्देलखण्डी समाज की स्थिति बुंदेली लोक साहित्य में प्राप्त होती है।
- सांस्कृतिक वर्गीकरण – बुंदेलखंड की आर्य एवं अनार्य संस्कृति इस साहित्य में वर्णित है।
- आर्थिक वर्गीकरण – समय-समय पर बुंदेलखंड में पड़ने वाले अकाल, सूखा की स्थिति, किसानों की जर्जर अवस्था, नारी की दुर्दशा, जमींदारों के अत्याचार गरीबी की चपेट में पिसता निम्न वर्ग सभी बुंदेली लोक साहित्य के विषय बनकर गीतों एवं कथाओं में आये हैं।
- धार्मिक वर्गीकरण – बुंदेलखंड आर्य एवं अनार्य संस्कृतियों की क्रीड़ा स्थली होने से उनके देवी-देवता की पूजा का विवरण बुंदेली लोक साहित्य में प्राप्त होता है। उनके धार्मिक लोक विश्वास, जादू टोने, अंधविश्वास इसके विषय हैं।
- उपदेशात्मक रूप – बुंदेली लोक साहित्य की समस्त विधाएँ समाज को उपदेश देती हैं। बुंदेली लोक कथाएँ मानव को धार्मिक एवं नैतिक उपदेश देती हैं।
- मनोरंजन – बुंदेली लोक साहित्य समाज का मनोरंजन करने में बड़ा योगदान देता है। श्रम परिहार हेतु गीतों का गायन होता है। कथाएँ ठिठुरती रातों को काटने का सहारा बनती हैं। बुंदेली लोक नाट्य तो मुख्यतः मनोरंजनार्थ ही होते हैं।
(स) बुंदेली लोक साहित्य का कालगत वर्गीकरण
बुंदेली लोक साहित्य के काल विभाजन की कोई सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती है फिर भी अध्ययन की सुविधा हेतु इसे तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है-
- आदि काल – यह काल 12वीं शताब्दी से प्रारम्भ होकर 14वीं शती के अन्त तक माना जाता है। यह काल परमालदेव के दरबारी कवि जगनिक के आल्हा खण्ड काव्य से प्रारम्भ होता है जो बुंदेली का प्रथम महाकाव्य है।
- मध्य काल – यह काल 15वीं शती से 18वीं शती तक माना जाता है। इसमें मुगलकालीन समय आ जाता है जिसमें फुटकर लोक गीतों का अधिक निर्माण हुआ है। बृज में बुंदेली का बाहुल्य भी अनेक कवियों में देखने को मिलता है।
- आधुनिक काल – यह काल 19वीं शती के प्रारम्भ से आज तक माना जाता है। इसमें अँग्रेजों का शासन काल आता है। ईसुरी, गंगाधर व्यास, ऐंनसांई, ख्यालीराम, रसिया, प्यारे जू, भुजवल आदि इसके प्रमुख कवि हैं। इस काल के गद्य लेखक भगवान सिंह जू गौर का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इन्होंने अथाई की बातें तीन भागों में लिखकर गद्य के अभाव की पूर्ति की है।
(द) लोक लय के उत्स एवं लोकलय के प्रयोग
लोक-लय के उत्स
लोकगीत का अति लघु रूप कार्यरत श्रमिक वर्ग के स्वरों में लघु पंक्तियों के रूप में ही फूटा होगा-यह उतना ही सत्य है जितना भाषा के उद्भव के साथ श्रम परिहरण मूलक सिद्धान्त को स्वीकार किया जाता है। लोकगीत उद्भव की तलाश प्रकृति, परिवेश और जैविक स्थितियों से अलग हटकर नहीं की जा सकती। मांसपेशियों के सिकुड़ने और फैलने, श्वास के तेज होने और शरीर के प्रत्येक अंग को संचालित करने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा के प्रयोग से मन के भीतर भी हलचल होती है और उस हलचल के परिणामस्वरूप ही अनायास कुछ ध्वनियाँ मुख से उच्चरित हो उठती हैं। ये किसी एक भाषा का स्वरूप धारण नहीं कर पातीं। इन ध्वनियों में गति, लय और आरोह-अवरोह होता है। इन्हीं अस्फुट ध्वनियों से उन ठेकों का विकास हुआ है जिन्हें धोबी कपड़ा धोते समय या मल्लाह चप्पू चलाते समय उच्चारते हैं। किन्तु एक विशेष प्रकार के श्रमिक वर्ग के मुख से निकली ध्वनियों को लोकगीत का उत्स मान लेने पर लोकगीत की भीतरी शक्तियों और बाह्य संरचना से समग्र परिचय नहीं मिल सकता।
शारीरिक श्रम के रूप में कुछ अन्य उदाहरण और लिए जा सकते हैं। क्रीड़ारत बालकों द्वारा उच्चरित ध्वनियों का एक उदाहरण है-दौड़ने से श्वास फूलने से शरीर-तन्त्र में जो आन्दोलन हुआ, उसकी निकासी ही निरर्थक किन्तु छन्दात्मक ध्वनियों द्वारा होती है- “लाल पलेंचा दुबे का लड़का दौंचक दौंचा”, “खेल कबड्डी आने दे तबला बजाने दे”, “तू तू तू तुआ तार” जैसे उदाहरणों में “तू तू तुआ तार” प्रारम्भिक ध्वनि-समूह है और उन ध्वनियों के बाद ही तुकात्मक निरर्थक ध्वनियों का क्रम आता है। दूसरा उदाहरण प्रेम करते हुए या सम्भोगरत जोड़े का लिया जा सकता है। शरीर-घर्षण तथा रत्यावेश से उत्पन्न हुई हलचल सीत्कार, अस्फुट, संघर्षी ध्वनियों एवं आह्लाद विस्फूर्जित ऊहात्मक ध्वनियों से ग्रहण किया जा सकता है। जाँता गीत (चक्की गीत) भी श्रम से उत्पन्न लोकगीत के रूप में लिया जाएगा, किन्तु यह प्रक्रिया बहुत बाद की है। जांता की गति उसकी घर्र-घर्र आवाज और शारीरिक घुमाव इन गीतों की घहराती घूमती लय में प्रयुक्त है। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रम से उत्पन्न ध्वनियों के पीछे विभिन्न मूइस रहते हैं। केवल श्रम परिहरण के लिए इन ध्वनियों की सार्थकता नहीं है। लोकगीतों में जहाँ स्त्री-पुरुष के मिलन के प्रसंग आते हैं, यहाँ उनमें धुन का उतार-चढ़ाव शारीरिक गतियों के आधार पर होता है। रति-प्रक्रिया के सम्पूर्ण मूड्स इस प्रकार के लोकगीतों में होते हैं। बुन्देलखंड की ‘राई’ के चढ़ाव-उतार में यह प्रक्रिया अनुभव की जा सकती है। खेल में प्रयुक्त होनेवाली धुनें भी शरीर की गतिशीलता और उसकी दिशाओं पर निर्भर करती हैं। धुन को एकदम आरोही करना और तीर के समान उसे सीधा खींचना ‘तुआ तार…’ शरीर की तीव्र धावमानता व्यंजित करती है। जब फिरकनी देकर या घेरे में घूमकर खेल होता है, तब धुन भी जिक जैग या वृत्ताकार होकर चलती है। ‘बच्चड़, बच्चड़, बच्चड़’ और ‘घोर घोर रानी इत्तन इत्तन पानी’ आदि को उदाहरणार्थ लिया जा सकता है। जैविक चेतना के परिवर्तनों का प्रभाव सूक्ष्म मनोजगत पर पड़ता है। और लोकगीत इसी मनोजगत की अभिव्यक्ति हैं। श्रंगार, उत्साह, दैन्य, प्रार्थना, स्तवन इन सभी भावों के आधार पर ही ध्रुव पंक्ति, तुक-तान आवर्ती क्रम आदि का निर्धारण हुआ है। फाग, कजरी, विरहा में धुन का मचलता, घुमड़ता और उलंगता रूप, बुन्देलखंड के एक लोकगीत ‘ढिमरआई’ में उछलती मछली-सी धुन और डूबती-उतराती स्वर-लहरी मन की श्रृंगारिक चेष्टाओं को व्यक्त करती है। इनमें शब्द उतने महत्त्वपूर्ण नहीं होते जितना कि इनका गायन-सम्भार। केवल धुन, ताल और लय के आधार पर ही अनुभाव स्थिर होता है। इन लोकगीतों में अन्तरा तथा टेक का विशेष महत्त्व होता है। टेक का विकास यद्यपि ध्रुव पंक्ति से माना जा सकता है किन्तु टेक को आधार देनेवाली गुहार हो, हो, रे, रे, आदि में ध्रुव पंक्ति पूँछ-रूप में जीवित रहती है। टेक अपनी स्वतन्त्र सत्ता कायम कर लेती है। टेक के बाद छन्द या उड़ान आता है और फिर अन्तरा, अन्तरा के बाद टेक दुहराई जाती है। इन सबमें मल्लाहों के ‘हैया हो’ का केवल ‘हो’ सुरक्षित है तथा धोबियों के ‘छियो राम’ का ‘राम’ ‘हे राम’ प्रायः बिरहा की टेक को तकिया देता है। गारियों में ध्रुव पंक्ति ‘हॉजू’ ‘कैयो जू’ जैसी अर्धालियों में ढूँढ़ी जा सकती है। यहाँ ये सम्बोधनात्मक, प्रश्नात्मक या स्वीकृतिमूलक हैं। सम्बन्धों की ऊष्मा और रागवृत्ति का अनुमान उनसे सहज लगाया जा सकता है। ‘हया हो’ चप्पू के चलाने में बाहुओं के जोर और नाव के हिलने-डुलने तथा मन की लहराती स्थितियों से उत्पन्न ध्वनिगुच्छ है, जो गति के भाव को नहीं गति की धुन को विस्तार देता है और ध्रुव विस्तार ने गीत की लयात्मकता को व्यापक आधार प्रदान किया। मल्लाही संस्कृति इस देश की प्राचीन संस्कृतियों में से है, अतः मूल वक्तव्य की इस प्रपत्ति को अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि लोकगीत ध्रुवपंक्ति का विस्तार ‘हैया हो’ से हुआ है। किन्तु समग्र लोकगीतों को इस आधार पर परखना गलत हो जाएगा। लोकगीत की धुन-निर्माण में शारीरिक हलचल का महत्त्वपूर्ण स्थान है और जैविक कम्पनों की ही सिम्फनी लोकगीतों में मिलती है।
वातावरण के असर को भी लोकगीतों की संरचना में खोजना आवश्यक हो जाता है। चरवाही संस्कृति के मूल से आए लोकगीतों में शारीरिक स्पन्दनों का उतना महत्त्व नहीं है जितना आसपास के अनुभव से उत्पन्न मन की भावुकता का है। जन संकुलता की कमी, जंगलों का एकान्त और प्रकृति का सहज सान्निध्य मन को कभी शंकित, कभी भयभीत और कभी आह्लाद-विस्फारित करता है। मन के इसी आकुंचन और विस्फारण से चरवाहे के मुँह से लोकगीत फूटे होंगे। एकान्त और सूनेपन में आदमी की आवाज ही उसका साथ देती है। इस आवाज से वह भय-मुक्ति का प्रयास भी करता है। साहस बटोरता है। चरवाहे ने अपना एकान्त अपनी ही आवाज से तोड़ा। इस प्रकार से चरवाही लोकगीत (पेस्टोरल सांग्स) का जन्म हुआ। इनमें व्यक्तिगत सुख-दुखों के अनुभव रहते हैं। इस तरह के लोकगीतों में शब्द कम होते हैं। मात्र एक या दो पंक्तियाँ ही होती हैं। इनकी धुन लम्बी होती है। इसीलिए इन्हें ‘लमटेरा’ कहते हैं-जिनकी टेर लम्बी हो। जंगल के विस्तार में जनमी गूँज और दिशाओं तक फैलती आवाज के अनुकूल ही धुन का निर्माण किया गया है। छत्तीसगढ़ में ‘ददरिया’ लोकगीत की धुन में चरवाहे के मनोभाव और जंगल की उपस्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। गृहासक्ति, विशेषतः प्रिया की स्मृति इन लोकगीतों में जिस हूक और जिस टेर को जन्म देती है, वह इनकी टेक के अन्त में खींचे गए आरोह में अनुभव की जा सकती है।
आदिम काल में भय से मुक्ति की कामना के लिए व्यक्ति ने अपने भीतर झाँकने की कोशिश कम ही की है। उसकी मेधा इतनी विकसित नहीं थी कि अपने आसपास को वह अच्छी तरह से समझ सके। प्रकृति उसके लिए रहस्य स्वरूपा थी। देवता और अपने से अलग रक्षक की कल्पना मनुष्य ने सर्वप्रथम प्रकृति के विभिन्न उपादानों-सूर्य, समुद्र, पवन आदि की अति शक्ति से प्रभावित होकर की और इनकी प्रार्थना में उसकी ध्वनि फूटी। इस तरह की रचनाओं में वेदों की ऋचाओं का बार-बार उल्लेख किया जाता है। ये दार्शनिक मन की सुव्यवस्थित विचारों वाली रचनाएँ हैं, अतः इन्हें ‘पेस्टोरल सांग्स’ कहना उचित नहीं है। इसी के समानान्तर लोक बोलियों में मिलनेवाले भक्ति गीत-भगत, पचरा, बमभुलिया आदि को लोकगीतों में परिगणित किया जा सकता है। आदिवासी क्षेत्रों में देव को मनाए जाने के लिए गाए जानेवाले गीतों में नाच और गान की परम्परा है। इन गीतों की धुन ऊबड़-खाबड़ और किंचित भयप्रद है। मन्त्र-परम्परा की धुन से इनका साम्य है। गुनिया इस मन्त्र की हक्कारी भरता है, तब वातावरण एकबारगी काँप उठता है। कृष्ण और राम के वृत्त से सम्बन्धित लोकगीतों की रचना का काल बहुत बाद का है। इनसे सम्बन्धित लोकगीतों का भाव और शिल्प जीवन के सभी पक्षों से सम्बन्धित है। ऋतु गीतों के लिए प्रकृति की हलचल ही आधार रही है। उसकी प्रत्येक हरकत को लोकगीतों की धुन में बाँध लिया गया है। पानी का बरसना, झरने का बहना, बादल का गरजना आदि इनकी क्रियाएँ, धुन अनुषंगों को प्रभावित करती रही हैं। इसके साथ ही प्रकृति के रंगों, रूपों आदि के धुन को चटख और श्लथ बनाया है।
कथात्मक या प्रदीर्घ लोकगीत फुरसत की रचनाएँ हैं जिनका सृजन अथाइयों और चौपालों में हुआ है। साहस और शौर्य, चमत्कार और रहस्य, वेदना और करुणा की कथाएँ-चौपालों में कउड़े पर बैठा ग्रामीण शताब्दियों से सुनता आ रहा है। इन्हीं कथाओं को और अधिक सम्प्रेष्य एवं प्रभावशाली बनाने के लिए इनको पधात्मकता प्रदान कर दी गई। आल्हा गाने का समय बुन्देलखंड में वर्षा ऋतु का है।
इस प्रकार जैविक प्रकृतिपरक एवं भावनात्मक कारण लोकगीतों के कथ्य और शिल्प के उद्भव में स्वीकार किए जा सकते हैं। जातीय-स्मृति लोकगीतों में ही सुरक्षित है। लोकगीतों की लय, लोकगीतों की भाषा-संरचना, लोकगीतों का कथ्य इन सब में मानवीय चेतना के आदिम प्रसंगों को तलाशा जा सकता है। ये उन्हीं मूल संवेदनों से हमें आज जोड़ते हैं। हमारे संस्कारों की प्रारम्भिक पर्तों को स्पन्दित करने की शक्ति बार-बार हमें उन्हीं अनुभवों में ले जाती है, जहाँ से अनुभव की यात्रा प्रारम्भ हुई थी। ऐसे अनुभव से जुड़ना जड़ की प्राण-शक्ति से जुड़ना है। हम इस बात से इत्तिफाक नहीं कर सकते- “इस प्रकार लोकगीत अपनी लय और धुन कथात्मकता एवं पुनरावृत्ति की शैली के आधार पर अपने अंचल विशेष की जन संस्कृति की संवेदना को व्यक्त करते हैं।” लोकगीतों की लय जीवन की असल लय है। चाहे वह श्रमिक-समूह से आई हो, चाहे प्रकृति प्रेरित हो, चाहे उसे मन की व्याकुलता ने गुंजाया हो। समूह जीवन की जातीय-चेतना लय के आन्तरिक स्पन्दनों में धड़कती है-शब्द-ध्वनि में व्यक्त होती है-शब्द के अनुभव संसार अर्थ में लीन होती है।
लोकगीतों की चर्चा के साथ वाद्य-यन्त्रों की चर्चा आवश्यक है। छत्तीसगढ़ के मांदर की ठनक, बुन्देलखंड की नगड़िया की गड़गड़ाहट, ब्रज की बाँसुरी की मार्दवता और वेधकता, सपेरे की बीन की सनसनाती टीस को भी लोकगीतों ने आत्मसात् किया है। जहाँ नृत्य और गीतों का प्रस्तुतीकरण साथ-साथ होता है वहाँ इन वाक्यों की भूमिका गीतों की धुन-निर्माण में बहुत सहयोगी रही है। छत्तीसगढ़ के करमा की लय मांदर की ठनकार से सामंजस्य स्थापित करती हुई आरोह करती है। बाँसुरी और बीन का प्रयोग लोकगीतों के गायन में बहुत बाद में हुआ, अतः इनके स्वरों की सूक्ष्म झंकृतियाँ प्रायः सभी स्थलों के लोकगीतों में मिलती हैं।
हिन्दी के आधुनिक गीतों की आन्तरिक लय का प्रयोग निराला ने कहीं-कहीं अपने गीतों में किया है। बच्चन में यह लय आरोपित है। शब्दों की कारीगरी और तुक के फेर में लोक की सहजता ‘महुआ के नीचे मोती झरे और पिआ जाओ लाओ नदिया से सोन मछरी’ में नष्ट हो गई है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने इक्के-दुक्के जो भी प्रयोग किए हैं वे प्रयोग मात्र हैं; अतः उनके गीतों में लोकगीतों की लय का टटकापन है। गुलाब सिंह और अनूप अशेष जैसे गीतकार अपने गीतों में लोकगीतों की लय लाने के लिए प्रयत्नशील हैं किन्तु इन्हें यह ध्यान रखना आवश्यक है कि लोक-जीवन के अनुभव से ही लोक-लय निःसृत होगी। इधर लोक संस्कृति का शोषण बहुत हो रहा है। पढ़े-लिखे जनों की चालाकियों कभी लोक नृत्यों का, कभी लोक-मंचों का और कभी लोकगीतों का शोषण बेरहमी से कर रही हैं। सिनेमा के गीतों में लोकगीतों की लय का स्वाँग भरा जाता रहा है।
लोक-लय के प्रयोग
उन दिनों सरगुजा में आकाशवाणी केन्द्र खुला खुला ही था। केन्द्र निदेशक श्री अमीक हनफी रुचि-सम्पन्न कवि-हृदय व्यक्ति थे। उन्होंने सरगुजा के लोकगीतों के संकलन का कार्य प्रारम्भ किया। वहाँ के प्रचलित लोक-रागों की स्वरलिपियाँ तैयार कराईं। इसके पूर्व मैंने भी वहाँ के लोकगीतों का एक संकलन तैयार कराया था। अतः स्वाभाविक था कि मैं श्री हनफी के कार्य से अपनी संलग्नता महसूस करता। गाहे-बगाहे उनसे इस सम्बन्ध में बातचीत भी होती थी। उन्हें महसूस हो रहा था कि सरगुजा के जितने भी लोकगीत हैं, उनमें सोलह मात्राओं से अधिक की राग-चेष्टा नहीं है। ददरिया, करमा, छेरता आदि लोकगीतों की बन्दिशों का विस्तार सचमुच इन्हीं मात्राओं में विकसित होता था। मेरा सम्बन्ध बुन्देलखंड से रहा है, अतः मैंने बुन्देली लोकगीतों की बात उनके समक्ष रखी और वहाँ की लोकगायकी के वैविध्य की चर्चा की। बुन्देली में दादरा, फाग, सोहर, राई, नारदी, बमभुलिया, लमटेरा, मछरयाऊ, गारी, कहरबा आदि न जाने कितने प्रकार की लोक-रागिनियाँ प्राप्त हो जाती हैं। लोक-रागों में यह विस्तारगत अन्तर कैसे आ गया और इनको प्रभावित करनेवाले तत्त्व कौन-कौन से हैं-इन मुद्दों पर हमारी अकसर बहस होती रहती थी, लेकिन किन्हीं निश्चित निष्कर्षों पर हम नहीं पहुँच पाए, और इस बीच हमारे इस तरह के संवाद का सिलसिला ही खत्म हो गया। मेरे भीतर बार-बार यह बात कींधती रही कि लोक की असल सीमारेखा क्या हो सकती है ? कम-से-कम कलाओं के क्षेत्र में तो उस तक किसी-न-किसी तरह पहुँचने का प्रयत्न किया ही जा सकता है।
लोक-कलाएँ मानवीय चेतना के विकास के साथ सहज-स्फूर्त चेष्टाएँ हैं। उसके सौन्दर्यपरक मानसिक अनुषंगों की अभिव्यक्ति के रूप में ये अस्तित्ववान हुईं। आदिम मनुष्य के भीतर की सृजनात्मक चेष्टाएँ उसके प्रकृष्टतम भाव-बिन्दुओं की उपज हैं। कलाओं की सृष्टि के साथ ही मानव सभ्यता के विकास का सूत्रपात हुआ। मनुष्य के भीतर की स्फुटित प्रेरणा विभिन्न कला-माध्यमों में बाह्य प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप ही उजागर हुई। इस प्रकार के अध्ययन की एक उपपत्ति यह भी है कि मनुष्य की आदिम कलाएँ उसकी श्रम-मूलक चेष्टाओं से ही निष्पन्न हुई हैं। श्रम के साथ-साथ प्रकृति की उत्तेजक परिवर्तनशीलता, उसके क्रियाकलाप और उसकी भाव-परक आसक्ति भी लोककलाओं को आविष्कृत करने में सहयोगी रही है। मनुष्य की अपनी मानसिक दशाएँ-एकातिकता, रमण-मूलक उत्तेजना क्षण, भूख-प्यास, समूह-भाव, विपरीत लिंगी आकर्षण, उम्र के चढ़ाव-उतार और जैविकीय परिवर्तन भी लोक-कलाओं के लिए प्रेरणा-बिन्दु रहे हैं। पशु-पक्षियों की अनेकशः चेष्टाएँ, रूपाकृतियों एवं उनकी ध्वनियों भी कला-संसार के विस्तार में सहयोगिनी रही हैं। लोक-कलाएँ वैयक्तिक और सामूहिक संघातों की सहजात अभिव्यक्तियाँ हैं। अकेले व्यक्ति के चाव ने, चिन्ता ने, श्रम-योजना ने, प्रकृति उद्दीपन ने जहाँ लोक-मानस को कला-सृजन के लिए उत्प्रेरित किया, वहीं समूह चेतना, उत्सवी-उत्साह ने, फसलों और वृक्षों की फलभरता ने, सामूहिक आयोजनों ने कलाओं को रूपायित किया। प्रारम्भ में इन कला-सर्जनाओं में प्रकृति और मानव की हिस्सेदारी ही प्रमुख रही होगी-झरनों की ध्वनि, नदी की लहरों का अनुनाद, हवा की साँय-साँय, कलियों की चटकारी, पक्षियों का कुंजन, फसल का लहराना, शाखा का हिलना, पशुओं का गतिशील होना, झुकना, झूमना, दुबकना, ऋतुओं के अनुसार फूलों और पत्तों के रंगों में परिवर्तन होना आदि प्राकृतिक क्रियाओं और परिवर्तनों ने कला-संवेदनों को झंकृत किया। कालान्तर में मानवीय क्रियाकलापों की हिस्सेदारी भी कला जगत् में दाखिल हुई नाव चलाना, चक्की पीसना, हल होंकना, उगाहनी करना, लकड़ी चीरना और काटना जैसी कृषिकर्म प्रधान श्रम चेष्टाओं का महत्त्व इस रूप में स्यो कार किया जाएगा। याहा जीवनगत सन्दभों के साथ-साथ मानवीय मस्तिष्क के अन्दरूनी पक्षों ने इस क्षेत्र में अपना प्रभाव छोड़ा। मस्तिष्क का वह हिस्सा जो आदिम संस्कारों से परिपूर्ण था-सभ्यता विकास के साथ-साथ सिमटता गया किन्तु उसकी समाप्ति नहीं हुई। इन अवशिष्ट संस्कारों ने भी लोक-कलाओं को विस्तार दिया। टोने-टोटके, भूत-प्रेत की अवधारणा ने कलाओं के क्षेत्र में कर्मकांडीय अनुष्ठानों का समावेश कराया जो बाद में धार्मिक अनुष्ठानों में पर्यवसित हो गए। चारागाही संस्कृति ने उन्मुक्त प्रकृति साहचर्यपरक कला चेतना का उदय किया। यही लोक कलाओं के असल संवेदन थे-जिनका विभिन्न सांस्कृतिक दौरों में परिमार्जन, परिसंगृयन और परिव्यवस्थापन होता रहा, कृषि संस्कृति ने त्यौहारी और उत्सवी मानसिकता को विकसित किया, उसमें समूह-चेतना का लोक-व्यापीकरण सम्भव हुआ। यहीं से धार्मिक कर्मकांड में परिपोषित होनेवाली कला दृष्टि विकसित हुई। यही वह काल था जव लोक-कलाओं के भीतर अनुशासन की तलाश होने लगी थी। इसी अनुशासन ने शास्त्रीयता को जन्म दिया। लोक-कलाओं को नियमों और विधानों में बाँधा गया। उनमें निजंघरी कथावृत्तियों को सूत्रित किया गया। इस शास्त्रीयता को फिर एक बार लोकोन्मुखी होना पड़ा। यह प्रक्रिया कब प्रारम्भ हुई स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता किन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि आज की अधिकांश लोक-कला सृष्टियाँ इस द्वितीय क्रम से प्रभावित हैं। इन तथ्यों को लोकगीतों के सन्दर्भ में परखने का प्रयास करेंगे।
आदिवासी क्षेत्रों में लोकगीतों में न अधिक राग-रागिनियों का समोवश होता है और न ही उनका शब्द-संयोजन अधिक लम्बा रहता है। कथात्मकता तथा विवरणात्मकता का तो उनमें एकदम अभाव ही रहता है। अक्सर वह एक प्रतिक्रिया पंक्ति होती है-प्रकृति में रंगों, पत्तों, फूलों की प्रक्रियाओं से मेल खाती भावनाओं की मनुष्य की एकांतिकता को तोड़ने के लिए जो प्राकृतिक हरकतें सहयोग कर सकती हैं उनका उल्लेख तथा गायक की भावना का मिला-जुला संसार यह प्रतीक पंक्ति होती है। आदिवासी इलाकों के लोकगीतों की लएँ एकदम आदिम आरोहों-अवरोहों में ही जीवित रहती हैं। करमा-गायन या करमा नृत्य झूमती धान की फसल को परिलक्षित करता है। एक सीधी उठान और उसका फैलाव और पुनः उसका सिमटाव, सतत वृत्तों की सृष्टि, घूम-घूमकर वहीं आ जाना, उसी एक ही पंक्ति की लय के वृत्तों को क्रमशः कम करते जाना और फिर उस वृत्त को पुनः फैलाना, इसी लय-विस्फार में ये लोकगीत चलते हैं।
आदिवासी क्षेत्र से अधिक विकसित क्षेत्रों के लोकगीतों में राग-रागिनियों की बहुलता पाई जाती है। बुन्देली लोकगीतों में नारदी, फाग, भजन, दादरा न जाने कितनी राग-रागिनियाँ हैं। ये रागिनियाँ निश्चित ही शास्त्रीय-गुम्फ से छिटकी हुई हैं। लोकजीवन में जब शास्त्रीयता पहुँच गई होगी तब, इसी में से ये लोक रागिनियाँ फूटी होंगी। सामाजिक चेतना निरन्तर निषेधात्मकता में विकसित होती है। लोक को सभ्यता से बढ़ते आवतों ने अस्वीकार किया। दरबारों की गायकी धीरे-धीरे लोक तक पहुँची और लोक ने अपने को अधिक सभ्य प्रतिपादित करने के लिए इन रागनियों को अपने अनुरूप ढाल दिया। सामन्तवादी संस्कार कला के क्षेत्र में यहीं से पनपे। बुन्देली के ऐसे सैकड़ों लोकगीत हैं जिनमें लोकमन की अभिव्यक्ति नहीं है। शिष्ट या सभ्य मन ही अधिक मुखरित हुआ है। इन गीतों में सामन्ती जीवन-पद्धति का पोषण है- ‘बैठी ही रइयो रानी सतखंडा पे खड्यो डबन के पान’ निश्चित ही उस व्यवस्था का पोषण करनेवाली पंक्ति है जिसमें श्रम के प्रति आस्था नहीं है। मध्यकालीन जीवन दर्शन से प्रभावित लोक अपने सहज स्वरूप से स्खलित होता रहा है। लोक व्यवहारों में जैसे-जैसे परिवर्तन आते गए वैसे-वैसे लोकगीतों में तब्दीलियाँ होती गईं। उसकी विषय-वस्तु में, उसकी संरचना में, और उसकी गायकी में इनको स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जा सकता है। लोकगीतों में धार्मिक प्रयोजनों को बहुत पहले से ही उत्प्रेरित किया जाने लगा था। उपासना केन्द्रों के आधार पर मध्यकाल में उन्हें विभाजित किया गया। ‘भगत’ इसका अच्छा उदाहरण है। भक्तिकालीन साहित्य की निवेदनपरकता, निर्वेदता और दर्शनवृत्ति इनमें समाहित है। देवताओं की महिमा और उनकी अपराजेयता की कथाओं से जुड़ी इन रचनाओं में मानवीय करुणा और आस्था भी हिल्लोलित है। इनकी प्रतीक संरचना में लोक-मन की उन्मुक्त उड़ान का वह आकर्षण है, जो उसकी आदिम लोक-वृत्तियों में सुरक्षित रहा है। ‘इक बन ढूँढ़ी, दो बन ढूँढ़ी तीजे बन ढूँढ़न जाए हो माँ’ इस तरह की लोक-आकांक्षापूर्ण पंक्तियाँ इन गीतों में यदा-कदा ही मिलती हैं अन्यथा लोक के नगरीकरण के आसार इसके समूचे परिवेश में ध्वनित होते हैं- ‘ऊँची अटरिया लाल किवरियाँ सूरज सामू दोर हो माँ’, ‘गंगा जमुन की बारू रेत में माई ने हिंडोला घलवाए हो।’ मोतियों की माला, रतन-जतन की चूड़ियाँ, रेशम के वस्त्र आदि साज-सज्जा स्पष्ट कर रही है कि विकसित सभ्यता ने क्रमशः लोक की बेदखल करना इसी चरण में प्रारम्भ कर दिया था। विभिन्न प्रकार के संस्कार गीतों में भी वह प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। केवल लयकारी शेष है और गीतों का परिवेश परिवर्तित हो रहा है। यहाँ तक कि आदिम राग को प्रयोग के आधार पर कुछ नए रागों में ढालने का सिलसिला इसी समय शुरू हो जाता है। बन्ना जैसे लोकगीतों में शास्त्रीयता की झलक मिलती है- “केशर की क्यारी बिबाओ बना को केशर सोहे”, “ईरी रंगों पीरी रंगों रंग दऊ चारउ रंग तोरो सुवाफा में रंग दऊ।” जब ये गीत किसी शिष्ट मन के द्वारा रचे जा रहे थे तभी किसी कुशल शास्त्रीय गायक द्वारा इनका राग-निबन्धन हो रहा था। यह जुगलबन्दी एक नए लोक की सृष्टि कर रही थी। इस समय तक जो एकदम आदिम लोकगीत थे, वे लुप्त होने लगे थे क्योंकि उनकी ओर से तत्कालीन समाज का ध्यान ठीक उसी तरह कट गया था जैसा कि आज हमारे साथ भी हो रहा है।
अभी भी लोकगीतों के कुछ प्रकार ऐसे हैं जो अनेक परिवर्तनों के बाद भी ज्यों-के-त्यों हैं। ये लोकगीत अधिकतर जातिगत चेतना से जुड़े हैं। जातीय स्मृतियाँ इनके राग-संसार में, कहीं भाषा में और कहीं प्रतिपाद्य में संगठित हैं। बुन्देली के मछरयाऊ लोकगीत में जो राग संवेदना है वह आदिम लय को उजागर करती है। राई और लमटेरा में भी लोक-मन का विम्ब भी प्रकट होता है। राई में प्रेम की एक सहज निश्चल अनुभूति है। तथाकथित शिष्ट और कर्मकांडीय इलाकों में राई एक बहिष्कृत रागिनी है। इसे नानी जातियों की गायकी माना जाता है। उच्चभ्रू सभ्यता का यही दोष है कि वह जो कुछ आदिम है-सहज है-लोकजात है-उसे अस्वीकृत करती चलती है। राई में कर्मकांडीय अनुष्ठानों का प्रयोग बाद में हुआ। राई नृत्य में जो गति-भंगिमा और पादनिक्षेपण है, यह शास्त्रीयता के पूर्व की रचना है। बहुत सम्भव है कि कत्थक जैसी नृत्य शैलियों में राई का भी योगदान हो। ध्रुपद गायकी में भी राई की आघूर्णन शक्ति को पाया जा सकता है। ‘बूंदा ले गई मछरिया हिलोर पानी’ या ‘गुईयाँ पानी ने जाओ पीपर के पत्ता में देवता’ जैसे बोलों में लोकमानस ही प्रतिध्वनित होता है। चरवाहों के गीत ‘लमटेरा’ के भीतर जंगल की उपस्थिति बार-बार यही चरितार्थ करती है कि इन गीतों में लोकमन अभी शेष है। बाद में अहीरों के लोकगीत ‘दिवारी’ में यह स्थिति नहीं रह जाती है। उनमें कृष्ण-लीला का पुट आ जाता है। इन सभी गीतों का अस्तित्व केवल एक ही पंक्ति में केन्द्रित है। लोकगीत में शब्द विस्तार के लिए गुंजाइश नहीं होती। आज के विस्तारित लोकगीतों में टेक या पुनः-पुनः आघूर्णित होनेवाली ध्रुव पंक्ति ही आदिम लोकगीत की अवशोषित पहचान है। कहीं-कहीं यह पंक्ति धुन के निर्धारण में अपनी मुख्य भूमिका निवाहती है। ‘हे रामा, के हांजू के कइयो जू’, ‘रसवारी के भौरा रे’, ‘हो हईया’ आदि ऐसी ही पंक्तियाँ हैं। कहीं-कहीं ये ध्रुव पंक्तियाँ पिसती-पिसती आधी रह गई हैं या कहीं-कहीं एक-दो शब्द मात्र, कहीं-कहीं पूरी पंक्ति यथावत् मिल जाती है। ‘पीपर का पत्ता हिलत नईया’ जैसी उक्तियाँ लोकमन की उपज हैं। यदि इन पंक्तियों को आधार बनाकर लोकगीतों का परीक्षण हो तो आदिवासी क्षेत्रों के अन्तर्वर्ती लोकगीतों से इनका एकदम साम्य मिलेगा। सरगुजा के लोकगीतों में बहुत बड़ा प्रतिशत ऐसे ही लोकगीतों का है-जिनमें एक ही पंक्ति और एक ही राग है। ऐसा नहीं है कि आदिवासी क्षेत्रों के लोकगीतों में धार्मिक आख्यान या सामाजिक संस्कारों की अनुगूँज नहीं है-वहाँ भी इनका प्रभाव है।
राग-चक्र भी अपने स्वरूप को सांस्कृतिक परिवर्तनों से अप्रभावित नहीं रख पाता है। अपनी प्रारम्भिक चर्चा में हमने लोकगीतों की यात्रा में ऐसे दो महत्त्वपूर्ण राग-परिवर्तनों की चर्चा की थी। पहला लोकगीतों की धुनों का शास्त्रीय धुनों में बँधना और दूसरा-इन शास्त्रीय धुनों का लोकोन्मुखी होना। लोकगीतों की मिठास, भाव ऊष्मा, आत्मीयता, गहन आस्था, व्याकुलता, बिहूनापन, लोच और लचक अर्द्धशास्त्रीय गायकी ‘ठुमरी’ में प्रत्यक्षीभूत होनेवाले तत्त्व हैं। ध्रुपद में एक ही पंक्ति की जो बार-बार महीन गायकी है-वह लोकगीत का परिष्कृत नादानुसन्धान है। लोक प्रत्येक जड़ीभूत संस्कार को ताजगी देता है। यहाँ अनुशासन अपनी जकड़बन्दी पूर्णरूप से कर लेता है-वहाँ स्थिरता आ जाती है। जीवन में व्याप्त इस स्थिरता को लोक ही तोड़ता है, क्योंकि निसर्ग-संसर्ग के कारण वह निरन्तर तरोताजा रहता है। लोक-रागिनी में तो ताजगी और हृदय-स्पर्शी गुण है-वह प्रत्येक जड़ होती परिस्थिति में संजीवनी का कार्य करता है। कविता में जब-जब हम अपनी जातीय स्मृतियों से रूबरू होते हैं- तब-तब भीतर उमग पड़ते हैं। भाषा वहाँ पीके फोड़ती हुई महसूस होने लगती है-जहाँ वह लोकशब्दों से मिल-जुल जाती है। लोक से बार-बार हमारा परिसंतृप्त नागर-मन जुड़कर एक नई स्फूर्ति और ताजगी प्राप्त कर लेता है। इस व्यापार में लोक का शोषण ही बहुत सीमा तक किया जाता है। उसे कचर-कुचरकर भदेस बना दिया जाता है। इधर के सिनेमा गीतों में जहाँ-जहाँ लोकगीतों की लयों को रचनात्मकता का हिस्सा बनाया गया है, वहाँ-वहाँ लोकगीतों की लय का शोषण ही किया गया है। लोककवि फूहड़ नहीं रहा। लोक कभी सस्ता नहीं रहा। उसकी जनाकर्षणी राग विवृत्ति लेकर उसे चूसे गए गन्ने के समान निचोड़कर फेंक दिया गया। आकाशवाणी से प्रसारित अधिसंख्य लोकगीतों की यही हालत है। लोकधुनों को बिगाड़कर, तोड़कर उसकी नस-नस को फाड़कर उसके लहू का लाभ व्यवसायी लोग ले लेते हैं, और फिर उसे मुर्दाघर में फेंक देते हैं। लोक-रागिनियों से हटकर भी यदि हम अन्य कला-माध्यमों पर इस तरह सोचें तो स्पष्ट हो जाएगा कि मध्यकाल ने लोक का इस्तेमाल शास्त्रीयता के नजदीक किया। उसे एक सामन्ती स्पर्श दिया, फिर लोकगीत को मुक्त करने का प्रयत्न भी हुआ, किन्तु उसकी मुक्ति ठीक उस तरह थी-जैसी परिन्दे को पिंजड़े से छोड़ दिया जाए और पह पंख फैलाने में भी अभ्यासवश अशक्त रह जाए।
इधर समकालीन कविता में लोक-लय लौटकर आ रही है। छायावादोत्तर काव्य में यह प्रवृत्ति अधिक विकसित हुई। नई कविता और गीत, दोनों विधाओं में इसका इस्तेमाल हुआ है। बच्चन ने गीत को लोकधुनों में ढालने का प्रयल किया- “जाओ पिया लाओ नदिया से सोन मछरी” या “महुआ के नीचे मोती झरै” जैसी बन्दिशों में पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोकधुनों का परिचय प्राप्त होता है। बच्चन ने लोक-धुन को अपनी लय में डाल दिया किन्तु लोक नहीं रहा। ठाकुरप्रसाद सिंह जैसे गीतकारों ने आदिवासी क्षेत्रों की लोक-लयों को आज की कविता के साथ बैठाया, लेकिन वे शब्दों को ही पकड़ पाए, लय को नहीं। लय तो जीवन में स्पन्दित होती है। जीवन के साथ जुड़ी राग-सत्ताएँ भी लय के रूप में आविष्कृत होती है। सन्थाल परगना के लोकगीतों में वही सोलह मात्राओंवाली बन्दिश है, जो सरगुजा के आदिवासी लोकगीतों की है। इस धुन को आधुनिक कविता में लाने के मायने ये भाषा में ऐसी चमक पैदा करना है कि वह प्रतीकात्मकता के लाघव से लेकर जंगली अम्लानता तक अपने आपको स्थापित कर सके। भाषा का अपना सांस्कृतिक अर्थ और अपनी लय होती है। इस लय को किसी विजातीय संस्कृति में रसा तो सकता है किन्तु उसको पुनराविष्कृत नहीं किया जा सकता। खड़ी बोली की प्रकृति और संस्कृति निश्चित ही बोलियों के शब्दों और लोकजीवन के दूर पड़ जाने के कारण लोक से भिन्न हो गई। इसकी नागरता को लोक में परिवर्तित करने की चेष्टाएँ चल रही हैं। यह एक स्वाभाविक क्रम के तहत ही हो रहा है। लोक एक बार फिर खड़ी बोली के नागर चरित्र में अपना अलग शास्त्र विकसित करने की फिराक में है। न केवल कविता में अपितु गद्य में भी यही प्रवृत्ति परिलक्षित हो रही है। गीतों में लोक-लयों के प्रयोग बहुत बड़ी मात्रा में हुए। नवगीतकारों का जो एक खेमा आया-उसकी सम्पूर्ण जीवनी का आधार लोक-लएँ हैं। भोजपुरी, राजस्थानी, ब्रजी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी आदि अनेक बोलियों की लोकधुनों की तर्ज पर इस तरह के रचनाकारों ने गीत लिखे हैं। लेकिन नगरों की मानसिकता में ये टूटी लएँ न तो लोक-लयों का संसार रचा-बसा पाई और न ही लोक-लयों का एक अलग अन्दाज उत्पन्न कर सकीं। फैशन की तरह इनका प्रयोग हुआ और अधकचरे शोषण में इनका अन्त हुआ।
गीतों के लयाधारों में एक निनादकारी पंक्ति जो ध्रुव पंक्ति के रूप में रहती है, निरन्तर विकसित होती है-जिसका आघूर्णन गीत को लोक-लय के करीब ले जाता है। यह उपक्रम प्रत्येक अनाड़ी रचनाकार से नहीं सघ पाता। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे प्रयोग तभी सफल होते हैं-जव लयों के उस संसार में अपने को फेंक दिया जाए। उन लयों में ही जीवन जागे और सोए। नई कविता में लोक-लय को भाषा के स्तर पर उभारा गया। विभिन्न प्रकार की भाषिक संरचनाओं यथा-बिम्बों और प्रतीकों में वह ताजगी लाई गई जो लोकगीतों में पाई जाती है। जातीय स्मृतियों की यह रोमानी प्रस्तुति रचनात्मकता की गहन पर्तों से जूझकर हासिल की गई है। इसलिए इसमें लय को सुरक्षित रख पाना अधिक सम्भव हुआ है। लोक-लयों के प्रयोगों में सावृधानी की आवश्यकता है, क्योंकि इससे लोक का स्वरूप तो बिगड़ता ही है, गलत ढंग से उसे पेश करने में उसकी परम्पराएँ विनष्ट होती हैं।
लोक-लयों को सुरक्षित रखने के लिए सामूहिक उद्यम की आवश्यकता है, क्योंकि हम एक ऐसे बिन्दु पर खड़े हैं, जहाँ से लोक-लयों की रचनात्मक शक्तियों को किसी भिन्न अनुशासन में ढालने की सामर्थ्य समय में नहीं है। शास्त्रीय संगीत ने लयों को सुरक्षित रखा था और उसे नया आयाम भी दिया था। सिनेमा, रेडियो और टी.वी. लोक के लिए एक बहुत बड़ा खतरा लेकर आए हैं। लोकगीतों की असल धुनें अब खोजने से नहीं मिलेंगी। सिनेमायी धुनों ने इन्हें चींथ-नोच लिया है। नई पीढ़ी में पुराने के प्रति एक घृणा भाव पनपता जा रहा है। साहित्य से लेकर समस्त सम्बन्धित कलाएँ इन लयों को उपयोगितावादी दृष्टिकोण के तहत अपना रही हैं। लोक-लय को रौंदती हुई इन विनष्टकारी ताकतों के खिलाफ रचनात्मकता के तहत कैसे जूझा जाए ? यह प्रश्न अब और आवश्यक हो उठा है।