खंड-5 बुंदेली लोकसाहित्य की विषयवस्तु, लोकमूल्य एवं लोकाचरण
April 26, 2025भारत में लोक साहित्य का रूप बहुत प्राचीन समय से प्राप्त होता है। लोक साहित्य की समस्त विद्याओं की जड़ें ऋग्वेद एवं संस्कृत के साहित्य में मिलती हैं। लोक साहित्य का राष्ट्रीय जीवन में अधिक महत्व होता है। लोक साहित्य में स्थानीय भूगोल, इतिहास, संस्कृति, धार्मिक भावना एवं समाज की स्थिति की अमूल्य, सामग्री रहती है। बुंदेली लोक साहित्य में बुंदेलखंड की प्राचीनतम मान्यताऐं एवं परंपरायें आज भी देखी जा सकती हैं।
(अ) ऐतिहासिक महत्व
बुंदेली लोक साहित्य के आदि काल से आधुनिक काल के समग्र साहित्य के अध्ययन उपरांत हमे बुंदेलखंड जनपद की ऐतिहासिक सामग्री का सम्यक ज्ञान प्राप्त होता है। बुंदेली के लोक गीत एवं लोक गाथाएँ स्थानीय इतिहास के विलुप्त और विस्मृत तथ्यों को अपने में छुपाये हैं। इसके अनुशीलन से अनेक बिखरीं ऐतिहासिक घटनाक्रम की कड़ियां जुड़ जाती हैं चंदेलों की यशोगाथा- आल्हा इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। युद्ध का कारण सौंदर्य था, जिसकी बिटिया सुंदर देखी, ते घर बाँध धरे हतियार’’ ये युक्ति इस सत्य को व्यक्त करती है। आल्हा ऊदल ने पृथ्वीराज की पुत्री बेला के साथ महोवे के राजा परमाल के पुत्र ब्रह्मा की शादी तलवार की धार के बल पर कराई थी। बदला लेने की इच्छा से पृथ्वीराज ने परमाल पर चढ़ाई की थी और अंतिम निर्णायक युद्ध उरई के मैदान में हुआ था। बेला के कारण इस युद्ध में दोनों कुल नष्ट हो गये थे इसीलिए कहा जाता है कि उरई की बेला हो रई। जब कोई स्त्री दो व्यक्तियों को लड़ा देती है उस समय ऐसा कहा जाता है। उरई का युद्ध कराने में उरई के चुगली राजा माहिल का विशेष हाथ था। वह आल्हा ऊदल एवं परमाल से जलता था इसी से उसने चुगली करके पृथ्वीराज को महोवे पर चढ़ाई करने को उकसाया था। अतः कहा जाता है ‘‘भइया चुगलिन खों तौ माहिल हो रओ’’। दतिया के दलपतराय नामक एक सामन्त थे जिन्होंने अपने स्वामी को युद्ध में धोखा दिया था इस घटना को बुंदेली लोक गीत अपने में समेटे हुए है। दतिया के दलपतराय, दल में दगा करौ।
मुगल कालीन शासन व्यवस्था से फैली अशांति एवं समाज की दुर्दशा का सजीव चित्रण बुंदेली लोक साहित्य में प्राप्त होता है। तुर्की की विषय लोलुपता तथा स्वेच्छा-चारिता का आतंक इन गीतों में गूंजता है। बुंदेली सती नारी मथुरा वाली का कक्का (चाचा) ही उसे मुगलों के चंगुल में फँसवा देता है। वह अपने सतीत्व रक्षार्थ प्राणों को न्यौछावर कर देती है। देखिये-
सगौ री काका बैरी भओ, ल्याव तुरकिया चढ़ाये। बन्दी परी मथुरा वाली
सरग उड़न्ती एक चील, आदे सरग मंड़राय।
जाय जो कइऔ मोरे ससुर सों, सास सौं कइयो समझाय। बंदी परी ……..
ससुर मिलाओ हो लै चलें, ले चलैं हतिया हजार।
लै रे मुगल कै जै हतिया, बहू तौ छोड़ो मथुरा वाली।
तेरे हतियन कौ में का करौं, मेरे हें गदहा हजार। एक न छोड़ों मथुरा वाली।
जाके हैं लम्बे लम्बे केस, मोंये कटीली, नैना रस भरे।
लै जांऊं काबुल देस, बी बी बनाऊँ-मथुरा वाली।
विरन मिलाओ हो लै चले, लै चले तेगा हजार। बन्दी परी …….
जाओ विरन घर आपने, राखोंगी पगड़ी की लाज। बंदी परी …….
जा रे मुगल के पानी भर लिआ, प्यासी मरै मथुरा वाली।
जौनो मुगल पानी गओ, बगले दे लई आग, ठाँड़ी जरै मथुरा वाली।
नाक की वैसर ढोलिया तोय दऊं, ऊँचे चड़ ढोल बजाव। ठाँड़ी….
अंग जरैं जैसें लाकड़ी, केस जरें जैसें घास, ठांड़ी जरै मथुरा वाली।
रोय चले वाके वालमा, विहँस चले राजा वीर, ठाँड़ी जरै मथुरा वाली।
राखी बहिना पगड़ी की लाज, ठाँड़ी जरै मथुरा वाली।
बुंदेली लोक साहित्य में अंग्रेजों के अत्याचारों का वर्णन भी मिलता है। अंग्रेजों के शासन में न्याय नाम की वस्तु नहीं थी किसी को कभी भी जेलों में ठूंस दिया जाता था भय के कारण उनके खिलाफ बोलना बंद था किंतु लोक कवि गीतों में बोलता रहा है-
अंग्रेजी परी है गम खानें।
कहां बनी चौकी, कहां बने थाने, कहां जो बनगये जेलखाने।
अंग्रेजी परी है गम खानें।
अंगीत बनी चौकी, पछीत बने थाने, बाकी देरी में बन गये जेहलखाने। अंग्रेजी ..।
भारत की स्वतंत्रता की घोषणा के पूर्व जिन्ना की हठ से पाकिस्तान का निर्माण हुआ था। बँटवारे के समय के अत्याचार अमानवीय थे। अत्याचारियों ने पुरूषों के समक्ष पत्नियों, पिता के समक्ष पुत्रियों से व्यभिचार किये, बच्चों को उछालकर उनमें संगीनें चुभो दी गई तथा बुड्ढ़ों को घर में जिन्दा जला दिया गया।
बँटवारा हो गये भारत के, दै दओ रे पाकिस्तान।
दै दओ पाकिस्तान धन्न जिन्ना मौलाना। बड़ी तपस्या करी, खून में आटा साना।
जानत हैं भगवान, जिन्ना वे कर रये सामूं, फटो करेजो जाय, घटी हिम्मत सब काबू।
भींतन में बच्च ठटे, तलफ तलफ गई जान। एकें भुंज रये आगमें, कई चीर करो खैमान।
इतना ही नहीं नाथूराम गोड़से ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को गोली से उड़ा दिया था उस दु:खद घटना का भी वर्णन गीतों में हुआ है।
करनी कहौं कूर कमतर की, छाती कर बज्जुर की।
तीस जनवरी सन अड़तालिस, श्री बिड़ला मंदिर की।
गोली बनीं मौत बापू की, बच्चई के रे कर की।
घर की एक कुरइया सें भई, दुरगत सब घरभर की।
स्वतंत्र भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी के शासन काल में बंगला देश का स्वतंत्र होना भारत की बड़ी भारी उपलब्धि है। पाकिस्तान एवं भारत की मैत्री में शिमला समझौते का विशेष महत्व है। इन्हीं भावों को क्रमशः लोक कवि ने चौकड़ियों में व्यक्त किया है।
बिन्नूं नें समझौता करलओ, पैलें खूबंई लर लओ।
काट-काट कें मूंड़ मुसल्ला, उनें मूंग सौ दर लओ।
उनकी भूम उनें लौटा दई, बानो दुर्गा धर लओ।
चरचा हो रई जा देसन में, उननें कछू न हर लओ।
बिन्नू नें लरका लओ ओली, पैले से सब खोली।
पुरा परौसी भौतई हटकी, दे दे घोंसें गोली।
लरके आंच आउन न पाई, ढांको अपनी चोली।
पाक, चीन, अमरीका लुकनें जै बंगला की बोली।
अन्ततः कहा जा सकता है कि बुंदेली लोक साहित्य ऐतिहासिक सामग्री को क्रमिक रूप में अपने में समेटे हुए है जिसका अध्ययन जनपदीय अतीत को प्रत्यक्षदर्शी बनाता है। वर्तमान में आसमान को छूती हुई कीमतें जनजीवन को अस्त व्यस्त किये हैं। महँगाई के कारण मानव पीड़ित है किंतु आपातकालीन घोषणा के कारण जनजीवन को राहत मिली है इन्हीं भावों को लोक कवि ने इस गीत में व्यक्त किया है।
उजरउ गइया भई मेंगाई, टो ड़ारी बिरबाई।
खेत जिन्दगी सुख फसल खों, चर-चर कें मुटआई।
दूने भाव बिकानी जिनसें, रो रये लोग लुगाई।
आपतकालिन भई घोसना, डेंगुर दओ लगाई।
लगौ मुसीका सब भावन खों, जै जै इन्द्रा माई।
(ब) साहित्यिक महत्व
लोक साहित्य से शिष्ट साहित्य की श्रीवृद्धि हुई है। क्योंकि लोक साहित्य से ही शिष्ट साहित्य का पोषण होता है। विषय की दृष्टि से बुंदेली लोक साहित्य अपने में प्रकृति, समाज, राजनीति, धर्म, संस्कृति और आर्थिक स्थिति सभी को लेकर चला है। बुंदेली लोक गीतों में विभिन्न संस्कारों का दिग्दर्शन होता है। लोक कथाओं में मानव जीवन की समस्याओं का समाधान उपदेशात्मक रूप में मिलता है। पहेलियों और कहावतों में जीवन का सूक्ष्मातिसूक्ष्म निरीक्षण निहित है। कृषि संबंधी ज्ञान समग्र साहित्य में बिखरा पड़ा है। भावाभिव्यंजना की दृष्टि से बुंदेली लोक गीतों की रसात्मक अभिव्यक्ति सभी को रसविभोर करती है। गीतों की सहजता, संगीतात्मकता हृदय के तारों को छू जाती है। लोक कवि के भावों से जन-जन के हृदय का साधारणीकरण हो जाता है। बुंदेली लोक कथाएँ समाज के पात्रों का सजीव चित्रण प्रस्तुत कर मानव को सोचने को विवश कर देती हैं। गाथाएँ वीर भावों की व्यंजना करती हैं क्योंकि ‘‘लोक काव्य व्यक्तिगत या सामूहिक तीव्र भावों के प्रकाशन हैं। लोक कविता और कथाओं का स्त्रोत राष्ट्रीय जीवन के अंतर्तम से नि:सृत होता है। जनता का हृदय इन गीतों और गाथाओं में ओत प्रोत रहता है।’’
कला पक्ष की दृष्टि से भी बुंदेली लोक साहित्य अपना विशेष स्थान रखता है। लोक कथाएँ जिज्ञासापूर्ण शैली का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। रूप चित्रण में अलंकारों की झड़ी लग जाती है जिसके बिम्ब दर्शन से प्रभावोत्पादकता उत्पन्न होती है। लोक गीतों को अलंकार, छंद, लय, संगीत, रस, नाद सौन्दर्य सभी का मेल अभी तक जीवन प्रदान किये है। आज भी वह जन-जन को प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि बुंदेली संस्कृति के अक्षय भण्डार बुंदेली लोक गीत ही हैं। इस तरह से कहा जा सकता है कि बुंदेली लोक साहित्य विषय-वस्तु की दृष्टि से, भाव पक्ष एवं कला पक्ष की दृष्टि से और सांस्कृतिक दृष्टि से इस जनपद की झांकी प्रस्तुत करने में पूर्ण सक्षम है। बुंदेली भाषा का मिठास सोने में सुगन्ध का कार्य करता है।
(स) महत्व निर्धारण से सन्दर्भित निष्कर्ष
‘‘किसी देश के राष्ट्रीय जीवन में लोक साहित्य का महत्व बहुत अधिक है। लोक साहित्य से राष्ट्रीय जीवन को गति और प्रगति प्राप्त होती है। यह राष्ट्रीय जीवन का बल और सम्बल है।’’[1] यह कथन बुंदेली लोक साहित्य पर खरा उतरता है। बुंदेली गाथा- आल्हा राष्ट्रीय बीर भावों का अनूठा काव्य है इसी से प्रेरित होकर राष्ट्रीय गीतों का निर्माण हुआ है। आधुनिक युग में अंग्रेजों के प्रभाव से लोक साहित्य के प्रति नई चेतना जाग्रत हुई है। जिने जगत में लोक धुनों एवं लोक गीतों की भरमार ने प्रचार का कार्य किया है। आकाशवाणी में लोक साहित्य को यथोचित स्थान मिला है। भारत सरकार ने लोक नृत्य समारोह द्वारा लोक नाट्य और लोक नृत्य को प्रोत्साहित किया है। इन्हीं सबका प्रभाव है कि स्वतंत्र भारत में लोक साहित्य पनपा, फूला और फला है। बुंदेली लोक साहित्य को समुचित स्थान दिलाने में महाराज ओरछेश श्री बीरसिंह जू देव का प्रयास अविस्मरणीय है। उनकी बुंदेली भाषा के प्रति रूचि, राष्ट्रीयता और मातृ भाषा के प्रति प्रेम की द्योतक है। उन्होंने मधुकर पत्र प्रकाशित करबाकर बुंदेली साहित्य को संरक्षण प्रदान किया है। श्री बनारसी दास चतुर्वेदी जी ने संपादक के रूप में मधुकर पत्र द्वारा बुंदेली की महत्वपूर्ण सेवा की है। श्री कृष्णानन्द जी गुप्त ने बुंदेली कहावत कोष तैयार कर ऐतिहासिक कार्य किया है। उन्होंने ईसुरी की फागें भाग 1, 2, 3 प्रकाशित कर ईसुरी को प्रकाश में लाकर उन्हें अमर कर दिया है। श्री गौरीशंकर जी द्विवेदी ने ईसुरी प्रकाश प्रकाशित करवा कर तथा बुंदेली लोक साहित्य पर अनेक लेख लिखकर मातृ भाषा के कोष की श्रीवृद्धि की है। श्री श्यामसुंदर बादल जी ने बुंदेली फाग साहित्य शोध प्रबंध लिखकर, श्री रामचरण हयारन मित्र जी ने बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य पुस्तक लिखकर बुंदेली की अन्यतम सेवा की है। आज भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में बुंदेली साहित्य को लेकर अनेक शोधकर्ता शोध कर रहे हैं। परम पूज्य प्रो. पंडित उर्मिला प्रसाद शुक्ल जी अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, छतरपुर (म.प्र.) बुंदेली के मर्मज्ञ हैं उनका बुंदेली भाषा के प्रति आत्मीय प्रेम अविस्मरणीय है। उन्होंने अनेक शोधकर्त्ताओें को बुंदेली लोक साहित्य की विधायें- विभिन्न विषयों के रूप में शोध कार्य हेतु प्रदान की हैं। सभी शोधकर्ता उनके निर्देशन में बुंदेली साहित्य पर शोध कार्य कर रहे हैं जिससे इस साहित्य की अनूठी श्रीवृद्धि होगी।
(द) बुंदेली भाषा का व्याकरणिक अध्ययन
भाषा के विकास की प्रक्रिया एक निरंतर धारा की भांति चलती रहती है। तथा उस प्रक्रिया में बदलते हुए या परिवर्तित रूपों के आधार पर जिन सामान्य नियमों का निर्धारण होता है वही भाषा का व्याकरण कहा जाता है। बुंदेली भाषा वस्तुतः अभी तक एक लोक भाषा या जन भाषा के रूप में ही प्रतिष्ठित है। न तो अभी तक इसका विशद व्याकरणिक अध्ययन हुआ है और न ऐसे सामान्य नियमों का ही निर्धारण हुआ है जिनके आधार पर किसी भी संज्ञा, क्रिया, सर्वनाम अथवा अन्य शब्दों का निश्चित रूप बुंदेली में उल्लिखित किया जा सके। यही कारण है कि समान्यतया क्षेत्रान्तर के अनुसार क्रिया में भी ‘‘कात’’, ‘‘कत’’, ‘‘कत’’ ‘‘कात’’ हते’’, कते आदि विभिन्न रूप प्रचलित हैं। इसी प्रकार संज्ञा शब्दों में भी पर्याप्त भेद मिलते हैं फिर भी कुछ तो सामान्य प्रवत्तियाँ किसी एक ही क्षेत्र की भाषा में मिलती हैं जिनके कारण बाह्य रूप से पर्याप्त रूपान्तर परिलक्षित होने पर भी उन शब्दों को एक ही क्षेत्रीय भाषा का माना जा सकता है। इन्हीं प्रवृत्तियों के आधार पर बुंदेली भाषा के व्याकरण के ऊपर एक विहंगम दृष्टि डाली गई है।
संज्ञा
बुंदेली भाषा में हिन्दी की भांति ही संज्ञा के जातिवाचक संज्ञा, व्यक्तिवाचक संज्ञा एवं भाववाचक संज्ञा, तीन भेद पाये जाते हैं।
जातिवाचक संज्ञा
जातिवाचक संज्ञा के अंतर्गत वह संपूर्ण शब्द जो किसी वस्तु, व्यक्ति या स्थान की जाति का बोध देते हैं, बाते हैं। बुंदेली में ये शब्द हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी आदि सभी से आकर सामान्यजनों के अनुकरण की अपूर्णता, उच्चारण भेद, प्रयत्न लाघव, उच्चारण अवयवों की भिन्नता आदि कारणों से कुछ या अधिक रूपांतरित रूप में मिलते हैं जैसे हिरनी का हिन्नी, हिरन का हिन्ना। बहुत से शब्द कर्मों या क्रियाओं के आधार पर भी बुंदेली में मिलते हैं जैसे चैत काटने वाले, चैतुआ, घास काटने वाले, घसियारे आदि।
व्यक्तिवाचक संज्ञा
व्यक्तिवाचक शब्दों में स्थान विशेष, व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष के नाम आते हैं। व्यक्तियों के नाम के रूप में यहाँ की संस्कृति से प्रभावित अन्य क्षेत्रों से पर्याप्त भिन्न नाम पाये जाते हैं। प्यार या बहुधा बच्चे जीवित न रहने की स्थिति में प्रचलित अंधविश्वासों के कारण बुंदेली में कड़ोरे, लटोरे, गडू, हिरिया, पचकू आदि जेसे नाम अधिक पाये जाते हैं। शुद्ध नामों को भी प्यार या मुख सुख के कारण पर्याप्त परिवर्तित रूप में बोला जाता है जैसे- रामराजा को रमरजवा, राम को रमुआ आदि ग्रामों के नामें में भी गाँव का बिगड़ा हुआ रूप ‘‘गमां-गुंवा’’ आदि मिलते हैं जैसे- करगुवां, मातगुवां आदि।
भाववाचक संज्ञा
भाववाचक संज्ञा में बुंदेली भाषा में, अन, अक, उआ व ओटी, आची अउववा, तीन, आई आदि प्रत्यय लगकर शब्दों का निर्माण हो जाता है। उदाहरण के लिए क्रमशः हसन, निगन, हुमक, चिलक, कड़क, हिचक, हँसउआ, दिखउआ, हरवा, दिखनौटी, चरोटी, प्यास, पावनी, पठावनी, पठउआ, चलउआ, घटती-बड़ती, ललाई, ढिमराई, धुवयाई आदि उल्लिखित किये जा सकते हैं। ये शब्द क्रिया तथा संज्ञा या विशेषण तीनों से उसी प्रकार बनते हैं जिस प्रकार संस्कृत में कृदन्त और तद्धित के अंतर्गत शब्दों का निर्माण होता है। इसके अतिरिक्त समूह वाचक शब्दों में, ढेर, गोल, झुण्ड, वगर, गट्ठा, गठरिया, मूठा आदि हैं। इन नामों को अंग्रेजी के अंतर्गत तो कलेक्टिव नाउन के अंतर्गत लिया जावेगा किंतु सामान्यतया इनको हिन्दी में जातिवाचक संज्ञा के अंतर्गत लिया जाता है।
वचन
संज्ञा में बुंदेली भाषा में एक वचन और बहुवचन दो ही होते हैं। हिन्दी की भांति ही बुंदेली में भी एक बचन से बहुवचन अनुनासिक ऐकारांत, शुद्ध ऐकारांत, अनुनासिक ओकारान्त होकर बन जाते हैं जैसे- घरवारौ से घरवारे, भौंत से भौंतें, कउआ से कउओ। इसके अतिरिक्त अन प्रत्यय लगकर भी बहुवचन बनते हैं जैसे- लरका से लरकन, मोड़ी से मोड़ियन, नाती से नातियन बहू से आदि।
लिंग
बुंदेली हिन्दी की भांति ही स्त्री लिंग और पुलिंग दो ही लिंग भेद हैं। ये सामान्यतया पुलिंग शब्दों में, ई या इया, नी, इन, उन, आदि लगकर बनते हैं उदाहरण के लिए मोड़ा से मोड़ी, बेटा से बिटिया, कुरवा से कुरइया, लट्ठ से लठिया, बनिया से बनीनी (बनयाईनी), हिरन से हिन्नी, पटवाई से पटवाइन, नाऊ से नाउन – नाइन, धोबी से धोबिन बनते हैं। इसके विपरीत पुलिंग आ, बा, अउआ आदि प्रत्ययों का प्रयोग देखा जाता है जैसे बेटा, मोड़ा, घुरवा, पड़वा, नउवा, पउआ आदि।
कारक
हिन्दी की भांति बुंदेलखंडी में भी संस्कृत की सभी विभक्तियाँ कारक के रूप में प्रयुक्त होती हैं। कर्ता का हिन्दी का ‘ने’ बुंदेली में नें (अनुनासिक) होकर आता है। कभी-कभी नें की एक ही ध्वनि ‘‘ये’’ की ध्वनि में भी परिवर्तित मिलती है। यही ‘यें’ की ध्वनि कर्म कारक में भी शब्द को एकारांत करके को के बदले में मिलती है साथ ही हिन्दी का ‘को’ शब्द को एकारान्त करके को के बदले में मिलती है साथ ही हिन्दी का ‘‘को’’ बुंदेली में ‘कों, खों, खां’’ आदि के रूप में भी मिलता है। उदाहरण के रूप में- राम ने की जगह राम नें। रावण को की जगह रावण कौं, खों, खां या रावणें मारौ। इसी प्रकार करण कारक का ‘से’ भी बुंदेली में अनुनासिक होकर ‘सें’ के रूप में प्रयुक्त होता है। संप्रदान कारक को ‘को’ करम के ‘को’ की भांति ही ‘कौ, खौं, खां और यें’ में बदल जाता है। संप्रदान के दूसरे चिन्ह (के लिए) के स्थान पर के लाने, के काजें, काज या केवल काजें’’ आदि प्रयुक्त होते हें जैसे- हमाये लानें, हमाये काजें, पड़वे काज, पड़वे काजें आदि। अपादान के चिन्ह ‘से’ के लिए बुंदेली भाषा में ‘सें या तें’ प्रयुक्त होता है जेसे घरसें या धरतें। संबंध कारक के चिन्ह ‘का’ के स्थान पर बुंदेली में ‘कों’ प्रयुक्त होता है जैसे- रमुआ कौ लरका। अधिकरण के चिन्ह ‘में, पै, पर’ के स्थान पर बुंदेली में ‘में, मां, पैं’ रूप मिलते हैं और बहुधा हिन्दी के ‘में’ के स्थान पर संस्कृत की सप्तमी विभक्ति की भांति ऐकारांत के स्थान पर ऐकारांत होकर भी बुंदेली भाषा में अधिकरण कारक का प्रयोग मिलता है उदाहरण के रूप में हमें घरै जानें या इनें बजारै जानें आदि।
सर्वनाम
सर्वनाम में तीन पुरूष का प्रयोग बुंदेली में होता है। हिन्दी में जिस प्रकार ‘में, तुम, वह’ का प्रयोग होता है बुंदेली में ‘मैं, तें, तू या वो’ तथा बहुवचन में’ हम, तें या तू या तुम और वे’ रूप हो जाते हैं। स्त्री लिंग में भी सर्वनामों के यही रूप रहते हैं केवल क्रिया के स्त्री लिंग में प्रयुक्त होने के कारण इनका लिंग भी क्रियानुसार ही माना जाता है जैसे- में गओ तो हतो, मैं गई तो हती। तू गओ तो या तूं गई ती। बो गओ तो या बौ गई ती आदि। को उदाहरण के रूप में दिया जा सकता है। कारकों के चिन्ह के रूप में सर्वनाम शब्दों में भी संज्ञा की ही भांति शब्दांशों या प्रत्ययों अथवा संबंधवाची शब्दों का प्रयोग बुंदेली में होता है। उदाहरण के लिए मैंने, मोंखा, मोसें, मोय या मोय काजें या मोखों आदि। कर्मवाच्य में अवश्य ही द्वारा के स्थान पर संज्ञा और सर्वनाम दोनों ही शब्दों में ‘तैं या में’’ का प्रयोग होता है जैसे- मो तें नई खाई जावै, मौपे नई खबत आय।
क्रिया
बुंदेली में एकाक्षर एवं बहु अक्षर दोनों ही प्रकार के क्रिया रूप मिलते हैं। एकाक्षर- गओ, दओ, तुओ, छुओ या छिओ, भओ आदि और बहुअक्षर के रूप में भारौ, डारौ, खरौ, परौ, खेलौ आदि का उदाहरण पर्याप्त होगा। क्रियाओं के पुलिंग रूपों में, विभिन्न कालों में विभिन्न प्रत्ययों का प्रयोग होता है और स्त्री लिंग के क्रिया रूपों में उनसे भिन्न प्रत्यय प्रयुक्त होते हैं। जाने के अर्थ में जिस प्रकार हिन्दी में जाता था और गया, संस्कृत की धातुओं के आधार पर दो रूप मिलते हैं उसी प्रकार बुंदेली में भी दो रूप मिलते हैं। इन्हीं रूपों में विभिन्न कालों के रूपों का पुलिंग एवं स्त्री लिंग दोनों ही लिंगों के प्रयोगों के साथ उदाहरण किये जा रहे हैं। सामान्य भूतकाल में पुलिंग में एक वचन में ‘गओ’, बहुवचन में ‘गये’, स्त्री लिंग में एक वचन में ‘गई’ और बहुवचन में ‘गईं’, निकट भूत में पुलिंग एक वचन में ‘चलो गओ’, बहुवचन में ‘चले गये’, स्त्री लिंग में एक वचन और बहुवचन में क्रमशः ‘चली गई और चलीं गईं’ अपूर्ण भूत में पुलिंग के एक वचन में ‘आ रओ तो या जा रओ हतौ’ बहुवचन में ‘जा रये ते या जातते’ तथा स्त्री लिंग एक वचन में जा रईं तीं या जातती और बहुवचन में जारईं तीं या जाततीं’, पूर्ण भूत में पुलिंग एक वचन में ‘गओ तौ या गओ हतौ’, बहुवचन में गये ते या गये हते, स्त्री लिंग एक वचन में गई ती या गई हती और बहुवचन में गईं तीं या गईं हतीं, संभाव्य भूत में पुलिंग एक वचन में ‘गओ होतो’ या ‘जातौ’ बहुवचन में गये होते या जाते, स्त्री लिंग एक वचन में ‘गई हो ती’ या ‘‘जाती’ बहुवचन में गये होते या जाते, स्त्री लिंग एक वचन में ‘गई होती’ या ‘जाती’ बहुवचन में ‘गईं होतीं या जातीं’, संदिग्ध भूत में, पुलिंग एक वचन में गओ हुये। बहुवचन में गये हुयें या गये हुंईयें, स्त्री लिंग एक वचन में गईं हुये, बहुवचन में गईं हुइंयें या गईं हुंऐं रूप मिलते हैं। इसी प्रकार वर्तमान काल में सामान्य वर्तमान काल में पुलिंग एक वचन में जात या जइयत, बहुवचन में, जात या जाइत, स्त्रीलिंग एक वचन में, जाती और बहु वचन में जातीं, अपूर्ण वर्तमान काल में पुलिंग एक वचन में जा रओ, बहुवचन में, जारये, स्त्रीलिंग एक वचन में, आरई और बहुवचन में आरईं, संदिग्ध वर्तमान काल में पुलिंग एक वचन में, जात हुऐं या जात होंयें, बहुवचन में, जात हुंये या जात हुंइंयें, स्त्री लिंग एक वचन में जात हुये, जात हुइये, बहुवचन में जातीं हुयें या जात हुइयें तथा संभाव्य वर्तमान काल में संदिग्ध वर्तमान के अनुसार ही रूप मिलते हैं। भविष्य काल में सामान्य भविष्य में पुलिंग एक वचन में, जावै बहुवचन में, जायें, स्त्री लिंग एक वचन में भी यही रूप मिलते हैं। भविष्य काल में पुरुष भेद के कारण एक वचन में ‘जैंहो या जावी’ बहुवचन में ‘जेंहें या जावी’ प्रयुक्त होते हैं। स्त्री लिंग में भी पुलिंग की भांति प्रयोग होते हैं। जैहों के स्थान पर जइहों के प्रयोग भी दिखाई देते हैं इसी प्रकार अन्य क्रियाओं में भी कुछ भेद के साथ ही सामान्यतया यही प्रत्यय जुड़कर विभिन्न कालों में क्रिया के रूप प्रयुक्त होते हैं जैसे- कर्मवाच्य और कर्त्तृवाच्य में प्रयुक्त क्रियाओं में अकर्मक क्रियाओं के वाक्यों में कर्मवाच्य का कोई प्रश्न ही नहीं उठता, सकर्मक क्रियाओं में बुंदेली में क्रिया का रूप सामान्यतया परिवर्तित हो जाता है या कर्त्तृवाच्य में समान ही रूप रहता है जैसे ‘मारना’ क्रिया में कर्त्तृवाच्य और कर्मवाच्य में ‘‘मारौ एवं मारौ गओ’ प्रयुक्त होते हैं। इसी प्रकार कर्तृवाच्य के रूप में भी गओ लगा देने से क्रिया का कर्मवाच्य रूप बना लिया जाता है। प्रेरणार्थक क्रियाओं में क्रिया के रूप में ‘उआ या वा’ प्रत्यय लग जाता है जैसे- मारो एवं मरवाओ ।
यद्यपि बुंदेली का व्याकरणिक अध्ययन एक विषद विषय है किंतु यहाँ पर बुंदेली लोक साहित्य में प्रयुक्त शब्दों के, क्रियाओं के रूपों को समझने तथा बुंदेली भाषा की प्रवृत्ति के संबंध में सामान्य जानकारी के लिए, बुंदेली के व्याकरण संबंधी रूपों या रूपांतरों के नियमों का संक्षिप्त विवेचन किया गया है जिससे पाठक बुंदेली लोक साहित्य के अन्तर्निहित भावों या विचारों की गहराई तक या उनकी आत्मा तक पहुँच सकते हैं।