खंड-3 बुंदेली लोक साहित्य का विकास एवं वर्गीकरण
March 29, 2025खंड-5 बुंदेली लोकसाहित्य की विषयवस्तु, लोकमूल्य एवं लोकाचरण
April 26, 2025बुंदेली लोक साहित्य में निम्नांकित विधाएँ हैं- 1. बुंदेली लोक गीत, 2. बुंदेली लोक गाथा, 3. बुंदेली लोक कथा, 4. बुंदेली लोक नाट्य एवं नृत्य, 5. बुंदेली, बुझउअल, कहावतें एवं मुहावरे।
(अ) बुंदेली लोक गीत
लोग गीत फोक सांग का पर्याय रूप माना गया है। वैसे लोक में प्रचलित, लोक द्वारा सृजित एवं लोक के लिए निर्मित गीतों को भी लोक गीत कहते हैं। यह गीत व्यक्ति विशेष के न होकर समूह के होते हैं। इसीलिए इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ग्रंथ में, नाम व्यक्ति हीन रचनाओं को, परंपराओं के प्रवाह में पड़ने वाला गीत कहा है। लोक गीतों की परिभाषा अनेक विद्वानों ने अनेक प्रकार से की है।
- ‘‘लोक गीत उन लोगों के जीवन की अनायास प्रवाहात्मकता की अभिव्यक्ति है जो सुसंस्कृत तथा सुसभ्य प्रभावों से बाहर रहकर कम या अधिक रूप में आदिम अवस्था में निवास करते हैं
- ‘‘डॉ. सदाशिव फड़के ने लोक गीतों को लोक मानस का तरंगाहत रूप से नि:सृत काव्य रूप माना है।
- ‘‘शास्त्रीय नियमों की विशेष परवाह न करके सामान्य लोक व्यवहार के उपयोग में लाने के लिए मानव अपने आनंद की तरंग में जो छंदोबद्ध वाणी सहज उद्भूत करता है, वही लोक गीत है
हिन्दी साहित्य कोष भाग 1 में लोक गीत शब्द के तीन अर्थ स्वीकारे हैं। 1. लोक प्रचलित गीत, 2. लोक निर्मित गीत, 3. लोक विषयक गीत।
गीतों के तीनों प्रकारों में लोक प्रचलित गीत मात्र लोक गीत की गरिमा नहीं पा पाते हैं। वह लोक गीत की गरिमा तक, उसी क्षण पहुँच सकते हैं जब उनके निर्माण में लोक मेधा का प्रयोग लोक के लिए किया गया हो। इन गीतों का सर्वमान्य लोक हित बनना अनिवार्य है अन्यथा ये लोक गीत नहीं कहे जा सकते हैं। ‘‘लोक गीत वस्तुतः वह हो सकता है जिसमें रचयिता का निजी व्यक्तित्व नहीं होता। वह लोक मानस से तादात्म्य रखता है और ऐसे व्यक्तित्वहीन रचना करता है कि समस्त लोक का ही व्यक्तित्व उसमें उभरता है और लोक उसे अपनी चीज कहने लगता है, वही लोक का अपना गीत होता है’’।[5] साहित्य समाज का दर्पण है। व्यक्तियों के समूह के अंतर्संबंधों का नाम समाज है। मानव अपने यत्र तत्र सर्वत्र, जो देखता है उसी की अभिव्यक्ति साहित्य में करता है। लोक कवि की अनुभूतियाँ लोक की चिर शाश्वत अनुभूतियाँ होती हैं क्योंकि कवि, लोक के चिर आधारों का अनुकरण, भावनाओं के माध्यम से करके उन्हें नये स्वरूपों में प्रत्यावर्तित कर गीतों में व्यक्त करता है। यही अभिव्यक्ति जब जन जन को कवि मात्र की भाषित न होकर जन जन की भाषित होने लगती है वही गीत, लोक का हो जाता है। अनेक विद्वानों ने लोक गीतों के संबंध में कहा भी है।
- ‘‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका के अनुसार, ‘‘लोक गीत मानव जाति के हृदय से, अपने अभावों द्वारा जन्य प्रकृति प्रदत्त आवाज के द्वारा अचानक घुमड़ कर होने वाला प्रकट संगीत है, जो हृदय का बोझ हलका करने के लिए भावों की अभिव्यक्ति के निमित्त बोलने की अपेक्षा गाकर गीतों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है।’
- रामनरेश त्रिपाठी के अनुसार, ‘‘ग्राम प्रकृति के उदगार हैं। उनमें अलंकार नहीं, केवल रस है, छंद नहीं केवल लय है’
- सूर्यकरण पारीख एवं नरोत्तम स्वामी के अनुसार, ‘‘आदि मनुष्य हृदय के गानों का नाम लोक गीत है’’।
- श्री गुलाबराय के अनुसार – ‘‘लोक गीत लोक भावना की अभिव्यक्ति है’’।
- देवेन्द्र सत्यार्थी के अनुसार – ‘‘लोक गीत किसी संस्कृति के मुँह बोलते चित्र हैं’’।
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘‘ग्राम गीत आर्येतर सभ्यता के वेद हैं’’।
- ‘‘गीत मानो कभी न छीजने वाले रस के सोते हैं। वे कण्ठ से गाने के लिए और हृदय से आनंद लेने के लिए हैं’’।
अनेक विद्वानों की परिभाषा के अनुशीलन के आधार पर कहा जा सकता है कि लोक गीत मानव हृदय की नैसर्गिक मूल भावना की सहज, स्फूर्ति जन्य अभिव्यक्ति हैं। लोक गीत मानव की प्रकृति प्रदत्त लोक कथात्मक अभिव्यक्ति हैं। लोक गीत समूह के तरंग युक्त नृत्यात्मक गान की अभिव्यक्ति हैं। लोक गीत लोक हेतु आनंदात्मक अभिव्यक्ति हैं। ये समस्त विशेषताएँ बुंदेली लोक गीतों में प्राप्त होती हैं। ‘‘लोक गीत वे हैं जो अपनी एक प्राचीन परंपरा को लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी रचना कार्य के व्यक्तिगत व्यक्तित्व से निर्लिप्त, पर समस्त लोक के व्यक्तित्व को समेटे हुए लोक मानस से तादात्म्य स्थापित करते हुए आगे बढ़ रहे हैं’’।
उपर्युक्त समस्त विद्वानों के कथनों के आधार पर निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि, ‘‘लोक गीत वह अनगढ़ पत्थर हैं जो सहज भावावेशयुक्त अनुकूलन, सरिता के उद्गम से लुढ़क, उसके लयात्मक कल कल निनाद में तालमेल कर, परंपराओं के घात प्रतिघातों में कटता-छँटता बढ़ता रहता है। अपना निजत्व व्यष्टि परक न बना, जन-जन के कण-कण में समष्टि परक बनता-बनता परिमार्जित हो ढलता रहता है। वही लोक मानस को शालिगराम की बटइया (मूर्ति) की तरह लोक ग्राह्य हो वंदनीय, आनंदवर्धक हो जाता है। जो काल विशेष, जाति विशेष, व्यक्ति विशेष का न होकर सार्वभौमिक हो जाता है। जहाँ भाव, लय, आनंद सभी मानव के मूल रूप से तादात्म्य कर तिरोहित हो जाते हैं। संक्षेप में ‘‘लोक गीत लोक के शाहजहाँ के हृदय की साम्राज्ञी मुमताज की रूपमाधुरी का बिम्ब, ताज है।
बुंदेली लोक गीतों का वर्गीकरण
डॉ. वृंदावन लाल जी वर्मा का कथन अक्ष्ररश: सत्य है कि ‘‘बुंदेलखंड जनजीवन ऐसे अनगिनत गीतों का भण्डार है जो कभी भी रिक्त नहीं हुआ है’’। व्यापकता एवं प्रचुरता बुंदेली गीतों की विशेषता है। इनमें मानव जीवन के सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों का चित्रण हुआ है। असाढ़ से जेठ मास तक, प्रातः से संध्या तक, जन्म से मरण तक, चींटी से हाथी तक, कण से पहाड़ तक, बूँद से सागर तक इसकी अभिव्यक्ति के माध्यम रहे हैं। अनेकानेक विद्वानों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में बुंदेली लोक गीतों का विभाजन करने का प्रयास किया है।
- श्री गौरीशंकर द्विवेदी का वर्गीकरणः- 1. सैरे- ये असाढ़ मास से लेकर श्रावण मास के अंत तक गाये जाते हैं। 2. राछरे- ये जेठ से श्रावण तक गाये जाते हैं। 3. मलारैं सावन- ये श्रावण और भाद्र पद में गाई जाती हैं। 4. बिलवारी और दिवारी- ये क्वाँर और कार्तिक में गाई जाती हैं। 5. बाबा के या भोला के गीत- ये संक्रांति आदि तीर्थ यात्रा के अवसर पर गाये जाते हैं। 6. फागें और लेदैं- माघ-फागुन में गाईं जाती हैं। 7. गारीं- विवाहादि के अवसरों पर गाई जाती हैं। इनके अतिरिक्त घास काटते समय, मजदूरी करते समय, चक्की पीसते समय इत्यादि अनेक अवसरों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के गीत भजन दादरे आदि गाये जाते हैं।
- श्री ब्यौहार राजेन्द्र सिंह का वर्गीकरणः- श्री सिंह जी ने विन्ध्य भूमि अगस्त अक्टूबर 1947 के अनुसार बुंदेली गीतों का वर्गीकरण इस प्रकार किया है। 1. धार्मिक गीत- माता के गीत, कार्तिक गीत, गोटें, बाबा के गीत, देवताओं के गीत, नौरता, सुअटा के गीत। 2. सामाजिक गीत- साजन, बनरा, गारीं, बधाई, सौहरे, गड़रयाऊ, विरा, ककूयाऊ, दादरे, लावनीं, ख्याल, दौहरा, चौपरा। 3. प्राकृतिक गीत- मल्हारें, सैरे, विलमारी, फागें, दिवाली, दिवरी सावन, बंजारा, लोरियाँ, राहुला, ख्याल, राछरे, ऊकूरी, कहिरवा, होली, रसिया। श्री शिव सहांय चतुर्वेदी का वर्गीकरण- 1. जन्म समय के गीत- इनमें सोहरे, बधाये, संसत तथा जन्म संबंधी सभी संस्कारों, मुण्डन, पासनी आदि के गीत शामिल किये जा सकते हैं। 2. खेलकूद के गीत- इसमें लड़कियों के विविध खेलों के गीत तथा नौरता आदि के गीत सम्मिलित हैं। 3. वैवाहिक गीत- इनमें बनरा, बनरी, रघुपत गारीं, बीच, विवाह संबंधी समस्त नैग-दसतूरों के गीत आते हैं। 4. श्रृंगार रस संबंधी गीत- इसमें श्रृंगार तथा रसिकता संबंधी सभी प्रकार के गीतों का समावेश हो सकता है। 5. धार्मिक गीत- इनमें मीरा के गीत, भजन, भगतें तथा राम कृष्ण के प्रेम तथा लीला संबंधी गीतों का समावेश किया जा सकता है। 6. फागुन- ये फागुन के महीने में गाई जाती हैं। 7. राछरे- ये श्रावण में गाये जाते हैं। 8. दिवारी- ये दीवाली के अवसर पर गाई जाती है। 9. सैरा- ये श्रवण भादौं में गाई जाती है। 10. रसिया मल्हारें- ये श्रावण भादौं में गाई जाती हैं। 11. राई- बारहों महीने गाई जाती है। 12. भोला के गीत- तीर्थ यात्रा के समय गाये जाते हैं। 13. श्रमदान के गीत- फसल की बुआई, कटाई आदि के समय गाये जाते हैं। 14. खास जातियों के गीत- 15. मौसम के गीत- इसमें फागें, दिवारी, कार्तिक के गीत आदि हैं।
- श्री कृष्णानंद का वर्गीकरण- बुंदेलखंड के लोक गीतों को उनके विषय और गाने के अवसरों की दृष्टि से निम्नलिखित प्रकारों में बांटा जा सकता हे। 1. ऋतु गीत, 2. श्रम गीत, 3. त्यौहार गीत, 4. संस्कार गीत, 5. यात्रा गीत, 6. धार्मिक गीत, 7. बाल गीत, 8. विविध गीत।
- ऋतु गीत- 1. सैरे-वर्षा ऋतु में विशेषकर श्रावण तथा कजली के अवसर पर गाये जाते हैं। 2. राछरे- ये वर्षा ऋतु में गाये जाने वाले स्त्रियों के गीत हैं। 3. फाग- होली के गीत हैं। ये कई तरह की होती हैं। चौकड़याउ, छन्दयाऊ, डिडडुरयाऊ, साकी की इत्यादि। 4. बारामासी।
- श्रम गीत- 1. रामारे- गेहूँ बोते समय के गीत हैं। 2. बिलवारी- अगहन में ज्वाँर की फसल काटते समय का गीत है।
- त्यौहार गीत- 1. नौरता के गीत, 2. दिवारी के गीत, 3. कार्तिक के गीत, 4. चैत के गीत।
- संस्कार गीत- 1. जन्म-सोहर गीत। 2. विवाह गीत- 1. भाँवर गीत, 2. वर पक्ष का गीत, 3. बिदाई गीत,
- धार्मिक गीत- 1. माता के भजन, 2. यात्रा के गीत।
- बाल गीत- बालकों के गीत, बालिकाओं के गीत- 1. मामुलिया गीत, 2. पूजन गीत, 3. सुअटा, 4. कांय डालना।
बालकों के गीत- 1. खेल के गीत, 2. टहूके, छोटे कथा गीत, 3. लोरी।
- जातियों के गीत- 1. चमारों के गीत, 2. धोबियों के गीत।
- हास्य गीत।
राम चरण हयारण मित्र द्वारा वर्णित लोक गीतों का स्वरूप
- बुंदेलखंड में प्रचलित त्यौहार, व्रत, मेले और लोक गीत- 1. गनगौर पूजन गीत, 2. नवदुर्गा जवारीं गीत, 3. हरदौल के गीत, 4. बसंत ऋतु के गीत।
- ग्रीष्म ऋतु के तीज त्यौहार, व्रत, मेले और लोक गीत- 1. अक्षय तृतीया गीत, 2. विरह गीत।
- वर्षा ऋतु के तीज त्यौहार, व्रत, मेले और लोक गीत- 1. विरह गीत, 2. मेंहदी गीत, 3. फूले के गीत, 4. मामुलिया, 5. सुअटा।
- शरद ऋतु के तीज त्यौहार, व्रत, मेले और लोकगीत- कार्तिक स्नान संबंधी।
- हेमन्त ऋतु के तीज त्यौहार, व्रत, मेले और लोक गीत- विवाह संस्कार- 1. मंडप गीत, 2. विवाह निमंत्रण गीत, 3. विषम परिस्थिति गीत, 4. टीका का लोक गीत, 5. भाँवर का गीत, 6. सृजन गीत, 7. राम गारी, 8. सुहाग गीत, 9. विदा का गीत।
सोहर- 1. सोहरे, 2. कुआँ पूजन का लोक गीत, 3. बुंदेली लोरी गीत, 4. बालविनोद गीत।
शिशिर ऋतु के तीज त्यौहार, वृत, मेले और लोक गीत- 1. मकर संक्राति के गीत, 2. होलिकोत्सव आदि के गीत।
डॉ. शालिगराम गुप्त का वर्गीकरण
- संस्कारों के गीत- 1. जन्म संस्कार के गीत, 2. नामकरण संस्कार के गीत, 2. मंगल गीत या विवाह गीत- 1. वधू पक्ष, 2. वर पक्ष। 3. व्रतों के गीत- 1. देवी के गीत, 2. सुअटा अथवा नौरता के गीत, 3. कार्तिक के गीत। 4. ऋतु या मास संबंधी गीत- वर्षा- 1. सावन मास के गीत- हिंडौला या कजली, बारहमासा और सैरा। 2. भादौंमास के गीत- नाग नाथन लीला। 3. शरद ऋतु- कार्तिक मास के गीत- दिवारी और होरी, 4. बसंत ऋतु- फागुन मास के गीत- होली और रसिया। 5. बारह मासा गीत। 5. जातियों के गीत- 1. बेड़नियों का गीत (राई), 2. पिछड़ी जातियों के गीत, 3. कहारों के गीत- कहरवा, दादरा, और लहवारी, 4. अहीरों का गीत- साखी अथवा विरहा, 5. किसानों का गीत, 6. धोबियों का गीत (धुवयाई)। 6. सामयिक या विविध गीत- 1. बालकों का गीत, 2. कलेवा गीत, 3. नृत्य गीत, 4. क्रिया गीत, 5. गारी गीत, 6. भजन गीत।
श्री देवेन्द्र सत्यार्थी का वर्गीकरण
‘‘बुंदेलखंड मूक नहीं है’’ नामक निबंध में देवेन्द्र सत्यार्थी ने बुंदेली लोक गीतों के विविध प्रकारों पर विचार करते हुए इनका वर्गीकरण यों बताया है- 1. माता के भजन, 2. कार्तिक के गीत, 3. बाबा के गीत, 4. नौरता के गीत। वीर गाथाओं का अलग स्थान है। इनके कथा गीतों के मुख्य विभाग हैं- 1. राछरे, तथा पंवारे। एक और श्रेणी यों हो सकती है- 1. लोरियां, 2. बच्चों की तुकबंदियाँ तथा खेल गीत। फिर संस्कार गीत- 1. सोहरे, 2. विवाह गीत- सजन, बनरा, बधाई और गारी। फिर ऋतु गीत- 1. सावन और मल्हारे, 2. विलवारी, 3. दिवाली-कार्तिक, 4. फागें। ये चार प्रकार की होती हैं। 1. सखयाऊ फागें, 2. डिडडुरयाऊ फागें, 3. चौकड़याऊ फागें 4. कुन्दयाऊ फागें। इनके अलावा रसियों और दादरों का अपना स्थान है। लेदें भी बहुत शौक से गाई जाती हैं। सैरों को हम खेतों की कविता कह सकते हैं। अलग-अलग जातियों के कुछ विशेष गीत भी मिलते हैं- जैसे धोवियों के धुवियाउ, ढीमरों के ढिमरयाऊ, गड़रियों के गड़रयाऊ। इनके अलावा- 1. लोक नृत्यों के गीत, 2. विभिन्न कथा गीत, 3. लोक नाटकों के गीत, 4. लोक कथाओं में प्रयोग किये गये दोहे और अन्य छोटे गीत।
श्रीचंद जैन का वर्गीकरण
श्रीचंद जी जैन ने बुंदेली लोक गीतों को इस प्रकार विभाजित किया है- 1. धार्मिक गीत, 2. ऋतु गीत, 3. क्रिया गीत, 4. सामाजिक गीत, 5. ऐतिहासिक गीत, 6. बाल गीत, 7. विविध गीत।[1] उपर्युक्त विद्वानों के वर्गीकरण के अलावा बुंदेली लोक गीतों का वर्गीकरण, मेरे मतानुसार इस प्रकार किया जा सकता है।
बुंदेली लोक गीतों का वर्गीकरण-
- आकार की दृष्टि से, 2. लिंग की दृष्टि से, 3. संस्कारों की दृष्टि से, 4. उद्देश्य की दृष्टि से।
- आकार की दृष्टि से- 1. प्रबंध गीत, 2. मुक्तक।
- प्रबंध गीत- 1. आल्हा, 2. गोटें, 3. धंवारौ, 4. अमानसिंह जू कौ राछरौ।
2 मुक्तक- (समस्त लघु गीत)।
- लिंग की दृष्टि से- 1. पुरूषों के लोक गीत, 2. स्त्रियों के लोक गीत, 3. लड़कियों के गीत, 4. लड़कों के गीत, 5. किन्नरों के गीत (सोहरे, दादरे)।
- संस्कारों की दृष्टि से- 1. जन्म संस्कार के गीत, 2. यज्ञोपवीत संस्कार के गीत, 3. विवाह संस्कार के गीत, 4. मृत्यु संस्कार के गीत।
1. जन्म संस्कार के गीत
जन्म संस्कार के गीत- 1. सोहरे- 1. बाँझ व्यथा गीत, 2. पुत्र आकांक्षा गीत (संसत गीत), 3. सरिया गीत, 4. आवान सें रैने के गीत, 5. आगन्नों के गीत, 6. साथ गीत, 7. पीर के गीत, 8. बचाये के गीत, 9. मों लौटनी के गीत, 10. नरा काटत के गीत, 11. टाठी जुठारत के गीत, 12. चरूआ के गीत, 13. सोर उठत के गीत (बसोरनें गाती हैं) 14. काजर आंजत के गीत, 15. छटी के गीत, 16. दस्टोन के गीत (नामकरण के गीत), 17. बार कड़े के गीत, 18. कुआँ पूजत के गीत, 19. गगरी उतारत के गीत, 20. पलना के गीत (झूला गीत- लोरी गीत) 21. नैग गीत, 22. मुण्डन के गीत (चूड़ा करण), 23. कन्छेदन गीत, 24. पासनी के गीत (अन्न प्राशन)।
- यज्ञोपवीत संस्कार के गीत– (जनेऊ के गीत)।
- विवाह संस्कार के गीत– 1. बनरा गीत, 2. बनरी गीत।
- सगाई के गीत (पक्यात के गीत) 2. सुतकरा के गीत, 3. लगुन के गीत, 4. सीदौ छुअत के गीत, 5. चक्की पीसवे के गीत, 6. मटयावने के गीत, 7. छेई मांटी के गीत, 8. नेवते के गीत (मातृका पूजन, बाबू पूजन, और मैर बव्बा पूजन के गीत), 9. हल्दी तेल चढ़त के गीत, 10. बरात आगमन के गीत (बनरी), 11. बरात तैयारी के गीत (बनरा), 12. बनरा निकासी गीत, 13. ऊबनी गीत, 14. मड़वा मारत को गीत, 15. चीकट गीत, 16. चढ़ाव गीत, 17. भाँवर तथा पाँव पखरई गीत, 18. धानबुआई गीत, 19. राछ बंदाय कौ गीत, 20. लाकौर कौ गीत, 21. पंगत कौ गीत (गारियां), 22. सुहाग लगत कौ गीत, 23. बाबा खैलत कौ गीत (बनरा पक्ष में), 24. बंद छौरवे कौ गीत, 25. खपरा लौटाई गीत, 26. चकिया मौं खुलाई गीत, 27, विदाई गीत, 28. बहू उतारने के गीत, 29. देई-देवता पूजवे के गीत, 30. मौचायने के गीत, 31. दसमाननी के गीत, 32. दादरे।
- मृत्यु गीत– (मृत्यु संस्कार पर गाये जाते हैं।)
- उद्देश्य की दृष्टि से– 1. आचार संबंधी गीत, 2. सामाजिक गीत।
- धार्मिक गीत- 1. गोटे, 2. भगतें, भजन, देवी गीत, 3. रामकृष्ण लीला के गीत, 4. कार्तिक स्नान के गीत, 5. हरदौल के गीत, 6. बालाजू के गीत, 7. श्रवणकुमार के गीत, 8. यात्रा गीत (संक्रांति के गीत) या बाबा के गीत, 9. नारे सुअटा के गीत, 10. तीजा के गीत, 11. भुँजरियों के गीत, 12. दिवारी के गीत, 13. होली के गीत, 14. अख्ती के गीत, 15. लंगुरा के भजन या लंगुरियां।
- ऋतु गीत- असाढ़- 1. आल्हा, 2. ददरियाँ, 3. राछरे, 4. सैरे, 5. उरगिया। सावन के गीत- 1. सावन, 2., कजली, 3. झूला, 4. राछरे, 5. मेंहदी गीत, 6. रसिया, 7. मलारैं।
- भादौं के गीत- रसिया, मलारें, सैरा, मैंराहै, छट के गीत, तीजा के गीत, जल विहार के गीत, निराई गीत।
- क्वाँर के गीत– रामा, नौरता, भगतें, बौनी के गीत।
- कार्तिक के गीत– कार्तिक स्नान गीत, दिवाई, सैरे, नृत्य गीत।
- अगहन के गीत– विलवारी, टिप्पे, लमटैरा, कहरवा, ख्याल, अन्य श्रमगीत।
- माघ के गीत– यात्रा के गीत, बाबा या भोला के गीत।
- फागुन के गीत- होली, फाग- लैदें, डिडडुरयाऊ, साखी फाग, सकरयाऊ फाग, कुन्दयाऊ फाग, चौकड़िया फाग, झूला की फाग, राई गीत, पारी टोरत के गीत, रसिया।
- चैत के गीत– रामारे, दिनरी।
- बैसाख, जेठ के गीत– अक्ती के गीत, बनरा बनरी और बारह मासी गीत।
- श्रम गीत- 1. खेत जोतते-बखरते समय के गीत, 2. कांद निकालते समय के गीत, 3. बोनी के गीत, 4. निदाई के गीत, 5. कांस काड़त के गीत, 6. पौला नींदत के गीत, 7. चारा काटते या फसल काटते के गीत, 8. चक्की पीसने के गीत, 9. रहँट चलाते समय के गीत, 10. चरखी के गीत।
- जाति परक गीत- 1. सवरणों के गीत, 2. ढिमरयाई गीत- 1. सजनई, 2. विरहा, 3. रावला गीत। 3. धुवियाई गीत- 1. धुवियाई, 2. लाचारी, 3. विरा, 4. रावला गीत। 4. चमारों के गीत, 5. गड़रियों के गीत, 6. अहीरों के गीत, 7. राउतों के गीत (सौंरो के गीत), 8. कछया गीत, 9. कुरया गीत, 10. बेड़नी के गीत, 11. नटों के गीत, 12. भांड़ों के गीत।
- त्यौहार गीत- 1. सावन गीत या फूला गीत, 2. तीजा, हरितालिका गीत, 3. महालक्ष्मी व्रत गीत, 4. नारे सुअटा गीत, 5. दुर्गा पूजन गीत, 6. दीपाली, गोबर्धन, भइया दूज पूजन गीत, 7. कार्तिक पूजन गीत, 8. मकर संक्रांति गीत, 9. होली पूजन गीत, 10. रामनवमी पूजन गीत, 12. अक्ती गीत, 13. बराबरसात पूजन गीत।
- विविध गीत- 1. हास्य गीत, 2. श्रृंगार गीत, 3. पारिवारिक स्थिति परक गीत, 4. किसान स्थिति परक गीत, 5. पटवारी महत्व गीत।
इस विभाजन के अंतर्गत बुंदेली लोक गीतों की आत्मा समाहित हो जाती है। मानव के आदिम रूप से गीत उसके हृदय की खुशियों का राग अलापकर संस्कारों की अभिव्यक्ति के, सफल अभिवक्ता रहे हैं। मानव जीवन में हिन्दू संस्कृति के आधार पर सोलह संस्कार का विधान है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को सुसंस्कृत एवं आदर्शमय बनाते हैं। इनमें जन्म संस्कार, विवाह संस्कार एवं मृत्यु संस्कार प्रमुख हैं। ये तीन संस्कार जीवन के तीन मोड़ हैं। एक जगत दर्शन कराता है, दूसरा सृष्टि के निर्माण की ओर उन्मुख कर कर्तव्यरत करता है। अंतिम पुनः अन्यत्र के लिए विसर्जन करता है। प्रथम दो संस्कार खुशी के संस्कार है। अंतिम संस्कार शोक का संस्कार है। बुंदेली गीतों में मृत्यु के समय, कबीर पंथी समुदाय में (कुरया समाज) कबीर के भजन गाये जाते हैं। इन लोगों में मृत्यु को मोक्ष समझकर आनंद मनाया जाता है। पुरूष और नारी सिक्के के दो पहलू हैं। द्वैत होते हुए भी अद्वैत हैं। एक दूसरे के पूरक हैं। जीवन रथ के दो घरर-घरर चलने वाले चक्र हैं। इनके तालमेल से ही जीवन गतिमान हैं। सृष्टि का संचलन है। प्रजनन क्रिया द्वारा सृष्टि का नित नूतन नव्य निर्माण है। नारी का जीवन उसी क्षण धन्य हो जता है जब उसमें फल फलित हो जाता है क्योंकि नार्यत्व का पूर्णत्व मातृत्व में है। मातृत्व का पूर्णत्व ममत्व में है। ममत्व का पूर्णत्व त्याग में है। त्याग का पूर्णत्व सृष्टि निर्माण हेतु स्वत्व को परत्व में विलीन करने में है। यही भारतीय संस्कृति का सौष्ठव वादी स्वरूप बुंदेली लोक गीतों में पूर्ण रूपेण प्राप्त होता है। भारतीय संस्कृति में पुत्र जन्म अपना मौलिक महत्व रखता है। पुत्र कुल दीपक है। दीपक प्रज्ज्वलित करना हमारा परम कर्तव्य है। इसी सिद्धांत को ध्यानान्तर्गत रख लौकिक स्वरूप में उसी नारी की मान्यता, आदर और सुशोभनीयता है, जो पुत्रवती है। पुत्राभाव में वह अशोभनीय है-
सावन सुहावनों पपिहा रटैं, उर भादौं सुहावनों मोर।
तिरिया सुहावनी तबहईं लगे, बारों खेले पौंर की दौर।श्रावन मास पपीहा के रटने पर ही सुंदर लगता है। रिम-झिम रिम-झिम फुहार में पिउ-पिउ शब्द की गुंजार नैसर्गिक सुषमा में रस घोल देती है। भादौं मास मोर के कौंक्यिने से प्रकृति के उमड़ घुमड़ में घोर पैदा करता है। सरिताएँ आलोड़न करती मस्ती से बढ़ती हैं तदनुरूप लावण्यमयी तरूण कोमलांगी उस समय पूर्णत्व को प्राप्त कर लेती है जब उसकी गोद में किलकारी भरता हुआ, विहंसता बालक किलक की गूँज, गुंजरित कर देता है। नारी सुशोभनीय हो जाती है जब अंचल से अमृत स्रावित करती है। नदी जल प्लावित होने पर सुंदर लगती है। आम से लदी डालियाँ शुभ होती हैं। बछड़े चुखाती गाय, वर्षा ऋतु नीर भरी बदली लेकर, शुभ मानी जाती है। रजनी ज्योत्सना का शुभ्र परिधान ओढ़कर सुंदर लगती है वैसे ही नारी ललना को लेकर अँगना में शोभनीय होती है। यही कारण है कि नारी रति क्रीड़ा से लेकर गर्भाधान की क्रिया प्रक्रिया तक, पुत्र जन्म की शुभ आशा से आशान्वित हो, शुभ कामना करती है। मनौती मनाती है, व्रत पूजन करती है। बुंदेली सौहर गीतों में इन्हीं भावों की अभिव्यंजना हुई है। पुत्र जन्म की खुशी अकथनीय है। मानव दुख को भले अकेले ही झेल ले किंतु सामाजिक प्राणी होने के कारण सुख को मिल बाँटकर भोगता है क्योंकि सुख जैसा विशद भाव व्यक्ति विशेष का न होकर समाज का होता है इसीलिए पुत्र जन्म सुख में स्वजन तथा नरा छीलने वाली दाई, सेवा करने वाली नाइन, धोबिन, बसोरिन और पंडताइन आदि सभी इसके भागीदार होते हैं।
बुंदेली सोहरे
सोलह संस्कारों में पुत्र प्राप्ति का उत्सव प्रधान होता है। मन की प्रसुप्त आकांक्षा कलियाँ, पुष्पित हो, फलित होती हैं। उनकी सुवास नृत्य गीतों के माध्यम से घर का कौना-कौना सुवासित कर जाती हैं। कई दिन तक नाच गान का कार्यक्रम चलता रहता है। ‘‘आदि कवि तमसा तट के तपस्वी, महर्षि वाल्मीकि ने राम जन्म के समय गंधर्वों द्वारा गाने और अप्सराओं के द्वारा नाचने का वर्णन किया है-
जगुः कलं च गंधर्वाः ननृतुश्चाप्सरो गणाः।
देव दुन्दुभयो नेदुः पुष्पवृष्टिश्च खात् पतत् । (बालकाण्ड 18-19 बालमीकि रा.)
महाकवि कालीदास ने अज के शुभ जन्म के अवसर पर राजा दिलीप के महल में वेश्याओं के द्वारा नृत्य तथा मंगल वाद्य होने का उल्लेख किया है’’।
सुख श्रवाः मंगल तूर्य निस्वनाः, प्रमोदनृत्यैः सह वारयोषिताम्।
न केवलं सद्मनि मागधीपतेः, पथि व्यजृभ्यन्त दिवौकसामपि।
महात्मा गोस्वामी तुलसीदास ने रामजन्म के अवसर पर सोहर गीत गाये जाने का गीतावली में उल्लेख किया है। सहेली सुन सोहलो रे।
सोहलो, सोहलो, सोहलो, सोहलो सब जग आज।
पूत, सुपूत कौशल्या जायो, अचल भयो कुल राज।
श्री कृष्ण जन्म पर सूरदास ने भी सोहर गववाये हैं-
गौर गनेस मनाऊं हो देवी सारद लेहि।
गाऊं हरजू कौ सोहलो, मन और न आव मोहि।
गौरि गनेश्वर बीनऊँ (हो), देवी सारद तोहि
गावौं हरि कौ सोहिलौ (हो), मन आखर दै मोहिं।।
‘‘सोहर’’ पुत्र जन्म के समय, उपनयन संस्कार के समय, हिन्दी की विभिन्न बोलियों में गाये जाते है। ये कहीं सोहले हैं, कहीं सोंभर हैं, कहीं सोहरे हैं। नाम कुछ भी हो भाव एक ही है। बिल्कुल ऐसे ही चाहे हम उस अनादि ब्रह्म ईश्वर या खुदा या गॉड या निर्गुन निराकार या विष्णु या कृष्ण कुछ भी कहें अन्ततः सभी अनादि ब्रह्म के रूप हैं। ऐसे विशद आकार का सोहर गीत है। बुंदेली भाषा में इसे ‘सोहरे’’ कहते हैं। ‘‘सोहर जिसे कहीं कहीं सोहलो भी कहते हैं, उस गीत का नाम है, जो पुत्र जन्म के अवसर पर गाया जाता है। गीतों में इसका नाम भी गाया जता है। बाजैं लागी आनंद बधइयाँ गावैं सखी सोहर हो। इसका मुख्य नाम मंगल गीत है। प्रत्येक सोहर के अन्त में यही नाम आता है’’।[4] ‘‘सोहर शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के सूतिकागृह और प्राकृत के सुहहर से हुई होगी। इसे सोलहो या सोहला भी कहते हैं। संस्कृत- शोभावत्-प्राकृत सोहल, हिन्दी सोहला। ‘‘सबका विलास होय सोहिला (जायसी का पद्मावत) हिन्दी साहित्य में सोहर छंद और उनके लौकिक काव्य रूप के अनेक उदाहरण मिलते हैं- जानकी मंगल, पार्वती मंगल (तुलसीदास) अवधी मंगल (कबीरदास)’’।
निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि सोहर वह मांगलिक गीत हैं जो मानव के उल्लसित मन द्वारा पुत्र जन्म अवसरों पर लय के साथ गाये जाते हैं जिनमें तल्लीनता की गरिमा का आधिक्य, सहज रूप में जन-जन को विसित करता रहता है। सोहर गीतों में जीवन की अनेकानेक स्थितियों का सजीव वर्णन होता है। यदि भावों की व्यापकता इनके प्राण हैं तो जीवन निर्माण इनका उद्देश्य और रस वृष्टि इनका श्रृंगार है। बुंदेली भाषा में बुंदेलखंड में जो सोहरे गाये जाते हैं उनमें जीवन की विभिन्न उल्लासमय अकांक्षाओं का सरस चित्रण मिलता है। इनमें भावों की व्यापकता निहित रहती है। संतान की आकांक्षा के गीत, आगन्नों के गीत, साबों के गीत, भौं लोटन के गीत, सरिया गीत, काजर आँजने के गीत, चरूआ गीत, छटी, दस्टोन, पलना, खुनखुना, दाई, नरा छीलनें, नेंग चुकाने, जच्चा-बच्चा की आशीष, मुंडन, कन्छेदन, नामकरण, पासनी आदि गीत सोहरों में गाये जाते हैं। इनका माधुर्य ढोलक की थाप पर आनंदातिरेक की भावना से पैरों की थिरकन अनिर्वचनीय आनंद वर्षाती रहती है।
बाँझ व्यथा गीत
भारतीय संस्कृति का मेरूदण्ड भारतीय नारी है। नारी त्याग का पुँजीभूत रूप है इसी त्याग से वह दो कुलों को उजागर करती है। आदर्श बिटिया बनकर बाबुल कुल को प्रतिष्ठा प्रदान करती है तो मर्यादामयी कुलवधू बनकर नये कुल को गति देती है किंतु उसी कुलवधू की संतानाभाव में, भारतीय समाज, बाँझ या कुलकलंकनी कह उपेक्षा करता है। इसी तिरस्कार और उपेक्षा से पीड़ित भोजपुरी, बघेली, अवधी, बृज और बुंदेली नारी किसी न किसी से जीवन का अंत करने के लिए, वरदान माँगती है। देखिये बृज नारी गंगा से अनुनय करती है-
राजै गंगा किनारे एक तिरिया सु ठांड़ी अरज करें, गंगे एक लहरि हमें देव।
तो जामें डूब जैंहों, अरे जामें डूब जैंहों।
के दुखरी तोई सासरी ससुरि कौ कै तेरे पिया परदेस।
के दुखरी तोय मात पिता को, के माँ जाये बीर। काहे दुख डूबि हो।
ना दुखरी मोई सासुरी ससुर को नाई मेरे पिया परदेस।
ना दुखरी मोई मात पिता को, ना माँ जाये बीर।
सास बहू कहि नायँ बोलें, ननद भाभी न कहें। ननद भाभी न कहे।
ना हो राजै वे हरि बाँझ कहि टेरें, तौ छतियां जू फटि गईं।
पूर्वी जिले का गीत- गंगा जमनुवां के विचवा तेवइया एक तपुकाई हो।
गंगा! अपनी लहर हमें देतिउ मैं मजधार डूवित हो।
की तुहि सास ससुर दुख कि नैहर दूरि बसे।
तेवई, की तोरे हरि परदेस, कवन दुख डूबहू हो।
गंगा! ना मोरे सास ससुर दुख नाहीं नेहर दूरि वसे।
गंगा! ना मोरे हरि परदेस, कौख दुख डूबब हो।
बुंदेली कुल वधू भी परेशान है क्योंकि उसके घर में आँगन, कुआँ, गोवर, सार सभी कुछ है। अच्छे स्वामी भी उसके पास हैं किंतु संतान का अभाव है इसीलिए वह देवी माँ से एक अमर फल पाने के लिए पुकारती है-
घर मोरो साजो आँगन कुआँ सो, गोबर पतरी सार हो लाल।
सास ससुर मोसें बोल बोलवें, धरौ है बंजुटिया नाव हो लाल।
एक अमर फल देव मोरी माता, बाँझ कों नाव मिटाव हो लाल।
घरई के देवरा बोली बोलें, परौ है बंजुटिया नाव हो लाल।
एक अमर फल देव मोरी माता, मिटै बाँझ को नाव हो लाल।
घरई के जेठा मारें कुबोलन, धरौ हे बंजुटिया नाव हो लाल।
एक अमर फल देव मोरी माता, बाँझ को नाव मिटाव हो लाल।
उपर्युक्त सभी गीतों में बाँझ अपनी आकांक्षाएँ प्रकट करती हैं क्योंकि संतान के अभाव में संसार की समस्त संपदा निरर्थक होती है। इसीलिए बुंदेली बाँझ नारी बाँझपन के कलंक से मुक्ति पाने के लिए, बारह वर्ष तक शंकर जी की सेवा करती है। देखिये-
मैंने सेवा करी हो दिन-रात, महादेव एक फल मोय लगा दिइयो।
अरे हां रे, घरई के ससुरा कहें बहू बाँझ, महादेव बाँझ को नाव मिटा दियो।
मैंने सेवा करी दिनरात, महादेव एक फल मोय लगा दिइयो।
इस प्रकार बुंदेली नारी, जिससे सास, जेठ, जिठानी, देवर, ननदोई सभी बाँझ कहते हैं, शंकर जी से एक फल की प्रार्थना करती है। इन गीतों में मानव मन की सूक्ष्म अनुभूतियों का वर्णन, मनोवैज्ञानिक धरातल पर हुआ है। समाज निर्माण के लिए- सृष्टि संचालन के लिए, संतान चाहिये अन्यथा सृष्टि की गति रूक जायेगी। इसीलिए निपूती होना पाप है। बृज और पूर्वी लोक गीतों की बाँझ नारी नैराश्य से पलायनवादी होकर गंगा में डूबना चाहती है किंतु बुंदेली नारी आशान्वित हो कर्मशील होकर शंकर की सेवा कर जीवन को सार्थक बनाती है। यही इन गीतों की मौलिकता है। पुत्र आकांक्षा गीत-संसत गीत- मनुष्य जीवन की सबसे प्रमुख लालसा पुत्र प्राप्ति है। नारी हृदय संवेदना का साकार स्वरूप है क्योंकि पुरूष की अपेक्षा वह अधिक संवेदनशील हृदया होती है। संसार का समस्त वैभव सूनी कोख में नारी के लिए निरर्थक होता है। इसीलिए उसका मन अधीर होकर, संचित गीतों के माध्यम से अन्तस् के उद्गार प्रकट करने के लिए, उमड़ पड़ता है। ‘‘बुंदेलखंड के संचित गीतों में नारी हृदय की यही विकलता उद्दाम वेग से प्रस्फुटित होकर शत सहस्त्र स्त्रोतों से बहती दृष्टिगोचर होती है। उनमें उसकी संतति प्राप्ति की आकांक्षा, अधीरता, करूणा, वेदना तथा पुत्र प्राप्ति के उपचारों का सरस चित्रण रहता है। संसत शब्द संतति का अपभ्रंश है। ‘‘पुमान प्रसूयते येन, कर्मणा तत् पुंसवनमीरितम्। गर्भ धारण का निश्चय हो जाने के पश्चात् शिशु को पुंसवन नामक संस्कार से अभिषिक्त किया जाता था। पुंसवन का अभिप्राय सामान्यतः उस धर्म से था जिसके अनुष्ठान से पुमान् (पुरूष) संतति का जन्म हो। इन अवसरों पर ऋचाओं में पुमान अथवा पुत्र का उल्लेख किया गया है तथा वे पुत्र जन्म का अनुमोदन करती हैं। पुत्र को जन्म देने वाली माता की प्रशंसा थी व समाज में आदर था। यह परंपरा उस युग से चली जाती थी जब युद्ध के लिए पुरूषों की आवश्यकता होती थी क्योंकि प्रत्येक युद्ध के पश्चात् पुरूषों की संख्या घटती जा रही थी। स्त्री का जन्म होता ही था पर स्त्री से भी यही आशा की जाती थी कि वह पुत्र संतान को ही जन्म देगी, पुत्री को नहीं।[5] हिन्दू जाति में संस्कारों का अपना मौलिक महत्व है। उनकी वैज्ञानिकता कसौटी पर खरी उतरती है। ये संस्कार मानव के जीवन को परिमार्जित करने में अपूर्व योगदान प्रदान करते हैं। दोषों को दूर करना ही संस्कार है जिस तरह खान से निकले आभाहीन रत्न खराद पर चढ़कर ज्योतिवान बन जाते हैं उसी प्रकार रक्त, वीर्य, गर्भदोष युक्त शिशु संस्कार युक्त हो जाने पर पवित्र हो जाता है। इन्हीं सब विधियों का सांगोपांग वर्णन हमें बुंदेली लोक गीतों में मिलता है। ये गीत लौकिक रीतिरिवाजों के सफल अभिवक्ता हैं। ‘‘बुंदेलखंड में गर्भ के छटवें या आठवें महीनें में एक दस्तूर किया जाता है जिसे यहाँ आगन्नो या फूल चौक कहते हैं। यह दस्तूर वैदिक पुंसवन और सीमन्तोन्नयन संस्कार का स्वरूप मालूम होता है।’’
पुंसवन संस्कार का अर्थ था पुत्र संतान की प्राप्ति के लिए आकांक्षा करना। सीमन्तोन्नयन संस्कार का अर्थ होता है गर्भस्थ शिशु का प्राकृतिक दोषों से बचाव करना अर्थात् इन संस्कारों के विधान से परिवार वालों का ध्यान शिशु की रक्षार्थ आकर्षित किया जाता है। बुंदेली में इस दस्तूर को आगन्नों कहते हैं। गर्भवती स्त्री के लिए मायके से लाल वस्त्र आते हैं। इस दस्तूर को संपन्न करने के लिए वह, इन्हें धारण कर चौक पर बैठती है। दुल्हन पाँव भारी होकर मन ही मन खुशी से भारी होती रहती है। बुलउआ में परिजन, स्वजन-ननदें बुआ, सास, कक्को आदि गा-गाकर नाचती हैं। ढोलक की थाप पर लोक गीतों के माध्यम से आनंद उमड़ने लगता है। संचित गीतों में पुत्र कामना के गीत, बाँझ निराशा के गीत संतान प्राप्ति के अभाव में लकड़ी के बालक बनवाने के गीत, भाग्य रेखा दर्शन के गीत, पुत्र प्राप्ति के उपायों के गीत एवं अन्य सोहर गीत उपर्युक्त भावों को लेकर गाये जाते हैं जिनमें नारी की करूण गाथा प्रकट होती है।
राजा हो या रंक, रानी हो या नौकरानी सबके अन्तस् में संतान आकर्षण की लालसा एक सी होती है क्योंकि मानव मन धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक विभेदों में विभक्त हो सकता है किंतु प्रकृति मूलतः एक है। बुंदेलखंड में दशरथ, कौशिल्या, नन्द, यशोदा, रामकृष्ण आदि क्रमशः जसरत, कौशिया, नन्दुआ, जसुदिया, रमुआ, स्यामुआँ बनकर जन साधारण का प्रतिनिधित्व करते हुए बुंदेली गीतों में आये हैं। एक गीत में महारानी कौशिल्या संतान अभाव में अनमनी हैं। दशरथ जी उदासी का कारण पूछते हैं-
राजा तो पौंडे़ पलंग पे, रानी मलें पीड़ोलीं महाराज।
हँस हँस पूंछे राजा दसरत, कैसी धन अनमनीं महाराज।
भौतक तो कहये राजा अन्न धन, भौतक लक्ष्मी महाराज।
सूनो अयोध्या को राज अकेली संसत बिना महाराज।
तुम राजा जैओ बजारै, संसत मोल लियाइओ महाराज।
तुम मूरख रानी अजान, कहांलो समजाइये महाराज।
हाटों में हंतिया बिकायँ, संसत नई पाइये महाराज।
चीरौ अभागन की कूंख राजा, गंभरिन कहें महाराज।
नगर कौ नउआ बुलइयो, छुरा मंगवइयो महाराज।
कासी के पंडित बुलइयो, वेद बचवाइयो महाराज।
पैलो पन्ना जब खोलौ, बांच सुनाइयो महाराज।
नगर न बाजे बचेइया, न गावें सोहरो महाराज।
दूजौ पन्ना जब खोलौ, बांच सुनाइयो महाराज।
अहिरा को लोव्रे न गाय, मथन नहिं घूमियो महाराज।
तीजो पन्ना जब खोलौ, बांच सुनवाइयो महाराज।
राजा हैं जनम के मोगिया, ग्यालन हिरनी मारियो महाराज।
संतान की लालसा स्त्रियों में बहुत प्रबल होती है। संतति के बिना आँगन और आँचल दोनों सूने होते हैं। हृदय में रस धार न होने के कारण जीवन जीने की आकर्षण लालसा नष्ट हो जाती है। इसीलिए महारानी कौशिल्या पुत्राभाव में महाराज से संसत (पुत्र) बाजार से खरीदने का अनुरोध करती हैं। यही भाव का गीत अवधी में मिलता है। अवधी लोकगीत की नारी पुत्राभाव में नौकरानी का बालक उधार माँगती है। नौकरानी का उत्तर, क्या पुत्र नौन और तेल है जो उधार दे दें, हृदय को टूक-टूक कर चकनाचूर कर देता है। नारी का विदीर्ण हृदय ओस कणों से प्यास बुझाने का प्रयास करता है। वह नगर के बाढ़ई से लकड़ी का बालक बनवाकर उसे चूमती चाटती है, पुचकारती है और विह्वल होकर उससे रोने का आग्रह करती है जिससे सूने घर में सोहर होने की चिर अतृप्त अकांक्षा पूरी हो सके। इन्हीं भावों का गीत देखिये-
लीपी पोती ओबरिया, जगर मगर करें।
राजा के दुअरे एक चेरिया, चेरिया बालक लिहै।
चैरिया अपना बालक हमें देउ, मैं जिय समझाबउं।
नौनवा तो मिलै उधरवा औ रानी तेलवा।
रानी कोरिवया क कौन उधार चहत नाहीं पावै।।
अरे अरे नगर के बढ़ई हो वेगई चलि आबौ।
बढ़ई गढ़ि लाबौ काठ के पुतरिया मैं पलना झुलाबों।
अरे अरे काठ की पुतरिया तू रोई सुनोतिउ।
पुतरी सुनते नगर कर लोग बंझिन घर सोहरे।
बघेली लोक गीत की निपूती नार की कहानी और ही करूणिम है। वह प्रकृति की एक-एक कणिका, जीव जन्तु के पास पुत्र अभाव के कारण मौत माँगने जाती है किंतु बाँझ होने के भय के कारण कोई उसे आश्रय देना तो दूर रहा, मौत तक नहीं देता है। बाँझ की माँ भी, बहू के बाँझ होने के डर के कारण, बिटिया को शरण नहीं देती है। ऐसी विडंबनापूर्ण स्थिति होती है बाँझ नारी की। देखिये-
सासु कहै बहु बाँझनी ननद कहै बाँझिनी, ननद कहै बाँझिनी हो।
जैकर बरी है विआही ते घर से निकारे हो।
घरवा सें निकरी बँझनियां उरई सें निकरी नगनियां।
बंझनि डस लेतिउ हो, बंझनि डसि लेतिउ हो।
उरई सें निकरी नगनियां, बंझिनि कैसे डसवै। बंझिनि होई जावे हो।
हुंअऊं से चलीरे बँझिनियां, वृंदावन आई हो, वृंदावन आई हो।
वृंदावन सें निकरी बँझिनियां, बांझिनि घरि खातिउ हो।
वृदावन में निकरी बँझिनियां, बंझिनि केसे खावै हो। बंझिनि होई जावैहो।
दौउर दउर कें चलीरे बँझिनियां, नैहर चलि आई हो।
नैहर सें निकरी हो माया, बांझिनि बैठावा हो, बांझिनि बैठावा हो।
नैहर सें निकरी माया, कैसे बैठाई हो, बहुआ बांझिनि होईहे हो।
हुंअउं से चलीरे बँझिनियां, गंगाजी आई हो। गंगाजी आई हो।
जाहु घरै तिरिया अपने तू, पुतवा खिलाइउ तोर पिय विदुरई है हो।
कहानी व्यक्त होती है। बघेली नारी गंगा के वरदान से पुत्रवती होती है तो अवधी बाँझ नारी नारायण के वरदान से पुत्रवती बनती है जिससे घर-घर उसका सम्मान होता है और सोहर गाये जाने लगते हैं। देखिये-
सासु मेहरी कहै बँझिनियां, ननद बृजवासिन,
जेकर बारी वियहिया वे घरसें ………………….. निकारें।
उहवां सें रानी चलि मई तो वरतर ठांड़ि भई,
अरे वरतर बइठा नारायन त सुक दुख पूछे।
जहवां सें रानी आइउ तहवां चलि जातिउ रानी।
आज के नवे महिनवा, होरिलिवा तोहारे होइहै।
आठ मास नौ वितत होरिला जनम लीन।
उनके बाजैं लागे अँगना बधाव, उठन लागे सोहर। सासु मोरी कहै बहुआवा,
ननदिया भउजइया, जेकर में बारी वियहिया, रनिया गुहरावै।
बुंदेली लोक गीत में निपूते कलंक से बचने का उपाय पूछकर राजा दशरथ सोने की हिरनी और चाँदी के गवेलुआ बनवाकर वन में छुड़वा देते हैं और संजीवनी बूटी तीनों रानियों को पिला देते हैं जिससे दसवें मास रानियों के सुंदर पुत्र हो जाते हैं। एक दिन दशरथ दुखी होकर कौशिल्या से कह देते हैं कि राम बारह वर्ष के लिए वन में चले जायेंगे। रानी कौशिल्या तुरत उत्तर दे देती हैं, यदि राम बन को जाते हैं तो चला जाने दीजिये, मेरा बाँझ का नाम तो मिट ही गया और आपकी कुल बेल भी चल गईं।
सोने की हिरनी गड़बाय, रूपे के गवेलुआ महाराज।
बन बन देव छुड़ाय संसत तब हुंयें महाराज।
तुम राजा बहयो पहारे, सजीवन ल्याहओं महाराज।
घिस लुड़िया बटवाइयो, कटोरन छानिओं महाराज।
पियौ है बांट बड़ार, तीनउ रानी आवान में महाराज।
भयै हैं नौ दस मास, ललन चार हो गये महाराज।
बाजन लगीं आनंद बधइयां, सखी गावैं सोहरे महाराज।
बारा बरस के हुइयें राम, बनखौं जैहें महाराज।
वनखौं जैंहें तो जानदे, फिर घर आहैं महाराज।
मोरो मिट गओ बाँझ कौ नाव, तुमारो बंस चलौ महाराज।
समाज में पुत्रवती नारी आवश्यक है क्योंकि पुत्र प्रजनन से समाज की गति अवरूद्ध नहीं होती। अतः कहा जा सकता है कि बुंदेली नारी ही नहीं समग्र नारी जाति पुत्र जन्म मात्र से, प्रमुदित नहीं होती है बल्कि बाँझ के कठिन कलंक से मुक्ति पाकर हर्ष विभोर होती है। सावैं गीत- बुंदेली भाषा में संसत गीतों की भरमार है उसी प्रकार दोहर सावें पूजनें की रस्म पर सोहर गीत- सावें गीत- गाये जाते हैं। इस रस्म को बुंदेलखंड में साव पूजना कहते हैं। गर्भवती नारी के गर्भ ठहरने के बाद पाँचवे या सातवें महीनें में मायके से मेवा, मिष्ठान, वस्त्र और आभूषण आदि आते हैं। इस उत्सव पर बुलउआ होता है जिसमें सावें गीत गाये जाते हैं। इन गीतों में गर्भवती स्त्री के खाने-पीने एवं पहिनने की इच्छाओं की पूर्ति का संदेश, प्रत्येक परिवार के सदस्य को, दिया जाता है। ऐसा लोक विश्वास है कि यदि गर्भवती स्त्री की इच्छाओं की पूर्ति न की जाय तो जन्मने वाले बच्चे के मुँह से सदा लार टपकती रहती है और यह माना जाता है कि बच्चा अप्राप्त वस्तु के लिए ललक रहा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह है कि शिशु निर्माण एवं उसकी पुष्टता हेतु वांछित वस्तुओं की आकांक्षा प्रकृति स्वयं करती है जिनकी पूर्ति से शिशु स्वस्थ होता है। गर्भवती स्त्री की इच्छा को बुंदेली में मन चलना कहते हैं। इन औरतों का मन आम, अमचुर, इमली, निब्बू आदि खट्टी चीजों पर चलता है। देखिये-
बारी उमर नादान, हमें रस निबुआ मँगाय दो। रसियना निबुआ मँगाय दो।
बाग नई चानें बगीचा नई चानें, नई चानें फलवार। कोउ कलियाँ मँगाय दो।
अटा नई चाने अटरियां नई चानें, नई चाने दालान। हमें कोउ बाखर बनवाय दो।
बूड़ो नई चानें बारो नईं चानें, नई चानें भर ज्वान। हमाई कोउ जोरी जुराय दो।
गइया नई चानें गुहारी नईं चानें, नई चानें मैदान। हमें बेंदा बनवाय दो।
बारी उमर नादान, हमें रस निबुआ मँगाय दो।
प्रस्तुत गीत में नारी रसीले निबुआ, कलियाँ, बाखर, समवयस्क पति और बेंदा की चाह करती है। अवधी दोहर गीत में भी गर्भवती स्त्री गेहूँ की भुनी बाल, घी गुड़ के साथ खाना चाहती है। देखिये-
सोने की टिकुली दुल्हिनी रानी उनुक ठुनुकि बोले।
राजा महरे हबुसि के साथ हबुसि लै आवौ।
बघेली लोक गीत दोहद में, गर्भवती नारी आम और तिलरिया-गले का आभूषण- की आकांक्षा करती है-
राजा हमका त अमवा के साथ अमवा हम लेवई, अमवा हम लेवई हो।
……………………………………………
मचिया बैठि रानी रूकमिनि राजा सें अरज करै।
राजा हमका तिलरिया के साथ, तिलरिया हम लेवई हो।
सावैं संस्कार का अपना विशेष महत्व है इससे गर्भस्थ संतान के स्वभाव, चरित्र और गुण का परिचय मिल जाता है। बुंदेलखंड में ऐसा लोक विश्वास है कि जब गर्भवती नारी आभूषण, सुंदर वस्त्र, नीबू, आम और स्वर्ण पहिनने की चाह प्रकट करती है उस समय पुत्र जन्म की आशा की जाती है। इसके विपरीत गरी, खीर आदि खाने की इच्छा प्रकट करने पर पुत्री पैदा होने की आशा की जाती है। पुत्र जन्म संबंधी लोक विश्वास की पुष्टि भाव प्रकाश का यह श्लोक करता है। देखिये-
‘‘दुकूल पद कौशेय भूषणदिणु दोहृदात, अलंकारेणिणां ललितं सा प्रसूयते।
भावार्थ- रेशमी वस्त्र तथा आभूषण आदि से संबंधित दोहद वाली स्त्री सुंदर पुत्र को जन्म देती है।’’
बुंदेली लोक गीतों में दोहद-सावैं संस्कार का विशद वर्णन हुआ है। आयुर्वेद तथा धर्म ग्रंथों में दोहद की पूर्ति करना आवश्यक बतलाया है क्योंकि इसकी पूर्ति से संतान बलिष्ट और अभाव में विकलांग एवं कुरूप होती है। इसकी महत्ता संस्कृत के महाकवि कालिदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रघुवंश में महारानी सुदक्षणा के दोहद वर्णन में की है। बुंदेली लोक गीतों में भी हमारे प्राचीन रीति रिवाजों का विशद वर्णन है जो मात्र गाने के लिए नहीं है बल्कि उनका महत्व नारी एवं नवागन्तुक शिशु के जीवन की पृष्ठभूमि से जुड़ा है। आज के मनोविज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि इच्छाओं का दमन मानसिक अस्वस्थता का कारण बनता है। अतः माँ का स्वास्थ्य, मानसिक विकास गर्भस्थ शिशु के मानसिक एवं शारीरिक विकास का, आधार स्तंभ होता है। इसीलिए पूर्वजों ने सावें पूरी करने पर अत्यधिक बल दिया है। आम, निबुआ, मेबा आदि के अलावा रोहू मछली, तीतुर आदि के मांस देने की बात यत्र-तत्र गीतों में पाई जाती है। जैसे-
देवरा चेलवा मछरिया के साथ, मछरिया ले आवा हो (बघेली गीत)
रोहू मछरी को लिया दोमांस, देवरा ललन नौने हो घरैं महाराज।
तीतुर की ल्यादो नोनो मांस, लाला, ललन नौने हो घरैं महाराज।
प्रसव पीड़ा गीत- संसार में पुत्र जन्म से बड़ा आनंद दूसरा कोई नहीं है। ‘‘दशरथ पुत्र जन्म सुन काना, मानहुं ब्रह्मानंद समाना।’’
सचमुच पुत्र जन्म का आनंद अतुलनीय है। सोहर गीतों में इसकी झलक सर्वत्र पाई जाती है। इसके अतिरिक्त इन गीतों में समाज प्रचलित गृह कलह, ननद भाभी के अप्रिय संबंध, सास बहू के विषाक्त संबंध, परिवार सदस्यों की उपेक्षा आदि का विशद चित्रण मिलता है। असहनीय कष्ट ही परम सुखदायक होता है। दुख की गहरी अनुभूति ही सुख की महत्ता दर्शाती है। प्रसव का कष्ट ऐसा ही कष्ट है। असहनीय पीड़ा में- पुत्र जन्म के समय का कष्ट- संसार का सबसे बड़ा सुख- पुत्र प्राप्ति मिलता है। दुख में आत्मीय जनों की स्मृति स्वाभाविक रूप में आती है ऐसे भव्य भावों की अभिव्यक्ति बुंदेली प्रसव गीत में मिलती है। प्रसवनीं एक एक स्वजन को पीर की पीड़ा मिटाने के लिए बुलाती है। देखिये-
मोरे उठत कमर रस पीर, अब नइयां जीनें की।
सुन राजा रे, महाराजा रे, मोरी सासों खों देव बुलाय। अब नइयां जीनेकी।
सुन माता री, तोरी बहू बेहाल, तुम्हें बुलाउत है।
सुन बेटा रे, रानी बहुआ के बोल कुबोल, करेजे में हन गये।
सुन माता री, अपने बेटा के खातर बोल विसरजा री।
सुन रानी री, महारानी री, तूने बोले हैं बोल कुबोल। वे नइयाँ आने की।
सुन राजा रे महाराजा रे, मोरी जिठनियां खों देव बुलाय। तौ अब ……..।
सुन भौजी री, तोरी देवरानी बेहाल, तुमें बुलाउत है।
सुन लाला रे, देवरनिया के बोल करेजै में हन गये।
सुन रानी री, बोले हैं बोल कुबोल, वे नइयां आने की
गर्भिणीं असहनीय पीड़ा से छटपटाती है। सास, जिठानी, देवरानी बोल- कुबोलों के उलाहने देकर जाने से इंकार करती हैं कि नन्दलाल पैदा हो जाते हैं। पीड़ा, आनंद में परिणति लेती है। सौंठ, बिस्वार एवं गुड़ के लड्डू पति स्वयं बनाने लगता है। प्रसवनी देख-देख प्रसन्न होती है।
भोर भये भुंसारे, ललन प्यारे हो गये महाराज।
सुनो राजा रे, महाराजा रे, ल्याव हाट सें सौंठ विस्वार।
लडुआ बंदाव तुम बाँदौ, हम खायँ ललन प्यारे हो परे महाराज।
कर्कश नारी चित्रण गीत
गर्भिणी पीर की पीड़ा से छटपटाती है। वह सुकुमार सलौनी इकहरे, छरहरे आकार की है इसलिए उससे यह पीड़ा सही नहीं जाती है। अतः वह सास, जिठानी, देवरानी और पड़ोसिन सभी को बुलाती है किंतु उसके पूर्व के दुर्व्यवहार को याद कर कोई भी उसके पास नहीं आता है और वह अकेली खाट की पाटी पकड़े छटपटाती है।- देखिये-
लम्पा वरन पतरी बनिया, दरद पिया को हरै महाराज।
जो राजा पिया हमकों चाओ, सास खों बुलवाय दियो महाराज।
फींची नइयां पैरे की धुतिया, मताई मोरी न आयें महाराज।
जो पिया हमखों चाओ, जिठानी को बुलवाय दियो महाराज।
परी नइयां नैउर कें पइयां, भौजी मोरी न आयें महाराज।
जो पिया हमखों चाओ, देवरानी खों बुलवाय दियो महाराज।
तपी नइयां हिलमिल रसोइयां, बहू मोरी न आये महाराज।
तपी नइयां हिलमिल रसोंइयां, बहू मोरी न आये महाराज।
जो पिया हमखों चाओ, ननद खों बुलवाय दियो महाराज।
दहें नइयां गरईं गठइयां, बैन मोरी न आयें महाराज।
जो पिया हमखों चाओ, परोसन खों बुलवाय दियो महाराज।
दई नइयां चूले की आगी, परोसिन न आवै महाराज।
इस गीत में यह भाव व्यक्त हुआ है कि आचरण ठीक होने पर ही व्यक्ति विपत्ति में साथ देते हैं। अतः नारियों को व्यवहार कुशल और मधुर भाषिणी होना चाहिए। अन्य सोहर गीत में स्वार्थ परक नारी का चित्रण हुआ है। जो विपत्ति के के समय सास, जिठानी, देवरानी एवं ननद को दान का प्रलोभन देकर बुलाती है किंतु काम निकल जाने के बाद सभी को दुतकार देती है।
स्वार्थ परक नारी का गीत-
उठी उठी कमर रस पी, अब नइयां जीवे की। महाराज।
मोरी सासों खों दइओ बुलाय, बखरी सोंपत हों महाराज।
मोरी जिठनी खों दइओ बुलाय, चुलिया सोंपत हों महाराज।
मोरी देवरनियां खों दइओं बुलाय, ललना सोंपत हो महाराज।
मोरी ननदी खो दइओ बुलाय, बलम सोंपत हो महाराज।
जीगई जीगई ललन तोरे भाग अब नइयां मरवे की महाराज।
मोरी सासो खों दइओ बुलाय, बखरी अपनी चाहत हों महाराज।
लीपी पोती तौ नइयां, खोदी खादी तो नइयां, बखरी अपनी चाहत हों महराज।
जिठनी खों दइओ बुलाय, चुलिया अपनी चाहत हों महाराज।
पैरी पूरी तौ नइयां, टोरी मोरी तो नइयां, चुलिया चाहत हों महाराज।|
देवरानी खों दइयों लड़का अपनों चाहत हों महाराज।
भूको प्यासौ तो नइयां, मारो कूटौ तो नइयां, लरका अपनों चाहत हों महाराज।
जीगई जीगई ललन तोरे भाग, जब नइयां मरवे की महाराज।
मोरी बारी ननदी खों दइओ बुलाय, बलम अपनों चाहत हों महाराज।
बोली बाली तो नइयां, परी बैठी तो नइयां, बलम अपनों चाहत हों महाराज।]
गीत की अंतिम पंक्ति बुंदेली माधुर्य को छलका देती है। अंतिम पंक्ति में ननद भाभी का रसिक हास्य परिहास चूं जाता है।
बुंदेली सोहर गीतों में देवरानी जिठानी के झगड़ालू स्वभाव का भी चित्रण हुआ है। जिठानी के पुत्र पैदा होता है निपूती देवरानी बगैर बुलावे के देखने जाती है क्योंकि नारी की चिर लालसा (पुत्र प्राप्ति) उसे ऐसा करने को मजबूर कर देती है किंतु निष्ठुर जिठानी बाँझ देवरानी को देखकर पुत्र को छुपा लेती है। ऐसा वह इसलिए करती है कि बाँझ औरत की नजर पुत्र को न लग जाये। ऐसी लोक विश्वास की मान्यता है। देखिये-
नजर लगने का गीत-
जिज्जी कें भये नंदलाल, कओ पिया देख आइए महाराज।
पैले पुरा बसत जिठानी, कहो पिया देख आइये महाराज।
बिना बुलाई बना जेहो, मान तोरे घट जैंहें महाराज।
हटकी न मानी बना, सखन संग निग चलीं महाराज।
सुनी विछियन की झनकार, जिठानी लला ढांक लये महाराज।
हमनें हटकी ती तुमनें नईं मानी, मान तोरे घट गये महाराज।
कासी के पंडित बुलाये, घरी मोरी सोदियो महाराज।
बारा बरस कुखिया है खोटी, करम में लाल हें नई महाराज।
जो कउँ ललना न हुइयें, जहर खाकें मर जैओं महाराज।
दाई बुलाने का गीत
बुंदेली सोहर गीतों में दाई की महत्ता दर्शाई गई है। दाई जितनी चतुर होगी उतनी ही कुशलता से वह संतान प्रजनन क्रिया सम्पन्न करायेगी। अतः गर्भिणी गर्भ भार से माधुरी चाल चलती हुई, राजा पिया से ननद बाई बुलाने का आग्रह करती है ताकि वह दाई को बुला सकें।
कौना के अँगना जिमिरिया लहिर लहिर होवे।
महर महर आवे खास तो नींद नई आइयो।
कौना की नार गरभ सें, मधुरियन पग धरे रे,
ललन ललन कहै, हौरल हौरल कहै।
बइया बीरन खों देव बुलाय, पेट मोरो दूखत है।
मोरे राजा कचैरी सें आयं, तुमारो का दूखे री। सिर मोरो दूखे,
कमर मोरी टूटे- राआ आई करेजैं पीर, सुगर दाई चाहत हों।
दाई ठनगन गीत
गर्भिणी नारी का पति दाई बुलाने के लिए पटनपुर जाता है। दाई आने से इंकार करती है क्योंकि प्रसवनी चतुराई से प्रसव के पूर्व अधिक देने का कह कर, प्रसव उपरांत कौदों देती है। पति दाई की शर्तें स्वीकार कर आदर के साथ ले आता है। जैसे ही दाई गर्भिणी की पीढ़री मलती है कि नौने ललन हो पड़ते हैं। देखिये-
ऊंचौ पटनपुर गाँव, जहाँ दाई रहे रे।
राजा घुड़ला पै भये असवार, दाई घर निग चली।
लाला ठीक ठैराव करैं जाव, सुगर दाई तब चलहै।
जो कऊं हुयें नंदलाल, मौतिन हार हम लेहें।
जोरा लडैंती सी प्यारी, तौ सब रंग चूनरी।
भर भादौं की रात, झिमक जल बरसै, भींजत मोरे को जैहैं।
तुम दाई ओड़ो दुसाला, रिमझिम बरसत मेह- भींजत दाई हम जैहें।
लाला गलियाँ मची है कीच, खपत मौरें को जैहे।
दाई घुड़ला पै हो जा सवार, खपत दाई हम चलहैं।
दाई रिमकत झिमकत आईं, अँगनवा में उतरीं रे।
रानी धरियक धीर समारौ, ललन तोरे हुइयें री।
तुम रानी पौंड़ो पलंग पै, मलौं तोरी पीड़ोली।
दाई ने फेरो हात, ललन प्यारे हो गये।
बजन लागीं आनद बधइयाँ, सखी गावे सोहरे……………।
खुन खुना आग्रह गीत
सोहर गीतों में नारी हृदय की चिर आकांक्षा ललन की प्राप्ति अनेकानेक रूपों में व्यक्त होती है। निपूती नारी पति के परदेस जाने पर खुनखुना लाने का आग्रह करती है। इस आग्रह में हृदय का मर्म छुपा है कि आप पुनः परदेश जाने की तैयारी कर रहे हैं जबकि मेरी गोद सूनी है। पुरूष अपने अन्तस् की खी यह कह कर प्रकट करता है कि तुम्हारी गोद में पुत्र नहीं है, खुनखुने का क्या करोगी। इन पंक्तियों में दोनों का मनोवैज्ञानिक चित्रण हुआ है। तिरष्कृत नारी पति के परदेश जाने पर ललन पैदा करा लेती है और उस बालक के लिए सोने का खुनखुना बनवा देती है। पति के लौटने पर, पति द्वारा प्रदत्त खुनखुना वह अस्वीकार कर अपना आक्रोश निकालती है। इस बाद विवाद में अतृप्त भावनाओं जन्य गृह कलह का सूक्ष्म चित्रण, बुंदेली गीत में हुआ है। देखिये-
पिया जात हो देस विदेस, खुनखुना लयें आइयो रे।
रानी नें तोरे बारे, नें छोटे, खुनखुना कौन खिलाहों रे?
नौ दस महीना के बीच, ललन नौने हो गये रे।
बाजन लागी आनंद बधइयां, सखी गावै सोहरे।
सात सवद सें नइयां, ससुर घर बाज रही रे।
मोरे पछीते सुनरवा, तो बैग बुलाइयो रे।
मोये खुनखुना कौ सौक, बैगि गड़वाइयो रे।
बारा बरस में लौटे पिया प्यारे, खुनखुना ले आये रे।
रानी लैलो अपनो खुनखुना, खुनखुनवा हम ल्याय रे।
खुनखुना देव अपनी माई खों, वीरन तौरे खेलें रे।
राजा नें मोरे बारे, ने ओली झडूले खुनखुना कौन खिलावै रे।
राजा मोय खुनखुनवा कौ सौक, सोने की गड़वा लओ रे।
पाखण्डी साधू गीत
बुंदेली सोहरों में पाखंडी साधुओं का भी चित्रण मिलता है। गेरूआ वस्त्र धारी पाखंडी साधू जनता से धन अर्जित कर उसका दुरुपयोग, वासना तृप्ति में करते हैं। बुंदेली चतुरांगना ऐसे साधू को ठग कर उल्लू बना देती है। देखिये-
मोरे अँगना में नीमां जोगिरा, घमउआ विलमाले।
इतनी तो सुनके जोगिरा, दिहर चड़ बैठो।
सुंदर, कहाँ गई तोरी सास, कहाँ तोरी ननदी।
सुंदर, कहाँ गये तोरे घर के घरइया। घर के घरइया।
जोगिरा, सासो तो गई मोरी मायके, ननद मोरी सासरें।
घरके गये परदेस, घरइया मोरे घरे नइयां रे।
जोगिरा, इतनी सुनकें पलंग चडू बैठां रे।
मन भर सोनों निकारो, सुंदर नोने पहिरी रे।
पहिर ओड़ ठांड़ी भई गोरी, झरोखों सें झांकी रे।
जोगिरा, भगने होय भग जाव, घरइया मोरे आ गये।
सुंदर, ना तोरे हरकीं, नें खिरकी, नें बावन झरोखा री।
कहना सें भागों, जियरा मोरो बचाय लियो रे।
जोगिरा, एक हांत में लेलो टुकनियां, मेहिरिया कौ रूप धरौ रे।
सुंदर, देसन देस फिर आये, ठगन नईं पाओ रे।
तोरी बारा बरस की उमरिया, तैनें मोय ठग लओ रे।
साधू महाराज पति का आगमन सुन औरत का भेष धारण कर भाग जाते हैं। यही भाव बघेली लोक गीत में भी प्राप्त होता है। देखिये-
घाम घमीले एक जुगिया घमह घाम आऐ हैं हो।
जोगिया हमरे अँगन निम छंहियां, त घममा निवारि लेते हो।
हाथे माँ लेहुं कमंडल, ओढ़ा बघम्बर हो।
अब घहले जोगिया का भेस, भिखारी होइके भागा हो।
सपनों का गीत
मनोवैज्ञानिक सत्य है कि अन्तस् की प्रसुप्त या अतृप्त भावनाएँ ही स्वप्न बनकर प्रकट होती हैं। बुंदेली सोहरों में गर्भवती नारी की कल्पनाऐं- पुत्र होगा या पुत्री, कैसा होगा, कब होगा- स्वप्न बन कर प्रकट हुई हैं।
पहले पहर की सपनों, सुनो मोरी सासोजू महाराज।
राम लखन दोउ भइया, अँगन विच तप करें महाराज।
भइया लयें वेला भर तेल, सांतिया लिख रहीं महाराज।
भौजी बैठीं मांझ मझोटें, हार नौने गुह रहीं महाराज।
गाँव से आगईं भारी बइया, बे हँस खोलियो महाराज।
भौजी हुइ हैं तुमाय नंदलाल, हार हम लैलैहें महाराज।
चूंमौं बइया तोरी हतुलिया, घिया गुर मुँह भरौं महाराज।
जो बइया हुयें नंदलाल, हार तुम लै लियो महाराज।
बुंदेलखंड में बच्चा पैदा होते ही जैसे वह धरती पर आता है कि भौं लोटनी का दस्तूर होता है इसमें बधाये बजते हैं। इसके उपरांत टाठी जुठारने का दस्तूर होता है। देवरानी एक थाली लेकर उसमें गुड़ भात, दूध और सूखे मेवे रखती हैं। इस थाली में स्वजन, सजातीय महिलाऐं और मान्य औरतें भाग लेती हैं। काजर आँजने का नैग बुआ शिशु की आँख में काजल आँज कर करती है। प्रसवनी के लिए पानी औंटाने को चरूआ चढ़ाया जाता है यह नैग सास करती है। चरूआ में खैर की सारवान लकड़ियाँ तथा अन्य औषधियाँ औंटाईं जाती हैं। प्रसवनी को नित्य तेल, गुड़, सोंठ खाने को दी जाती है। दूध में पीपर और पीपरामूर मिलाकर पिलाया जाता है। जिठानी प्रसवनी के लिए सूखे मेवों के लड्डू बांधती है। प्रसवनी की सोर उठते समय प्रथम और द्वितीय स्नान पर मैंथी गुड़ के दो लड्डू खिलाये जाते हैं और स्नानोपरांत अजवाइन की धूनी दी जाती है। दस्टोन के दिन वेइया पूजन होता है। इसी समय देवर बंदूक चलवाने का नैग संपन्न करता है। आज के दिन ही प्रसवनी के बार कड़े का नैग होता है और अंत में कुआँ पूजा जाता है। इन सभी नैगों को संपन्न कराने पर सोहरे बधाये, सरिया गीत ओर कुआँ पूजने के गीत गाये जाते हैं। दूसरे शब्दों में इन्हीं गीतों को हम भौं लौटनी गीत, काजर आंजवे को गीत, टाठी जुठारत को गीत, चरूआ चढ़ाउत को गीत, बार कड़े को गीत आदि कह सकते हैं। बुंदेलखंड में विभिन्न स्थानों पर स्थान विशेषानुसार एवं जातियों की भिन्नता के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के गीत गाये जाते हैं किंतु सब गीतों का उद्देश्य पुत्र रत्न प्राप्ति की खुशी, प्रकट करना होता है।
चरूआ गीत
बुंदेलखंड में चरूआ का नैग सास संपन्न करती है इस समय यह गीत गाया जाता है जिसमें विभिन्न नैगों का वर्णन मिलता है।
मैं अकेली मोरो घर न लुटाय दियो। सास बाई आबै उनैं लौटाय दियो।
चरूआ चड़ावे मोरी माय खों बुलाय लियो। जिठानी आवै उनें लौटाय दियो।
लडुआ बँधावे मोरी भौजी खों बुलाय लियो। देवरानी आवे उनें लौटाय दियो।
पच बनवावे मोरी काकी खों बुलाय लियो। ननद आवै उसे लौटाय दियो।
सांतिया धरावे मोरी बहिन खों बुलाय लियो। परोसिन आवे उसे लौटाय दियो।
सरिया गुआवे मोरे सखियाँ बुलाय लियो।
प्रस्तुत गीत में नायिका अपने कुटुम्ब के सदस्यों की जगह मायके के सदस्यों को बुलाती है। कुछ भी हो इस गीत में किस सदस्य का क्या नैग है इसकी झलक हमको मिल जाती है।
बधाये गीत
पुत्र जन्म आनंदोल्लास का अवसर होता है। सृजन में उछाह होता है। सृष्टि का नव्य जीव, जगत में निराकार से साकार बन, धरा के धानी आँचल में अवतरित होता है। प्रकृति के विकीर्ण कण-तत्व, क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा मिश्रित होकर मानव रूप धारण करते हैं। इस सृजन पर प्रकृति एवं मानव दोनों उल्लसित होते हैं। इसी उल्लास पर गाये जाने वाले गीत बधाये कहलाते हैं। ‘‘जन्म के समय समस्त उत्सवों तथा रीति रिवाजों के समय संसत तथा सौहर गीतों के साथ अधिकांश रूप में बधाये गाये जाते हैं। बधावा शब्द स्वतः आनंद वाचक है। बधाये नामक एक नृत्य भी स्त्रियाँ नाचती हैं। इस नृत्य के समय हर्षातिरेक से लोग सैकड़ों रूपया न्यौछावर कर देते हैं। बच्चे की बुआ की ओर से उसके जन्म के दसवें दिन जो वस्त्र आभूषण आते हैं उसे बधावा लाना कहते है।’’बधावा गीतों में सास ननद से बहू के विषाक्त संबंध का चित्रण हुआ है। कहीं कहीं ननद भौजी के हास्य परिहास का भाव भी मिलता है। प्रस्तुत गीत में बंदनवारे बांधने की रीति का वर्णन है।
जौ बंदनवारौ कहाँ लयैं जातीं, जौ बंदनवारौ।
नगर अजुध्या में सुत भये सजनी, राजा महीपत के नाती।
राजा दसरत कें पुत्र भये हैं, रघुकुल जोत उजियार दई बाती।
रानी कौशल्या की कूंख जुड़ानी, सब सखियों की सीतल भई छाती।
नगर अजुध्या में दान भये हैं, ले ले दान मगन भई सखियाँ।
ले ले दान मगन भईं सखियाँ, जो बंदनवारौ कहाँ लयें जातीं।
बुंदेलखंड में बुआ बधावा लेकर आती है। बधावा का सामान देखकर सभी प्रसन्न होते हैं किंतु बुआ की विदा के समय भाभी भइया से संपूर्ण सामान खोटा बतलाकर, ननद की विदाई में कटौती करा देती है। ननदी अपना सा मुँह लिए कुछ सोचती घर लौट जाती है। देखिये-
मोरी भौजी कें लाला भये, मैंनें खबर जो पाई आदी रात।
अबै मोरें को सुनरा कें जैहे, बहुर मौरें को सुनरा कैं जैहे।
उठो मोरे राजा खोलो कुची तारे, ऐंचौ मुहरें पचास। अबै मोरे…….।
काहे के चार चूरा, छिगुनियाँ, काहे की करचुनियाँ।
सुनने के चार चूरा, छिगुनियाँ, रूपे की करचुनियाँ। अबै मोरे को सुनरा…।
काहे की बा टोपी झंगुलिया, कै सौ लगी फुंदरियाँ।
हरे कसब की टोपी झंगुलिया, सोरासो लगी फुंदरियाँ।
पुरा परोसिन सब जुर आईं, काहो ल्याई बचाव।
देख बधाव आनंद भई सखियाँ, वीरन आगें धर दीनों।
भइया भौजी दोई मतौ करत हैं, काहो बहिन खों देंय।
पीतर के चार चूरा ल्याई, कांसे की कुरचुनियाँ।
हरे अमउआ की टोपी झंगुलिया, एकउ न लागी फुंदरियाँ।
सौ को ल्याई पचासई नें पाये, हम झक मारन आये।
ननद भौजी के हास्य परिहास गीत
बुंदेली सोहरों में- बधावों में ननद भाभी का हास्य परिहास चित्रित हुआ है। चतुर भौजाई सीधी सरल ननद को मौखिक रूप से सब कुछ दान में देना चाहती है किंतु कुछ न कुछ कारण बताकर कुछ नहीं देती है। देखिये-
मांगो मांगो री ननद बधाया, जो मागों सो देंव।
अन्न तो जिन मांगो बधाया, बंडा को सिंगार री।
अन्न में से तेवरा ले जा, देवली लैहों काड़ री।
बासन सौं जिन माँगो बधाया, चौका को सिंगार री।
बासन में से लुटिया लै जा, कुड़री लैहों काड़री।
जेवर तो जिन मांगों बधाया, डब्बन को सिंगार री।
जेवर में सें नथनी ले जा, सरजा लैंहों काटरी। मांगौ मांगौ…….।
मधुरला गीत
संसत सोहरे, बधाये और मधुरला आदि सभी पुत्र जन्म के समय गाये जाने वाले गीत हैं। आनंदातिरेक से उल्लखित मन चहक कर, ढोलक की थाप पर, ये गीत गाने लगता है।
मधुरला बाजै मधुर सुहावनौ, मौरें औसर को दिन आज।महाराज।
गउआ के गोवर मंगाइयो, ढिगबर अँगन लिपाइयो, मोतिन चौक पुराइयो।
अहारे मधुरला, मुतियन चोक पुराकें, कंचन कलस घराइयों महाराज।
कंचन कलस घराकें, चंदन पटलीं धराइयों महाराज।
अहारें मधुरला, बैठीं दुलइया रानी चौक में, मनमोहन खाँ कंठ लगाय महाराज।
अहारे मधुरला बाजै, हीरा लाल लुटाइयो महाराज।
सरिया गीत
पुत्र जन्म के सुअवसर पर जन्म से कुआँ पूजने के पूर्व तक बुंदेलखंड में सोहरें, मधुरला एवं सरिया गीत गाये जाते हैं। सरिया गीतों की लय में अनूठा मिठास होता है। ‘‘यह गीत छंद तथा गाने की लय से सोहर से कुछ भिन्न है। विषय दोनों के एक हैं। पुत्र जन्म पर पहले सरिया गाई जाती है’’।बुंदेलखंडी लोक गीतों का विवेचन करते समय, सरिया गीत अध्याय में श्री चतुर्वेदी जी ने कहा है ‘‘जन्म समय के बुंदेलखंडी गीतों में राम कृष्ण के गीतों की प्रचुरता है। जब किसी के घर पुत्र उत्पन्न होता है तो हमारा लोक साहित्य राम, कृष्ण का जन्म ही अनुभूत करता है। शिशु के भूमिष्ठ होते ही ‘‘भौं लौटनी’’ का बुलउवा होता है उसके पश्चात नरा छीना जाता है। उस समय पर सरिया गीत गाये जाते हैं।’’
उपर्युक्त कथनों के आधार पर सोहरों से लय में भिन्न, मार्मिक हर्षोल्लास युक्त पुत्र जन्म के समय गाये जाने वाले गीत, सरिया गीत हैं। अतः कहा जा सकता है। सरिया गीत वह गीत है जो जन्म के तत्काल, वाद, पूर्ण उल्लास के साथ गाया जाता है। इनमें पुत्र प्राप्ति पर आनंदातिरेक उसी प्रकार होता है जैसे राम, कृष्ण का जन्म हुआ हो। प्रस्तुत सरिया गीत भौं लोटनी के समय गाया वह गीत है जिसमें प्रसवनी प्रसन्न होकर सास, ससुर, जेठ, देवर, नन्दोई सभी से दान देने का आग्रह करती है।
डरे डरे कहरांय, गोविन्दलाल भौं में डरे। मोरे गोपाल लाल भौं में डरे।
जाय जो कहयो उन राजा ससुर सें, थैली देंय लुटाय। गोविन्दलाल…..।
जाय जो कइयो उन राजा जेठ सें, बजाजी देंय लुटाय। गोविन्दलाल…..।
जाय जो कहयो उन राजा देवर सें, गन्ता देंय कराय। गोविन्दलाल…..।
जाय जो कहयो उन राजा नन्देऊ सें। डेवड़ा देंय छुटाय। गोविन्दलाल…..।
जाय जो कहयो उन बारी ननद सें, सांतिया देंय धराय। गोविन्दलाल…..।
जाय जो कहयो उन रानी सास सें, चरूआ देंय चढ़ाये। गोविन्दलाल…..।
जाय जो कहयो उन पुरा परोसिन सें, सरियां देवें गुवाय। गोविन्दलाल…..।
नरा छीलने का गीत
प्रस्तुत सरिया गीत में राम जन्म के सुखद अवसर पर दाई नरा छीलने का नेंग माँग रही है उसे बहुमूल्य आभूषण, स्वर्ण, मोती, मूंगा, हीरे, जवाहरात नहीं चाहती, वह तो प्रभु के साकार रूप में दर्शन करना चाहती है। चतुर दाई की भक्तिमय टेक सुनकर भगवान राम उसे दर्शन देते हैं और दाई हँसते हँसते नरा छील देती है।
कैसी मचल रई दाई अवध में कैसी मचल रई दाई।
सुरंग चूनरी कौशिल्या लयैं ठांड़ीं, बई न लैवे दाई।
सोने को हार कैकई लयें ठांड़ी, कूलो मरोर गई दाई।
सोने की तिलरी सुमित्रा लयें ठांड़ी, मुखई न बोले दाई।
भुतियन थार राजा लयें ठांड़े, नजर न फेरे दाई।
नरा तुमारो जबई हम छीनें, दरसन देंय रघुराई।
रूप चतुर्भुज प्रभु दर्सायो, खुसी भई तब दाई।
दर्शन ले दाई घरखों आई घर घर करत बड़ाई।
बुंदेलखंड में नरा छीलने के उपरांत बालक को सूप में लिटाया जाता है। खपरे में स्नान कराकर चावलों की अक्षत डाली जाती है किंतु कृष्ण जन्म के समय गोकुल में उल्टी रीत का पालन होता है। देवकी कन्या को लेकर लाल को दे देती हैं। देवकी जन्म देती हैं, पिता वसुदेव हैं किंतु माँ और पिता यशोदा और नंद बाबा कहलाते हैं। इन्हीं भावों का कृष्ण जन्म के संबंध में बुंदेली में सरिया गीत गाया जाता है। भगवान कृष्ण को चाँदी के खप्पर में स्नान कराकर, उरई के सूप में लिटाया जाता है और उनके ऊपर मोतियों की अक्षत डाली जाती है।
आली बृज में महाराज भये, सखी बृज में गोपाल भये।
जब हरि जनम लये मथुरा में, जगत पहरूआ सोय रहे।
उल्टी रीत भई गोकल में, कन्या दै गोपाल लये।
कौना जाये, कौना खिलाये, कौना के लाल कहाये।
देवकी नें जाये, जशोदा खिलाये, नंद के लाल कहाये।
काहे के छुरा नरा छीनियो, काहे खपर अस्नान।
सुननें छुरा नरा छीनियों, रूपे खपर असनान।
काहे के सूप सजाइयो, काहे के आखत डार दये?
उरई के सूप सजोइयो, मुतियन आखत डार दये।
लडुआ गीत
बुंदेलखंड में प्रसवनी को खाने के लिए लड्डू दिये जाते हैं। ये लड्डू स्वास्थ्य की दृष्टि से अत्यधिक पौष्टिक होते हैं। इसीलिए प्रसवनी सास, ननद, देवरानी, जिठानी आदि किसी को भी इन्हें नहीं देती है।
सौंठ के लडुआ चिरपिरे रे, लडुआ बंदावे जिठानी मोई आई।
सौंठ के लडुआ चिरपिरे रे, बिन्ना तनकसौ लडुआ हमें दे राखौं।
लडुआ फोरत मोरी बंहियां दुखत है, सेंगो दओ नई जाय।
पसेरी भर जिज्जी घी डरो है, नरियल के भेला नौ डरे हैं।
बादामों के बीजा सो डरे हैं, चिरौंदी दाने चौथियों सें।
चरूआ चड़ावे सास मोरी आई, बहू तनक सौ लडुआ हमें दे राखौ।
लडुआ फोरत मोरो कौंचा दुखत है। सेंगो दओ नई जाय।
सौंठ पीपर का गीत
सोहर गीतों में सौंठ, गुर, पीपर, पीपरामूर आदि औषधियों का वर्णन मिलता है जिनके नित्य सेवन से जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ रहते हैं। सौंठ पीपर मिश्रित दूध पीने से बच्चा को अधिक दूध निकलता है। और उस दूध में पौष्टिकता के गुण बढ़ जाते हैं। देखिये-
अँगना में वे दईं सौंटियां, घिनौचन पीपरें महाराज।
सिल लोड़ा घिस बांटी, कचुल्लन छानियो महाराज।
टैरो टैरो नउनियां, नगर बुलउआ दिलवाइयो महाराज।
पिपरी हैं कारी घुटान ककाजू, मोरे को पिये महाराज।
अँगना में ठांड़े वारे ससुरा, बहू खाँ समझा रहे महाराज।
पीलो बहू जे पीपरीं, नाती हमरे दूध पियें महाराज।
पिपरी है कारी घुटान ककाजू, हम ना पियें महाराज।
अँगना में ठांड़े वारे जेठा, बहू खाँ समझा रहे महाराज।
अँगना में ठांड़े राजा पिया, धना खां समझा रहे महाराज।
पीलो धना जे पिपरीं, ललन नोने दूध पिये महाराज।
चिपरी है करई घुआन, हमना पियें महाराज।
काटौ दारी नकटी की नाक, निकारौ बायरैं महाराज।
रचवै हम दूजौ व्याव, पिपर वन वे पियें महाराज।
झटकां उठा लओ कटोरा, लपक कें पी लओ महाराज।
प्रसवनी गर्वीली और जिद्दी होने के कारण सास, ससुर, जेठ, देवर, देवरानी आदि के कहने पर भी पीपरी मिश्रित दूध नहीं पीती है। अंत में पति नाराज होकर कहता है कि ‘‘इस नकटी की नाक काटकर बाहर निकालो मैं तो दूसरा विवाह रचाउँगा और नई धनियां को ही पीपरी पिलाउँगा। नारी सौत भय के कारण भयभीत होकर शीघ्र पीपरी पान कर लेती है। बुंदेली दुलइया के ठनगनों का वर्णन कई गीतों में प्राप्त होता है। एक अन्य गीत में प्रसवनी पति को घर न ठहराकर वट वृक्ष के नीचे सोने की सलाह देती है। देखिये-
प्रसवनी ठनगन गीत-
उन पर ललना जाये, दुलहया के ठनगन को सहे महाराज।
अरी मोरी धनियां, खुसी रय ललना, कहो हम पांयतें पर रहें महाराज।
औ मोरे राजा इते नइयां ठौरा, गोरी पिड़री कां घरौं महाराज।
अरी मोरी धनियां खुसी रय ललना, कहौ में अटरियन पर रहों महाराज।
अरे मोरे राजा इते नइयां ठोरा, सास, ननद कां परें महाराज।
अरी मोरी धनियां खुसी रय ललना, कहोतो बखरन पर रहों महाराज।
अरे मोरे राजा इते नइयां ठोरा, देवरनियां, जिठनियां कां परें महाराज।
अरी मोरी धनियां खुसी रवै ललना, कओ तो पोरन पर रओं महाराज।
अरे मोरे राजा इतै नइयां ठोरा, नाउन, बसोरन कांपरे महाराज।
अरी मोरी धनियां खुसी रय ललना, कऔ तो दौरें पर रओं महाराज।
अरे मोरे राजा इते नइयां ठोरा, देवरा जेठा कांपरें महाराज।
अरी मोरी धनियां खुसी रय ललना, कओ तो खरयानन जाबसों महाराज।
अरे मोरे राजा इते नइयां ठोरा, मोरे मंहदार कां वसें महाराज।
अरी मोरी धनियां खुसी रय ललना, मुठीभर प्यांर देदिये महाराज।
अरे मोरे राजा, सुनो तो राजा, बर तरें डेरा डारलो महाराज।
प्रस्तुत गीत में पति पत्नि के हास्य परिहास का उत्तम चित्रण हुआ है। नारी उन सबको महत्व देती है जिससे उसका काम अटका हुआ है। पति से फिरहाल कोई काम न होने के कारण उसे घर में जगह नहीं देती है। इसमें ऐसी मर्यादाओं का चित्रण हुआ है जो प्रसव के बाद पति एवं पत्नि को दूर रहकर, निभाना ही पड़ती है जिससे जज्चा और जच्चा दोनों स्वस्थ रहते हैं।
हास्य गीत
बुंदेली समाज में प्रसवनी नारी को, गर्भ ठहरते ही महत्ता मिल जाती है। समयोपरांत जब उसकी कोख से पुत्र रत्न पैदा हो जाता है उस समय अधिक सम्मान के कारण, उसका व्यवहार बदल जाता है। अहं के कारण कभी भी किसी से कुछ भी बोल देती है। देखिये-
तुम धन ललना जाये, सुखई सुख भोगियो महाराज।
तुम सौंठ गुर खइयो, पलका पे परीं रहयो, तुम काउखों न दइयो।
जौ कोउ मांगन आवे, कुतिया सी भौंकियो महाराज।
सास खौं मारो लाठी, देवर खों मारो टाठी, ननद खां मारो माटी।
जो कोउ मारन आवै तो, धर जइयो मायके की गैल, झडूले उनैं सों पियो महाराज।
तुमें खसम मिले अड़ुआ, वे काड़ ल्याये कडुआ, तोय खूब खुंआंय लडुआ।
जो कोउ मांगन आवे तो, हिन्नी सी चौंकियो महाराज।
ससुरा तौ डरो उसरा, जिठानी में घालो पथरा, देवरानीं सें न बतरा।
जो कोउ मांगन आवे, विलइया सी लौंकियो महाराज।
तुम धन ललना जाये, सुखई सुख भोगियो महाराज।
पलंग गीत
सोहरों में पलंग आकांक्षा गीत भी मिलते हैं। बहू, गोद भरते ही सास ससुर से पलंग मँगाकर उस पर पोढ़ने का आग्रह करती है। सास मायके से पलंग मंगाने का ताना मारती है। अंत में बहू मायके से पलंग मंगाकर उस पर पौढ़ती है और अहं तुष्टि के लिए सास, ससुर, जेठानी, ननद आदि को उसका प्रदर्शन करती है। देखिये-
पलका तौ आओ विकान, भौतई सुंदर हो।
मोरी सासोजू खां दइयो बुलाय, पलंग इक चानैं हो।
हरी हरी गरई बहुरिया, गरव जिन बोलो हो। महाराज।
रानी मायके सें पलंग मंगाव, लाल ले पौड़ो महाराज।
झाँसी सहर कौ नउआप कर बुलवाव, पलंग इक ल्याव महाराज।
चारउ भइया बैठे अठसरियां, पतुरियां नचावें महाराज।
नउआ नें नेउर कें करी परनाम, पूंछो कासें तें आव महाराज।
बेनन भये तुमायी नंदलाल, नौने भानेज भये महाराज।
उनई के पठेव में आव, पलंग इक चानैं हो महाराज।
आगरे सहर को बड़ई बुला लओ, तुरतईं बुलाव महाराज।
बड़ई चंदन रूख काट, पलंग गड़ ल्याव महाराज।
पटना सहर को पटवा बुलाओ, पलंग बुन ल्याव महाराज।
आगें पीछउं चारउ भइया, तौ बीच में नउआ हो महाराज।
ऊके बीचउं चंदन पलकियां चौर डुलत आवे हो महाराज।
टेरो मोरी सास ननदिया, देवरनियां, जिठनियां हो महाराज।
टेरो मोरी सबई परवार, पलंग मोओ देख लेवैं महाराज।
हरई हरई बहुरिया गरव जिन बोलो हो महाराज।
बहू पलंग बिछाव चित्रसार, लाल लै पौंड़ी हो महाराज।
कुआँ पूजने के गीत
बुंदेलखंड में बच्चा होने के पश्चात् एक माह बाद कुआँ पूजने का दस्तूर होता है। यहाँ पर जब प्रसवनी के प्रथम संतान पैदा होती हे उस समय मायके से पच आता है। पच में शिशु, प्रसवनी और अन्य सदस्यों के लिए, सामर्थ्यानुसार वस्त्र आभूषण, दाल, चावल, बरी, सूखे मेवे और गुड़ आदि आता है। कुआँ पूजने के समय प्रसवनी मेंहदी भाँवर रचाकर पच के वस्त्र आभूषण से अपना श्रृंगार करती है। बुंदलखण्ड में अकसर कुआँ पूजने का दस्तूर पूर्णिमा को होता है। जाति एवं स्थान की भिन्नता से इस दस्तूर में भिन्नता भी मिलती है। सवर्ण जातियां आँगन में ही कुआँ पूजने का दस्तूर करती हैं। श्रमजीवी समाज द्वारा दस बारह दिन में ही सार्वजनिक कुआँ पूजा जाता है। कुआँ पूजने के दिन से प्रसूतनी को घर से बाहर कुआँ, नदी, तालाब आदि पर जाने की छूट मिल जाती है।
कुआँ पूजन के दिन बुलउवा दिया जाता है जिसमें स्वजन एवं पड़ोसी महिलाएँ बुलउवा में आती हैं। प्रसूता बहू श्रृंगार कर कुरी पर कलश धर सुहागिन एवं पाँच सात कन्याओं के साथ कुयें पर जाती है। कुयें पर पहुँचकर दुल्हन गोबर से कुयें की जगत को पाँच या सात जगह लीपती है (पुत्री होने पर पाँच और पुत्र होने पर सात) चौक में गोबर निर्मित गणेश जी की हल्दी, गुड़, चावल होम से, पूजा की जाती है। औरतें चरूआ की शेष सामग्री कुयें की जगत पर रख देती हैं। प्रसवनी पाँच सात बूंदें अपने स्तन से निचोड़कर कुयें में डालकर कहती है ‘‘जैसे तुम भरे पूरे हो वैसे ही मेरे स्तनों को भरा पूरा रखना’’ इसके बाद वह कुयें से सात बार पानी निकालकर कुयें को जल चढ़ाती है और कन्याओं के कलश भर स्वयं भरा कलश लेकर घर लौट आती है। घर के द्वार पर आते ही गगरी उतारने का दस्तूर होता है। देवर गगरी उतारता है उसे नैग में कोई वस्तु दी जाती है। इसके बाद आँगन में सोहरे गाये जाते हैं और बुलउआ में फूले हुए चनों की कौंई बांटी जाती हैं। कहीं बताशा बांट देते हैं।
कुआँ पूजन जाते समय का गीत
बुंदेली नारी पुत्र रत्न पैदा कर सभी से सम्मान पाने की आकांक्षा इन गीतों में प्रकट करती है। ससुर जी बखरी ही में कुआँ खुदवा दें, जेठजी चंदन की पाटैं डलवा दें, देवर जी रेशम की डोरी लादें और राजा पिया सोने के घड़ा बनवा दें जिससे प्रसवनी की महत्ता बढ़ जाय। इन भावों का गीत कुआँ पूजने जाते समय ही गाया जाता है।
ऊपर बादर घर्राय हो, नैचें गोरी पानी खों निकरीं।
जाय जो कहयो उन राजा ससुर सें, अँगना में कुइया खुदायँ हो।
तुमाई बहू पानी खों निकरी।
जाय जो कइयो उन राजा जेठा सें, चंदन पाटैं डराव हो। तुमाई बहू….।
जाय जो कइयो उन राजा देवर सें, रेशम डोरी डराव हो। तुमाई भौजी……..।
जाय जो कइयो उन राजा पिया सों, सोने घडल्ला बनाव हो। तुमाई धना…।
पूजा के समय का गीत– जब दुल्हन कुयें की पूजा करती है तो उस समय महिलाएँ यह गीत गाती रहती हैं।
आंई ती मन भाईं ती, जल भरन राधका आईं ती।
कौनां की बेटी, कौना की बउऐं, कौना की नार कुआंईती। जल भरन…।
दसरत की बउऐं, जनक की बेटी, सो राम जू की नार कुआईं तीं।
जल भरन राधका आईं तीं, आईंती मन भाईं ती। .
जल भरते समय का गीत
कुआँ पूजने के उपरांत बुंदेली दुल्हन गिर्रा पर रस्सी डालकर कलश में पानी भरती है उस समय औरतें गाने लगती हैं जिस प्रकार यह भाग्यवान युवती कुआँ पूजन कर कलश भर रही है उसी प्रकार सभी युवतियाँ माँ बनकर इसी प्रकार कुयें का पूजन करें। नारी जीवन की चिर आकांक्षा- पुत्रवती बनने की लालसा इस गीत में गूँजने लगती हैं।
गिर्रा पे डोरी डार गुइंया, डार गुइंया हो डराव गुहंया, गिर्रा पै डोरी…।
गिर्रा पै डोरी जबै नौनी लागे, सोने घडल्ला होंय गुइंया ।
सोने घडल्ला जवईं नोने लागें, मोतिन कुनरी होय गुइंया ।
मोतिन कुनरी जवईनौनी लागे, रेशम चुनरिया होय गुइंया ।
रेशम चुनरिया जवईं नौनी लागे, ओली झडूले होंय गुइंया ।
औली झडूले जवईं नौने लागें, राजा रसीले होंय गुइंया ।
कुआँ पूजकर लौटते समय का गीत
नारी हृदय कोमलता का आगार है। इसलिए उसे कोमलांगी कहा है। वह बाह्य आकार से जितनी कोमल है आन्तरिक स्वरूप में उतनी ही सरस है उसके प्रेम की सरस गागर सदैव छलकती रहती है। पानी भरने जाते समय बादल घुमड़ रहे थे कि उसके लौटकर आते समय तक जल वृष्टि होने लगती है। युवती कलश लिये चली आ रही थी उसके अंग प्रत्यंग पानी में भीग रहे थे जिससे उन अंगों का सौंदर्य फीका हो रहा था। बुंदेली नारी भीगने की परवाह न कर उन अंगों का सौंदर्य बचाने का आग्रह अपने पति से करती है। उसे डर है कि कहीं अंगों के सौंदर्य विहीन होने पर प्रियतम रसानुभूति का आनंद पाने से वंचित न हो जायें।
फुलवगिया हो राजा बरसे मेव, गोरी भींजगईं गलियन में।
गौरी जो भीजैं भींजत जान दो, घुँघटा देखो राजा लेव बचाय।
घुंघटा भीजें तो भींज जान देव, राजा अंखियन खों लेव बचाय।
अंखियां भीजें तो भींज जान देव, रस गलुअन को लेव बचाय।
गलुआ जो भींजें भींज जान देव, चौली फल खां लेव बचाय।
चोली भींज गई भींज जान देव, तिन्नीं खों लेब बचाय।
फुलवगिया हो बरसे मेव, गौरी भींज गईं गलियन में।
गगरी उतारने का गीत
कुआँ पूजने के बाद देवर दरवाजे पर गगरी उतारने का नैग करता है उस समय यह गीत गाया जाता है।
हम पैरें मूंगन की माला, हमाई कोउ गगरी उतारो।
कांगये तोरे सइयां, गुसइंयां, कांगये बारे लाला।
हारे गये मोरे सइयां गुसइयां, खेलन कड़गये बारे लाला। हमाई कोउ….।
एक हांत मोरी चुनरी समारौ, दूजै हांत कें गगरी उतारो। हमाई….।
एक हांत मोई बइयां खों पकरो, दूजै कें जोवन मरोरो। हमाई कोउ …।
देली जनपद में देवर भाभी के संबंध अत्यधिक मधुर हैं। ये भाव बुंदेली लोक साहित्य में मिल जाते हैं। ‘‘भइया की भौजाई, देवरा की आदी लुगाई’’ बुंदेली कहावत इस सत्य को अपने में समेंटे है। साम्य भाव इस गीत की अंतिम पंक्तियों में खुलकर प्रकट हुआ है।
झूला गीत
कुआँ पूजने के दस्तूर के उपरांत बुंदेलखंड में झूला का दस्तूर संपन्न होता है जिसे पलना दस्तूर कहा जाता है। बुआ द्वारा लाये गये पालने की पूजा अठवारी, वीरा, बतासा, हल्दी, चावल और कुल देवता को घी का होम कर की जाती है। इसी समय बच्चे को पालने में लिटाकर पहली मिचकी बुआ घालती है। बुआ को इसी समय नैंग दिया जाता है। इसके बाद बुलउआ बाली सम्माननीय बूढ़ी स्त्रियाँ बच्चे को झुलाती हैं। इस समय जो गीत गाये जाते हैं, लोरी कहलाते हैं। ‘‘झूला झुलाते समय जो गीत गाये जाते हैं उनमें इतनी सम्मोहन शक्ति रहती है कि बालक कितना ही रोता हो, झूले में लिटाकर गीत प्रारंभ करते ही वह तुरंत चुप हो जाता है। वह गीत सुनते सुनते सो जाता है इन गीतों को लोरी कहते हैं। बुआ बालक को झुलाते समय गीत गाती है।
झूलें नंदलाल झुलाव सखी पलना,
काय को तोरो बनो पलना, काय की लागी डोर, कायके लागै फूंदना। झूलें…।
अगर चंदन कौ बनो पालना, रेशम की लागी डोर। रूपे के लागे फूंदना। फूलें…।
को है झूलें को है झुलावें, सब सखियाँ यशोदा लेत बलइयाँ, कौन मुख चूमना।
झूलें नंदलाल झुलावें सब सखियाँ, जशोदा लेत बलइयाँ, नंद मुख चूमना। फूलें..।
बुंदेलखंड में शिशुओं के रोने पर माताएँ नजर की कल्पना कर लेती हैं।
मां चटपट राई नौंन उतारकर चूल्हे में डाल देती है जिससे नमक चटकता है।
अन्ध विश्वास के कारण नमक के चटकने का अर्थ नजर उतरने से लिया जाता है इसी भाव की लोरी शिशु को चुप कराने के लिए गाई जाती है।
झुला दो माई स्याम परे पलना, स्याम परे पलना, झुलादो माई स्याम….।
काऊ गुजरिया की नजर लगी है, सो रो रये ललना, झुलादो माई….।
राई नोंन उतारो जशोदा, खुसी भये ललना, झुला दो माई स्याम परे पलना।
जो मोये ललना खों पलना झुलादे, देंव उये जड़ाउ कंगना।
मचलते हुए बालक को मनाने की कला माँ से अच्छी किसी को नहीं आती है। झुलाने पर बालक नहीं सोता है उस समय लोरी का सहारा लिया जाता है।
सोजा बारे बीर सो सोजा बारे बीर।
बीर की बलइयाँ लेंहों, जमुना जू के तीर। सोजा बारे बीर।
बर में बांदौ पालनों, पीपर में बांदी डोर, आउत जातन झोंका दे दओं- कभउं न टूटे डोर।
ताती ताती खीर बनाई, ऊमें डारो घिऊ, दो कौर खों खाले मइया ठंडो पर जैये जिऊ।
माँ के प्रलोभन, ताती खीर, पिऊ और कंठ का माधुर्य बच्चे को सोने के लिए मजबूर कर देते हैं ओर बालक सो जाता है।
पासनी के गीत (अन्न प्राशन)
अन्न प्राशन संस्कार को बुंदेलखंड में पासनी कहते हैं अन्न प्राशन संस्कार का अर्थ होता है शिशु को ठोस भोजन का प्रारंभ। गृह्य सूत्रों के अनुसार यह संस्कार शिशु के जन्म के पश्चात् छठें मास में किया जाता है। मनु और याज्ञवल्क्य आदि का यही मत है। बुंदेलखंड में जब छठे महीने पासनी के समय बुलउआ होता है स्त्रियाँ बुलउये में आकर शिशु को खीर चटाती हैं। इस अवसर पर कोई भी सोहर गीत गाया जाता है। बुलउये में चनें की कोई बांटी जाती हैं।
मुंडन संस्कार गीत
बुंदेलखंड में चूड़ाकरण संस्कार को मुंडन या मूड़नों कहते हैं। ये संस्कार तीन, पाँच या सातवें महीनें, मनौती मनाने वाले देवी या देवता के स्थान पर संपन्न होता है। बुंदेलखंड में माता और जटाशंकर आदि ऐसे ही देवी देवता हैं जिनकी मनौतियाँ पुत्र प्राप्ति के लिए, मनाई जाती हैं। मुंडन के बाद झालर के बालों को आटे की लोई में रखकर नदी या तालाब में सिराया जाता है बुलउआ में औरतें ये गीत गाती हैं।
झालर जबईं मुंडांय हो, जब आजुल घर होंय। झालर मोरी पाहुनी।
झालर जो कौ है खेत, झालर मोरी पाहुनी।
ये झालर के कारने, मैंने सहे हैं कष्ट अनेक।
ये झालर के कारने, तजै हैं अम्मा इमलिया बेर।
ये झालर कै कारनें, मैंने सहे हैं बोल कबोल। झलर मोरी पाहुनी।
कन्छेदन के गीत
बुंदेली में कर्ण छेदने को कन्छेदन संस्कार कहते हैं। यह संस्कार प्रायः तीसरी वर्ष बसंत पंचमी के दिन होता है। लड़कों के दोनों कान नीचे और बायाँ कान ऊपर छेद कर सोने की बालियाँ पहनाई जाती हैं। लड़कियों की नाक, कान दोनों ही छेदे जाते हैं। छेदे गये स्थान पर तुरंत हल्दी और घी लगाया जाता है जिससे कान पकते नहीं हैं। इस अवसर पर स्वजन एवं पड़ोसी महिलाएँ बुलउऐ पर कोई भी सोहर गाती हैं। इस संस्कार पर नैग के रूप में सुनार को पाँच या सात रूपये दिये जाते हैं।
जनेउ संस्कार के गीत
बुंदेलखंड में जन्म संस्कार के उपरांत आठ वर्ष की आयु में बालक का यज्ञोपवीत संस्कार होता है। बुंदेली में इस संस्कार को जनेउ पहिनना कहते हैं। जनेउ धारण करने वाले बालक को बरूआ कहते हें। यह संस्कार अमीरों में शादी के अतिरिक्त अलग से मनाया जाता है। गरीबों में दुहरे खर्च से बचने के लिए इसे शादी में ही संपन्न किया जाता है। जनेउ संस्कार करते समय बरूआ या बटु को स्नान कराकर, उसके समवयस्क बालकों को उसके साथ दूध भात का भोजन कराया जाता है और बटु को पंच गव्य- गौ मूत्र, गोबर, शहद, दही एवं दूध पिलाया जाता है। हरे बांस निर्मित मंडप में गणेश पूजन, पंचांग पूजन, नवग्रह पूजन करके एक ब्राह्मण को ब्रह्मा का प्रतीक मान, हवन कराया जाता है वहीं पर छोहकर्म किया जाता है। इसमें बटु की शिखा के इर्द गिर्द कुछ बाल छोड़कर मुंडन करते हैं। बटु को पुनः स्नान कराकर मंडप में पुनः पूजन हेतु बैठाते हैं। इसी समय बटु को मूँज का जनेउ, कमर में मूँज की करधनी, कपड़े की पीली लंगोटी तथा मृगचर्म पहनाकर मंत्रोचित विधि से सूत का जनेउ पहनाया जाता है। इस जनेउ का निर्माण क्वाँरी कन्या तकली द्वारा करती है। बटु किसी ब्राह्मण को गुरू बनाकर उससे दीक्षा ग्रहण कर मंदिर में पूजा करने जाता है। रास्ते में पड़ोस से भीख भी माँगता जाता है। इसी समय बहिन भाई को दरवाजे पर छैंक उससे अपनी ननदी का विवाह कराने का प्रलोभन देकर घर पर रोकना चाहती है। भाई बहिन को नैंग देकर भीख माँगने चला जाता है और वह मुहल्ले के पाँच घरों से भीख माँगता है। इसके उपरांत मां, बहिन, भाभी, रिश्तेदार एवं पड़ोस की बुलउआ बाली औरतें बटुए की झोली में देओल, चावल, मेवा मिष्ठान, रूपया, स्वर्ण कुछ भी भीख के रूप में, डालती हैं। बटु द्वारा माँगी भीख मान्यता प्राप्त रिश्तेदारों में बहिन या बुआ में वितरित की जाती है। बटु पुनः स्नान कर पीला बागा धारण कर पास के मंदिर में पूजन हेतु जाता है। इसी समय व्यवहारी बटु का अपने सामर्थ्यनुसार दान देकर तिलक करते हैं। मंदिर जाते समय बुलउआ बाली औरतों का झुण्ड ये गीत गाता है।-
तीन तगाको डोरा री, दमरी कौ सूत ये भइया।
तीन तगा को जनवा री, कैसो मजबूत सुन भइया।
पैले में विष्नु, दूजैं में ब्रम्हा, तीजो सूत संकर, अवधूत सुन भइया।
पैले तगा में ओमकार है, दूजै में अगन सबूत ये भइया।
तीजै तगा में नागबास है, चंद विराजै चौथे सूत ये भइया।
पाँचे सूत में पितर विराजे, प्रजापति हैं छठमें सूत ये भइया।
सातव तंत अस्थान पवन को, सूरज को है आठव सूत ये भइया।
नवे तंत में विसवै देवा, हीरा कातैं कन्या सूत ये भइया।
प्रस्तुत गीत में कहा गया है कि जनेउ तीन तगा द्वारा निर्मित दमरी की कीमत का है। इसमें ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, ओमकार, अग्नि, नाग, चन्द, सूरज, पवन, प्रजापति आदि सभी देवताओं का वास रहता है जिसका निर्माण क्वाँरी कन्या करती है। इसलिए जनेउ ब्रह्मचर्य की महिमा दर्शाने वाला है। क्योंकि बुंदेली संस्कृति में कन्या पूजनीय है जिसके प्रति पवित्र भावनाएँ बेवसही उठ व्यक्ति मन, वचन, कर्म से वासना विहीन होकर आदर्शों का पालन करता है। मैं तो कहूंगा कि जनेउ ऐसा स्मारक है जिसको बार-बार निहारने मात्र से बटु अपने उद्देश्य को, जीवन के ध्येय को विस्तुत नहीं कर सकता है।
भीखी गीत
बटु जब ब्रह्मचारी बनकर भीख माँगता है उस समय ये गीत गाया जाता है।
कहनां सें बरूआ चलो, अरी ठांड़ो कोनां दोर।
काशी सें बरूआ चलो, अरी ठांड़ो आजुल दोर।
भीखी दे आजी भीखी दे, तोरो बरूआ रिसानों जाय।
भीखी दे काकी भीखी दे, तोरो बरूआ रिसानो जाय।
भीखी दे भौजी भीखी दे, तोरो बरूआ रिसाने जाय।
भीखी दे बुआ भीखी दे, तोरो बरूआ रिसानो जाय।
भीखी दे बैना भीखी दे, तोरो बरूआ रिसानो जाय।
अवधी में भी भीखी गीत गाया जाता है जो इस प्रकार है।
भिखिया दे माता आसीस दे माता।
यह भिखिया के कारन माता, चलेउ में कासी बनारस।
काहे जइहों बनारस, काहे को कासी, तोरे दादा हैं विदवान। घरहिं वेद पड़िहो
प्राचीन काल में जनेउ संस्कार उस समय किया जाता था जब बालक विद्याअर्जन करने हेतु काशी जाया करते थे। भारत में काशी ही विद्यार्जनका सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ का पढ़ा विद्यार्थी सबसे बड़ा विद्वान माना जाता था। विद्यार्जन के लिए ब्रह्मचर्य पालन अनिवार्य है। अतः बालक को ब्रह्मचर्य व्रत धारण करवा कर उसे विद्यार्जन हेतु काशी भेज दिया जाता था। आजकल जनेउ संस्कार विधि में उसी महिमामय संस्कार की, मात्र रूढ़ि का पालन किया जाता है। कुछ भी हो बुंदेली गीतों में इस संस्कार की सांस्कृतिक महिमा अभी भी अपने पूर्व रूपानुरूप संचित है।
वैवाहिक गीत
जिस प्रकार जीवन में शैशव, यौवन और बुढ़ापा अनिवार्य क्रम से चलते हैं उसी प्रकार जीवन में जन्म संस्कार, वैवाहिक संस्कार एवं मृत्यु संस्कार अनिवार्य रूप से होते हैं। शैशव, यौवन और बुढ़ापे में से यौवन में ही मादकता है। कुछ कर दिखाने की असीम शक्ति है। उसी प्रकार वैवाहिक संस्कार जीवन का सबसे महत्वशाली संस्कार है जिसमें दो जीव द्वैत से अद्वैत होते हैं। इन दोनों के सहयोग से सृष्टि का निर्माण होता है। वैवाहिक संस्कार वैदिक एवं शास्त्रीय नियमों और लौकिक परंपराओं का सहारा लेकर संपन्न होते रहते हैं। ‘‘वैदिक आचार को धुरी माना जा सकता है, उस धुरी के चारों ओर लोकाचारों का ताना-बाना माना जा सकता है, उस धुरी के चारों ओर लोकाचारों का ताना बाना बुना हुआ है। लोकाचारों में ही लोक वार्ता और लोक गीत के दर्शन होते हैं।
देश काल जाति को विभिन्नतानुसार वैवाहिक संस्कार से संपन्न होने में विभिन्न लोकाचार एवं विभिन्न परंपरायें पाई जाती हैं। बुंदेली विवाह में स्थान, जाति की भिन्नता के अनुरूप कुछ न कुछ हेर फेर मिलता है। सवर्णों एवं निम्न जातियों के विवाहों में अनेक रीति रिवाजों में, भेद पाया जाता है जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि में टीपना मिलाना अनिवार्य है। टीका, चड़ाव और भाँवर आदि संस्कार मुहूर्त अनुसार ही संपन्न होते हैं किंतु चमार, कोरी, मैंतर, धोबी आदि में इनकी आवश्यकता ही नहीं समझी जाती है। बुंदेलखंड में वैवाहिक संस्कार में, कन्या पक्षीय एवं वर पक्षीय दो भिन्न प्रथाएँ मिलती हैं। इनके लोकाचारों में भिन्नता रहती है किंतु शादी लड़की की हो या लड़के की, उछाह एकसा पाया जाता है। शादी वाले लड़के को बुंदेली में दूल्हा, बनरा या बन्ना कहते हैं। लड़की को दुलहिया, बनरी या बन्नी कहते हैं। बुंदेली में इस समय गाये जाने वाले गीत बनरा, बनरी, गारी, बुंदेला, रघुपत आदि प्रमुख हैं। बुंदेलखंड में लड़का-लड़की के वयस्क होते ही माता पिता शादी का उपक्रम शुरू कर देते हैं। सबसे पहले लड़की वाला वर खोजकर टीपना मिलाता है टीपना मिलने के उपरांत लड़के में मन भरने पर लड़के को छैंक दिया जाता है। इसके उपरांत लड़का वाला लड़की को देखने जाता है और लड़की में मन भरने पर उसकी ओली में, नारियल, बताशा और सूखे मेवे आदि डालकर वस्त्र आभूषण आदि दिये जाते हैं। इस रीति को ओली भरना या चीज पहनाना कहते हैं। सवर्णों में लड़का लड़की के विवाह का मध्यस्थ नाई होता था किंतु अन्य जातियों में यह कार्य ‘‘वसीट’’ करता था। ओली भरने के बाद लड़की वाले लड़के के घर सगाई भेजते हैं। (सगाई को कहीं कहीं पक्यात या तिलक चढ़ना कहते हैं) ‘‘सगाई का अर्थ संभवतः निकट संबंधी अथवा सगे संबंधी अथवा सगे हो जाने से हैं’’।[2] बुंदेलखंड में सगाई रस्म पूरी होने से ही शादी की शुरूआत मानी जाती है क्योंकि सगाई का सही अर्थ सगे बनाने से है जिसका अर्थ निजी होता है। इसलिए बुंदेली भाषा में दामाद को सगा, सगे या सगो कहते हैं। सगाई के अवसर पर लड़की वाले फल, मिठाई थालों में भरकर मय वस्त्र आभूषण के, भेजते हैं। सगाई के दस्तूर में लड़का गणेश जी की गोबर निर्मित मूर्ति के समक्ष बैठता है उसी समय गणेश पूजन होता है और सगाई लड़के के हाथ पर रखी जाती है। इसके उपरांत सगाई, साक्षी हेतु सबको छुआई जाती है। बुलउआ में सगाई के पान बांटे जाते हैं। इसके उपरांत लड़की वाला विवाह का सगुन सोचकर एक पत्री लड़के के यहाँ भेजता है जिसमें विवाह का संपूर्ण कार्यक्रम निश्चित रहता है इसे बुंदेली में सुतकरा कहते हैं। अंत में लड़की वाला लगुन पत्रिका लिखकर लड़के के यहाँ भेजता है जो लड़के को चढ़ जाती है और विवाह का श्रीगणेश हो जाता है।
कन्या पक्ष में सगाई लिखते समय का गीत
बुंदेलखंड में वैवाहिक संस्कार का सूत्रपात कन्या पक्ष से होता है। सगाई भेजते समय बुलउआ वाली औरतें ये गीत गाती हैं जिसमें माँ अपनी बेटी को अपने स्तर से उच्च स्तरीय परिवार में देने की अभिलाषा प्रकट करती हैं। देखिये-
मोरी लाड़ी बनरी नादान, आजुल जीसों अरज करे।
मोरी ऐसे घरे दियो महाराज, जहाँ बेटी राज करे।|
जहाँ बम्मन तपत रसोई, कहर दोई पानी भरैं।
मोरी झूलों की झूलनहारीं, कटोरन दूध पियें।
मोरी रूपयों की परखन हारी, मुहरों के मोल करें।
मोरी छज्जे की पौंड़नहारी, झरोखन बाव ढुरैं
वर पक्षीय सगाई चढ़ना
सवर्णों में सगाई लेकर नाई और ब्राह्मण जाते हैं साथ में भाई एवं रिश्तेदार भी रहते हैं। छोटी जातियों में वसीट सगाई लेकर लड़के को चढ़ाता है। बुलउआ में औरतें प्रसन्नता सूचक गीत गाती हैं अंत में सगाई का पान बाँट दिया जाता है।
कन्या पक्ष में लगुन का गीत
सुतकरा में अंकित शुभ मुहूर्त के अनुसार ब्राह्मण गणेशजी की पूजा करके लगुन लिखता है। लगुन में शादी के सभी कार्यक्रम तिथिवार अंकित रहते हैं। छेई माटी लेना, खदान पूजना, मंडप गाड़ना, खाम पूजना, तेल चढ़ाना, कुलदेवता पूजना, टीका, चढ़ाव, भाँवर आदि का समय निश्चित करना सभी कुछ इसमें अंकित होता है। सवर्णों में लगुन में चाँदी से मढ़ा नारियल तथा हल्दी की पाँच गाँठे, पाँच सुपारीं, चाँदी या सोने से मढ़ाकर डाली जाती हैं। सामर्थ्यनुसार 21 या 51 या 101 चाँदी के रूपये डाले जाते हैं किंतु निर्धन एवं छोटी जातियों में एक रूपया या एक टका भेजा जाता है। नारियल, सुपारी, हल्दी बिना चाँदी सोने के ही मढ़े जाते हैं। इस समय औरतें ये गीत गाती हैं।
कोरे से कगदा मँगाये राजा बाबुल, बेटी की लगुन लिखाई मोरे लाल।
पाँच सुपारीं मंगाई बाबुलजुआ, बेटी की लगुन लिखाई मोरे लाल।
पाँच हरद की गठिंयां मँगाईं, बाबुलजू बेटी की लगुन लिखाई मोरे लाल।
नरियल मँगाये, चाँदी मंड़ाये, सो बेटी की लगुन लिखाई मोरे लाल।
वर पक्षीय लगुन चढ़ते समय का गीत
बुंदेलखंड में लगुन बांचने का दस्तूर बुलउवा देकर होता है। पंडित लगुन बाँचकर विवाह की सभी तिथियाँ सुनाता है औरतें गीत गाती हैं।
नउआ बमुन नें सो हीर मोरे ठग लये, नगींना मोरे ठग लये मोरे लाल।
पैलें कातते हतिया हम देवू, सौ अंकुस दे समझा दये मोरे लाल।
पैलें कातते उटला हम दैवू, सौ नौवत दे समझा दये मोरे लाल।
पैलें कातते घुड़ला हम दैवू, सौ चाबुक दे समझा दये मोरे लाल।
पैलें कातते मुहरें हम दैवू, सौ रूपइया दे समझा दये मोरे लाल।
पैलें कातते धीनस हम दैवू, सौ बहुआ दे समझा दये मोरे लाल।
प्रस्तुत लोक गीत में वर के ठगने की बात आई है। ठगने से तात्पर्य है कि आज से मेरा बेटा अन्य का हो रहा है या यों कहिये कि एक ऐसी जिम्मेदारी धारण कर रहा है जिसका निर्वाह उसे जीवन पर्यन्त करना पड़ेगा। गीत की पंक्तियों में नारी हृदय की आकांक्षाएं मुखरित हुई हैं जिसमें उन्होंने, लड़की वाले के घर से धन पाने की इच्छा प्रकट की है। दूसरे गीत में बना, बनरी राम और सीता के प्रतीक बनकर आये हैं। देखिये-
सौ आज मोरे रामजू खों लगुन चड़त है। लगुन चड़त है आनंद बड़त है।
कानन कुंडल मोरे रामजू खों सोहे, गालन विच मुतियन लर फबत है।
कैसर खौर मोरे रामजी खों सोहे, सो गरविच गोप जंजीर लसत है।
कंकन चूरा मोरे रामजू खों सोहे, सो हातन विच गजरा दरसत है।
रामजू के दरसन खों जियरा ललचत है, आज मोरे रामजू खों लगुन चड़त है।
बुंदेली लोक गीतों में लोकाचारों की नूतन अभिव्यंजना है। प्रश्न उठता है कि गीतों से लोकाचार बने हैं या लोकाचारों से गीत। गहराई में पैठने पर पता चलता है कि संस्कारों का वर्णन हमें वेदों-शास्त्रों में मिलता है। हमारे पूर्वजों के संचित जीवन ज्ञान का परिष्कृत रूप ही संस्कार हैं। उन संस्कारों का विस्तृत, विकृत रूप ही लोकाचार हैं। इन्हीं लोकाचारों को सुरक्षित रखने का माध्यम हमारे लोक गीत हैं। अतः कहा जा सकता है कि बुंदेली लोकाचारों के प्रबल अभिवक्ता बुंदेली लोक गीत हैं। इस सत्य का दर्शन हमें बुंदेली सोहरों एवं वैवाहिक गीतों में मिलता है। बुंदेलखंड में लड़का या लड़की की शादी में कुछ नैंग उभयनिष्ठ होते हैं जैसे कुल देवता पूजन, देवी पूजन, मैर पूजन, सीधा छूना, मटयायना लेना आदि।
सीदौ छूना
बुंदेलखंड में विवाह के कार्यक्रम में सीदौ छूने का दस्तूर होता है (इसमें अनाज बीना जाता है या नुकावनों होता है)। बुलउआ वाली औरतों को माहुर रचाकर उनके सूप हल्दी चावल से टीके जाते हैं। औरतें नाज नुकाते हुए देवी देवताओं की स्तुति गीत गाने लगती हैं।
सो भांक रईं लोगन सें, अटरियाँ, सिजरियाँ भाँक रईं लोंगन सें।
सबरे देवता आये सखा में, सो महामाई काय नईं आईं। अटरियाँ, ………….।
सबरेई देवता आये सबा में, हरदौल लाला काय नईं आये। अटरियाँ…….।
सबरेउ देवता आये सबा में, दूला बब्बा काय नईं आये। अटरियाँ……..।
सबरेउ देवता आये सबा में, कारस देव काय नई आये। अटरियाँ…….।
सबरेउ देवता आये सबा में, मैर बब्बा काय नईं आये। अटरियाँ…………।
सबरेउ देवता आये सबा में, सो भूले बिसरे काय नईं आये। अटरियाँ……।
मटयावने या छेई मांटी के गीत
बुंदेलखंड में बन्ना, बन्नी दोनों के विवाह में छेई माटी का दस्तूर होता है। बुलउआ वाली औरतें गेंवड़े में जाकर खदान से मिट्टी लाती हैं। मैर पूजने वाला व्यक्ति खदान को हल्दी चावल से टींक कर पूजता है। इस मिट्टी से लड़की के घर पाँच चूल्हे, दो परधनी (थाली जैसी गोल) तथा लड़के के घर सात चूल्हे, दो परथनी बनतीं हैं। सवर्णों में यह कार्य चमारिन करती है और छोटी जातियों में बुआ करती है। छेईमाटी के समय गाये जाने वाले गीत अनार्य संस्कृति के प्रभाव से काम परक या अश्लील भावयुक्त प्राप्त होते हैं जैसे-
सबकोउ सोवे लै लै गुइयां, सो मातेजू…. रोंये हो। हांहा हो हूंहू हो।
इस गीत में नारी की स्वाभाविक भावनायें- पुरूष के प्रति समर्पण भाव व्यंजित करने में पूर्ण यौवनमयी होकर उभरने लगती हैं।
मड़वा मायने का गीत
मंडप के दिन मंडप को हरे बांस, छेवले की लकड़ी तथा आम जामुन की पत्तियों से सजाया जाता है। मंडप के मध्य में खाम गाड़ने के गड्ढे में लड़की के विवाह में पाँच सुपाड़ी, पाँच हल्दी की गाँठें, चावल, कोयला, पाँच टका पैसा डाले जाते हैं। धनी लोग पैसों की जगह चाँदी का रूपया डालते हैं। इसी गड्ढ़े में बढ़ई द्वारा लाया हल्दी से रंगा छेवले का खंभ गाढ़ा जाता है। मंडप के दस्तूर के समय सभी को हल्दी के हांते लगाये जाते हैं पिछड़ी जातियों में मड़वाई लाने का दस्तूर सवर्णों से भिन्न होता है। इसमें पाँच सात व्यक्ति मैर पूजने वाले व्यक्ति के साथ गुड़, हल्दी, चावल, घी एवं उर्द की दाल के सात बरे लेकर जंगल में छेवले की पूजा करने जाते हैं। पूजा करने के उपरांत, लकड़ी काटकर घर लौट आते हैं। शाम को औरतें मंडप की पंगत के समय मंडप गीत गाती हैं।
रूनक झुनक बेटी मंडल डोलैं, बाबुल लये हैं उठाय।
कै मोरी बेटी तुम सांचे की ढारी, कै गढ़ी हैं चतुर सुनार।
नैं आजुल में साचैं की ढारी, नैं गढ़ी चतुर सुनार।
माता की कुखियाँ जनम लयै हैं, रूप दये करतार।
मायने को गीत
मायनो का अर्थ मातृका पूजन से होता है। बुंदेली विवाह में देवी पूजन, कुल देवता पूजन (मैर का पूजन, बाबू का पूजन, हरदौल का पूजन) विभिन्न जातियों में विभिन्न प्रकार से होता है। छोटी जातियों में उनके स्तर के अनुसार उनके कुलदेवता मैर बब्बा एवं महामाई की पूजा होती है। इन जातियों की औरतें स्वयं कुम्हार के घर से मिट्टी के घड़े लाकर कुयें पर जल (मैर भरने) भरने जाती हैं। परिवार का जेठा व्यक्ति (मैनरा) कुएं की पूजा करता है। इसी कुएं के जल से मैर बनाया जाता है। इसमें चार रोटी, चावल और आटे की चार पकी हुई गोलियाँ बाँटी जाती हैं। यह दस्तूर लड़का या लड़की का एक सा होता है। मैर भरते समय विभिन्न जातियों के अनुसार भिन्न-भिन्न गीत गाये जाते हैं।
चमारों का गीत
जल भरतन चूनर दे तानी।
भरकें खेप कुअल पै ठांड़ी, माला मोतन की टो डारी।
चोली रेशम की फाड़ारी, घुंघटा पै पिचकारी मारी।
रसवोर भईं सब रानी, जल भरतन चूनर दै तानी।
जबर जबर जबर दुलइया, गारी देवै प्यारी दुलइया।
गुलचन मारै राजा दुलइया।
राजा दुलइया के मौं न लटकारी जो झलकारी।
बायरें ठांड़ी सलौनी राधा रानी, जल भरतन चूनर दै तानी।
धोवियों का गीत
गंगा बड़ी जमना बड़ी सो तीरथ बढ़े प्राग। तुमैं हरो बाड़ियो।
मैर बब्बाजु आ बाड़ियो, जैसें बाड़े नगवेल। तुमैं हरो बाड़ियो।
हरदौलजु आ बाड़ियों, जैसें बाड़े नगवेल, तुमैं हरो बाड़ियो।
बउअन बेटन घर भरे, नत पुत भरी डिडसार। तुमैं हरो बाड़ियो।
बाड़त बाड़त बड़ गई, मड़वै चड़ी नगवेल। तुमैं हरो बाड़ियो।
काछियों के गीत
कुअला पै लौंद भरै पानी, भरे पानी रे भरै पानी।
लौंद के घुंघटा सौला हजार के, खोलो न माल विगर जैहे।
लौंद की विंदिया सौला हजार की, छुओ न माल विगर जैहै। कुअला पै….।
लौंद की चोली सौला हजार की, तिन्नी न खोलो रस बगर जैहे।
इन गीतों में जाति भिन्नता के अनुसार ही लय भिन्नता पाई जाती है। जो इन गीतों की अपनी विशेषता है।
तेल चढ़ने का गीत
बुंदेलखंड में तेल चढ़ाने की पद्धति में सवर्णों एवं छोटी जातियों में भिन्नता पाई जाती है। यहाँ पर कुछ जातियों में मंडप पूजन के समय तेल चढ़ाया जाता है और कुछ में बाद में चढ़ाया जाता है। छोटी जातियों में लड़का या लड़की को उबटन कराकर स्नान कराया जाता है फिर लड़का या लड़की का फूफा बना या बनरी को गोद लेकर गाँव के बाहर खदान पूजने ले जाता है। इस समय बनरी को गोद लेकर गाँव के बाहर खदान पूजने ले जाता है। इस समय बनरी तार में पिरोई हुई पूड़ी हाथ में लेती है। बनरी कमरी या कथरी ओढ़ती है। बनरी के हाथों में कवारा रहते हैं। खदान पर पहुँचकर स्त्रियाँ देवताओं को गीत गा-गाकर निमंत्रण देती हैं।
सरग नसैनी पाटे की, जी चड़ नैवतौ लैब।
महामाई हो, गनेस बब्वा हो, तुम मोरे नेवतौ लेव।
मैर बब्बा हो हरदौल लाला हो, तुम मोरो नेवतौ लेव।
महाबीर बब्बा होउ ठाकुर बब्बा होउ तुम मोरो नेवतौ लेव।
खदान से लौटकर मंडप के नीचे कन्या को पटली पर बिठाकर भौजाई या बहिन दूब से तेल चढ़ाती है। पहले तेल गणेश जू को, फिर खंभ को, फिर क्रमशः बनरी के अँगूठे, घुटने और माथे को चढ़ाया जाता है। इस समय औरतें ये गीत गातीं हैं।
कौनांने तेल चड़ाव, को राये बेंहदुलिया, वहिनी नें तेल चड़ाब, जीजा राये- बेंहदुलिया।
चड़गओ तेल फुलेल छुटक रईं पाखुरियां।
को ल्याव तेल फुलेल को ल्याव पाखुरियां।
भाभी नें तेलों चड़ाव, वीरनरांय बेंहदुलियां।
लड़के को तेल चढ़ते समय का गीत- बनरी को तेल चढ़ते समय की प्रक्रिया पूर्ववत है। औरतें तेल चढ़ाते समय ये गीत गाती हैं।
सो आज मोरे रामजू खों तेल चड़त है। तेल चड़त है फुलेल चड़त है।
सोने कटौरा में तेल भराओ, सो हल्दी मिलाकें कैसो झलकत है। सो….।
क्वांरिन नें मिल तेल चड़ाओ, सो नारिन मंगल गीत मड़त है। सो ……..।
विघ्न बाधा निवारण गीत
प्रकृति की तुष्टि हेतु बुंदेलखंड में विवाह के पूर्व पवन, अग्नि और वर्षा आदि से प्रार्थना की जाती हे। इतना ही नहीं विवाह शांति पूर्वक संपन्न करने के लिए सभी विघ्न कारक व्यक्तियों या देवी देवताओं से शांत रहने की प्रार्थना की जाती है। गीत इस प्रकार है।
तीन दिनाँ दोई रात, वरन नौनों मूंदियो।
मूँदौ मूँदौ जिठनिया की जीभ, वरन ऐसो मूँदियो।
मकरी माँछी मूँदियो, मूँदौ पगरैतन की जीभ।
विच्छूकिच्छू मूँदियो, मूँदौ जैठे बड़ों की जीभ।
आँदी बैहर मूँदियो, मूँदौ कुटुम भरे की जीभ। तीन दिनाँ …..।
आँधी, पानी, पवन के उपद्रव से बचने के लिए स्त्रियाँ पवन पुत्र की स्तुति गीत गाती हैं।
पवन के हनुमत हैं रखवारे, हनुमत हैं रखबारे पवन के।
हनुमान बब्बा ऐसें गरजत हैं, जैसें इन्द्र के बजत नगारे
कढ़ाई चढ़ाने का गीत
बुंदेलखंड में जब पकवान बनाने के लिए कढ़ाई चढ़ाई जाती है उस समय ये गीत गाया जाता है।
बुंदेला देसा के हो लाला भरो लहारौ नाव।
कौन घरी अनमन लये, कौन घरी औतार। बुंदेला देसा ……..।
हरदौल निमंत्रण गीत
बुंदेलखंड में, सत्य की रक्षा के लिए कुँवर हरदौल ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी। इसी से वह अमर हो गये हैं। ‘‘बलिदान अमरता का प्रतीक है। सात्विक प्रेम की बलिवेदी पर सच्चे वीर ही चढ़ा करते हैं। यह प्रेम सृष्टि का रहस्य है’’।[1] इसी प्रेम पर बुंदेल केशरी कुँवर हरदौल ने नारी के सतीत्व रक्षार्थ, अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। इसी कारण वह बुंदेलखंड की एक एक नार के लाला (देवर) बन गये हैं। बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में इनके चबूतरे बने हैं जहाँ बुंदेली नारियाँ इन्हें सम्मान के साथ पूजती हैं। हरदौल के संबंध में किंवदन्ती है कि कुंजावत बहिन की बेटी की शादी में हरदौल ने मरणोपरांत मदद की थी। इस भाव का यह गीत सुनाई देता है।’’ महा सोर भयो, महा सोर भयो, मरैं हरदौल भात दयो’’। यही कारण है कि प्रत्येक बुंदेली रमणी प्रत्येक शादी में उन्हें आदर पूर्वक निमंत्रण देकर बुलाती है। देखिये-
हरदौल लाला मोरी कही मान लियो हो, हरदौल लाला।
कहूँ भूला परै कहूँ चूका परै, तो संभाल लियो, हो हरदौल लाला।
माथे हो सेरो हरदौल जू कें सोहे, कलियों की लटकन संभाल लियो हो…..।
कानौ हो कुंडल हरदौल जू के सोहें, झुमकों की लटकन संभाल लियो हो…।
चीकट का दस्तूर
बुंदेलखंडी विवाह में चीकट का दस्तूर विशेष महत्व रखता है। शादी के पूर्व बहिन एवं बहनोई भाई को (मामा को) विवाह का निमंत्रण देते हैं। शादी में मामा चीकट (वस्त्र, आभूषण तथा खाद्यान्न) लेकर आता है। जाति भिन्नता एवं स्थानीय भिन्नता के कारण इस नैग में भिन्नता होती है। बुंदेलखंड में इस दस्तूर का उद्देश्य, विवाह जैसे खर्चीले संस्कार में मामा का योगदान देने से है। भाई चीकट लेकर मंडप के दिन बहिन के घर पहुँचता है उसी दिन चीकट उतारने का दस्तूर होता है। इस दस्तूर में सवासन या खबासन (सवर्णों में खबासन-नाइन, छोटी जातियों में बुआ) कलश पर चौमुख दिया रखकर खड़ी हो जाती हैं इसी समय बहिन भाई के कंधे से लगकर, भेंट करती है। स्त्रियाँ गीत गाती जाती हैं। बहिन या बहिनें भाइयों को हल्दी चावल का टीका लगाकर, गुड़ खिलाकर मुँह मीठा करती हैं। भाई चरण छूकर न्यौछावर करता है। इसी समय भाई कलश में सवा या सवा पाँच रूपया डाल देता है। इसके उपरांत भाई मैर के घर में जाकर भत्यौर (खाद्य सामग्री) को पूजकर सवा पाँच रूपया चढ़ाता है। इसी समय बहिनें भाइयों को बुंदेली प्रिय भोजन- दूध भात खिलाती हैं। इस दूध भात में बहिन भाई के स्नेह की पवित्रता, एक एक दाने में झलकती है। कुछ जातियों में कन्नर का दस्तूर भी होता है। इस दस्तूर में बहिन तथा भांजे या भांजी और मामा की लटों को (बालों को) खवासन या सवासन अपने हाथों में लेकर इन पर पानी डालती है। इस पानी को मामा पान करता है। इस दस्तूर को बुंदेली में ‘‘कन्नर लैवो’’ कहते हैं। मामा सवासन या खवासन को न्यौछावर दे देता है।
चीकट का गीत
उठौनें ओ मोरी सांवल, गौरी तुम घर बीच उलायती।
जा बीच रे साईं हमें नें सुहावे, हमारे विरन परदेस में।
तुमारे विरन खों पतियां पठैहों, गौरी घन बीर बुलाइहों।
चिठियन साईं वीरौ नईं आवैं, संदेसे भौजी कैसें आइहें।
उठोनें मोरे बेटा अमुक राये, जाओ लला ममयावरें।
मामुल खों बेटा न्योतो दियो, मांई लुवाय घर आइयो।
प्रस्तुत पंक्तियों में बहिन अपने पुत्र से मामा मामी को बुलाने का आग्रह कर रही है। भइया और मामी दोनों शादी के दिन बहिन के घर पहुँच जाते हैं, भाई का आगमन सुन बहिन देवरानी और जिठानी को लेकर लिवाने चल देती है। देखिये-
चलो देवरनियां, चलो जिठनियां, राजा वीरन खों आगो दे ल्याइये।
मइया बहिन बैठ दोई मतो करत हैं, कौन खों का पहराइये।
सास ननद खों छींट छिमरिया, देवरानी जिठानी खों चूनरी।
हमखों बीरन मोरे जेवर गड़इयो, पाट बरइयो बहनेऊ खों पचरंग पागड़ी।
जै खों बहिन मौरी इतनौ नें पूजै, जो कैसें बहिन घर आइयो।
जैखों बीरन मोरे इतनों नें पूजै, तो पीरो खदा ले आइयो।
जोरा बीरन तुमें इतनोईं नें पूजे, तो रीते भले सब आइयो।
प्रस्तुत गीत में बुंदेली परिधान
छींट के लहँगे, चूनरी, पाट से भरा सोने का हार तथा पचरंग पाग का वर्णन मिलता है। ये सभी सामग्री बुंदेलखंड में, चीकट में आती है। छोटी जातियों में चीकट के अन्य गीत भी गाये जाते हैं चमारों का गीत इस प्रकार है।
भलांय मोरी अम्मा री, मम्मा खों लिवांय लइये।
मम्मा बिन मड़वा है सूनौ, कौ मड़वे भेंटें देवै। भलांय मोरी……।
मम्मा बिन खम्बा है सूनौं, कौ खामें भेटें देवे। भलांय मोरी …..।
मम्मा बिन कारण है सूनौ, को दूलै भेंटे देवै। भलांय मोरी …..।
शादी का उत्सव हँसी खुशी का उत्सव होता है इसीलिए ननद और भाभी का हास्य परिहास चीकट के गीत में भी मिलता है। इस गीत में बहिन का नाम भाई के नाम के साथ जोड़कर मीठी गालियाँ दी जाती हैं। इस तरह का गीत धोबियों में गाया जाता है। देखिये-
मतइया भइया बड़ी मीर परी, मीर परी सो बड़ी मीर परी।
कबूले तुमाई बैनां तुमईं सें अंगिया खाँ विरज चली। मतइया भइया…।
ढड़कोले तुमाईं बैनां तुमईं से लेंगा (लहगा) खों विरज चली। मतइया……।
बुंदेलखंड में चीकट का नैग, आम तौर से मंडप के दिन संपन्न हो जाता है। लड़का वाले के घर दूला निकासू (बरात जाने के पूर्व) के पूर्व तथा लड़की वाले के घर टीका के पूर्व हो जता है। इस नैग की समय की भिन्नता भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न रूपों में मिलती है। झाँसी और टीकमगढ़ जिले में, धोबी, चमार, कुम्हार, तेली, कोरी आदि जातियों में, ये नैग (दस्तूर) पंगत (भोज) होने के कुछ क्षण पूर्व संपन्न होता है।
वर पक्षीय नैंग- दूला निकासू
वर पक्ष में, बुंदेलखंड में दूल्हा तैयार होकर विवाह करने लड़की के घर जाता है उस समय के जाने की तैयारी को बुंदेली में दूला निकासू या निकासी कहते हैं। दूला निकासू होने के पूर्व नाई दूल्हा के माथे के ऊपर के बाल बनाकर खौर निकालता है। इससे उपरांत माथे पर चंदन की टिपकियां रखी जाती हैं। बुंदेली दूल्हा पीले रंग का वस्त्र पहिनता है जिसे बुंदेली में बागो कहते हैं। दूल्हे का फूफा नैग लेकर खजूर का मुकुट (मौर) दूल्हे के सिर पर बाँधता है। भाभी या मामी नैग लेकर उसे काजल आँजती है। दूल्हे के पैरों में माहुर रचाया जाता है। इसके अतिरिक्त दूल्हा पनरस धारण करता है। उसके हाथ में कंकन भी बाँधा जाता है साथ ही वह अपने बगल में कटार धारण करता है। बुंदेलखंड में दूल्हा एवं दुल्हन के जूते एवं जूतियां जरी के काम युक्त (भरतारू) होते हैं। दूल्हे के जूतों की विशेषता यह होती है कि उनमें कृष्ण के मुकुट की आकृति बनी रहती है। बुंदेली में दूल्हा के जूतों को (कनौरा) एवं दुल्हन की जूतियों को ‘कनोइयां’ कहते हैं। दूल्हा साज सज्जा के उपरांत देवी के मंदिर में देवी पूजन को जाता है। पूजन के उपरांत नगर में राछ फिरती है। व्यवहारी परिजन लड़के का घर घर टीका करते हैं। सवर्णों में लड़का पालकी में बैठकर घूमता है किंतु हरिजनों में दूल्हा पैदल ही घूमता है। हरिजन दूल्हे के माथे पर चंदन की जगह बँटे हुए चावलों की बिंदियाँ (टिपकियां) अंकित की जाती हैं। राछ के पीछे खवासन (सवर्णों में) या सवासन (हरिजनों में) सूप में तेल, गुड़, हल्दी, चावल, आटा, दाल, नमक आदि रखकर घूमती है साथ में स्त्रियों का झुण्ड ये गीत गाता चलता है।
काँ गयोरी बन्ना इतईं तो खड़ोतौ, का गयोरी बना इतईं तो खड़ो तो।
मौर बनवाउन बन्ना कछिया कें गओतो, कछिया की बेटी नें मो लओ री।
माला पैरन बन्ना मलिया कें गओतो, मलिया की बेटी नें मो लओ री।
कुंडल पैरन बन्ना सुनरा कें गओतो, सुनरा की बेटी नें मो लओ री।
बागो पैरन बन्ना दरजी कें गओतो, दरजी की बेटी ने मो लओ री।
भाग धुआवे बन्ना धुविया कें गओतो, धुविया की बेटी ने मो लओ री।
सपरन खोरन अताल में गओतो, ढिमरा की बेटी ने मो लओ री।
जूता पैरन बन्ना मोची कें गओतो, मोची की बेटी ने मो लओ री। बना….।
राछ फिरने के उपरांत दूल्हा मंडप में लौट आता है इसके बाद लड़की के घर बरात जाने की तैयार होने लगती है। इस तैयारी में देर होते देख स्त्रियाँ गाने लगती हैं। अबेरे दूला क्यों सजै महाराज।
बना के आजुल को बड़ो परवार, सजत बैरा हो गई महाराज। अबेरे….।
ना के बाबुल को बड़ो परवार, सजत बेरा हो गई महाराज। अबेरे….।
बना के बाबुल को बड़ो परवार, सजत बेरा हो गई महाराज। अबरे…।
ना के मामुल को बड़ो परवार, सजत बेरा हो गई महाराज। अबरे…।
बना के फूफा को बड़ो परवार, सजत बेरा हो गई महाराज। अबरे…।
बना के जीजा को बड़ो परवार, सजत बेरा हो गई महाराज। अबरे…।
बुंदेलखंड में बरात में सजधज कर जाने का एक अलग शौक होता है। प्रत्येक बराती सज धजकर अपने अपने को सबसे सुंदर दर्शाना चाहता है। यही कारण है कि दूल्हा का बड़ा परवार सजने सँवरने में देरी कर देता है कि औरतें गीत गाकर समय की कमीं का आभास करा देती हैं।
कै बनरे झपट करौ तइयारी, तुमखों सजन बुलायें रे।
बना की आजी चतुर सुजान, बना खों ऐसें सजा लये रे।
जैसें सज लये लछमन राम, भरत खों आगें कर लये रे।
बना की बाई चतुर सुजान बनाखों ऐसे सजा लये रे।
जैसे सज लये लक्ष्मन राम, भरत खों आगें कर लये रे।
गीत काकी, मामी, भाभी, मौंसी आदि को जोड़कर बढ़ता जाता है। इसी समय दूल्हा निकासी या निकासू का समय हो जाता है। दरवाजे पर सभी महिलाएँ एकत्रित हो जाती हैं। दरवाजे की देहली पर चौक पूरकर माटी के दो कच्चे बड़े दिये (मलिंयां) जिनके अंदर हल्दी चावल भरे रहते हैं, कच्चे धागे में लिपटा कर रखे जाते हैं। दूल्हा सज सँवर कर इसी चौक में खड़ा हो जाता है। चार औरतें दूल्हा के ऊपर चादर तानकर छाया करती हैं। दूल्हा के सामने माँ और पीठ पीछे खवासन या सवासन (क्रमशः सवर्णों एवं हरिजनों में) खड़ी हो जाती हैं इसी समय बुंदेलखंड का अनिवार्य नैग मूसर या ‘‘मूसल फेरना’’ होता है। इस नैग में चादर के ऊपर से सात बार मूसल घुमाकर दूल्हे की नजर उतारी जाती है। इसके साथ-साथ ऊपर से सात बार सात रोटियां फेंकी जाती हैं तथा राई नौंन से दूल्हे की नजर उतारी जाती है। मूसल नैंग में दूल्हे को शक्ति संपन्न करने का भाव निहित रहता है क्योंकि मूसल लट्ठ का प्रतीक है जो शक्ति का द्योतक है। औरतें ये गीत गाती हैं।
बना तुम पाल तरें न जइयो, नजरिया लाग जेहे रे।
बना के आजुल झारै फूकें, आजी नजर उतारे रे। बना तुम ……।
बना के बाबुल झारैं फूकें, बाई नजर उतारें रे। बना तुम ……।
बना के मामा झारैं फूकें माईं नजर उतारै रे। बना तुम ………।
गीत काका, फूफा एवं अन्य रिश्तेदारों का नाम लेकर बढ़ता जाता है कि इसी समय माँ अपने स्तन से दूल्हे को दूध पिलाती है। इस दस्तूर का भाव यह है कि माँ अपने लड़के से कहती है कि तू विवाह में बहू को विजय कर जीतने के लिए जा रहा है उसमें परास्त होकर मेरे दूध को मत लजाना अर्थात् बिना बहू व्याहे मत लौटना। गीत प्राचीनतम पर्तें खोलकर रख देता है। लोकाचार में बुंदेली संस्कृति के पृष्ठ खुलने लगते हैं। पहले शादी में युद्ध अनिवार्य था। प्रत्येक शादी शक्ति और तलवार के बल पर होती थी ‘‘जेहिं घर बिटिया सुंदर देखी, तिह घर आंद धरे हतियार’’ ये आल्हा की पंक्ति इसी सत्य को प्रकट करती है। दूल्हे के साथ सभी स्वजन रण का कंकन पहिनकर युद्ध स्थली पर जाते हैं जो युद्ध में विजयी होता था वही स्त्री वरण करने का अधिकारी बनता था। रण कंकन का अवशेष अब मात्र कंकन रह गया है तथा स्वजनों का युद्धस्थली पर जाने का रूप मात्र बरात रह गई है जो अब मात्र दर्शक बनकर जाती है। ‘‘प्राचीन काल में लड़ाकू जन युद्ध में स्त्रियों की भी लूट करते थे और उन्हें अपनी पत्नि बना लेते थे। शनैः शनैः यह अभ्यास प्रवृत्ति में परिणत हो गया तथा सभ्यता के उदय के पश्चात् भी बाहर विवाह करने की यह प्रथा चलती रही। यद्यपि युद्ध का स्थान विचार विनिमय और समझोते ने तथा जनसेना का स्थान बरात नें ले लिया।
बुंदेलखंड में बीर माँ इसीलिए अपने बेटे को दूध पान कराती है। बुंदेली दूल्हा चौक में रखी हुई कच्ची मलियों को पैर से चकनाचूर कर, वेग से मुड़कर बन्नी के घर चला जाता है और लौटकर घर की ओर नहीं देखता है। इस दस्तूर में दूल्हा अपनी माँ को विश्वास दिलाता है कि वह बहू को प्राप्त कर ही घर लौटेगा। बरात दूल्हे का अनुगमन कर चली जाती है। मिट्टी की मलियों को तथा कच्चे सूत को चकनाचूर करने में यह भाव निहित है कि हे माँ युद्ध स्थली में विपक्षी को कच्ची मिट्टी की मलियों की तरह चकनाचूर कर उसकी सूतकी तरह संगठन शक्ति को, टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। (मिट्टी की मलियाँ विपक्षी तथा सूत संगठन शक्ति के प्रतीक हैं) इसी समय दूल्हे को युद्ध में जाने के लिए औरतें मनोवैज्ञानिक ढंग से गीत द्वारा प्रेरित करने लगती हैं। यह युद्ध विवाह स्थली ही होती है। गीत इस प्रकार चलता है ‘‘बना की बन्नी हेरें बाट, बना मोरो कब घर आबै रे। कब घर आबै रे …. कब घर आबै रे। कब घर आबै रे की कई बार आवृत्ति करके दूल्हे के हृदय में बनरी के प्रति आकर्षण जगाया जाता है क्योंकि संसार का हर शक्ति संपन्न पुरूष आकर्षण की धुरी नारी की ओर अग्रसर होता है फिर प्रणय आकांक्षा करने वाली नार की ओर तो अपने आप खिंचता चला जाता है। कर्तव्य की डगर पर दूल्हा बरात लेकर चल देता है औरतें उसकी साज सज्जा की प्रशंसा कर ये गीत गाती जाती हैं।
बना की बनरी हेरें जाट, बना मोरे कब घर आबै रे।
बना के माथैं मौरा सोवै, कलगन लाल लगायें जू।
बना के माथें चंदन खौरें, टिपकन लाल लगायें जू।
बना के कानन कुंडल सोहें, गूंजन लाल लगायें जू।
बना के नैनन सुरमा सोहे, भोंहन लाल लगायें जू।
बना के ओंठन लाली सोहे, कीलन लाल लगायें जू।
बना के कौंचन कंकन सोहे, चूरन लाल लगायें जू।
बना के गर्दन सेला सोहे, गोपन लाल लगायें जू।
बना के छतियन बागे सोहें, पनरस लाल लगायें जू।
बना के पावन माहुर सोहें, जूतन लाल लगायें जू।
मनोवैज्ञानिक सत्य है कि किसी व्यक्ति की प्रशंसा उसे कर्मरत करने में अपूर्व योगदान देती है। प्रशस्ति सुन दूल्हा विवाह करने चला जाता है। दूर जाते हुए दूल्हे को देखकर औरतें मनोविनोद करती गाने लगती हैं।
तुम तो तारौ लगइयो औ कुची लइयो रे बना।
तुमाई आजी को भरोसो हमें नइयां रे बना। तुमाई बाई को भरोसो ….।
तुमाई काकी को भरोसो हमें नइयां रे बना। तुमाई भौजी को भरोसो ….।
बाबा का खेल- जुगिया
वर पक्ष में बरात चले जाने के दूसरे दिन औरतें गौरी पूजन (गौरइयां उपासी) करती हैं। इसी दिन गौरइयाँ उपासी रहने का दस्तूर होता है। इस दस्तूर में ननद दूल्हा और भाभी दुल्हन बनती है। दोनों बना एवं बनरी का स्वाँग भर मंडप के नीचे गौर (पारवती) पूजन करती हैं। इसी समय गौरइयों की ज्योनार होती है। बुंदेलखंड में इसी रात औरतें बाबा का खेल या जुगिया खेलती हैं। कोई भी चंचल रूपसि युवती पुरूष वेश धारण कर जुगिया बनती है यह जुगिया रात भर मुहल्ले के सभी पुरूषों को बेलन या मूसल मार-मार कर जगाता रहता है। औरतों का झुण्ड जुगिया के पीछे-पीछे नाचता गाता जाता है। जुगिया खेल का उद्देश्य होता है कि मुहल्ले के सभी पुरूष विवाह घर की जाग कर रक्षा करते रहें क्योंकि विवाह घर में औरतों के अतिरिक्त कोई नहीं होता है। इस समय औरतें प्रेम रस में पगे अश्लील गीत गाती हैं। यही लोक की विशेषता होती है कि अश्लील शब्द भी बड़ी चतुरता और सरलता से कह जाते हैं।
बाबा कासी को बासी, बाबा कासी को लाल।
बाबा के बाग में फरे अतूत, खान गईं बिटियां मार लई……।
बाबा कासी को बासी बाबा कासी को लाल।
बाबा के बाग में भई उछद कूंद, पकर लईं बिटियां मसक लये….।
बाबा कासी को बासी, बाबा कासी कौ लाल।
बाबा के बाग में भई औंद सूद, सट गओ काम निपक गई फूंद।
बाबा कासी को बासी, बाबा कासी को लाल।
कन्या पक्षीय दस्तूर गीत
बारात प्रतीक्षा गीत- बारात के आने के पूर्व बेटी के बाबुल के हृदय की उथल-पुथल का सजीव चित्रण बुंदेली लोक गीतों में मिलता है। बेटी के घर का प्रत्येक व्यक्ति आकुल व्याकुल होकर बरात की प्रतीक्षा करता है। इस समय ये गीत गाया जाता है-
ऊँचो सौ चौंरा रैया, मांझ मझौटें ईंगुर ढोरे हैं बान।
जे चड़ देखें लड़ गहरी के बाबुल, मोरें केतक आवे बरात।
इक लख हतिया, सवा लख घोड़े, पैदल कौ आर नें पार।
इतनों जौ देखो राजा बाबुल डराने, अब मोरी पिया रही क्वांरि।
काहे खों बाबुल थर थर कांपौ, काहें खों जहर विस खाव।
अपने ससुर सें बिनती करहों, आवे सें देहों भगाय।
ऊबनी को गीत
बुंदेलखंड में लड़की के टीका के दिन शाम तक ग्राम में बारात पहुँच जाती है। बारात को विश्राम स्थल (जनवासे में या डे़रा में) ठहरा दिया जाता है। कुछ समय उपरांत टीका के लिए चलती है। लड़की के घर का जेठा व्यक्ति (जिठेरो या मैमरा) कुछ दूर आगे चलकर बारात का स्वागत करता है इसे अगवानी कहते हैं। समधी समधी अपनी छाती में पान चिपकाकर कंधे से कन्धा मिलाकर सजन भेंट करते हैं। जेठा व्यक्ति समधी, दूल्हा और बारातियों को गुड़ एवं काली मिर्च मिश्रित (मिर्चवानों) शर्बत पिलाता है तथा प्रत्येक बराती को बड़े आकार की एक एक पूड़ी खाने को देता है। इसे बुंदेली में पौंछक देना कहते हैं। पौंछक का अर्थ है कि प्रत्येक भूखा व्यक्ति अपनी भूख का तीन बटे चार अंश इस पूड़ी को खाकर शांत कर लेता है। इस दस्तूर के उपरांत ही बारात नगर परिक्रमा करती हुई लड़की के दरवाजे पर आ जाती है। इस समय सभी औरत, पुरूष, बालक उत्सुक होकर दूल्हा को देखना चाहते हैं। यह चाह सभी के हृदय में अशांति मचाये रहती है। एक गीत में इसी भाव को व्यक्त किया गया हैं औ बऊ कबै बजै रमतूला, काये हमें देखनें दूला’’। जौ बऊ कबै बजै रमतूला, अरी कनवा है कै लूला’’। बारात आगमन की सूचना हेतु लड़की वाले की ओर से बारूद का गोला दागा जाता है जिससे बारात आगमन की हर्ष लहर स्त्रियों को गीत गाने को मजबूर कर देती है। देखिये-
जब रगपत दूला देसों हो आये, देस रवानें होंय भलैंजू।
जब रगपत दूला ग्योंड़े हो आये, दूब रही हरयाय भलैंजू ।
जब रगपत दूला तालौं हो आये, ताल हिलौरें लैंय भलैंजू ।
जब रगपत दूला बागों हो आये, फूल रही फुलवार भलैंजू ।
वेला हो फूली चमेली हो फूली, क्योरे की बास सुहाई भलैंजू।
जब रगपत दूला कुअलों हो आये, मोह रहीं पनिहार भलैंजू।
जब रगपत दूला मड़वों हो आये, सखियों ने मंगल गाये भलैंजू ।
बुंदेलखंड में दूल्हा तीन दिन का बादशाह होता है इसीलिए उसे शादी में रघुपति मानकर विशेष सम्मान दिया जाता है। उसके ग्राम में आते ही दूब हरी हो जाती है, सूखे कुयें जल पूरित हो जाते हैं, तालाबों का जल हिलोरैं लेकर पाँव पखारने को आकुलता प्रकट करता है। बागों से सुबास फैलकर दूल्हा को प्रसन्न करती हैं इसी समय दूल्हा मण्डप के नीचे आता है नारियों के हृदय में उथल-पुथल मच जाती है और वे दूल्हे की महिमा का मुक्त कण्ठ से बखान करने लगती हैं देखिये-
सो आज मोरे अँगना में रंग बरसत है, रंग बरसत है, अबीर उड़त है।
माथै मौर सोहे राजा बनरे, सो कलगन बीच मोरो जिया ललचत है।
माथे खौर सोहे राजा बनरे, सो टिपकन बीच मोरो जिया ललचत है।
नैनन सुरमा आजें राजा बनरे, सो भोंहन विच मोरो जिया ललचत है।
कानन कुंडल सोहें राजा बनरे, सो गुंजन बीच मोरो जिया ललचत है।
पानन बिरियां चावें राजा बनरे, सो पीकन बीच मोरो जिया ललचत है।
छतियन बागो सोहे राजा बनरे, सो पनरस बीच मोरो जिया ललचत है।
सो कौंचन चूरा पैरें राजा बनरे, सौ कंकन विच मोरो जिया ललचत है।
कंठन कंठी पैरें राजा बनरे, सो गोपन बीच मोरो जिया ललचत है।
पाँवन तोड़ा पैरें राजा बनरे, सो माहुर विच मोरो जिया ललचत है।
प्रस्तुत गीत में कहा है कि दूल्हा राजा के आगमन से आँगन में हर्ष और उल्लास की अबीर उड़कर रस वृष्टि होने लगती है। हृदय की मधुरिम आकांक्षायें गुलाब की कलियों सी चटक जाती हैं। नारियाँ चिर संचित आकर्षण वृत्ति से दूल्हे के वेश विन्यास की ओर आकर्षित होने लगती हैं क्योंकि गाँव का दूल्हा व्यक्ति विशेष का आदरणीय न होकर गाँव भर का सम्मानीय होता है। इस गीत में बुंदेलखंडी दूल्हा का संपूर्ण पहिनाबा चित्रित हुआ है। आज के दूल्हे के परिवेश बदल गये हैं किंतु ये गीत बुंदेली संस्कृति की अचल धरोहर-बुंदेली वेश भूषा- आज भी अपने में संजोये है। दूल्हा द्वार पर आकर खड़ा हो जाता है इस समय सवर्णों में वाद्य यंत्रों पर नृत्य होता हे। छोटी जातियों में रावला नाच नाचा जाता है। इसी समय स्त्रियाँ ये गीत गाती हैं।
कांनों के भले मालिया, जिन बाग लगाये।
कानां की बेटी कोकिला-फूल बीनन आईं।
कांना के भले कोटिया, जिन कोट उठाये।
कांना के बड़े तापसी, चढ़ व्याहन आये।
झाँसी के बड़े कोटिया, जिन कोट उठाये।
मऊ के बड़े तापसी चढ़ व्याहन आये।
कोट नवै परवत नवै, सिर नवत नवाये।
बाबुल जू को माथौ जब नवै, जब साजन जाये।
मामाजू को माथौ जव नवै, जब समधी आये।
मौसाजू को माथौ जब नवै, जब समधी जू आये।
टीका की रस्म पूरी होने के पश्चात दूल्हा ‘‘मड़वा मारने’’ का दस्तूर करता है। इस दस्तूर में दूल्हा मंडप के पास जाकर उस पर बाँस का पंखा रखता है। लड़की कपड़े की ओट से दूल्हा को पीले चावल मारती है। इस दस्तूर के बाद द्वारचार के दस्तूर समाप्त हो जाते हैं और बारात विश्राम स्थल पर लौटने लगती है कि स्त्रियाँ बारात बालों से हास्य परिहास शुरू कर देती हैं।
मन के एकउ नें आये, मन के एकऊ नें आये।
बड़ी बड़ी मूँछन के आये, बड़ी बड़ी नाकन के आये। मन के ………।
बड़े बड़े पेटन के आये, बड़ी बड़ी थौंदन के आये। मन के ………।
लम्बी घिचियन के आये, बड़े बड़े दाँतन के आये। मन के ……….।
ऊबनी तथा बारात देखने की चाह गृहस्थ स्त्री पुरूष तक ही सीमित नहीं है, गृह त्यागी मुनीश्वरों का भी मन भौंरा लुभा जाता है।
एक समय मुनिजी जा कहें, मोरे रंजन भौंरा।
चलिये जनकपुर गाँव, मंडप सियाराम के, मन रंजन भौंरा।
काहे के मंडप बने मोरे रंजन भौंरा, काहे के दोई खम्भ जनक मंडप तरें। मोरे…..।
हरे बांस मंडप बने मोरे रंजन भोंरा, मलयागिरि के खम्भ मोरे रंजन भौंरा।
सोहत सीताराम जनक मंडप तरैं मोरे रंजन भौंरा ।
कारी घटा घनस्याम, सिया है, दामिनी मौरे रंजन भौंरा ।
देख राम के रूप चकित भये, भूप मगन भईं भामिनी मोरे रंजन भौंरा ।
बुंदेलखंड में यह गीत सवर्णों में गाया जाता है। हरिजनों में इस समय अश्लील गीतों की भरमार रहती है जिनमें समधी समधिन को गालियाँ दी जाती हैं। देखिये-
राते राते आव छिनर को, काये को उजयारो रे।
दूला की बाई को लम्बो ….. ओई को उजयारो रे।
राते राते आव छिनर को, काये पे दिया धराव रे।
दूला की बैन को लम्बो ….. ओई पे दिया धराव रे।
इस तरह से गीत काकी, माई, मौंसी आदि के नामों के साथ गुप्तांग का नाम जोड़ता हुआ आगे बढ़ता है।
चढ़ाव गीत
बुंदेलखंड में विवाह दस्तूर में चढ़ाव का दस्तूर बहुत महत्व रखता है। यह नेग स्त्रियों के लिए विशेष आकर्षक होता है। उनके हृदय में इस बात की उथल पुथल मची रहती है कि लड़की के लिए कौन कौन से जेवर आयें हैं कौन से नहीं आये हैं। बुंदेलखंड में जैसे प्रत्येक दूल्हा रघुपति है उसी प्रकार प्रत्येक दुल्हन सीता होती है। इसीलिए नारी हृदय की गहनों के प्रति आसक्ति गीत के बोलों में मुखरित हो उठती है। बुंदेलखंड में चड़ाव का दस्तूर टीका के दूसरे दिन होता है। मंडप के नीचे गुलाल से चौक पूर कर उसमें गणेशजी की मूर्ति स्थापित की जाती है। गणेशजी की पूजा दूब, हल्दी, चावल आदि से की जाती है। इसी समय बराती गहनों का संदूक लेकर मंडप के नीचे बैठ जाते हैं। सवर्णों में ब्राह्मण एवं छोटी जातियों में सबासा बनरी को मैर के घर से मंडप में आने के लिए पानी का अर्ध्य देता है। बिटिया सवासन या खबासन के साथ छूटे बाल डाले, मुँह खोले मंडप के नीचे आती है। इसी समय लड़की को बाकी तेल चढ़ाये जाते हैं। इसके उपरांत वस्त्र और आभूषण गणेश जी एवं खम्भ को छुआ कर लड़की के हाथों पर रख दिये जाते हैं। लड़की समग्र सामग्री लेकर मैर के घर में चली जाती है। कुछ समय बाद लड़की ससुराल वाले वस्त्र और आभूषण पहिनकर मंडप के नीचे सिर झुकाये आती है उस समय औरतें ये गीत गाती हैं।
कायखों बेटी सिर खों झुकायें, कायखों जोंरे दोउ हांत मोरे लाल।
ससुरा के लाने बेटी सिर खों झुकायें, सूरजखां जौरें दोउ हांत मोरे लाल।
जेठाखों बेटी सिर खों झुकाएं, गनेसजू खों जोरें दोउ हांत मोरे लाल।
बुंदेलखंड में चढ़ाव चढ़ते बक्त औरतें ये गीत गाती हैं-
राजा दसरत मंडप विच आये, सियाजू के चढ़त चढ़ाये मोरे लाल।
दोऊ कुल गुरू जुर मिल बैठे, मौतिन चौक पुराये मोरे लाल।
भीतर सें सिय जू खों बुलवाये, प्रथम गनेस पुजाये मोरे लाल।
चुलिया छोर बरी मंडप में, भूसन जरित उठाये मोरे लाल।
माथे बीच तिलक सिर सोहे, सीसफूल सजवाये मोरे लाल।
बैंदा मोर बंदनी नीकी, दामिन दुत दरसाये मोरे लाल।
कानन करनफूल सरवन विच, विच विच लाल लगाये मोरे लाल।
मोतिन हार हमेल हिये पर, चन्दहार छवि छाये मोरे लाल।
लसत लल्लरी दुलरी तिलरी, चौलरिया पहराये मोरे लाल।
पचलरिया, सतलरी विचौली, ताबिच नग जड़वाये मोरे लाल।
रतन जड़ित पहुंची अक चूड़ी, चूड़ामन मन भाये मोरे लाल।
कर किंकिनी और करदौनी, बोरा रूच सरकाये मोरे लाल।
अनवट जड़त छाप अंगूठन, छाप छला पहराये मोरे लाल।
जरतारी सिर सोहे, मोहन लाल रकाये मोरे लाल।
श्रीफल सहित कोद में मन भर, भीतर भवन पठाये मोरे लाल।
बांह बरा बाजूबंद गूजें, कर ककना पहराये मोरे लाल।
छाप छला मुंदरी अंगुरिन में, रोंना रूचिर सुहाये मोरे लाल।
पग पायल पैजनिया जेवर, घुंघरू कड़ा चढ़ाये मोरे लाल।
घांघर घेरदार अनमोलो, तीन खाप को लाये मोरे लाल।
औरउ बहु प्रकार के भूषन, प्रतिअँगन सजवाये मोरे लाल।
यह छवि निरख हरस द्विज दुरगा, चरनन सीस नवाये मोरे लाल।
प्रस्तुत चढ़ाये के गीत में बुंदेलखंडी चढ़ाये के दस्तूर की क्रिया-प्रतिक्रिया का सजीव चित्रण हुआ है। साथ ही अमीर कुलों की दुल्हनों को जितने प्रकार के गहने चढ़ाये जाते हैं उनका भी वर्णन हुआ है किंतु बुंदेली के दूसरे गीत में निर्धन परिवारों की बिटियों को कोई भी बुंदेली गहना अर्थाभाव के कारण, चढ़ाये में नहीं चढ़ता है। इन्हीं भावों का गीत स्त्रियाँ गाने लगती हैं। देखिये-
मोरी सीता को चढ़त चढ़ाव, सौ ससुरा बेंदी काय नईं ल्याय।
मोरी सीता को चड़त चड़ाव, सो जेठा छटा काय नईं ल्याय।
मोरी सीता को चड़त चड़ाव, सो ससुरा चूरा काय नईं ल्याय।
मोरी सीता को चड़त चड़ाव, सो ससुरा खंगोइया काय नईं ल्याय।
गीत में, गोप, हरा, बाजूबंद, ककना, दौरी, हमेल, टिकुली, पटैलना, पैजना, चुल्ला, बरा आदि बुंदेली गहनों की माँग होती रहती है किंतु छटा और बैंदी पर विशेष बल दिया जाता है क्योंकि भारतीय संस्कृति में नारी के लिए मंगल सूत्र आवश्यक है वैसे ही बुंदेली नारी के लिए वस्त्रों में लहँगा (जोरो या गल्ता) तथा गहनों में बेंदी और छटा (काली माला) चढ़ाव में चढ़ना आवश्यक होती है। यही बुंदेली नारी का सुहाग चिन्ह है जिसे वह आजन्म, सुहाग अक्षुण्ण रहने तक धारण करती है। मंडप में श्रृंगार किये हुए बनरी की माँग छोटी बहिन सिंदूर से भर देती है। ससुराल वाले छोटी बहिन की ओली नारियल एवं बताशों से भर देते हैं। बनरी की गोद में भी नारियल और बताशा डाले जाते हैं। गोद भरी बनरी अंदर चली जाती है। बारात भी विश्राम स्थल पर लौट जाती है।
भाँवर तथा पाँव पखरई गीत
वैवाहिक कार्यक्रम का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण दस्तूर भाँवर तथा कन्यादान का होता है। मंडप के नीचे समस्त बारात आकर बैठ जाती है। पटली के ऊपर दाईं ओर दूल्हा और बाईं ओर दुल्हन बैठ जाती है। इसी समय सात बराती कुम्हार के घर से सात रंगे हुए मिट्टी के पात्र लाकर खम्भ के पास रख देते हैं। बुंदेली में इन मिट्टी के पात्रों को बेरी कहते हैं। मंडप के नीचे एक विशेष रंग से रंगा हुआ मिट्टी का पात्र भी रहता है जिसे रगवारा कहते हैं। मंडप के नीचे ब्राह्मण दूल्हा और दुल्हन की गाँठ जोड़कर चार भाँवर में लड़के को आगे और दुल्हन को पीछे करता है। तीन भाँवर में लड़की आगे तथा लड़का पीछे रहता है। इन भाँवरों के बीच में लड़की बाईं ओर से दाईं ओर और लड़का दाईं ओर से बाईं ओर बैठ जाता है जिसे बुंदेली में लौटपटा कहते हैं। इसी लौटपटा दस्तूर के बीच माता पिता मिलकर लड़की का कन्यादान करते हैं। कन्यादान में लड़की का हाथ लड़के के हाथ पर रखा जाता है। उन हाथों में गुथे हुये आटे की पिण्डी (हथलोई) रहती है। इस हथलोई में गरीब एक टका या सबा रूपया तथा अमीर स्वर्ण या चाँदी का गुप्त दान करते हैं। कन्यादान के समय गाय का दान भी किया जाता है। इसी क्षण से अपनी लड़की पराई हो जाती है। इसके उपरांत अग्नि को साक्षी करके खम्भ को घेरकर सात फेरे पड़ जाते हैं। इसे बुंदेली में ‘‘भावरें परवो’’ कहते हैं। बुंदेलखंड में छोटी जातियों में इसी समय लड़की का छोटा भाई धान बोता है जिसे बुंदेली में धान बुआई का नैग कहते हैं। इस नैग में भाई धान मंडप पर फेंकता रहता है। दूल्हा की ओर से लड़के को पोशाक दी जाती है। स्थान और जाति की भिन्नता के कारण इस नैग में अंतर पाया जाता है। इस दस्तूर के उपरांत परिवार के सदस्य, रिस्तेदार एवं व्यवहारी दूल्हा एवं दुल्हन के हल्दी से पाँव पखारकर कुछ न कुछ दान देते हैं। इस दस्तूर को बुंदेली में ‘‘पांवपखरई’’ कहते हैं। बुंदेलखंड में ब्राह्मण, वैश्य, कायस्थ, सुनार एवं क्षत्रियों की लड़कियाँ भांउर पड़ने के पूर्व, धोबी के घर सुहागिन औरत से माँग भरवाने (सुहाग लगवाने) जाती हैं। यह प्रथा पुत्री के अचल सुहाग के लिए शुभ मानी जाती है। ऐसा अंध विश्वास है कि धोबिन द्वारा लगाया सुहाग अचल होता है। लड़का वाले की ओर से धोबिन को वस्त्र और आभूषण दिये जाते हैं। यह सुहाग की प्रथा अवध प्रांत में भी प्रचलित है ‘‘अवध के कुछ क्षेत्रों में धोबिन कन्या को सुहाग देती है। लोक विश्वास के अनुसार धोबिन का सुहाग अचल माना जाता है।’’[1]
भाँवर का गीत प्यारी सीताजू की परती भांवरें जू।
पहली भाँवर बेटी जब परी, बेटी अजहूं हमारी जू।
दूजी भाँवर बेटी जब परी, बेटी अजहू हमारी जू।
तीजी भाँवर बेटी जब परी, बेटी अजहू हमारी जू।
चौथी भाँवर बेटी जब परी, बेटी अजहू हमारी जू।
पाँचईं भाँवर बेटी जब परी, बेटी अजहू हमारी जू।
छटईं भाँवर बेटी जब परी, बेटी अजहू हमारी जू।
सातईं भाँवर बेटी जब परी, बेटी भई पराई जू।
पाँव पखराई गीत-
माई बाबुल जुरमिल हरदी ल्याये जू।
बेटी के हाथे पीरी करकें, धरदये सजनजू के हाथजू।
पाँव पखराई गीत
पाँव पखरई के समय स्त्रियाँ पाँव पखारने वाले व्यक्ति का परिचय गीत गाकर देती हैं।
विच गंगा विच जमुना, तीरथ बड़े हैं प्राग।
जहाँ विच बैठे बाबुल मोरे, देव क्वांरिन दान।
तुम जिन जानो बाबुल मोरे, हमरौ दियो गिर जाय।
तुमनें दओ हमनें पाओ, गहरी गंगा अनहाव।
दियो भैंस जनेई साजन खों, खोवा खायं
दियो बैल मलनियां, सुन्नें सींग मड़ाय।
दिओ उजरउ सी गइया, छिनरू खों गारी खाय।
कन्यादान का गीत
इड़ियन छिड़ियन मोरी उतरीं लड़नदे, हारदये सरकाय।
घरियक हार सकेली सहजादी, आई है धरम की बैर।
गउअन दान बाबुल भाट भिकारी, चियरि दूला दमाद।
चन्द्रगिहन नित होंय राजा बाबुल, सूरज गिहन नहिं होंय।
कायखों बाबुल गंगाखों जैहो, कायखों तीरथ प्राग।
मड़वा भीतर बाबुल गंगा बहत हैं, उतईं हैं तीरथ प्राग।
बुंदेलखंड में बिटिया को पराया धन होने के कारण अधिक सम्मान दिया जाता है। परिवार का प्रत्येक बड़ा बूढ़ा उसके चरण छूकर उसे सम्मान देता है। इसीलिए कन्यादान प्रयाग राज के तीरथ से भी ज्यादा पवित्र माना जाता है। बुंदेली संस्कृति के अनुसार कन्यादान से मोक्ष मिलता है। यहाँ की धोवी, चमार, बसोर, मेहतर आदि जातियां लड़की का कन्यादान करते समय बना और बनरी के पैरों को धोकर पीते हैं जिसमें बिटिया के प्रति सम्मान की भावना चरम सीमा पर पहुँच जाती है।
धान बुआई गीत
धान बुआई के समय स्त्रियाँ ये गीत गाती हैं-
धान बओ बीरन धान बओ, यारो बहिन धनबन्ती होय।
दुध खींचो भौजी दुध सींजों, ननद धनबन्ती होय।
प्रस्तुत गीत में भइया भाभी धान बुआई दस्तूर द्वारा बहिन को शुभ आशीष देते हैं कि बहिन तुम जीवन भर धनधान्य से पूरित रहो। बुंदेलखंड में भाँवर पड़ने के बाद ‘‘रासवधाये का दस्तूर’’ होता है। इस दस्तूर में श्वसुर की गोद में दूल्हा और दुल्हन बैठते हैं। श्वसुर दुल्हन को एक आभूषण पहनाता है तथा खवासन या सवासन को नैग देता है। यह दस्तूर सभी जातियों में कुछ हेर फेर के साथ होता है। इसके बाद दूल्हा दुल्हन कुलदेवता की पूजा करने कुलदेवता के घर में (मैर का घर) जाते हैं। वहाँ पर दूल्हा कुलदेवता की पूजा कर दिया बाती मिलाता है। कुछ जातियों में यही पर कंकन छोड़ने का दस्तूर भी होता है। इस दस्तूर में दूध भात के सात कौर लड़की लड़का को और पाँच कौर लड़का लड़की को खिलाता है। इसके बाद दूल्हा को कुलदेवता के प्रसाद के रूप में खाद्य सामग्री (मांय) दी जाती हैं। छोटी जातियों में इस दस्तूर को मैर भरना कहते हैं। इसमें लड़का स्वयं मैर के ढेर से मैर भरता है। छोटी जातियों में शादी के दूसरे दिन औरतें दूल्हा का भोजन लेकर विश्राम स्थल (डेरा में) पर जाती हैं। इसे लाकौर ले जाना कहते हैं। इस समय औरतें अश्लील गीत गाकर नाचती हैं और पुरूष उनके घूंघट खोलकर गालों पर गुलाल मलकर न्यौछावर करते हैं जो मृदंग वादक को मिलती है। इसके बाद शादी में कुँवर कलेउ का दस्तूर होता हे। इस दस्तूर में पाँच सात दूल्हा के समवयस्क साथी भोजन करते हैं। इसमें दूल्हा को नैग मिलता है। कुछ जातियों में इसके उपरांत ही पलकाचार का दस्तूर होता है। इसमें लड़का लड़की एकसाथ एक पलंग पर बैठते हैं। स्त्रियाँ उनके पैर पूजकर उन्हें नैग देती हैं। इसके उपरांत दूल्हा मंडप का बंधन खोलकर, चक्की का मुँह खोलकर और खप्प्र लौटाकर तीनों नैगों के नैग पाता है। इसी समय दूसरी ओर समधी, समधी को दायजा (दहेज) सौंपता है। दूल्हे की छोटी साली (दुल्हन की बहिन) दूल्हे के जूते छिपाती है और नैग लेकर लौटा देती है। बुंदेलखंड में कांसे का बैला सौंपने का दस्तूर भी होता है। इस वेले में चावल, हल्दी, दूध एवं धनराशि रखकर समधी को दिया जाता है। इसके उपरांत समधी तथा अन्य बरातियों पर समधिनें फाग (फगुआ) का दस्तूर करती हैं और अंत में बिटिया की विदा हो जाती है।
दूदा भाती के समय का गीत
दूदाभाती के समय दूल्हा दुल्हन को गुदगुदी उठाने के लिए औरतें बड़े ही रसिक गीत गाती हैं।
सो डार दो जेजम चौपर खेलें राजा बनरे, खेले राजा बनरे, खिलावै रानी बनरी।
पैलो हो पासो जब डारो राजा बनरे, सो जीत लिये हैं सजनजू के हतिया।
दूजो हो पांसो जब डारो राजा बनरे, सो जीत लये हैं सजनजू के उटला।
तीजो हो पांसो जब डारो राजा बनरे, सो जीत लये हैं सजनजू के घुरवा।
चौथो हो पांसो जब डारो राजा बनरे, सो जीत लये हैं सजनजू की बखरीं।
पांचो हो पांसो जब डारो राजा बनरे, सो जीत लई हैं सजनजू की बेटी।
गीत का भाव यह है कि बना एवं बनरी चौपर का खेल खेलते हैं जिसमें बनरा हाथी, घोड़ा, उटला जीतकर अन्त में बनरी को जीत लेता है।
इस समय दूल्हा दुल्हन की सजधज उन्हें राम सीता का रूप प्रदान करती है।उनकी यह रूपमाधुरी, साजसज्जा धोबियों के गीत में इस प्रकार मुखरित हुई है।
जाको दूला राजा राम यि हो बनरी।
को जो पैरें हरे पीरे बागे, को जो पेरें है चटक चुनरी।
रामजू खों सोहें हरे पीरे बागे, सो सियाजू खों सोहे हरी चुनरी।
किनके माथे मोरामुकुट हैं, कीकी मौतिन माँग भरी।
रामजू के माथैं मुकुट विराजे, सियाजू की मौतिन माँग भरी है।
सिया बनरी हो सिया बनरी, बाको दूला राजा राम, सिया बनरी।
प्रस्तुत गीत विशेष रूप से दूदाभाती के समय धोवियों में गाया जाता है।
कंकन छोड़ने का गीत
दूल्हा जब दुल्हन की विदा कराकर घर लौट आता है उस समय देवी देवता पूजन के उपरांत कंकन छोड़ने का दस्तूर होता है। कंकन की गांठे इतनी मजबूत होती हैं कि दूल्हा दुल्हन को गांठें खोलने में घंटों लग जाते हैं। स्त्रियाँ स्मृति के माध्यम से रसानुभूति कर ये गीत गाती हैं।
जौ नें होय धनुस को टोरवो, कठिन कंकन छौरवो।
तुमनें जनकपुरी पग धारे, सिव के धनुस तोर कें डारे।
जो नें होय मारीच को मारवो, कठिन कंकन छोरवो।
जनकपुरी की नारी, आखिर सारीं लगैं तुमारीं।
जिनखों बिन हतियारन मारवो, कठिन कंकन छोरवो।
वे तो जनकपुरी की नारीं, हाँसी करें तुमारीं।
अबतो सीको सियाखों कर जोरवो, कठिन कंकन छोरवो।
प्रस्तुत गीत में दूल्हा और दुल्हन को राम सीता मानकर गीत गाया जाता है। राम के लिए धनुष तोड़ना, मारीच को मारना सरल है किंतु कंकन की गांठें खोलना कठिन है क्योंकि कंकन की गांठे सख्त लगीं होती हैं।
पंगत की गारियां
बुंदेलखंड में बारात जैसे ही मंडप के नीचे ज्योंनार के लिए आती हैं कि औरतें मोर्चाबंदी कर गारियां गाने के लिए बैठ जाती हैं। जैसे ही बारात भोजन के लिए बैठती है कि औरतें हास्य परिहास युक्त गीत शुरू कर देती हैं। गीत की प्रत्येक पंक्ति में मामा, फूफा, जीजा, समधिन, दूल्हे की बहिन आदि का नाम जुड़ता जाता है। परोसने बालों को परोसने की जितनी फिकर होती है, औरतें को कहीं उनसे ज्यादा गारियां गाने की चिन्ता होती है उन्हें डर रहता है कि कहीं कोई समधी या अन्य मान्यनीय व्यक्ति बिना गाली सुने, पूरा खाना न खा जाये। खाना खाने का सच्चा आनंद इन गारीं गीतों से ही शुरू होता है। पंगत प्रारंभ होने के पूर्व ही औरतें बरातियों का मखौल उड़ाने लगती हैं।
कुत्ता पाल लेव, मोरे नये समधी कुत्ता पाल लेव।
कुत्ता की खुरी जैसें, मैंदा की खुरी। दो और लेव। कुत्ता पाल लेव…।
कुत्ता की पींठ जैसें, आगरे की छींट, झोला पैर लेव। कुत्ता पाल लेव…।
कुत्ता के कान जैसें बंगला हैं पान, बीरा चाब लेव। कुत्ता पाल लेव….।
कुत्ता की पूँछ जैसें समधी की मूँछ, हत्ता फैर लेव। कुत्ता पाल लेव….।
गीत चलता जाता है कि बराती रस विभोर हो हँसते जाते हैं। नारियाँ अन्य गीत शुरू कर देती हैं।
गढ़ परवत में उतरी गंगा, टोरत कोट विनासत लंगा।
लंका जीत राम घर आये, घर घर होत आनंद बधाये।
घर घर घुड़ला पलालन लागे, घर घर कुँवर सिंगारन लागे।
चली है बरात जनकपुर आई, देखन उन्हीं नगर की लुगाई।
कछु मछरियां कूटन लागी, वेल फड़ाफड़ फूटन लागे।
भई आगौनी सबई सुख पाओ, तब टीका की भई तैयारी।
सोने के सूत जनेऊ दीन्हे, उज्जवल अछत माथैं दीन्हे।
एरावत से हांथी दीन्हे, साहकरन से घुड़ला दीन्हे।
अच्हड़ दीन्हे, पच्हड़ दीन्हे, कुंभकलस उजयारे दीन्हे।
पलट बरात जनवासें आई, तब भोजन की भई तैयारी।
दओ है बुलउआ चलौ रघुराई, अपनी सभा सब लेव बुलाई।
भूले होंय खबर कर लीजो, रूठे होंय मना सब लीजो।
चरन पखार चरनोदक लीन्हें, उज्जवल आसन सबको दीन्हे।
अम्मा की पातर बर को दोना, सोने के सींक लगाव रूच दोना।
भात जो परसो वेला कैसी कलियां, दार जो परसी मूंग मसुरियां।
इंजन विंजन सरस निगोना, वेसन के दस बीसक दौना।
बरा जो परसे खैरे खैरे, अदरक लौंग मिरच दधिवारे।
पापर परसे चुररे मुररे, सुगर सुवासिन रूच बेलन वेले।
माड़े जो परसे झामक झोला, भरगई पातर उलग गये दोना।
खांड़ जो परसी मुठी बगराई, ऊपर घी की धार लगाई।
घिया जो परसो तुरत को ताजो, सबरी सभा में जाय मंहकांनों
अम्मा की फांक मिरच को चरौ, परसत सुगर कछू नई भूलो।
निबुआ पोल धरो ढिंग आदो, भोजन करो मनोहर माधो।
धीरें धीरें परसो सजन अमुक राये, धोती नें मैली होय तुमारी।
मैली सी धोती फेर धुआओं, गरये से साजन फिर कां पांओ।
जैउत जैउत बड़ी रूच आई, बार बार हरि करत बड़ाई।
इस गारी में बुंदेली विवाह की पद्धति का वर्णन मिलता है साथ ही बुंदेली व्यंजनों की सूची मिल जाती है। ‘‘भोजन के समय इन गारियों से श्रोताओं के मन में जिस अपूर्व आनंद की सृष्टि होती है वह वर्णातीत है’’।
बुंदेली बारातों की साज सज्जा आडंबरयुक्त होती है। स्त्रियाँ गारी गीतों में उन्हीं की खिल्लीं उड़ाती हैं। देखिये-
हां हां रे हूं हूं रे, भरी सभा में बैइे समधी बड़े बड़े फल्ले मारें रे।
समधिन छिनरो लरका पालें, समधी मनसद झारें रे। हां हां रे हूं हूं रे।
समधिन कें भईं नों ठो बिटियां, समधी सोच विचारें रे। हां हां वे हू हूं वे।
काय भाई कीके जे होती, कांसे ल्याये घुरवा रे। हां हां वे हूं हूं वे।
मंगनी करकें ल्याये हाती, भारे के जे घुरवा रे। हां हां वे हूं हूं वे।
गुंज गोप मांगे की पैरें, लर मारे की डारें रे। हां हां वे हूं हूं वे।
इन गारी गीतों के अतिरिक्त बुंदेलखंड में जमुना की गारी, राधा कृष्ण की गारी और हरदौल की गारीं भी गाईं जाती हैं।
गंगा यमुना की गारी
गंगा जमुना की गारी में पुराणों की कथा सहज रूप में वर्णित की गई है। इस गारी को औरतें पूर्ण तल्लीन होकर गाती हैं। इस गीत की विशेषता है कि जिस प्रकार गंगा यमुना नदियों में एक दूसरे के प्रति त्याग, स्नेह और मेल की भावना व्याप्त है उसी प्रकार बुंदेली परिवार में शादी होने वाली दुल्हन में अपनी बहिनों के प्रति त्याग पाया जाता है। जैसे नदियों का जल संगम पर उमड़ता है उसी प्रकार विदा के समय दो सगी बहिनों में स्नेह उमड़ता है। गीत इस प्रकार है-
भागीरथ नें करी तपस्या, गंगा आन बुलाई मोरे लाल।
भागीरथ के पुरखा तर गये, तर गओ सब संसार मोरे लाल।
सरग लोक से गंगा निकरीं, संकर जटा समानी मोरे लाल।
संकर जटों सें निकरी गंगा, जमुन मिलन खों धाई मोरे लाल।
मिलती बिरियां गंगा झिझकीं, हम लुहरी तुम जेठी लाल।
जो हम तुमसें मिलहैं बहिन, मोरो नाव मिट जेहे मोरे लाल।
काय खों बैन पलट घर जातीं, हम तुम दोउ मिल रैवू लाल।
हम कारी तुम गोरी जो कहिये, तुम सेई चलहै नाव मोरे लाल।
इतनी सुनकें गंगा उमड़ी, दोई मिल संगे हो गई मोरे लाल।
गंग जमुन दोइ बहिनें मिलकें, जगतारन होगईं मोरे लाल।
जो कोउ संगम आन नहाहे, तर बैकुठें जेहे मोरे लाल।
हीराबाई नें गारी गाई, सब संतन मन भाई मोरे लाल।
राधा कृष्ण की गारी
नारी शादी उत्सव के समय चुप रहकर व्यर्थ में समय बर्वाद नहीं करना चाहतीं अतः दूसरी गारी शुरू कर देती हैं।
हरे लीलिया बारी, श्री राधा प्यारी।
बृंदा विपिन सुहावन अतही, सरद रैन उजयारी।
जमुना तीर पुलिन की सोभा, फूल रही फुलवारी।
चलत पवन मन मौज उड़ावत, मंद सुगंधित प्यारी।
निरतत लाल सहित बृज वाला, चपल तुरंग गति न्यारी।
बजत अनेक भांत मृदु वाजे, बीन बजत सुखकारी।
दूरन सुर कोउ सखी अलापत, कहत लाल गिरधारी।
नाचत सीस फूल झर परते, बदन विंबु श्रम न्यारी।
कबहुँक स्याम विलग हो नाचत, ताल देत बृज नारी।
फूलमती कह सुर बरसावत, सुमन देव सहनारी।
हरदौल की गारी
बुंदेलखंड में कहीं भी शादी विवाह हो नारी जाति हरदौल को विस्मृत नहीं कर पाती। बुंदेलखंड की प्रत्येक नारी उन्हें लाला मानकर आत्मीयता प्रदान करती हैं। देखिये-
नजरियों के सामने तुम हरदम लाला रहयो।
तुमनें करी भाभी में प्रीति, जैसी सब दुनिया की रीति।
तुमनें नहीं करी अनरीति, जेसी नांय निभाकें ल्याये, तैसी सदा निभइओ।
प्रीत देख राजै रिस बाढ़ी, रानी मानों बात हमारी।
ऐसी चतुर रचौ ज्योंनारी, जे देवरा प्रानों के प्यारे, तिनखों विस दे दहयो।
रानी बोली होय दुखारी, तुमनें कैसी बात विचारी।
मानों राजा बात हमारी, कैसो मन में कपट विचारी, बांह टोर पछतहओ।
जब राजा नें एक न मानी, तब ज्योंनार रचाई रानी।
आज रची ज्योनार भाभी नें, लाला जेवन अइयो, लाला अपने प्रान बचैओ।
जै लई जा विस की थारी, मरगये भौजाई के लाला।
जैसी प्रीत करी भौजी सें, ऐसी सबै लगइयो। नजरिया के सामने …..।
बहन कुंजावति ठांड़ी रोवें, बीर बुंदेला मौं जो बोलो, अपनों काज निभाओ।
कलेउ गीत
बुंदेलखंड में कुँवर कलेऊ के समय ‘‘कलेउ गीत’’ गाया जाता है। इस समय दूल्हा के साथ सरहजें (दुल्हन की भाभियां) एवं सालियां (दुल्हन की बहिनें) दूल्हे की माँ बहिन पर हास्य परिहास युक्त कटाक्ष कर गीत गाती हैं। गीत इस प्रकार है।
लागत रहे नीके लाला, आय हते जा दिन सें।
हमनें सुनी अवध की नारीं, दूर रहें पुरसन सें। लाला दूर रहें पुरसन सें।
खीर खाय सुत पैदा करतीं, लाला बड़े जतन सें। लाला बड़े जतन से।
नार ताड़का तुम्हें देखकें, दौरी आई वन सें।
अर करतूत बनी नईं छोड़कें, जाय बसी रिसियन कें।
बुरऔ मान जिन जइयो लाला, इन साँची बातन सें। लाला इन साँची बातन सें।
साँची झूटी तुम सब जानो, का कैसकत बड़न सें।
विदाई गीत
कन्या पक्ष में विदा के क्षण बड़े ही मार्मिक होते हैं। विटिया चाहे गरीब की हो या अमीर की हो उसकी विदाई सबके हृदय में उथल पुथल मचा जाती है। नेत्रों से वरवश आँसू टपकने लगते हैं। पिता का अनुशासन और माता की ममता दोनों करूणा विगलित होने लगते हैं। भाई की आँखें नम हो जाती हैं। इसी क्षण बिटिया पराई होकर चली जाती है। स्त्रियाँ गीत गाने लगती हैं।
काची ईंट बाबुल अँगना न दइयो, बिटिया न दइयो विदेस मोरे लाल।
किनखों लिखे अटा अटारी, किन खों लिखे परदेस मोरे लाल।
बीरन खों लिखे अटा ओ अटारी, वेटी खों लिखे परदेस मोरे लाल।
कौनां नें दीने मन भर सोने, कौना गरे के हार मोरे लाल।
कौनां नें दीनी हात मुदरिया, कौनां नें दक्खिन चीर मोरे लाल।
भाई ने दीने मन भर सोने, बाबुल ने दक्खिन चीर मोरे लाल।
वीरन नें दीनी हात मुदरिया, भौजी गरे के हार मोरे लाल।
कौनां के रोंय नदियां बहत हैं, कौनां के रोंय भरे बेलाताल मोरे लाल।
माई के रोंयें नदियां बहत हैं, बाबुल रोंयें भरे बेलाताल मोरे लाल।|
कौनां के रोंय स्वामी हो भीजें, कौना के जियरा कठोर मोरे लाल।
बीरन के रोंय स्वामी हो भीजें, भौजी के जियरा कठोर मोरे लाल।
माई कहें बेटी निसदिन आइयो, बाबुल कहें दोउ जोर मोरे लाल।
बीरन कहें बेना ओसर आइयो, भौजी कहें कौन काम मोरे लाल।
माई खों विटियां विसर गई बेना, बाबुल खों गई सुद भूल मोरे लाल।
बीरन खों गलियां विसर गई बेना, भौजी खों भये सुख चैन मोरे लाल।
सिल धर फोरी बीरन मूंदरीं, समुद बुआ दये गरे के हार मोरे लाल।
कच्ची ईंट बाबुल अँगना न दइयो, बेटी न दइयो परदेस मोरे लाल।
प्रस्तुत गीत में कहा गया है कि आँगन में कच्ची ईंट नहीं लगाना चाहिये और बिटिया को विदेस में नहीं देना चाहिये क्योंकि कच्ची ईंट खिसलकर संपूर्ण आँगन को खराब कर देगी और विदेश में गई बिटिया सदा विसूरती रहेगी। इस तरह से इस गीत में बेटी के प्रति माता, पिता, भाई आदि का आत्मीय प्रेम झलकता है किंतु भाभी सदा उसकी उपेक्षा करती है। विदा के क्षण बिटिया सभी से भेंट कर विसूरने लगती है। डोली उठते ही वातावरण बोझिल हो जाता है कि नारी कंठ अन्य गीत गाकर मानव हृदयों को गीला करने लगता है। देखिये-
रामा लिवांय लयें जात हो, माई मोरी सुद न विसारियो।
माई के रोंय नदी जमुना बहत है, बाबुल के रोंय बेलाताल हो। माई….।
मइया कहें बेटी निसदिन आइयो, बाबुल कहें दोउ जोर।
भइया कहें बेना ओसर आइयो, भौजी कहे कौन काम री। माई….।
प्रस्तुत गीत पहले गीत की भांति ही चलता जाता है किंतु इस गीत की यह विशेषता है कि बेटी के ये शब्द माई मोरी सुद न विसारियो, भाई मोरी सुद न विसारियो, पाषाण हृदयों को भी पिघला देते हैं। डोली उठाकर कहार चार कदम ही चल पाते हैं कि बिटिया के हृदय की विकलन नारियों के कंठों द्वारा गाये गीत में मुखरित होने लगती है।
बाबुल भेज रहे हैं री परदेस, मइया के घर छूट रहे।
जबसें बेटी भई स्यानी, मोरे भेटे नईं समानी, तुरतईं कर दई इये विरानी।
मइया के घर छूट रये। बाबुल भेज रये परदेस, भइया के घर छूट रये।
अँगना में भौजी समझावें, विन्नू रोदन खूब मचावें,।
चौकस आठ रोज खां जावे, तुमरे पठादें भइया लेवे रोज।
मइया के घर छूट रये, बाबुल भेज रये री परदेस, मइया के घर छूट रये।
गीत इन्हीं पंक्तियों को दुहराकर चलता जाता है कि डोली धीरे धीरे चलकर गाँव के बाहर पहुँच जाती है। यहाँ पर ‘‘मौं धुआई’’ का दस्तूर होता है। खवासन या सवासन लोटे के जल से लड़की का मुँह धुलाती है उसे मुँह धुलाई का नैग मिलता है। इसी समय समधियों के ‘‘सजन भेंट होती है। सजन भेंट के उपरांत संपूर्ण बरातियों एवं सकल रिश्तेदारों से विदाई की राम राम कुछ धनराशि देकर होती है। पीछे पीछे स्त्रियों का झुंड हास्य परिहास युक्त गीत गाता रहता है। इस समय का गीत विदा के समय की उदासी को कुछ हलका करता है। देखिये-
जानें न दैओं सजन खां, 1 देओ।
तिन्नीं दे विलमांव सजन खों, जानें न देओ लाल।
रसिक नारियाँ रसीले समधियों को अनेक प्रलोभन देकर एक रात अपने घर ठहराना चाहती हैं किंतु बुंदेलखंड का पौरूष नारियों के आग्रह से नहीं ठहरता है। अतः निराश बुंदेली नारियाँ जाते हुए समधियों से मात्र एक आखिरी हँसी के लिए अनुनय विनय करने लगती हैं। देखिये-
हँस जइयो सजना, विहँस जइयो रे। तुमरो कछू नई चाहें, विहँस जइयो रे।
सौ रूपों रूपइया साजन हमईं सें लैले, सो अपनों करके बतांय जइयो रे।
लोगों के बटुआ साजन हमईं सें लैले, सो अपनों करके खुसांय जइयो रे।
पानों की विरियां साजन हमईं सें लैले, सो अपनी करकें रचायें जइयो रे।
हँस जइयो सजना विहँस जइयो रे।
नारी समर्पण की भावना चिर अमर है। यही भाव इस गीत में मुखरित हुआ है। बुंदेलखंड में शादी के उपरांत समधी और समधिन एक हो जाते हैं इसीलिए बुंदेली समधिन समधी से कहती है कि आप हमारे हैं हम आपके हैं अतः हमारी खुसी के लिए कम से कम एक हँसी हंसकर चले जाइयेगा। हमें आपसे कुछ नहीं चाहिये किंतु आप हमारे सुख के लिए हमारे रूपये से हमें कुछ अपने हाथों से खिला दीजिये। हमारे पानों की ही विरियों को (पान का बीड़ा) हमें खिला दीजिये जिससे उस पान की पीक हमारे वस्त्रों में रच जायेगी ओर जब जब हम इस पीक को निहारेंगे तो स्मृति के माध्यम से, संबंध भावना के कारण हमें आपकी याद सताती रहेगी। आपकी मुस्कराहट पान की पीक में झलकती रहेगी। कैसा आत्मीयता का भाव निहित है इस अंतिम भेंट गीत में जिससे मन बरबश कहीं बंध जाता है और जगत में जीने की चिर लालसा हरित हो, हरी हरी दूब सी या नई नबेली बेल सी छिछलने लगती है।
वर पक्षीय गीत
ससुराल से दूल्हा दुल्हन को लेकर मय बारात के घर लौट आता है। सजी संबरी दुल्हन युक्त डोली दरवाजे पर आ जाती है। परिवार का जेठा व्यक्ति (या ओझा) एक लोटे में जल लेकर बहू के सिर पर हाथ घुमाकर, अंजली में जल लेकर सिर से ऊपर फेंकता है इसे बुंदेली में पानी फेरना कहते हैं। ऐसा लोक विश्वास है कि पानी फेरने से दुल्हन के साथ रास्ते से आये हुए भूत प्रेत भाग जाते हैं। इसके उपरांत बहिन शर्वत का लोटा लेकर भाई एवं नई भाभी को शर्वत पिलाती है। उसे इसका नैग मिलता है। इसके उपरांत बड़ी बूढ़ी औरतें बहू उतारने का नैग करती हैं। यदि शुभ घड़ी होती है तो बहू अंदर चली जाती है और यदि घड़ी अशुभ होती है तो दूल्हा दुल्हन घर के बाहर ठहर जाते हैं।
शुभ दिन बहू के देवी देवता (देई देवता) पूजे जाते हैं। ग्राम की देवी, भुमियां बाबा, हरदौल लाला, कारसदेव, गाड़ीवान, भैंसासुर, मैरबाबा आदि के स्थान पर दूल्हा और दुल्हन गाँठ जोड़कर जाते हैं और वहाँ पर हल्दी में हांथ डुबोकर मंदिर की दीवाल या चबूतरे पर हाथों के चिन्हें अंकित करते हैं इन्हें बुंदेली में हाते लगाना कहते हैं। घर आकर दूल्हा और दुल्हन कुटुम्ब के प्रत्येक मकान के दरवाजे पर हाते लगाते हैं। इसके बाद दुल्हन के मुँह देखने का दस्तूर होता है इसे बुंदेली में ‘मौचांयनो’’ कहते हैं। इस दस्तूर में बूढ़ी औरतें आजी, सास, बुआ, ननद एवं व्यवहार बाली सभी औरतें दुल्हन का मुँह वेसन निर्मित पकवान- गुना गूजरा में से देखती हैं और बहू को दान में चाँदी सोने की चीज या रूपया देती हैं। इसके उपरांत दूल्हा और दुल्हन कुल देवता के घर में जाते हैं वहाँ पर खिचड़ी का नैग होता है। इस समय दुल्हन खिचड़ी को मापक पात्र (चौरी) में सात बार भरती है और दूल्हा उसे प्रत्येक बार लात मारकर गिरा देता है। इसी समय दूल्हा और दुल्हन कंकन छोड़ने का दस्तूर करते हैं इस दस्तूर के उपरांत मछली मारने का दस्तूर होता है। इस दस्तूर में दूल्हा का छोटा भाई तीर कमान बनाकर देता है जिसका उसके नैग मिलता है। एक थाली में आटे की मछली को दुल्हन इधर उधर घुमाती है और दूल्हा उस घूमती हुई मछली को भेदने का सफल प्रयास करता है। इस समय मछली भेदना शुभ माना जाता है। कुछ जातियों में इसी समय दूदा भाती का नैग भी होता है। (आम नहीं होता है।) इसके उपरांत बुंदेलखंड में स्त्री पुरूष को समानाधिकार प्राप्त हों, इसके लिए एक अन्य नैग छड़ी मारने का होता है। इस नैग में दुल्हन दूल्हा को सात छड़ी मारती है। इस नैग का अर्थ स्त्री पुरूष के समानाधिकार से है या छड़ी चलाने की क्रिया कामदेव के बान चलाने को ध्वनित करती है जो रतिपरक क्रिया का सूचक चिन्ह है जिसका प्रारंभ स्त्री करती है। ‘‘अगले दिन कंगना या सन्टी खेलते हैं। यह फूल की सन्टी होती है इस दिन कुछ क्षण के लिए बहू को समान अधिकार प्राप्त होता है- वह जी भर कर पति की पिटाई कर सके और फिर जीवन भर पिटने के लिए तैयार हो जाती है। फूल की सन्टी कामदेव के बान की परिचायक भी है।’’[1] इस नैग के उपरांत घर में खुशियों का साम्राज्य छा जाता है। हर्ष विह्वल हो सभी औरतें बहू को गोद में लेकर नाचती और गाती हैं। इस दस्तूर को बुंदेली में बहू नचाना कहते हैं। बुंदेलखंड में बहू आठ दिन तक ससुराल में रहकर छोटे भाई या खवास के साथ भाई के घर (मायके) वापिस लौट जाती है। बिटिया को लिवाने वाले दो मिट्टी के पात्रों में लड्डू और अन्य मिठाइयां भरकर लाते हैं।
बहू उतारने का गीत-
विआय ल्याये रघवर जानकी जू।
धन्य भाग उन राजा दसरत के, जिन बहू पाई जानकी जू।
धन्य भाग उन रानी कौसल्या, जिन बहू पाई जानकी जू।
धन्य भाग उन रानी कैकई, जिन बहू पाई जानकी जू।
धन्य भाग उन रानी सुमित्रा, जिन बहू पाई जानकी जू।
धन्य भाग उन लाला लखनजू, जिन भौजी पाई जानकी जू।
देई देवता पूजने का गीत
बुंदेलखंड में शादी के उपरांत दूल्हा और दुल्हन के द्वारा देवी देवताओं का पूजन होता है। पूजन हेतु जाते समय देवी आराधना का गीत गाया जाता है।
मइया मोरे अंगनें आईं, निहुरकें मैं पइयां लागौं।
जो मैं ऐसी जानती के मइया मोरें आयें, ढिकवर अँगन लिपाउती।
जौ में ऐसो जानती के मइया मोरें आये, मुतियन चौक पुराउती।
जौ में ऐसो जानती के मइया मोरे आयें, कंचन कलस धराउती।
जौ में ऐसो जानती के मइया मोरें आयें, चौमुख दिया मिलकाउती।
देवी देवता पूजकर लौटते समय का गीत
देवी स्थान से लौटने के बाद का माहौल बड़ा ही रसिक होता है। हर गीत का बोल घुघरू की झंकार की तरह रसवृष्टि करता है। इस समय के गीतों में स्त्रियाँ प्रकृति के मधुर प्रतीकों द्वारा विवाह के उद्देश्य का बखान करने लगती हैं। वर बधू को इंगित कर गीतों की भाषा से प्रारंभिक गुदगुदी का संचार रास्ते चलते चलते होने लगता है। गीत इस प्रकार है।
राते बरस गओ पानी, काय राजा तुमनें न जानी।
सेजैं हो भींजी सुपेती सोय भींजी, गद्दन हो कड़ गओ पानी । काय ….।
अटा हो भरगये अटरियां सोउ भर गई, खिरकिन हो कड़ गओ पानी। काय…..।
तला हो भरगये, तलइंयां सो भर गईं, नरवन हो कड़ गओ पानी। काय…।
कुअला हो भरगये, चौपरा सो भरगये, वावरिन हो कड़ गओ पानी। काय ….।
अंत में वर पक्ष एवं वनरी पक्ष में दशमें दिन, बुंदेलखंड में ‘‘दशवाननी’’ का दस्तूर होता है। इस दिन खंभ निकालकर मंडप का विसर्जन कर दिया जाता है। कुटुम्बी और स्वजनों को भोजन कराया जाता है। एक माह के उपरांत वर पक्ष की ओर से लड़की के घर मंडप की धूमी निकालने, एक व्यक्ति जाता है। इसे बुंदेली में ‘मड़वा झकई’’ का दस्तूर कहते हैं। इस नैग में व्यक्ति को पोशाक तथा धनराशि दी जाती है। इसी वर्ष भादौं मास की शुक्ल पक्ष छठवीं एवं सातवीं को मौराई छट या मैराई सातें का दस्तूर होता है। बुंदेलखंड में इसी मास की छठवीं को लड़की का मुकुट (मौर) तथा सातवीं को लड़के का मुकुट (मौर) तालाब के जल में डाला (सिराया) जाता है। बुंदेली विवाह संस्कार यहीं पर समाप्त हो जाता है।
विवाह के गीतों में अश्लीलता
बुंदेलखंड में जैसे सोहरे गीतों में ननद भाभी का कलह चिरस्थायी बनकर आया है उसी प्रकार वैवाहिक लोक गीतों में अश्लील भाव व्यक्त हुऐ हैं। बुंदेलखंड की कोई भी जाति हो सवर्ण हों या हरिजन प्रत्येक के शादी विवाह में इन गीतों को गाया जाता है। आदि वासियों में तो इनका अत्यधिक प्रचलन है। कंकन छोरने का नैग चल रहा है कि स्त्रियाँ गाती हैं ‘‘छोरो छोरो महाराज, सियाजू के कंकन छोरो महाराज’’। तुमपै न छूटैं अपनी मताई खों बुलाव, बहिन, फुआ, काकी, मौसी सभी को क्रम से गीत में बुलाया जाता है। ये तो सीमाओं में रहकर ही बात हुई है किंतु अन्य गीतों में तो काम शास्त्र की पूरी शिक्षा की व्यवस्था मिलती है। इसीलिए इन गीतों का विशेष महत्व है क्योंकि इनका व्यापक रूप में प्रचलन हमें अतीत संस्कृति की ओर ले जाने को मजबूर करता है। बुंदेलखंड में शादी बहुत छोटी आयु में होती थी जब बालक और बालिका शादी के महत्व से अनभिज्ञ रहते थे उस समय उनको काम की शिक्षा इन गीतों के माध्यम से दी जाती थी। बुंदेलखंड में बचपन में शादी होने की परंपरा यहाँ की गड़रिया जाति में पाई जाती है जो गर्भस्थ शिशुओं की शादी तय कर, ‘‘डला भांवरें’’ डाल देते थे। डला भांवरों की पुष्टि राजा नल की बुंदेली गाथा भी करती है जिसमें कुँवर ढोला और बेटी मारू की शादी इसी रीति से होती है। अतः कहा जा सकता है कि ऐसी अवस्था में किशोर वय बना एवं बनरी को काम सूत्र की शिक्षा देना इन गीतों का उद्देश्य रहता है। इन गीतों का दूसरा उद्देश्य और भी है। ये गीत मानव का काम वृत्ति के प्रति आकर्षण पैदा करते हैं। एक समय ऐसा था जब मानव युद्ध प्रिय जीवन व्यतीत करता था वह काम वृत्ति से परे हटकर शक्ति संचय कर युद्ध की तैयारी किया करता था। युद्ध प्रिय मानव का रूझान काम की ओर उन्मुख करने के लिए इन गीतों का वही योगदान है जो बुंदेलखंड की अमर कला कृतियाँ विश्व के सैलानियों की विहारस्थली खजुराहो की मूर्तियों का है। इन मूर्तियों द्वारा धर्म और काम की प्रेरणा एक साथ देने का मुख्य उद्देश्य था क्योंकि धर्म भावना से प्रेरित होकर मानव इस स्थल पर आता था और सृष्टि निर्माण की शिक्षा ग्रहण कर पितृ ऋण से उऋण होने का उपक्रम किया करता था। यही पावन भाव बुंदेली के लोक कवियों की अमर वाणी से अश्लील गीतों में मुखरित होते रहे हैं। कहने का भाव सिर्फ इतना है कि यह अश्लील गीत मानव को सृष्टि की निर्माण प्रक्रिया की ओर उन्मुख करने तथा सृष्टि की प्रजनन शक्ति को गतिशील रखने के लिए गाये जाते हैं। इन गीतों का एक अन्य उद्देश्य भी है जिससे दूल्हा और दुल्हन को शिक्षा दी जाती है कि विवाह ही वह संस्कार है जिसमें दो अपरिचितों का परिचितों सा मेल एक नये तीसरे का निर्माण करता है जिसे पाकर पुरूष और नारी अपने जीवन की पूर्णता प्राप्त करते हैं।
मृत्यु संस्कारः
मृत्यु संस्कार मानव का अंतिम संस्कार है। बुंदेलखंड में जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो उस समय शोक के साथ इस संस्कार को मनाया जाता है। अत्यन्त वृद्ध व्यक्ति की मृत्यु पर शोक की मात्रा कम होती है क्योंकि इस समय ऐसा माना जाता है कि वृद्ध को मृत्यु से मोक्ष मिल जाता है। बुंदेलखंड में जब सुहागिन (सधवा) स्त्री की मृत्यु होती है तो उस समय उसको मेंहदी, माहुर, विन्दी लगाकर गले में काली कंठी पहनाते हैं। सुहागिन के पैरों में कांसे के बिछिया, हाथों में हरी चूड़ियां पहनाकर उसका पूरा श्रृंगार किया जाता है। इसके उपरांत ठठरी (विमान) सजाकर उस पर शव को लिटा देते हैं। इसके बाद शव के सीने पर पाँच पैसे (एक टका) रख दिया जाता है। विधवा स्त्री और विधुर पुरूष की मृत्यु होने पर सीने पर पिण्ड रखकर पाँच पैसे रखते हैं। ठठरी को कुटुम्ब के सदस्य या अन्य चार व्यक्ति अपने कन्धों पर रख श्मशान की ओर ले जाते हैं। रास्ते में ठठरी उतारकर मुर्दे के मुँह में पानी डालने का दस्तूर होता है। आग की हंडी नाई लेकर चलता है ‘‘बाप भरै काउको, हंड़िया ढांगे नाउको” मरघट में लकड़ियों की चिता चुनकर उस पर शव रख आग लगा दी जाती है सभी व्यक्ति अर्थी की परिक्रमा कर एक एक लकड़ी डालते हैं इसे बुंदेली में ‘‘लकडि़या देना’’ कहते हैं। मृतक का बड़ा लड़का चिता को सात बार घेरकर शव के सिर को लकड़ी छुआ कर उसी लकड़ी को चिता में डाल देता है। चिता प्रज्ज्वलित करने के लिए उसमें घी डाला जाता है। इसी समय एक जल भरा घड़ा लेकर जिसमें एक छेद होता है बड़ा लड़का चिता के चारों ओर जल सींचता है इसका उद्देश्य चिता के चारों ओर की जमीन गीली करने से होता है जिससे अग्नि अन्य स्थानों पर नहीं बढ़ पाती है। बुंदेलखंड में हिन्दुओं में जब छोटे बालक की मृत्यु होती है उस समय उनको जमीन में गाड़ा जाता है। शव यात्रा से लौटकर सभी लोग गीले वस्त्र पहिन घर आते हैं। घर पर अपने सिर से जल के छींटे डाल सूखे वस्त्र धारण करते हैं। दूसरे दिन चिता से हड्डियों के अवशेष चुनकर मिट्टी के पात्र में रखे जाते हैं। बुंदेली में इन्हें ‘‘फूल’’ कहते हैं। इसके बाद परिवार का जेठा पुत्र या अन्य कोई व्यक्ति इन फूलों को गले में डालकर गंगा में विसर्जन करने हेतु चला जाता है। इसे भेजने के लिए कुछ लोग कुछ दूरी तक आते हैं इस समय औरतें रो रो कर यात्रा गीत या बाबा के भजन गाती हैं। इस समय रोने के दो कारण होते हैं। एक तो मृतक की स्मृति दर्द उठाती है, दूसरा यात्रा करने वाले के प्रति सभी दुखी होते हैं क्योंकि आज से कुछ सदियों पूर्व यात्रा करने वाले व्यक्ति का जीवन सुरक्षित नहीं रहता था। जंगली रास्ते, डाकू लुटेरों का भय, प्रकृति का प्रकोप, राजनैतिक अव्यवस्था में सुरक्षा का अभाव सभी यात्री की मौत का कारण बन सकते थे। इसलिए मानव दुहरे दुख से विकल हो रूदन करता था। तीरथ से लौटने के बाद पंडित जी पूजन कराते हैं। मृतक की मृत्यु से सातवें दिन घर में शुद्धि होती है इस दिन सभी कुटुम्बी सदस्य सिर के बाल बनवाते हैं। पति की मृत्यु होने पर सुहागिन स्त्री नदी तालाब पर शुद्ध होने (घाट करने) जाती है। इसके साथ नाइन तथा कुछ औरतें रहती हैं। सुहागिन स्त्री सुहाग का अमर चिन्ह चूड़ियाँ घाट पर फोड़ देती हैं, पहिनने की अच्छी धोती का परित्याग कर श्रृंगार की सभी वस्तुएँ यहीं छोड़ देती हैं। आज से ही उसका जीवन विधवा का जीवन हो जाता है। उसके पास पहिनने को सफेद धोती और जीने को भार सा जीवन शेष रह जाता है। बुंदेलखंड में मृतक के मरने से, स्त्री पक्ष में ग्यारवें दिन ग्यारवी का भोज होता है और पुरूष पक्ष में तेरहवें दिन तेरहवीं का भोज होता है। इसमें ब्राह्मणों को भोजन कराकर उन्हें कुछ दान दिया जाता है। बुंदेलखंड में इस दिन एक पत्तल पर भोजन की समस्त सामग्री रखकर गाँव के बाहर मृतक आत्मा के लिए भेजी जाती है। इसे पत्ता फेरना कहते हैं। इन सब रीतिरिवाजों को बुंदेलखंड की गालियां, ‘‘तौओ पत्ता फिर जाय, तोई ठठरी बंदजाय, तोओ धुंआ देखें, तोई लकइया देंय, तोओ घाट हो जाय, तोई चुरियां फूटें, तें अवई रांड़ हो जाय’’ आदि अपने में समेंटे हैं। यदि कोई प्राणी (स्त्री या पुरूष) ‘‘पंचकों में शरीर त्यागता है तो परिवार की चक्की, हंडी, झाडू और चूल्हा आदि सभी श्मशान में फेंक दिये जाते हैं। शुद्धिका की रात्रि में एक थाली में राख छानकर रख देते हैं और सुबह उस राख को उठाकर सभी देखते हैं कि इस राख में कौन सा चिन्ह अंकित हुआ है। राख पर किसी भी चिन्ह की कल्पना कर अगले जन्म की कल्पना की जाती है। बुंदेलखंड में ऐसा विश्वास है कि मृतक जिस योनि में जन्म लेता है उसका चिन्ह राख पर अंकित हो जाता है।
मृत्यु गीत
बुंदेलखंड में मृत्यु के समय कबीर पंथी समुदाय में (कुरया समाज) बाद्य यंत्रों के साथ कबीर के भजन गाये जाते हैं क्योंकि ये लोग मृत्यु को मोक्ष समझकर, अर्थी पर पैसे लुटाकर आनंद मनाते हैं और ये गीत गाते हैं-
जल्दी करलो सहेली सिंगार, लुआवे आगये साजन रे।
घरी पिया सोदन की आगई, घरी चूक न पाई।
मानत नईं पिया समझाई, अपनी ठान ठनाई।
उनके झगड़ा में नइयां कोनउं सार। लुआवे आगये साजन रे।
भौत दिना रई बनी मायकें, सखियन के संग खेली।
अबतौ ससरें जानें परहै, दुल्हन बनो नबैली। अबतौ करवो बहानो बेकार।
नाउन बैठी माउर लेकें, दुल्हन कई करे ना।
बाजन लगे विदा के बाजे, साजन धीर धरे ना। बैतो ठांड़े हैं हवेली के द्वार।
चुलिया सजा बना समरौटी, पैनों रेसम चोली।
ओड़ चुनरिया ठांड़ी होजा, बायरें आ गई डोली। बैतो लयें पलकया चार।
लिपट भैंट माई सौं करलो, कैलो जो कछु कानें।
अबकी गईं समझलो गुइयां, मिलो कबै कौ जानें। मिलकें सकियन में करलो प्यार।|
छोड़े जाव पुतरिया पुतरा और सखिन के लानैं।
सैंतई खेल खिलौना गुइयां, तुमें कायखों चानें, तुमखों मिलगये भले रे भरतार।
जइयौ प्राणपति के संग में, प्रीतम रंग रंग जइयो।
दइयो छोड़ हरिहर चिन्ता आगे की सुद लइयो। अबना नैनन ढारो जलयार
इस समाज के अतिरिक्त युवा पुरूषों की मृत्यु पर प्रत्येक व्यक्ति रो-रोकर शोक प्रकट करता है। इस रूदन में एक लय होती है जिससे आत्मीय जन अपनी व्यथा को कम करते हैं ‘‘इस रूदन में एक लय मिलती है और अभिप्राय भी होता है। इसमें प्रायः मृत पुरूष के विविध प्रिय पदार्थों का नाम ले-लेकर शोक प्रकट किया जाता है’’।[2]
बुंदेलखंड में परिवार के मुखिया युवा पुरूष के मरने पर उसकी युवा पत्नी पुरूष के कर्म सौन्दर्य का बखान कर तथा अपने अभावों को दर्शाकर इस प्रकार लय से रोती हैं।
हे परमात्मा मोर लटकनियां राजा कां गये रे।
मोरे सुख के दिखइया राजा कां गये रे।
मोखों फूल की लबुदिया सें न छुओ, ऐसे राजा कां गये रे।
मौं दुखनी को अकेली छोड़कें, मोरे राजा कां गये रे।
मोरे लाने जो काचौ कुड़वाव छोड़कें, वे कां चले गये रे।
मौसें नेक कछुअई नईं केके, मौखों कीके आसरें छोड़ गये रे।
मौं बैरन सें जनम के दाव भंजाकें, लटकनियां राजा कां गये रे।
अब में कीसें बोलों, को हमखों टेरत आय रे।
हे विधाता मैनें तोरो का विगारो तो, के तैनें मोये भाग फोर दये रे।
अब मैं का करो करम गत के आगें, काउ की नई चलत रे।
प्रस्तुत गीत में पुरूष की कर्तव्य निष्ठा, पारिवारिक महत्ता, उपादेयता और आचरणनिष्ठा का वर्णन हुआ है। अभाव दुखदायी होता है उसकी सफल अभिव्यंजना गीत का प्राण हैं। कर्म विधान, भाग्य रेखा और होनी प्रबल होती है इसका वर्णन निराशावादी प्राणों में हल्की सी आशाकिरण प्रदत्त करके, बुंदेली शोक गीत दुखिया को सहारा प्रदान करता है। दुखिया के आंसू ढुलकने से दुख का वेग कम हो जाता है इस तरह दुख की विशाद छाया में मृत्यु संस्कार संपन्न होता है।
बुंदेली धार्मिक गीत
बुंदेली लोक गीतों में धार्मिक लोक गीतों का अपना विशेष महत्व है। मानव के आदिम स्वरूप की अभिव्यक्ति इन गीतों की अचल धरोहर है। धरा पर मानव का जन्म लेना जितना प्राचीन है उतनी प्राचीन यह परंपरा भी है कि मानव अज्ञात शक्ति के प्रति श्रद्धा अर्पित कर उसे पूजता आया है। इसीलिए बुंदेली लोक गीतों में आदि शक्ति देवी पूजन के गीत पाये जाते हैं।
देवी पूजन का गीत-
कैसे कें दरसन पाँव हो, माई तोरी लागी किवरियां।
लागीं किवरियां मइया, सकरी दौरिया, कैसे कें दरसन पाँव री ….।
माई के दुआरें एक भूंको पुकारे, देव भोजन घर जांव री। माई ….।
माई के दुआरें एक अंदरा पुकारे, देव आँखें घर जांवरी। माई …..।
माई के दुआरें एक कुड़िया पुकारे, देव काया घर जांव री। माई…..।
माई के दुआरे एक लंगड़ा पुकारे, देव पाँव घर जाव री। माई ….।
माई के दुआरें एक लूला पुकारे, देव हांत घर जांव री। माई ……।
माई के दुआरें एक बांझिन पुकारे, देव पूत घर जांवरी। माई …..।
बुंदेलखंड में आपत्ति और सुख में देवी की आराधना की जाती है। उसी आराधना संपन्न करते समय औरतें पेंड़ भरकर (सीधी लेटकर) देवी के मंदिर की दूरी तै करती हैं जिसमें उनकी श्रद्धा चरमावस्था पर पहुँच जाती हैं। गोटें- बुंदेलखंड में कारसदेव के अतिरिक्त राजू गूजर की बेटी ऐलादी की भी गोटें गाईं जाती हैं। राजू गूजर की बेटी ऐलादी भूरी भैंस का पड़वा (बच्चा) एवं गाय का बछड़ा लेकर पशुओं के बाड़े (खिरका) पर जाती है। वहाँ से गायों एवं भैंसों की दुहनी कर नौमन दूध का कलश (खेप) सिर पर रख पड़वे सहित तंग रास्ते में से गुजरती है कि राजा का हाथी आकर उसका रास्ता रोक लेता है। ऐलादी कहती है कि हे महावत भइया अपने हाथी को मेरे रास्ते से हटा लो। महावत उत्तर देता है कि राज दरवार का हाथी अपने रास्ते से नहीं हटता है। ऐलादी अपनी शक्ति से हाथी की जंजीर पकड़कर उसे एक तरफ हटा देती है और अपनी राह, स्वयं बनाकर चली जाती है। गोट इस प्रकार है।
डगरी ऐलादी हो ओ हो, अपने खोरन दुआर ओ हो ओ।
करवाये दौनिया बगरन मांझ हो ओ, ढीले पड़ेला भूरी भैंस को हो ओ।
ढीले वछला नग नाचिन गाय कौ, हो ओ, को जो लगावे वाकी मनकिया भैंस।
को जो जगावे वाकी नग नाचिन गाय हो ओ, को जो लगावे गाय हो ओ।
गोरे लगावे वाकी मनकिया भूअरी भैंस हो ओ, राजू लगावें नग नाचिन गाय।
जब ऐलादी नें धरलई नोमन दुदुआ की खेप हो ओ,
डुरया लये पड़ेला भुअरी भैंस के हो ओ, डुरया लये बछला नग नाचिन गायके।
डगरी मुमानी उरद बाजार सौं, मद को मारो हतिया डोलत तो बा आड़ी गैंल में हो ओ।
तब महतिया सें बोली भमानी हो ओ।
अरे, भइया मोरे, कक्का कहों के बीर सो हो ओ।
हतिया हटाले जो मोरी आड़ी गैल को हो ओ।
झझके पड़ेला भुअरी भैंस को हो ओ, तड़पे बछला नग नाचिन गाय को हो ओ।
छलकै मोरी दुदुआ की दुहरी खेप हो ओ,
हथिया हटाले भइया, मोरी आड़ी गेल को हो ओ।
हतिया पै को महतिया दे रओ ऐलादी खों ज्वाब सो हो ओ।
तोरे संग कीं विटियां कड़़ गईं, दो दो वेर हो ओ।
तें गलियन में रारें बिटियां जिन बड़ाइयो हो ओ।
न तोरो बछला कइये नग नाचिन कौ हो ओ, डोर पकरकें झटक ले हो।
अरी सिर्रियानों हतिया बाईजू, जो मोरे बस को न रओ, हो ओ।
अरे हतिया पै के महतिया, हतिया तोरे बस को न रओ हो ओ।
तो हतिया पै की जंजीरें, नैचे खों दे सरकाय हो ओ।
मैं हतिया हटा लओ आड़ी गैल सों हो ओ।
जब हतिया पै के महतिया नैं, जंजीरें नैचे खों दइ्रं सरकाय, हो ओ।
हरदौल के गीत
बुंदेलखंड में हरदौल के जीवन संबंधी बहुत गीत मिलते हैं। यहाँ पर कुछ ऐसे गीत दिये जा रहे हैं जिनमें उनके बचपन, यौवन का शौर्य और आदर्श झलकता है। देखिये-
जिन डारो हो लाला हरदौल, झूला विरछ पे जिन डारो।
जो तुम झूला विरछ पै डारौ, तुमरी आजी हो ठांड़ी पछतांय। जिन ….।
हमाये हरदौल लाला ऐसें गरजत हैं, जैसें इन्द्र अखाड़े।
नजरिया के सामनें तुम हमरे लाला रइयो, सो प्यारे लाला रइयो।
तुमनें जनम लओ ऐरच में, तुमरौ जाहिर नाव जगत में।
तुमनें कीनों राज खलक में, जैसे दरसन हमखों दे दये, वैसे सबखों दइयो।
हरदौल की कुर्बानी ने उन्हें मानव से देवता बना दिया है इसीलिए बुंदेलखंड का मानव उन्हें प्रत्येक मांगलिक कार्य में स्मृत कर पूजता है।
बालाजू के गीत
बुंदेलखंड में बालाजी के मेला के समय इनके गीत गाये जाते हैं। बालाजी का मंदिर झाँसी से दक्षिण दिशा में सात मील की दूरी पर उनाव ग्राम में है। ग्राम के पास में ही पहजू नदी बहती है। बुंदेलखंड के निवासियों का ऐसा विश्वास है कि जिस किसी व्यक्ति को चर्म रोग- दाद, खाज, सेउआ, कोढ़ आदि हो जाते हैं वे इतवार के दिन बालाजू के मंदिर में मूर्ति को जल चढ़ाकर पूजा करते हैं। इससे उनके रोग ठीक हो जाते हैं। यही कारण है कि इतवार के दिन मंदिर में ऐसे रोगियों की भीड़ रहती है। जेठ दशहरा के अवसर पर बालाजू की रथ यात्रा का उत्सव होता है जिसमें बड़ा भारी मेला लगता है। बैलगाड़ियों में वृद्ध बालक और औरतें बैठकर यात्रागीत गाते हुए मेले में जाते हैं। गीत इस प्रकार है-
कौन नें धरे री कौन ने धरे, बालाजू के कलसा कौन ने धरे।
जिननें धरे तिनके नाव डरे, बालाजू के कलसा कौन नें धरे।
बालाजू के कलसा मोरे ससरा धरे, सासो जू के ऊनें नाव डरे।
बालाजू के कलसा मोरे जेठा धरे, जिठानी जू के ऊमें नाव डरे।
बालाजू के कलसा मोरे देवरा धरे, देवरनिया के ऊमें नाव डरे।
बालाजू के कलसा ननदोइया धरे, मोरी ननद बाई के ऊमें नाव डरे।
श्रवण कुमार के गीत
बुंदेली लोक गीतों में श्रवण कुमार की पितृ भक्ति के गीत भी मिलते हैं। पितृ भक्ति के कारण ही बुंदेलखंड का लोक मानस उन्हें आराध्य की तरह पूजता है। इन्हीं भावों को करूणिम लय में गायक व्यक्त करता है। देखिये-
सरमन जू खों बान मार दओ, भली करी दसरत भइया।
अन्दी अन्दा रोवन लागे, कैसें पार लगे नइया।
मझधारा में तैनें छोड़ो, पकरै आज को अब बइयां।
टूट गई अंदरन की लठिया, किलपत रै गये वे दइया।
आय हमारो गोद खिलाओ, आज धरौ है भौं भइयां।
मिट गओ नाव आज सरमन को, किये खिलावों ले कइयां।
टूट गओ नातो वेटा सें, उड़ गओ प्रानन को छइया।
दोनों प्रानी ऐसें किलपै, जैसें बछला विन गइया।
सरमनजू खों बान मार दओ, भली करी दसरत भइया?
राम के गीत
बुंदेलखंड में राम और कृष्ण को लेकर अनेक गीत गाये जाते हैं। इन गीतों में राम और सीता का कथानक रहता है। सीता बन में चलते चलते थक जाती हैं। कुछ आगे चलने के बाद धैर्यहीन होकर पुकार उठती हैं। देखिये-
धीरे चलो मैं हारी लछमन, धीरे चलो मैं हारी।
एक तौ हारी, दूजे सुकमारी और तीजें की मारी।
सकरीं गलियां कांट कटीलीं, फाटत है तन सारी।
गैल चलत मोय प्यास लगत है, दूजैं पवन प्रचारी। धीरें चलो ….।
कृष्ण गीतः
बुंदेलखंड में कृष्ण के चरित्र को लेकर लिखे गये अनेक बुंदेली लोक गीत मिलते हैं। यहाँ पर वर्णित गीत में सूरदास के समान वात्सल्य रस की पुट तथा कोमल कांत भावों की अनोखी छटा दिखाई देती है। देखिये-
दुबधा कब जैहे जा मनकी।
इन पांवन परकम्मा दैओं, छाया गोवरधन की।
जब नंदरानी गरभ सें हुइयें, आस पुजै मोरे मन की।
जब मोरो कानां कलेउ मांगे, दद माखन ओ रोटी।
जब मोरो कांना झंगुलिया मांगे, चन्दा सूरज लिखी टोपी।
जब मोरो कांना खिलौना मांगे, चन्दा सूरज सी जोड़ी।
हनुमान गीत
हनुमान जी पवन पुत्र हैं इसलिए बुंदेलखंडी विवाह में पवन से रक्षा करने के लिए उनकी स्तुति की जाती है। ‘‘पवन के हनुमत हैं रखवारे’’ इसके अतिरिक्त हनुमान जी के अन्य बुंदेली गीत भी मिलते हैं।
तैनें मोरो दूद लजाओ पवनसुत, तैंनें मोरो दूद लजाओ।
देवन जाय करी जब विनती, मइया देवन कष्ट निवारो।
काय खों सजी हैं रीछ बदरियां, काहे खों कटक सजायो।
सात समुन्दुर तुमनें जाके, कायखों सेत बंदाओ।
मारी उचाट सूरज खों लीलो, बो बल कहां गमाओ।
लंका बात तनक सी कहये, रामचन्द्र भटकाओ।
बोलो न मारो मोरी माता अंजनी, सेंट पियन नई पायो।
तुलसी दास आस रघवर की, हरि चरनों चित लाओ।
प्रस्तुत गीत में माँ अंजनी हनुमान से कहती है कि हे बेटा हनुमान तुम इतने बलशाली थे कि तुमने शैशव में जन्मते ही सूरज को निगल लिया था किंतु ऐसा कौनसा कारण है जिससे माँ सीता को रावण से छुड़ाने के लिए तुमनें श्रीराम को परेशान किया। दुविधा दुख से देवताओं को महान कष्ट पहुंचाया। हनुमान जी माँ से कहते हैं कि हे माँ तेरा पय रूपी अमृत पान न करने के कारण ऐसा हुआ।
गौरा पारवती पूजा गीतः
बुंदेलखंड में भादों मास में शुक्ल पक्ष तृतीया के दिन स्त्रियाँ दिन और रात निर्जला व्रत रखकर गौरा पारवती की पूजा करती हैं। इस समय ये गीत गाया जाता है।
हट पर गईं गौरा नार, महादेव मड़िया बनादेव बाग में।
काय की मड़िया बने, उर काय के लागैं किवार। महादेव …..।
सोने की मड़िया बनें, उर रूपे के लागैं किवार। महादेव ……।
नारे सूआटा का गीत या नौरता गीत
बुंदेलखंड में तो क्वाँरी कन्यायें इस खेल को खेलती हैं इस खेल में लड़कियाँ दानव की पूजा कर ये गीत गाती हैं।
ऊंची डगर की पीपरी नारे सूआटा, जिन तरें लगे हैं बाजार।
विरजी गौरा बेटी बापसें नारे सूआटा, राजा बाबुल चुनरी रंगाव।
ढिंग ढिंग लिखिओ मोरो मायको नारे सूआटा, अचरा माई के बोल।
माई बैठी झझघरा नारे सूआटा, बाबुल पौंर दुआर।
कार्तिक स्नान गीत
ठाकुर बाबा का गीत- बुंदेलखंड में औरतें कार्तिक स्नान कर तुलसी के पौधे को जल चढ़ाकर ठाकुर जी की आरती करती हैं। तुलसी के पौधे को जल चढ़ा उसकी परिक्रमा करते समय वे ‘‘तुलसा महारानी नमो नमो। तुलसा महारानी नमो नमो, गाती हैं। ठाकुर जी की पूजा इस गीत से प्रारंभ करती हैं।
सालिगराम सुनो विनती मोरी, सो जो वरदान दयाकर पाऊँ। सालिग ….।
जितने पाप करे दुनिया में, सो परकम्मा की राह बहाऊँ। शालिग ……….।
जितने पुन्य करे दुनिया में, सो हर चरनन खों धाय चड़ाऊँ। सालिग …..।
दिवारी गीत
बुंदेलखंड में कार्तिक की अमावस्या की रात्रि- (दीपावली की रात्रि) में लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है। प्रत्येक बुंदेली परिवार में सोलह या बीस मिट्टी के दीपक जलाकर चाँदी के सिक्के या गहनों की पूजा की जाती है। प्रत्येक परिवार जलते हुये दीपकों को एक दूसरे के घर की देहरी पर (पाहुंनों बैठो कहकर) रखते हैं। इससे अंधियारी रात्रि में प्रकाश फैल जाता है। इस समय ये गीत गाया जाता है।
तुलसा बोबई दो जनीं, बेनईं बैनें आंय।
तुलसा पूजे बामना, बोबई नंदके लाल रे।
वृन्दावन बसबो तजो, अर होन लगी अनरीत।
तनक दही के कारनें, फिर बहियां गहत अहीर रे।
सावन गीत
बुंदेलखंड में सावन मास में कजली, भुंजरियों के गीत, झूला के गीत, मेंहदी गीत, भागदा गीत, राछरे रसिया और मलारें आदि गाये जाते हैं। सावन महीना गीतों का महीना होता है।
झूला गीत- सावन महीने में युवतियां झूला झूलते समय ये गीत गाती हैं।
एक चना दो देउली री, माई साहुन आये।
कौन सी गुइयां दूर बसत री, माई साहुन आये।
रामकुँवर सी गुइयां दूर बसत री, माई साहुन आये।
कौन लिबउआ आ जांयें री, माई साहुन आये।
बीरन लुबउआ आ जायें री, माई साहुन आये।
आगें नउआ पीछे बमना, बीच बहिहन की पालकी। माई साहुन आये।
अटा चड़े हम हेरी, कोउ बूंदी सें आये।
बूंदी से आये मइया अमुकराये, का भर ल्याये।
कत्था सुपारी डोंड़ा लायचीं, बेला भर ल्याये।
थार भरे गज मोती सासो खों ल्याये, पाट की फरिया चीकनी बहिनी खों ल्याये।
रून झुन विछिया बाजनें, ननदी खों ल्याये।
भुजरियों के गीत
बुंदेलखंड का भुजरियों का त्यौहार विशिष्ट त्यौहार है। श्रावण शुक्ल नवमीं को पत्तों के दोनों में गेहूँ बोये जाते हैं और भाद्र पद कृष्ण प्रतिपदा के दिन इन्हें किसी जलाशय में सिराया जाता है। इस समय चंद्र कुँवर के राछरे गाये जाते हैं।
चन्द्र कुँवर को राछरोः-
रे माई, काहे को महल उठाइयो, काहे को ढोरे हैं बांस।
रहबे खों महल उठाइयो, सो-बा खों ढोरे हैं बांस।
दिन दस रहिन न पाइयो, डस लये करिया नाग।
पाँव महावर नई छूयि, फरिया के छूटे न दाग।
इन्द्र लोक में गहनों जो आओ, बहुआ चन्दावल के जोग।
हम कैसें गहनों पहरियो, बारे में भओ है विनास।
इन्द लोक सें कपड़ा जो आये, बहुआ चन्दावल के जोग।
हम कैसे कपड़ा पेरियो, बारे में भओ है विनास।
माथै पै बिंदिया बांदी नईं, मोतो भरी नइयां मांग।
हम बिच को का हो विगारियो, बारे में होगये विनास।
बर तो जइयो मइया तोरी कूंख, जिनमें लये औतार।
जल विन नदिया विहूनी रे, माई बैसई पति विन नार।
मगादा गीत
सावन मइना नीको लगे, गेंवड़े भई हरयाल।
सावन में भुजरियां वै दिओ, भादौं में दिओ सिराय।
येसो है भइया कोउ धरमी, बहनन खों लिओ है बुलाय।
आसौं के सावना घर के करौ। आगे के दैहैं खिलाय।
सोने की नादें दूद भरी, सो भुजरियां लेओ सिराय।
के जेहें तला की पार वे के जैहें भुजरियां सूक।
धरीं भुजरियां मानिक चौक में, बीरा घरी ललांय।
कैसी बहिन हटै परीं, बरवर लेत पिरान।
आसौं के सवना जूझ के हैं, आगे के दैहें कराय।
धरीं भुजरियां तला की पार, बिटियां आन सिराओ।
टूटी फौजें दुस्मन कीं, बहिनें भगनें होय भग जाओ।
हांत काउ के परिओ नहीं, लग जैहे कुल में दाग।
तुपकन के कुंदुआ लगे, मूंडन के गन्जे पहार।
वस्ती लड़े इड़ियन छिड़ियन, मगादा लड़े मैदान।
मारत मारत भुज्जें रैगईं, ललकारत रे गई भांस।
प्रस्तुत मागदा गीत में ऐसे भाई की बीरता का वर्णन है कि जो बहिनों की रक्षा के लिए (भुजरियां सिराते समय) अपने जीवन को युद्ध की आग में झोंक देता है। विकट युद्ध करते करते उसकी भुजायें थक जाती हैं और दुश्मन को ललकारते ललकारते उसकी आबाज बैठ जाती है। यह गीत बहिन चन्द्रावली (महोवे के राजा परमाल की पुत्री) और भाई ऊदल की याद तरोताजी कर जाता है।
मेंहदी गीत
बुंदेलखंड में मेंहदी रचाते समय औरतें ये गीत गाती हैं-
काहां से मांदी आई हो, सोदागिर लाल, काहां धरी विकाय मांवदी रचनू।
अग्गम में मांवदी आई हो सौदागिर लाल, पच्छिम धरी विकाय….।
काये सें मांउदी बांटियो सौदागिर लाल, काये से लइयो पौंछ। मांवदी …।
सिल लोड़ा धर बांटियो सौदागिर लाल, लियो करचुलन पौंछ। मांवदी…।
कीनें रचाई दोई छीगरीं सौदागिर लाल, कीनैं रचाये दोई हांत। मांवदी ….।
देवरा रचाई दोई छींगरीं, सौदागिर लाल, भौजी रचाये दोई हांत। मांवदी ….।
भौजी की रच केवलीं धरीं सौदागिर लाल, देवरा की रच गईं लाल। मांवदी….।
किये बतायें दोई छींगरीं सौदागिर लाल, किये बतायें दोई हांत। मांवदी ….।
देवरा बताई अपने भाई खों सौदागिर लाल, पिये बताये दोई हांत।
रसिया, मलारैं गीत
बुंदेलखंड में यदि मलारें गीत मस्ती के द्योतक हैं तो रसिया गीत रसिकता के प्रतीक हैं। वर्षा ऋतु मानव जीवन में रस संचार करती हैं। मानव मस्ती में आकर मलारें गाता है। देखिये-
मोरे राजा किवरियां खोलो, रस की बूंदें परीं।
पहले आंदी बैहर आई, दूजैं बादर देत दिखाई, तीजें कठिन अंधेरी छाई।
उठी घटा घनघोर, रस की बूंदें परीं।
पहली बूंद गिरी अरांई, मोरे माथैं आय जुड़ाई, मैंने चोली बहुत छिपाई।
मोरी देय भरी सरवोर, रस की बूंदें परीं।
असड़ा खेती करें किसान, बोई तिली विनौला धान, जुन्डी हो गई दोदोपान।
सखी गावे मंगलाचार, रसकी बूंदें परीं।
लरका खेलें गली गैलार, हो, रस की बूंदें परीं।
जबसें हो गई ज्वांर सियानीं, विलना भरन लगे सो जानी,
निकसी बहुत भुन्टियां प्यारीं, उनमें दाने लगे हैं हजार हो, रसकी बूंदें….।
पक्कें ज्वांर भई तैयार, काटन जावें सबई किसान, गाड़ी, भरभर धरे खरयान।
गहबे की लग गई तैयारी हो, रस की बूंदें परीं।गहकें ज्वांर करी तैयार, करबी डारी गउअन जाय, जुन्डी खान लगो संसार,
घर घर होन लगो आनंद हो रस कीं बूंदें परीं।
प्रस्तुत गीत में किसान के जीवन एवं कृषि की क्रिया प्रक्रिया का सजीव चित्रण मिलता है। वर्षा प्रारंभ होते ही कृषक युवती छलिया छैल से दरवाजे के किबाड़ खोलने का आग्रह करने लगती है जिससे मस्ती का आलम रस संचार करने लगता है। कृषक युवक युवती के मनोभाव समझकर अन्य मलारैं गीत में, मनोवैज्ञानिक ढंग से युवती की गौरांग देह की प्रशस्ति करने लगता है जिसमें मादकता छलकने लगती है। देखिये-
निकरी है गोरी देय कहा खांय।
के तुमनें खाई दूद मलाई, कै काहू रसिया के रस पियायें।
ने हमनें खाई दूद मलाई, नें काहू रसिया नें रस पिआओ।
निकरी है गोरी देय ललन जायें, हो होरल जांय।
उत्तर में बुंदेली युवती रसिया गीत गाकर पुकार उठती है कि मैं ‘कर आई कौल करार दाउजू के मंदिर में’’ पुरूष यह पंक्ति सुनकर युवती के प्रति आकर्षित हो बात करने के लिए लालायित हो उठता है। युवती अन्य रसिया गीत गाकर प्रेम डोर को बढ़ाती है। देखिये-
गाड़ी बारे मसकदे बैल, अबै पुरवइया के बादर ऊन आये।
कौनां बदरिया ऊनई रसिया, कौनां बरस गये मेव। अबै पुरवइया….।
अग्गम बदरिया ऊनई रसिया, पच्छिम बरसगये मेव। अबै पुरवइया….।
घुंघटा बदरिया ऊनई रसिया, गलुआ बरसगये मेव। अबै पुरवइया …..।
बुंदेली रसिया महुये के फूल या मधु के छत्ते होते हैं जिनमें रस ही रस और मिठास ही मिठास रहता है। मुझे गीत इक्ट्ठे करते समय इस रसिया की कुछ और पंक्तियां प्राप्त हुईं हैं जिनमें मनुष्य आदिम स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ स्वछंद विहार ही शेष रहता है। देखिये-
चोली बदरिया ऊनई रसिया, जुवनन बरसगये मेव।
तिन्नी बदरिया ऊनई रसिया, बातो खुलतन बरसगये मेव। अबै पुरवइया।
अन्य रसिया गीत में बुंदेली नायिका नायक से अनेकानेक प्रतीकों के माध्यम से प्रेम पिपासा मिटाने का आग्रह करती हैं। देखिये-
नजर भर हैरत काय नइयां।
हमतौ राजा बन की हिरनियां, तुम ठाकुर के लरका,
तुबक तीर काये मारत नइयां। नजर भर हेरत काय नइयां।
हमतौ राजा पिया जल की मछरिया, तुम ढीमर के लरका।
झमक जाल डारत काय नइयां। नजर भर हेरत काय नइयां।
भादौं मास के गीत
भादौं मास में रसिया, मलारैं, राछरें, सैरे मौराई छट के गीत, जलविहार के गीत, धान निराई के गीत आदि गाये जाते हैं प्रायः प्रधानता रसिया, सेरे और राछरों की ही होती है।
तीजा गीत
भादौं शुक्ल पक्ष में तीजा व्रत कर औरतें ये गीत गाती हैं-
लै गई मोरे महाराज, छिगरी को रस मुंदरी ले गई।
कानां खों सोनों मगाइआ, कानां के सुगर सुनार।
लंका सें सोनों मंगाइओ, पन्ना के सुगर सुनार। छिंगरी को ….।
को जो मुंदरी पैरिओ, किननें चुका दये दाम।
राधा मुंदरी पैरियो, श्रीकृष्ण चुका दये दाम। छिगरी को….।
मौराई छट का गीत
बुंदेलखंड में शादी के उपरांत इसी वर्ष में भादों माह की शुक्ल पक्ष की छट को बना एवं बनरी के मोर जल में सिराये जाते हैं जिसमें औरतें ये गीत गाती हैं।
नई रे नतैती निभावनें परहै, निभावनें परहै, चलावनें परहैं। नई नतैती …..।
चार महीना गरमी के आगये, राजा विजनियां डुलावनें परहैं। नई ……।
चार महीना बसकारे के आगये, राजा मड़इया छवावनें परहैं। नई रे….।
चार महीना जड़कारे के आगये, राजा रजइयां भरावनें परहैं। नई रे…..।
बुंदेलखंड में शादी के उपरांत दो कुलों में संबंध स्थापित होता है उसी संबंध का निर्वाह करने का आग्रह इस गीत में प्रकट किया गया है।
जल विहार गीत- (मेला गीतः
बुंदेलखंड में जलविहार का उत्सव भादौं शुक्ल पक्ष एकादशी को होता है इसे बुंदेली में डोल ग्यारस कहते हैं। बुंदेलखंड में झाँसी जिले के अंतर्गत मऊरानीपुर के डोल (विमान) सबसे अच्छे निकलते हैं। कहा भी है ‘‘कजरी सुहानी अरे महुवे की, ओरछा की सावनतीज। डोल ग्यारस नौनी मऊ की है, गोकुल की रंग कीच। इस उत्सव के मेले में दौड़ती हुई युवतियाँ ये गीत गाती हैं।-
चलो चलिये हाट इमलिया की, चलो चलिये।
सौदा सूत मोय कछू नई चानैं, तनक ललक मोउ विछियन की।
सौदा सूत मोय कछू नई चानै, तनक ललक मोय विछियन की। चलो ….।
सौदा सूत मोय कछू नई चानें, तनक ललक मोय कजरन की। चलो….।
क्वाँर मास के गीत
बुंदेलखंड में क्वाँर मास में मामुलिया गीत, हरजू गीत, नौरता गीत, भगतैं, लांगुरिया, दिवाई आदि प्रमुख गीत गाये जाते हैं।
मामुलिया गीत
बुंदेलखंड में छोटी छोटी बालिकायें मामुलिया का खेल खेलकर बड़े ही मनोहर गीत गाती हैं। ‘‘क्वाँर महीने के पहले पखवारे में मामुलिया नामक खेल होता है। मोहल्ले की लड़कियाँ इकट्ठी होकर आँगन लीपतीं और चौक पूरती हैं। उस चौक में बेर, संतरा या नींबू की डाल को लहँगा और ओढ़नी पहनाकर तुलसी या दीवाल से टिका देती हैं। वेर संतरा या नीबू की उस डाल में काँटे होते ही हैं। काँटों में भिन्न-भिन्न रंगों के फूल गूंथ दिये जाते हैं। डाल की छोटी-छोटी शाखाओं से फल, मेवा और कोई न कोई मिठाई लटका देती हैं। इन साजों से सजी वह डाल मामुलिया कहलाती है।’’[1] बालिकाएँ ये गीत गाती हुईं मामुलिया को निकटवर्ती जलाशय में सिरा आती हैं।
ल्याओ चम्पा चमेली के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया।
ले आओ घिया तुरइया के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया।
जहाँ-जहाँ आजुल जू के बाग, तहां मोरी मामुलिया।
आजी रानी देखन गई बाग, सजाओ मोरी मामुलिया।
मामुलिया के आगये लिबउआ, ठुमक चली मोरी मामुलिया।
बालिकाएं मामुलिया को सिराने के उपरांत लौटते समय ये गीत गाती हैं।
चंदा के आस पास, गोउंअन की रास, विटियां खेलें सब सब रात।
चन्दा राम राम लेव, सूरज रामराम लेव, हम घरे चले।
चन्दा राम राम लेव, सूरज राम राम लेव, हम घरै चले।
नौरता गीत
क्वाँर का उजला पखवारा शुरू होते ही लड़कियाँ नौरता खेलने लगती हैं (विशद वर्णन लड़कियों के खेल के गीत अंतर्गत देखिये)। इस समय ये गीत गाती हैं-
ये बाबुल दूरा जुनइया जिन बोइओ, सो को है रखाउन जाय।
ये बेटी तुमई हमारी लाड़ली, सो तुमई रखाउन जात।
ये बाबुल नायँ सें जातन जाड़ों लगत है, मायँ सें आउत घाम।
कै बेटी मोरी मांय लगा देओं इमली, अम्मा, नांय भरा देओं रजइंया।
कै बाबुल नांय सें जातन भूंक लगत है, मांय से आउत प्यास।
कै बेटी नांय से जातन पुरी पका देओं, मांय खुदा देओं बेलाताल। कै…।
कै बाबुल कौना लिख दये घरई के अंगना, किये लिख दये परदेस।
कै बेटी भइया भौजाई खों घरई के अंगना, तुमें लिखे परदेस।
कै बेटी मरे बो नउआ, मरै वो बमना, करम लिखे परदेस।
कै बाबुल न मरे बो बमना, न मरै वो नउआ, करम लिखे परदेस।
कै बाबुल कगदा होंय तो बाचियो, करम ना बांचे जांय।
कै बाबुल कुअला होंय तो पाटिओ, करम ना पाटे जांय।
कै बाबुल धन होय तो बांटियो, करम ना बांटे जांय। कै बाबुल ….।
देवी के भजन या भगतें
बुंदेलखंड में दुर्गा पूजन या जवारों का उत्सव क्वार शुक्ल पक्ष एवं चैत्र शुक्ल पक्ष में होता है। दुर्गा पूजन के प्रथम दिन जवारे बोये जाते हैं इन्हीं जवारों की पूजा दुर्गा की पूजा मानी जाती हैं। ‘‘जवारों की मान्यता भी दुर्गा देवी की ही मान्यता है किंतु अंतर इतना है कि इस जनपद में जवारे काछी, कोरी, ढीमर आदि किसान या मजदूर कहा जाने वाला वर्ग बोता है और ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य आदि अन्य जातियां नौरात्रि में पूजन हवन करती हैं। जवारों में मिट्टी के घड़ों पर जवा (जौ) बोई जाती है इसीलिये इन्हें जवारे कहते हैं। जवारे बोये जाने वाले स्थान पर अखण्ड ज्योति जलाकर सांग या त्रिशूल रखा जाता है। रोज इसी स्थल पर भगतें हुआ करती हैं। नवमी के दिन जवारे जलाशय में सिराये जाते हैं। जवारे निकलने के दिन स्त्रियाँ जवारों के घड़ों को (घटों को) सिर पर रखकर चलती हैं साथ में भगतें गाने वालों की होली रहती है। भाव खेलने वाला घुल्ला शैली लेकर तथा गुनियां नावते सांग- दुर्गा को बानो लेकर चलते हैं। औरतों में से किसी को देवी की सवार (भाव भरना) आ जाती है। गुनिया (ओझा) अपने कानों, गालों या जीभ पर त्रिशूल की नौंक छेद लेता है इसे बाना पहिनना कहते हैं। इसी बाने से गुनियां छोटे-छोटे बच्चों के गाल छेदकर बाना पहनाता है। बाने पहिनने के संबंध में ऐसा लोक विश्वास है कि इससे बच्चे डरपोंक नहीं रहते हैं। भूत प्रेत आदि उन्हें हानि भी नहीं पहुंचा सकते हैं। सांग की नौंक पर नीबू लगा रहता हैं जिससे सांग कीटाणुनाशक हो जाता है। जवारों की हरीतिमा देखकर नई फसल के संबंध में अंदाज लगाया जाता है कि यदि जवारे अच्छे होते हैं तो विश्वास किया जाता है कि आने वाली फसल अच्छी होगी। बुंदेली किसान की इस लोक भावना पर डॉ. वृदावन लाल वर्मा ने कहा भी है ‘‘परंतु जब वह क्वाँर और चैत में जवारे बोकर आगे आने वाली फसल का शगुन निकालता है। तब हजारों वर्ष पहले जो ईजिप्ट, मिसिर, काबुल, फिनीसिया, कार्थेज इत्यादि देशों में होता था, उसकी याद आ जाती है और किसान की व्याकुल वांछा के साथ विज्ञानी का मन भी घुल जाता है’’।इस उत्सव पर गाये जाने वाले गीतों को बुंदेली में भगतें, देवी के भजन, जवारों के गीत कहते हैं। देवी के गीतों को पुरूष ढोलक एवं झांझ बाद्य यंत्रों के साथ गाते हैं और स्त्रियाँ बिना बाद्य यंत्रों की सहायता के ही गाती हैं।
स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले भजन
मड़ बनो अलवेला के माई तोरो। मड़…।
के गज की मइयां नींचें तो डराईं, के गज को विस्तारा। कै माई ….।
नौ गज की मइयां नींचें तो डराईं, दस गज के विस्तारा। कै माई …।
कायको मइयां ईंट गिलारो, काय को डरौ हिड़ोरा। कै माई तोरो …..।
सोने चाँदी को ईंट गिलारो, चंदन को डरो हिड़ौरा। कै माई तोरो….।
कानां के मइयां घवई बुलाये, कानां के कारीगरवा। कै माई …..।
पन्ना के माई घवई बुलाये, दतिया के कारीगरवा। कै माई ….।
को तो चढ़ाये मइयां धुजा नारियल, को जो फूलन के हारा। के माई ….।
मरद चड़ावें मइयां धुजा नारियल, जनीं चड़ावें फूलन के हारा। के भाई …।
प्रस्तुत भजन में औरतें देवी के मंदिर की महत्ता का वर्णन करती हैं। दूसरे भजन में वह आदि शक्ति को शक्ति का वर्णन करती हैं। एक बार माँ समुद्र में स्नान करने के लिये जातीं हैं, उनके स्नान करते समय समुद्र अपनी शक्ति का प्रयोग कर उनके वस्त्रों का हरण कर लेता है। नारी की लज्जा पर तरस खाकर सर्प अपनी कैचुली तन ढकने के लिए दे देता है। देवी माँ समुद्र के वस्त्र लौटाने के लिये कहतीं हैं। समुद्र अहं के कारण वस्त्र लौटाने से इंकार कर देता है। देवी माँ अपनी शक्ति का प्रयोग कर समुद्र को सोख लेती हैं। अंत में समुद्र देवी माँ के समक्ष अपनी भूल स्वीकार करता है और देवी माँ उसे क्षमा कर देती हैं। संक्षेप में गीत का भाव यह है कि सबल निर्वलों पर सदैव अत्याचार करते हैं किंतु अंत में विजय सत्य की होती है और अत्याचारी की पराजय होती है। देखिये-
हो मांय, हात लयें चम्पो की बोदर, घर घर उमग लगायें हो माँ।
सौ सखियाँ आगैं, सवासौ सखियाँ पाछैं, माजैं तो कमल कैसो फूल हो माँ।
हांत लयें गडुआ, बगल लयें धुतिया, केसन चलीं अनाउन हो माँ।
गडुआ धरदये समुद्र ढिग पारन, धुतिया हरी विरछ डार हो माँ।
घाटन घाटन फिरीं जगतारन, कीकी ओट सिर अनायें हो माँ।
उरई कटालो टरिया बुनालो, ओई की ओट अनाओ हो माँ।
बैठी जगतारन कैस अनावे, समुदा ले गओ चीर बुआय हो माँ।
सपर खोर ठांड़ीं जगतारन, का तौ पैर मड़ जाओं हो माँ।
चिटी साँप नें डारी कांचरीं, जैई पेर मड़ जाओ हो माँ।
हँस हँस पूंछे मइया से लंगरवा, चीर किये दे आईं हो माँ।
कै तो दये भीक भिकरियां, कै दै दये बमुन खों दान हो माँ।
ना तो दये बीरा भीक भिकरियांऊ ना बामुन खों करे दान हो माँ।
कोप लहरियां भरे समुन्दा, ले गये चीर बुआये हो माँ।
मउआ सार के छोक बुलालो, समुद लियो उछयाय हो माँ।
पैली चुरू लई बारे सोका (छोका), समुदन हेड़ा मारे हो माँ।
दूजी चूरू लयी बारे सोका, समुद रये अदयाय हो माँ।
तीजी चुरू लयी बारे सोका, मगर मच्छ उतरायें हो माँ।
चौथी चुरू लई बारे सोका, समुद के बीच गिलारो हो माँ।
पाँचई चुरू लई बारे सोका, समुदन गरद उड़ानी हो माँ।
छटई चुरू लई बारे सोका, समुद में आग लगाई हो माँ।
हांत जोर ठांड़ौ भओ समुद्रा, हमपै का अजमाई हो माँ।
मैं तो जानी ती जां कांकी, डुकइया, तै कड़आ है आद भुमानी हो माँ।
वन कजरी की धोती मंगादों, उर दखन के चीर हो माँ।
अन्य गीत
मलिनिया फुलवा लैआओ नदन वन के।
ऊंची ऊंची घटियां, डगर पहार …..।
बीन बीन फुलवा लगाई बड़ी रास, उड़ गये फुलवा, रे गई बास।
यह बुंदेली का देवी भजन गीत अपने आप में अनुपम है। प्रकृति ने अपनी घटियों और डूंगरों पहाड़ों को अपने हाथों से सजा संवार कर फुलवारी लगाई है उसी फुलवारी से मालिन देवताओं पर चढ़ाने के लिए फूल चुनकर लाती है। ऊँचे आदर्शों को महान बलिदान की जरूरत होती है। फूल अपनी कुर्वानी देवताओं के लिए करते हैं इससे मानव को शिक्षा मिलती है। कि उन्हें भी ऊंचे आदर्शों पर कुर्बान होने को तत्पर रहना चाहिए। इस गीत की महत्ता के संबंध में डॉ. वर्मा ने कहा है कि ‘‘जिस समय पुरूष और स्त्रियाँ मृदंग या ढ़ोलकी पर झांझ के साथ गाते हैं तब वे स्वयं तो गाते गाते मस्त हो ही जाते हैं, सुनने वाले भी फुरेरू फुरेरू पाते हैं और झूमने लगते हैं। ….. आंसुओं को रोकने के लिए कठोर प्रयत्न करना पड़ता है। ‘‘बीन बीन फुलवा लगाई बड़ी रास, उड़गये फुलवा रहगई वास’’। कितना प्रत्यक्ष और साथ ही कितना रहस्यमय और संकेत पूर्ण है।’’
इस गीत की अंतिम पंक्ति करूणा उड़ेरकर अंतरात्मा को आर्द बना देती है। डॉ. वृंदावन लाला वर्मा के हृदय में यही आर्द्रता द्रवीभूत होकर विराटा की पद्मिनी उपन्यास की अंतिम पक्ति ‘‘उड़ गये फुलवा, रहगई वास’’ इस बात की द्योतक है कि वर्मा साहब ने इसी पंक्ति के प्रभाव से विराटा की पद्मिनी जैसी भव्य कृति का सृजन किया है। डॉ. साहब ने बुंदेली गीतों की महत्ता को स्वयं स्वीकारा है। ‘‘इस भावना का प्रकट करने वाला ऐसा सुंदर, ऐसा सीधा और इतनी पुकार बाला जन गीत शायद ही संसार की किसी दूसरी भाषा में हो’’।
पुरूषों द्वारा गाये जाने वाले भजन
बुंदेलखंड में पुरूष देवी की भगतों में धमारौ और लंगुरिया अधिक गाते हैं। पमारै गाथान्तरगत देखिये-
भजन
पुरूष देवी के भजन टोली बनाकर ढोलक और झांझ के स्वर में गाते हैं। देखिये- ओली में ललनवां धर चले हो माँ।
कौनां ने लगादये मइया, बेला ओ चमेली, कौनां ने लाल अनार हो माँ।
मलिया लगादये मइया बेला ओ चमेली, सो मालिन लाल अनार हो माँ।
काय कें गोड़ों मइया बैला ओ चमेली, कायेकें लाल अनार हो माँ।
खुरपन गोड़ो मइया बेला ओ चमेली, सो कुदरन लाल अनार हो माँ।
काये के सींचो मइया बैला ओ चमेली, काये कें लाल अनार हो माँ।
गंगाजल सींचौ मइया बैला ओ चमेली, दुदुअन लाल अनार हो माँ।
कैं फूल फूले मइया बैला ओ चमेली, के फूल लाल अनार हो माँ।
नौ फूल फूले मइया बैला ओ चमैली, दस फूल लाल अनार हो माँ।
कौनें चड़ाउं मइया बैला ओ चमैली सोकिनें लाल अनार हो माँ।
दुर्गे चड़ाओ माई बैला ओ चमेली, सो लंगुरे लाल अनार हो माँ।
सिमर सिमर माई तोरो जस गालौं, अरे तोय छोड़ काँ जाओं हो माँ।
ओली में ललनवां धर चले हो माँ।
लंगुरिया या लंगरवा के गीत
बुंदेलखंड में देवी के भजनों में लांगुर का नाम आता है जो देवी के कृपा पात्र सहायक हैं। बुंदेलखंड में जब भी देवी की पूजा होती है उस समय लांगुर की पूजा अवश्य की जाती है। राम की भक्ति में जो स्थान हनुमान जी का है, देवी भगतों में वही स्थान लांगुर का है। बुंदेलखंड में जिस व्यक्ति के सिर देवी आतीं हैं (भाव खेलतीं हैं) उस व्यक्ति को लंगुरा कहा जाता है। बृज लोक साहित्य में भी देवी गीतों के साथ लंगुरिया गीत गाये जाते हैं। ‘‘देवी के गीतों के साथ लंगुरिया अवश्य गाये जाते हैं। ये गीत देवी के लांगुर से संबंध रखते हैं। देवी का यह लांगुर या लांगुरिया विचित्र प्राणी है उससे जाति पूछी जाती है। मइया लंगुरा रे तुम अपनी जाति बताओ तो वह उत्तर देता है- बम्मन के हम बालका, उपजे तुलसी के पेड़’’। कुछ भी हो लांगुर माँ का प्रिय पात्र और उनका आज्ञाकारी सेवक है। माँ के अस्सी कोस स्थित बगीचे की रक्षा करने के लिए लांगुर गुलेल लेकर रखवाली करने जाते हैं। इन्हीं भावों का गीत देखिये-
मां ये री अस्सी कोस लौ माई को बगीचा, कौ रखवारी खां जाय।
लंगुरै बुलालो दैदो गुलेलिया, बेई रखवारी खां जायें हो माँ।
अपने भुवन सें चले मइया लंगुरा, लै चुलियन भर पान हो माँ।
इकबन चाले लांगुर दोबन चाले तिजवन पौंचे जायें हो माँ।
घेर बगीचन फिरे मइया लंगुरा, कोयल बैठी आम की डार हो माँ।
ऐंच गुलेलिया घाली मइया लंगूरे, कोयल डरी मौं भांय हो माँ।
कोयल बोली सुनो बीरा लंगुरे, मैं तो आमन रखवार हो माँ।
मो खों मारो सुये काय ना मारो, जो कुतरत गादर आम हो माँ।
मैं तो कइयत जात बमुनियां, सुअन असल सुनार हो माँ।
सिमर सिमर जस माई तोरो गालों, तोय छांड कहां जाओं हो माँ।
बुंदेलखंड में देवी के आज्ञाकारी सेवक होने के कारण ही लांगुर की पूजा होती है। अन्य गीत में उनकी साज सज्जा का वर्णन मिलता है। देखिये-
तोरे हाल नजर लग जै, बारी लांगुरिया, पीरे रंग पगड़ी जिन बांदौ लांगुरिया ।
तोये मुकुट मंगा दैओं बडे मोल को, बाखों पैर कड़ जाओ लांगुरिया।
तोय कुंडल मंगा देओ बड़े मोल को, उनईं खों पैर कड़ जाओ बारी लांगुरिया।
तोय कठला मंगादेओं बड़े मोल को, बाय पैर कड़ जाओ बारी लांगुरिया।
तोय पीताम्बर मंगादेओं बड़े मोल को, बाय पैर घर जाओ बारी लांगुरिया।
पीरे रंग पगड़ी जिन बांदो लांगुरिया, नई तोय हाल नजर लगजाये लांगुरिया।
रामा दिनरी विलवाई गीत
ये सभी गीत श्रम गीत हैं। ऋतुओं के परिवर्तन के अनुसार बुंदेलखंड में इन गीतों को गाया जाता है। ‘‘रामा दिनरी विलवाई आदि की धुनैं ही अलग अलग होती हैं। गीतों के विषय या गठन में कोई भेद नहीं होता। श्री कृष्णानंद जी का यह कथन अक्षरतः सत्य है क्योंकि रामारे गीत रामारे टेक लगाकर गाया जाता है और बिलवारी अरे हां हो टेक देकर गाई जाती है। दिनरी की लय अलग ही होती है।
हिन्दी साहित्य का बृहद इतिहास सोलहवां भाग- कृष्णानंद गुप्त।
रामारे गीत
रामारे गीत ‘‘क्वाँर में गेहूँ बोते समय गाये जाने वाले ये किसानी गीत हैं जो रामारे या रामा हो की टेक के साथ गाये जाते हैं। इसीलिये इनका नाम रामारे पड़ गया है।[1] रामारे गीत में क्वाँर के समय की बोनी का चित्रण मिलता है क्योंकि इस समय किसान के सामने सबसे बड़ी समस्या बीज प्राप्त करने की होती है। प्रस्तुत गीत में बुंदेली भौजी रसिक देवर से खेती करने का आग्रह बार बार करती है-
अरे रामा हो भौजी जो विरजी बारे देवरा सें, खेती करो रे रूजगार।
अरे रामा हो नइयां हो भौजी हर हरैनियां हो, अरे नइयां जुंआं दोउजोत।
अरे रामा हो हौजे लाला हर हरेनियां हो, अरे होजै जुंआं दोउजोत
अरे रामा हो कायके भौजी हर हरैनियां हो, औ काये के दोउ जोत।
अरे रामा हो खैर बमूर के हर हरैनियां हो, सनकी पगइया दोउ जोत।
अरे रामा हो कानां बांगर भौजी टोरियाओं हो, अरे कांनां डारो जेल
अरे रामा हो असड़ा लाला बांगर टोरियो हो, अरे सावन डारियो जेल।
अरे रामा हो क्वाँर मांस की खादनी हो, अरे हौजे बीजवां खेत।
अरे रामा हो कायके बरदा भौजी हर चलैं हो, अरे जोतों जीसें मारके खेत।
अरे रामा हो हो वन के सिंगा लाला मंगा दो हो, अरे उनसें जोतिओ मार के खेत।
अरे रामा हो वन सिंगा भौजी हर न चलहैं, अरे टोरें जुआं उर जोत।
अरे रामा हो सुरहन गऊ के बछला मंगादो, लाला जोतियो मार के खेत।
अरे रामा हो कायके भौजी नाना करों हो, कायके करौं दोउ जोत।
अरे रामा हो नागिन मार नाना करिओ लाला, अरे जुंआ मार दोउ जोत।
अरे रामा हो बीज जो नइया ई देस में, अेरे नइयां मुलक संसार।
अरे रामा हो भेज दों लाला पाताल खों, मंगवा देओं दोन के बीज।
अरे रामा हो दौन के बीज भौजी बागन ऊपजें, वे तौ घाम लगैं कुमलायें।
अरे रामा हो बीज कइये विजनपुर, भौजी लैन भरन को जाये।
अरे रामा हो बारे से देवरा पाल रे, तुमईं ले आओ भरकें बीज।
अरे रामा हो नइयां री भौजी पाँव पनइयां हो, अरे नइयां अड़िया जोर।
अरे रामा हो होजे लाला पाँव पनइयां, अरे हौजे अड़ियन जोर।
अरे रामा हो नइयां भौजी पाग पिछौरिया, अरे नइयां गठियन दाम।
अरे रामा हो हौजे लाला पाग पिछौरा, हौजे गठियन दाम।
अरे रामा हो के मन जोड़ी लादिओ लाला, कै मन के बाँदो चोखे दाम।
अरे रामा हो नौमन भौजी बोड़ी लादहों, दसमन बांदो दाम।
अरे रामा हो करदै भौजी री कलेउआ, अरे भर में लैआओं री बीज।
अरे रामा हो इकबन चाले लाला दोबन चाले, अरे तिजवन पौंचे हो जायें।
अरे रामा हो खेलत लरकन पूछो हो, अरे कौन विजन की पौर।
अरे रामा हो विजन की बखरी तबईं बताबै, अरे का देओ हमें बतवाई।
अरे रामा हो बटी बटी गुर हम तुमखों देवें, विजन की बखरी बताओ।
अरे रामा हो ऊंची अटरियां, लाल किबरियां, सूरज सामें दौर।
अरे रामा हो विजन जू पौंड़े पलंग पै, बारी विजनी ढोर रई वैर।
अरे रामा हो अरे अरे भइया विजन के, हमें बीज के भाव बताओ।
अरे रामा हो कितने कइये चटबटरा, अरे कितने उरद मसूर।
अरे रामा हो नौसेर कहये चटबटरा, दस सैर उरद मसूर।
अरे रामा हो बोड़ी लाला लाद लईं, अरे चले बैन के देस।
अरे रामा हो इकदिन चाले देवरा दो दिन चाले, पौंचे बैन के देस।
अरे रामा हो एक दिना रओ भइया दूजे दिना रओ भइया, तीजै भौजी पास।
अरे रामा हो हँस हँस पूछे बारी भौजी रे, तैनें काँ लगाये दिन चार।
अरे रामा हो दिन दसक रये भौजी बैन कें, दिना चार रये ससुरार।
अरे रामा हो का आदर करे बैननें, का भये तुमाई ससुरार।
अरे रामा हो दूद भात खुआये बैन ने औ कुदई मठा ससुरार।
अरे रामा हो कातौ दओ तुम बैन खों, का मिलो तोय ससुरार।
अरे रामा हो मौरें दई भौजी बैन खां, अरे रूपइया मिलो ससुरार।
अरे रामा हो हँस हँस पूछे बारी भौजिया, किते लगाये दिन चार।
अरे रामा हो पुतरियाँ देखी भौजी खजराये की, अरे भईं लगाये दिन चार।
प्रस्तुत गीत में खेती की विधि तथा उसके दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं- हार, हरैनियां, जुआं, जोत, बखरनी, बांगर, टोरवो, जैलवो, जौतवो, मार मिट्टी, सन, नाना पगइया, आदि का वर्णन हुआ है। इसके साथ ही खजुराहो की मूर्तियों की महत्ता भी दर्शाई गई है।
कार्तिक मास के गीत
बुंदेलखंड में कार्तिक महीने में औरतें कार्तिक स्नान कर कृष्ण की पूजा करती हैं और पूरे माह तक कार्तिक या कतकिया गीत गाती रहती हैं। देखिये-
सखी री में तो भई न विरज की मोर।
मानां रैती कानां चुनती, कानां करत किलोल। सखी री में तो ….।
बन में रैती, बनफल खाती, बनईं में करती किलोल। सखी री ….।
उड़ उड़ पंख गिरे धरती पे, बीने जुगल किसोर। सखी री ….।
मोर पंखको मुकुट बनाओ, बाँदें नंदकिसोर। सखी री ……।
प्रस्तुत गीत में गोपियाँ मोर बनकर प्रिय का सामीप्य लाभ उसी प्रकार उठाना चाहती हैं जिस प्रकार रसखान ने पशु बनकर उठाना चाहा था। ‘‘जो पशु हों तो कहा बस मेरौ, चरौ नित नन्द की धेनु मँझारन’’। अन्य गीत में कृष्ण गोपियों की राह छेड़कर खड़े हो जाते हैं। गोपियाँ घर पहुँचने में देर होने के भय से उनके बार-बार अनुनय विनय करती हैं कि आज जाने दीजिये कल सुबह दही लेकर आ जाउँगी-
आ जाऊँगी बड़े भोर, दहीरा लैकें आ जाऊंगी बड़े भोर।
ना मानौं मटकी धर राखों, सबरे विरज को मोल।
ना मानो कुड़री धर राखों, मोती जड़े हैं किरोर।
ना मानो चुनरी धर राखों, लिखे हैं पपीहा उर मोर।
ना मानों गहनें धर राखों, बाजूबंद हमेल।
चन्द्र सखी भज बालकृष्ण छवि, छलिया जुगल किशोर।
आजाऊँगी बड़े भोर दहीरा लैकें आजाऊँगी बड़े भोर।
अन्य कार्तिक गीत में स्त्रियाँ भगवान को उनके सत् कर्मों की याद दिलाकर अपनी ओर कृपा की कोर करने की अनुनय विनय करती हैं। देखिये-
दीनानाथ हमारे कब मिलहौ, दीनानाथ हमारे कब मिलहौ।
जैसे मिले प्रभु राधावर खों, रोज मुरलिया सुना हारे।
जैसे मिले प्रभु द्रुपत सुता खों, खैंचत चीर दुसासन हारे।
जैसे मिले प्रभु जनकसुता खों, लंका जीत दसानन मारे।
जैसे मिले प्रभु मीराबाई खों, जहर के प्याले अमरत कर डारे।
जैसे मिले प्रहलाद भगत खों, खम्ब फार हिरनाकुस मारे।
से मिले प्रभु गजराजा खों जलबूड़त उनखों हाल उवारे।
कब मिलहौ दीनानाध हमारे कब मिलहो।
इस प्रकार पूरे माह भर औरतें कार्तिक स्नान कर इस व्रत का उद्यापन पूर्णिमा को कर देती हैं। जलाशय के किनारे निर्मित पूजा घर (घरघूला) का विसर्जन कराने के लिये ये अपने मायके से भाइयों को बुलाती हैं। भाई घरों का विसर्जन कर बहिन को पहिनने के लिए वस्त्र आभूषण देते हैं। बहिनें उनका टीका कर उन्हें मीठे पकवान खिलाती हैं। इन पकबानों में बुंदेली पकवान, खाडू, खपरा, लोल, कुचइया आदि होते हैं।
दिवाई गीत
बुंदेलखंड में कार्तिक की अमावस्या की रात्रि में दीपावली की पूजा होती है। दीपावली की रात्रि के समाप्त होते ही दूसरे दिन गोधन की पूजा होती है। इस पूजा में सैरे नृत्य भी होता है। पशुओं का स्वांग भरने के लिए व्यक्ति मौन धारण कर नाचता है। एक व्यक्ति बरेदी बनकर उन्हें गाँव-गाँव घुमाता है। यही बरेदी बना व्यक्ति दिवाई गीत गाता है। देखिये-
आई दिवाई पाउनी, बड़ बड़ के करौ सतकार रे।
सो चंदन डारौ बेटकाऊ औ दूदा पखारौ दोउ पाँव रे।
धरती खोदत धन मिलै, औ मिन्त मिलै परदेस रे।
सो माता जाओ न मिलै, ढूड़ों चारउ देस रे।
परधन पथरा लेखिओ, पर तिरिया मात समान रे।
जो इतने में हरि ना मिलै, तुलसीदास जबान हो रे।
गोबर के गुबरेलुआ, का जानै फूल की बास रे।
भौंरा की संगत करौ, लग जै जिन्दगी पार रे।
बुंदेलखंड में दिवाई गीतों के अंतर्गत कोई भी दोहा हो ओ और रे ये लगाकर गा दिया जाता है। सभी दिवाई गीत उपदेशात्मक हुआ करते हैं। प्रथम दिवाई गीत में अतिथि सत्कार की महत्ता का वर्णन है कि अतिथि का सत्कार दूध से पाँव पखारकर करना चाहिये। दूसरे गीत में सहोदर भाई की महत्ता दर्शाई गई है कि संसार में सबकुछ मिल सकता है किंतु सगा भाई नहीं मिलता है। तीसरे गीत में कहा गया है कि जो व्यक्ति पराई स्त्री को माँ के समान और पराये धन को पत्थर के समान मानता है उसे भगवान का सामीप्य लाभ हो जाता है। अर्थात् उसके व्यक्तित्व में गरिमा आ जाती है। चौथे दिवाई गीत में सतसंगति की महत्ता वर्णित है सठ सुधरें, सत संगति पाई। गोवर में निवास करने वाला किसान भी सतसंगति से ज्ञानी हो सकता है। अतः कहा जा सकता है कि यह दिवाई गीत जीवन उपयोगी गीत हैं। इनमें वेद वाक्यों की सी महत्ता, कली में फूल, फूल में सुवास की सी छुपी है।
अगहन, पूस, माघ मास के गीत
पौस एवं माघ महीनों को पूस और मांव का महीना कहते हैं। अगहन, पूस एवं माघ महीने के गीत एक से ही होते हैं। बुंदेलखंड में अगहन के महीने में ‘विलवारी’ गीत गाया जाता है। पूस और माघ महीने में ‘टिप्पे, रमटेरा या यात्रा गीत- बाबा के भजन गाये जाते हैं। ये सभी गीत यात्रा के गीतों में आ जाते हैं।
अगहन के गीत
बिलवारी गीत- बुंदेलखंड का विलवारी गीत श्रम गीत है जो फसल या घास काटते समय गाया जाता है। ‘‘विलवारी अगहन में ज्वार काटते समय का गीत है।’’ बुंदेली लोक गीत और राछरा, रामा, विलवारी, दिनरी सभी प्रकृति की गति के अनुसार चलते हैं। जैसे राछरा वर्षा में सुहाना लगता है, बौनी के समय रामारे अच्छा लगता है तो विलवारी गीत घास या ज्वांर काटते समय अपनी विशेष लय के कारण जन-जन के हृदय को विभोर कर देता है। एक विलवारी गीत में- गदराई ज्वांर की भुन्टी को गलगल खा रही है उसी का अनूठा चित्रण इस प्रकार है- देखिये-
अरे हां हो ये गलगलिया धुनक लये खेत, ककाजू बैठी रात गिदुलिया पै।
अरे हां हो ये ककाजू काये के गुथना बने, ये औ काये की बनी गुलेल।
अरे हां हो ये ककाजू रेसम के गुथना बने, ये औ लोहे की बनी गुलेल।
अरे हां हो ये ककाजू कैसे कै गुथना टूट गये, ये कैसेकें गिर गई गुलेल।
अरे हां हो ये ककाजू घालत गुथना टूट गये, धरतन गिरगई गुलेल। ककाजू।
प्रस्तुत विलवारी गीत में बुंदेली नायिका गुथना और गुलेल से फसल खाने वाले हरिओं (सुआ) को उड़ाती रहती है। अन्य विलवारी गीत में पतली कमर वाली लचकीली नायिका का रूप चित्रण मिलता है जिसमें वह पति के परिवार के आदर्शों के अनुरूप चलकर पति का विश्वास प्राप्त कर लेती है।
ये अरे हां हो पतरी सी न जानो राजा मोय, अबै तो लफजैओं तीरधनुइयांसी।
अरे हां हो मोरे रसिया जैसो चलन तुमाई बाई कौ, उसीई चलालो मोय।
अरे हां हो मोरे रसिया जैसो चलन तुमाई भुजाई कौ, उसी ई चलालो मोय।
अरे हां हो मोरे रसिया जैसो चलन तुमाई बहुझन को, उसीई चलालो मोय।
अरे हां हो मोरे रसिया जैसो चलन तुमाई बैनाको, उसी ई चलालो मोय।
अन्य विलवारी गीत में विरहिणी नायिका का चित्रण इस प्रकार हुआ है-
बलमा सें मिलन कब होय रे, चन्द्रमा छिप गओ कारी बदरिया में।
अरे हों हो ससुरा सूरज हो रये, वे तो छिटके हैं चारउ देस।
अरे हां हो सासो जुदइया हो रई, वे तो छुटक रहईं चारउ देस।
अरे हां हो जेठा मेघा होरये, वे तो घनघोरें चारउ देस।
अरे हां हो देवरा बिजली होरये, वे तो चमकैं चारउ देस।
प्रस्तुत विलवारी गीत में बुंदेली नायिका प्रिय से मिलने का बेसब्री से इंतजार करती है कि इंतजार करते-करते सांझ हो जाती है और उसका मिलन नहीं हो पाता है। रात्रि में भी सास, ससुर, जेठ और देवर के कारण वह अपने प्रिय से नहीं मिल पाती है क्योंकि ये सभी रात्रि में जागरण कर व्यवधान पैदा करते हैं। नायिका को परिवार की मर्यादायें सीमातिरेक के कारण भार सी लगने लगती हैं। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति अन्य विलवारी गीत में हुई है क्योंकि मानव की भावनाओं का दमन उसे विद्रोही बनाता है। भावनाओं के कुचलने से तनाव पनपता है। इसीलिये बुंदेली युवती विवश होकर दूसरा तरीका अपना कर किसी को अपनी पिपासा बुझाने के लिए आश्रय देती हैं। देखिये-
अरे हां हो दैहों दैहों कनक उर दार, सिपहिया डेरा करौ मौरी धौंरी में।
अरे हां हो सहेली कानां गये तोरे घरवारे, औ कानां गये राजा जेठ।
अरे हां हो भीतर धरे मोरे घरवारे, और पौंरा डरे मोरे जेठ।
अरे हां हो का तौ लैआवे तोरे घरवारे, और कातौ लैआवे तोरे जेठ।
अरे हां हो लौंगे लैआवै मोरे घरवारे, और लायची लैआवे मोरे जैठ।
नायक नायिका के आग्रह को सुनकर उसके परिवार की स्थिति का पता चलता है और बातों ही बातों में नायिका की प्रिय वस्तुओं को पूंछ लेता है और क्रमशः उन्हें देकर नायिका का हृदय जीत लेता है। नायिका उल्लसित होकर उसके साथ किलोल करने लगती है- देखिये-
अरे हां हो घुघटा पै लिखिओ बारे देवरा, हंसत खेलत दिन जाये।
अरे हां हो कुड़रन लिखिओ बारी ननदिया, अरी गगरी धरे से कुच जाये।
अरे हां हो तिन्नी पै लिखिओ सौतनियां, उठत बैठत दिन जाये।
बुंदेली नायिकायें बड़ी चतुर हैं। सोहरे गीत की नायिका ‘‘घाम घमीले मोरे जोगिया, घामों लेब विलमांय’’ धूप विलमाने के बहाने पाखंडी जोगी को रोक कर उसकी दुर्दशा करती है। उसी प्रकार विलवारी गीत की नायिका भी नायक को झूठा प्रलोभन देकर खूब छकाती है। निराश नायक पुकार उठता है।
अरे हां हो मोरे वसना के खागई, लाली पान, चुनरिया वारी करकर कौल बदल गई।
अरे हां हो कौनां चुनरिया सिलवाई, कौनां नें लगादई लरी गोट।
अरे हां हो कैसे कें चुनरी फट गई, कैसें खिंच गई लरी गोट।
अरे हां हो पैरत चूनरी फट गई, दिल रसिया झटकतन खिंची गोट।
अन्य विलवारी गीत में षोडशी बुंदेली नायिका मायके में रहते-रहते ऊब गई है उसकी उम्र समय रूपी बाजार में लुटती जा रही है। अतः वह अपने अन्तस् की भावनाएँ गीत द्वारा प्रकट करने लगती है।
अरे हां हो मोई सोरा बरस की बैस उमरिया, बिक गई बीच बजरिया में।
अरे हां हो जाय जो कइओ उन राजा सें, अपनी नार की बोलें आकें डांक।
अरे हां हो जाय जो कइओ मोरे ससुरा सें, बहुवन की बोलें डांक।
अरे हां हो जाय जो कइओ मोरे जेठा सें, बहुवन की बोलें डांक।
अरे हां हो जाय जो कइओ मोरे देवरा सें, अपनी भौजी की बोलें डांक।
अरे हां हो जाय जो कइओ मोरे रसिया बलम सें, अपनी नार खों लैजायँ संगे आय।
उमरिया लुट गई बीच बजरिया में।
इतना ही नहीं विलवारी गीतों में रामकृष्ण की कथा का भी वर्णन किया गया है। सीता स्वयंवर के समय का गीत इस प्रकार है-
अरे हां हो सीताजू तुमाये बड़े भाग, सुमर कें डारौ रे रामपै जेमाला।
अरे हां हो काये की रे माला बनी, रामजी काये की बनी सुमेर।
अरे हां हो रामजू सोने की माला बनी, रूपे की बनी सुमेर।
अरे हां हो रामजी कैसे कैं माला टूट गई, कैसे कैं टूटी सुमेर।
अरे हां हो रामजी पैरत माला टूट गई, झटकत टूटी सुमेर।
अन्य विलवारी में कृष्ण कथा का वर्णन है। कृष्ण सोने के तारों से गसी हुई गेंद को लेकर यमुना के किनारे खेल खेलते हैं कि माता यशोदा उनको यमुना के किनारे खेलने से रोकती हैं। देखिये-
अरे हां हो घरै हटकें जसोदा मांय, कुँवर खां खाली दौ पै खेलन जिन जइओ।
अरे हां हो कुँवर की काहे की गेंद बनी, काये गसे गसाव।
अरे हां हो कुँवर की रेसम की गेंद बनी, सुन तारन के गसे गसाव।
अरे हां हो कैसे कें गेदें टूट गई, कैसे कें खिंचे गसाव।
अरे हां हो खेलत गेंदें टूट गई, जल बूड़े में खिंचे गसाव।
माघ के गीत
माघ महीना भारतीय मनीषियों के दृष्टिकोण से अन्य महीनों की अपेक्षा चेतना सचेतक एवं स्वास्थ वर्द्धक होता है। इस महीने में प्रातः स्नान करने का विशेष महत्व है जिससे आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य का शरीर निरोग होता है, कंठ, बुद्धि तथा वाणी में बल आता है क्योंकि प्रकृति का प्रभाव, मानव शरीर और पशु पक्षियों पर एकसा पड़ता है। सावन के आते ही कोयल की कूक बंद हो जाती है कि माघ के शुरू होते ही उसके स्वर में पुनः मधुरिमा घुलने लगती है। जब सूर्य मकर राशि पर आ जाता है उस समय मकरसंक्रांति का पर्व होता है। इस पर्व पर प्रत्येक व्यक्ति विधिवत स्नान कर स्वास्थ लाभ पाता है। इस स्नान को बुंदेली में बुड़की कहते हैं। बुड़की में तिलों का अत्यधिक महत्व है। तिल का उबटन कर स्नान किया जाता है और साथ ही तिलों को मुख, जल और अग्नि में डालकर दान में दिये जाते हैं। स्नान करने के बाद (बुड़की लेने के बाद) तिली और गुड़ का लड्डू खाया जाता है। बुंदेलखंड में बुड़की के अवसर पर मऊरानीपुर, पारीछा, कुण्डेश्वर, जटाशंकर, भीमकुंड और खजुराहो आदि प्रमुख स्थानों पर मेले लगते हैं। ये सभी ऐसे धार्मिक स्थल हैं जहाँ स्नान लाभ के साथ-साथ पुण्य प्राप्ति की आशा मानव को दुहरे लाभ के लिए, दौड़ाये जाती है। इसी यात्रा पर जाते समय श्रमपरिहार हेतु, धार्मिक आस्था प्रकट करने तथा मनोविनोद और रसवृष्टि के लिए श्रृंगारपरक गीत जन समूह द्वारा गाये जाते हैं। इसमें श्रमपरिहार, धार्मिक भावना और श्रृंगार की त्रिवेणी बहती है। ये गीत यात्रा गीत कहलाते हैं। ये तीर्थ यात्रा के गीत माघ में ही गाये जाते हैं।इन्हीं गीतों को भोला के गीतों की संज्ञा दी जाती है। ‘‘भोला के गीत इस प्रान्त में बहुधा तीर्थ यात्रा के समय गाये जाते हैं। इन्हीं गीतों को कहीं कहीं रमटेरा (राम टेरा) कहते हैं अर्थात् ऐसे गीत जिनसे राम का नाम स्मरण करने में सहायता मिलती है। ग्रामीण इन्हीं गीतों को लमटेरा भी कहते हैं। रमटेरा नाम राम का नाम उच्चारण करने से पड़ा है इसकी पुष्टि रामारे गीतों से हो जाती है जिनमें रामारे की टेक का सहारा लिया जाता है (क्वाँर के गीतों में देखिये)। कहीं कहीं इन यात्रा गीतों को टिप्पे कहते हैं। टिप्पे का अर्थ मंजिल होता है। लंबी यात्रा में चार-चार पाँच-पाँच कोस तक इन गीतों के गाने का क्रम चलता है और इन गीतों की धुन में मस्त पुरूष और औरतें, बाल और वृद्ध बच्चों के हाथ पकड़े उन्हें घसीटते, दौड़ते हुए मंजिल की दूरी पूरी कर लेते हैं और उन्हें थकान का अनुभव नहीं हो पाता है। इस तरह से कहा जा सकता है कि रमटेरा या लमटेरा, टिप्पे या भोला के गीत या बाबा के गीत या यात्रा के गीत सब एक ही प्रकार के हैं।
ये पैदल चलने वाले यात्रियों के गीत हैं जब अधिक व्यक्ति एक साथ यात्रा करते हैं उस समय वे टोली बनाकर इन गीतों को गाते हैं। एक टोली में पुरूष और दूसरी में स्त्रियाँ होती हैं। इन गीतों में प्रश्नोत्तर भी चलता जाता है। जब कोई वृद्ध धर्म भावना विभोर होकर कुछ कह जाता है तो वृद्धा धर्ममयी वाणी से वातावरण गीला कर देती है। जब कोई मनचला कुलांच खाकर कुछ अनकहा कह जाता है तो बुंदेली अल्हड़ जवानी गदराई देह वाली युवती भी उत्तर देने से नहीं चूकती है। जब लय से मचलकर युवती की भावनाएं गीतों में अंगड़ाई लेती हैं उस समय यात्रा की दूरी, गरीबी की मजबूरी और अभावों की विवशता कुछ क्षणों के लिए विस्मृत हो जाती है। मानव के शरीर में सिरहन और अड़ियों में (पैरों में) स्फूर्ति आ जाती है। ‘‘इन गीतों में धर्म और श्रृंगार रस की अपूर्व धाराओं का संगम होता है। एक ओर धर्म की जान्हवी वहती है, तो दूसरी ओर श्रृंगार की कालिंदी अपनी सुधा माधुरी से श्रोताओं के मन को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। ये गीत अपनी मिठास और स्फूर्ति से श्रोताओं के हृदय को उल्लासित कर देने की शक्ति रखते हैं। इन्हीं यात्रा गीतों में धर्म और श्रृंगार का भाव मूल खजुराहो के पुनीत मंदिरों की कलाकृतियों सा है जहाँ धर्म की पुनीत गोद में श्रृंगार किलकता है उसी प्रकार धर्म और श्रृंगार इन गीतों में अर्द्धनारीश्वर रूप में निहित है। धर्म पुरूष है, श्रृंगार रसबन्ती नायिका और इन दोनों की गोद में उल्लास किलोल कर सृष्टि के नव्य नूतन निर्माण का संदेश देता है। यात्रा गीत दो प्रकार के होते हैं, एक- एक ही पद का होता है जिसे गायक दुहराकर गाता है। दूसरा दोहे के रूप
धार्मिक प्रकारः
गनेस देव गजरा खों विरजे री, गजरा खों विरजे वे।
तौ ठांड़े मलिनिया की दोर री, गनेस देव हो ओ।
भजन बोलो सिया रघवर के रे, सिया रघवर के रे
भजनईं में लगादो बेड़ा पार हो, भजन बोलो हो ओ।
कुँवर दोई राजा दसरत के रे, राजा दसरत के रे,
वेतौ ऊवे जनक जू की पौर रे, कुँवर दोई हो ओ।
नर्वदा उल्टी तौ बहे रे, उल्टी तो बहे
गंगा जमना बहे सूदी धार रे, नर्वदा हो ओ।
भजन बिना सूनी देहिरा रे, सूनी देहिरा रे,
ब्रह्म में बसालो सीताराम हो, सूरत मोरी तोहि सों लगी हो ओ।
इन गीतों में कहा गया है कि भजन बिना सब संसार असार है अतः हृदय से उस ईश्वर का भजन करना चाहिये। दूसरे प्रकार के सभी धार्मिक गीत दोहे में मोरे प्यारे, मोरे मइया आदि लगाकर यात्रा गीत बनाये गये हैं।
राम नाम सुमरौ नहीं रे, मोरे प्यारे, करो न हरसों हेत।
वे नर ऐंसे जायगे मोरे भइया, ज्यों मूली को खेत रे। भजन करो हो ओ।
राम नाम कहबू करौ रे मोरे प्यारे, जब लौ घट में पिरान।
कबहुंक दीनदयाल के रे मोरे भइया, भनक परेगी कान। भजन करो हो ओ।
इन गीतों में भी चेतावनी दी गई है कि मानव को रात दिन ईश्वर का भजन करते रहना चाहियै। एक दिन अवश्य ही भगवान उनका उपकार कहेंगे।
श्रृंगार परक गीत
बुंदेली यात्रा गीतों में श्रृंगार गीत दो प्रकार के मिलते हैं। पहला प्रकार इस प्रकार है-
बरफी होगये गाल, बरफी हो गये गाल, हो जोवन मगद के लडुआ होगये।
गोरी मईंखां चल, गोरी मईंखां चल, गैरी नरइया, घने मउआ हो ओ।
लहरिया के जाड़े परेरी, जाड़े परेरी, तें मोय छतियां से लगालो महाराज
तनक सी तौ प्यारी लगे रे, प्यारी लगै, कइयां सें उतारी न जाय हो।
इन गीतों में श्रृंगार भावनाएं अपने मौलिक रूप में प्रस्तुत हुई हैं। दूसरे अन्य गीतों में मिलन आकांक्षा और दर्शन आकांक्षा की अभिव्यंजना अन ढंग से हुई है। देखिये-
देहरिया तौ दुरलभ भई रे मोरे प्रभु, अँगना भये विदेस।
माई बाप बेरी भये रे, स्वामी ले चलो अपने देस। लगनतौ लागी हो ओ।
पीसत छोड़े पीसने, रे मोरे प्यारे चुरत चनन की दार।
बारे छोड़े पालने रे मोरे भइया, और कुटुम परवार।
निकर आई दे टटिया हो, स्वामी तोरी कठिन है महूंम, चले चलिओ हो ओ।
प्रश्नोत्तर रूप
यात्रा गीतों में प्रश्न उत्तर रूप भी प्राप्त होता है। ऐ गीत में बुंदेली नायिका कहती है कि आजकल मेरे बालम मुझसे नाराज होकर मेरी काटी हुई सुपाड़ी नहीं खाते हैं। मेरी समझ में उनकी नाराजी का कारण नहीं आ रहा है। अन्य गीत में उत्तर मिल जाता है कि तेरे कान के कच्चे बालम के कान सोतों ने भर दिये हैं जिससे वे तुझसे नाराज हैं। सौतें और कच्चे कान के पिया दोनों ही बुंदेली नायिका के जीवन को दुखदायी हैं। इन्हीं भावों का गीत इस प्रकार है। देखिये-
बलम सें मोरी काहा बिगरी रे, काहा बिगरी रे।
मोरी कतरी सुपारी नें खायें हो ओ।
बलम सें तौ कछू नई बिगरी रे, कछू नई बिगरी रे।
ऊके सौतन नें भरदये कान रे, गोरी धना हो ओ।
स्फुट गीत
यात्रा गीतों में श्रृंगार और हास्य के गीत भी मिलते हैं। विरहणी नायिका आकांक्षा करती है कि-
मिलन खों बइयां फरकें रे, बइयां फरकें रे।
दरस खों तरस रये दोउ नैन रे, बालम मोरे हो ओ।
नायिका के नेत्र आकुल होकर बालम की प्रतीक्षा करते हैं किंतु उनके दर्शन नहीं हो पाते हैं। अन्य नायिका पावस की एक एक बूंद से चिरोरी कर वरसने का आग्रह कर रही है ताकि उसके विदेस जाते हुये बालम एक रात्रि के लिए घर ठहर जायें।
बरस जा दो बुंदियां रे, दो बुदियां रे, मोरे कन्ता घरईं रे जायें। वरस जा हो ओ।
हास्य गीत- बघनियां बागवा व्यानी रे, बगवा व्यानी बातो।
सारे बनियां खों घर घर खाय रे, बनियां हो ओ।
इस गीत में डरपोंक वणिक व्यानी हुई बाघनी से डरता दिखाया गया है। यात्री बढ़ते जाते हैं कि अन्य भाव का गीत नार स्वर में फूट पड़ता है जिसमें विरहणी नायिका अपनी ननद से चिरोरी कर बीरन के आने का दिन पूछती है। देखिये-
सुदिन दिन कब हुइये रे, कब हुइये री।
जब भेंटों ननदिया तोरे बीर हो, सुदिन हो ओ।
ननद बाई सगुन तो धरो रे ये, सगुन धरो रे।
कब आयें तुमाये राजा बीर हो, ननद बाई हो ओ।
इसी समय यात्रियों में से कोई छलिया छैल किसी कजरारी नायिका पर चोट करता हुआ उसके विशाल नेत्रों की महिमा का गीत गा उठता हे।
कजरवा तो थोरो दओ रे, थोरो दओ रे।
तोरे उसईं लगनियां हैं नैन रे, कजरवा हो ओ।
बुंदेली नायिका के नैन कजरारे, कटीले ओर विशाल हैं इसीलिए वह मृगनयनी है। इसका प्रमाण बुंदेलखंड के अमर सपूत डॉ. वर्मा की अमर कृति मृगनयनी है जिसका निर्माण बुंदेलखंड की युवती के सौंदर्य से हुआ है। मृगनयनी की नायिका देह से कंचनमयी और आंखों से मृगलोचनी है। ऐसी ही कुछ कुछ यात्रा गीत की नायिका है। चलते चलते गीतों का भाव वदल जाता है। श्रृंगार से स्त्रियाँ पारिवारिक स्थिति पर आती हैं। बुंदेलखंड की ननद से पीड़ित भाभी अपने दुख को यात्रा गीत में प्रकट करने लगती है। देखिये-
बमुरिया के कांटे न सालेंरी, कांटे न सालें,
जैसे सालें ननदिया के बोल रे, बमुरिया हो ओ।
ननद बाई के बोल कांटों से भी पैने हैं। कांटे तो पैर में ही चुभते हैं किंतु ननदी के बोल सीने को चीर हृदय में गढ़ जाते हैं। इतना गाते गाते यात्री धर्म स्थली पर पहुँच जाते हैं और दर्शनातुर हो पुकार उठते हैं।
दरस की बेरा भई रे, अरे बेरा भई रे।
पट खोलो छबीले भैरों लाल हो, दरस की हो ओ।
फागुन के गीत
बुंदेलखंड में फागुन का महीना मस्ती का महीना होता है। इस महीने में उल्लास का साम्राज्य रहता है जो गीतों द्वारा प्रकट होता है। इस माह के गीत जीवन की मस्ती लिये रहते हैं। जिस प्रकार मानव जीवन में योवन के दिन गौरव के दिन होते हैं उसी प्रकार प्रकृति में ऋतु की यौवन की सोलहवीं साल सा मादक फागुन का महीना होता है क्योंकि इस माह में धरा का पानी आँचल फलों से लद जाता है। उसकी फसल गदरा जाती है जिसकी खुशी वह प्रकृति के माध्यम से व्यक्त करती है। उसी खुशी में मानव उल्लसित होकर भाग लेता है। फसल को निहार कर सामूहिक रूप में उल्लसित हो मदनोत्सव मनाता है। होलिका दहन कर अग्नि प्रज्वलित कर गीत गाता है। अपनी खुशी प्रकट करने के लिए रंग, गुलाल एवं नृत्य का सहारा लेता है। बुंदेलखंड में इस समय गाये जाने वाले गीत फागें कहलाते हैं। फागें गीत ऋतु बसंत के या यों कहिये कि होली उत्सव के गीत हैं। बुंदेली फागों के निम्नांकित मुख्य छः भेद हैं। 1. सखयाऊ या साखी की फागें 2. डफ या डहका की फागें 3. डिडखुरयाऊ (डेड़ पदी), झूला, झूमर या झूलाना की फागें 4. चौकड़िया या टहूका की फागें 5. छन्दयाऊ या लावनी की फागें 6. खड़ी फागें।
फागों का जन्म दिवारी गीतों की तरह दोहों से हुआ है। साखी की फाग कबीर की साखी का ही लय भिन्न गीत है। किसी भी दोहे में कुछ पंक्तियां जोड़कर फाग का निर्माण किया जाता है। देखिये-
अँगना सूके सूकले, सो वन सूके कचनार।
गोरी सूके मायके, सो हीन पुरूष की नार।
हमें सुक नइयां सासरे आये के।
प्रस्तुत फाग में दोहा में ‘‘हमें सुख नइयां सासरे आये के’’ पंक्ति जोड़कर फाग का निर्माण किया गया है। बुंदेलखंड में होलिका दहन होने के बाद ही फागों का जोर शुरू हो जाता है। किसी गाँव की होली जलते ही घपू चमार, मोजुआ धोबी मोजों में आ जाता है। लोहार, खंगार, चमार, कोरी, धोबी, काछी, कुम्हार सब ढोलक, नगड़िया, कसारू और झींका लिये खड़े रहते हैं। उनमें से एक पुरूष औरत बनकर नाचने लगता है और फागें शुरू हो जाती हैं।
साखी की फाग- नई गोरी नये बालमा, नई होरी की झांक।
ऐसी होरी दागिओ, तोरे कुल खों न आबे दाग।
समर कैं यारी करो मोरे बलमा।
बसंत ऋतु के मादक उत्सव पर युवती नायिका अपने बालम से अन्तस् के सब भाव कह देती है कि इसी समय फाग गाने वालों पर रंग की पिचकारी छूट जाती है दूसरी ओर भावों की पिचकारी अन्तस् की प्रसुप्त वृत्तियों को जागृत कर जन जन के मन को मथ देती है कि बुंदेली नायिका पुनः कूक उठती है।
प्रीतम प्रीत लगायकें, बसन दूर नईं जाओ।
बसौ हमार नागरी, सो दरसन दै दै जाओ।
नजर सें टारे टरो नईं मोरे बालमा।
कैसी आकुलता है, बुंदेली नायिका का आग्रह आशापूरित है कि है बालम नजर के सामने से इधर उधर मत जाओ कि छलिया छैल छलकर चला जाता है। नैराश्य दुख से पीड़ित नायिका पपीहा की तरह पीउ पीउ कर पुकार उठती है-
यारी करी दिल जानकें, दे धनमेसुर बी।
इतनी जांगा खोटी करी, छोड़ गयो अधबीच।
छैल रे तोरे भले होनें न।
सूर की गोपियां ‘‘लरकाई को प्रेम कहो अलि के से छूटे- कृष्ण की प्रीत को नहीं भुला पाईं थी। बुंदेली नायिका भी गोपियों से कम नहीं है वह भी प्रेमी की प्रीत विस्मृत नहीं कर पाती है। बुंदेलखंड के अमर गायक ईसुरी की नायिका प्रीत के कारण आंखों से परेशान है। अंखियां जब काहू सें लगतीं, पके खता सीं दगतीं, इसी तरह प्रस्तुत फाग की नायिका पीड़ित है।
पीपर पत्ता चीकनें, दिन चिलकें औ रात।
यारी बालापनें की, खटकत है दिनरात।
लगी कों कैसें विसारें मोरे बालमा।
धार्मिक भावों की फागों में कहा गया है कि मानस देह प्राप्त कर ईश्वर भजन करना चाहिए अन्यथा जीवन बेकार हो जाता है। देखिये-
हर घोड़ा ब्रह्मा खुरी, औ बासुक जीन पलान।
चन्दा सूरज पाखुर भये, चढ़ भये चतुर सुजान।
भजन बिन देइया सुलभ नईं होनें रे।
अन्य फाग में पारिवारिक जीवन का यथार्थ चित्रण मिलता है। बुंदेली किसान रात दिन कठिन श्रम करता है इसके बाद भी फसल की उत्पत्ति से लगान तक नहीं चुका पाता है। इन्हीं अभावों से पीड़ित होकर बुंदेली नायिका कहती है कि मेरे बैल और गले का आभूषण (खंगोरिया) कर्ज के व्याज देने में चले गये हैं। इसके बाद भी मूलधन शेष है। उसके बदले में वह अपने पैरों के गहने (पैजना) गिरवी रख देती है। गीत की नायिका प्रेमचन्द के उपन्यास ‘‘गोदान’’ की धनियां की याद दिला जाती है। देखिये-
गोऊं हते सो उड़ गये, भुस ले गई अधवार।
त्याई में टलवा गये, ब्याज गये खंगवार।
हमारे बाकी में लिखा दे पैजना।
अन्य फाग में गीतकार इतिहास के पृष्ठ पलटने लगता है। वह बुंदेलखंड के क्षेत्रों की महत्ता ये कहकर दर्शाता है कि दतिया में अच्छे हाथी और पन्ना में हीरा जवाहरात मिलते हैं तो टीकमगढ़ में रणवांकुरे पैदा होते हैं जिनकी तलवार के समक्ष दुश्मन कभी भी ठहर नहीं पाता है। देखिये-
दतिया में हतिया पजैं, औ पन्ना में हीरा जवार।
टीमकगढ़ सूरा पजैं रे, जिनकी बैंड़ी बहे तरवार।
दुश्मन पास कबहुं नईं आबै हो, हो ओ।
इसके उपरांत नर्तकी अन्य श्रृंगार परक फाग को गाकर वातावरण को सरस बना देती है। देखिये-
उठो पिया अब भोर भये, चकई बोल गई ताल।
मुख विरियां फीकी परीं, सियरी मौतिन माल।
पिया उठ जागो कमल विगस गये।
डफ की फाग या डहका की फाग
ढप या ढपली या डहका वाद्य यंत्रों के साथ गाये जाने के कारण ये गीत ढप की फागें कहलाते हैं। ढप बाद्य यंत्र चंग के आकार के होते हैं किंतु ये सब लोक निर्मित साधारण होते हैं विशेष साज सज्जायुक्त नहीं। ढप की फाग का उदाहरण देखिये-
कहां हरे पाट के फूंदाना, मनमोहना, कहां धराउं तोय पिया अडुघोलाना।
गंगाजी की रेत में लम्बे लगे बजार, पिया अडुघोलाना। हरे पाट के ….।
इक गोरी इक सांवरी, दोउ बजारे जायें, पिया अडुघोलना।
कौना विसा लये काजरवा, कौना बिसालये पान। पिया अडुघोलना।
गोरी बिसालये काजरवा, राधे बिसालये पान। पिया अडुघोलाना। हरे ….।
किनके ढर गये काजरवा मनमोहना, किने रचगये पान, पिया अडुघोलना।
गौरी के ढुर गये काजरवा, राधे के रच गये पान। पिया अडुघोलाना। हरे….।
प्रस्तुत ढप फाग में बुंदेली नायिकाएं
श्यामली और गौरांगना दोनों के हृदय की काजर एवं पान खरीदने की इच्छाओं का वर्णन मिलता है। उन्हें खरीदने के लिये वे वाजार जाती हैं जहाँ उनका मन हरे फूंदनां वाले बटुओं के लिए ललचा जाता है। इन्हें प्राप्त करने के लिए वे किसी रसिक नायक की खोज करने लगती हैं क्योंकि बुंदेलखंड में ‘‘बटुआ देने’’ का विशेष दस्तूर होता है जिसे बुंदेली पति अपनी स्त्री को लोंग, सुपाड़ी युक्त बटुआ, सुहाग रात में देता है। इसी रस प्राप्ति के लिए वे बटुओं की आकांक्षा करती हैं। भाव साम्य के लिए अन्य रसिया गीत भी प्रस्तुत किया जा सकता है ‘‘चलो चलिये हाट इमलया की, लेनें देनें मोय कछु नइयां, तनक ललक मिलवे रसिया की। चलो चलिये हाट इमलिया की।
डिड़खुरयाई फाग
बुंदेलखंड में डिड़खुरयाई फाग को स्थान भिन्नता के कारण इसे डेढ़ पदी, झूला, झूमर, झूलना की फाग कहते हैं। बुंदेलखंड में जिला टीकमगढ़ के अंतर्गत उबौरा ग्राम में इस फाग को घंटों झूम झूम कर गाया जाता है। अतः इसे झूला की फाग कहते हैं। डिड़खुरयाई फाग डेढ़ पद की होने के कारण डिड़खुरयाई कहलाती है। इस फाग में केवल एक पंक्ति रहती है उसी को टोर टोर कर तथा जोड़कर अनेक बार गाया जाता है जिससे यह डेढ़ पद की बन जाती है। देखिये-
जुर आये सखिन के झुंड, कन्हैया झूमर खेलें राधा सें।
अरे हो कन्हैया झूमर खेलैं राधा सें।
स्यामलिया तमुआ तान, अटा पै कारे बादर हो आये।
अरे हों अटा पै कारे बादर हो आये।|
मन मोहन उदक ना जायें हमारे, धीरे झुला देव पालना।
अरे हां हो हमारे धीरें झुला देव पालना।
व्याहन आये राजा राम जनकपुर, हरे बांस मंडप छाये।
अरे हां हो जनकपुर, हरे बांस मंडप छाये।
चाये कछू हो जाये उमर भर, मोरी निभाओने बालमा।
अरे मोरी निभाओनें बालमा।
चौकड़िया टहूके की फाग
बुंदेलखंड में गाये जाने वाली फागों की किस्मों में से एक किस्म चौकड़िया फाग की भी है। स्थान भिन्नता के कारण कहीं कहीं इसे टहूके की फाग भी कहते हैं। चार कड़ी की होने के कारण इसे चौकड़िया कहते हैं। बुंदेली के विद्यापति ‘‘ईसुरी’’ इस छंद के या फाग के जनक हैं। इनकी फागों में चार कड़ी के अतिरिक्त कहीं कहीं पाँच कड़ियां भी मिलती हैं। चौकड़िया फाग नरेन्द्र छंद में लिखी होती है जो भारतीय संगीत की रीढ़ है। बुंदेलखंड में ईसुरी, गंगाधर व्यास, ख्याली, खूबचन्द आदि कवियों की चौकड़ियां बहुत प्रसिद्ध हैं। ईसुरी की चौकड़ियों की गरिमा अन्यतम है। देखिये-
ईसुरी-
बखरी रइयत हैं भारे की, दई पिया प्यारे की।
कच्ची भींत उठी मांटी की, छाई फूस चारे की।
वे बन्देज बड़ी बेबाड़ा, जी में दस दुआरे की।
किबार किबरियां एकउ नइयां, बिना कुची तारे की।
ईसुर चाये निकारो जिदना, हमें कौन उवारे की।
प्रस्तुत चौकड़िया में ईसुरी ने शरीर का रूपक किराये के मकान से बाँधा है। अन्य फाग में गंगाधर की बुंदेली नायिका के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए उसके बूंदा (बिंदी) की महत्ता दर्शाते हैं। बुंदेली नायक नायिका के बूंदा को निहारकर विमोहित हो जाता है। देखिये-
बूंदा दयें बेंदी के नैचें, पिरान लेत है खेंचे।
नैचें आड़ लगी सेंदुर की, दमकत मोंय दुबीचें।
गुड़ीं तीन माथे पै परतीं, बैठे दाव रगीचे।
कंह गंगाधर जीदन बीदी, पल भर पलक न मीचे।
ख्याली-
तोई वेइन्साफी आंसी, सुनौ राधिका सांसी।
कायम करी रूप रियासत में, अदा अदालत खासी।
सैनन के सम्मन कटवाये, चितवन के चपरासी।
कब ख्याली वेगुना लगादई, दफा तीन सौ व्यासी।
प्रस्तुत गीत में राजाशाही न्याय व्यवस्था के माध्यम से राधाजी के बेइन्साफ का वर्णन ख्याली जी ने अनूठे ढंग से किया है। राधा अपने सौन्दर्य के अनेक आकर्षणों से नायक को अपने वशीभूत कर लेती हैं। कृष्ण चाहते हुए भी उन्हें विस्मृत नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार खूब चन्द जी स्पर्श सुख की महिमा अन्य गीत में करते हैं। रसखान ने पशु होने पर कृष्ण की गाय बनने की आकांक्षा प्रकट की थी। खूब चन्द जी का नायक स्पर्श सुख पाने के लिए, नायिका के पास रहने के लिए आभूषण बनने की चाह प्रकट करता है। ईसुरी के नायक ने भी ऐसे ही भाव प्रकट किये हैं-
सांकर कन्न फूल की होते, गालन ऊपर सोते।
खूबचन्द-
मोंती धनून तोव मुख चूमत, रहत कमोलन झूमत।
दे ठोकर ठोड़ी के ऊपर, ठसक भरो नित घूमत।
बेसर बीच बास तैं पाओ, चलत हलत दै लूमत।
खूबचन्द तेंही बड़भागी, मुख पै करत हुकूमत।
छन्दयाऊ या लावनी की फाग
छन्दयाउ या लावनी की फागों में पहले टेक फिर लावनी छन्द इसके बाद दोहा छंद रख दिया जाता है। इसके बीच छंदोपरांत उड़ान रखी जाती है फिर पुनः टेक चलती रहती है। यही कारण है कि छन्द और लावनी मिश्रित होने के कारण इसे छन्दयाउ या लावनी की फाग कहते हैं। देखिये-
टेक- मुरली अधर तान धर गाई, रही सकल जग छाई।
छन्द- श्रीनन्दलाल ने जे किया ख्याल, कर रहे निहाल, गाते तानें।
झट चली नार जै लाज टार, तज दये सिंगार हर के लानैं।
उड़ान- दीन्हें रहस रचाई लाल।
टेक- हरसीं सकल सरद निस लखकें, धेई धेई करत कनाई।
छन्द- ललता खों हेर, कहि राधा टेर, है सखी देर, जे अलसियानी।
हरलई जान, इन करी सान, नाखं दिखान, अन्तरध्यानी।
ड़ान- टेरत हाहा खाई लाल।
टेक- छन्मुखी आसा दरसन की, दीजे दरस दिखाई।
छन्द- दये दरस कान, आनन्द की खान, लये रहस ठान, श्री गिरधारी।
निज दासी जान, रत दई आन, आनन्दविधान, जनहितकारी।
उड़ान- सोजा लीला दरसाई लाल।
खड़ी फागें
बुंदेली चौकड़ियां नरेन्द्र छन्द में लिखी जाती हैं। इस छन्द में 28 मात्राएं तथा 16, 12 मात्राओं पर यति होती है। जब इस छन्द में 28 मात्राओं की जगह 30 मात्राएं तथा 16, 14 पर यति हो जाती है तब ये खड़ी फाग बन जाती हे। इस खड़ी फाग को बुंदेलखंड में सभी जगह गाया जाता है। उदाहरण देखिये-
दिन ललित बसंती आन लगे, हरे पत्र पियरान लगे।
घटन लगी सजनी अब रजनी, रवि के रथ ठहरान लगे।
उड़न लगे चहुं ओर पताका, मारूत मन फहरान लगे।
ऐसे में गंगाधर मोहन, कौन सोत के कान लगे।
टिप्पे की फाग
ऊँचे स्वर में पंक्तियों को दुहरा दुहरा कर गाये जाने वाली फागों को टिप्पे की फागें कहते हैं। मानव जब अपने उल्लास को मिल बाँटकर प्रकट करना चाहता है उस समय टिप्पे की फागों का जन्म होता है। अतः कहा जा सकता है कि टिप्पे की फागें मन के उल्लास की अभिव्यक्ति हैं।
तेरे दहिया के कारण, तेरे दहिया के कारण रे।
भये कन्हैया चोर गूजरी, तेरे दहिया के हो ओ।
बरसानें सें चली गूजरी, तेरे दहिया के हो ओ।
फिर संग सखियन की टोली रे, फिर संग। भये…..।
रसिया
बुंदेलखंड में फागुन माह में- होली के अवसर पर रसिया गीत गाये जाते हैं। बृज में जिसे रसिया कहते हैं बुंदेलखंड में वही होली गीत कहलाते हैं। रसिया का अर्थ रसिक गीत है। यदि बृज के रसियों में माखन मिश्री का मिठास है तो बुंदेली रसियों या होली गीतों में महुओं का रस तथा मधु के छत्ते का शहद भरा है ‘‘रसिया जो बुंदेलखंड में होली के नाम से अधिक विख्यात है। झांझ और ढोलक के साथ गाया जाता है। यह एक गीत अत्यन्त प्रसिद्ध है।
रामलला गोविन्दलला, जा होरी खेलें रामलला।
राम लखन उर भरत सत्रुधन, ये चारउ भइया करें हला। जा होरी …..।
कंचन की पिचकारी भर भर, मारैं भदइयां धरें झला। जा होरी …..।
लेद की फाग
बुंदेलखंड में लेद की गायकी की फाग गाई जाती है। इस गायकी के संबंध में श्री श्यामसुंदर बादल जी इसे बृज फाग स्वीकारते हैं और लेदफाग को डिडखुरयाऊ फाग के अंतर्गत रखते हैं। ‘‘जिसे बृजवासी फाग लेद या झूला की आदि कई नामों से अभिहित करते हैं।
ढुड़वा लिओ राजा अमान, हमाई बेंदी गिर गई।
अरे हो, हमाई बेंदी गिर गई। ढुढ़वा लिओ राजा अमान।
लेद की गायकी के संबंध में डॉ. वर्मा का कथन है ‘‘इन दिनों बुंदेलखंड में लेद की गायकी में बहुत गीत गाये जाते हैं। ताल दादरे का रहता है …. लेद की परिपाटी बुंदेलखंड की परिमार्जित संगीत गायकी की एक बड़ी विशेषता है। लेद अधिकतर ईमन कल्याण राग में गाई जाती है परंतु पीलू, दरवारी और सिंदूरा रागों में खूब गाई जाती है और फबती हैं।आजकल बुंदेलखंड में लेद और झूला की फाग का अत्यधिक प्रचलन है इसमें मानव मन को शनैः शनैः मस्त बनाने की क्षमता है। प्रत्येक श्रोता को लय झूम-झूम कर झूमने को मजबूर कर देती है। देखिये-
मैंने दूरई सें लयें पैंचान, ननदिया आवैं डगर सें दो जनैं।
आगे के नन्देउआ, पीछे के बीरन तुमार। डगर में दो जनैं। ननदिया….।
राई गीतः
बुंदेलखंड के प्रसिद्ध नृत्य राई के साथ जो गीत गाये जाते हैं उन्हें राई गीत कहते हें। इन गीतों को गाने वाले टोली बनाकर के गाते हैं। नर्तकी (बेड़नी) गीत की प्रथम पंक्ति को कई बार दुहराकर गाती है।
ढुर लगे असाड़, खबर नें लई हर मोरी।
दादुर बोले पपीरा, मचवन बोली मोर।
स्याम स्याम कह टेरिओ, चित है मोरी ओर। खबर नें लई …।
ऊधौ जइओ दुआरका हरसों कइओं समझाय।
खाकें जहर विस मरहों, परहै पीछू पछताय। खबर नें लई हर मोरी।
इसके अतिरिक्त राई गीतों में श्रृंगारपरक गीत भी मिलते हैं। यही कारण है कि श्रोताओं को ये गीत मंत्र मुग्ध कर देते हैं।
औरतों की फागें
बुंदेलखंड में फाग के मस्त मौसम में औरतें पुरूषों से पीछे नहीं रहतीं हैं वे ढोलक की थाप पर चौकड़याऊ फाग को अपनी विशेष लय में गाने लगती हैं। औरतों की फाग में पुरूषों की फाग से लय में भिन्नता रहती है। वे एक पंक्ति की कई बार पुनरावृत्ति करती हैं।
अरी आज दिखाने नइयां, ओजू आज दिखाने नइयां।
अरे कां गये मिन्त मिलनियां ओजू, आज दिखाने नइयां लाल।
बारा गज को सुआपा बादें, घुटरनदार परदनियां, ओजू आज …।
लम्बो लम्बो कुरता पैरें, ओजू गरदन बीच ढुलनिया लाल। आज….।
हांतन में वे घौंटा लयें ते, पांवन में झब्बूदार पनइयां लाल। आज ….।
प्रस्तुत गीत में बुंदेली नारी के प्रेमी की बुंदेली वेशभूषा का अद्वितीय चित्रण हुआ है। अन्य गीत में बुंदेली नायिका राहगीर को सामीप्य लाभ हेतु विलमाना चाहती है। इस गीत में नारी की समर्पण की भावना मुखरित हो उठी है। देखिये-
अरे जिन जाओ विदेसी दिन थौरो, अरी दिन थोरो री दिन थोरो।
दिन थोरो कछु मन मोरो। जिन जाओ विदेसी दिन थोरो।
घुल्ला पै तुम पाग टांग दो, अरी पाग टांग दो, सो पाग टांग दो।
उर दुआरे बांद दो जौ घोरो, जिन जाओ विदेसी दिन थोरो।
ठंड़े से पानी गरम घर लैआई। सो गरम कर लैआई।
ओई सें तो तुम सपरौ खोरो, जिन जाओ विदेसी दिन थोरो।
रंगमहल में सेज विछी है, सो सेज विछी है, पौड़ो उतै।
पौड़ौ उतै जौलो उतार आओं में जोरो, जिन जाओ विदेसी दिन ….।
बुंदेलखंड में पारी टोरने के उत्सव पर भी फागें और रसिया गीत गाये जाते हैं। इन्हें औरत पुरूष होली खेलते समय भी गाते हैं।
चैत मास के गीत
प्रकृति में ऋतु परिवर्तन प्रति क्षण होता रहता है। इस ऋतु परिवर्तन का प्रभाव बुंदेली लोक गीतों में स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। चैत मास के प्रारंभ होते ही फागों की जगह दिनरी के बोल गूंजने लगते हैं। देखिये-
अरे अरे मनुआ ओ रे करले सबसों चिनार।
काल कलां पंछी रम जैहै, तेरे ऊपर जमैं नईं घास।
खाले, पीले, देले, लैलै, करले भोग विलास।
सबकाऊ सें हिल्ले मिल्ले, करले तीरथ पिराग।
मटिया कुमरा ना लैहै तेरी, पूछे न कोऊ बात।
अरे मनुआ ओ रे, करले सबसें चिनार।
चैत के समय दिनरी के अलावा, ग्रामों में घूमते समय मुझे विलवाई, रामारे गीत भी सुनाई दिये हैं। ‘‘चैता के चरेरे री घाम, मताई मोरी कायेके उड़ना कर लौ’’। इस गीत में चैत की गर्मीं का उल्लेख मिलता है। ग्रामीण औरतें इस गीत को विलवाई और दिनरी दोनों तर्जों में गाती हैं। कुछ भी हो चैत की गर्मी का चित्रण होने के कारण ये गीत चैत के महीने का ही है। चैत के महीने में चैती गीत भी गाया जाता है ‘‘चैत में एक गायकी होती है जो चैती कहलाती है।[2] एक विधवा चेती गीत में विलाप करती है जिसका दुख और विलाप आधुनिक कवि निराला और पंत की विधवाओं से अधिक प्रभावित करने वाला है। देखिये-
तिरिया जनम जिन दइओ मोरे रामा, सो रामा मोरी को जो लगाये नइया पार।
चुरियां अमर री होन ना पाईं, छूटे ना हरदी के दाग।
नैनन कजरा छूट न पाओ, मुरकी न विंदिया की धार।
सो रामा मोरी काजो लगाये नइया पार।
चार खूंट वाके दिलया जरत है, पिया विन जग अंधियार।
जबारों के गीत
क्वाँर महीने की तरह चैत में भी जबारे बोये जाते हैं। इस समय का एक देवी भजन देखिये-
कौननें पाले मइया हरियल सुअना, कौननें पपीहा उर मोर।
बादर गरजैं घनघोर, बिजरी चमकैं चहुं ओर।
माई जैठा तपै भारई, बोलिओ हो मांय।
दुदुआ पियें माई के हरियल सुअनां, मुतियां चुनैं पपीहा मोर।
तीतुर बोलैं बड़े मोर। रामईं राम पंछी भजैं, भाई जेठा तपै भाराई,
मेहा बरसैं वड़ी जोर, बादर करैं कलोल।
बैसाख माह के गीत
बुंदेलखंड में वैसाख शुक्ल तीज को अक्षय तृतीया के दिन अकती का त्यौहार मनाया जाता है। इस त्यौहार में पाँच मिट्टी के बड़े पात्र (घैला), दो छोटे पात्र (करवा), पाँच इनसे छोटे आकार के और पात्रों (डबुलियों) में जल भरा जाता है। इस जल में चने की दाल (देउल) डालकर सभी पात्रों को सूत लपेटा जाता है। शाम के समय बिटियां चने की दाल तथा सौन (जो छैवले की पत्ती को सुखाकर बनाया जाता है) लेकर वट वृक्ष पूजने जाती हैं। वहाँ पर वे वट वृक्ष पूजने के उपरांत (विवाहिता) अपने पतियों का नाम बतलाती हैं। वहाँ से पूजन करने के बाद लौटते समय भाइयों को सौन बांटती हैं तथा ये गीत गाती हैं-
बर तरैं कै-से के जाओं री, माई मोरे मेले लुवउआ।
अरी अक्ती खेलन कैसें जाओं री, माई मोरे मेले लुवउआ।
पैले लुबउआ मोरे ससुरा जो आये, उनके संगे न जाओं री। बर तरें ….।
दूजै लुवउआ जेठा जो आये, उनके संगें न जाओं री। बर तरें …।
जेठा ससुरा के संगे जो जैओं, घूंघट करत मर जाओं री। बर तरें….।
तीजै लुवउआ देवरा जो आये, उनके संगे न जाओं री। बर तरें….।
चौथे लुवउआ नन्दोइया जो आये, इनके संगे न जाओं री। बर तरें …..।
इनन के संगे जो कऊं जेओं, काँलौं मरयादा निबाओं री। बर तरें ….।
पाँचे लिवउआ जो राजाजू आये, हँसत हँसत चली जाओं री। बर तरें ….।
जेठ माह के गीत- बुंदेलखंड में जेठ के महीने में शादियां अधिक होने के कारण बनरा, बनरी गीत गाये जाते हैं। बुंदेली किसान इस माह में फसल से गेहूँ प्राप्त कर लेता है। इसीलिए इस माह में अक्सर शादियां होती हैं। शादी संबंधी गीत इस प्रकार हैं-
वे भले जिननें कही, राजा दसरत बहू लिवाय घर आये।
जा भली सगुन चिरइया, जे भले सगुन मनाये।
आगे हैं सूप पिटारे पीछें, साजनजू की सवारी।
मचकत आबै पलकिया कूँदत आबैं कहार।
प्रस्तुत गीत में दुलहन की महत्ता दर्शाई गई है। दुलहन के घर में आते ही खुशियों का मेला लग जाता है। नई दुलहन चतुर है इसलिये अपने प्रिय को रिझाने के लिए अनेक कार्य तत्परता से सम्पन्न करती है। उसने प्रत्येक क्रिया कलाप पर, उसे चिढाने के लिए चिड़िया चहचहा उठती है। मानों वह अपनी बोली द्वारा दुलहन का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहती है। दुलहन को यह सब अच्छा नहीं लगता है। उसके प्रत्येक कार्य पर चिड़िया की बोली उसकी हँसी उड़ाती दिखाई देती है क्योंकि यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि इन रहस्य और रस के क्षणों में किसी प्रकार का व्यवधान नारी को बेचैन कर शंकातुर कर देता है। नारी इसी समय अपरिचित से परिचित हो द्वैत से अद्वैत होती है। ऐसे समय में भाभी की ननद या सखियाँ या देवरानी और जिठानी हँसी उड़ातीं ही हैं। इस बधू के साथ ननद का काम चिड़िया करती है। इसीसे दुलहन बार-बार कहती है कि ‘‘फिर बोली चिरइया फिर बोली काय बोली’’ … और चिड़िया ठहरी बुंदेली रसिक चिरइया जो उसकी प्रेममयी क्रिया प्रक्रिया पर टोक टोक कर हूँ-हूँ बोल कर विनोद भरा भाव व्यक्त करती है। इन्हीं भावों भरा गीत देखिये-
काहे बोली रे कैसें बोली, भुन्सारें चिरइया कैसें बोली।
चिरइया काहे बोली, काहे बोली रे, बड़े तड़कें काहे बोली।
ठंडो रे पानी गरम कर लैआई, सपरन न पाये पिया फिर बोली।
ताती जलेवी दूदा के लडुआ, जेवन न पाये पिया फिर बोली।
झंझन झाड़ी भरो ठंडौ रे पानी, पियन न पाये पिया फिर बोली।
रंग महल में चौपर रे डारी, खेलन न पाये पिया फिर बोली।
चुन चुन कलियां सेजा विछाईं, सोवन न पाये पिया फिर बोली।
बुंदेली दुलहन बहुत ही रसिक युवती है उसे पिया भी बुंदेली रसिकता पूर्ण छैल छवीले छैला मिल गये हैं इसीलिए दुलहन एक रसिया गीत गाकर चिरइया को ही नहीं अन्य औरतों को अपने पिया निराने लगती है। देखिये-
रसिया आये गरद उड़ी गोरी, जब मोरे रसिया मेड़े पै आये,
सूखी दूबा हरयानी गोरी।
जब मोरे रसिया सूका में आये, रीते कुआँ भर आये गोरी।
जब मोरे रसिया दुआरे पै आये, मुतियन चौक पुराये गोरी।
जब मोरे रसिया बखरी में आये, सोने कलस धराये गोरी।
इस माह में सैरे भी सुनाई पड़ने लगते हैं। बुंदेली नायिका सैज पर अपने पिया के साथ लेटी हुई है वह लेटे लेटे चन्द्रमा से अनुनय विनय करती है कि तुम अपनी ज्योत्स्ना आज मत फैलाना वरना मेरे पति सेज सूनी करके कहीं चले जायेंगे। देखिये-
छिटक चुनइया निरमल जिन हुइओ, जिन मोरी वैरन होय।
पिया पसर के वरदा ढीलें, नईं तो सैज सिजरिया सूनी होय।
इस तरह से बुंदेलखंड में प्रत्येक ऋतु में ऋतुपरक गीत गाये जाते हैं। इन गीतों की लय भिन्न होती है किंतु भाव एक ही होता है। बुंदेलखंड में कुछ ऐसे गीत भी गाये जाते हैं जिनमें बारह महीनों का वर्णन होता है। इन्हें बारामासी गीत कहते हैं। एक गीत देखिये-
चैत चिते चहुँओर रही में हारी, वैसाख लगी न आँख विना गिरधारी।
जैठ चलै अत पवन गरम अधिकारी, असड़ा में बोली मोर सोर भओ भारी।सावन में वरसै मैह जिमीं हरयानी, भादौं की रात डराउन, झुकी अंधियारी।
कातिक में आये न स्याम सोच भओ भारी, अघन में भओ अंदेस मोय दुख भारी।
पूस में परत तुसार भींज गई सारी, फागुन में पूरन काम भये सुखभारी।
प्रस्तुत बारामासी गीत में नायिका नायक के अभाव में ग्यारह महीने व्याकुल रहती है किंतु बारहवें महीने में उसे सामीप्य लाभ प्राप्त हो जाता है। अन्य बारहमासा गीत की नायिका बारह महीने ही विरहणी रहती है। प्रत्येक महीने की प्रभावोत्पादकता उसके हृदय को विरहातुर कर पीड़ित करती रहती है। देखिये-
कन्हैया बिना कौन हरै मोरी पीरा।
असाड़ मास घन गरजन लागे, सहुना गगन गंभीरा।
भादौं में नम बिजली चमक, जौ मन धरत न धीरा।
क्वाँर मास की छुटक चांदनी, कातिक निर्मल नीरा।
अघन मास में बोनी हुइये, जौ तन धरत न धीरा।
पूस मास में ठंड जो व्यापै, भाव में हलत सरीरा।
फागुन में हर होरी खेलें, कौन पै छिटकें नीरा।
चैत मास बन टेसू फूलें, बैसाखें रनधीरा।
जैठमास की खरी दुपरिया, व्याकुल होत सरीरा।
प्रस्तुत वारामासी गीत में प्रकृति सुषमा का अनूठा चित्रण हुआ है। इस सुषमा का प्रभाव विरहणी के हृदय को सालता रहता है। इन्हीं भावों का बारहमासा गीत अवधी में भी प्राप्त होता है। देखिये-
लगत असाड़ घमाघम बरसै, रिमझिम वरसै सावनवा ना
भादौं मास चमाचम चमके, हरि के देखो सपनवा ना।
क्वाँर मास बन कांस फुलानी, कातिक खरे दिपकवा ना।
अगहन मास हमें नहिं भावे, सब सखि चले गवनवा ना।
पूस मास मोहि ठंड सतावै, थरथर कापै करैजवा ना।
फागुन फाग कैकरे संग खेलूं, केहि पर डारौं अविरवा ना।
चैत मास बन टेसू फुलानी, वैसखवा माँ लिखे अवनवा ना।
जिठवा माँ गरमी बहुत सतावे, विन पिय वेनिय के डुलावै
मुख पर ढुरे पसिनवा ना। लगत असाड़…..।
बारहमासा परंपरा सभी भाषाओं के लोक साहित्य में पाई जाती है। बारहमासा गीतों में विरहणी नायिकाओं की पीड़ा का हृदय विदारक चित्रण बारहमासे के द्वारा किया जाता है। जायसी के पदमावत में भी बारहमासे की पद्धति प्राप्त होती है जिसमें नागमती के विरह का अनूठा वर्णन है। यही परिपाटी बुंदेली लोक गीतों में मिलती है।
श्रम गीत
बुंदेली लोक साहित्य में श्रम लोक गीत भी मिलते हैं। बुंदेलखंड के ऋतुपरक गीत एवं श्रम गीत अन्योन्याश्रित हैं। इनका संबंध दूध पानी या चोली दामन सा है किंतु अंतर सिर्फ इतना है कि श्रम गीत परिश्रम करते समय पुरूष या नारी थकान मिटाने या ऊब से बचने के लिए गाते हैं जबकि ऋतुपरक गीत ऋतुओं के प्राकृतिक सौंदर्य के उछाह से स्वतः फूटते हैं जेसे ही प्रकृति की मादकता का प्रभाव मन पर पड़ता है कि गीत गूंज उठते हैं। कुछ भी हो, फिर भी श्रम और ऋतु गीतों का अपना विशेष संबंध है।
बुंदेलखंड का धोबी कपड़े धोते समय, श्रम से फूलती सांस के समाधान हेतु ‘‘सेइया राम ओ सेई सेई रामा हो सेइया रामा हो’’ कहता है। यह उसका श्रम गीत बन जाता है जिससे उसे थकान महसूस नहीं होती है। इसी तरह के अन्य श्रम गीत चक्की पीसते समय के गीत, खेत जातते समय के गीत, कांद बीनते समय के गीत, बोनी के समय के गीत, नींदते समय के गीत, धान, ज्वांर, घास काटते समय के गीत, गेहूँ बोते समय के गीत, पोला निकालते समय के गीत, गेहूँ काटते समय के गीत, रहँट चलाते समय के गीत आदि हैं। इस समय कुछ ऐसे गीत भी गाये जाते है जिनका जन्म श्रमपरिहार हेतु होता है जो ऋतु परक भी होते हैं। जैसे विवाह के अवसर पर चक्की पीसते समय के गीत, (बना या बनरी), असाढ़ में राछरे तथा अगहन में विलवाई गीत गाये जाते हैं।
चक्की पीसते समय के गीतः
बुंदेलखंड में चक्की पीसते समय कुछ गीत गाये जाते हैं जिससे औरत आटा पीसते समय सचेत रहकर अपनी थकान मिटाती है। इन गीतों में ऋतु के अनुसार राछरे, रामारे, विलवाई, दिनरी, दादरौ, बना या बनरी या बरहमासी गाई जाती है। इस बात की पुष्टि एक ग्रामीण औरत के कथन से होती है। टीकमगढ़ जिला अंतर्गत थौना ग्राम की श्रीमती हजार दुलइया चमारिन से में लोक गीत सुन रहा था। गीत सुनते सुनते मैंने पूछा कि चक्की पीसते समय कौनसा गीत गाती हो तो उसने कहा कि ‘‘कौनउं सो गावो गा लेत महाराज, में तो वैसे असाड़ में राछरे गाउत और व्याव में व्याव को गा लेत, कजन्त हार खेत की बेरा भई चारो आरो कटवे की तौ विलवाई गा लेत’’। मैंने पूछा राछरा कितना लम्बा गीत है। उसने कहा ‘‘महाराज चार चौरी को होत, आठ चौरी को होत औ अमान जू को राछरौ तो एक पैली कौ है। जब में गाउत गाउत एक पैली जबा पीस लेत ती के मालिक सोउ बो राछरो खतम हो जाततो। बुंदेली गीत के बड़े होने की कितनी अच्छी व्याख्या है। आज दूरी प्रकाश से या घंटों से नापी जाती है। शक्ति घोड़ों से भासित होती है। बुंदेलखंड में गीतों का बड़ा छोटा होना चक्की पर पीसते पिनौंट (अनाज) से आंका जाता है। इन गीतों के उदाहरण में पन्ना के राजा अमान जू का गीत दिया जा सकता है। पन्ना के महाराज अमान सिंह बड़े उदार प्रकृति के व्यक्ति थे वे रात को भ्रमण कर जनता का दुख दर्द सुनते थे। एक रात नौनी दुलइया नाम की स्त्री चक्की पीसते समय यह गीत गा रही थी जिसमें उसका आग्रह था कि हे राजा अमान तुम्हारे साथ खेलने में मेरी बैंदी खो गई है। ऐसा कहा जाता है कि राजा अमान जू ने प्रातः काल नौनी दुलइया को बुलवाकर उसकी लाख (चपरा) की वेंदी की जगह एक लाख कीमत की वेंदी बनवाकर दान की थी। देखिये-
ढुड़वा लिओ राजा अमान, हमाई बिंदिया तौर गिर गई तुमाये संगे।
सखीरी कौना सहर की मोरी बिंदिया, कौना की धरी ती रवार।
सखीरी झाँसी सहर की मोरी बिंदिया, औ पन्ना की धरी रवार।
सखीरी कैसे कें गिर गई जा बिंदिया, भला केसे कें झरी रवार।
सखीरी राजा संग खेलत में बिंदिया गिर गई, गिरतन झरी रवार।
ढुड़वा लिओ राजा अमान, हमाई बिंदिया गिर गई तुमाये संगे।
अन्य गीत
इस गीत को गाते गाते चार चौरी पिसनौंट (तीन किलो अनाज) का आटा पिस जाता है। ये गीत राछरा गीत है। इसमें ननद भाभी के व्यवहार का करूणिम चित्र खींचा गया है। देखिये-
जे गईं बैना अरी वे गईं बैना, धरलईं मायके की गैल।
अरे हां हो आउत देखी ननद बाई खों, जड़ लये बजर किबार।
अरे हां हो खोलो री खोलो भौजी, घर की किवरियां, बाबुल के घर आये।
अरे हां हो बाबुल तुमाये बैठे अथरियां, भईं भेंटो घरै जाओ।
अरे हां हो खोलो री भौजी घर की किवरियाँ, मताई के घरें आयें।
मइया तुमाई गईं गुवरा खों, मई भेंटो घर जाओ।
अरे हां हो खोलो री भौजी घर की किवरियां, भइया के घरै आयें।
अरे हां हो भइया तुमाये बैठे कचारन, मईं भेंटो घरे जाओ।
अरे हां हो खोलो री भौजी घर की किवरियाँ, हमतौ भतीजे घरै आयें।
अरे हां हो भतीजे तुमाये खेलन कड़ गये, मईं तो भेंटो घरे जाओ।
अरे हां हो खोलो भौजी घर की किवरियाँ भौजी के घर आयें।
अरे हां हो अनमनी होकें खोली किवरियाँ, मनमें सोच पछतायें।
अरे हां हो काये के विन्नूं खों डारो बैटका, काये कें पखारो दोई पांव।
अरे हां हो ताते से पथरन डारे बैटका, ताते पानी पखारे दोई पांव।
अरे हां हो बासे से कूसे कोरा खुआये, और तिबासी दार।
अरे हां हो जैलो री जेलो मोरी ननद बाई, मुखभर देव असीस।
अरे हां हो तुमरे जो हुईहैं भौजी विटियईं विटियां, कुदई के रे पच आयें।
अरे हां हो दस हर चलत ते भौजी पाचंई चलें, उपजैं भदइयां कांस।
अरे हां हो इतनी कैके चली ननद बाई, धरलई सासरे की गैल।
अरे हां हो गाँव को मेड़ो विन्नू कड़न न पाईं, मिलगये वीरन दौर।
अरे हां हो कैसे री बेना भई सनमाने, कैसीं जो देआईं असीस।
अरे हां हो ताते जो पथरन डारे बैटका, ताते पानी पखारे दोई पांव।
अरे हां हो बासे कूसे कौरा खुवाये और तिबासी दार।
अरे हां हो तुम तौ लौट चलो बैन हमाईं, घर अपने जे आयें।
खेत जोतते समय के गीत
बुंदेलखंड में असाढ़ के प्रारंभ होते ही फसल बोने के लिए खेत जोता जेला जाता है। श्रम करते समय किसान सैरे या आल्हा की पंक्तियां गा उठता है। सैरा देखिये-
नये हरवारे की सुगर दुलइया, सींकन कजरा देय।
हर के मारे बखर के मारे मौंदू सो गये। सो बाको कजरा लहरियां लेय।
हल चलाने वाले की दुलहन काजल की बारीक कोर आंजकर श्रृंगार करती है किंतु हल बखर चलाने वाला व्यक्ति उसके काजल की कीमत चुकाये बगैर ही थका होने के कारण सो जाता है। अतः खीजकर बुंदेली बहू उसे भौंदू कहती है। इस गीत का विशेष भाव यह है कि कोई भी बुजुर्ग अप्रत्यक्ष रूप में अपने बेटे का ध्यान बहू की ओर आकर्षित करना चाहता है। अन्य सैरे गीत में विषयारत बहू को संयम की शिक्षा देता है। देखिये-
खेत विगारे अब दूबा कांस नें अब दूबा कांस ने हो।
उर वैल विगारे मइदार।
लरका विगारे अरे बउअन नें हो अरे बउअन नें हो।
दिन डूवे सें लगा लये किबार हो।
कांद निकालते समय के गीत
बुंदेलखंड में खेत जोतने के उपरांत उसमें से दूब निकाली जाती है। बुंदेली में दूब को कांदी या कान्द कहते हैं। इसी कांदी को निकालते समय औरतें ये गीत गाती हैं-
खेती करलो छैल बैल लैदउंगी खेती करलो।
जब बा खेती में टोटो परजै, चीजें बेंच अमल भरदो, खेती करलो छैल।
जब बा खेती में टोटो परजै, ठुसी बैंच अमल में भरदो। खेती करलो ….।
ज्वार, तिली, उर्द, धान बोते समय के गीत
असाढ़ की फसल उर्दा, तिली, धान और ज्वांर को पुरूष हाथों से छिटकाकर बोते हैं। इसी समय किसान ये गीत गाता है।
सदा तो तुरइया अरे फूले ना, सदा न सावन होय।
सदा न सूरा अरे रन जूझें, अरे रन जूझें, सदा न जीवै कोय। हो ओ
ज्वार, धान नीदते या काटते समय के गीत
इस कार्य को बुंदेलखंड में औरतें पुरूष दोनों मिलकर करते हैं। इस समय ये गीत गाते हैं-
बदरिया रानी बरसौ बिरन के देसा में, अरे देस में।
कौनां के कड़ गये हरला बखरला, कौनां की कड़ गई हर जोत।
ससुरा के कड़ गये हरला बखरला, विरन की कड़ गई हर जोत।
कौनां नें बै लई जुनई उर उरदा, कौनां नें बै लई सठिया धान।
ससुरा नें बै लये जुनई उर उरदा, वीरन नें बै लई सठिया धान।
कौना के कड़ गये घर के निदइया कौनां के कड़ गये मजूर।
ससुरा के कड़ गये घर के निदइया, वीरन के कड़ गये मजूर।
कौनां के कट गये जुनई औ उरदा, कौनां के सठिया धान।
ससुरा के कट गये जुनई और उरदा, वीरन की सठिया धान।
कौनां नें गालई जुनई और उरदा कौनां ने सठिया धान।
ससुरा नें गालईं जुनई और उरदा, वीरन नें सठिया धान।
प्रस्तुत गीत में कृषि की क्रिया प्रक्रिया का वर्णन हुआ है साथ ही बुंदेली वहिन का स्नेह भाई के प्रति आत्मीयता उड़ेलता दिखाई देता है। इसी समय खेत में काम करते हुए विरहणी नायिका ये गीत गा उठती है।
टूटी मड़इया बूंदें टपकैं, छावनवार विदेस।
समरत नइयां नैंकउ मोरी, कैसें भेजों संदेस।
काहे की कगदा करौं, काहे की मसदौत।
काहे की कलमें करौं, लिख दउँ दो दस बोल।
आंचर कौ कागद करों, नैनन की स्याही दोत।
छिंगुरी की कलमें करौं, लिख दउँ दो दस बोल।
बुंदेली विरहणी अपने निराले तरीके से पत्र लिखती है। कृषि ने करंक की लेखनी से अपने राम को पत्र लिखा होगा। लेकिन बुंदेली स्त्री आँचल नैना और छिंगरी से पत्र तैयार कर प्रीतम के पास भेज देती है। इस पत्र की विशेषता यह है कि इसमें कुछ न लिखे रहने पर भी सब कुछ लिखा है। आँचल, नयन एवं छिंगरी तीनों उपकरण चिट्ठी का संदेश भेजने का माध्यम है। आँचल, यौवन हैं। नयन इस यौवन की पिपासा व्यक्त करने वाले आर्द रस हैं जहाँ से भावनायें द्रवीभूत होती हैं। छिंगुरी इशारा है। कोई भी मानव अपने हृदय के भावों को नयन और उंगली से व्यक्त कर प्रिय तक संदेश भेजता है। इसीलिए बुंदेली नायिका इनका प्रयोग अपने पत्र में करती है। श्रम की थकान ऐसे मनोहर भाव में मिश्रित होकर कहीं दूर चली जाती है।
घास या ज्वार काटते समय के गीत
ज्वार काटते समय या घास काटते समय विलवाई गीत गाया जाता है। यदि घास क्वाँर के महीने में कटती है तो रामारे गीत गाया जाता है। वैसे आम तौर पर श्रम करने वाले मजदूर रामारे या विलवाई किसी भी गीत की टूटी फूटी पंक्तियां याद आते ही गा देता है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मालिक नौकर से अधिक काम लेना चाहता है और नौकर श्रम उपरांत विश्राम करना चाहता है इन्हीं भावों का गीत देखिये-
अरे हां हो दिन डूबैं भरा दई लम्बी माँग किसान भइया बेरा भई घर जावेकी।
ये मोरी चकिया धरी रे पछताय, बेरा तो भई घर जावै की।
मोरी उखरी धान खों ललाय, किसान भइया बेरा तो भई घर जावे की।
मोरी रींती गगरी घिनौंची पै ललांय, लली की बेरा भई घर जावे की।
मोरो चूलौ धरो सिराय, कै मोरी बेरा भई घर जावे की।
मोरो दियला धरो रे ललाय, के मोरी बेरा भई घर जावे की।
मोरी सासो सुनावै गारीं, के मोरी बेरा भई घर जावे की।
के मोरी मोड़ी हेरें हुये बाट, किसान भइया बेरा भई घर जावे की।
गेहूँ बोते समय का गीत
गेहूँ बोते समय किसान रामारे गीत को गाता है।
रामा हो कानां बाजी मुरलिया, भाई रे कहां परी झंकार रामाहो।
गोकुल बाजी मुरलिया, भाई रे मथुरा परी झंकार, रामा हो।
सो इत राधा उझक गई ले मथुनियां हांत रामा हो।
जरिओ बरिओ तोरी मुरलिया भाई रे, मरिओ बजावन हार रामा हो।
कच्चे से दहरा बिलुर गये, नैनू ना आये मोरे हांत रामा हो।
ठंड़े से पानी गरम धरिओ, नैनू उठालो हांत रामा हो।
प्रस्तुत गीत में नायिका नायक का इंतजार करती है कि नायक की ओर से प्रेम स्त्रोत सूख जाता है। नायिका का मन विचलित होकर शोकातुर हो जाता है इसीलिए उसका प्रत्येक कार्य विधिवत सम्पन्न नहीं हो पाता है।
पोला नींदत के गीत
बुंदेलखंड में गेहूँ की फसल में ‘‘पोला’’ नाम की घास उग जाती है। इसे पुरूष और नारी दोनों मिलकर नींदते हैं इसी समय ये दिवारी या रामारे गीत गाते हैं। देखिये-
रामा हो भला ऊरये कल के मान, असुर नें सीता राम की हर लहे।
असुर की काये की लंका बनी, काये के पाँचउ बान रामाहो।
सोने की रे लंका बनी, रूपे के पाँचउ बान रामाहो।
कै यौजन लंका बनी कै यौजन विस्तार रामाहो।
नौ यौजन लंका बनी कै दस यौजन विस्तार रामाहो।
असुर नें राम की सीता हर लई रामाहो।
रहंट चलाते समय का गीत
बुंदेलखंड में फसल को पानी रहंट से दिया जाता है। रहंट चलाते समय कृषक ये गीत गाते हैं। देखिये-
राम नगरियां राम की, बसें गंग के तीर रे।
अटल राज महाराज की सो चौकी हनुमत बीर रे।
राधा बिटिया लाड़ली, विरछा पूजन जाये रे।
हरिया की छाया करै, मोई चरत विड़ारे गाय रे।
गेहूँ की फसल काटते समय के गीत
गेहूँ की फसल काटते समय चैत मास के गीत दिनरी या चैती गाई जाती है। फसल काटने के पूर्व दही दूध से खेत फसल एवं हंसिया की पूजा की जाती है। चैतुआ वर्ग चैत काटते समय ये गीत गाते हैं-
चैता के चरेरे घाम मताई मोरी काये के उड़ना करलों।
अरे जो मोरे ससुरा घरै होते, वे विसाकें चुनरी देते उड़ाय।
जेठा जो मोरे घरे होते, वे विसा कें चुनरी देते उड़ाय।
देवरा जो मोरे घरे हेते, वे विसा कें चुनरी देते उड़ाय।
नन्दोइया जो मोरे घरे होते, वे विसा कें चुनरी देते उड़ाय।
जो रसिया बलम मोरे घरे होते, वे विसा कें चुनरी देते उड़ाय।
प्रस्तुत गीत में अपनी बेपीर माँ से चैत के चिलकते घाम में फरिया उड़ाने का आग्रह बुंदेली युवती कर रही है। वह कहती है कि यदि मेरे ससुर जेठ, देवर, नन्दोई कोई भी होते तो वे मुझे धूप से बचने के लिए ओढ़ने की चुनरी दे देते। अन्य गीत में बुंदेली नायिका गहनों के प्रति पैजनों) चाह व्यक्त करती है। देखिये-
चरखारी के सुगर सुनार पैजना अजब बने चरखारी के।
किननें पैजना ले लये री किननें चुकादये चोखे दाम।
अरे सासो पैजना ले दये, ससुरा चुका दये चोखे दाम।
जिठनी पैजना ले दये, जेठा नें चुका दये चोखे दाम।
अरे नन्दोई नें पैजना ले दये, ननदी नें चुका दये चोखे दाम। पैजना …..।
बुंदेली नायिका की चाह समझ कर ससुर, जेठ, नन्दोई उसे पैजना खरीद देते हैं कि इसी समय चैत के महीने में सैमर फूल की लाली हँसती दिखाई देती है। इन वृक्षों के फूलों की लाली बुंदेली युवती के यौवन की लाली सी दिखाई देती है। यदि सैमर के फूल चैत की सुषमा है ते बुंदेली युवती बुंदेलखंड के बसंत की सुषमा है। इन भावों का गीत देखिये-
रामाहो ऊंचे सेंमर गोरी डगमग होंय, फूले हैं लाल रे गुलाल।
रामाहो कौन वरन वाकी वोंड़ियां, कौन वरन बाकौ फूल।
रामाहो हरदी वरन बाकी बौंड़ियां, कुसुम रंग वाकी फुलवार।
रामाहो कौजें चड़ाव बाकी बौड़ियां, कौने चड़ाव बाकी फुलवार।
रामाहो देवन चड़ाओ बाकी बोड़िया, रामलछमन चड़ाओ वाकी फुलवार।
रामाहो ऊंचे सेंमर गोरी डगमग होंय, फूले हैं लाल रे गुलाल।
जाति परक गीत
स्थान भिन्नता एवं रंग भेद के कारण मानव के आकार में अंतर मिलता है किंतु अन्तस् से मूलतः एक होता है। उसी तरह लोक गीत हैं। वे व्यक्ति जाति एवं देश विशेष के कारण या लय के प्रभाव से भिन्न हो सकते हैं किंतु मानव में चिर शाश्वत एक हैं। भारत में जातियों का निर्माण कार्य विभाजन के महत्वशाली सिद्धांत पर आधारित हैं। यहाँ पर जाति कर्म विशेष की घोतक है। उसी प्रकार अध्ययन सुविधा हेतु हम लोक गीतों का भी विभाजन करते हैं। बुंदेली लोक गीतों को भी इसी सिद्धांत के आधार पर जाति परक गीतों में विभाजित किया गया है। वैसे कोई भी गीत कोई भी जाति गाने के लिए स्वतंत्र है। बुंदेली लोक गीतों के विभाजन का आधार जाति परक कर्म सौंदर्य की अभिव्यंजना है।
इन गीतों का विभाजन इस प्रकार है-
- सवर्णों के गीत, 2. अहीरों के गीत, 3. काछियों के गीत, 4. ढीमरों के गीत, 5. गड़रियों के गीत, 6. कोरियों के गीत, 7. धोबियों के गीत, 8. चमारों के गीत, 9. गोंड़ों के गीत, 10. सौंरों के गीत (राउत), 11. बेड़नी के गीत आदि।
सवर्णों के गीत
बुंदेलखंड में सवर्णों के कुछ ऐसे गीत पाये जाते हैं जो उन्हीं तक सीमित हैं। जैसे जनेउ के गीत। सवर्णों के गीतों में उनके लोकाचारों की व्याख्या व्यवस्थित ढंग से वर्णित होती है। शिष्टता वर्ती जाती है, अश्लीलता का अभाव रहता है। जबकि अन्य छोटी जातियों में लोकाचार अव्यवस्थित रहते हैं और गीतों में अश्लीलता भरी रहती है देखिये-
सवर्णों का गीत
मोरी भंवर कली, कब कब आवे नंदके लाला, मोरी बखरी।
सब सखियन खों पार लगादओ, मैं मझधार डरी। मोरी …….।
पकर छतुलिया बायरें फेको, पीछें बात करी। मोरी …………।
पकरनें होय तो पकरो स्वामी, नईं में जात बईं। मोरी ………..।
हरिजनों का गीत
मोरी भंवर कली, कब कब आये सजना रसिया मोरी बखरी।
सब सखियन खों बता बात दई, मोये लै गये बखरी। मोरी ……….।
पकर हथुलिया गलुआ काटे, फिर तिन्नीं पकरी। मोरी ……….।
इन दोनों गीतों के उदाहरण से भिन्न-भिन्न जातियों के संस्कारों का अंतर दिखाई दे जाता है। बात एक ही है एक में कृष्ण गोपियों के साथ वही करते हैं जो साजन सजनी के साथ करता है। एक में पर्दा है, एक आवरण हीन।
अहीरों के गीत
अहीरों के गीतों में उनके व्यवसाय की झलक दिखाई देती है। इनके गीतों की लय में राधाकृष्ण के प्रेम की मस्ती होती है। अहीरों का गोधन पूजन का त्यौहार मुख्य है जिसमें इनकी रूचि विशेष रहती है। इस समय वे दिवारी गीत अधिक गाते हैं। ‘‘दीपावली के अवसर पर ग्राम निवासी विशेषतः अहीर ग्वाले लोग दिवारी गाते हैं।’’[1]
वृन्दावन वसवौ तजो, अरे होन लगी अनरीत।
तनक दही के कारनें, फिर वइयां गहत अहीर।
अन्न मिलौनी जूनरी, धन में गोरी गाय।
राधा बछेउ ढीलिओ, अरे कान लगाबै गाय। डिर्र हो।
दिवारी गीतों के अतिरिक्त अहीर लोग साखियाँ भी गाते हैं जिन्हें अहीरों की साखियां गीत कहा जाता है। ये इस प्रकार है-
अहीरों की साखी- जल तो जुठारे माछरी, भौंरा ने जुठारे बाग।
कहा चड़ाओं देवी सारदै, बारे बछरा नें जुठारे दूध।
राधा डगरी निग चलीं, गईं सखियन के दौर।
आज चलौ गड़ गोकले, जां मागे दही विकांय।
सखियाँ बोली जात है, सुनो राधका बात।
हमना जैहें गोकले, उते कूली नन्दलाल।
बूड़ी ठूड़ी चलिओ ना, ना लरकोरी हमारे साथ।
छटी छटा की केवल चलौ, सो का करे नन्द को लाल।
काछियों के गीत
चोली के बन्दा टूट जेहें, वइयां छोड़ो नन्दलाल।
सकल चीज की सकल बनाई, गाजर की पैजनियां।
मूरी के दो बंद लगाये, झमक चली काछनियां। बइयां छोड़ो…..।
पांवन में पैजनिया सोहे, करया में करदौनी।
बांय बरा बाजूबंद सोवे, गरैं हार मोतिन की माला।
नाक में नथुनियां पैरें, बइयां छोड़ो नन्दलाला। चोली के बंदा …….।
प्रस्तुत गीत में काछी जाति की नायिका प्रकृति के मूल उपादानों से अपना श्रृंगार करती है। वह गाजर के पैजना पहिनकर मूली के बाजूबंद धारण करती है और कृष्ण को चोली के बंधन खोलने से मना करती है। इस गीत की विशेषता है कि काछी जाति की नायिका अपना श्रृंगार भिन्न-भिन्न सब्जियों से करती है। बुंदेली काछिन युवती अपने पैरों में पैजनों के स्थान पर गाजर के ‘‘चुल्ला’’ पहिनती है। ये चुल्ला बुंदेलखंड में सिर्फ काछी जाति की औरतें धारण करती हैं। झाँसी ओर टीकमगढ़ जिले के अंतर्गत बरूआ सागर, सकरार, निवाड़ी, उबौरा आदि क्षेत्रों में आज भी इन्हें धारण किये हुए औरतों को देखा जा सकता है। काछियों में अन्य गारियां भी गाई जाती हैं जिनकी लय भिन्न होती है। देखिये-
रंग महल में पौडते राजा स्वामी, धनिया विजनयां डुलाये मोरे लाल।
बा विजनियां मोरी सासो नें तकलई, जरकें हो गई झोल मोरे लाल।
मांये सें आये लरका उनईं के, भइया से पूंछे हाल मोरे लाल।
कै भइया तोरे मूंड़ धमक रये, कै चड़आई ताप मोरे लाल।
कै भइया तोखों वैद बुलादो, उर करवादों दवाई मोरे लाल।
बहुवन विगरी सरम टोर दई, ओई खों हाल निकारो मोरे लाल।
के बेटा तुम मायकें पौंचादो, कें रचो दूसरो व्याव मोरे लाल।
लै लो बेटन बउ के करेजे, मोरो जिऊ जुड़ाय मोरे लाल।
मर्यादायें जब रूढ़ियां बन जाती हैं तो उनका निर्वाह करना दूभर हो जाता है। प्रस्तुत गीत की नायिका अपने पति को पंखा झल रही थी कि सास सब कुछ देखकर बहू से नाराज हो जाती है और अपने बेटे से बहू को घर से निकालने की जिद करती है। बुंदेलखंड में ऐसी रूढ़ि है कि बहू सास ससुर के सामने पति से मर्यादा कर उससे बोलती नहीं है। मर्यादा तो ठीक है किंतु रूढ़ि खतरनाक होती है। ये रूढ़ियां ही सास बहू के वैमनस्य का मुख्य कारण बन गई हैं इसीलिए बुंदेलखंड में सास बहू में खूब वैमनस्य पाया जाता है।
गड़रियों के गीत
बुंदेलखंड में गड़रिया जाति के गीत भी पाये जाते हैं। इन गीतों की लय में गाड़रों को बुलाने की टिटकार भरी रहती है तथा आबाज में भारीपन होता है। प्रत्येक गीत घोर और जोर देकर गाया जाता है। उदाहरण के लिए गड़रिया जाति की भांवरों का गीत लिया जा सकता है जिसमें उनकी शादी की सभी रीति रिवाजों का वर्णन हुआ है। गीत के अंत में पंचों की महत्ता दर्शाई गई है जो शादी संपन्न कराने के साक्षी होते हैं। देखिये-
आड़र दीनीं गाड़र दीनीं, डला भर ऊन दीन।
बम्मन मार पटा घर दीनीं, रूपै की परी सोरे की माल, रहंट चलै पानी ढरै।
निमयैं औलाद बड़े, कओ पंचो भाँवर परी के नईं?
गड़रियों के अन्य गीत में नायक नायिका के गजरे को तोड़ देता है। नायिका सास ससुर के भय से परेशान होती है इन्हीं भावों का गीत देखिये-
हमारो मौतिन बारो गजरा किननें टोर डारो रे। टोर डारो रे,
मरोर डारो रे। हमारो मोतिन बारो गजरा।
हमाई सासो रे सुन पावै, झगरा आन मचावै रे।
मोरे ससुरा खां बुलवादो, गजरा बेई सुधारें रे।
हमाई जिठनी रे सुन पावै, झगरा आन मचाबै रे।
मोरे जेठा खां बुलवादो, गजरा बेई सुधारें रे। हमारो मोतिन …..।
प्रस्तुत गीत की नायिका सास और जिठानी को बहुत डरती है किंतु ननद को फटकार कर कहती है कि में सागर से पानी भरने नहीं जाउंगी क्योंकि सागर दूर है। मुझे डर है कि वहाँ पर कोई मेरे यौवन की धरोहर की लूट लेगा। अतः मैं अकेली नहीं जाउँगी। देखिये-
ननदी दूर सगरवा, पनिया भरन न जैवों रे।
हमाये तीन रती भर घुघटा को रस, छलिया लूट लेहैं रे।
हमाई तीन रती भर विंदिया, कोउ गाने धरले रे।
हमाये तीन रती भर गलुआ कोऊ काट लेहे रे।
हमाई तीन रती भर चोली कोऊ छुअई लेहे रे।
हमाई तीन रती भर तिन्नी कोऊ खोल देहे रे। ननदी …..।
ढीमरों के गीत
बुंदेलखंड में ढीमरों के गीत विशेष महत्व रखते हैं। क्योंकि इनके गाने का ताल स्वर बहुत ही प्यारा होता है। ढीमरों के भजन या गारियां लोटे को लोहे की छड़ियों से पीटकर निकली ध्वनि के साथ गाया जाता है। सजनई, विरहा, कहरवा इनके गीतों के अन्य प्रकार हैं।
सजनई गीत
लठिया लै ले रे सइयां, लठिया लै ले रे सइयां।
भूसा चरगई रे गइयां। रे
बारे बलम खों बेर बेर हटकी, बारे बलम खों बेर बेर हटकी, घोसीपुरा जिन जाव
घोसीपुरा की चंचल छुकरियां, घोसीपुरा की चंचल छुकरियां, छैला लये विलमाय।
ढिमरयाऊ गीतों की नायिका इतनी मिलनातुर है कि वह अपने गाँव के मुहल्लों तक को भूल गई है। गीत की पंक्तियों में मनोवैज्ञानिक सत्य झांकने लगता है क्योंकि मिलन क्षण में प्रत्येक नायक और नायिका स्वयं को ही नहीं संसार को भी भूल जाता है। देखिये-
भूली भूली सजन रे तौरो देस, आउत गलियां भूल गई।
कौन पुरा तोरो माई मायको, कौनां पुरा तोरो भाई मायकौ,
कौन पुरा ससुरार। भूली भूली सजन तोरो देस, आवत गलियां भूलगई।
ऊलेपुरा तोरो मायको, ऊलोपुरा माई तोरो मायको,
पैले पुरा ससुरा। भूली भूली …..।
विरहा गीत
विरहा वह गीत है जिसमें विरह की व्यंजना होती है। इसीलिए इन गीतों में विरहजन्य भावों की भरमार रहती है। एक विरहा गीत में कहा गया है कि मानव जीवन की स्वांस प्रक्रिया कुछ दिन की मेहमान होती है। वह कभी भी देह से निकलकर प्रियतम के देश जा सकती है। अतः मानव को समय रहते हुए रामनाम का स्मरण कर जीवन सार्थक कर लेना चाहिए। क्योंकि राम का नाम ही हितकर है और संसार असार है। देखिये-
स्वांस विरानी पांहुनी, छिन आवे छिन जाय।
को जाने जा पांहुनी, कौन घरी चली जाय।
रामई राम लयें जइओ मोरी, सीताराम लयें जइओ।
राम राम की मूर्ति सो मन में गई समाय।
ज्यों मेंहदी के पात में, लाली लखी न जाय।
रामई राम मनाले भइया, दुनियां में जीवन थोरो।
ढिमरयाई गारीं
बुंदेलखंड की सभी गारियां एक सीं होती हैं किंतु लय भिन्नता से कोई भी गारी ढिमरयाऊ बन जाती है। देखिये-
काय दिल डारें गोरी, ठांड़ी अंगना।
काहे के तोरे बाजूबन्दा, काहे के ककना, काहे की तोरी मोहनमाला,
जपरईं अंगना। सोने के तोरे बाजूबन्दा, चाँदी के ककना।
रूपे की तोरी मोहनमाला, जपरईं अंगना।
कौनां लेदये बाजूबन्दा, कौनां नें ककना।
कौना ले दई मोहन माला, जप रईं अंगना।
देवर नें ले दये बाजू बन्दा, ननदी नें ककना।
ससुरा ने लेदई मोलनमाला, जपरईं अंगना।
कैसे कें टूटे बाजूबन्दा, कैसे कें ककना।
कैसे टूटी मोहनमाला, जपरईं अंगना।
खेलत टूटे बाजूबन्दा, निहुरत में ककना।
लिपटत टूटी मोहनमाला, जपरई अंगना।
कहरवा
लाल चुनरिया की ढिक कारी, बचन हारी।
ताती जलेवी दूदा के लडृआ, जेवत नइयां राधा प्यारी।
ठंड़े से पानी गरम धर लेआईं, सपरत नइयां राधा प्यारी।
पान सुपारी की बिरियां लगाई, चावत नइयां राधा प्यारी।
चुन चुन कलियां सेजा लगाईं, पौड़त नइयां राधा प्यारी।
प्रस्तुत कहरवा गीत की नायिका माननीय है इसलिए नायक उसे मनाने के सभी उपाय करता है किंतु नायिका उसके इसारों पर चलने को तैयार नहीं होती है।
धोबियों के गीत
धुवयांई- बुंदेलखंड में जैसे ढीमरों के गीतों को ढिमरयाई कहते हैं उसी प्रकार धोवियों के गीतों को धुबयाई कहते हैं। धोवियों के गीतों में उनके कर्म की कठिनता तथा उनकी दयनीय स्थिति का चित्रण मिलता है। बुंदेलखंड का धोबी न आज की सुध करता है ओर न कल की चिन्ता से परेशान होता है। वह तो मौज में जीते हुए लोटा सूपा वाद्य यंत्रों के साथ धुवियाई गीत गाता रहता है। धोबियों के गीतों में विरा, मतवाई, लाचारी, धुवयाई गारियां और धुविया भजन गाये जाते हैं। इन गीतों के अतिरिक्त कांडरा नृत्य के साथ कांडरा गीत भी गाये जाते हैं। इनके सभी गीतों की लय भिन्न-भिन्न होती है।
धोबियों का विरा (विरहा) गीत
बुंदेलखंड के धोबी विरा गीत गाते हैं। विरा विरह या विरहा का विकृत रूप है। विरा गीत में एक गरीब धोबी की कथा गाई जाती है जो एक राजा के कपड़े धोया करता था। एक दिन भूल से कपड़ा धोते समय राजा के कुछ कपड़े फट जाते हैं। राज भय से भयभीत धोबी उन्हीं फटे कपड़ों को धारण कर नाचता हुआ राज दरबार में जाकर राजा को अपनी गलती की कहानी सुना देता है। राजा प्रसन्न होकर उसे क्षमा कर देते हैं। इन्हीं भावों का एक विरहा गीत इस प्रकार है-
रानी पुरा मोचंग बज रई री गुइयां, मऊ में काये री बजरई मिरदंग।
और भई अच्छा है हो ओ, अरी हां, नाचत आवे सलैया बारी धुविनियां
माथे रवाई को बीज। भई अच्छा है हो ओ, हां आं।
जा पर गई चूक गरीबा पै, भई धुविनिया बागे सौंदे सरसरे, राजा सरसरे।
गरीबा नें धोरे डारे घमाउन, फींचत बागे ना फटे, कुंदी करत फटजांय।
जब गरीबा पौचो डौम के घरै, डौमा भइया अक्कल देव बताय, अच्छा है।
जे बागे फटे सरकार के, हां भई अच्छा है, बागे फटे सरकार के।
बोले डोमा भइया जा कबै, मोरी सुनले गरीबा बात। अच्छा है।
बागे फटे फटजानदे, तोरो कहा करैं सरकार।
तैतों पैर बागो, घुघुरियां, में कसत मिरदंग, हां भई अच्छा है।
नचत नचत पौंचे दोउ जनैं, राजा के दरवार।
हँस हँस बोले राजा जा कहे रे, कै मड़वा कइये धोबी मायने, के ऊवनन
आई बरात, सो तें काये की फेरत रे राछ। भई अच्छा है।
ना मड़वा ना मायनें, ना ऊवन आई बारात
बागे फटे सरकार के, में तो उनई की लैआओ फिरात।
प्रस्तुत विरा गीत में धोवियों के कपड़ा धोने की विधि का वर्णन मिलता है साथ ही उसके कांडारा नृत्य करने की रीति का भी वर्णन प्राप्त होता है। यह गीत मृदंग, कसावरी और झीका के साथ गाया जाता है। इसमें चार छः धोविनें लहँगा पहिनकर नाचती रहती हैं।
मतवारी
बुंदेलखंड में धोबी और शराब एक दूसरे के पूरक है। शराब की मस्ती में गाये जाने वाले गीत बुंदेली में मतवारी कहलाते हैं। धोवियों की शादी में पंचों का अधिक महत्व होता है, जो पंच कह देते हैं वही सर्वमान्य नियम होते हैं। उन्हीं की प्रशस्ति में एक मतवारी देखिये-
अरे भइया हां हो भइया क्या बात रे, पंच बड़े परमात्मा हो भइया पंच
बड़े परमात्मा। सो भइया छीतल उनके अंग। अरे हां भई हां आं।
अरे हां आं तपन बुझाबै और की सो भइया दे लें अपने अंग हो।
प्रस्तुत गीत में एक धोबी पंचों की महिमा का गान कर रहा था कि दूसरा धोबी इतिहास के पृष्ठ अन्य मतवारी में खोलने लगता है जिसमें टीकमगढ़ जिले के गाँव के युद्ध का वर्णन मिलता है। देखिये-
अरे वरछी की अनीं से टोड़ारे पलेरा, भाले की अनीं से।
जब टेरी सें गदबद परी, मेली जतारा आन, अरे मेली जतारा का करे।
पलेरा में मचो घमसान, बरछी की अनीं से टोड़ारे पलेरा, बरछी की अनी सें।
प्रस्तुत गीत के गायक धोबी को ये मालूम नहीं है कि ये युद्ध कब और कहां हुए हैं। किसने कैसे कब पलेरा तोड़ा है लेकिन पलेरा की लड़ाई मतवारी में गाई जाती रही है सो वह आज भी गाये जा रहा है इसी समय तीसरा धोबी शराब की मस्ती में मस्त होकर श्रृंगार की ओर मुड़ जाता है। औरतें उसे कनखियों से देखने लगती हैं। वह झूमकर गा उठता है-
अरे हां हो कभउं न बरलईं जोइयां, हो कभउं न बरलई जोईयां हां।
अरे हां हो कभउं न भरलई खाट।
अरे कभउं न बलमा सैजन पै चड़े अरे हां कभउं न सेजन पै चढ़े।
अरे हां कभउं मचौरा न दये री खाट।
अरे भइया कभउं मचौरा ना दये हां।
लाचारी गीत
लाचारी का अर्थ है मजबूरी। इस लाचारी गीत में मनुष्य की लाचारी का चित्रण होता है। बुंदेलखंड में धोबियों की शादियां जल्दी हो जाती हैं इससे नारी अक्सर, वैधव्य की जिन्दगी जीकर जीवन का भार ढोती रहती हे। धोबियों का जीवन अर्थाभावपूर्ण होने के कारण अनमेल विवाहों को अपने समाज में प्रचलित करता है। धोवियों की स्त्रियाँ अनमेल विवाह और वैधव्य की मजबूरी इन लाचारी गीतों में प्रकट करती हैं। देखिये-
मैतो रूनधुन होगई पिजरा जोग, तनक दुख मोय बालम को।
ठंडे री पानी गरम घर ल्याई, सपरौ चाय चले जाओ, तनक दुख बालम को।
दूदा के लडुआ ताती जलेवी, चाय जेंव चाय चले जाओ।
सोने के लोटा गंगाजल पानी, अचवौ चाय चले जाओ।
संजा सुपैती लरम गदेला, पाड़ो चाय चले जाओ।
प्रस्तुत गीत की नायिका छोटे बालम के दुख के कारण सूख कर पिंजरा हो गई है। इसीलिए वह अपनी पिया की सेवा में रूचि नहीं लेती है क्योंकि यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जब स्त्री पति से काम क्रीड़ा में तुष्ट रहती है तो वह उसकी हर इच्छा शिरोधार्य कर उसे प्रसन्न रखने का कार्य करती है किंतु जब पिया पिया ही कहलाने योग्य नहीं होता है तो स्त्री उसकी उपेक्षा करती है। यदि में बुंदेली में कहूं तो वह अपनी मौठेली करती है। अन्य लाचारी गीत में बुंदेली नायिका को नायक धोखा देकर परदेश चला गया है। अबला नारी ऐसे विवश क्षणों में लाचारी का सहारा लेती है। इसका उदाहरण इस प्रकार है-
सबकारे अजमाये ऊधौ सबकारे अजमाये।
कारे लोय बने हतयारा, अच्छी बाड़ घराये।
बाँद लेत जब नीके लागें, धरतन होत पराये। सब कारे अजमाये।
काचे नाग डबन में राखे, कच्चे दूध पियाये।
जरब परैं फन मार देत हैं, जिउ के खोज मिटाये। सब कारे अजमाये।
कारे काग हते बागन में, कोयल ले उठ धाये।
पंखा लागे उड़न उते वे, कुल अपने खों धाये। सब कारे अजमाये।
कारे स्याम हमारे कइये, उन कुब्जा बिलमाये। सब कारे अजमाये।
धुबियाईं गारीं
धोबियों की अपनी कुछ गारियाँ होती हैं। इनकी लय नदी के वेग सी द्रुत गति में होती है। इनका प्रारंभ अरररर, सरररर ध्वनि से होता है। देखिये-
अरररर सरररर जे झूमका री विन्नूं, जे झूमका गालन की सोभा विन्नू जे झूमका।
कौना ने लैदये विन्नूं बड़े बड़े तरका, सो कौनां नें लैदये रवाय रौना।
व्याये नें लेदये बड़े बड़े तरका, छैला ने लेदये रबाये रौना।
सो कैसे कें फूटे बड़े बड़े तरका, कैसे कें उड़ गये रवाय रौना।
झटका जो फूटे बड़े बड़े तरका, सो लिपटा उड़गये रवाय रौना।
हो रवाय रौना, गालन की, अरे गालन की सोभा जे झूमका।
प्रस्तुत गारी गीत में भाभी ननद से गालों पर झूमते हुए तरकों (गहनों) की बात पूछती है। ननद निर्भीक होकर कह देती है कि मेरे पति ने ये झुमका ले दिये हैं और छैला ने उनमें रौना जड़वा दिये हैं। छीना झपटी के कारण नायिका के झुमके टूट जाते हैं अतः वह अन्य गीत में अपने पति से ससुर से, जेठ से, देवर से और नन्दोई आदि से छपे वस्त्र की मोर पपीहरा चित्रित चुनरिया की आकांक्षा प्रकट करती है किंतु सभी परिवार के सदस्य अपने अपने कार्यों में व्यस्त हैं’’ अपनी अपनी परी आन, कौ जावै चमरौरे कान’’ इसलिए ये युवती की आकांक्षा की उपेक्षा करते हैं बेचारी युवती निराश होकर चुनरी को तरसती रहती है। देखिये-
अरे मोरन की हो पपीरन की, मोय ले दो रे चुनरिया पपीरन की।
पैली दार मैंने ससुरा सें कईती, सुसए सें कईंती, नौने ससुरा सें कईती।
सो उनें परी गाड़ी बैलन की रे सो बैलन की, अरे लेदो रे लेदो रे,
चुनरिया पपीरन की। पपीरन की रे पपीरन की।
दूजी दार मैंने जेठा सें कईंती, सो जेठा सें कईती, नोने जेठा सें कईती।
सौ उनें परी जुआं जोतन की, रे सो जोतन की, अरे लैदो रे।
लैदो रे चुनरिया पपीरन की, पपीरन की रे पपीरन की।
तीजी बेर मैंने देवरा सें कईती, देवरा सें कईती नौने देवरा सें कईती।
सो उनें परी चकरी भौंरनकी, रे सो चकरी भौरन की। अरे लेदो रे।
लैदो रे चुनरिया पपीरन की। अरे मोरनकी रे पपीरन की। मोय …..।
अन्य गीत में बुंदेली नायिका कुयें से जल भरकर सिर पर खेप (कलश) रखे चली आ रही है कि नायक उसकी भरी हुई गगरी का जल पान करने की लालसा प्रकट करता है। बुंदेली नायिका नायक की बात पर ध्यान नहीं देती है। वह अपनी मस्ती में झूमती हुई चली जाती है कि नायक पुकार उठता है-
प्याय जइयो रे पिवाय जइयो रे, गगरी वारी अरे गगरी वारी मो खों
गगरी कौ नीरा पियायँ जइयो रे।
अरे तोरी गगरी में जड़े हैं नगीना, घुँघटा खोल बतायँ जइओ री।
बतांय जइओ, गगरी बारी, अरे गगरी कौ नीरा पिआयँ जइओ।
अरे तोई गगरी में जड़े हैं नगीना, गलुआ खोल बतायँ जइओ। पिआंय ….।
अरे तोई चोली में दुके हैं नगीना, सो चोली खोल बतायँ जइओ।
पिआंय जइयो, अरे गगरी वारी नीरा पिआयँ जइओ।
यौवन मयी युवती अंगड़ाई लेकर झूमती चली जाती है नायक बार-बार रस पान करने के लिए चिरौरी करता है किंतु उसे अंत में निराशा ही हाथ लगती है। नायक को भले ही गीत में निराशा मिली हो लेकिन जब बुंदेली स्त्रियाँ स्वयं इस गीत को गाने लगती हैं तो उस समय प्रत्येक पुरूष का मन रस पान करने को ललक उठता है।
धुवया भजनः
शादियों में धोबी लोटा सूप की संगत पर धुवया भजन गाते हैं। इन भजनों की लय भी अन्य गीतों की तरह भिन्न होती है। देखिये-
व्यावे खों आये रघबीरा जनकपुर, व्यावे खों आये रघवीरा।
अरे कानां मेले हत्ती घोरा, सो कानां पंच गभीरा।
अरे कानां मेले दसरत समदी, सो कानां मेले दूला।
सो बागन मेले हत्ती घोरा, कुअलन पंच गभीरा।
अरे आँगन मेले दसरत समदी, सो मड़वन मेले दूला।
अरे का जो मांगे हत्ती घोरा, अरे का जो पंख गभीरा।
अरे का जो मांगे दसरत समदी, का जो रघवर दूला।
अरे दानों मागे हत्ती घोरा, सो भोजन पंच गभीरा।
अरे दान दायजो दसरत समदी, सो दुलइया रघवर दूला। व्यावे खां….।
प्रस्तुत गीत में शादी में कौन क्या चाहता है ऐसे भावों को प्रकट किया गया है। शादी में पशु दान चाहते हैं, बराती अच्छे भोजन की माँग करते हैं और समधी दहेज चाहता है तथा दूल्हा अच्छी दुल्हन की आकांक्षा करता है। आज की परिस्थिति पर ये धुवया भजन खरा उतरता है। इसी समय अन्य धुवया भजन शुरू हो जाता है जिसमें कहा गया है कि माँ जानकी के मन में सिर्फ राम का ही रूप समाया है। वह मन ही मन प्रभु को पति स्वीकार कर कामना करती हैं कि राम ही धनुष भंजन कर उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार करें। इन्हीं भावों का वर्णन इस भजन में हुआ है।
सिया तुमारे मन में बसे हैं रघबीरा। बसे हैं रगवीरा, बसे हैं रगवीरा।
ऊँचे अटा चड़ हेरें जानकी, सो सखियन के झूरा। सिया तुमारे ….।
आगे के मोरे पति प्यारे, पीछू के लछमन वीरा। सिया तुमारे ……….।
छोटी मोटी लयें धनुइयां, कोमल गात, सरीरा। सिया तुमारे …..।
विसवामिन्त खां संगे ल्याये, कौसल्या के हीरा। सिया तुमारे …….।
जनम जुगन के धरे धनुस, न घुन लगे न कीरा। सिया तुमारे …..।
प्रभु तुमाई दासी हो गई, जौ तन धरे न धीरा। सिया तुमारे …….।
चमारों के गीत
बुंदेलखंड में चमार जाति के गीत लय भिन्नता के कारण अलग ही सुनाई पड़ते हैं। इन गीतों में चमारों के जीवन की गरीबी का दुख मुखरित होता है। चमारों की शादियों में इनके गीत गारियाँ कहलाते हैं। एक गारी देखिये-
आज दिखानी नइयाँ मोहनियाँ लाल।
बागा ढूडे़ बगीचा ढूड़े, बैठी कौन डरइयां लाल।
पुरा ढूड़े मुहल्ला, ढूड़े, बैठी कौन बखरियां लाल।
कोटवा ढूड़े अटारी ढूड़ी बैठी कौन अधइयां लाल।
बुंदेलखंड का नायक नायिका को ढूँड़ता फिरता है। ढूँढ़ते ढूँढ़ते वह परेशान हो जाता है किंतु उसे लाल मोहनिया दिखलाई नहीं पड़ती है। कि इतने में दूसरा चमार अन्य गीत गाकर बतलाता है कि वह कहाँ छुपी है।
ठांड़ी किबारन ओट, बिंदिया झिलमिल होरई मोरे लाल।
पैले बान घुँगटा पै मारे, घुँगटा की नकल विगारी मोरे लाल।
दूजे वान विंदिया पै घाले, विंदिया की नकल विगारी मोरे लाल।
तीजै बान चोली पै घाले, जुवनन की नकल विगारी मोरे लाल।
चौथे बान तिन्नी पै घाले, तिन्नी रस में विगारी मोरे लाल।
नायिका किबारों की ओट में खड़ी थी कि विंदियां की चमक से नायक उसे देख लेता है और वह उसकी रूप माधुरी एवं श्रृंगार की प्रशंसा कर चिरौरी करने लगता है। देखिये-
भौजाई तोरे मान देवरा राख न जाने रे।
भौजाई के घुँगटा अजब बने, देवरा बेईमान, घुँगटा खोल न जाने रे।
कै भौजाई की बेंदी अजब बनी, देवरा बेईमान बेंदी रस लूट न जाने रे।
भौजाई की चौली अजब वनीं, देवरा बेईमान चोली खोल ना जाने रे।
भौजाई की तिन्नी अजब बनीं, देवरा बेईमान, तिन्नी के रंगरस लै न जाने।
नायिका प्रशंसा सुनकर गद् गद् हो जाती है और उल्लसित होकर अपने मन के भाव लौंगो के माध्यम से प्रकट करने लगती है। जिस प्रकार नायिका के बटुये से लौगें आँगन में विखर जाती हैं उसी प्रकार उसकी भावनायें प्रकट होकर भावों को व्यक्त कर देती हैं। गीत इस प्रकार है-
मोरे बटुआ में लौंग पचास, अगनवा में बगर गई।
बारी सासो नें लई हैं उठाय, अंगनवा में बगर गईं है।
रिमझिम बरसे मेह, अंगनवा में रिपट परीं।
मोरी जिठनी नें लईं हैं उठांय, अंगनवा में बगर गई।
मोरी देवरनियां नें लईं हैं उठाय, अंगनवा में बगर गई।
बारी ननदी नें लईं हैं उठाय, सो लौंगें बगर गईं।
नायिका के अन्तस् के भावों को समझकर दक्ष नायक अन्य गीत में अपने मन के भावों को इस प्रकार व्यक्त करता है-
सरक आ रे सरक आ मैं सनमुख बोलत हों।
घुँगटा तोरे नीके लगत हैं, खुलवइया रसीले होंय।
सरक आ अबतौ हिरक आ रे, मैं सनमुख बोलत हों।
बिंदिया की जोत उजार, खुलवइया छवीले होंय।
सरक आ अबतौ हिरकआ रे, मैं सनमुख बोलत हों।
चोली में रससार, पिवइया नौने होंय। सरकआ रे हिरकआ रे ….।
कोरियों के गीत
बुंदेलखंड में कोरी जाति बड़े सीधे स्वभाव की होती है। एक कोरी की बहू देखने में अति सुंदर है किंतु वह निजी व्यवसाय में दक्ष नहीं है। न तो वह रांटा कात पाती है और न ही पौनी बना सकती है। इन्हीं भावों का एक कुरया गीत इस प्रकार है-
रांटा करै न पौनी, देखत की नौनी, बहुबन देखत की नौनी।
हांत भरे कौ घुँगटा घालें, घुँगटा घालें, उर मटकाये विरौनी। देखत….।
अपने खसम सें रोजईं लरवै, रोजईं लरवै, कये वनवा दो करदौनी। देखत….।
खसम जो ऊखों ऐसो मिलगओ, ऐसो मिलगओ, जैसें बाबा मौनी। देखत …।
भर भर वेला दुदुआ पीवे, दुदुआ पीवै, नैक करे न दौनी। देखत ………।
सास ससुर सें रोजई लरवै, रोजई लरवै, ऐसी धना अनहोनी। देखत…..।
कुरया भजन
बुंदेलखंड में कोरी समाज में कबीर के भजन अपनी विशेष लय के साथ गाये जाते हैं। इन भजनों में निर्गुण विचारधारा व्यक्त होती है। देखिये-
गुरू पइयां लागों ग्यान लखाय दइओ।
ई घर भीतर नित अँधयारो, ग्यान को दियला जराय दइओ।
बिस की लहर उठत घर भीतर, इमरत बूंद चिखाय दइओ।
धरमदास की अरज गुसाईं, अबकी लाज रखाय दइओ। गुरू पइयां ….।
गोंड़ों के गीत
बुंदेलखंड में गौंड़, सौंर (राउत) आदि अनेक आदिवासी जातियां रहतीं हैं। ये अभी भी शिक्षा से कोसों दूर हैं। यही कारण है कि इनकी भाषा में बुंदेली का शब्दकोष मूलरूप में सुरक्षित है। बुंदेली संस्कृति लोकाचार, रीति रिवाज और अन्ध विश्वास अभी भी आदिवासियों के गीतों में पाये जाते हैं। शादी के समय शैला नृत्य के साथ ये लोग यह गीत गाते हैं-
पैरे रे पार की नौरंग गोरी, हरे हरे गुंडा रिझावन खों।
हम कैसें आबैं भोले स्यामलिया, पांवन में विछिया बजन भारी।
विछिया उतार गोरी ओली में घरलै, खेलन डंडा मिलावन खों।
बुंदेलखंड में आदिवासियों में बाल विवाह की प्रथा है। बाल विवाह के कारण बहू आगे चलकर लड़के से बड़ी हो जाती है, छोटे बालम के दुख से पीड़ित होकर सौंर कन्या अपने भाग्य को कोसती रहती है क्योंकि उसका छोटा बालम उसके पीछे पीछे दिन रात घूमता रहता है जिसे देख कर युवती रोती हुई ये गीत गाती है-
भाई रे रामा कौ मैंने काहा बिगारो, बालम मिले नादान।
पीसन जेहों संगे लग जैहें, सखीरी बालम मिले नादान।
नुकायने के चौकें बालम कौं ऊर दये, बालम मिले नादान।
गुबरा खों जैहों संगे लग जैहें, ये मोरी सखी संगे लग जैहें।
गुबरा के धोकें बलम कौं ठूस दये, बालम मिले नादान। भाई रे …..।
पनियां खों जैहों संगे लग जैहें, ये मोरी सखी संगे लग जैहें।
गगरी के चौकें बलमा खों फांस दये। बालम मिले नादान।
नदिया खों जैहें संगे लग जैहें, ये मोरी सखी संगे लग जैहें।
धोती के धोखें बालम खों फींच दये। बालम मिले नादान। भाई रे….।
बेड़नी गीत
बुंदेलखंड में एक बेड़िया जाति होती है। बेड़ियों की रखैल औरतें बेड़नी कहलाती हैं। बुंदेलखंड के प्रसिद्ध राई नृत्य में ये बेड़नियां नृत्य करती हैं। इस नृत्य के साथ ये होली या फाग या रसिया गीत गाती हैं। देखिये-
नजरिया मोइसों लगइओ मोरे राजा,।
कै मोरे राजा अँगना में कुअला खुदइओ, ढिमरिया मोई खों बनइओ राजा।
मोरे राजा अँगना में बगिया लगइओ, मलिनिया मोईखों बनइओ मोरे राजा।
के मोरे राजा अँगना में चौपर डरइओ, बाजू मोईखों जितइओ मोरे राजा।
कार्तिक गीत में नायिका बृज की मोर बनकर वृंदावन में विचरना चाहती है उसी प्रकार प्रस्तुत गीत की नायिका अपने प्रियतम के लिए ढिमरिया, मलिनिया आदि सब कुछ बनने को तैयार है।
त्यौहार गीत
बुंदेलखंड में त्यौहारों की भरमार रहती है। यहाँ के प्रमुख त्यौहार रक्षाबंध्न, श्रावन तीज, जन्माष्टमी, महालक्ष्मी व्रत, दुर्गानवमी, नारे सुअटा, दीपावली पूजन, कार्तिक स्नान, मकर संक्रांति, होली पूजन, रामनवमी पूजन, अकती पूजन आदि हैं। इन सभी त्यौहारों पर गाये जाने वाले गीतों का वर्णन धार्मिक गीत, या ऋतु परक गीतों में किया जा चुका है। अतः यहाँ पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। (विशेष अध्ययन हेतु धार्मिक या ऋतुपरक गीत देखिये।
विविध गीत
बुंदेली भाषा में गीतों की भरमार है। इन गीतों में एक एक भाव को लेकर अनगिनत गीतों का अक्षय भण्डार भरा पड़ा है। ‘‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठे’’ युक्ति इन गीतों की विशदता पर चरितार्थ होती है। ज्यों ज्यों हम इन गीतों की गहराइयों में प्रविष्ट होते हैं त्यों त्यों इन गीतों की श्रृंखला कोरी के कैंड़ा के सूत की तरह बढ़ती जाती है। न कैंड़ा (सूत लपेटने की लकड़ी) के सूत का छोर मिलता है और न इन गीतों का अंत होता है।
हास्य गीत
बुंदेलखंडी लोक गीतों में हास्य गीतों की भरमार है। हास्य के द्वारा मानव का मनोरंजन होने के साथ-साथ जीवन के शाश्वत मूल्यों का उद्घाटन भी होता है। इसी सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए बुंदेली हास्य गीतों का निर्माण हुआ है। उदाहरण के लिए यह हास्य गीत देखिये- (जिसमें मूला दूल्हा और बचरिया दुलहन बनी हुई है।)
कचरिया तोरो व्याव री, खरबूजा न्यौतें अइओ।
मूला दूला भटा बराती, चिरपौंटा सजा लिअइओ।
सजी गड़ेलू बजे तूमरा, कुमड़ा ढोल बजइओ।
चले फटाका अतिसबाजी, गुइयां आन चलइओ।
केरा करेला भये मामाजू, कैंथा ससुर बुलइओ।
सैंमें घुइयां भईं गौरइयां, मिरचें दौड़ लगइओ।
पाँव पखरई में डँगरा, कन्यादान कलींदो लइओ।
परिओ सकारें उठिओ अबारें, दुपरै चौका लगइओ।
मौंड़ी मौंड़ा मागें कलेवा, दो घूँसा दे दइओ।
श्रृंगार गीत
बुंदेलखंडी गीतों में श्रृंगार सुषमा, कोयल के स्वर में मिठास, पुष्प में सुवास की तरह मिश्रित है। यौवनमयी युवती का मांसल सौंदर्य बहुत ही आकर्षित करने वाला है। उसी पर उसके अपने गौरांगों पर काली साड़ी धारण की है जिससे उसका सौंदर्य कई छैलों को आकर्षित करता रहता है। इतना ही नहीं नायिका की चाल में यौवन की मस्ती है जिससे प्रत्येक राहगीर उसे लख कर कुछ क्षण के लिए ठिठुक जाता है।
नग नग कैसो बनो बंदनबारो, रजउ को डील दुआरौ।
अड़ियां जवर मसीली जांगें, कअजन कोर निहारो।
औलें तिहरी परैं पेट में, माफिक कौ धुंदवारो।
गोरो बदन स्यामली सारी, लगे लिपड़तन प्यारी।
ईसुर नचत मायँसें आगईं, गज घूमत मतवारौ।
अन्य गीत में बुंदेली युवती के अंग प्रत्यंगों के सौंदर्य का ऐसा प्रभावोत्पादक वर्णन किया गया है कि नायक रूप राशि की प्रशस्ति करते करते नायिका के सामीप्य लाभ को आतुर हो जाता है देखिये-
नग नग बने रजउ के नौने, ऐसे कीके हौनें।
गाल, नाक ओ भौंये चिबुक लग, अंखियाँ करती टौनें।
ग्रीवा जुबन, पेट, कर, जाँगें, सबही बहुत सलौने।
ईसुर कबै संग ले परवी, एकई पलंग बिछौनें।
पारिवारिक स्थिति परक गीत
बुंदेली गीतों में पारिवारिक स्थिति के यथार्थ चित्र चित्रित हुए हैं। इन गीतों में ननद भाभी और पति पत्नी के मधुर एवं विषाक्त संबंधों का वर्णन मिलता है। बुंदेली नारी अपने पति के कारण इसलिए परेशान है कि वह रात भर गायब रहकर अन्य स्त्री के घर रंगरेलियाँ करता है। घर पर उसकी स्त्री रात भर जागकर उसकी प्रतीक्षा करती है। सुबह होते ही पति घर वापिस आ जाता है। स्त्री पति को रात भर गायब रहने के कारण फटकारती है।
ओई घरे जाओ मुरली बारे, जहाँ रात रये प्यारे।
अब आबै को काम तुमारो, का है भवन हमारे।
हेरें बाट मुनइयां हूहै। करें नैन कजरारे।
खासी सेज सजायें महल में, दियला धरै उजारैं।
भोर भये आगये ईसुरी, जरे पै फोरा पारे।
किसान स्थिति का गीत
बुंदेलखंड की जमीन पथरीली है जिससे यहाँ उपज कम होती है उसी पर अनावृष्टि होने के कारण यहाँ आये दिन अकाल पड़ते रहते हैं जिससे किसान की फसल नष्ट हो जाती है। बुंदेली किसान तिहाई और कर्ज न चुकाने के कारण परेशान होता है। देखिये-
हमाई कैसें जुबत तिआई,
मेंड़न मेंड़न हम फिर आये, डीमा देत दिखाई।
छोटी छोटी बाल कड़ी है, कूरा रओ फर्राई।
माते जिमींदार को आओ बुलउआ, को आकरत सहाई।
टलिया बछिया साउकार लई, रे गई पास लुगाई। हमाई कैसें …..।
पटवारी महत्ता गीत
बुंदेलखंड में सबसे बड़ा हाकिम पटवारी होता है इसीलिए बुंदेली भाभी अपने लाला (देवर) के पटवारी बन जाने पर फूली नहीं समाती है। इन्हीं भावों का गीत इस प्रकार है-
सो लाला भये री पटवारी, सुनो बैनां लाला भये पटवारी।
कुआँ जो लिख दये बंदियां लिख दईं, लिख दई सरकारी उनारी। लाला ….।
गइयां लिखदई बुकइयां लिख दई, लिखदई उननें गुवरारी। लाला …..।
पौर जो लिख दई बखरी लिख दई, लिख दई दुगई दुआरी। लाला …..।
चुनरी लिख दई चोली लिख दई, लिख दई गोटा किनारी। लाला ……।
बउ जो लिख दई, बिटिया लिख दई, लिख दई मौंजुआ की लुगाई।
बुड्ढ़ों की उपेक्षा गीत
बुंदेलखंड में बुड्ढ़ों की उपेक्षा परक गीत भी प्राप्त होते हैं जिनमें दर्शाया गया है कि ‘‘गर्ज धरैं कछु और है, गर्ज सटैं कछु और, तुलसी भाँवर के परें, तला सिराउत मौर’’।[1] अर्थात् मनुष्य की कीमत स्वार्थ सिद्धि तक ही है इसके बाद नहीं। बुंदेलखंड के वृद्ध के साथ उसके नाती पोते ऐसा ही व्यौहार करते हैं। देखिये-
डुकरा तोखों मौत कितउं नइयां,।
डुकरा की खाट मरैला में डारी, मरैला के भूत लगत नइयां।
डुकरा की खाट बमीठे पै डारी, करिया नाग डसत नइयां।
डुकरा की खाट मडै़या पै डारी, टूट बड़ैरो गिरत नइयां।
डुकरा की खाट नदी पै डारी, आउत नदी बहत नइयां।
बुंदेलखंड में उपरोक्त गीतों के अतिरिक्त पुरूष और स्त्री, लड़के और लड़कियों के भी गीत पाये जाते हैं। आल्हा, गोटें, फाग, रावला, पमारा आदि पुरूषों के गीत हैं तथा सोहरे, दादरे, दिनरी, विलवाई, राछरे, और देवी के भजन आदि औरतों के गीत हैं (इनका वर्णन पिछले अध्याय में देखिये)। बुंदेलखंड में लड़का और लड़की के खेल खेलते समय के भिन्न भिन्न गीत हैं।
लड़कों के गीत
बुंदेलखंड में लड़के कबड्डी खेलते समय विभाजन के लिए जोड़ी बनाकर ये गीत गाते हैं।
हिली मिली दो बालें आईं, का भर ल्याईं, गोऊं चना, करदो मोल। लाख टका नाम धराओ राम लखन। इस गीत के बाद कोई राम को कोई लक्ष्मण को अपने पक्ष में कर लेता है और कबड्डी का खेल शुरू होते ही ये गीत शुरू हो जाता है।
ओ हूड़ कबड्डी आल ताल, मर गये बिहारीलाल, जिनकी मूछें लाल लाल।
बुंदेलखंड में बालक एक दूसरे को चिढ़ाने के लिए उनके नामों का सहारा लेता है। बालक एक दूसरे का नाम लेकर चिढ़ाते हुए गाते हैं-
बाबूलाल- बाबूलाल बाबूलाल तेल की मिठाई, दतिया की गैल में कुतिया नचाई। कुतिया मर गई कर लई लुगाई।
हल्कू और लल्लू- हल्कू टल्कू तीन तगा, मताई मलंगू बाप पदा।
लल्लू ने लाल जुदई के खाये गदा, मताई मलंगू बाप पदा।
हीरा- हीरा बीनें कीरा मचकुन्दी बीनें बेर, गुरूखुरू को काँटो लग गओ सब बगर गये बैर।
नथू- नथू नथोले नग नग पौले, हुक्का सी तोंद चिलम सीसे पौले।
टूंड़े- टूंड़ा टंगड़ी वजाये, अपनी बैन खों नचाय।
कथूले- कथूले कथूले बादर में लोंक लगी, लौंक लगी, लौंक लगी, लौंक लगी।
कथूले की बाई कुतिया सी भौंक चली, भौंक चली, भौंक चली।
बुड्ढी को चिढ़ाने का गीत- रान बऊ पौलीं, घैला भीर गोलीं।
बच्चों के छोटे कथा गीत
छोटे छोटे बच्चों को मन बहलाने के लिए बुंदेलखंड में छोटे छोटे कथा गीत सुनाये जाते हैं। देखिये-
अल्ल में गईं दल्ल में गईं, दल्ल में सें नकरी ल्याईं।
नकरी मैंने चुक्खों खों दई, चुक्खों ने मोय डुक्को दई।
डुक्को नें मोय कोचो दई, कोचो मैंनें कुमरे दई।
कुमरा नें मोय मटकी दई, मटकी मैंने अहीरे दई।
अहीर नें मोय भैंस दई, भैंस मैंने राजे दई।
राजा नें मोय रानी दई, रानीं मैंनें बसोर खों दई।
बसोर ने मोय ढोलक दई, रानी के बदलें ढोलक पाई।
सो बज मोरी ढोलक ढुम ढुम ढुम।
प्रस्तुत गीत के तारतम्य के कारण बच्चों का ध्यान केन्द्रीभूत होकर कथा गीत सुनने में लगा रहता है। ढोलक की ढम, ढम, पर वे सभी खिलखिला कर हँस पड़ते हैं।
बच्चों को खिलाने के गीत
जिस प्रकार लोरियां बच्चों को सुलाने के लिए होती हैं उसी प्रकार बच्चों को खिलाने के लिए कुछ बुंदेली गीत होते हैं। बुंदेलखंड में रोते हुए बच्चों को चुप कराने के लिए बुजुर्ग लोग उसे पंजें पर विठलाकर झुलाते हुए यह गीत गाते हैं।
कौंड़ी के रे कौंड़ी के पाँच पसेरी के, उड़ गये तीतुर, बस गईं मोर।
सरीं डुकइयां ले गये चोर चोरन के घर खेती भई, मार डुकइया मोटी भई।
मन मन पीसै मन मन खाये, बड़े गुरू सें जूजन जाये।
बड़े गुरू की छप्पन छुरी, तीसौ कापैं मदनपुरी। मदनपुरी के आये वीर
घर में बांदे सौ सौ तीर। एक तीर मोय मारो तो, दिल्ली जाय पुकारो तो।
दिल्ली के घर अंसा, गैलनमें संग दानसा, हुलु लूलू।
अन्य गीत भी इसी प्रकार रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए गाया जाता है। गीत गाते समय कोई भी बच्चे की हथेली पर थपरी देकर ये गीत गाता है।
थाथा थपरी गइया व्यानी कबरी, बच्छा भओ सुपेत, नाव धरो गनेस।
जा भइया की, जा दद्दा की, जा बैनी, जौ बैल को खूंटा।
चलरे डूंड़ा कुल कुल कुल।
कुल कुल के साथ ही कैसा ही रोता हुआ बच्चा खिलखिलाकर हँसने लगता है। अन्य गीत में बच्चे की हथेली को उल्टा कर घोड़े को पानी पिलाने का उपक्रम किया जाता है जिसमें ये गीत गाते हैं-
अटकन चटकन धाई चटाकन, बाबाजू को घुरवा, डांग से लओ डुड़वा।
चल रे घुरवा पानी पी।
इन गीतों के अलावा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी की रात्रि में लड़के घास के पूरा में आग लगाकर उसे टांगों के नीचे से निकाल सिर पर घुमाते हुये ये पंक्तियाँ कहते हैं। ‘‘ओद बोद ओद बोद ओद बोद’’ इन पंक्तियों में घास और आग के खेल से बच्चे अग्नि की प्रारंभिक कहानी कह देते हैं। जब मानव को सबसे पहले अग्नि का ज्ञान हुआ होगा तो उन्होंने सबसे पहले यही सीखा होगा कि अग्नि घास के संसर्ग से शीघ्र जल जाती है।
लड़कियों के खेल गीत
बुंदेलखंड में लड़कियाँ के चपेटों और झूलों के खेल गीत प्रमुख हैं। चपेटा खेलते समय लड़कियाँ यह गीत गाती हैं-
कारौ कउआ ढील ढिलउआ, विच्छू को डंक बोल गई सुरंग जौ धप्पा वो थप्पा।
बाबा ल्याये आबरी, फूट गई गागरी।
गागरी फूट गई, सास बउ सें रूठ गई।
बउ कें भओ लरका, बिछादो वाई पलका।
नौरता खेल गीत
बुंदेलखंड में नारे सुअटा का खेल कुआंरी बिटियां खेलती हैं। अश्विन शुक्ल प्रतिपदा (नवरात्रि आरंभ) होते ही सुअटा खेल शुरू हो जाता है। इस खेल में नारे सुअटा (राक्षस का चित्र) का चित्र दीवाल पर बनाया जाता है। उसी के नीचे चबूतरे पर गौर की स्थापना होती है। लड़कियाँ रोज इसी गौर की पूजा करती हें और प्रातः लीप पोत कर कांय डाल विभिन्न प्रकार के बेल बूटे तथा चौक पूरतीं हैं। नमें की रात्रि में झिंझरिया लेकर घर घर से दान एकत्रित कर लड़कियाँ सभी को शुभ आशीष देती हैं। इसी के साथ नारे सुअटा का खेल समाप्त हो जाता है। नारे सुअटा के साथ बुंदेलखंड में एक कथा कही जाती है कि एक बार एक राक्षस था जो कन्याओं का अपहरण किया करता था। कन्याओं ने परेशान होकर गौरा-पारवती की पूजा कर उन्हें प्रसन्न कर लिया और पारवती जी ने ही अपनी शक्ति से उस राक्षस का बध कर दिया इसलिए लड़कियाँ गौरा पारवती जी की पूजा करती हैं। नारे सुअटा को बुंदेली में नौरता (नौ-रता- नौरता) कहते हैं। कांय डालते समय इस गीत को गाती हैं जिसमें वे अपनी सहेलियों, भाइयों एवं अपने अपने बाबुल का नाम जोड़ती जाती हैं।
हिमांचल की कुँवर लड़ायती नारे सुअटा, गौरा बाई न्योरा त्यौरा।
नांयतो नइयो वेटी नौ दिना नारेसुअटा, दसरा खों करो सिंगार।
पर ना परैं मैड़ें लड़े नारे सुअटा, लड़गये वंदिया मोर।
बंदिया मोर झड़ाझड़ी नारे सुअटा, समुद्र हिलौरें लेय।
समुद्र की मइया जो कहे नारे सुअटा, मेरे सूरज कहां जायें।
औड़े वारी कायरी नारे सुअटा, उनविन भोर न होंयें।
नौरता गीत में अन्य हास्य परिहास्य युक्त गीत भी लड़कियाँ गाती हैं वे अपनी गौर को अन्य की गौर से अच्छी कहती हैं। देखिये-
अपनी गौर की झईं देखो, काहो पहिरें देखो।
कान तरकुला देखो, नाक नथुनियां देखो।
हात ककनवां देखो, पाँव पैजनियां देखो।
पराई गौर की झाईं देखो, काहो पैरें देखो।
नाक नकटी देखो, कान बूची देखो।
पाँव पोलू देखो, घमक चलू देखो।
इस गीत के बाद लड़कियाँ दूध चढ़ाकर गौर की पूजा करती हुई यह गीत गाती हैं।
मोरी गौरा मांगे चतूरे के बन्ना, सो कहां पांवरे लाल।
मोरे भइया, भतीजे हाट गये हैं, कारी ले कुंजल चौक बसंतो।
ले मोरी गौरा लेव महादो, जो तुम मागो सोई चड़ेहों।
गौर पूजन के उपरांत लीपने पोतने से बची गोबर की राशि से रास्ते में चिनकुन्टी (एक जगह गोवर रखना) करती हैं और यह गीत गाती हैं-
आर गौर पार गौर चन्दा रूरम गौर।
गोरा रानी कां चलीं, माउआ के पेड़ें, माउआ सियरो, गौरा रानी पियरौ।
अखरै चांवर वेल की पाती, धुजा नारियल पान सुपारी।
पाँचउ भइया पाँचउ सेर, छटईं बेनियां ईंगुर सी।
इसके उपरांत लड़कियाँ नहाने तालाब पर चलीं जाती हैं वहाँ पुआंर और अज्जारझारे (अद्दाझारे) को (जंगली घास) अपने ऊपर फेर कर ये पंक्तियां गाती हैं। अज्जा झारो झारियो, पुआंर कायें चड़ाइओ। यह क्रम नौ दिन तक एक सा चलता है। लड़कियों की सेवा में इस समय एक छोटा बालक रहता है जिसे नारे सुअटा का पड़ा कहते हें। इसे बालिकायें गौरा पूजन से शेष दूध पिलाती हैं। नारे सुअटा के समय रात्रि में खेलते हुए लड़कियाँ अनेक प्रकार के गीत गाती हैं जिनमें भोली भाली बिटियों की सौम्यता, बेटी की विदा का करूणिम दृश्य और भाई द्वारा बहिन को जिबाने का मार्मिक उल्लेख होता है। एक गीत में बाल सुलभ चंचलता और बाल हठ का वर्णन इस प्रकार हुआ है।
तिल के फूल तिली के दाने, चन्दा ऊवे बड़े भुन्सारें।
ऊँगन न होय बारो चन्दा, हम घर होय लिपना पुतना।
भाई को कहो न करहो, बाबुल को कहो न करहों।
पानी की खेप न धरहों, गोवर की हेल न धरहों।
चकिया को डड़ा न पकरहों, तवा पै कुचइयां न धरहौं।
बासी को कौर न देहों, ताती होय तो लप लप खैहों।
प्रस्तुत गीत में बुंदेली युवती स्वछंद रहना चाहती है उसकी कल्पना कुरंगी सी छलांगे लगाती है वह चाहती है कि घर में सास, ननद कोई न हो क्योंकि ये दोनों बाबुल और बीरन को कोसती हैं इतना ही नहीं वह कहती है कि मैं माता पिता का कहना नहीं मानूंगी और न ही रूखा सूखा भोजन खाउँगी। यदि गरम गरम भोजन मिल गया तो भरपेट खा लूंगी कि अन्य गीत में वात्सल्य की मूर्ति माँ का स्नेह स्वर, में घुलने लगता है कि अन्य गीत शुरू हो जाता है।
खेल लो बेटी खेल लो माई बाबुल के राज।
जब दूर जैहो बेटी सासरे, सास न खेलन देय।
रात पिसावे पीसनों, दिवस गुवर की हैल।
दूरा के देसा दई है गौरा, बेटी दई है, सजई बेटी,
को बेटी तोय लिवाहुन जैहे बुलाहुन जैहे।
गीत की अंतिम पंक्ति सुनकर बिटिया पुकार उठती हे कि हे माँ मेरी पीठ पर होने वाला भाई मुझे लेने जायगा। बुंदेलखंड में ऐसा विश्वास है कि जिस लड़की की पीठ पर (लड़की के बाद पैदा होना) माँ की गोद में लड़का पैदा होता हे वह लड़की बड़ी भाग्यवान होती है। इसीलिए लड़की प्रसन्न होकर इन्हीं भावों का गीत गाती है।
मोरी पीठ के भइया सूरज मल भइया चन्दामल।
जे दोउ भइया चार भतीजे, लिवाउन जैहें बुलाउन जैहें।
सिर गोला पाग संभारत जैहें, पियरे पट पहिनावत जैहें।
लिली सी घोड़ी कुंदाउत जैहें, लाल छड़ी चमकारत जैहें।
बन की चिरइयां चुगाउत जैहें, अन्य कुअल उघराउत जैहें।
फूटे ताल बंधाउत जैहें, उखटे बाग लगाउत जैहें।
नंगी डुकइयां उड़ाउत जैहें, भूकीं डुकइयां जिमाउत जैहें।
क्वाँरी सी कन्यां विहाअत जैहें। व्याहीं सीं बिटियां चलाउत जैहें।
बुंदेली बहिन का भाई बड़ा उपकारी है। वह पानी समस्या, भोजन समस्या और स्यानी बेटी की शादी की समस्या आदि सभी जीवन की विकट समस्याओं का समाधान करता हुआ अपनी बहिन को लिवाने के लिए जाता है कि इसी समय औरतें अन्य भावों का गीत गाने लगतीं हैं। इसमें बुंदेली बहिन का वह चित्र उपस्थित होता है जिसमें बहिन सासुरे में अपने भाई का इंतजार करती है। रक्षाबंधन के त्यौहार पर कई व्यक्ति अपनी बहिनों को लिवाने के लिए आ जा रहे हैं उनमें से किसी को बहिन अपना भाई नहीं कह पाती है क्योंकि भाई उसे लिवाने नहीं पहुँच पाता है। देखिये-
चौकन चौकीं चौकटीं नारे सुअटा, चौकी के चारउ खूंट।
चौकन बैठे भइया टेरत सो नारे सुअटा, तिनमें भइया चन्दा सूरज मोरे कौन।
लाल पाग कारी ढालके नारे सुअटा, लीली घुड़ल असवार।
चन्दा सूरज दोई भइया ठांड़े नारे सुअटा, पकरें लोंग की डार।
लीली जो बांदो भइया लौंगसें नारे सुअटा, घरियम घांमों विलमाओ।
हम कैसें घामों विलमाइये नारे सुअटा, जिनकी बहिन परदेस।
घामों विलमायें मोरे बाबुल नारे सुअटा, जिननें दई परदेस।
सुअटा के अंतिम दिन शाम को गौर पूजन में फूले हुए चनों के मसूसे चढ़ाये जाते हैं। लड़कियाँ इन मसूसों को खाती हुई गाती हैं। मोई गौर को पेट पिरानो, भसकूं और इसके उपरां शाम के एक मिट्टी के पात्र (घैला) में सात छेद कर उसके अंदर जलता हुआ दीपक रख झिजिया (ढिरिया) बनाई जाती है। लड़कियाँ इस झिजिया को लेकर घर घर दान माँगने जाती हैं। दान मांगते समय वे यह गीत गाती हैं।
सात लरों का झूमका नारे सुअटा, धरो धरो मखयाय।
लैलो चन्दामल भइया मोलखों नारे सुअटा, तुमरी दुलइया बड़ी जोग।
जोग बड़ी बीरन लाड़ली, नारे सुअटा, पलका सें पाँव न देय।
पलका सें पिड़ियां धरो, नारे सुअटा, विछियन भई झनकार।
कौन बड़े तेरे वीछिया, नारे सुअटा, कौन बड़ी तोरी बांक।
बाबुल बड़े मोरे वीछिया, नारे सुअटा, ससुर बड़े मोरे बांक।
एक घर से माँग कर लड़कियाँ अन्य के दरवाजे पर माँगने के लिए चल देती हैं। रास्ते में उन्हें दूसरी झिजिया मिलते ही वे व्यंग्य गीत शुरू करती हैं। ढिरिया में ढिरिया आन मिली नारेसुअटा, ढिरिया जनम की सौत कि लड़कियाँ किसी दरवाजे पर पहुँचकर दान देने वाले की प्रसंशा में यह गीत गाने लगती हैं।
बूझत बूझत आये हैं कौन भइया तौरी पौर।
पौरन बैठे भइया पौरिया नारे सुअटा, खिरकन बैठे छड़ीदार।
पूंछत पूंछत आये हैं नारे सुअटा, कौन हिंमांचलजू की पौर।
बड़े अटारीं बड़े ढवा नारे सुअटा, बड़े तुमारे नाव।
गज मोतिन के झूमका नारे सुअटा, लटकें पौर दुआर।
तुम जिन जानों बाबुल मांगनी नारे सुअटा, हमरौ दओ न गिरजाय।
कौनन कौनन जिन फिरो नारे सुअटा, डारो बंडा में हांत।
ऐसौ सूप गवाइयो नारे सुअटा, आबै पसेरी दौचार।
निकरौ दुलइया रानी बायरें नारे सुअटा, विटियन अच्छत देव।
कैसें कें कड़ो विन्नू बायरें नारे सुअटा, उलियन झडूले पूत।
पूत झडूले पारौ पालनैं नारे सुअटा, बिटियन अच्छत देव।
भर कोपर रानी निग चलीं नारे सुअटा, चन्दन रिपटो पांव।
पावन आगई झुनझुनी नारे सुअटा सिरखों लागत घाम।
पांवन खों चट पांवनी नारे सुअटा, सिर पै छतुर तनाओ।
इतने अच्छत हमें देओ नारे सुअटा, जितने दुलइया तोरे पूत।
दूदन पूतन घर भरै नारे सुअटा, बडअन भरै चितसार।
लरका खावैं घिउ पुरीं नारे सुअटा, बउयें खिचरी तेल।
दुदुआ भात भोजन करो नारे सुअटा, पिओ कचुल्लन दूध।
तुम जिन जानों भइया मांगनी सो घरघर देत असीस।
दान पाकर बिटियां आशीष देती हुई चली जाती है। यदि कोई दान देने में आनाकानी करता है तो वे ये पंक्तियां गाती जाती हैं।
हंड़िया दिओ पारो दिओ नारेसुअटा, चमचा लिओ टटकोर।
नौनी दुलइया कन्जूसन घर घुसी नारेसुअटा, ऊके घरमें घुसिओ चोर।
दान लेने के बाद लड़कियाँ गौरा और शंकर की शादी रचाती हैं। शादी के उपरांत झिरिया का विसर्जन कर दिया जाता है। दूसरे दिन नारे सुअटा को किसी जलाशय में सिरा दिया जाता है। इसी रात्रि लड़कियों का सामूहिक भोजन होता है जिसमें वे यह गीत गाती हैं।
अपनी गौर को पेट पिरानो, सारे लड़ुआ हप्प।
अपनी गौर के लड़का भओ, सारे लडुआ हप्प।
पराई गौर को पेट पिरानों, सारे लडुआ हप्प।
पराई गौर कें बिटियां भईं, सारे लडुआ हप्प।
इस मौज के उपरांत विवाहिता लड़कियाँ पंडित से पूजन कराकर सुअटा का उद्यापन करा लेती हैं। बुंदेली में इसे सुअटा पुजाना कहते हैं।
दादरे
बुंदेली लोक साहित्य में दादरे अधिक मात्रा में गाये जाते हैं। दादरे गीतों में जीवन की विभिन्न स्थितियों का चित्रण मिलता है। बुंदेली युवती पहली बार पति मिलन के अरमान संजोकर ससुराल जाती है कि वहाँ पर प्रथम रात्रि में ही जब वह पति के पास जाती है तो वहाँ उसके स्थान पर पहले से ही उसे सौत लेटी मिलती है इसलिए वह पुकार उठती है कि हे माँ मैं ससुराल नहीं जाउंगी क्योंकि मेरे बालम सौत के कारण मेरी उपेक्षा करते हैं। इन्हीं भावों का दादरा गीत इस प्रकार है।
ससुरे के जात मोई बड़ी कठिनाई, में ना जैहों माई।
एकदार गई ती, गांठजोर दई ती।
तौ गांठ जोर हांत जोर विनती कराई, मैना जैहों माई।
ऊंची अटरियां लाल किवरिया, विछीं जां सिजरियां।
दियला जराय मसकां में देखी, तौ सौत परी पाई। में ना जैहों माई।
बुंदेली लोक गीतों की विशेषताएं
भारतीय अन्य भाषाओं के लोक साहित्य की तरह बुंदेली लोक गीतों में भी अपनी निजी विशेषताएं पाईं जाती हैं जो इस प्रकार हैं।
- रचयिता के नाम का अभाव,
- लोक लय की प्रधानता
- सामूहिक प्रवृत्ति की व्यापकता
- छंदों में फैलाव
- कृत्रिमता का अभाव
- लोक संस्कृति का चित्रण
- सहजता
- मौखिक परंपरा
- संगीत ओर गेयता की प्रमुखता
- संक्षिप्तता
- प्रभावोत्पादकता
- लोक विश्वासों एवं रूढ़ियों का प्रभाव आदि।
(ब) बुंदेली लोक गाथा
बुंदेली लोक गाथाएं गीतों से बड़ी तथा कथात्मक होती हैं। वाद्य यंत्र के स्वर में निजी लय और नृत्य इनकी प्रभावोत्पादकता बढ़ाते हैं।‘‘लोक गाथायें गाने के लिए होती हैं इनमें से कोई कोई नृत्य या वाद्य के साथ गाई जाती हैं और जो नृत्य वाद्य के साथ नहीं गाई जाती हैं उनका भी अपना अपना राग होता है। इन लोक गाथाओं के विशेषज्ञ ही इन्हें गाते हैं’’। बुंदेलखंड की लोकगाथा आल्हा एवं पमारा दोनों ही ढोल झांझ पर नृत्य के साथ गाये जाते हैं।
बुंदेली लोक गाथाओं का वर्गीकरणः
बुंदेलखंड की लोक गाथाओं का वर्गीकरण विभिन्न विद्वानों ने इस प्रकार किया है।
- डॉ. श्रीराम शर्मा का वर्गीकरण- 1. संत बसंत की लोक गाथा, 2. राजा गिलन्द की लोक गाथा, 3. जगदेव का पंबाड़ा 4. कारस देव।
- श्री रामचरण हयारण मित्र का वर्गीकरण- मित्र जी ने अपनी पुस्तक में पृथक से लोक गाथा की विवेचना नहीं की है बल्कि फुटकर रूप में आल्ह खण्ड, कारसदेव की गोटें, माता के बुंदेलखंडी गीत आदि नाम देकर वर्णन किया है। आल्हा के संबंध में लोक गाथा संबंधी उनकी स्वीकारोक्ति इस प्रकार है। ‘‘आल्हा बीर छंद का बीर गीत काव्य है जो लोक गाथाओं के समुद्र के नाम से बुंदेलखंड के जनपद में बहुत प्रचलित है।’
- श्री कृष्णानन्द जी गुप्त का वर्गीकरण- 1. लोक गाथा (पमारा)। 2. कारस देव, 3. अमान सिंह (राछरो)।
- श्री देवेन्द्र सत्यार्थी जी का वर्गीकरण- 1. सुरहन और सिंह की गाथा 2. राछरे 3. पमारे।
- श्री शिवसहाय चतुर्वेदी जी का प्रयास- श्री चतुर्वेदी जी ने सीता वनवास एवं मानौ गूजरी की कथा प्रधान गीतों को स्फुट गीतों में रखा है।
मेरे अनुसार बुंदेली लोक गाथाओं का वर्गीकरण इस प्रकार है।
- आकार की दृष्टि से 2. विषय की दृष्टि से।
- आकार की दृष्टि से- (अ) लघु आकार की गाथाएँ (ब) दीर्घ आकार की गाथाएँ (स) मध्य आकार की गाथाएँ।
(अ) लघु आकार की गाथाएँ- 1. सीता वनवास गाथा, 2. मानो गुजरी गाथा, 3. सीताहरण गाथा, 4. सिंह सुरहन गऊ की गाथा।
(ब) दीर्घ आकार की गाथाएँ- 1. आल्हा, 2. पमारौ, 3. कारसदेव की गोटें, 4. नल और ढोला की गाथा।
(स) मध्य आकार की गाथाएँ- (चम्पू गाथाएँ) 1. संत बसंत की गाथा 2. राजा गिलन्द की गाथा।
- विषय की दृष्टि से-
- वीर कथात्मक गाथाएँ- आल्हा।
- ऐतिहासिक कथात्मक गाथाएँ- अमानसिंह जू को राछरौ, धनसिंह कौ कथा गीत, पारीछत जू की गाथा।
- धार्मिक कथात्मक गाथाएँ- 1. पमारो, कारसदेव की गोटें, सीताहरण, सीता वनोवास आदि गाथायें हैं।
- प्रेमाख्यान कथात्मक गाथाएं – संत बसंत की गाथा, राजा गिलन्द की गाथा।
- उपदेशात्मक या शिक्षाप्रद गाथाएँ- सुरहन गऊ एवं सिंह की गाथा।
कुछ प्रमुख लोक गाथायें इस प्रकार हैं-
आल्हा लोक गाथा- बुंदेलखंड में आल्हा का नाम उसी प्रकार विख्यात है जैसे कि अवध में राम का नाम विख्यात है। राम मर्यादा पुरषोत्तम ईश्वर अंश हैं, आल्हा बीर पुरुष पौरूष के अवतार हैं। इनकी वीरता बुंदेलखंड में इन्हें अजर-अमर बनाये है। किंवदन्ती के अनुसार आल्हा को युधिष्ठिर का अवतार माना जाता है। आल्हा लोक गाथा में बावन लड़ाइयों का वर्णन है जिनमें भुजरियों की लड़ाई और उरई का निर्णायक युद्ध प्रमुख है। इन समस्त गाथाओं में आल्हा, ऊदल, मलखान, लाखन, ढिरिया, तालनमिलयां, आदि की वीरता का ओजमय वर्णन है।
भुजरियों की लड़ाई
धर्म ग्रंथों में जो स्थान रामचरित मानस का है वही स्थान बुंदेलखंड में भोले भाले ग्रामीणों के हृदय में आल्हा का है। वीरों के लिए महोबा की रणस्थली कुरूक्षेत्र की तरह प्रेरणामयी है। आल्हा की पूज्य शारदा मइया और मनिया देवता इन्हें प्राणों से प्रिय हैं। आल्हा काव्य का सृजन महोबा के राजा परमाल के राज कवि जगनिक ने किया था। आल्हा का सृजन वीर छंद या आल्ह छन्द में हे। यह छन्द मांत्रिक होता है इसमें सोलह, पन्द्रह मात्राओं पर विराम तथा अंत में एक गुरू, एक लघु होता है। गायकों की विभिन्नता के कारण आज यह छंद दोषयुक्त मिलता है। जगनिक सृजित मूल भाग अप्राप्त है किंतु मौखिक परंपरा में आल्हा बारहवीं शताब्दी से अभी भी जीवित है। आल्हा बीर रस प्रधान काव्य है जिसे भारत की अन्य भाषाओं में भी गाया जाता है। बुंदेलखंड में आल्हा का गायन खेत खलिहान या अथाई पर वर्षा ऋतु में होता है इसके प्रारंभ में साखी गाई जाती है देखिये-
मइया बेला चमेली अरे खोंटो न, जौ लो फूले फूल गुलाब।
राजा दूसरो अरे जांचों न, अरे जांचो न, जो लो जिअत धनी परमाल।
और मइया सूनी घिंनौची तो गगरी बिना, सूनी, घोड़ा बिन घुड़सार।
रैन तो सूनी रे चन्दा बिना, और चन्दा बिना, सूनी बिना पुरूष की नार।
काउ के बंगला देखो दियला जरैं, काऊ के जरत मसाल।
ऊदल बांकरे के बंगला में, रे बंगला में, नंगी खिची धरी रे तलवार।
साखी शूर होते ही समा बंध जाता है और भुजरियों की लड़ाई का कथानक चलने लगता है। उरई के राजा माहिल नारद का काम करते हैं इन्हीं की चुगलियों से युद्ध होते हैं।
घोड़ी तो कबूतरी सी नई होनें, उर नई मलखे सो असवार।
माहिल सौ चुगली अरे होनें नई, चुगली करत रजा परमाल।
कान के कच्चे राजा परमाल को माहिल मनोवैज्ञानिक ढंग से मरवा देता है वे बिना आगापीछा सोचे आल्हा ऊदल को महोबा से निकाल देते हैं देखिये-
आज सें भोजन करो महुवे में, तौ तुम खाओ गऊ कौ मांस।
पानूं पियो जो दस पुरवा में, तौ तुम पिओ गऊ को खून।
नारी संग सेज पै जो सोओ, तौ तुम परो बैन के संग।
नगर महोबे में हाहाकार मच जाता है।
डुंडी पिट गई गड़ महवे में, आल्हा ऊदल दये हटाय।
रइयत रो रई है नगरी की, हाहा दइया परी सुनाय।
आल्हा ऊदल अपने परिवार को लेकर भर बरसात में कन्वज चले जाते हैं दूसरी ओर पृथ्वीराज युद्ध की संपूर्ण तैयारी करके महोबे को घेर लेते हैं और ये मांगे रखते हैं।
पारस बटइया खों मागो है, पाँचउ उड़न बछेरा क्यार।
बैठक खजवागढ़ की माँगी, मांगौ और नौलखा हार।
डोला दैदो चन्द्रावल को, तौ तौर विगरौ है कछु नांय।
नई तौ कोऊ धरी के अरसा में, नगर महोवो लेंय लुटाय।
आज सभी को आल्हा ऊदल की याद आती है। मल्हना बिसूरती हैं।
तब नईं आये दिल्ली बारे, जब घर हते बनाफर राय।
सूनी तिरियां उननें देखी, घर सूने में लओ दबाय।
कुँवर चन्द्रावली भुजरिया सिराने के लिए मचल रहीं हैं लेकिन महोवे में ऐसा कोई नहीं है जो बिना ऊदल के यह त्यौहार संपन्न करादे। अतः मल्हना और बेटी चन्द्रावली शारदा मइया के मंदिर में जाकर ऊदल को संदेश भेजने की प्रार्थना करती हैं।
मल्हना बोली अब दुर्गा सें, दुर्गा कसूर माफ हो जाय।
चड़ो पिथौरा नौलख दल सें, महुवो ऊनें लओ घिराय।
गऊऐं तौ गोबर जे भक रईं, कोऊ भीतर न बाहर जाय।
बिना बेंदुला के चड़बइये, दिल्ली पत न वापिस जाय।
दुर्गा का कथन-
बोली भुवानी तब मल्हना सें, रानी तौरो बुरव हो जाय।
सावन चिरइया न घर छोड़े, ना व्योपारी बन्ज खों जाय।
भर भादौं री उनें काड़ दओ, कैसें लौट महोवे आय।
मैंना जैहों गड़ कनवज खों, चाय जिये तें देय पठाय।
इतना सुनकर मल्हना आत्म हत्या करना चाहती हैं कि दुर्गा हाथ पकड़कर संदेश भेजने को तैयार हो जाती हैं भवानी कनवज में ऊदल को स्वप्न देती हैं-
तें तो सो रओ सुक की निदिंया, विपता परी महोवे आय।
चड़ो पिथौरा दिल्ली वारो, नगर महोवो लओ घिराय।
बैठक हती रे जो आल्हा की, ऊ पै धरो पिथौरा राय।
जौन अखाड़े रे आल्हा के, ऊमें चौड़िया गुलांटें खाय।
चन्द्रावल रो रई महलन में, ऊदल ऊदल रई पुकार।
जियत तोय जो महुवो लुट जै, जग में थूंके रे सिंसार।
देवी का संदेश सुनकर ऊदल कनवज के राजकुमार लाखन, ढिरिया तथा ताला सैयद के साथ महोवे चलने की तैयारी करते हैं। लाखन को युद्ध में जाते देख लाखन की नवपरणींता रानी पति को रोकने के लिए प्रकृति से अनुरोध करती है।
कारी बदरिया री तोय सुमरौं, पुरवई परोंरी तिहारे पांव।
आज तौ बरस जाओ ये री कनवज में, मोरे कन्ता घरे रे जांय।
कारी बदरिया बैना लगत है, कौंदा भइया लगत हमार।
बैन बिसूरे रे महलन में, दोई बरसे जार बेजार।
वर्षा ऋतु के मेघों ने युवती के अन्तस् की चाह समझकर बरसना प्रारंभ कर दिया किंतु शूरों को रण प्रांगण से कोई नहीं रोक सकता है। लाखन जाने को उद्यत होते हैं नारी पुनः पुकारती है।
चाउर चकोटन मैंने धोकें धरे, और घी मौकें कनक उर दार।
घरियक विलमौं अरे मोरे बलमा, तुमरी धनिया तपै ज्योंनार।
लाखन उत्तर देते हैं-
लाखन समझारओ रानी खों, तुम तो सुन लो कान लगाय।
कारी बदरिया रे सारी लगत है, कौंदा सारो लगत हमार।
आज की रैना भैंना रूकों, चाय लग जावे अगनियां धार।
चाउर चिरइंयन खों चुनवा दिओ, बमनें दियो कनक उर दार।
मोरो पनवारो, प्यारी महवो भरौ, परसा ठांड़ो चौड़ियाराय।
युवती के हृदय की ललक की अभिव्यक्ति से पौरूष पिघल जाता है किंतु शूरमाओं को यह भी नहीं पिघला पाता है। लाखन युद्ध की तैयारी करते हैं, रानी साथ चलने का आग्रह करतीं हैं-
पांउन महाउर रे पिया छूटो न, छूटो न, छूटी नइंया काजर की रेख।
दाग हरद के देखो छूटे न, कन्ता लरन जात परदेश।
संग न छांड़ो मैं पिया तुमरो, जानै कहा रची करतार।
आंगू डोला राजा मोरो चले, पीछूँ हथनी चले तुम्हार।
लाखन बोल पड़ा-
कब कब छिरियां प्यार मरकऊं भईं, कबकब अंड़न पै परगवसार।
कब कब तिरियां री जुझहट भईं, जो तौ करत फिरीं तरवार।
बैठी रइओ रानी सतखण्डन पै, सुख के खइयो अगनियां पान।
जीत जगरिया जबै घर लौटों, मुतियन माँग भरादौं आन।
रानी उत्तर देती है-
रैन विहूनी लगै चन्दा विन, नदिया लगै विना जलधार।
बंस विहूनों बिन वेटा को, ऊसेंई बिना पुरूष की नार।
जरबर जावैं जे सतखण्डा, उर पानन पै परै तुसार।
तोरे अकेले इक जियरा बिन, मौको सूनो लगे संसार।
लाखन मित्रता निर्वाह हेतु ऊदल के साथ चलते हैं। लाखन, ऊदल, ढिरिया, तालासैंयद आदि योद्धा अपने सैनिकों सहित महोवे में ‘‘करिया पाठे की बरिया तरे डेरा डाल देते हैं। सभी शूरमा योगी भेष बनाकर नगर की स्थिति का अवलोकन कर वहीं चन्द्रावली को भुँजरियां खुटवाने का आश्वासन देते हैं। रानी मल्हना औरवेटी चन्द्रावली अपनी सहेलियों सहित (जहर की पुड़िया एवं कटारी साथ में रख) भुजरिया खोंटने किरतुआ ताल पर चल देती हैं। पृथ्वीराज चौड़िया राय को डोला लूटने भेजते हैं। ब्रह्मा चौड़िया को कैद कर उसकी मूँछें मुड़वाकर मल्हना, बना, पृथ्वीराज के पास भेज देते हैं। जैसे ही पृथ्वीराज डोला में मल्हना की जगह चौड़िया को देखते हैं जलकर झोल हो जाते हैं।
झरप खोल दई जब डोला की, ऊमें परो चौड़िया राय।
बँदो बँदाओं चौड़ा देखो, भवका लगो करेजें आय।
माहिल माहिल कों ललकारो, चुगली तोरो वुरऔ हो जाय।
इस घटना के बाद पृथ्वीराज और ब्रह्मा का घमासान युद्ध होता है। ब्रह्मा को घिरते देख ऊदल गर्जना करता है।
खाईं इनामें रे बड़ बड़ कें, तुमने समसर भुगत लये राज।
आज के दिन खां तुमें सेब हतौ, सौ जुरमिलकें बचालो लाज।
नौंन हरामी देखों चाकर मरै, यारो मरै बैल गरियार।
चड़ी अनीं पै जो कोउ विचलै, ऊकी मरै रे गरब सें नार।
सैनिक कहते हैं-
नौंन तुमारे हमनें खाओ, हमनें समसर भुगत लये राज।
आज अबेरा गड़ महुवे पै, जीकी राखे भुमानी लाज।
अंगुरी कट जाय चाये छिंगुरी कटै, मालक कट जाय छितरियन मांस।
टारे न टरबी हम खेतन सें, जोलो रैहे देह में सांस।
चौहान के दल को एक तरफ से ब्रह्मा, दूसरी ओर से ऊदल घेर लेते हैं। रण स्थली में ऊदल दोनों हाथों से तलवार चलाता है। बेंदुला टापों से दुश्मन को मारता है कि इतने में पृथ्वीराज ब्रह्मा पर प्राणघातक बार करना चाहते हैं इसी समय लाखन अपनी हथनी बृजनन्दन से पृथ्वी के हाथी को धक्का मार देते हैं। पृथ्वीराज इस धक्के से चौंक जाते हैं क्योंकि पृथ्वीराज के हाथी को बृजनंदन हथनी के अतिरिक्त कोई भी धक्का नहीं दे सकता था इससे वह लाखन और ऊदल उपस्थित है जान जाते हैं ऊदल के हाथों में रण का कंगन देखकर उनका मनोबल क्षीण हो जाता है और इस युद्ध में भी दिल्ली के राजा चौहान की पराजय होती है।
मारो अंकुस रे हथनी खां, भूरी बड़ी अंगारें जाय।
टक्कर मार रे हाती खों, हाती गिरौ भरेरा खाय।
होस बिगरगये रे पिरथी के, कीनें हाती दओ दबाय।
विन भूरी हतनी लाखन के, जग में कोउ दबइया नाय।
सामूं देखो रे ऊदल खों, दौनऊं हात करै तरवार।
मौं बायें पिरथी रैगओ, थूंक टेंटुआ गओ सुकाय।
माहल मर जावे उरई को, करवा दओ जो वन्टाढार।
हमें बुला लओ रे दिल्ली सें, हतै बनाफर करदये तइयार।
महोवे में भुजरियों का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है चन्द्रावली भाई ऊदल को राखी बांधती है। ऊदल इन पंक्तियों को सार्थक कर कनवज लौट जाते हैं।
बारा बरस लो कूकर जिये, जौर तेरह लो जिये सियार।
अठारा बरस लौ छत्री जीवे, आगे जीवन खों धिक्कार।
खटिया परकें जो मरजावे, डूब जाय पुरखन को नाव।
सामूं रन में लरकें मरवै, ऊखों मिलै बैकुंठी ठांव।
आल्हा काव्य में प्रत्येक लड़ाई की पृथक-पृथक गाथा है। अंतिम निर्णीत युद्ध उरई के मैदान में होता है जिसमें सभी योद्धा जूझ जाते हैं। आल्हा मात्र शेष रहते हैं जो कजली वन में चले जाते हैं।
हिन्दी साहित्य का वृहद इतिहास बुंदेलखंड में क्वाँर एवं चैत्र में नवदुर्गा एवं रामनवमी के अवसर पर माता के भजन गाये जाते हैं। बुंदेलखंडी जातियों- ढीमर, कोरी, चमार, धोवी, काछी, राउत में इनका विशेष प्रचार है। माता के भजन छोटे छोटे गीत होते हैं जिनमें माता की स्तुति की जाती है किंतु कुछ ऐसे लम्बे गीत भी हैं जिनमें देवी के भक्त अथवा वीर पुरूष की यशोगाथा का वर्णन होता है जिन्हें बुंदेली में पमारौ कहते हैं। बुंदेली में एक कहावत है ‘‘का भइया पमारौ सो गा रये, हमाई समझ में तौ कछू नई आओ, थक और गये तुमाई गौर गुथन्ना सुनत-सुनत’’। इसका अर्थ लम्बी दास्तान सुनाने से होता है अर्थात् पमारो बुंदेली भाषा भाषियों के कथनानुसार लंबी गाथा है। अतः इसे हम वीर गाथा का नाम दे सकते हैं। मराठी में पौवाड़ा का अर्थ ही बीर गाथा होता है। ‘‘पमारा के संबंध में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता है कि यह शब्द कहां से निकला है। पमारा बृज के मुहावरे में तो झंझट, झगड़े, युद्ध का पर्याय हो गया है …. बुंदेलखंड में पमारे का अर्थ लम्बी कथा का भी होता है। मराठी में यह शब्द बीर गाथा के लिए प्रयुक्त होता है।
यह बात किसी सीमा तक उचित प्रतीत होती है कि इन गीतों में पहले पमार- परमार क्षत्रियों की वीर गाथाएँ गाई जाती रहीं होंगी। इन कथनों के आधार पर पमारे परमारों के गीत होने के कारण पमारे कहलाये। बुंदेलखंड में आल्हा के नाम पर आल्हा काव्य का, लोक गाथा नल और ढोला की गाथा का नायकों के आधार पर नामकरण हुआ है बुंदेलखंडी पमारों में मालवे के परमाल राजाओं का विशेष कर भोज और जगदेव का वर्णन है यह वही जगदेव हैं जिनके विषय में मालवा, गुजरात और बुंदेलखंड में इनके माता के भजनों के साथ यश के पमारे गाये जाते हैं। बुंदेलखंड में इनके संबंध में अलौकिकता पूरित अनेकानेक किवदन्तियां कही जाती हैं। बुंदेलखंड की लखटकिया की कथाएँ इसका प्रमाण हैं। यह कथाएँ भी अलौकिक शक्ति लिये हुए नायक की विशेष क्षमता की द्योतक बनी हुई हैं। इनका नायक वह सब करता है जो कोई नहीं कर सकता है। इनका सबंध किसी न किसी तरह जगदेव से जुड़ा हुआ है। राशमाला के अनुसार जगदेव मालवा के राजा उदयादित्य (1059-87 ई.) का पुत्र था। उदयादित्य अपने भाई भोज की मृत्यु के बाद मालवे का राजा हुआ। किसी घरेलू षड्यंत्र के कारण जगतदेव को मालवा छोड़कर गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह के यहाँ जाकर नौकरी करनी पड़ी। वहाँ वह अठारह वर्ष तक रहा उसके बाद जब जयसिंह ने धार पर चढ़ाई करने का उपक्रम किया तो वह पुनः अपने पिता के पास आ गया। बुंदेलखंड में मैंने घूम-घूम कर पमारे सुने एवं लिखे हैं गायकों को तो बस भुमानी और जगदेव अन्योन्याश्रित दिखाई देते हैं तीसरा लंगुरा थौथा सिंह ही वहाँ उनके पास रह पाता है और अन्य कोई नहीं। इन चार नामों और पमारें के बोलों को सभी गायक जानते हैं। कथासूत्र के संबंध में चुप रह जाते हैं। एक बूढ़े गायक से मैंने जगदेव के संबंध में पूछा कि यह कौन थे तो उन्होंने कहा जैसे राम के सेवक हनुमान थे ऐसे ही देवी के सेवक जगतदेव थे। और उसने जगतदेव की भक्ति का पमारा सुना दिया। इस सबका भावार्थ यही निकलता है कि जगदेव ही अनेक किंवदन्तियों, कथाओं और गाथाओं का बुंदेलखंड में नायक बना हुआ है।कृष्णानन्द जी गुप्त ने आगे कहा भी है कि यह स्पष्ट नहीं था कि वह कौन था किंतु निजाम राज्य में प्राप्त एक शिला लेख से उसकी ऐतिहासिकता सिद्ध हो गई है।
बुंदेलखंड में गाये जाने वाले पमारे में जगदेव की पारिवारिक स्थिति पर प्रकाश पड़ता है। देखिये- महाराजा जगत से मा भले हो माँ।
माई बोली जगत की, सुनले बेटा बात, तो खों काय खों जाओ री, हो जाती बाँझ।
धरती फटतन फट परे, ऊमें जांव समाय। बेटा बोले जगतुआ, सुन माता बात।
हीन वचन जिन बोलो, दिल्ली की हनौ किवरियां, टोरों गुजरात। महाराजा…
बिटिया बोले जगत की, सुन बाबुल बात, मोये बियाय जगत खों, भुगतौ जगत को राज।
बाबुल बोलो जगतुआ हीन बचन जिन बोल, टोरों में गुजरात। राजा जगत ….।
गड़ में राजा उतर परौ, टेड़ी मैड़ी बादें पाग, पाँचउ पदम लिलार।
पाँच पान को बीरा, दायनें लरैं हनुमान, सामने लरे भुवानी। महाराजा जगत ….
गड़ सें रनियां उतर परी, मोतिन लयें थार, पूजे शारदा जगदेव की नार।
इतनी लाज मोरी राखियो, चुरियन को ऐवात। महाराजा जगत से ………….।
राजमाल के अनुसार जगत सिंह को किसी षड्यंत्र के कारण गुजरात जाना पड़ा था प्रस्तुत गीत में उनके पारिविरिक जीवन की एक झलक मिलती है। जगतदेव की माँ बेटे को अन्याय के प्रति सचेष्ट करती है बेटी उनके पौरूष को जगा देती है जिससे जगतदेव विकट युद्ध करते हैं। लंगुरा और भवानी उनके साथ रहतीं हैं।
बुंदेलखंड में जगतदेव का एक अन्य पमारा भी प्राप्त हुआ है जिसमें देवी माँ राजा दल पांगुरे के दरबार में जगतदेव के आने पर अपना सिर आँचल से ढांककर उनको सम्मान देती हैं। राजा दलपांगुरे को यह व्यवहार खटकता है। वह देवी से पूछते हैं कि जगतदेव नौकर होकर ऐसा क्या दान देता है जो में राजा होकर नहीं दे सकता हूँ। देवी ने कहा, जगतदेव जो दान कर सकता है उसे तुम नहीं दे सकते हो। राजा जगदेव से दूना दान देने की प्रतिज्ञा कर देते हैं। देवी जगदेव के घर आकर सिर का दान माँगती हैं जगदेव तुरत सिर का दान दे देते हैं। थाल में देवी कटे सिर को लेकर दलपांगुरे के दरबार में चली जाती हैं। देवी को आता देखकर दलपांगुरे सोचता है कि देवी चार-छह बतासे या कुछ अठवाइयां (पूड़ी) दान में लाईं होंगी में उन्हें सवा मन की अठवाइंयाँ बनवाये देता हू किंतु भक्त का सर्वस्व दान- सिर दान- देखकर राजा भागता फिरता है। वह अपनी सोलह रानियों तथा सभासदों से सिर दान हेतु कहता है किंतु कोई भी स्वेच्छा से यह दान देने को तैयार नहीं होता है। देवी दलपांगुरे को परास्त कर जगदेव की लाश के पास लौट आती है। जगदेव की रानी दिया हुआ सिर का दान वापिस नहीं लेती हें। क्षत्राणी की वीरोचित वाणीं सुनकर देवी प्रसन्न हो जाती हैं। सिर कटे रूण्ड से ही बैमुण्ड (सिर) पैदा कर देतीं हैं और जगदेव के कटे सिर को धरती में गाड़ देती हैं। इस त्याग से जगदेव का देवी भक्तों में सर्वोपरि स्थान हो जाता है। बुंदेलखंड में यह लोक विश्वास है कि जगदेव के कटे सिर से नारियल का वृक्ष पैदा हुआ है। आज भी उसी सिर से पैदा नारियल फल देवी को चढ़ाये जाते हैं। ग्रामीणों से सुना जाता है कि जगदेव की दो आँखें और मुँह ही नारियल के तीन छेद हैं। कुछ भी जगदेव के सिर दान की घटना सत्य है। ‘‘बुदेलखण्ड के पमारे में तो जगदेव ने अपना सिर माँगने पर देवी को चढ़ा दिया है। देवी उसे लौटाने गईं पर रानी ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया है कि दी हुई वस्तु वापिस नहीं ली जाती। अंततः देवी को धड़ में से नया सिर ही पैदा करके जगदेव को जीवित करना पड़ा है।
सिंगा नचाउत चली भुवानी, दलपंगुरे दरबार हो मांय।
इकबन चाली मइया दोबन चाली, तिजवन पौंची जाय हो मांय।
लगौ दरीबों राजा दलपांगुरे, घुंमड़ घुंमड़ लगौ दरबार हो मांय।
आउत देखो देवी जालपा, सभा उठी भाराय हो मांय।
चन्दन चौकीं डारो बैटका, दूदा पखारे दोऊ पाँव हो मांय।
आउत देखो जगदेवा पमारौ, दुर्गा मांथो लओ ढांक हो मांय।
राजा दलपांगुरो ऐसे जर गओ, जैसें करइयन तेल हो मांय।
मोरी सभा में को है राजा दुर्गा, जिये माथे लये ढांक हो मांय।
सेरक चून हमाये पावे, जब दुर्गा खों भोग हो मांय।
जिनखों माथै ढांक लये मांय, मौखों देव बताय हो मांय।
तोई सभा में राजा जगदेव पमारौ, जिनखां माथौ लओ ढांक हो मांय।
जो देवे जगदेवा पमारौ, दान चौगनों देंव हो मांय।
तामें पत्र मंगाओ जालपा, लिखो चौगनों दान हो मांय।
जगदेव देवे दो-दो गुना पपइयां, डलवा देंव भराय हो मांय।
जगदेव देवै दो एक हतिया, मैं देओं हतसार हो मांय।
जगदेव दैवे दो एक घुड़ला, मैं देंओ घुड़सार हो मांय।
जगदेव देवे दो एक उटला, मैं देंओ उटसार हो मांय।
जगदेव दैवे दो एक बुकरा, मैं हैड़े देंव हंकाय हो मांय।
जगदेव दैवे मटका भर दारू, मैं देंओ धार उड़ेर हो मांय।
तीन तिरवाचा हरांई जगतारन, पौंची जगदेव दरबार हो मांय।
बोली भवानी अब जगदेव सौं, घरियक माथे देव हो मांय।
खांड़ो ऐंच लओ जगदेव ने तुरतई, नौने हात संमार हो मांय।
सीस उतार दओ दुरगा खों, दुरगा ले लओ माथ हो मांय।
हांतन सीस समारो दुरगा, डार लओ आंचर छोर हो मांय।
लैकें सीस भुवानी चल भई, दलपांगुरे दरबार हो मांय।
ठांड़ो होकें देखे दलपांगुरो, दुरगा आरई लयें दान हो मांय।
पउअक अठवारी हुइयें थारन में, सेरन देंव बनवाय हो मांय।
हंतिया न ल्याईं माई, घुरवा न ल्याईं, वांयनों सो का ल्याई हो मांय।
अंचरा उगेरो जब जगतारन, राजा रओ घिग्गी बंदाय हो मांय।
लरका बैठे सब नाईं करत हैं, हमपै मूंड़ न दये जांय हो मांय।
सौरा रानिन सें पूछे दलपांगुरो, सबरन नें करी नाईं हो मांय।
आठ कुठरियन भीतर घुसौ राजा, जब दुरगा ने मांगे दान हो मांय।
बचन हार गओ राजा दलपांगुरो, पाउन गिरो भैराय हो मांय।
लौटी भुवानी बोली (जगदेव) रानी सों, रूण्ड से मुण्ड मिलाव हो मांय।
दये दान न लेओं भुमानी, मोरे धरम घट जांय हो मांय।
जाद भुवानी घट-घट जानी, औरये सीस उगाये हो मांय।
छिगरीं काट छिरकी आद भुवानी, औरये सीस उगे हो मांय।
लै अंगड़ाई उठो जगदेवा, भुवानी लओ कंठ लगाय हो मांय।
बचौ मुंड राजा जगदेव कौ, भुवानी धरती में दओ गड़ाय हो मांय।
जुंमुंआं जमौ सीस जगदेव को, नारियल विरछा भओ हो मांय।
ओई विरछ के चड़ें नारियल, जगतारन लैवे दान हो मांय।
दास लुहार भगत चिंतामण, है बानें की लाज हो मांय।
प्रस्तुत पमारे की पंक्ति जो देवे जगदेवा पमारौ यह सिद्ध करती है कि यह गाथा परमार राजा की है। यह पमारो अलौकिकता पूर्ण है, नये सिर की उपज अन्ध विश्वास की उपज है। कुछ भी हो सिर उच्छेदन की घटना अनार्य संस्कृति के उपासक रावण की याद दिला जाती है। आदि शक्ति भुमानी आल्हा की शारदा मइया की तरह जगदेव की मदद सदैव करतीं हैं।
आदि शक्ति माँ सीता की गाथा
– भगवान राम ईश्वर के अवतार हैं। माता सीता आदि शक्ति, भारत के प्रत्येक वीर की आराध्य हैं। शक्ति की उपासना ही देवी की उपासना है। सीता, भुमानी, देवी आदि उसी आदि शक्ति के साकार स्वरूप हैं। पौराणिक कथाओं में यह बात आई है कि रावण विजय के बाद राम और लक्ष्मण को अपनी वीरता पर अभिमान हो गया था यह माँ सीता से छुपा नहीं रहा और उन्होंने एक दिन विनोद में कह दिया कि महाराज आपने रावण नहीं अभी रवणियां मारीं हैं वीर रावण तो पाताल में निवास करता है उसका वध कर दीजिये। राम लक्ष्मण पाताल के रावण पर आक्रमण करते हैं किंतु पाताल का रावण इतना बलशाली था कि अपनी हुंकार से ही राम और लक्ष्मण को अयोध्या तक फेंक देता था। अंत में उन्होंने महामाया जानकी से पाताल के रावण वध हेतु निवेदन किया। जानकी जी ने महाकाली का बाना धारण कर उसका वध कर दिया। जब काली के भेष में जानकी जी लौटीं उस समय राम और लक्ष्मण उनके सामने ठहर नहीं सके। अंत में शंकर जी चुपके से लेट जाते हैं। काली मांई की शंकर जी की ठोकर लगते ही वे अपने पूर्ववत रूप- सीता में परिवर्तित हो जाती हैं क्योंकि शंकर जी को ठोकर लगने के कारण सीताजी के मन में ग्लानि जन्म पश्चात्ताप कचोटने लगता है।
लिख लिख पतियां भेजीं रामने, तुम दुरगा चलीं आव हो मांय।
पाती बांच मनैं मुसकानीं, करतीं मनें विचार हो मांय।
पूंछे जानकी, अरे लंगुरा सें, कैसे लंगुरा आये हो मांय।
कहा सांकरे परे राम पै, पतियां भेज बुलाव हो मांय।
लंगुरा ने कई दानों वरयानों, देवी देव मिटाय हो मांय।
तुम तौ जाओ मोरे भइया लंगुरवा, वन में सिंगा ल्याव हो मांय।
तीनउ लोक लंगुर फिर आओ, सिंग बरन नई पाय हो मांय।
तौ तुम बैठो मोरे भइया लंगुरवा, मैं सिंगा खों ल्यांव हो मांय।
इकवन चाली दुरगा दुजवन चाली, तिजवन पौंची जाय हो मांय।
विन्द पार पै डोरू बजाई, सिंगा उठौ भाराय हो मांय।
एक सिंग खों गई जगतारन, दौ सिंगा उठो भाराय हो मांय।
कौन सिंग पै पाखर डारों, कौना पै होंय असवार हो मांय।
कांखां धरें नौनें जीन पलैचा, काखां धरें हतियार हो मांय।
भुअन धरे मोरे जीन पलैंचा, घुल्लन टगे हतियार हो मांय।
दुरगा के सजतन सब दल सज गओ, सजे छतीसउ बान हो मांय।
डूँड़ा नादिया सजो महादेवा, गरूड़ पै सजै भगवान हो मांय।
लीली सी घोड़ी लछमन सज लई, रथ सब लये राजा राम हो मांय।
चौसठ जोगिन के दल सज गये, लेलये खप्पर हांत हो मांय।
अब दाने नें दई हुंकारी, भगदर परी दिखाय हो मांय।
सबरेई जोधा भगे प्रान ले, सबके डरे छतीसउ बान हो मांय।
डूंड़ा नादिया पै भगे महादेवा, गरूड़ पै भगे भगवान हो मांय।
लीली सी घोड़ी लक्ष्मन चड़ भागे, रथ पै भगे, राजा राम हो मांय।
चौसठ जोगिन को दल भागो, लैले खप्पर हांत हो मांय।
कौना की चल रईं तीर कमनियां, कौना के तरकस बान हो मांय।
लंगुरा की चल रईं तीर कमनियां, ज्वाला के तरकस बान हो मांय।
दानें मार गरद कर डारो, लै लै राम के नाव हो मांय।
खून सनी जब काली लौटीं, देख राम लछमन डरांय हो मांय।
औंदे डरे महादेवा गलिन में, काली ठोकर खांय हो मांय।
लगत लात के सोचे भुवानीं, तुरतई सीता रूप बनाय हो मांय
मोरध्वज की गाथा
बुंदेलखंड में मोरध्वज की गाथा बड़ी ही करूणिम लय के साथ गाई जाती है। मोरध्वज राजा अप्रतिम दानी तथा कृष्ण के अनन्य भक्त थे। एक बार अर्जुन को अपनी भक्ति पर घमण्ड हो जाता है, कृष्ण उनके घमण्ड को दूर करने के लिए मोरध्वज के पास विप्र भेष में जाकर पुत्र दान मांगते हैं। कृष्ण शर्त रखते हैं कि राजा और रानी पुत्र को आरे से चीर कर हमारे सिंह का भोजन करायेंगे। राजा रानी पुत्र को आरे से चीर देते हैं अर्जुन का घमण्ड दूर हो जाता है अंत में कृष्ण पुत्र जिन्दा कर देते हैं। महाभारत में मोरध्वज की गाथा इसी प्रकार वर्णित है किंतु लोक गाथाकार ने इसका संबंध दानी करण तथा कृष्ण और अर्जुन की जगह राम लक्ष्मण से जोड़ा है इसमें लोक गायक का अल्प ज्ञान झलकता है। ऐसी भूलें लोक साहित्य में प्रायः प्राप्त होतीं ही हैं।
राजा करन बड़े दानियँ, अरे देवें सवा मन दान।
जब धरनी में पग धरें, देवें ब्राह्मण दान, राजा करन बड़े दानिया देवें …..।
रामा लछन तपइया भये रे, धर लये बावन भेस।
झाड़ी से तपइया चल भये रे, भइया पौंचे करन के देस।
भीतर तौ खबरें कै दिओ, तपइया ठांड़े री द्वार।
भीतर सें राजा चल भये रे, आये तपसियन पास।
काये को दान तुम लैओ तपैया, कैसे करो रे बिसराम।
ना तो चइये मैड़ो बुकरा, न हमें रूपे के दान।
बेटा चीर आरे सें देव रे, सिंगे करें जलपान।
राजा रानी आरों खेंचे रे, अंसुआ न आवे बिल्कुल आँख।
भोजन करा दये नौने कुँवर के, कर दई तपइयन की पूरी आस।
कुंवरन खों भीतर टेरियो, राजा टेरो नाव पुकार।
खेलत कुँवर चल दये नौने महलन के दुआर।
हांत फेर तपसी आसीसें दईं, अपने ढिंग बैठाय।
कुंवर हालउं तपसियन के, चरनन गओ लिपटाय।
सीता हरण की गाथा
बुंदेलखंड में सीता हरण की गाथा गाई जाती है। यह गाथा रामारे गीत में मिलती है। इस गाथा में मृग मोह के वशीभूत होने के कारण जानकी जू का हरण होता है। देखिये-
अरे रामा हो सीताजू विरजीं रामसें, अरे लछमन बरियाँ लगाव।
अरे रामा हो, बरियां लगावें काछी, माली, जिनके बनाये रूजगार।
अरे रामा हो, हम का बरियाँ लगायें, हम दसरत जू के लाल।
अरे रामा हो, कौना की रे बारीं कइये, कौना कौ मिरग, को है रखाउनहार।
रामा हो, सीता की बरियाँ कइये, रावन कौ मृग, अरे लछमन रखाउनहार।
अरे रामा हो, मिरगा नें बारीं ऐसें चर लई, जैसें राँड़ के खेत।
अरे रामा हो, बारे देवरा तौ पै तजौं प्रान, मिरगा नें बारीं एसें चर लई जैसें धनी न होवे पास।
अरे रामा हो, उठा घड़लला सीता पनियां खों गईं, हाँतन ले लई लेज।
अरे रामा हो, उतारे घड़लला समुद ढिक धर दये, कुनरी विरछ की डार।
अरे रामा हो, सीता ने टोरी लबुदिया, विरछ की मिरगा बिड़ारन जांय।
अरे रामा हो, भगाये मिरगा न भगें, लौट लौट बगिया खांय।
अरे रामा हो, हलत डुलत सीता घरै चलीं गईं, खटपाटी लई लटकाय।
अरे रामा हो, हँस हँस पूंछे बारे देवरा, भौजी काका रे तोओ पिराय।
अरे रामा हो, कै तोरे मूंड़ धमक रये भौजी, कै चड़ी गरारी ताप।
अरे रामा हो, न मोरे लाला मूंड़ धमक रये, न चड़ी गरारी ताप।
अरे रामा हो, मिरगा नें खेत ऐसें चर लये, जैसें बिगर धनीं के खेत।
अरे रामा हो, उठ भौजी भोजन करलो, और खूबईं करो अस्नान।
अरे रामा हो, संजा कें सज लौं तीर कमनियां, भुनसारें छत्तीसों बान।
अरे रामा हो, मांस मिरग के परों मँगादो, भोजन नौने करियो खूब।
अरे रामा हो, आड़ी लकर के कौंड़ा खेंच दये, जोगी खों जिन डारियो भीक।
अरे रामा हो, पाँच कदम लछमन निंग पाये, जुगिया कौ आ गओ दुआर।
अरे रामा हो, दे माई दच्छना भलौ तोओ हुइये, जोगी करै पुकार।
अरे रामा हो, अटली पे दुलइया पटली धरो, धरो पाँव पै पाँव।
अरे रामा हो, भिक्षा डारो पुन्न कमा लो, नई जोगी आसन खों जांय।
अरे रामा हो, भिक्षा डार सीता हाँत जो जोरे, सीते लऔ झोली में डार।
अरे रामा हो, घाले बान मिरगा ना तो लगें, मिरगा खों आओ न घाव।
अरे रामा हो, राम के मारे मिरगा मर गये, लछमन नई पाये मार।
अरे रामा हो, लौटे लछमन, राम दोऊ भइया, कुटिया सीता न परी दिखांय।
अरे रामा हो, एक नकर ना बारी बरे, दूजी खों कांसें लियाओं टोर।
अरे रामा हो, बिखलू पत ढूड़ँत दोउ भइया, सबरी रात सें हो गओ भोर।
अरे रामा हो, लछमन कयें भौजी नइयां मड़न में, कौ पूछे हँस बात।
अरे रामा हो, लोय की बारी लंकागड़ खों, सीता लै गओ राक्छस जात।
सीता वनवास की गाथा
बुंदेलखंड में सीता बनवास की गाथा मौखिक परंपरा के कारण समय के अनुसार बदलती हुई गाई जाती है। इस गाथा में रामायण की गाथा से भिन्न लोक भावना मिश्रित है। ननद भौजी के विषाक्त संबंध इस गाथा में वर्णित हैं। भाभी को दुश्मन की तारीफ करने को उद्यत कर ननद, भइया से शिकायत कर भौजी पर नाराज करा देती है। इसी कारण से सीता का बनवास होता है। बन में सीता के पुत्र लव और कुश जब धनुष चलाने का अभ्यास करते हैं उस समय उनकी भेंट लक्ष्मण से होती है वे अपने को दशरथ के नाती, लक्ष्मण के भतीजे और सीता का पुत्र कहते हैं। लक्ष्मण सीताजी को घर ले जाते हैं। घर पर ननद दरवाजे में तेल का उरैन डालकर कुचाल चलती है। भौजी जब तक यह उरैन सूख न जाय, घर के भीतर मत आना। तेल का उरेन कभी नहीं सूखा और सीता घर के अंदर नहीं जा सकीं। इस अपमान के कारण सीता पृथ्वी से फटने की प्रार्थना करतीं हैं और वे उसमें समा जाती हैं। राम दौड़कर उनकी चोटी पकड़ते हैं, राम के हाथ में कुछ लटें ही शेष रह जाती हैं। बुंदेलखंड में यह विश्वास प्रचलित है कि सीता की लटें नाम की सांपों की श्रेणी सीता की लटों का ही समूह है। कुछ भी हो इतना सत्य है कि इस गाथा में पौराणिक कथानक में लौकिक विश्वास निहित है। इसीलिए सीता का बनवास बुंदेली नारी का बनवास बन जाता है।
चौक चन्दन बिन आँगन सूनों, कोयल बिन अमराई।
राम बिना मोरी सूनी अजुद्या, लछमन बिन ठकुराई।
सीता बिना मोरी सूनी रसोइया, कौन करे चतुराई।
आम इमलिया की नन्नीं नन्नीं पतियां, नींम की सीतल छाँह।
ओई तरें बैठी ननद भौजाई, कररई रावन की बात।
जौन रवना भौजी तुमें हर ले गओ, हमें उल उरेह बताव।
रावन उरे हों जबईं बाई ननदी, घर में खबर न होय।
जो सुन पायें बीरन तुमारे, घर सें देंय निकार।
राम की सौंगंद, लछमन सौगंद, दशरत लाख दुहाई।
हमाई सौगंद खाव बारी ननदी, तुमरौ कहा घट जाय।
अपनी सौगंद खात हों भौजी, सिजियां पाँव न देंओ।
सुरहन गऊ के गोबर मँगाओ, बइया मिटिया देव लिपाई।
हाँत बनाये भौजी, पाँव बनाये, और रूप बनाये बत्तीसई दाँत।
ऊभर को माथो लिखन नई पाओ, आगये राजा राम।
ल्यावनें बइया पिछौरिया, लिखना देंय लुकाय।
राम लछन दोउ जेवन बैठे, बहिनी नें भरे नैनन नीर।
कै तुमरौ मूंड़ धमकियो, के तन आई ताप।
नै भइया मूंड़ धमकियो, नै तन आई है ताप।
जिन बैरन के भइया नाओ न लीजे, भौजी सोई लिखे मढमांझ।
सजावनें भइया लछमन पालकी, अपनी भौजी खों देव पठाय।
चलौनें भौजी मांयकें, तुमरी माई नें रचे हैं बियाय।
नै मोरे बाबुल की दूसरी ढियारी, नैं मोरे सहोदर वीर।
सरग की पटकी है सीता अभागिन, धरनी नें लई हैं झेल।
इक बन लाँघो, दुजबन लाँघो, तिजबन लागी है प्यास।
नैं इत ताल नें पोखरी, नै इत जमुन जल नीर।
तुम बैठो भौजी कदम की छइयाँ, हम जल खोजन जायँ।
सीतल चलीं हैं पवनियां, सीता खों आ गई सुख नींद।
उतें सें आये बारे देवरा, दोनों में भर लियाये नीर।
नीर तो टांगो कदम सें, लछमन धरलई घरई की गैल।
चलौ है झकोरा, लुड़क गओ दोना, सीता पैं परी जल बूंद।
सीता उठीं अकुलांय बिसूंरे, इते मोरो कोउ ना दिखाय।
मांय सें निकरो एक तपसी, सीता खों रओ समझाय।
चलो न सीता कुटी खों, तुम मोई धरम की बेटी आव।
एक रात सिया रईं कुटी में, लवकुस लये अवतार।
कुस को ओड़त कुसई विछौना, वनफल करें आहार।
होते जो पूत अजुद्या रानीं, सोनों लुटावतीं।
अरे बुलावनें बन के नउआ खां, रोचना देव पठाय।
पैलो रोचना दियो राजा दसरत खों, दूजौ कुसल्या मांय।
तीजौ रोचना दियो लछमन देवरा खों, पिया खों दियो बरकाय।
अरे अरे भइया लछमन माथे को रोचना कां पाइयो।
भइया भौजी कें भये नंदलाल, नैना हिया जुड़ावनें।
अरे भइया लछमन विपद के साथी, भौजी खों लियाओ बुलाय।
लवकुस दोउ बनवासी बालक, खेलें धनुईयां को खेल।
ठाँड़े लछमन पूछियो, कौन बाबुल तुमारे बीर।
राजा दसरथ के हम नातिया, लाला लछमन के हैं भतीज।
पिता अपने को हम नाव न जानें सीता हैं मायँ हमार।
चलौ न बेटा अपनी कुटी खों, जहाँ हैं मायँ तुमार।
चलो न भौजी नगर अजुद्या, तुम बिन नगर उदास।
आउत देखी बहिन सहूद्रा, तेल की दई उरेन डार।
सत्य की साँची सीता उरेन न सूके, तब तक जिन घर आब।
फट जा री धरती, फट जा जेई में सीता जाय समायँ ।
फट गई धरती समाँ गई सीता, लोग रये हहराय।
झपट रामजी नें चोटी पकरी, जा जोड़ी कौनें विछुराई।
तुमतौ हुइयो गोकुल के कनइया, हम विसभान दुलारी।
लै मटकी दध बेंचन आंहों, तब मिलहै जा जोड़ी।
राधा कृष्ण राम और सीता के अवतार हैं। ऐसा लोक विश्वास है। गाथा की अंतिम पंक्तियों में यही भाव व्याप्त है। सीता पृथ्वी में समाते समय कह जाती है कि में अगले जन्म में राधा और आप कृष्ण बनेंगे जैसी चोटी झपट कर मुझे अभी पकड़ना चाहते हैं वैसे ही झपट झपट कर आप दही माखन खायेंगे। अगले जन्म में मैं दही बेचने वाली राधा बनूँगी।
कारसदेव की गाथा
:- बुंदेलखंड में पमारौ और आल्हा की तरह कारसदेव की गाथा गोटों में गाई जाती है ‘‘देवी भागवत में एक प्रसंग आया है कि हैहय वंश में अजयपाल नाम के एक राजा हुये, जिन्होंने जन कल्याण की दृष्टि से भगवान शिव की आराधना की ओर स्वरचित मंत्रों की सिद्धि प्राप्त की ……….. बुंदेलखंड में राजा जयपाल के भक्त कारसदेव और हीरामन हुये हैं जो शिव की साधना में सफल होकर जनता का कल्याण करते रहे।बुंदेलखंड में कारसदेव की पूजा हरदौल की भांति होती है। प्रत्येक ग्राम में इनके चबूतरे पर त्रिभुज के आकार के ईंटों के दो घर बने रहते हैं, पास में मिट्टी के दो घोड़े रखे रहते हैं। चबूतरे पर अक्सर बबूल या नीम का वृक्ष होता है। मूर्ति के स्थान पर पत्थर की गोल बटइया रखी रहती है। दोनों घर कारसदेव और उनके भाई सूर्यपाल के होते हैं। बांसों में लगी श्वेत पताकाऐं फहराती रहती हैं। प्रत्येक माह की कृष्ण चतुर्थीं और शुक्ल चतुर्थी को गोटें गाईं जाती हैं। गोटे गाने वाले गोटिया कहलाते हैं। वाद्य यंत्र में ढाँक बजती है जो डमरू का बड़ा आकार होता है जिसके सिर देवता की सबारी आती है उसके पास सेली रहती है जो ऊन या लोहे की सांकर होती है। घुल्ला के पास नींम के झोंरे रखे रहते हैं जिससे वह झाड़ फूँक करता है। ग्रामीण भी सेंदुर, नारियल, बताशा, ध्वजा आदि चड़ौती चढ़ाते हैं। घुल्ला के खाने के लिए सीदा (घी, दाल, कनक आदि) देते हैं। घुल्ला सबकी रक्षार्थ भभूत देता है। भादौं माह में कारसदेव, गइया बब्बा, गाड़ीवान और भैंसासुर आदि देवताओं की मेड़े पर पूजा होती है। नावतो खप्पर में अग्नि जलाता हुआ सराब की धार उड़ेलता है। भोग में गुलगुला एवं नारियल की गरी बांटी जाती है।
बुंदेलखंड में कारसदेव पशुपालक जातियों- अहीर, गूजर, दांगी, काछी आदि के देवता हैं कारसदेव बुंदेलखंड के पशुपालक जाति के एक वीर देवता हैं, विशेषकर उन जातियों के जो गाय और भैंस पालती हैं अथवा पशु ही जिनकी आजीविका के मुख्य साधन हैं। कारसदेव की गाथा गोटें या गोट कहलाती है। गोट संस्कृत के गोष्ठ का अपभ्रंश है। मनुष्य आदिम रूप में अपने पशुओं को चारागाह में एकत्रित होकर चराता था। गोष्ठी करता था, गोष्ठी में आमोद प्रमोद प्रमुख था। मनुष्य अपने पूर्वजों, देवताओं की यशोगाथा उल्लसित होकर गाया करता था। ये गीत ही उसकी गोष्ठी के गीत थे जो अब केवल गोट बनकर रह गये हैं।
कारसदेव की गोटों में कारसदेव एवं उनके भाई की यशोगाथा गाई जाती है। इनकी माँ का नाम सरनी था जो पुत्राभाव में शिव की उपासना करती थी। एक दिन स्नान करते समय नदी में एक फूल बहता दिखाई दिया, जब फूल समीप आया तो एक शिशु के दर्शन हुए। ममतावश शिशु को सरनी घर ले आई। यही बालक कारसदेव थे जिनका जन्म झांझ गाँव में अलौकिक रूप में हुआ था।
हो ओ हो ओ बारा बरस तपिया तपी, करे न अन्न आहार।
हो ओ हो ओ सरनी गई असनान खों, अहेले तला की पार। कमल पै पोंड़ो राजकुमार।
हो ओ हो ओ सौ सौ दल कमला खिले, भ्रमर रये गुंजार।
हो ओ हो ओ एक कमल पै ऐसो लगे, जैसे दियला जरें हजार। कमल पै ……..।
हो ओ हो ओ उठ सरनी ओलीं लये, कारस खों पुचकार।
हो ओ हो ओ जप तप सब पूरन भये, मोरी शिव ने सुनी पुकार। कमल पै …..।
हो ओ हो ओ सुरजा थके चन्दा थके, मों की जोत निहार।
हो ओ हो ओ जनम जनम खों सरनी, घरको मिट गओ सब अंधियार।
हो ओ हो ओ झूलना झूलें राजकुमार, कमल पै पोंड़ो राजकुमार।
युद्ध वर्णन- हो ओ बड़ा दये बछरा अपने खिरक के, कारस पौंचो भुवन के दौर।
हो ओ रूसर खुसर बच्छा डारे, ठांड़ो बदलो ले लओ बहोर।
सुनलै भुमना कान लगाय।
हो ओ विजुरिया कैसो खांड़ो काड़ो, जैसे जीभ काड़े करिया नाग।
हो ओ भुवना आग बबूला भओ, आब सांमें मार छलांग। बोलो देंव मजा चखाय।
हो ओ कारस सुन भुमना की बात, मनै रओ मुसकाय, हो ओ हो ओ।
हो ओ करले दो दो दाँव रे, बोलो खांड़ो उठाय, अपनों बदलों लेंव चुकाय।
हो ओ भुमना धरन गिरो ऐसो जैसें गिरे टूट कें डार। हो ओ।
बारा बरस को कारस खेले, लेकें नगन तरवार, झांझ के मिट गये दु:ख अपार।
कारस देव ने पशुओं के लुटेरे गिरोह के सरदार भुवन सिंह को युद्ध में परास्त कर पशुओं की रक्षा की थी। इनकी विजय सत्य की विजय थी। इसीलिए गोटों में इन्हें कृष्ण की महत्ता प्रदान की गई है।
कै भये कनइया के कारस भये, जिनने गइयन की राखी लाज हो ओ।
धन धन झांझ की गइयाँ, धन धन कारस महाराज, हमारौ सबई समरो काज।
चांबर सी बैं दूद की नदियाँ, बजे दुहिनियाँ कछार हो ओ।
दूदन पूतन गोरी धन फलवे, हार पहारन करे सिंगार, कारस तोरी जैजैकार।
राजा भोज की गाथा
धारा नगरी के राजा भोज की गाथा बुंदेलखंड में पमारौं के अंतर्गत गाई जाती है। राजा भोज एक दिन दरबार में कुँवर को बुलाकर प्रजा की भलाई करने का उपदेश देते हैं तथा दक्षिण दिशा में शिकार करने से मना करते हैं।
राजा भोज कर बैठे कचारन, जिनको घुड़ लगो दरबार हो मायँ।
तुरतै कुँवर बुलाय पालन्दर, ओलन में लये बैठाय हो मायँ ।
अबतौ विरद भये पिता तुमाये, मोरी रइयत विखलूपत न होय हो पायँ।
रइयत तो तोरी ऐसे कें राखों, चोलन में पलोंटें पान हो मायँ ।
जोन दिसा बरजों बारे राजा, भई ना जइयो सिकार हो मायँ ।
तीन दिसा राजा खेलो सिकारें, चौथी दिसा जिन जाओ हो मायँ ।
चौथी दिसा में करन गूजरौ, वो काड़े पुरानों दाव हो मायँ ।
माता हटके पकर पांवड़ो, रसवेंदुर घुड़ल की पार हो मायँ ।
छींकत घुड़ल पलाने पालन्दर, बरजत हो गओ असवार हो मायँ ।
इकबन चालो राजा दोबन चालौ, तिजवन पौंचो जाय हो मायँ ।
करन गूजरे की चौकी मारी, ड़ेरा ले लओ लकूले बाग हो मायँ ।
हिरनी ना मारी हिन्ना सिंगारे, मारे रोज कछवार हो मायँ ।
सात दिना राजा खेलो सिकारें, न खाये अन्न औ पान हो मायँ ।
सातैंये सें दिन आठयें लागो, राजा लौटे नगर खों आय हो मायँ ।
करन गूजरे को परास्त कर कुँवर पिता की चिन्ता का निवारण कर देता है। इसके बाद नगर के सभी पंड़ितों को बुलाकर पिता की भाग्य रेखायें दिखवाता है जिसमें सभी पंडित राजा भोज का ठीक समय बतलाते हैं किंतु एक पंड़ित कह देता है कि राजा भोज की कल मृत्यु हो जायगी और अंत में राजा की मृत्यु हो जाती है। सत्य भाषी ब्राह्मण को सम्मान मिलता है।
सोरा गऊ के गोबर मंगाये, ढुर ढुर अँगन लिपाये हो मायँ ।
गजमोतिन के चौक पुराये, कंचन के कलस धराये हो मायँ ।
घेर गाँव के पंडित बुलाये, साकट लये बचवाय हो मायँ ।
खोल खम्ब जब देखे बामुन, कयें राजा भोज के नौने दिन आये हो मायँ ।
एक जो बैठो परदेसी बामुन, ऊकी कोऊ न पूछे बात हो मायँ।
बोऊ जो बोलें परदेसी बामुन, मोरी एका अरज सुन लेव हो मायँ ।
चाय राजा पालो चाय राजा मारौ, राजा भोज के भोरई है काल हो मायँ ।
जा बमना खों कठवा में देदो, राजा भोज की लटी विचारी हो मायँ ।
सोने किबरियां बेड़ो बारे राजा, हनबादो बजर किबार हो मायँ ।
लोय की बारी करबाई बारे राजा, लोय लंगर दये डार हो मायँ ।
दौरे नकीब पैरन पै राखे सबालाख असबार हो मायँ ।
निरजू सें सरजी भये राजा, राजा खों गरमी आई हो मायँ ।
आंग भींड़ एक बरद बनाओ, दो माथे पै सींग हो मायँ ।
कान पूंछ मों चरन बनाये, सांड़ा उठो भाराय हो अ।
सवा पार दिन चड़त न पाओ, राजा भोज के कड़ गये प्रान हो मायँ ।
सोने कुठरिया खुलवाईं बारे राजा, खुलवाये वजुर किबार हो मायँ ।
लोय की बार टुरवाई बारे राजा, लोय लंगर खों इंचवाये हो मायँ ।
दौरे नकीब पैरन के भागे, सवा लाख भगे असवार हो मायँ ।
जौने ऐंगर हो टांड़ा कड़ जैये, ऊके ऐंच भरौं भुसखाल हो मायँ ।
कुँवर जौ पौंचो कुठरियन भीतर, राजा खों मरो पाओ हो मायँ ।
सिंह और सुरहन गऊ की गाथा
बुंदेली लोक गाथायें (देवी के भजन) भारतीय संस्कृति की रसमयी धाराएँ हैं। सिंह और सुरहन गऊ की गाथा हिंसा पर अहिंसा की विजय है। भारतवर्ष में सिंह का अमूल्य महत्व है तो गाय की महत्ता भी उससे कम नहीं है। एक पराक्रम या वीरता का प्रतीक है दूसरी सौम्यता, सरसता और निरीहता की प्रतिमा है। वीरत्व एवं शील दोनों का मिश्रण ही भारतीय संस्कृति का मधु रूप है। जहाँ शक्ति में शील मिश्रित व्यक्तित्व होता है वहाँ देवत्व के दर्शन होते हैं। इसी महिमामय रूप की बुंदेली गाथा में, सिंह और गाय के प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्ति हुई है। अन्य पक्ष में सिंह हिंसा का एवं गाय अहिंसा की प्रतीक है। हिंसा पर अहिंसा की सदा विजय होती आई है इसीलिए इस गाथा में हृदय परिवर्तन द्वारा गाय (अहिंसा) की सिंह (हिंसा) पर विजय होती है क्योंकि सहानुभूति परोपकारिनी बनकर अहिंसादात्री हो जाती है।
एक दिन गाय जंगल में चरने के लिए जाती है कि सिंह उस पर टूट पड़ता है। गाय वनस्पति को साक्षी कर बच्चे को दूध पिलाने के बाद लौटकर आने का बचन देती है। सिंह गाय की बात पर विश्वास कर गाय को घर जाने देता है। गाय बछड़े को दूध पिलाने के बाद सब कुछ बतला देती है बछड़ा जिद्द करके माँ के साथ सिंह के पास आकर, पहले स्वयं के खाने का आग्रह करता है सिंह वात्सल्य के वशीभूत होकर तथा गाय की सच्चाई और त्याग देखकर उन्हें अभयदान दे देता है। सत्य के द्वारा सिंह पशु का हृदय परिवर्तन हो जाता है।
गाथा इस प्रकार हैः-
दिन की ऊरन बिरन की फूटन, सुरहन बनखां जाय हो मायँ ।
इकबन चाली सुरहन दुजवन चालीं, तिजवन पौचीं जाय हो मायँ ।
कजली वन में चन्दन हरो विरछा, जां सुरहन मौं डारो हो मायँ ।
इक मों घालो सुरहन दुज मों घालो, तिज मों सिंहा हुंकारो हो माँ।
अबकी चूक बगस बारे सिंगा, घर बछरा नादान हो मायँ ।
कौ तोरो सुरहन लाग लगनियां, को तोरो होत जबान हो मायँ ।
चन्दा सुरज मोरे लाग लगनियां, वनस्पति होत जबान हो मायँ ।
चन्दा सूरज दोई ऊंगें अयेबैं, वनसपती झर जांय हो मायँ ।
धरती के बासक मोरे लाग लगनियां, धरती होत जबान हो मायँ ।
इकबन चाली सुरहन दुजवन चालीं, तिजवन नगर रमानी हो मायँ ।
बनकी हेरी सुरहन टिगरन आईं, बछरै राम्ह सुनाई हो मायँ ।
आव आव बछरा पीलो मोरो दुदुआ, सिंगा बचन हार आई हो मायँ ।
हारे दुदुआ ना पियों मोरी माता, मैं चलों तुमाये साथ हो मायँ ।
आगें आगें बछरा, पीछें पीछें बछरा, दोऊ मिल बनखां जांय हो मायँ ।
इकबन चालीं सुरध्न दुजवन चालीं, तिजवन पोंची जांय हो मायँ ।
उठ उठ हेरें बन के सिंगा, सुरहन आज ना आईं हो मायँ ।
पैलें, ममइया, हमईं खों भखलो, पीछें हमाई मताई हो मायँ ।
कौनें भनेजा तोय सुदबुद दीनी, कौन लगे गुरू कान हो मायँ ।
देवी जालपा सिख बुद दीनी, बीर लंगुर लगे कान हो मायँ ।
जाव भनेजा दस हर चलियो, हुइयो बनी के सांड़ हो मायँ ।
दस हर आगें, दस हर पाछें, माझें दलाँकत जाव हो मायँ ।
चरवे खों वन कजली दे दओ, पीवे खों जमुन के नीर हो मायँ ।
दस लुहार भगत चिंतामन, है बाने की लाज हो मायँ ।
अमान सिंह जू की गाथा
बुंदेलखंड, ऐतिहासिक शौर्य पूर्ण गाथाओं से भरा पड़ा है। यहाँ घर-घर में श्रम परिहार हेतु राछरे की तर्जे पर अमान सिंह जू की गाथा गाई जाती है। पुरूषों में जैसा आल्हा गाने का शोक है वैसे ही औरतों में इसका चाव है। गाथा के नायक अमान सिंह जू पन्ना नरेश हृदयशाह के पौत्र और छत्रसाल के प्रपौत्र थे। उनकी सहोद्रा बहिन जालौन जिले के अंकौंड़ी (अकोरी) वगवां नामक स्थान के प्रानसिंह चंदेरे को व्यांहीं थीं। अमानसिंह अपनी बहिन सहुद्रा को सावन लगते ही अकोरी लेने जाते हैं जाने के पूर्व पत्नी से पूछने पर रानी उन्हें मना करतीं हैं किंतु बहिन स्नेहवश छींकते ही पलान कस कर, असगुनों की चिंता किये बगैर प्रस्थान कर देते हैं।
सदा ना तुरइया फूले अमाना जू, सदा ना सावन होय।
सदा ना राजा रन चड़े, सदा ना जोवन होय। राजा मोरे असल बुंदेला कौ राछरो।
सबकी बहिनियां झूलें हिड़ोरा, अमानजू तुमरी बिसूरे परदेस। असल ………।
सबकी बहिनियां खेलें सकियन में, माई तोरी विसूरे परदेस। राजा असल …..।
नउये पौंचादो बमनें पौंचादो, अरे भाई और कुटुम परवार। राजा असल …….।
नउये लौटा दये, बमनें लौटा दये, लौटा दये कुटुम परवार। राजा असल ……।
घर में जाकें पूछे दुलइये, ओजू में तो वैन लुआवन जांव। असल बुंदेला ……।
घर की दुलइया नइयां करत है, पै अमानाजू ना गम्म खाव। असल बुंदेला …..।
घरसें असगुन भये बस बुंदेला खों, छींकतन भओ असवार। असल बुंदेला ……..।
गाँव के कुअला पौंचन न पाये, बुंदेला जू खों रीती मिली पनहार। असल …….।
गाँव के गेंवड़े पौंचन न पाये, बुंदेला जू की हिन्नी काट गई गेल। असल …..।
डेरी रे बगले अरे टीटई बोले, बुंदेला जू के दायनें बोल रये काग। असल …..।
अमान सिंह अकोरी पहुँच बागों में डेरा डाल देते हैं। राजा प्रानसिंह उनका आदर सत्कार करते हैं, बहिन सहोद्रा रूच रूच व्यंजन परोसकर भोजन करातीं हैं। भोजनोपरांत अमान सिंह जू एवं प्रानसिंह जू नींम की शीतल छइयां में चौपर खेलते हैं। खेल में अमान सिंह जू की विजय होती है। प्रानसिंह जू पराजय का क्रोध गाली गलौंज से निकालते हैं। बुंदेलखंड के बीर आन बान के धनी बुंदेला का शौर्य उबल पड़ता है क्योंकि अमान सिंह जू ने प्रानसिंह जू को बहिन दी थी, पैर पूजे थे किंतु बुंदेलखंड के बुंदेलों की इज्जत नहीं बेची थी। अमाना जू क्रोधातुर होकर पहला गोला दाग किले की गुर्ज गिरा देते हैं। बहिन पुत्र एवं सुहाग की रक्षा की भीख माँगती हैं। अमान सिंह जू भांजे एवं बहिन को घर ले चलने का आश्वासन देते हैं किंतु पति के अभाव में भारतीय नारी का संसार सूना होता है वह पुकार उठती हैं, अमान सिंह जू तेरे सोने की चूड़ियां एवं वैभव का राज्य नष्ट हो जाय। मुझे पति के अभाव में कुछ नहीं चाहिये। यहाँ पर बुंदेली क्षत्राणी का ओजमय, आदर्श रूप दर्शनीय हो जाता है। अमाना जू के दूसरा गोला छोड़ते ही प्रानसिंह जू एवं उनके पुत्र की मृत्यु हो जाती है। अन्त में सहोद्रा पति के साथ सती हो जाती हैं और चंदेरे का राज्य अमानसिंह जू की विजय अंतर्गत आ जाता है।
अमां नींम की सीतल छइयां, जितै चौपर डारें। राजा असल बुंदेला ……।
खेलत-खेलत दुपर हो गये, लौट गये छपबार। असल बुंदेला के राछरे।
कौना के पांसे परगये अमाना, कौना रे बड़ाई रार। असल बुंदेला …….।
अमाना के पांसे पर गये, चंदेरे ने बड़ाई रार। असल बुंदेला ……….।
कौना के जाये कुँवर अमाना जू, कौना के जाये राजा प्रान। असल …..।
लौंड़ी के जाये कुँवर अमाना जू, रानी के जाये राजा प्रान। असल ….।
पैले जो गोला घाले अमाना जू, भाई खिसली मड़ा की ईंट। असल ……….।
उठा भनेजा बैन ओली में धरदये, अरे भनेजा के हेरो मोय। असल …….।
कौना की उरियां सेयें भनेंजा, अमाना सिंह की की करें नौनी आस। असल ….।
मोरी उरिया सेयें भनेजा, भतीजे की करें नौनी आस। असल ……..।
बरजो जावै तोरी रे उरियां बुंदेला राजा, बरियो भतीजे की आस। …..।
तुमें पैराओं बेटी सोने की चुरिया, अरी बैठी भुगतियो राज। असल …..।
बरजो जावैं तोरी सोने की चुरियां, बरजो जइयों नौने राज। असल ….।
दूजै गोला जो घाले अमाना नें, अरे भई ले लये चंदेरे के मूंड़। असल ….।
तीजे जो गोला घाले अमाना नें, अरे भई ले लये भानेज के मूंड़। असल….।
लिवाउन को डोला भइया नदी जमना बुआदौ, अरे मैं तो जरों चंदेरे साथ। ….।
चन्दन कटाये सर बनवाये, चंदेरे की लास खों दओ धराय। असल …..।
चिता बनाकें आग लगाई पंचम पंच नकरी दुआई आय। असल …….।
आंयतें पांयतें बज रईं अड़व्बीं, अरे भाई रमतूला ने दई घनघोर। असल …..।
पैली लूक छोड़ी जो सरकी, अरे भाई जी में सहोद्रा रे जाय। असल …..।
राजा असल बुंदेला के राछरे। राजा अमाना जू के राछरे।
धनसिंह की गाथा
बुंदेलखंड में धन सिंह की गाथा धोबी जाति के लोग विरा (वरहा) की लय में कांड़रा नृत्य के साथ गाते हैं। आन बान के धनी धन सिंह ओरछा राज्य के बीर बुंदेला हैं। सच्चे वीर समय एवं परिस्थितियों का इन्तजार नहीं करते हैं। धन सिंह जू अपसकुनों के होते हुए भी दुश्मन से लड़ने संबंधी सलाह मसबरे में ओरछा जाते हैं आपसी वैमनस्य के कारण धोखे से वहाँ उनका वध कर दिया जाता है। राजपूतों की आपसी फूट संबंधी भाव इस गाथा में सन्निहित हैं। देखिये-
तोरी मत कौन ने हरी धन सिंह, तोरी मत काय कौन ने हरी।
छींकत बहेरा पलानियो, बरजत भये असवार, जातन मारौ गौरखों, गड़ ऐरच
के मैदान। धनसिंगा तोरी मत कौन नें हरी।
माता पकरै फेंटरी, बैन घुड़ल की बाग।
रानी बोले धनसींग , मोय कौन की करकें जात। धनसींगा तोरी ……।
माता खों गारीं दईं, वेंदुल खों दई ललकार।
बैठी जो रइयो रानी सतखण्डन, मौतिन सें भरादों मांग। धनसींगा तोरी ….।
डेरी बोली टीटरी दायनें बोलो स्यार….।
सिर के सामूं तीतर बोले, परमू में मरन काय जात। धनसींगा तोरी ……।
कोउ जो मेले डेरी डेरां, कोउ जिल्ला के बाग।
आंमेले धनसींगजू, टुके कसव के पाल। धनसींगा तोरी मत कौन नें हरी।
पैले मते ओरइछें भये, दूजे बरूआ के मैदान।
तीजै मते भये पाल में, सो मर गये कुँवर धनसींग। तोरी मत कौन ने हरी।
भागन लगे भगेलुआ, उड़ रई गुलाबी धूर।
रानी देखे धनसींग की, धोरो आ गओ उबीनी पींठ। धनसींग तोरी …..।
काटों बछेरा तोरी बछखुरी, मेंटों कनक उर दार।
मोरो सुआमी जुझवायकें तें आय बदौ घुरसार। तोरी मत कौन नें हरी।
काय खों काटो रानी बछखुरी, काय मेंटो कनक उर दार।
दगा जो हो गये पाल में, मोपै हो नई पाये सवार। धनसींगा तोरी …..।
मानो गूजरी गाथाः
लोक साहित्य में इतिहास झांकता है। बुंदेलखंड में यहाँ की वीरांगनायें पदमिनी का अवतार रहीं हैं। विराटा की पद्मिनी और मानो ऐसी ही वीर ललनायें हैं। इनके अतिरिक्त यहाँ की ठसकीली गर्वीली युवतियों नें मुगलों के इश्क को सदा हेय दृष्टि से देखा है। मानो की गाथा में इन्हीं भावों की अभिव्यंजना हुई है। देखिये-
कानां सें मुगला चले री, कांनां लेत मिलान।
पच्छम सें मुगला चले री, अग्गम लेत मिलान।
ऊंचे चड़कें मानो हेरिओ, कोउ लग गये मुगल बाजार।
हुकुम जो पाऊं रानी सास को, मैंतो देख आऊं मुगल बाजार।
मुगला को का देखना री मानो, मुगला मुगद गमार।
मानों सोलह श्रृंगार करके मुगलों का बाजार घूमने जाती है। मानो दही दूध की खेप रखकर बाजार में दूध दही बेचती है कि एक गमार मुगल मानो के घूँघट का मोल पूछने लगता है। मानो को स्वर्ण एवं हाथियों का प्रलोभन देता हे मानो उसे फटकारती हुई कहती है तेरे हाथी का मोल मेरी भूरी भैंस से कम है। मानो अद्वितीय सौंदर्यमयी थी उसके घुँघटा खोलते ही बीसों मुगलों को मूरछा आ जाती है ऐसी कमनीय चन्द्रवदनी को मुगल अपहरण कर ले जाना चाहते हैं कि उसी क्षण रक्त की नदियाँ वह जाती हैं। बुंदेली पौरूष मुगलों को मारकर गरद कर देता है। लोथों के पहाड़ लग जाते हैं और अंत में मानो की इज्जत बच जाती है।
सास की हटकी मैंना मानों, मैंतो देख आंव मुगल बाजार।
जो तुम देखन जात हो री मानो, कर लो सोरा सिंगार।
तेल की पटियां पार लईं, मानो सिंदुरन भर लई मांग।
माथो बीजा अत बनो, मानो, बिंदियन की छब नियार।
चली चली मानो हुना गई, कोऊ गई कुमरा के पास।
अरे अरे भइया कुमरा के रे, इक मटकी हमें गड़ देव।
इक मटकिया को का गड़ों री मानो, मटकी गड़े री दो चार।
एक मटकिया ऐसी गड़ो रे भइया, जामें दइया बने और दूध।
अरे अरे भइया कुमरा के तुम करदो मटकिया मोल।
पाँच टका की जाकी बोनी है, री मानो लाख टका को मोल।
पाँच टका घरनी धरे, कुमरा के, मटकी लई उठाय।
दइया औ दुदुआ जामें भर लियो, री मानो देख आव मुगल बजार।
चली चली री मानो हुना गई री, गई मुगल के पास।
पहली टेर मानो मारियो- रे कोउ (दइया) लेय के दूध।
दही दूध के गरजी नइयां री मानो, घुँघटा को कर दो मोल।
दूजी टेर मानो मारियो रे, कोउ मुगल लई पछयाय।
लौट आओ मानो, बदल आओ री मानो, मोरी रनिया देखें जाओ।
रनिया कौ का देखनें रे मुगला, ऐसी रहती मोरे गुबराए।
लौट आओ मानो बदल आओ मानो, मोरे कुंवरन देखें जाओ।
कुंवरन कौ का देखनें रे मुगला, मोरे रत हैं ऐसे गुलाम।
लौट आव मानो बदल आव मानो, मोरे हतिया देखें जाब।
हतियन कौ का देखनें रे मुगला, मोरी भूरी भैंस को मोल।
घुँघटा खोलत दस मरे, बिंदिया देख पचास।मुगला सौअक जब मरे री जब तनक उघर गई पींठ।
सोउत चन्द्रवली औंध कें- रे तोरी बियाई मुगल लयें जाय।
मुगला मारे गरद करे रे, बिन नें लोथें लगा दईं पार।
रक्तन की नदियां बहीं रे, बिन नें विकट करीं तरवार।
राजा पारीछत की गाथा
बुंदेलखंड में जैतपुराधीश (वेलाताल हमीरपुर, उ.प्र.) की गाथा नट जाति के लोग ढोल पर गा-गा कर उदरपूर्ति करते हैं। महाराज छत्रसाल के दो पुत्र थे जेठे पुत्र को पन्ना की गद्दी मिली थी और छोटे को, जिनका नाम जगतराज था, जैतपुर की। इन्हीं के मझले पुत्र महाराज पहाड़सिंह की चौथी पीढ़ी में महाराज पारीछत जैतपुर की गद्दी पर बैठे, वह बड़े बीर और स्वाभिमानी थे, गदर के पूर्व सन् 1842 में उन्होंने अपने को अंग्रेजों के शासन से मुक्त करने का प्रयत्न किया, परंतु वह पराजित होकर पकड़े गये और कानपुर भेज दिये गये, जहाँ कुछ दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई। महाराज पारीछत सब राजाओं में वीर शिरोमणि थे इसलिए सब राजाओं ने चरखारी में उन्हें अपना अगुआ चुना था।
सबरे राजा जुर बैठे चरखारी में, बुड़वा मंगल कीन्ह।
अपना जाय बैठे गड़िया में, पारीछत खां भुजरा कीन्ह।
पारीछत ही नहीं उनका हाथी भी रणबांकुरे ऊदल के बेंदुला, महाराणा प्रताप के चेतक सा है। विपत्तियों में घिरे राजा पारीछत महुआ खाकर लड़ते हैं जो वरवश ही राणा की घास की रोटियों की याद दिला जाती हैं। महाराज छत्रसाल ने मुगलों को नींद भर नहीं सोने दिया उन्हीं के वंशज पारीछत महाराज ने अंग्रेजों की शांति छीन ली थी। देखिये-
ज्यों पाठे पै झिन्ना झिरत नइयां, पारीछत को हाती टरत नइयां।
मउआ भूंजू खपरिया में, पारीछत नेव पके दुपरिया में।
गोउअन की रोटीं ओ मारूं भटा, पारीछत के मारें कड़ आये गटा।
सबके मारे रस वस जायें, पारीछत के मारे किते भग जायें।
हंड़िया में रांदो परइया में खाओ, भगौ मोरी सों तो परीछत आओ।
बांदा के मूंड़न ठठी वरछी, अबकी बेर लौटों हलाओं धरती।
करलै पूजा सुमरलये राम, भूरागढ़ के किले में खूब लरे ज्वान।
नौ सौ तेगा बटोरां चले, पड़वाई में राजा अकेले लड़े।
नौ सौ खुरपी हजार हंसिया, नदिया नदिया भागे नबाब रसिया।
भागे फिरंगी महोवे खों जांय, पारीछत राजा खदेरत जांये।
राजन की गोली औ बाबन के बान, दल घेर घेर मारे पारीछत ज्वान।
मकना हाती अमउआ की झूल, नारानसिंह मारै कटारन की हूल।
भूरी हतनिया गरद मिल जाये, पारीछत को तेगा कतल कर जाये।
भागन बारे भगो जिन्हें प्यारो है राज, मैंनईं भगों जंगी, परीछत महाराज।
मुरगा बोले पतारन में, पारीछत गरजे अखाड़न में।
कक्का खायें ककरी, दिमान खायें फूटा, डंगाई में लूट लये, बेनी के पूता।
जुनरी विकानी सवामन की, परीछत नें तोली अपने मन की।
मकना हाती टरत नइयां, पारीछत को तेगा घलत नइयां।
बैनी की गोली हजूरी के बान, बल घेर घेर मारे परीछत ज्वान।
हाती पै हौदा औ घोड़े पै जीन, चलें तोरे नेजा परीछत सींग।
उतरत घाटी बजो डंका, परीछत के जीको मिटो टंटा।
हात सुमरनी गलें माला, पारीछत ने छोड़े धरमसाला।
राम रत सौ होय डंगाई में पूरी घली तरवार।
जुग जुग जियो राजा परीछत, डंगाई तेंने जैर करी।
राजा नल की लोक गाथा
ऐतिहासिक घटनाक्रम में राजा नल के पुत्र ढोला हुये हैं। इन्हीं नल और उनके पुत्र ढोला की गाथा बुंदेलखंड में गाई जाती है। यही गाथा बृज में प्रबंध गीत के रूप में उपलब्ध होती है। ढोला, महाकाव्य के रूप में भी प्राप्त होती है। बृज में स्त्रियों के गाने के एक भिन्न प्रकार में भी ढोला प्राप्त होता है। ‘‘ढोला उत्तरी भारत के मध्य प्रदेश में, यू.पी. राजस्थान में किसी न किसी रूप में अवश्य मिलता है। बृज के ढोला की गाथा एवं बुंदेलखंड के नल ढोला की गाथा में विभिन्नता पाई जाती है। बुंदेलखंड की नल की गाथा इस प्रकार है। राजा नल के राज्य के नियमानुसार बाजार की प्रत्येक शेष वस्तु राजा खरीद लेता । एक दिन बढ़ई का कुँवर मरघट की लकड़ियों का पलंग राजा को बेच जाता है जिसके कारण शनि के प्रकोप से, राजा का संपूर्ण राज्य नष्ट हो जाता है। राजा रानी जीवन यापन हेतु परदेश चलते हैं। बुरे दिनों के फेर से रास्ते में मछुओं की मछली, ग्वालों का दूध तथा बहेलियां की बटेरें इनके उपयोग में नहीं आ पातीं हैं। रानी का कथन देखिये-
जार घुमन्ते भइया ढीमरा, कक्का कहों रे के में वीर।
कन्ता हमाये भूंके जात हैं, सेरक मछरिया देव रे। अलवेले राजा नल के ढोला।
कौना नगर की रे पापनी, कौना नगर खों रे जात।
तोरे वचन माथें परे, जारई न बीदो एक छियार। अलवेले…….।
फांसी लगनते अब फांसिया भइया, कक्का कहों रे के वीर।
कन्ता हमाये भूंके जात हैं, सेरक लवा ओ बटेरी देव रे। अलवेले ….।
कौना नगर की रे पापनी, कौना नगर खों रे जाय।
तोरे वचन माथें परे रे, फांसी न विदो एकऊ पखेरू। अलवेले ……।
गइया लगनते बीर न रे, कक्का कहो के रे वीर।
कन्ता हमाये भूंके जात रे, सेरक दुदुआ देव। अलवेले ………।
कौना नगर की रे पापनी, कौना नगर खों रे जाय।
तोरे वचन माथें परे रे, डबलै नई आई एकउ सेंट। खलवेल ……..।
भूखें राजा रानी एक राजा के राज्य में पहुँचते हैं किंतु वहाँ पर इनके पहुँचते ही काठ की पुतलियां हीरों को निगलने लगती हैं। चोरी भय के कारण राजा रानी रात्रि में ही चल देते हैं। गरीबी में नल की बहिन उनका साथ नहीं देती है। अतः राजा रानी राजा रनधीर के राज्य में जाकर भुजुआ तेली के घर नौकरी कर लेते हैं। राजा कोल्हू चलाते हैं और रानी पानी भरतीं हैं।
बैठे तो रइया ते सतखण्डन पै, खइयत ते डवन के पान।
एका समय ऐसे परे रे, सो तिलिया की होगई पनिहार रे।
बैठी तो रइयो सतखण्ड न पै, रानी खइयो डवन के तो पान।
कोउ समय ऐसो आय रे, अपनूं तो भुगतवूं रे राज रे।
राजा रनधीर और भुजुआ चौपर से जुआ खेला करते थे इस जुआ में भुजुआ सब कुछ हार जाता है किंतु राजा नल के पांसों से खेलने पर अंत में रनधीर का संपूर्ण राज्य जीत लेता है। इसी समय खेल में भुजुआ से निकल जाता है और राजा नल के पांसे, परैं तो सांसे। रनधीर यह सुनते ही पांसों का सब रहस्य पूछ लेते हें और अपने मित्र राजा नल को लेने के लिए जाते हैं। रनधीर के आते ही राजा नल गरीबी के कारण हीन भावना से पीड़ित होते हैं।
पांवन पनइयां हैं नइयां रे, सिर पै की नइयां गोला पाग।
जंगिया तरे के घुड़ला नइयां, कैसेकें करो रे मिलनार। अलवेले।
पांउन पनइयां तो पैरो रे। ओ सिर की बाँदो गोला पाग।
जंगिया तरे के घुड़ला लेलौ, औ चड़ करलो रे मिलनार। अलवेले।
जब राजा नल और रनधीर की रानियाँ गर्भवती होती हैं तो दोनों तय करते हैं। कि हमारे जो संतानें होगी उनकी एक दूसरे से शादी कर देंगे। (गाथा अपने में बुंदेली डला भांवरों की प्रथा को समेटे है देखिये गड़रियों के गीत) समयोपरांत रनधीर के मांरूं बिटिया तथा नल की रानी के ढोला कुँवर का जन्म होता है। नामकरण पर कुछ पंक्तियां देखिये-
सुरहन गउ के गोवर मंगा लये, ढिक धर अँगन लिपाये।
पोथी तौ खोलें बैठ गये, बामुन नें बेद उचारे रे। अलवेले राजा नल के ढोला।
कलसा धरा लये नौनें सामनें, पंडित कात उचार।
साजी घरी कुँवर भये, ढोला धरा लये उनके नाम रे। अलवेले ……।
कलसा धरा लये नौने सामनें, पंडित वेद उचार।
नौनी घरी बेटी भई, सो मारूं धरा लये नौने नाव रे। अलवेले ……।
एक दिन दोनों रानियां छाजे पर खड़ी होकर अपने अपने देश की बड़ाई करती हैं जिससे दोनों में वैमनस्य हो जाता है। रनधीर की रानी कहती है।
जरें बरें री तोरे देसरन, रानीं जां उपजें गेउं और धान।
देसा तो नौने कइये जेईरे, जां विपदा कटी तोरी आन रे। अलवेले ..।
नल की रानी का जबाबः- जरें बरें री तोरे देसरा, अब जां कुदवन के खरयान।
देसा तो कइये ऐसे हमाये, सौ उपजैं गेउं उर धान। अलवेले।
अंत में अपमानित नल की रानी पति से अपने देश लौटने का आग्रह करती हैं। राजा नल विजली की चमक देखकर अपने देश को चल देते हैं। छोटी अवस्था की होने के कारण मारूं की विदा नहीं कराते। रास्ते में राजा रानी को मछली, दूध और लवा, बटेर प्राप्त होते हैं। बहिन सत्कार करती है। नल का राज्य धूमधाम से खुशियां मनाता है। गाथा में दर्शाया गया है कि होती के सब होत हैं, अनहोती नईं कोय।
ढोला मारूं की गाथा
बुंदेलखंड में ढोला मारूं की गाथा गाई जाती है। इसमें नल के हजारी ढोला तथा मारूं बिटिया का कथानक चलता है। एक बार कुँवर ढोला पश्चिम दिशा में शिकार खेलने जाते हैं जहाँ उनकी भेंट नल के बगीचे के माली की पुत्री रेवा से हो जाती है जो रूपमयी और जादूगरनी है। कुँवर के बगीचे में प्रविष्ट होते ही रेवा उनसे अनेक प्रश्न पूछ कर कुँवर को प्रश्रय नहीं देती है। कुँवर रेवा के रूप पर मोहित हो जाते है, रेवा उपेक्षा करती है। ढोला खीझ कर लौटते ही घर में रेवा से शादी करने की जिद करते हैं और अंत में रेवा से आधी (साढे तीन भाँवर) शादी करा लेते हैं।
पैली बार वांसन लगी, दूजी एैल गठान, तीजी बारी खाई खुदी,
कैसें कड़आओ घोड़ा मार। राजा …..।
कैतो जरन पाठें परी नींमा, कैतो तोखों लग गओ मारूं तुसार।
कैतो हम बैरी भये, सौ तें सबरई पत्ता दये झार। राजा नल के हजारी ढोला।
नातो रे रजा जर पठला परीं, ना मोखों लागे मारूं तुसार।
रेवा सौत बैरन भई, ऊखों जादू के हो रये अधकार। राजा नल ……..।
कांतो मुसाफर जात हो रे, कौ तो तुमार जात।
गागर मोरी फोर दई रे, गगरी देवे तुमाव बाप। राजा नल …………..।
लगा तो पैरेदारी ते लिये, तोरी चोली चपेटन दार।
गागर तौ हम फोर दई, तोखों लेव बना में नार।
अरी राजा नल के हम ढोलना, नांव जानत सिंसार।
अरी नौकरानी मालिन तैं लगी, मैं डोलत राजकुमार।
हिया तौ माली मोरो बाप है, औ नल है तुमाव बाप।असल बाप के होओ तौ, लइयो भांवरें डार। राजा नल के हजारी ढोला।
घर आ कुँवर छटपटिया परौ, मैं तो रचाओं अपनौ बिआव।
जिद करकें ढोला कुँवर नें, रेवा सें लईं भांवरे पराय। राजा नल ……….।
जादू के बल पर रेवा ढोला कुँवर को अपने बस में किये रखती है। मारूं की चिट्ठियां जो ढोला के नाम आती हैं उन्हें यह बीच में ही नष्ट कर देती है। निराश मारूं अपने देश के प्रसिद्ध जादूगर ढांडू कक्का से ढोला के पास करूणिम संदेश भेजती है जिसमें युवती के हृदय की हलचल है।
ढांडू तो कक्का तुम जात हौ, मोरे राजा ढोला सें कइयो समझाय।
मारूं तौ चिटिया हतनी भई, सौ आंकुस लेंव चले जाव रे। राजा नल के ……।
ढांडू तौ कक्का तुम जात हौ, मोरे सुआमी से कइयो रे जाय।
मारूं तौ बेटी घुरिया भई, सो चाबुक लयें चले जाव रे। राजा नल ….।
ढांडू तौ कक्का तुम जात हौ, एक ऊ मूरख सें कइयो समझाय रे।
मारूं तौ बिटिया अमियां भई, रस लेंके गमइयां खाय। राजा नल ………।
ढांडू तौ कक्का तुम जात हो, ऊ मूरख से कइयों समझाय।
मारूं तो बेटी तरसत भई, सो को तो लेवै ऊकी सराप। राजा नल …..।
ढांडू तो कक्का तुम जात हो मोरे कन्ता सें कइओ समझाय।
आबै तौ लेकें आइयो नई लौट संदेसों ल्याव। राजा नल के हजारी ढोला।
ढांडू कक्का नगर में पहुँचकर ढोला से मिलकर मारूं के पास चलने की व्यवस्था करते हैं। एक रात्रि में रेवा को सोता छोड़कर ढोला और ढांडू कक्का करिया हाथी पर बैठ मारूं के देश चल देते हैं। पचास कोस की दूरी तय करने पर रेवा की नींद खुल जाती है वह राजकुमार के रास्ते में अनेक अवरोध पैदा करती है किंतु ढांडू, जादू के बल पर, उन्हें नष्ट कर देता है। रेवा का जादू जब असर नई करता है तो वह अपनी बहिन परेवा को कुँवर के भागने का संदेश भेज देती है। राजा हाथी के हटकने पर भी परेवा के रूप लावण्य पर मोहित हो जाता है। परेवा राजा को सात कोठरी भीतर बंद कर हाथी को जंजीरों से बांध देती है। उधर रेवा उटनी पर सवार होकर परेवा के पास आती है। इसी समय हाथी सूंड़ से दीवाल गिरा राजा को लेकर मारूं देस चल देता है। करिया हाथी मारूं देश और ढोला देश की सीमा के मध्य स्थित नदी पर ही पहुँच पाता है कि रेवा और परेवा उसकी पूंछ पकड़ लेती हैं। हाथी राजा को पूंछ काटने की सलाह देता है। राजा पूंछ काट देते हैं रेवा और परेवा दोनों नदी की धार में गिर जातीं हैं और बारह वर्ष तक ढोला के लौटने की प्रतीक्षा करती रहती हैं।
पैलई तो राजा मैंने तुमसें कई रे, वार वार समझाय।
मोरो कओ तें भेंट दओ, सौ तो बचौ चाय मर जाओरे। राजा नल के हजारी …।
मैंने तोरे वचन जो हैं टार दये, गलती भई अधकाय।
ऐसो लगत मोय आज तो, मार कटारी मर जाय। राजा नल के ……..।
हूँ बँदौ बँदौ में गैर बस, अब नइयां कछू उपाव।
मारत सूंड़ में भींत में, तें कड़ई बायरें आव। राजा नल के ……..।
मरत मरत राजा बच गओ, चड़ गओ करिया की पींठ।
पूंछ पकर रेवा चड़ गई, करिया हाती की पर गई दीठ। राजा नल …..।
मरद मरद पै जात है, दूजौ मरद कटार।
एकई तौ मारो ढोला पूंछ में, सो कड़ चल पैलो पार। राजा नल …..।
बारा बरस लौं देख लौं, राजा नदिया की न छोड़ो कगार।
जबईं लौट कें आइओ, बन हों ढोला तुमाई नौनी नार। राजा नल …..।
मारूं देश में पहुँचने पर प्रत्येक लावण्यमयी युवती मारूं नजर आती है। युवतियां राजा को मुस्कराहट के साथ उत्तर देती हैं।
हों नईं, मारूं, मारूं देस है, रे भइया मारूं देख जिन भूल।
मारूं तो बेटी जब देखिये, तो तन मन सुद जैये भूल। राजा नल …..।
इसी उतावली के कारण राजा एक साधू का अपमान कर देते हैं। साधू राजा को श्राप देकर नामर्द बना देता है। राजा के अनुनय विनय करने पर साधू कहता है जब तेरी स्त्री तेरा तीन बार नाम लेकर पुकारेगी उस समय तुम पुनः मर्द हो जाओगे। राजा के महलों में पहुँचने पर उनकी मारूं से भेंट होती है और उनके नामर्द होने का रहस्य खुल जाता है। इसी समय दानव भोजन के लिए राज घराने से एक मनुष्य की बारी आ जाती है। राजा सोच विचार कर नामर्द दामाद- राजकुमार ढोला को दानव के पास भेज देते हैं। जब मारूं को पता चलता है तो वह अंधियारी रात्रि में पुकारती फिरती है।
बिजली तो चमकै राज पग धरौं, बादर की उठत मरोर।
राजा तौ नल के ढोलना, मोरी टेर सुन रे बोलो, लेवे जीव हिलौर।
मारूं की तीन पुकारें सुनते ही ढोला मर्द बन जाते हैं। मारूं को मढ़ी में बिठाकर राजा दानव का इन्तजार करते हैं। ढोला कुँवर दानव के आते ही उसका बध कर उसके कान, मूँछ, नाक काटकर अपने पास रख लेते हें और लाश को महलों के दरवाजे पर रख सुख की नींद सो जाते हैं। दानव की मृत्यु से राजा सुखी होते हैं। राजा कुँवर से प्रसन्न होकर ढोला के साथ मारूं की बिदा कर देते हैं। ढोला और मारूं करिया हाथी पर बैठ कर अपने देश चल देते हैं। रास्ते में मारूं ढोला को आगाह कर देती है कि नदी पर मैं कबरी (सफेद) चिड़िया और परेवा काली चिड़िया बनेगी उसकी और मेरी लड़ाई आकाश में होगी उस समय तुम काली चिड़िया को बान से मार देना। नदी पर ऐसी ही घटना घटती है।
बचन तो राजा पैले हार दये, कारी खों मारौ हनकें बान।
कारी जो चिरइया ना मरैं, तो का राजन की सान।
ढोला बान से काली चिड़िया को मार देते हैं। ढोला मारूं खुशीखुशी आकर राज्य करने लगते हैं। कौतूहल और रोचकता इस गाथा के प्राण हैं। घटनाएँ नये नये रूपों में प्रकट होती रहती हैं उनका समाधान आदर्श में होता है।
राजा गिलन्द की गाथा
राज गिलन्द की लोक गाथा में राजा के कुँवर एवं प्रधान के मित्र की मित्रता का वर्णन है। इन दोनों की शादी बचपन में हो गई थी दोनों ही नाऊ कक्का से सलाह लेकर अपनी अपनी ससुराल जाना चाहते हैं। राजा का कुँवर नाऊ कक्का को लेकर अपनी ससुराल जाने की तैयारी करता है कि भाभी प्रश्न करती है।
कांखां घुड़ल पलायनों रे लाला, कांखां भये तैयार।
कै सुद आई ससुराल की लाला, कै हरत पराई नार।
ना सुद आई ससुरार की भौजी, ना हरत पराई नार।
नदिया ऊपर मेला भरौ, बइये देखन जात रे। रातरें मोर घरै आ जांये।
दूसरी ओर राजा की बेटी जो इन्हीं कुँवर की पत्नी हैं, भाभी से पानी भरने की स्वीकृति चाहती है। बेटी पानी भरने चली जाती है किंतु पानी भरने के पूर्व वह नदी में स्नान करती है। राजा का कुँवर और नाई दोनों उधर से गुजरते हैं और युवती की रूप छटा निहार कर दोनों ही मूर्छित हो जाते हैं। चेतना आने पर नाई युवती से कहता है इसके उपरांत बेटी और कुँवर की भी बात होती है।
ननद- चार जनीं भौजी पनिये गईं, हम सोउ हिलमिल पनिये जांयें।
भौजी- बाप मताई घर आउन दो विन्नू, फिर पनियां खों रे जाओ।
ननद- चार जनीं पनियां गईं भौजी, मैं सोउ होंऊँ पनिहार।
किते धरे री घड़ेलना, कितै धरी नौनी लेज।
कितै धरी मोरी जड़ी कूनरी, मैं पनियां खों जांव।
भौजी- घिनौंचन धरे री घड़ेलना, घुल्लन टगी है लेज।
अटा अटरियन ननदी पेंड़ दों, हनदों बजर किबार।
बाप मताई खों आउन दो विन्नू, फिर पनिआं खों रे जाव।
ननद- अटा अटरियां भौजी कूंद जेंओं, फाडारों बजर किवार।
चार जनीं पनियां गईं भौजी, में पनियां खों रे जांव।
भौजी- कजरा देतन दस मरें ननदी, बिंदिया देतन बीस।
सौक पचासक जब मरें री विन्नू, उगर जेये तोरी गोरी पींठ।
बाप मताई घर आउन दो, फिर पनियां खों रे जाव।
ननद- ना कजरा देखत दस मरें भौजी, ना बिंदिया देखत बीस।
कोऊ कितऊं न कभऊं मरे, जब उगरे मोरी गोरी पींठ।
पनियां भरन सब जात हैं, मैं तो पनियां खों रे जांव।
भौजी- के कुवलन रारें परैं विन्नूं, के मिले कुँवर दीवान।
गली गेल में कऊं मिले, गमारू मुन्स जो सो पनिया भरन जिन जाव।
सुनो पुरा की बैनिया री, ननदी हटकी ना मानैं मोर।
विन अंकुस कलुरिया भई, सो जारई है गिरमा टोर।
नाई- हांत जोर विनती करौं रे बेटा, मोरे कुँवर अमान।
ऐसी औरत ना मिले रे, चाय सात धरौ औतार।
चन्द्र वदन मृग लोचनी, अरी ढँक लो रे अपने अंग।
तोय देखत ठाकुर गिर परे, री धूरा में विगर गये दन्त।
बेटी- बांय पकर घुड़ला धरो रे लाला, रेवता खों लेब झराय।
भाग सरालो माई बाप के, जियत मिलौ तोय आय।
कुंवर- सतखण्डन को री बैठनों, गोरी खइयो अगनिया रे पान।
चार जनीं खिदमत करें, स्वामी के पलो रें पांव।
बेटी- उन देसन सूका परें, उन पानन पै परे तुसार,।
उन कूंखन पथरा परैं, जिन उपजे तुमसे कन्त मुरार।
कुंवर- बायँ पकर दारी घुड़ला धरौं, चाये लग जायँ डेड़ हजार।
जनीं बनाकें छांड़ हों, ले जैओं महलन के दुआर।
बेटी- इत की गंगा उत बयें, इत सूरज उत जांयें।
बिन तेल के दियला जरें, तोऊ ना तैं मोय पाय।
नाई- जल को झावा पैरकें, कर केसन की छांह।
बांय उठा गलियां बता, कौन गलिन गोरी जांय।
बेटी- हरी करौंदी झक झालरी, सीतल वाकी छांह।
बई तेरें हो जाइयो, सो दूखें हमाई बांय।
इसके उपरांत बेटी कुआँ पर पानी भरने चली जाती है। दोनों मुसाफिर पानी पीने के बहाने बात करने की लालच से बेटी के पास पहुँच जाते हैं।
रतन कुआँ मुख सांकरी, अनवेली पनहार।
आंचर छोरें जल भरैं, हीन पुरूष की नार।
प्यासे भटौरा दो जनें, चुरूअक नीर पिआए।
खिरविरो खोवा बांदकें, हेरें तरे हो सिर नाव।
खिरविर खोवा बांद लये, बांदे छतीसऊ दाँत।
पीने होय सो पी लिओ, सारे बातन काय इठलात।
नाई- कितै तुमाय मायके, किते वसे ससरार।
बेटी- इतईं हमारो मायको, दूर वसत ससरार।
पिया हमाये गाँव के, जां वसत गमारू लोग।
मोई जा उम्मर भई, सो पूछे ना गोने की बात।
कुंवर- सन कैसी गठिया गठ गई, गोरी बस गई हिंये मजार।
बांय पकर घुड़ला धरौ, चाये लग जायें डेड़ हजार।
बेटी- पीने होय पानी पिओ रे, उर बोलो वचन समार।
हम हन्सन की हंसनी, तुम कागा गैल गमार।
राज परौ माई बाप कौ, पनइया घल जैयें बीस पचास।
कुंवर- हमें दुहाई रघवीर की, दारी छोड़ी हजारन दार।
बेटी दाल में कुछ काला समझकर आकुल व्याकुल घर पहुँचती हे कि पौर के द्वारे पर नाई और राजकुमार मिलते हैं। युवती भाभी से कहती है।
जेई घुड़ला तालन मिले री भौजी, जेई कुआँ की पार।
जेई घुड़ला पौरन मिले भौजी, मोई गगरी तौ लेव उतार।
लीला वरन घुड़ला बनें री भौजी, पातरिया बरन असवार।
नउआ के सौं भौजी का करौं, मोय कुवला पै करा दई चिनार।
मेहमानों को आदर होता है रात्रि में युवती अपनी अनजाने की भूल की क्षमा माँगने पति (राजकुमार) के पास जाती है। देखिये-
थर थर कपै मौरी कपकपी, कन्ता खोलो बजर किवार।
विनती करत तिरिया तोरी ठांड़ी, कबसें अरे दुआर।
नाराजी के कारण राजकुमार किबाड़ नहीं खोलता है। दूसरे दिन राजकुमार और नाई बेटी की बिदा कराकर चल देते हैं। जंगल में पहुँचते ही राजकुमार बेटी को निर्जन स्थान में छोड़कर अपने देश चला जाता है। भूख प्यास के कारण बेटी मूर्छित हो जाती है। इसी समय राजा गिलन्द की मालिन मूर्छावस्था में बेटी को अपने घर उठा ले जाती है। एक दिन मालिन के स्थान पर बेटी गजरा गूँथकर महलों में भेजती है। ऐसी कला प्रिया बेटी को राज गिलन्द महलों में रख लेते हैं। बेटी राजा से यह शर्त तय कर लेती है कि जब तक मेरे लिए नये बाग और नये महल नहीं बन जाते हैं तब तक मैं तुम्हारी धर्म की बहिन बनकर रहूंगी। यदि इस मध्य मेरा कोई लिवाने नहीं आया तों मैं आपको पति रूप में बरन कर लूंगी। दूसरी ओर राजा का कुँवर घर पहुँचकर प्रधान के कुँवर से जंगल की घटना कह देता हे। सती पत्नी को छोड़ने पर प्रधान का कुँवर राजा के कुँवर को फटकारता है और राजा के कुँवर को साथ लेकर रानी को ढूँढ़ता हुआ राजा गिलन्द की मालिन के पास पहुँच जाते हैं। दोनों कुँवर मालिन को धन देकर संपूर्ण रहस्य ज्ञात कर, नये महलों में मजदूरी करने लगते हैं। एक दिन छत से चिन्तित राजकुमारी मजदूरों को निहारती है कि राजकुमार उसे पहचान कर कह देता है।
ऊँची नसैनी डगमगे री, धरे कटेला मूँड़।
पाँव चूक धरनी गिरें, दारी सो तेंई हो जैये राँड़।
गिलन्द की बहिन यह देख चिन्तित हो कहती है।
लाखामड़ से मड़ खुदे, बने लखूले बाग।
भौजी चली जेये घर आपने, मोरे जीवरा में लग जेये आग।
अंत में दोनों कुँवर राजा गिलन्द से भेंट कर अपनी खोई पत्नी को ले जाने का आग्रह करते हैं। शर्तानुसार राजा गिलन्द राजकुमारी की, बेटी की तरह बिदा कर देते हैं साथ ही कर्तव्यनिष्ठ मित्र- पवान के कुँवर के साथ अपनी बहिन की शादी कर देते हैं। दोनों कुँवर दो डोला लेकर अपने राज्य में आ जाते है। गाथा के पात्र जन साधारण का प्रतिनिधित्व करते हैं। (राजकुमार मजदूरी करते हैं तथा राजकुमारी पानी भरती है) जिससे जनसाधारण को पात्रों से आत्मीयता जुड़ आनन्द की प्राप्ति होती है।
संत बसंत की गाथा
संत बसंत की गाथा बुंदेलखंड के गाँव गाँव में गाई जाती है। यह गाथा दो सगे भाइयों की करूणिम गाथा है। संत और बसंत पूर्व जन्म में सगे भाई बच्छराज और बाघराज थे। एक दिन बहेलिये ने बच्छराज का बध कर दिया था प्रेम वशीभूत बाघराज, बच्छराज की जलती चिता में कूदकर प्राण दे देता है। उनकी चिता पर ही दो एक पोर के हरियल वांस पैदा होते हैं इसी देश की राजकुमारी की शादी में इन एक पोर के वांसों को काटकर मण्डप छाया जाता है। बेटी की विदा के बाद इन बांसों से ही संत बसंत की उत्पत्ति होती है। ‘‘बुंदेली लोक गाथाओं में संत बसंत दो भाइयों की लोक गाथा का स्वरूप देखने योग्य है। इन दोनों भाइयों को बांसों के अंदर पाये गये राजकुमारों के रूप में चित्रित किया गया है।पूर्व जन्म औतरे- पंक्ति बच्छराज एवं बाघराज गाथा की ओर संकेत करती है। रानी माँ की मृत्यु हो जाने के कारण उन्हें रानी माँ की जगह नई रानी मिलती हैं जो सौतिया डाह के कारण राजकुमारों को देश निकाला, दिलवा देती हैं।
जन्म के संबंध में –
काठी जान कुठार सें, कपट न डारौ अजान।
पूरव जनम औतरे, संत बसंत कुमार।
हरे भरे बांसन औतरे, संत बसंत कुमार।ऐसे घर भागन परे, जितै कुलच्छन नार।
सुमरियो हरे बांस के बिरवा घनैं।
देश निकाले के संबंध में-
आगे पग न बड़ाइयो, राजन के दरबार।
अपनी प्यास बुझाइयो, बन के रूख मझार। सुमरियो हरे बांस के बिरवा घने।
दोस कौन खों देंय अब, बड़ी भाग की मार।
दोनों भाई जंगल में भटकते भटकते भूख प्यास से पीड़ित, चिता जला कर एक पेड़ के नीचे लेट जाते हैं। संत सो जाता है, बसंत को नींद नहीं आती है कि आम के पेड़ पर बैठे सुआ सारो (तोता-मैना) वात्सल्य वशीभूत हो, अपने मांस के गुण बतलाकर- राजकुमारों की भूख मिटाने, अग्नि में गिर जल भुनकर मर जाते हैं। उनके मांस में यह गुण थे कि जो सुआ के मांस को खायेगा, वह राजा होगा और जो सारो को खायेगा उसे नित्य सुबह दो लालों की प्राप्ति होगी। बसंत, संत को जगाकर सुआ का मांस खिला देता है और स्वयं सारो खाकर सो जाता है। नींद खुलने पर संत एक जानवर के पीछे रात भर दौड़ता हुआ प्रातः एक राज्य में पहुँचता है उस राज्य के राजा की मृत्यु हो गई थी और उसकी आज्ञा थी कि जो भी परदेशी प्रातः दिखाई दे उसे उसकी गद्दी प्रदान की जाय। अतः संत वहाँ का राजा बन जाता है।
भूके प्यासे जा परे संत वसंन्त अमराई की छांह।
सारो सुआ बन गये रे, कुंवरन के बाबुल मांय। सुमरियो रे हरे बांस के बिरबा….।
विछुडने पर-
एक दिना आखेट में, विछुर गये दोई भाय।
दीजो कोऊ संत सों, फिरसें बसंत मिलाय। सुमरियो रे ….।
बसंत सुबह उठता है तो उसे दो लालों की प्राप्ति होती है। हवर इधर देखने पर वसंत को संत नहीं दिखाई पड़ता है तो वह समझ जाता है कि संत कहीं राजा बन गया है। बसंत लालों को बेचने एक राज्य में जाता है वहाँ का राजा राक्षसी के आतंक से परेशान था। राक्षसी रोज एक व्यक्ति का भोजन करती थी। अतः राजा ने घोषणा कर रखी थी कि जो कोई राक्षसी का बध कर देगा उसे वह अपना आधा राज्य देकर अपनी बेटी की शादी उसके साथ कर देंगे। बसंत राक्षसी को मारकर राजकुमार से शादी कर वहीं का राजा बन जाता है।
करी बसंत नें वीरता, राक्षसन डारी मार।
आदौ ले लओ राज खों, पैर गरे में हार।
संत राजा हो गया था किंतु बसंत की याद उसे सताती रहती थी। उसने दूर दूर तक घोषणा कर दी थी कि जो कोई संत बसंत की गाथा सुनायेगा उसे एक लाख मुहरें दान में दी जायेंगी। बसंत घोषणा सुनकर साधू भेष में संत के पास पहुँच जाता है। दोनों भाई गले लगकर मिलते हैं देखिये-
संत बसंत दोऊ मिले, एक दूजे कन्ठ लगाय।
हाती के हौदा सजे, सो महलन गओ लुबाय।
सुमरियो हरे बांस के बिरवा घने।
बुंदेली लोक गाथायें लोक द्वारा लोक के लिए निर्मित हुई हैं इसीलिए इनमें कलात्मकता का अभाव है। इनमें समाज का यथार्थ रूप और उसकी रूढ़ियाँ तथा लोक जीवन के स्वछंद आचार विचारों का सरल रूप में प्रकाशन हुआ है। इनमें श्रम साध्य प्रयास का पूर्णतः अभाव है। मौखिक रूप में इनकी यात्रा परिवर्तित हो युगों की मान्यताओं को अपने में समेंटे हुए हैं। गेयता इनका मौलिक गुण है जो आज तक अक्षुण्ण है। इसी गुण से प्रभावोत्पादकता ग्रामीणों को ब्रह्मानन्द सहोदर- रस की रसानुभूति कराती रहती है साथ ही इनका उपदेशात्मक रूप मानव मूल्यों को स्थिरता प्रदान करता रहता है।
(स) बुंदेली लोक कथाएँ
बुंदेलखंड में विभिन्न प्रकार की लोक कथाएँ, मौखिक रूप में प्राप्त होती हैं। इनका आदिम रूप, समय के नाना पड़ावों पर विश्राम कर नई शक्ति संचरित कर आगे की मंजिल तक जाने को उद्यत हुआ है। भाषा के नये नये परिवारों से सुसज्जित नये परिवेशों में इन्होंने अपनी साज सज्जा की है। जनमानस ने बुंदेली भावनाऐं रहन सहन, सुख दुख, प्रीति वैर, रीति रिवाज, विश्वास पूजा और उपासना आदि से कथाओं में अपने व्यक्तित्व को उभारा है। बुंदेली लोक साहित्य में यदि मानव हृदय का छलछलाता उल्लास गीत वनकर- निर्झर की तरह कल कल निनाद करता निश्रित हुआ है तो मष्तिष्क का तर्क, मन का उफान, कुछ कहने सुनने का डछाह, मन की चिर अतृप्त जिज्ञासायुक्त आकांक्षा कथा बनकर अंकुरित हुई है। कहानी मनुष्य के लिए अपूर्व विश्रान्ति का साधन है। मन के आभास को हटाने के लिए कहानी मानव समाज का प्राचीन रसायन है।बुंदेली कथाओं में यह भाव प्राण सदृश्य व्याप्त है। मानव शास्त्र के तत्वज्ञों का कहना है कि मानव मन में जो शाश्वत बालभाव समाया रहता है उसकी भाषा, उसका साहित्य, उसकी भावाभिव्यक्ति कथा ही है।
बुंदेली लोक कथाओं के जन्म की कहानी मानव पुत्र के जन्म से जुड़ी है। शिशु एवं लोक कथाएँ एक दूसरे के पूरक हैं। इनकी जन्म प्रक्रिया की अनकही कहानी ही लोक कथाएँ हैं। शिशु के होश संभालते ही उसकी सृष्टि के प्रति जिज्ञासा कथा जन्म की प्रथम सीढ़ी है- उसकी जिज्ञासा का समाधान कहानी के जन्म का अन्य चरण है। इसलिए इन कथाओं में लोक जीवन लोकाचार, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक पहलू- सन्निहित हैं। स्थान भिन्नता, व्यक्ति भिन्नता, भाषा भिन्नता से इनके रूप में छोटा मोटा रूप भेद होता है किंतु आत्मा की सरलता और स्वाभाविकता समान रहती है। ये कथाएँ मानव आकृतियों की तरह हैं जिनमें आकार की भिन्नता तो होती है किंतु आत्मिक रूप एक होता है। यही रूप हमें बुंदेली लोक कथाओं में दृष्टिगत होता है। बुंदेली लोक कथाओं में जन जन की भावनाएँ, परंपरायें और जीवन दर्शन समाहित है। ये कथायें साहित्य के नीति परक उपदेशों की प्रबल अभिवक्ता हैं। कहानी समस्त साहित्य की आद्या है … मैं और तुम इन दो शब्दों में भी एक कहानी है।
बुंदेली लोक कथाओं का वर्गीकरण- बुंदेली लोक कथाओं का वर्गीकरण इस प्रकार है। 1. आकार की दृष्टि से, 2. विषय की दृष्टि स
- आकार की दृष्टि से वर्गीकरण- (अ) लघु कथाएँ (ब) दीर्घ कथाएँ
- विषय की दृष्टि से वर्गीकरण- (1) प्रकृति परक कथाएँ (2) पौराणिक कथाएँ। 3. ऐतिहासिक कथाएँ 4. धार्मिक कथाएँ 5. सामाजिक कथाएँ 6. उपदेशात्मक कथाएँ 7. पक्षियों की कथाएँ 8. पशुओं की कथाएँ 9. थलचर एवं जलचरों की मिश्रित कथाएँ 10. बल विक्रम की कथाएँ 11. परियों की कथाएँ 12. ठगों की कथाएँ 13. दानव या डायन की कथाएँ 14. जातिपरक कथाएँ 15. अलौकिक कथाएँ 16. मनोरंजक कथाएँ 17. चतुराई की कथाएँ 18. भाग्यवादी कथाएँ 19. कहावत परक कथाएँ 20. मित्रों की कथाएँ 21. गद्य पद्य मिश्रित कथाएँ 22. लघु छंद कथाएँ 23. काम या रति परक कथाएँ 24. विविध कथाएँ।
- लघु आकार परक कथाएँ- बुंदेली लोक साहित्य में आकार की दृष्टि से लघु एवं दीर्घ कथाएँ मिलती है। लघु कथाएँ वह कथाएँ हैं जो थोड़े से समय में मानव का मनोरंजन करती हैं इसके अंतर्गत अथाई की बाते आती हैं। जब लोक जीवन में छोटी छोटी समस्याओं का समाधान अथाई पर बैठकर ढूँढ़ना चाहते हैं उस समय इन्हीं लघु कथाओं का सहारा लिया जाता है। इन्हें हम चुटकुले भी कह सकते हैं। अप्रत्यक्ष प्रतीकों के माध्यम से समाज की व्यवस्था बनाये रखने, उपदेश देने में इनका प्रयोग होता है। बुंदेलखंड में ये कथाएँ कौंड़े पर सुनाई देती हैं जिसमें बूढ़े बुजुर्ग बच्चों को शिक्षा प्रदान करते हैं। कुठिया में हो गुड़ फोरवो, कांसे को सबद कांसें में रय, परदा भीतर सबई नंगे हैं, नंगे ठांड़े निचोउत का हैं, ऐसो कौनऊ पत्ता नइयां जिये हवा न लगी होय, परमात्मा सबई की निपटाउत, पंच तौ परमैसुर बरोवर होत, आदि बुंदेली के वह अमूल्य दृष्टान्त हैं जिनमें बिहारी के दोहों सी गरिमा है और तीखी चोट करने की क्षमता भी। बुंदेली के ये दृष्टान्त न्याय दिलाकर जीवन में मधुरता भर, कर्तव्य हेतु प्रेरित करते हैं।
- दीर्घ आकार परक कथाएँ- ये कथाएँ मात्र मनोरंजन हेतु होती हैं। इनका आकार दीर्घ होता है। दिन भर का थका हारा किसान ठिठुरती ठंड में अलाव पर बैठकर इन कथाओं को सुनता है जिससे ठंड की लंबी लंबी रातें मनोरंजन कर व्यतीत कर लेता है।
- विषय परक वर्गीकरणः- विषय की दृष्टि से बुंदेली लोक कथाओं का रूप विशाल है। इसके अंतर्गत आकार परक कथाएँ समाहित हो जाती हैं। ये सीधी कथाएँ मनोरंजनार्थ और उपदेश हेतु होती हैं। बुंदेलखंड में बुंदेली कथाओं के कहने के पूर्व श्रोताओं का ध्यान एकाग्र करने के लिए एक लंबी सी भूमिका कही जाती है- हां भई सुनो, हूंका देने वाला हूं हूं करने लगता है, चिलम भरने वाला चिलम ढूंड़ने लगता है, कौंड़े पर अग्नि तेज हो जाती है, छोटे छोटे बच्चे माता पिता के पास सिमट आते हैं, वक्ता चिलम के संरूटे सूंट कर किस्सा शुरू कर देता है- किस्सा सी झूटीं नई, बातों सी मीठी नई। घरी घरी को विश्राम, जाने सीताराम, न कैवे वाये खों दोस न सुनवे वाये कों दोस दोस ऊखां जीनें बनाकें खड़ी करी ….. आदि।
कुछ प्रमुख लोक कथायें इस प्रकार हैं-
- प्रकृति परक कथाएँ- 1. मानव का शरीर प्रकृति से निर्मित होता है और अंत में उसी की गोद में मिल जाता है। इस तरह मानव का संपूर्ण जीवन जन्म से मरण तक प्रकृति के धानी आँचल में व्यतीत होता है। इन्हीं भावों को बुंदेली कथाअें में पाया जाता है।
पत्ता और डेला की किस्साः- ऐसें ऐसें इक पत्ता और ड़ेला हतौ। ड़ेला आौर पत्ता दोई जनें डरे डरे एक खेत में सोच रये ते के कओ हो अगर असाड़ लग जेये औ खूंबईं पानीं वरसन लग है तो अपन दोई जनें कायजू का करें। जा बात ड़ेला ने पत्ता से कई। पत्ता ने तुरतईं कई कैं जो कऊं असाड़ के पैले खूंवई वगरूड़ों आउनें तो मोये कैसऊं नईं रैपाउनें हतै मोय तो उड़ई जानें सो दोई जनन नें आपस में जा तै करी के काय भैया अपन ई साल के लानें मिन्त्याई न कर लिये (पत्ता ने मन में घोक कें कई कैं ऐन कर लिये में तौ तैयार हों। सो डेला नें कई कै जब बनऊं आंदी बैर चलै तौ मैं तुमाय ऊपर बैठ जैओं, सो तुम कितउं उड़ न पैओ। पत्ता नें कई, जो गुनत तौ तुमनें ठीक लगाओ ईमें तौ मोव कछू बिगरनेई नइयां। जब असाड़ को पानी गिरे सो मैं तुमाय ऊपर हो जैओं सो न तौ तुम भींज पाओ और न गरन पाओ। डेला नें कई कै तुमनें सोऊ अच्छों गुन्त लगाओ हो। कौ गौर करै आंदी आई सो ड़ेला नें पत्ता खों बचा लओ और पानी आओं सो पत्ता नें डेला खों बचा लओ। दोई जनन में खूब मिन्तयाई बनीं रई पै जब जै आफतें टर गईं सो खटकन लगी। ड़ेला कन लगौ कैं मैंना होतो तो तें कउं डरों दिखातो, पत्ता कर्रयानों का खों मरो जात मैना होतो तो नाव निसान मिट जातो। भइया उनमें तो खूब हुज्जत भई और मों बोली तक बंद हो गई। फिर लगो फिरकूं जेठ और असाड़ सो काउ नें काउ की मदद नई करी सो आंदी में पत्ता उड़ गओ और पानी में डेला गर गओ। काय के मेर बनाये काम और फूट नसावै काम। हती कानियां सो हो गई।
प्रस्तुत लोक कथा में प्रकृति के प्रतीकों द्वारा मानव को शिक्षा दी गई है सहयोग से जीवन सुखी होता है और असहयोग से विनाश होता है। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति इस कथा में हुई है।
- पौराणिक कथाएँ- बुंदेली लोक साहित्य में पौराणिक देवी देवताओं एंव अनेक महापुरूषों के जीवन से संबंधित कथाएँ उपलब्ध होती हैं जेसे सत्य पालक हरिया की कथा, दानी करन की कथा, और नारद मोह की कथा आदि।
करनी कौ फल- ऐसें ऐसें एक राज में एक राजा राज करत ते। उनकें एक भौतई नौनी बिटिया हती। जब वे विन्नू सियानीं हो गईं तो राजा खों उनके व्याव की भौतई फिकर लगी। राजा नें अपने नाउ वृतिया और बामन खों नौनो वर ढूड़वे के काजैं दूर दूर के मुलकन में, घेरउं घेरां पठा दओ। पै भइया भाग की तौ बात आय, राजन की तौ विन्नूं आंये उनखों कितउं घर मिलवै तौ लरका ना मिलै, और लरका मिलै तो उन लाख घर ना मिलै। सौ उनकी सगाई ना हो पाई, राजा विचारे मन मारकें रै गये। ऐई बीचा का भओ, कै ऊ राज में एक भौतई जनवा सादू आये, उनके गुनन की चरचा गली गली में फैल गई के वे भौतई नौनों हांत देखत। जैसई राजा खों खबर लगी सो उननें सादू महाराज खों महलन में बुलाकें, दूद से पाँव पखारकें, ऊचे आंसन में बैठारो। खूबईं खातिरदारी करी। पै राजै तो लगी ती बेई राजा नें विन्नूं राजा खों बुलाकें सादू महाराज सें कैदई कै ईको भाग तो देखो, ईखों कउं नौनो वर नई मिल रओ। विन्नूं राजा के रूप खों देक कें सादू महाराज तौ तक्तई रैगये। और भइया उनके मन में कछू मैल पर गओ काय के लुगाइ अच्छन अच्छन को ईमान डुगा देत। सो वे तौ कन लगे के कछू होय जा विन्नू तो हमईंये मिलो चइये। तनक देर सादू महाराज नें गुन्त व्योंत करकें राजन से कै दई के राजन ईं विन्नू कौ तो भाग भौतई बुरव है। जा मताई बाप खां मानन है औ जो घरै जेये ऊ घरकौ तौ सत्यानास रूकई नईं सकत। सादू महाराज की बातें सुनकें राजा भइया भौत दुखी भये, पै करी छाती करकें बोले के महाराज ईको कोनउ उपाव तो बताओं नईतर कैसें काम चलै, स्यानों लरका बिटिया है, कऊं रंदे मात अपने पेटे समात। सादू महाराज नें कई कै तो राजन ठीक रये पै तुमें अपनों करेजों उर्रो कननें आहें, ई को राजन तुम देस निकारो देदो। राजा घिची लटकाकें रे गये औ गरौ भरकें बोले के महाराज अब जैसी आप केओ तैसई करें सो सादू ने तुरतईं कई कै राजन एक कठवा को कठारा बनवाव और ऊमें ईको सब गानों गुरिया, उन्ना लत्ता घरकें गेवड़े की नदी में बुआ देव। ….. जा कान खोलकें सुन लेव जो कऊ तुम गानों गुरिया ना धरौ तो तुमें सनीचर लग जेये। राजा नें कई हऔ महाराज। इत्ती के कें सादू महाराज तुरतईं उठ कें चल दये और नदी के कछू नैंचें चलकें, कुटी बनाकें रन लगे। इते राजा नें सुवीतो पाकैं विन्नूं राजा खों बुलाओ औ सब कानिया के दई। विन्नूं हतीं भौतई समझदार। उननें कई राजन ईमें तुमाव का दोस हमाये जो भाग में लिखो सो हम भुगतें, तुमतो बोई करो जो सादू महाराज के गये जी में तुमाव औ पिरजा कौ भलो होय। सो भइया राजा रोउत रोउत नदी के ढियांड़े गये और विन्नूं कों कठारा में धरकें बुआई दओ। कठारा बउत बउत चलो जा रओ तो के कछू दूर चलकें एक दूसरे राजा पानूं पीवे खों ओई नदी के किनारे पै बैठे ते जैसईं उननें बउत कठारा खों देखो सो वे कछू सोच कें नदी में गिर परे और कठारा खों पानूं सें बायरें खेंच ल्याये। राजन नें जैसईं कठारा खां खोलो सो ऊमें सोवरन कीं राजकुमारी कड़ आई जिये तकतनई राजा खों मूरछा आ गई। जब राजा खों होस आव सो बेटी नें उनसें सब कानिया कै दई सो राजा नें बेटी सें अपने राज में चलवे की कै दई औ अपने चाकरन सें एक बंदरा ढुड़वाकें, कठारा में धरकं नदी में बुआ दओ। औ बेटी खों लेकें अपने महलन में चले गये। बंदरां उचकवे के मांय कठारा खूबई तेज बउत गओ। बउत बउत कठारा जब उतै पौंचो जां सादू महाराजा ऊकी रोजई बाट हैरत ते। कठारा खों देखकें सादू महाराज भौतई खुस भये और झटपट नदी में बमककें कठारा खों पकर ल्याये। कुटी में पौंचकें सादू महाराज नें चेलन सें कई देखों हम कुटी में भजन कर रये उतें तुम जिन आइओ और जो कछू हम कयें ओई खों वेर वेर चिल्याकें कइओ। चैलन नें कई हओ महाराज। इतै सादू महाराज हाले फूले, भुल्ल फुल्ल में कठारा कें कुटी में पौंचे, उननें कुटी के किबार लगाकें और कठारा दै खोलो। भइया खोलतन की तो देर भई खसयानों बंदरा चड़ई तो बैठो महाराज के ऊपर और उनकी डांड़ी लौंचन लगो। सादू महाराज चिल्याने चींथ खाओ, चींथ खाओ, चींथ खाओ रे। चेला चांटी तौ तैयारई ठांड़े ते वे भी गाउन लगे, चींथ खाओ, चींथ खाओ, चींथ खाओ रे। जौ लो भइया बंदरा नें सादू के आंग फा डारे सो सादू चिल्यानों, फार खाव, फार खाओ, फार खाओ रे। चेला गाउन लगे, फार खाओ, फार खाओ, फार खाओ रे। सादू महाराज फिर गिगयानें दौर परौ, दौर परौ, दौर परौ रे। चेला फिर गाउन लगे, दौर परौ, दौर परौ, दौर परौ, दौर परो रे।
कै इतने बीचा में बंदरा नें सादू महाराज की आंते बगरा दईं, इते जब चेलन ने सादू महाराज के भजन की आवाज ना सुनीं सो वे आपस में कन लगे कै चलो तो हो भीतर, देखें चइये का बात है। बाबाजू तौ अब भजनई नईं कर रये आंये। उनन की कुटी खोलवे की देर भई के बंदरा बमक कैं कड़ गओ औ वे सादू महाराज खों मरौ देखकें रोउन लगे। कछू दिनन में जा खबर ऊ बेटी खों परी, बा मन में भौतई खुसी भई और ऊनें बाप खों एक चिट्ठी लिखी-
बेटी बैठी राज घर, बाबै बांदर खाव।
जो जैसी करनीं करी, सो तैसो फल पाव।
रामचरित मानस में नारद जी राज कन्या की हस्त रेखायें देखकर मोहित हुए थे। यही घटना लोक कथाकार ने साधू की कथा बनाकर बुंदेली कथा में कही है। ऐतिहासिक कथाएँ – बुंदेलखंड में ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर राजा भोज की कथा, आल्हा ऊदल की कथाएँ, मधुकर शाह की कथा, वीर हरदौल की कथा प्राप्त होती हैं। इनमें राज पुरूषों की वीरता, दान और न्याय प्रियता, आन बान, संस्कृति एवं धर्म की महत्ता का वर्णन मिलता है।
राजा शालिवाहन की कथा
ऐसें राजा भोज हते, उनकें हतीं एक रानीं। जब बा रानीं गरभ से भई सो आकासवानीं भई कि ई रानीं कें नमये महनें, सालवाहन नामको लरका हुइये। बो लरका राजा भोज सें भौतई दानी, न्याई और पराकरमी हुइये, औ दूर दूर के मुलकन में ऊकौ राज फैल जेये। जा सुनकें राजा भोज खों नेकउ नौनों नईं लगो, सो ऊनें सोचकें, कै हमाव नाव तौ इये घटाई देनें, जो जरसें ठूठई काय नां खोद देंय। ना रेये बांस ना बजै बांसरी। सौ ऊनें का करी कै जल्लादन खें बुलाकें कई कै, ई रानीं खों पलंग सैत कजरी बन में छोड़ आव, औ ईकी आँखें काड़कें हमें दिखाव। जल्लाद पलंगसैत रानीं खों लेकें कजरी बन में पौंचे सो रानी की आँख खुल गई, रानी नें कई के काय तुम हमें कांय लें जात। जल्लादन नें हांत जोर कें रानी खों सबरी कानियां सुना दई। रानी नें उनें अपने गरे को नौलखा हार देकें कई कै भइया हमें छोड़दो, हमाई आँखें जिन काड़ो, हम जा बात कभऊ काऊ सें ना केंये। जल्लादन खां गरभ वाली रानी पै दया आ गई काय कें मान्स तो वेई आंय। कछू हार कौ लोब असर कर गओ सो उननें रानी खों छोड़ दओ और मैड़े की आँखें काड़कें राजा लौ हाजिर कर दईं।
भाग की बात जिते रानी रो रईं ती, उतईं से कड़ो एक कुम्हार, ऊ रानी खों घड़न के काम के लानें मताई की थानक अपने घरै ले गओ। रानी घड़न को काम करें और सुख चैन सें रान लगीं। कछू दिनन में उनकें खूबईं नौनें कुँवर भये। कुँवर की का पूछत, ऊकौ चन्दा सौ उजियारो होत तो, दिन भर कुम्हार गगरीं बनाउत तौ, कुँवर माटी के खिलौनन सें खेलत रत तौ। भइया राजन कौ तौ कुँवर आय वो तौ हतौ भौत हुनगारी। वौ तौ दिन दूनौं रात चौगुनों बड़कें भरदर ज्वान हो गओ।
इते राजा भोज के राज में भौतई धनी सेठ हतो, जब ऊ सेठ के चारऊ लरका परदेस बन्जी खों गये तो हत्ते में ऊ सेठ की मौत हो गई। सेठ मरती विरिया चार मटका धरके चारउ कौनन में गाड़ गओ के लरका परदेस सें लौट कें एक एक ले लें। लरका घरे आये तो उनन नें कौनन के मटका दै काड़े उनमें एक में मौरें हतीं दूसरे में कागद तीसरे में हाड़ और चौथे में मांटी भरी ती। सेठ के लरका चारउ मटका लैकें, बटवारे के लानें राजा भोज लौं गये पै राजा भोज ईको निपटारौ न कर पाये, उननें कै दई के हमाये बूते की नइयां। निपटारे के लाने चारउ लरका परदेस खों चल भये। चलत चलत ऊ जांगा पौंचे जिते शालवाहन रत ते। सालवाहन नें उनें टेर कैं कई के इनमें का लयें जा रये रे। लरकन नें सबरी कानियां के दई। कुँवर नें कई के बस इत्ती सी बात, तुमाव निपटारौ तौ मैंई करें देत। उन ने कई नेकी और पूंछ पूंछ, कर दो। सालवाहन नें चारउ मटकन खों चारउ भइयन में बांट दये। बड़े खों मौरन कौ, मजले खों कागजन कौ, सजले खों हाड़न को औ लौरे कों माटी को मटका गुआ दओ। फिर कुँवर नें जैठे सें कई के तुमाये दद्दा तुमें घरको सब सोनों देन चाउतते, मजले सें कई, तुमें साउकार देओ चाउतते, सजलें से कई, तुमें गइयां, भैंसिया देन चाउतते और लौरे सें कई के तोय मकान और खेत की जमीन देन चाउतते। सो तुम अब अपने हिस्सा लेकें घरे जाव। ऐसो उमदा न्याय देख कें वे सबरे खुसी खुसी अपने घरै आ गये। होत होत जा बात राजा भोज खों पतौ चल गई सो उननें दाँत तरैं उंगरिया दाब लई औ मनमें सोच कें ऊ लरका खों अपने दरबार में बुलाओ। कुँवर नें दरबार में जावे सें नाईं कर दई सो राजा भोज नें कुँवर पै चड़ाई कर दई। उतै भइया खूबई खूब लराई भई जी में राजा हार गओ। जब चिनार भई तो पतो चलो के जौ तो उनईं को लरका आय। सौ राजा नें अपनी भूल मनाई और कुँवर खों गरै ल्याकें गद्दी पै बैठार दओ।
धार्मिक कथाएँ
बुंदेलखंड में धार्मिक लोक कथाएँ प्राप्त होतीं हैं। सुख की प्राप्ति के लिऐ मानव व्रत उपवास करता है। इन व्रत उपवासों एवं अनुष्ठानों का बुंदेलखंड में बाहुल्य है। इन्हीं से संबंधित सत्यनारायण की कथा, संतोषी माता की कथा, भइया दोज की कथा आदि यहाँ की प्रमुख धार्मिक कथाएँ हैं।
भइया दोज की कथा
धर्म विश्वास का दूसरा नाम है। भारत के भाई बहिन का पावन रिश्ता संसार के रिश्तों में श्रेष्ठ है। जहाँ स्नेह का तरलतम रूप, त्याग, कुर्बानी, कर्म सौंदर्य आदि सद्गुणों को अपने में समेंटे है। इस कथा में यही भाव हैं। देखिये- ऐसें ऐसें एक गाँव में एक बैन भइया रउत हते। बैन को व्याव हो चुको तौ और भइया कौ नईं भव तौ, पै बैन हती बनई कें सूदी, जासौं बाय सबई कोऊ सिरनन व्याउ कात हते। गाँव वारन नें जब भइया खों भौतई सियानों होत देखो, तौ सबनें जुर मिल कें एक गाँव में बाकी सगाई कर दई। पै जब बरात चलन लगी, तो बैन बोली के हम सोऊ चलत हैं, काय सें कऊं मोरो भइया भाँवरन में मर गओ तौ मैं का करहों, ऊखों भइया की जा भविष्य मालुम हती यै गाँव बारन नें ऊकी जा बात पै सिररन व्याउ जानकें ध्यान नईं दओ, और बाखों बिना संगे लयें बरात निगा दई। पै बा कायखों रूकबे बार हती और बा बरात के पैलें अगारू चलकें ग्योंड़े बायरें, नदी के घाट पै जा बैठी। काय इते सोई बाके भइया की मौत हती।
जैसईं बरात नदी पै आई के नदी घरर घरर करकें ऐंन चड़ आई और जैसई बरात पार होन लगी, के दूला बउन लगौ। जौ देखकें सबरी बराती घबरान लगे, पै बा सिररन बैन नें अपनी चुनरिया उतारकें नदी की धार में फेंक दई। जीखों पकरकें दूला पार पै आन लगो, अब सब बराती कउन लगे, कै भाई जा सिररन खों सोउ संगे लुबांय चलो और बाय संगे लयें बरात चल दई। बरात जब लरकी बारे दुआरें पौंची तो खूब आदर सतकार भओ और टीका चड़ाव चड़कैं दूला जैसई भाँवरन के लानें मड़वा तरें बैठो के कुरैंया, मुरैंया ले कें रै गओ। जो देख हई काल मच गओ। बरात कें औंदे नगारे हो गये, पै जा बात ऊ सिररन नें सुनीं, तौ बा दौरी भई कुजानें हांपत सींपत मड़वा तरें आई। और सात बमूरन के कांटे निकार, जो बानें दूला के ऊपर फेंके सोई दूला होस हबास में आकें उठकें बैठ गओ। जो देखकें सबखों बड़ो अचम्भों भओ। अब सब नेगन जोगन में बाकों अंगारूं करन लगे। बरात की बिदा होकें जैसई घरै आई के दुलैन कौ मूंड़ माहुर होन लगौ, तो बैन कान लगी कै पैले हमाओ करो, देई देवता पूजन लगे तो बा बोली पैले हमाव पूजन करो। ऐसईं जोन जौन जांगा ऊके भइया खों कस्ट होनें हतो बानें अंगारूं हो हो कें बचा लओ। तौ लो भइया की दोज आ गई सो बानें अपने भइया खों टींका करो। ता पाछें बाके लिवउआ आ गये सोई भइया नें बाये लहर पटुरियां दैकें बाकी विदा कर दई। हती किस्सा सो खतम हो गई।
इस कथा में भइया दोज के टीका द्वारा लोक विश्वास प्रकट हुआ है कि बहिन के टीका करने से भाई पर विपत्ति नहीं आती है।
सामाजिक कथाएँ
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसका निर्माण समाज से होता है और समाज के लिए जीवन अर्पित कर देता है। बुंदेली लोक कथाओं में स्नेह, सौहार्द्र, सहानुभूति, ममता-माया, मोह, ईर्षा द्वेष आदि भावों के साथ बहिन भाई, पति पत्नी, पिता पु़त्र, माँ बेटी एवं सोतों के पारस्परिक संबंधों का दिग्दर्शन होता है। बुंदेली कथाएँ- सत्यवान की बेटी, माया कौ बाप, मोह की मताई, होते की बैन, ना होते को भइया, नजर की तिरिया और काग बिड़ारिनी आदि ऐसी ही सामाजिक कथाएँ हैं।
माया कौ बाप, मोह की मताई, होती की बैन, ना होते को मिन्त्र या भइया।
ऐसें ऐसें एक राज में एक राजा राज करत ते। बो जब बूड़ौ हो गऔ तौ ऊनें अपने कुँवर सें कई के बेटा हम तौ तीरथन जारये और तें जे सो रूपइया ले ईंसे अपनों गुजारो करिये। इसी के कें राजा नें खजानें में तारों डार दओ और रानी खों लेकें तीरथन चले गये। इते कुँवर घूमत घूमत बजारै पौंचे सो उतै एक सादू कै रओ तो कै ई कगदा कै सो रूपइया दाम कुँवर नें इत्ती सुनी और सादू के एंगर जाकें बो कगदा सौ रूपइया में खरीद लओ। ऊ कगदा में लिखो तो ‘‘माया कौ बाप, मोय की मताई, होती की बैन, ना होते को मिन्त्र, नजर की तिरिया, गांठी को दाम, जब देखो तब आवै काम। इत्तौ बांच कें कुँवर घरै चलौ आओ औ सोचने लगौ के देखो कगदा की बातें साँची कड़तीं कै नई। कुँवर नौं जो रूपइया हते सो वे सब खर्च कर डारे अब खरचा की तंगई होन लगी। सो ऊनें खजाने कौ तारो टो डारो उर खजाने सें खूब खरचा करन लगो। कछु दिनन बाद राजा रानी घरै आये सो आउत नईं बाप नें लरका सें पूछी कै तैनें सो रूपइया सें का कमाई करी सो लरका नें कगदा की खरीद बता दई। राजा नें नाराज होकें कुँवर खों देस निकारो दे दओ। कुँवर नें सोची के कगदा की एक बात तो सई कड़ी कजन्त मैंने कमाई करी होती तो काय खों घर सें कड़तो। ऐसी सोचत कुँवर मताई के ऐंगन गओ मताई लरका के गरें लग कें रोउन लगी और ऊनें लरका खों कलेउ के लानें गुजियां बनाई और उनमें खूब मौरें असरफीं भर दई अै मोड़े बांद दईं। भुन्सायें जब मौड़ा घर सें जान लगो तो बाप नें बाकी छछोबा छछोबी करी कै कऊं कछू माल टाल तो नईं लयें जा रओ। चलत चलत कुँवर नें गैल में कलेउ करवे खों गुजियां काड़ीं ऊमें उये मौरें मिल गई ऊनें कई के कगदा की दूसरी बात सोऊ साँची कड़ी। चलत चलत कुँवर अपनी बैन लौ पौंचो सो गेलारनै नें ऊकी बैन सें कई के तुमाव भइया आओ, ऊकी आँखन सें कीचर बै रओ, चींथरा लटकांयें, पछारूं कुत्ता भौंक रये। सो बैन नें ऊसें भेंटई नईं करी उर बैन नें ऊखां कुम्हार के घरै ठैरा दओ और ऊंमर, भुंजे मउआ और सूके, साके कौरा कुरकुटा खाबै खों दे दये। लरका नें उनें घूरे में, डबला में धरकें- गाड़ दओ। बो सोचन लगो के ऐ तीसरी बात सोऊ सोरउ आना साँची है हो। चलत चलत बौ मिन्त्र के घरै पौंचो, मिन्त्र नें ऊकी गरीबी देखी सो ऊसें रओ नईं गओ, गरै लगकें रोउन लगौ औ अपनेई संगें घरै लुआ गओ। लरका ने ऊखों नौनें नौने उन्ना पैराये, अच्छो खाबे ख्बाओ और आदौ राज पाट दैकें बोलो के अब जिन भटको नांय मांय। पै कुँवर नें कई कै अबै तो मोय ससुरारै जानें फिर कभऊं आओं और भइया जैसई बो ससुरारे पौंचो सौ उते काउ नें ऊसें बातई नईं पूंछी कै जो कौ कांकौ आये और की तौ कयें का ऊकी लुगाइयई कान लगी के हम नईं चीनत के जो को आये। कुँवर बायरे ग्योंड़े आकें मातन की मड़िया लौ रन लगौ। ऊ मड़िया में रतते एक सादू ऊ सादू सें लगी ती ऊकी लुगाई। ई राते का भओ के ई की लुगाई ई के घरै आये सें बाबा की सेवा खों देर सें पौंची सो ऊनें खूब सन-सन की मार दई। बा बोली कै जिन मारौ नठया आदमी तौ आये घरै पबर आओ तो सो मोखों देर हो गई। इतेक में ऊ राजा के कुँवर खों खांसी उठ आई सो उनन नें इक दूसरे खों चीन लओ औ भइया बा तो लइयां पइयां घरै आई और रिसा कें पर रई औ खाबौ पीबौ छोड़ दओ। राजन की तो बेटी आये उननें कई कें बेटा का बात है बताओ कौन नें का कई। जीनें आँख चलाई होय, आँख खिचवा दें, उंगरिया उठाई होय तो उंगरिया कटवा दें, जीभ चलाई होय तो चीभ खिचवादें, तुम नाव तौ बताओ ऐंच खाल भुस भरबा दें हत्ती की दांय करवा दें। इत्ती सुनतनईं बेटी उठ बैठी औ बोली के मड़िया के पीछूं के आदमी की आँखें कड़वा दो तबईं खेबे खेंहें। राजा नें जल्लादन खों हुकम देदओ, जल्लाद कुँवर खों पकर कें डांग में आँखें काड़न लगे सो कुँवर नें उनें कुछेक गुजियन में कीं मौरें दैकें कई कै मोई आंखे जिन काड़ौ, कौनऊं हिन्ना की काड़ कें बेटी खों दिखा दियो, जल्लादन नें मौरन के लोब में ऐसऊ करो। बेटी नें आँखें देखीं सो बा मन में भौतई भौत खुस भई। इतै कुँवर नें सोची के कगदा की बात सांचऊं साँची कड़ी हो कै नजर की तिरिया होत और गांठी कौ दाम बखत परै आवै काम। ऐसी धोकल कुँवर एक राज्य में पौंचों जितै एक दानौं उबरानो तौ जो रोज ऊसरीं ऊसरां एक आदमी खात तौ। उते के राजा नें के राखी ती के जो कोऊ इये मार दैहे ऊखों अपनी बेटी व्या कें आदौ राज दै देयें। ऊ गाँव में एक डुकरिया पीसत जात ती और रोउत जात ती कुँवर नें ओई सें जाकें पूंछी के काय बऊ काय रो रई। बऊ नें कई के बेटा काल मोये लरका की दाने लौ ऊसरी है सो कुँवर नें कई के बऊ जिन रोओ ऊकी बत्तल में जेंओं सो भइया को गौर करे बो तो दानों लौ चलो गओ औ ऊनें दानों के आउत नईं दानों के तीन टूंका कर दये। राजा खों जब जौ पतो चलो सो दरबार में भौतई खुसी भई और राजा नें कुँवर के संगे अपनी बेटी विया कें आदौ राज पाट दे दओ। कुँवर फौज फाटों लेकें अपनी पैले की ससुरारै पौंचो ऊकी उतै खूब खातिरदारी भई और बेटी खों देखौ तो काटौ तौ खून नईं रओ। कुँवर नें ऊकी बिदा कराई और डांगई में ऊकी हत्ती की दांय कराकें बैन लो पौंचो। जब बैन नें सुनी के भइया फौज फांटे सें आ रओ सो बैन टेर देत भेंट के लानें दौरी। कुँवर नें ओई बेरां घूरे के डबला खों काड़ कें ऊपर, मउवा और सूके कौरा ऊके आगें धर दये। बैन नीची घिची करकें रे गई। और कुँवर हालउं उतै सें अपने राज में पौंचो। बाप नें ऊकी खूब खातिरदारी करी और राजगद्दी पै बैठार दओ। हती कानियां सो हो गई।
उपदेशात्मक कथाएँ
भारत की ही क्या विश्व की लोक कथाओं में कोई न कोई उद्देश्य अवश्य निहित होता है। प्रकृति के किसी भी रूप की कथा मानव को उपदेश देती है। बुंदेली लोक कथाओं का प्राण उनकी उपदेशात्मक प्रवृत्ति है। माँ का त्याग,, भाई की कुर्बानी, नारी का सतीत्व, राजा का न्याय आदि आदर्श रूप, तीन लाख की तीन बातें, एकें साधें सबस धें, देर है अंधेर नइयां, बुद्द बड़ी कै पइसा, पसीने की कमाई आदि कथाओं में मिलता है।
तीन लाख की तीन बातें
ऐसें ऐसें एक नगर में एक राजा साब राज करत ते। उनकें एक भौतई नौंने कुँवर हते। कुँवर खों विद्या सीकवे कौ खूबई चाव हतो एक एक बात के लाने हजारन रूपइया खरचत रत ते। जब राजा खों ई बात कौ पतो चलो तौ राजा नें सोची के ऐसें तो कुँवर सबरऊ खजानों खुरत जिरत कर लुटायें देत सो उननें कुँवर खों देस निकारौ दे दओ। कुँवर ऊ बेरां गये ते सिकार खेलन। देस निकारे की बात रानी मताई नें जब सुनी सो कुँवर के कलेऊ के लानें उननें तीन लडुआ बनाये। उन लडुअन में ठूंस ठूंस कें हीरा, मोतीं और लाल भर दये और नौकरन सें कईं के जैसईं कुँवर डांग सें लौटें सो जैई लडुआ दैकें, राजा की आज्ञा खों कइओ। उननें कई हहो जू औ जैसई कुँवर लौटे सो उननें सब कै दई। कुँवर नें लौटाओ घोड़ा और सरपट उलटे पाँव लौट परौ। चलत चलत कुँवर एक राजा के राज में पौंचो सो उतै ऊनें करो कलेऊ। लडुआ फोरतनई ऊमें सें हीरा जबाअर कड़ आये। उनें लेंके कुँवर नगर घूमवे चल दओ। नगर में का भओ के एक दुकान पै अक्कल की तीन बातें तीन लाख कीं बिकरईं तीं, कुँवर नें ऐक लाख देकें एक बात खरीद लई के ‘‘हजार काम छोड़कें समय पै काम करियो चाय कछू हो जाये’’। दूसरे लाख में दूसरी बात खरीद लई कै ‘‘काऊ खों काऊ सें विभचार करतन देखो तो ऊपै उन्ना डार दइयो’’। और तीसरे लाख दैकें तीसरी बात खरीद लई कै ‘‘जो आदमी कान कौ कच्चो होय, ऊकी भूल कें कभऊँ नौकरी ना करियो’’।
कुँवर अक्कल की तीन बातें खरीद कें सरांय में चलो आओ कै उतै एक सेठ जी की दुकान हती ऊमें लाखन कौ व्योपार होत तौ। एक दिना का भओ कै एक व्यौपारी टीकाटीक दुपरिया में आओ औ सेठ सें बोलो कै हमाव हिसाब कर दो। ई बेरा सेठ के सबरे नौकर घरन चले गये ते। सेठ खों कुची औ हिसाब कौ नेकबू मालूम ना हतौ। सेठ खूबई परेसान भओ उतै कुँवर सब देख रओ तो ऊनें सेठ सें कई तुमाई कुची ऊ तकिया में धरी ओर हरी बई के बारये पन्ना में 3,14,905 रूपइया साड़े बारा आना इनको हिसाब होत। सेठजी नें देखो तो कुची मिल गई और हरी बई में सब हिसाब मिल गओ। भाग की बात सेठ नें खुस होकें कुँवर खों अपनों मुनीम बना लओ। कुँवर नें ऐसो नौंनो काम करो के सेठ को व्यौपार दिन दूनों रात चौगुनों बड़ गओ। पै भइया इतेक में का भओ कै सेठजी एक दिना गये ते काम सें बायरें कुँवर कछू काम सें उनके घरै गओ सो बो का देखत कै नौकर, जो सेठानी सें लगो हतो, सेठानी के संगे पलका पै नंगो परो हतो। कुँवर ने एक लाख की बात याद करकें उनके ऊपर अपनों पिछौरा डार दओ और उलटे पांवन लोट आये। काऊ सें कछू नईं कई। नौकर और सेठानी के तो प्रान सूक गये कै लो मुनीम नें तो सब देख लओ। उनन नें बचवे खों सलाह करी और नौकर हंसत खेलत घरै चलो गओ। जैसई सेठजी लौटे के सेठानी नें भारी फाये बनाये। खूबईं रोईं डीपीं कै मोई तो इज्जत लुट गई। तुमाव नव मुनीम मोये रन बन की कर गओ औ देखलो जल्दी में ऊकौ जो पिछौरा इते रै गओ। जौलो ऊंको कटो मूंड़ न देख लें हों तो लों मैं न अन्न खेंहों और न पानी पीहों। सेठजी नें कई कै जा कौन बड़ी बात आय। काल बड़े सकारें जो हो जैये। दूसरे दिना सेठजी नें एक बंद चिट्ठी जी पै सील मौर लगी ती ऊपरे सैर के कोतवाल को नाव पतौ लिखो तो, नये मुनीम खों बुलाकें दे दई और कई कै जा चिट्ठी खुदईं जाकें सैर कोतवाल खों दे आओ। मुनीम नें चिट्ठी ले कें खुटी में खोंस लई और दुपइया में चिट्ठी देवे खों चल दओ। इत्ते में होत का है कै गली में हो रई ती दूसरे सेठ के इतै सादी की ज्योंनार, उतै सब लोगन नें उनें घैर लओ और कई कै बिना भोजन करें नई जा सकत। जरूरी चिट्ठी है सो दूसरो दयें आउत। उतईं ठांड़ो तो वो नौकर जो सेठानी सें लगो तो ऊ नें अपनी झेंप मिटावे खों कई कै हुजूर जब मैं हों तो आपखों का परी, मैं दयें आउत अपुन की चिट्ठी। आप भोजन करो। कुँवर ने सोची जा सोऊ ठीक बात है हो, भोजन कौ समव सोऊ हो रओ। एक लाख की दूसरी बात खों सोऊ अजमांय चइयै। सो चिट्ठी ऊ नौकर खों देंकें खुदई ज्योनार करन लगे। जैसईं नौकर नें कोतवाल खों चिट्ठी दई कै ऊनें (पड़कें) जल्लादन खों बुलाओ उस नौकर को सिर कटवा कें गाड़ीवान खों गुआ दओ और कई के सेठजी खों दे दइयो। इते का भओ भइया सेठजी खों फांसी तक लगवाबे कौ हुकम हतौ सो उननें ऊ चिट्ठी में लिखो तो कै चिट्ठी लियावे बारे कौ मूंड़ काटकें गाड़ीवान सें पौंचवा दओ जाय। गाड़ीवान नें आकें मुनीम खों कटौ मूंड़ दे दओ। कुँवर नें सोची के दूसरी बात सोऊ साँची भई हो और जाकें वौ मूंड़ सेठजी खों दे दओ। सेठ जू सकतें में आगए कै की कौ तो मूंड़ कटनें तो औ कट कीको गओ। ऐई बेरां मुनीम नें सब कानियां सेठ खों सुना दई और कई कै तुम चिंता जिन करो सांचे पापी खों जऊ फल मिलैं चइयत तौ, सो मिल गओ। और ऊनें तीन लाख की तीनऊ बातें साँची पाईं। औ सेठ सें कई कै तुम कान के कच्चे हो तुमनें मोये लुगाई के कये में मरवा दओ आय। अब मैं चलो। औ कुँवर अपने देस खों चलो आओ। हती कानियां सो हो गई।
प्रस्तुत लोक कथा में प्रकृति प्रदत्त रति क्रिया की स्वाभाविकता की अनिवार्यता पर उपदेश दिया है कि किसी के व्यभिचार को देखकर उसको प्रकट न कर गुप्त रखना चाहिए। इससे समाज में अशांति नहीं फैलती है। दूसरी बात समय पर भोजन करने की है जिसका संबंध स्वास्थ्य से है। भोजन ही स्वास्थ्य की कुंजी है और स्वास्थ्य ही जीवन है अतः स्वस्थ रहने के लिये समय पर भोजन करना अनिवार्य है। कान के कच्चे मालिक के यहाँ नौकरी नहीं करनी चाहिए इससे नौकर सदा परेशान रहता है।
पशु पक्षियों की कथाएँ
प्रकृति मनुष्य के जीवन में रस घोलती है। वनस्पति उसको उद्बोधन देती है। पशु पक्षी उसके जीवन में प्रेरणा भरते हैं। मानव का जीवन इनके साहचर्य से गतिशील होता है। इनका सहयोग ही मानव जीवन की पूर्णता है। बुंदेली लोक कथा- वीर चिरवा की कथा इन्हीं भावों की महत्ता दर्शाती है।
वीर चिरवा की कथा
ऐसें ऐसें एक डांग में एक पेड़े पै एक चिरई चिरवा अपनों घेंसुआ बनाकें रत ते। एक दिना चिरई नें कईं कैं चलो आज अपुन भौत दूर नुक उड़िये। चिरवा बोलो के हवरे आज तौ खूबई दूर नुक उड़ चलवी। वे दोई जनें रोटी मोटी खाकें उड़न लगे। उड़त उड़त वे एक राजा के राज में आ पौंचे। तनकई दूर पै उनें राजा को मिहल दिखा रओ तौ। वे दोई के दोई एक कंगूरा पै जा बैठे, औ आपस में बतियान लगे। नैचें राजा को दरबार लगो तो। राजा के काम काज में इनन की चें चें से विघन परी। सो ऊनें नौकरन सें कई कै इनन खों उड़ा देव। उन नौकरन नें ककरा भईं से फेंके। सो वे तनक दूर पै जा बैठे औ फिर चें चें करन लगे। राजा खों खूबई गुस्सा आओ, ऊनें कई के इनन खों अबईं हालऊं पकर लेब। नौकरन नें जबईं ऊपर खों जार फेंको सो चिरई फंस गई और चिरवा उड़ गओ। चिरवा खौं मनईं मन में खूबईं दुख भओ सौ वौ अपनी लुगाई चिररो खों छुड़ावे के लानें तरकीब सोचन लगो। तला के ऐंगरें जाकें ऊनें कारी मांटी की एक बैलगाड़ी बनाकें सूकवे खों धर दई। सकारें भये जब बा सूक गई सो ऊनें तला के करके सें दो ठउआ मेंदरे पकरे औ अपनी गाड़ी में नें लये। अपनी गाड़ी लैकें वो राजन के मैलन तायें जा रओ तो के उये चिन्टी भौजाई मिलीं, बे बोली कै काय लाला कितांय जा रये। चिरवा बोले के राजा नें हमाई लुगाई पकर लई सो उये छुड़ाउन जा रये। चिन्टी बोली हमईये लुबांय चलो, मैंई तुमाय कछू कामें आ जेंओं। चिरवा अपनी गाड़ी में चिन्टी खों बैठाकें चल दओ। कै ऊखों गली में विलइया मौसीं मिलीं उननें पूछी कै कायरे तैं किते जा रओ। चिरवा नें कई कै राजा नें हमाई लुगाई पकर लई उये छुड़ाउन जा रये। तौ हमईये लुबांय चलौ ऊनें कई चलीं चलौ मौंसी, और गाड़ी में बैठार लओ। चलत चलत गली में मिलो एक बाबा (सांप) ऊनें जब सबरौ किस्सा सुनो तौ कन लगो कि मैं देखत ऊ राजा सासके खों। चलत चलत राजा के दुवायें चिरवा की गाड़ी पौंच गई ती। चिरवा इकदम भीतरईं पौंच गओ उतै राजा ओंदौ खाट पै डरो डरो ऐंड़या रओ तो। चिरवा बोलो कै काय रे मोई लुगाई देत के नई औ बो तो राजा खों गारीं देन लगो सो राजा नें ओई कां पकरा दओ और नौकरन सें कई के इये हातियन की सार में बेंड़ दो उतईं अपनी सूंड़न सें ईखां मांडारें। राजा की कई ऊ नौकरन नें पूरी कर दई। रात में जोन सार में चिरवा बिड़ो तो उतै चिन्टी भौजाई पौंच गईं। औ ऊनें हातियन की सूंड़ में पिंड़ पिंड़ कें सबरे हाथी मांडारे। भोरई जब राजा के आदमी सार में पौंचे, सौ उनन नें सबरे हातीं पटां डरे देखे। वे दौरत दौरत राजा लौं गये उन सबरी किस्सा सुना दई। राजा खों आ गओ ताव ऊनें ऊ चिरवा खों बगुलन की सार में पिड़वा दओ। रात कें बिलइया मौंसी ने ऊ सार में पौंच कें सबरे बगुलन खों अपने पंचन सें नौच डारो। भुंसारें नौकरन नें सबरौ हाल राजा खों फिर सुना दओ। राजा खों खूबईं गुस्सा चड़ी ऊनें कई कै आज रात कें इये हमांये पलका के मिचवा सें बांद दइयो, और उतई एक तरवार धर दइयो जीसें मैं सारे के दो हैंसा कर देंहों। रात कें जब चिरवा राजा की खाट के मिचवा सें बंदो तो सो बाबा नें आकें राजा खों काट लओ, औ भग गओ। रात कें जब रानी राजा लौं पौंची तो राजा के मौं पै फसूकरई फसूकर डरौ तो। मैहलन में हाहादइया मच गई। सो चिरवा ने कई के हमाई लुगाई खों, और हमें छोड़ दो, तौ राजा जी पै, नई तौ मर जै। रानी नें चिरवा चिरई खों छोड़ दओ। सो चिरवा नें तुरतईं बाबा खों टिरवाव और ऊसें कई के लो तुम अब, राजा कौ जिहिर खेंच लेब। जिते साँप नें काटो तो उतै अपनों थूथर लगाकें ऊनें राजा के आंग सें सबरू जिहिर खेंच लओ। राजा बच गओ और वे चिरई चिरवा अपने संगी साथियन खां लेकें अपने अपने घरै चले गये। हती कानियां सो हो गई।
प्रस्तुत लोक कथा में चिरवा की सूझ बूझ और संगठन शक्ति राजा को परास्त कर देती है। समाज का नियम है कि प्रत्येक ताकतवर व्यक्ति निर्बल को रौंदता है किंतु कभी कभी सबल को, निर्बल से मात खाना पड़ती है। इस कथा में चिरवा से राजा की पराजय होती है।
पशुओं की लोक कथाएँ
बुंदेलखंड में पशुओं की कथाओं के अंतर्गत लड़ई और लड़ेन की किस्सा, डूंड़ा बैल की कथा प्राप्त होती है। डूंड़ा बैल की कथा इस प्रकार है- ‘‘ऐसें ऐसें एक गाँव में एक किसान कैं चार ठौ बैलवा हते। उनमें तीन तौ साजे, मोटे ताजे हते, उनमें से एक हतौ डूंड़ा सो उये डूंड़ा बैल कबूं करे। डूंड़े हते भइया खाबै की खदान, और काम की जांगा हते निराट अड़ियल। डूंड़े जैंसे अड़ियल हते ऊसेई लड़ंका सोउ हते, काय कै कनवा, लूला, कूबरा, भेंड़ा भौत उतपाई होत, सो भइया उनकी एक दिना एक सांड़ से भिड़न्त हो गई। सांड़ ने उनकी सेकी सबई उतार कें धर दई, ऐसो पटका दओ के ओई दिना से डूंड़े डूंडे कुआउन लगे। काय के लराई में उनको सींग टूट गओ तो। डूंड़े के तांय सें किसान कबऊं सुकी नई भओ। एक दिना डूंड़े खों जौत कें ऊ डांगे गओ, बौ तौ लकइयां काटन लगो, पै डूंड़े नांय मांय मों मारत फिरत रये। पानूं की बूंदें गिरतन की तौ देर नई भई कै डूंड़े डौंड़यात मस्ती लेत रये, सो किसान नें कई कै कओ डूंड़े का हालचाल है। डूंड़े नें कई के- रूमक झुमक बूंदें परें, मलक मलक तुम जार भरैं। बैठे डूंड़े मनई मन हंसें, आज की रात पहारई बसें। जा सुनकें किसान ने आर की कटीली लबुदिया लई, और डूंड़े खों दिखाकें, उनें गाड़ी में नें दओ। गाड़ी चलत चलत आई गाँव के करके कैं डूंड़े मस्ती में आकें बैठ गये। किसान नें आर की लबुदिया उठाई, सो डूंड़े बोले- जो तुम करौ बुदरिया सेंट, हमें तुमें चमरौला भेंट। डूंड़े सें हैरान होके किसान नें उनें ढील दओ और सकायें भरें औरये बैल लेकें गाड़ी लेताओ। किसान नें डूंड़े खों घेर बाड़ौ बनाकें, बंद कर दओ। डूंड़े खों मरो जानकें सियार कन लगो, जबा न पिसी, विरवाई काय खों कसी। धान न पसाई, विरवाई कायखों लगाई। डूंड़े नें कई व्याव न पेखनों, ढूंक ढूंक का देखनों। लड़इया जियत जानकें भग गओ। डूंड़े एक दिना बाड़ौ टोर कें घरै भग आये, ऐई वेरा मालकिन मैंदा पीस रईं ती, सो वे बोले बियाओ न सगाई, मलक मलक मैंदा कौन नें पिसाई। सो मालकन नें कई कै डूंड़े खों बेचन जानें, सो कलेऊ खां आय पिस रई जा मैंदा। सो डूंड़े गिगयान लगे, उतेक में मालक सोऊ आ गओ। ऊनें कई तो ठीक है असाडू काम सदा देव, मोय काय खों बेचनें तोय डूंड़े। असाडू काम पै डूंड़े नें कछू दिना तौ भौतई काम करो, पै जीके जौन सुभय जांय ना जिउ सें, नींम न मीठे होंय चाय खाव गुर घिउ सें। वे फिर गिरन परन लगे तौ मालक नें कई के, चल मोरे डूंड़ा सोहीपार, मैं तोय देंओ घी मुई दार। सो डूंड़े नें अपने गौं की बातें सुनकें मन की भड़ास निकारई तौ डारी। तोरे घरै कर कसा नार, देवे भुसी बताबै दार। मोरे पार खलै ऊ चाँदी, जीनें खाई खरी और कांदी। चैरी बैठी कांदी खाय, और डूंड़े खरेदो, घूरें जाय। इत्ती सुनकें किसान के ऊपर के दाँत ऊपर औ नैचे के दाँत नैंचें रे गये। इतेक मै उतै सें कड़ो एक खरीददार, सौ किसान नें कछू सोच कें कई कै ओ भइया हंमाये डूंड़े खों खरीद लेओ। खरीददार तुरतई बोलो, के, कओ डूंड़े तुम कबके भये, सींगन पुराने दाँतन नये। डूंड़े तौ हते भौतई हुसियार, वे कन लगे, बंदरन नें जब बांदो पुल, तब हमनें पथरा ढोये कुल। राजा राम गढ़ लंका गये, लादे सलीता मोपै गये। दुसासन की टूटी बांय, तब मैं हतौ बछेरन मांय। बरस पचासक लादे जीरे, तब सें डूंड़े पर गये वीरे। बरस पचासक लादी हींग, कुस्ती लड़तन टूटौ सींग। इतेकई नईं, जो मों पै नौंन लादौ तौ पानूं में बैठ जेंओ। जो कऊं सक्कर लादी तौ रेता में पटक देंओ। खरीददार अपनों सौ मौं लेकें चलो गओ। किसान की सोउ आँखें खुल गई। ई दिना सें डूंड़े खों आराम सें चरवे खों मिलन लगो। हती कानियां सो हो गई।
किसानों की प्रवृत्ति है कि दूध देने वाली गाय तथा कमाने वाले बैल को उचित खुराक देते हैं। गाय के दूध खतम होने तथा बैल के बुड्ढे होने पर उन्हें उचित खुराक नहीं दी जाती जिससे पशु शक्तिहीन हो जाते हैं। डूंड़े की लोक कथा में पशुओं की यथार्थ स्थिति का चित्रण मिलता है।
थलचर एवं जलचरों की कथा
बुंदेलखंड में पक्षियों एवं पशुओं के अतिरिक्त थल और जल के प्राणियों की भी कथाएँ प्राप्त होती हें। लड़ई दाऊ औ मगर की कथा इन्हीं के अंतर्गत आती है। ‘‘एक लड़ई दाऊ औ ऊ की लड़ेन कोनउ नदिया के ई पार रात हते। ऊ साल भाग संजोग सें का भओ। कै ऊपार तौ खूब पानी बरसो, पै ईपार एकउ बूंद नें गिरी। ईपार सूका पर गओ। कौनऊ फसल नें आई। लड़ई औ लड़ैन भूंकन मरन लगे। ऊपार पानी वरस जावे के कारन खूब ककरीं, भुन्टा, डंगरा, कचरियां फरीं। लड़ई और लडै़न सोचन लगे कौनऊ तरा ऊपार पौंचो चाइये, पै पौंचे मांय कैसें। बीच में नदिया अथाह भरी हती। लड़ैन कान लगी, एक काम करौ। नदियां किनारें चलो उतै कछू उपाय भिडै़बू। लड़ई और लड़ैन दोई नदिया किनारें जा पौंचे। ओई बिरिया एक मगरा ढीं पै परो घमौरी ले रओतो। ऊखां देखकें लड़ई कान लगो- ऐसी कछू जुगत भिड़ाव कै अपन दोई जनैं मगरा की पींठ पै बैठकें ऊपार पौंच जांय। लड़ेन बोली- ठीक कई। ठैरो अब हम जुगत लगाउत हैं। लड़ैन नदिया की ढीं की तांय पौंचकें बोली- का जेठजू आंय घमौरी ले रये? मगरा मों उठाकें देखन लगो। बोलो- अरी का मौसें आय कात हो? लड़ैन बोली- हां जैठजू तुमईं सें तो आय कात हों। मगरा बोलो का कात है। लड़ैन बोली- का बतायें दाउजू, ईपार तौ ईसाल पानी नईं बरसौ। अकाल पर गओ इतै खाबे पीबे खों कछू सेजो नइयां। हम दोई प्रानी भूंकन मरे जात। ऊपार खूब ककरीं, भुन्टा फरे हैं। सौ इतनी बिनती करत हों कै हम दोई जनन खों अपनी पीठ पै बैठार कें ऊपार उतार देव, तुमाव बड़ो जस मान हों। मगरा नें जुआब दओ- तुमें ऊपारै तौ उतारें देत, पै जा तो बताव, तुम हमाये लानें ऊपार सें का लियाहो। लडै़न बोली दाउजू, तुमाये लानें मैं एक भौतउ नौनी बहुटिया लियान देंहों। मगरा बोलो- साँची कात है। लड़ैन कान लगी- औ का झूटी कात हों। तुमाय लानें ऐसी बहुटिया लियान दऊं जीकौ नाच। मगरा नें लड़ई लड़ैन खों पीठ पै बिठार कें ऊपार उतार दओ। ऊपार पौंचकें लड़ई के दिन आनंद में कटन लगे। खूब ककरीं, भुन्टा खा खा कें मुटा गये। दो तीन मइना में उतै की फसल उजर गई। अब लड़ई लड़ैन खों अपने घर की खबर भई। सोची अब घर खों चलो चाइये। लड़ैन बोली- घरखों चलबो तो ठीक, पै उन दाउजू की कछू खबर है? उनके लानें बहू कांसें लियाबूं। उतार हैं तो बेई नें? लड़ई बोले- ईकी कछू चिंता नें करो उतै चलकें कछू बात बना लेंहें।
लड़ई-लड़ैन दोई चले। चलत चलत देखत का हैं के एक खेत की मेड़ पै एक लुगाई कांदी खोद रई ती। ऊकौ मोड़ा कछू दूर डलिया में परौ हतौ। मौंड़ा के घाम से बचाव के लानें ऊनें डलिया के ऊपर अपनों नुगरौ डार दओ हतौ। देखकें लड़ई नें कई- बात बन गई। जौ नुगरो गांठ लओ चइये। लड़ई मसकऊं लुकौ लुकौ आव औ डलिया के लिंगा पौंचकें मोंमें नुगरे खों खूब दबाकें भग दओ। नुगरो लैकें दोई जनें नदिया की ढीं पै आ गये। कछू दूर पै जरिया को एक पेड़ो हतो। ऊखों नुगरो उड़ा दओ फिर मगरा की चुल के लिंगा ढीं पै आकें लड़ैन नें आकें आवाज लगाई ‘‘इतै जैठ जू हैं का’’। मगरा नें सुनी अनसुनी कर दई। लड़ैन नें फिर बात दुहराई- इतै जेठजू हैं का? मगरा अपनी चुल में बैठो हतो। आवाज सुनकें बायरें कड़ आओ और कान लगो- हां बउ हों तो। तुम आ गईं? लड़ैन बोली- हाँ आगये। अब हमें ऊपार उतार देव। मगरा बोलो- हमाये लानें बहू लियाई के नईं? लड़ैन नें झट ऊ जरिया की तांय इसारौ कर दओ- बा बैठी है। मगरा बोलो- पैलऊं मैं बउ खों लुबा लियांब फिर तुमें उतार देहों। लडै़न ने कई- नईं जेठजू ऐसौ जिन करो। बा हमाई बैनोतिया आय, हमाये सामूं आवै में सरमाहै। पैलऊं हमें ऊपार उतार देव फिर तुमई ऊखों लुबा लियाइओ। बातौ अब आइगई। मगरा नें लड़ई लडै़न खों ऊपार उतार दओ। मगरा उनखों उतार कें ईपार आओ और तुरतई ऊ जरिया के लिंगा पौंच कें टेरन लगो- वहू औ बहू। दो चार वेर टेरो कछू ऊतर नई मिलौ। गुस्सा में आकें ऊनें नुगरौ तान दओ। देखत का है कै उतै बहू अहू कछू नइयां। एक जरिया कौ पेड़ौ हैं। मगरा मन में कान लगो- सारे लड़ैया नें बड़ौ धोको दओ। ईको बदलो नें लओ तो मोरो नाव मगरा नईं। ऊ दिना सें मगरा ऊकी ताक में रान लगो। एक दिनां संजा समय लड़इया नदिया में ठांड़ों कैंकरे खा रओतो। मगरा नें मसकई आकें ऊकी टांग पकर लई। लड़इया घबरानों, अब का करो चइये। ऊके पाँव के लिंगाई एक पेड़े की जर पानी में लटकत हती। लड़ई बोलो दाऊजू तुम तौ जर पकरें हौ, हमाई टांग तौ जा है। मगरा नें ऊकी टांग छोड़कें उतै जर पकर लई। लड़ई कूंद कें बायरें निकर आओ। मगरा ठगौ सो रैगओ। अब लड़ई लड़न नें डर के मारें वो घाट छोड़ दओ। दूसरे ठिकाने जान लगे। मगरा तो ताकमेंई हतो। ऊनें नऔ ठिकानों खोज लओ, और बो उतै जाकें एक पोल में घुसकें बैठ गओ। लड़ई ऊदिना सें भौत छरक गओ हतो, सो फूंक फूंक कें पाँव धरत तो। लड़ई नदिया की ढीं पै जाकें ठांड़ों भऔ और पतौ लगाउन लगो के इतै मगर दाउजू तौ नई लुके आंय। लड़ई भौतई चालाक होत, कान लगो केंकरे केंकरे हमें बुलाव, पानूं में बुलबुला उठाव। मगरा नें समझी के लड़ई के कये पै केंकरे पानी में बुलबुला उठाउत हुइहैं सो बो बुलबुला उठाउन लगो। लड़ई जान गओ मगर दाऊ हमाई घात में लुके बैठे हैं सो लड़इया जी लेंके भग गओ। मगर दाऊ हांत मींड़त रे गये। अब लड़ई नें नदिया पै जावो छोड़ दओ। एक बगिया में जाकें वेर खान लगो। दो बेर धोको खाकें मगरा सोई भौत झल्ला गओ हतो। बो पतौ लगाउत लगाउत बगिया में आओ औ ऊनें भौत से बेर समेट कें एक ढेर बनाओ औ ऊ ढेर में लुक रओ। लड़इया आव औ बैरन को ढेर देखकें कान लगो कै आज इतने मुलक बेर इकटठे काय धरे। कछू दार में कारौ जरूर है? संका मिटावे के लानें वो बोलो- हटौ उते लुड़को लुड़काओ, प्यारे बेर हमें बुलाओ। मगरा नें समझी, लड़ई के कैवे पे बेर इते उतै लुड़कन लगत हुंइहैं। ऊनें तनक अपनी पींठ हला दई। बैर इतै उतै लुड़क परे। लड़ई हँस कें कान लगे- काय मगर दाऊ, नें परी चैन? इतै सोउ आ गये। इतनी कैकें भग गओ। मगरा खों कां चैन हतो, एक दिना वो लड़ई को पतौ लगाउत लगाउत ऊकी चुल में जा पौंचो। कछू देर पीछूं लड़ई लड़ैन आये, उननें मगरा की सरकन कौ चीनों देखकें समझ लई कै आज मगर दाउजू घरईं आन विराजे। धोको मिटावे के लानें दुआर पै ठांड़ों होकें ऊनें कई- माद माद तुम हमें बुलाओ- मगरा समझौ के लड़ई की मांद ऊके आये पै ऊखां बुलाउत हुइये। सो बो भीतर सें बोलो- आव आव भीतरें आव, खूब मजे में तुम सो जाओ। लड़ई जान गओ कै भीतर मगर दाऊ विराजे हैं। ऊनें कउअन खों बुलाकें कई- औ भइया हो, आज हमाये इतै मामाजू पधारे हैं। उनके लानें खिचरी रांदनें है, सो तुम लकरिया बीन लियाव। पांहुनो को स्वागत तो करोई चाइये। लड़ई को हुकुम पाकें झुंड के झुंड कउआ गये औ अपनी अपनी चौंच में दबाकें भौत सी लकइयां बीन ल्याये। लड़ई ने चुल के दुआरे पै, उनकौ ढेर लगा दओ। एक कउआ चोंच में दबाकें बरत लकरिया ल्याओ। ढेरी में आगी लगा दई। धुंआ उर आंच सें मगर दाउजू की दम घुट गई। मगरा मर गओ। हती किसा सो हो गई।
प्रस्तुत कहानी में सियार की चतुराई बतलाई गई है। साथ ही बतलाया गया है कि मगर स्त्री के आकर्षण के कारण, विवेक खोकर स्वयं अपनी मौत को बुलाता है। इन दोनों प्रतीकों के द्वारा मानव को शिक्षा प्रदान की गई है।
बल विक्रम की कथाएँ
बुंदेलखंड में बल विक्रम की कथाओं में उत्साह, साहस एवं वीरता का वर्णन मिलता है। इन कथाओं में विक्रमाजी, सोने की चिरैया, राजकुमार एवं राजकुमारियों की कथाएँ तथा लखटकिया की कथा मिलती है।
लखटकिया की कथा
ऐसें ऐसें एक नगर में राजा वीर विक्रमाजीत राज करतते। उनके राज में सबखों सबई काऊ के सुख हते, वे अपनी प्रजा खों लरका विटियन की घांई पालतते। एक दिना उनके दरबार में एक आदमी आओ औ ऊनें कई, कै हमें कौनऊं नौकरी दे दई जावे। राजा नें कई के तुम का काम करहो। सो ऊनें कई, कै जो कोऊ काम न करै, सो वो में करहों, औ जो न कर पाओं तो मोरौ मूंड़ काट लओ जावै। राजा नें कई कै नौकरी का लैहो। सो ऊनें कई कै एक लाख टका रोजके दरबार में लैं। दरवारियन नें कई कै जो तो आदमी ठीक है हो, इये तौ नौकरी दयें चइये। ऐसी उनन नें राजा सें कै दई सो राजा नें उये नौकरी पै राख लओ। होत करत भौत दिना गुजर गये, कै इतेक में ऊ नगर में उबरानों एक दानों, जीके खावे के लाने रोजई रोजा औसरीं ओसरा सें एक आदमी जान लगो। एक दिना होत करत राजई की औसरी आ गई। सो राज परवार में रूआंयदे पर गये। राजा नें कई के जैसई प्रजा तैसई राजा, आज तौ ओसरी में मैई जेंहों। दरवारियन नें गुन्त लगाकें सोची, कै हो वो लखटकिया कायखों है जो राजा को खाखाकें मोटो होरओ, ओइये कायनां दाने लौ पौंचाओ जावे। सो राजा बच जैयें औ हो, ओ ओइये काय ना खुआ दओ जाय सो राजा बच जैंयें औ जौ पतो चल जेये के जो कोऊ नई कर पा रओ ऊकाम खों ऊ कर पाउत कै नईं कर पाउत। सबनें कई कै जा ठीक बात कई हो और उनन नें राजा सें कई कै महाराज लखटकिया खों पौंचा दो। राजा नें लखटकिया खों बुलाकें कै दई। लखटकिया नें हओ कैकें कईं कै दिन डूबें चलो जैओं महाराज। भइया रात कें दिन डूबतनईं लखटकिया दानौ नौं गओ औ एकई तीर कमठा में ऊकी छाती में छैद कर दओ। जैसेईं दानों अदमरो भओ सो तलवार से काट कें ऊके दो टूंका कर दये। बड़े भुंसारें जा बात नगर भर में फैल गई। राजा भौतई खुस भये और लखटकिया खों बुलाकें उये खूब इनाम दई। ई दिना सें राजा नें उये अपनों खास आदमी बनाकें अपने पलका लौ ड्यूटी लगा ई। लखटकिया खों पलका की ड्यूटी करत करत भौत दिना हो गये। एक दिना बो का सुनत कै पलका कीं, पुतरियां कै रईं कै काय बैन सोउत कै जगत, काल अपने राजा कौ काल है, भोरईं राजा खों मर जानें। दूसरी पुतरिया बोली, काय बैन ईको उपाय नइयां कछू। बा बोली है तो बैन, कजन्त कोउ सुनत होय तौ वो गाँव की देवियन लौ अपनों मूंड़ चड़ा देवै तो राजा बच जेये। लखटकिया चिमानों परो परो जो सब किस्सा सुन रओ तो, उर राजा सोउ चिमानों सुन रओ तो। मालिक के बचावे के काजें लखटकिया तरवार लेकें मातन के मंदर में जा पौंचो और ऊनें कई कै देवी कजन्त की दार तैं सत्य की साँची होय तो ले मैं तोय अपने मूंड़ चड़ायें देत, पै मोओ मालिक बच जाय। औ भइया ऊनें तो तरवार काड़कें अपनों मूंड़ मातन खों चड़ा दओ। इतै राजा दुको दुको सब देख रओ तो काय कै वो ऊके पिछाउअईं चलो आओ तो दुको दुको। राजा नें कई कै धन्य हे रे लखटकिया तोखा, तेनें ऊ कर दिखाओ, जो कोऊ नई कर सकत। मोये लानें तेनें अपनो जीव दे दओ सो अब मोये चइये कै अब में तोय संगे चलों। लै मैं सोई आ रओ तौ लौं। इत्ती सोच कें राजा भुवानी के सांमूं अपनो मूँड़ चड़ावे के लानें तरवार खेंच कें घालनईं चाव कै भुवानी नें हांत पकर लओ। और भुवानी नें कई कै अब नई चावनें मोये काउ को बल, एक चाउनें तो सो मिल गओ। पै राजा नें एक नईं मानीं, कई कै जा बो हीरा सो नौकर मोये लाने मर गओ, सो मैं तो उतई जैयों मरकें। भुवानी नें कई कै राजा मैं तोसें भौतई खुस भई। मांगले का बरदान मांगने। राजा नें कई भुवानी तें तो लखटकिया खों जिबा दे। भुवानी नें रूण्ड मुण्ड मिलाकें ऊमें छिंगरी चीर कें डार दई। लखटकिया कुनमुनयाकें ठांड़ों हो गओ और कन लगो कै भौत ऊंग लगी ती हो। राजा नें कई कै हओ हो भौत उसनींदों हतो तें। लखटकिया राजा खों देखकें रे गओ। राजा नें उसे छाती सें लगा लओ और कई- कै आज सें तुम नौकर नई रये, बेटन हो गये। और राजा नें घरे आकें लखटकिया सें अपनी बेटी जू को बिआव कर उये आदौ राज दे दओ।
प्रस्तुत लोक कथा बुंदेली युवकों को त्याग, कुर्बानी एवं स्वामी भक्ति की अनुपम शिक्षा प्रदान करती है। प्रत्येक व्यक्ति शक्ति से ही उन्नति कर सकता है। लखटकिया अपने गुणों से ही राजा का पद प्राप्त कर लेता है।
परियों की कथा
बुंदेलखंड में नाना नानी या अजा आजी या बब्बा बऊ छोटे छोटे बालकों को सुंदर परियों की कथा सुनाते हैं जो छोटे छोटे बच्चों के मन को भाने बालीं होती हें। ये सुंदर परियां बच्चों को मीठे फल देती हैं, नाचती, गाती, परोपकार करती हैं। युवकों को मोहित करने के लिए रूप राशि लेकर ये परियां प्रकट होती है। ये रूपवती आदर्श नायिका बनकर बुंदेली लोक कथाओं में आती हैं। ये श्रृंगार रस की दृष्टि कर कथाओं को रोचक बनाती हैं।
बीरन पटवा की बेटी की कथाः
ऐसें ऐसें एक गाँव में एक राजा राज करत तो। ऊकें एक सियानों कुँवर हतो, एक दिना राजा नें उये बुलाकें कई के तैं तीनऊ दिसा में सिकार खों जइये पै दच्छिन खों भूल कें न जइये। कुँवर नें राजा सें हओ तो कै दई पै अकेले में सोचत रओ के देखन तो देओ दच्छिन में का है जांके लाने दद्दा नें रोक दओ। सो भइया एक दिना कुँवर उतई खों चल दओ औ चलत चलत ऊ ऐसे नगर में पौंचो, जितै वीरन पटवा को राज हतौ। ऊ राज के तला पै एक धोबी रओतो उन्ना। वे उन्ना ऐसे नौने और कीमतदार हते जैसे ऊ कुँवर नें कभऊं देखेई नईं हते। कुँवर उन्नन खों देखतई रे गओ, और सोचन लगो कै ईके पैरवे वाई तो जाने कैसी नौनी न हुइये। सो ऊनें धोबी सें पूछई लई कै काय धोबी कक्का, जे कीके उन्ना आय धो रओ तें। ऊनें कई कै बेटा जे उन्ना वीरन पटवा की बिन्नू के आयँ। जा सुनकें कुँवर धरै खटपाटी लेकें पर रओ, और राजा सें कई कै तबईं भोजन करहों जब वीरन पटवा की मोड़ी के संग मौओ विआव हो जेये। राजानें ओई वेरां वीरन पटवा कों बुलाकें कुँवर की बात सुना दई। वीरन नें कई कै में मौड़ी सें पूंछ कें हऔ करौं। और घरै आकें ऊने मौंड़ी सें राजा की बात के दई। बेटी ने कई, विआव तौ में ऐन कर लेओं पै एक शर्त है के दिन कें तो में कुँवर लौ रेओं पै रातखों इन्द्र के दरबार में नचवे खों जूबू करों। काय कै बा बेटी हती इंद्र की परी। कुँवर नें शर्त मानकें अपनों बिआव करालओ। एक दिना कुँवर नें सोची देखन तो देओ जा रात कें कितै जात। सो जैंसई वा बेटी उड़नखटौला में बैठ कें आकासा खों उड़न लगी, कै कुँवर खटोला कौ पाँव पकर कें झूल गओ। उड़त उड़त खटोलना इन्द्र के दरबार में पौंचो उतै परी तौ नचत रई कुँवर बाजे वारन में बैठो रओ। जब नचवो खतम हो गओ तौ खटोलना नैचे खों उड़याव। कुँवर सोऊ ऊके संगे नैचे आगओ। कुँवर की जा करतूत देखकें बेटी नें कई कै तुमनें संगे जाकें मोये पाप में पार दओ। कुँवर बोलो कै में सब देख आओ अब ना जान देओं तोखों। ऊनें कई ऐसो होई नई सकत, पानी में रैकें मगरा सें बैर पुसात कऊं। कजन्त की दार तुमनें मोये नचवे ना जान दओ तो मोय उर तोय इन्द्र मिटा देये। अब एक तरकीब है। अबकी बेर जब मैं नचवे जैओं सो तुम उतै खूबई नौनों तबला बजाइयौ। ईसें इन्द्र प्रसन्न हो जेये सो तिरवाचा हराकें इनाम में मोये माँग लइयो। दूसरे दिना कुँवर नें ऐसऊ करौ औ बेटी खों इनाम में लेंके अपने घरै राज करन लगे। इत्ते में इतै का भओ कै दूसरे राज के राजा नें भौतई पइसा टका खरच कें नौनो मंदर बनवाओ पै ऊँचे कलस नई चड़ पाउततो। सो जानकारन नें कई कै राजा तें वीरन पटवा की मोंड़ी की मूरत बनवाकें कलस चढ़ाये तौ चड़ जेये। राजा नें तुरतई डौंड़ी पिटवा दई कै जो पटवा की बेटी की मूरत बनाये उये दस हजार असरफीं देओं। सो भइया एक चितेरो सादू बनकें वीरन की बेटी को चित्र बनावे के लानें राजा रानी लों पौंचो उर कन लगो कै हम तुमाये सुरग गये बाप के गुरू आयें हमें रानी जू भोजन करावें तो करें नातर नां करें। सो बेटी नें भोजन परस कें करा दये। इत्तै में ऊनें चित्र बनालओ औ जाकें चल दओ कै रानी नै नौने मन सें नईं परसो सो हम भूंके उठ चले। राजा खों भौतई बुरओ लगो सो ऊ रानी खों गुस्सा में छोड़कें दरबार में चलो गऔ। उतांय राजा के इतै चित्र कों देख देख मूरत बनन लगी इतांय रानी पथरा की होन लगी। रानी नें ईबींचाँ राजा खों सब सुनावे दुआरां त्यारां बुलाओ पै राजा नई आओ सो ऊनें मंत्री से कै दई कै जब में पथरा की हो जांओ सो मोय कुठिया में बंद करकें धर दियो, औ ऊमें एक घंटी धर दियो। जब जा घंटी बजन लगै सो मोय ईमें सें काड़ लियो। चित्र के पूरे बन्तनईं रानी पथरा की हो गई। इतै राजा खों खबर आई सो राजा पागलन घांई चिल्लान लगो कै काल हती तौ बा हतै, आज चली गई कितै। मंत्री नें सब कानियां सुनाई कै मनाई मनाई खीर ना खाई, जूठी पातर चांटन आई। अब का धरो राजा हाट हटा की लुट गई, अबतौ भटा बिकांय। राजा अपने पै पसतात रै गओ कै इतेक में भइया पटवा की बेटी ने कुँवर खों सपनों दओ कै कजन्त की दार तुम मोये चाउत होब तो, अमाउस खों ई राजा के बाग में आजाव। में ऐई मूरत में तुमें मिल जेओं। राजा उतै गओ पै काउनें के दई कै आज कौन अमाउस हे सौ लौट आओ। सो बेटी नई मिल पाई। पै बेटी मालिन खों असरफी दे कें कै गई के राजा आय तो जा कै दिओ कै पटवा की बेटी दोज खों फिरकूं आय सो इतई मिल लियो। दूसरे दिना वा मिठाई की थारी, गंगाजल की झारी लैकें आगई। दोई जनें मिले भोग वियाई भई और रातभर पांसासार खेलत रये। भुंसारो भव सो परी मूरत में समां गई। ऐसईं रत-रत भौत दिना गुजर गये। एक दिना राजा की बेटी बगीचा घूमबे आई राजा खों देखकें वा मोहित हो गई और ऊनें घरै जाकें राजा सें अपने विआव की बात कै दई। राजानें तुरतईं बाग सें कुँवर खों बुलवाओ औ सादी की चर्चा करी। ऊनें कई कै मैं काल बता देओं के मोय कबै करने सादी। रातकां ऊनें परी सें पूंछी कै काय विआव करनें कै नई करनें। ऊनें कई विआव खूब करलो पै जा शर्त ठेरा लियो के दिन भर तौ हम तोरी बेटी लों रेयें पै रात कें सो तो नई रै सकत। ऐसई जाकें ऊनें राजा सें कै दई। राजा नें शर्त मंजूर करकें बेटी को विआव कुँवर सें कर दओ। एक दिना राजा की बेटी नें सोची कै देखन तो दे जे रात कैं कितै कीनौं जात। सो बा पिछाउं दुकी दुकी चली आई। बा बगीचा में देखत का है कै राजा एक परी सें पासासारे खेल रओ, सो ऊखों तरवन हो आग लग गई। ऐई बेरां वा परी मूरत में समां गई। बा तौ उलटे पाँव घरे आकें कठवा की पाटी लेकें पर रई और राजा सें बोली कै जबै अन्न पानूं खेंहों पियों जवे वीरन पटवा की बेटी की मूरत चकिया में पिसवाकें फिकवा न दैहो। राजन के तो हुकम आंय मूरत चकिया में पिसन लगी उतै कुठरिया में बंद पथरा में जान आउन लगी। उतै मूरत फिकी कै इतै बेटी जिंदा हो गई। ऊनें कुँवर खों सपनों दओ कै तुम बिदा कराकें तुरतईं चले आव, में तो इतै आ गई। कुँवर विदा कराकें घरै पौंचो कै घंटी बज उठी। जैसेईं कुठरिया खोली सो उते सें वीरन पटवा की बेटी कड़ आई। नई रानी है उये देखकें करम ठोक लओ। आखिर में तीनउं में मेल मिलाप हो गओ।
बुंदेली लोक कथा की परी वह आदर्श नायिका है जिसमें भारतीय आदर्श ललना के सभी गुण मौजूद हैं। वह सत्यवान साध्वी है। सौन्दर्यमयी है। नृत्यांगना और कलाविद् है। पति ही उसका सर्वस्व है।
काम या रति परक कथाएँ
प्रकृति एवं सृष्टि की सृजन शक्ति कामवृत्ति है। निराकार रूप में यह सब में व्याप्त है। गडू सेट की बहू, औरत की जात आदि बुंदेली लोक कथाओं के नायक और नायिका रति की आसक्ति के कारण मौत का शिकार होते हैं। देखिये-
औरत जात की कथा
ऐसें ऐसें एक राजा हते, उनकें एक रानी और कुँवर हतौ। राजा कौ इकलौता कुँवर सियानों होतनईं, प्रजा पै भाई अत्याचार करन लगो। कऊं इकौ टोनुआ करै कऊं ऊकौ टोनुआ करै। राजा नें सोच कें ऊके लानें भौतई नौनी दुलइया ल्यादई। पै कुँवर को ऊदम कम न भओ। भुंसाये सें कड़ कैं पनहारियन की गगरीं फोरन लगो। राजापिरजा की फिरातें सुन सुन कें हैरान हो गओ सो ऊनें ऊखां देस निकारो दे दऔ कै कुँवर हमाई हद सें बांयरें हो जावै नइतर हम फांसी पै चड़वा देयें। जौ सुनकें कुँवर परदेस की त्यारी करन लगो। रानी सोई सजन लगीं। कुँवर नें उनखों भौत समजाओ के जिन चलौ पै वे ना मानी, सो ऊखों लिवाकें वो चल दओ। चलत चलत वे डांग में पौंचे के बारा कोस लौ इतांय डांग, औ बारा कोस लौ उतांय डांग न चिरई चौंचे न मोर बांके कै बीच डांग में एक बरिया को पेड़ो और तला हतौ उतई वे दोई सो गये। कै सोउतन में एक साँप आओ सो रानीं खों काट गओ रानी के मरतैनई राजा रोउन लगो। इतेक में संकरजू और गौरा पारवती जू नादिया पै बैठे उतै आ गये उननें राजा सें कई कै मरी खों कायखों रो रओ, सबई खों कभउं मरने। राजानें एक ना मानी, बोलो में तो संगेई मरत। भोले बाबा नें कई के सुन रे मूरख तोई उमर है सत्तर बरस की ईकी हती तीस बरस की सो जा मर गई। तोई तीस बरसें पूरी हो गईं, कजन्त में चालीस बरस में सें 20 ईखों संकल्प करदे तौ जा जी उठै। अकेले ईसें जो सब कइये ना, जब आफत आय तब कइये। राजा मान गओ और ऊनें चुरू में पानी लेकें संकल्प कर दओ सो भइया रानी जी गई और राजा के संगे चल दई। चलत चलत राजा रानी खों साधू की एक तकिया मिली। सादे फूल सौ खिलौ तो वो फूलन के उन्ना पैरें तो औ फूलनी सेज पै बेठो तो। रानी ऊखों देख कं ऊपै मोहित हो गई। इतैक में राजा कुआँ पै पानी खेंचवे खो गओ। वो न्योरोउ है कै रानी नें पछारूँ सें धक्का मार दओ सो राजा कुआँ में गिर परो। रानी उये पटक कें बाबा के संगे अंत भग गई। दूसरे राज में पौंचकें सादू गाउन लगो औ बा नचन लगी, सो दोउअन के दिन चैन सें कटन लगे। इतैक में इतै कड़ौ एक बन्जारौ ऊनें कुआँ के डरे राजा खों बायरें काड़ दओ। राजा चलत चलत ओई सहर में एक सेट को मुनीम हो गओ जिते बाबा औ रानी गाउत नचत ते। एक दिना का भओ कै ई गाँव के राजा के इतै भौतउ नौनो नाच भओ, उतै मुनीम सोउ पौंचो। रानी नें ऊखों पैचान लओ। राजा नें खुस होकें नचवे बाई सें कई कैं माँग ले जो तोय मांगनें होय। ऊनें कई कै सेठ के मुनीम खों फांसी दे दई जाय। राजा नें जल्लादन सें उये पकरवा लओ। ऊनें राजा सें फिराद करी के महाराज जी लुगाई पै होन मोय फांसी दई जा रई अरे बा मोई लुगाई आय, ऊनो मोव कछू करज है। लुगाई बोली जौ भौत झूटा है मो लौ कछू नइयाँ। सो राजा नें कई के तैं हांत में पानूं लेकें कै दे, के जो ईनें हमें दओ होय हम जाको तां फेर रये। रानी खों कछू कूत ना हतौ ऊनें ऊँसी अई के दई। कतन की तौ देर भई पै रानी के मरवै की देर ना भई। मुनीम नें पूरी कानिया राजा खों सुना दई। राजा नें अपनी सोवरा बरन की बिटिया सें ऊको बिआव कर दओ, औ उये आदौ राज दान में दे दओ। वे राजा भये वे रानी।
प्रस्तुत बुंदेली लोक कथा में नारी रति आसक्ति के कारण अपना सुखद जीवन नष्ट कर देती है क्योंकि रति का प्रभाव विचित्र होता है।
दानव या डायन की कथा
अन्धकार से प्रकाश का, दुख से सुख का और असत्य से सत्य का महत्व बढ़ता है। लोक कथाओं में आदर्श पात्रों की महत्ता खल पात्रों से ही आँकी जाती है। दानव या डायन ऐसे ही पात्र एवं पात्रियाँ हैं जो खलनायक या नायिकाएँ बनकर कथाओं का ताना बाना बुनतीं हैं। और अंत में स्वयं विनष्ट होकर सत्य की विजय का कारण बन जातीं हैं। ढाई मानुस, दानव की बेटी, बनखंडी रानी ऐसी ही कथाएँ हैं।
बनखंडी रानी की कथा
ऐसें ऐसें एक नगर में राजा राज करत तौ, ऊकें चार कुँवर हते। ऊनें उनें समझा दओतो के दक्खन दिसा में सिकार खों ना जइयो। एक दिना सबरे कुँवर ओई दिसा में सिकार खेलवे गये उतै उननें डिन्डूवे की वेरां एक खाली मैहल देखो ऊके दुआये पै एक उंटनी बंदीती ऊनें एक कुँवर खों रात कें मसकऊं खा लओ, कायके बा तौ हती डायन। जब तीन कुँवर खुव गये तो चौथो अपने पिरान लेकें भगो, बा उँटनी नौनी लुगाई बनकें ऊके पिछांई भगी, बो एक घरमें जा कैं दुक गओ कै मोय बचा लियो जा डायन आ आरई। सो बौ कुँवर बच गओ। डांग में आकैं बा उटनी लुगाई के वेस में रोउन डीपन लगी इतैक में उतै सें कड़ो एक राजा, वो ऊके सुंदर रूप खों देखकें ऊपै आसिक हो गओ। वो उये अपने राज में लै गओ औ उये बनखंड़ी रानी के नामसें राजरानी बनादओ। बनखंड़ी तौ हती डायन, ऊनें गइयन के लवेरूआ, घुरवन के बछेरा और हाती ऊंटन के लवेरूअन खों खा डारो। जब जै नई बचे सो नगर के हल्के हल्के मोड़ा हिरान लगे। एक दिना ईनें का करो कै जा बिलइया बनकें सेट के नये लरका खों खा आई और ऊके मांस के गतरा राजा की पैलकी सातउँ रानियन लौं आन धरे, और सोउत में उनन कें मोंअन खों खून लगा दओ और राजा खों सब दिखा दओ। राजा नें जौ सब देखकें रानियन की आँखें कड़वा कें उनें आंदरे कुआँ में डरवा दओ। जल्लादन नें उनन की आँखें बनखंडी खों दे दईं ऊनें वे अपनी मताई नौं डांग में पौंचा दईं। राजा की लोरी रानी हती आखन सें सो ऊकं भौतऊ नौनो कुँवर भओ। जब बो बड़ो हो गओ सो डायन खों अखरन लगो ऊनें ऊसें कई के कायरे ककरन सें आ मारत चिरइयां। तीर धनुइयां काय नई बनवा लेत। बौ आंदरी घूँघरी मताई लौ भौतई ढिड़यानों इतैक में उतै सें कड़े संकर पारवती जू वे ऊपै तरस खात तीर धनुइयां देत चले गये। डायन नें कुँवर सें फिरकें कई कै तीर धनुइयां तौ ल्याव अब दूध खावे नादन भैंस औ मंगाले, औ ऊ दाने का पतौ बता दओ जितै नादन भैंस हती। कुँवर उतईं पौंचो औ ऊनें दाने में तीर मार दओ। दानों उतईं चित्त हो गओ औ बोलो कै हमें जिन मारौ जो मांगो सोई देंव। कुँवर नें संकरजू की भभूत सें उये ठीक कर दओ औ कई के हमें जो नादन भैंस दओ। ऊनें भेंस देदई, कुँवर उये घरै ले आओ। दूसरे दिना डायन नें नितनईं धान की कई सो कुँवर नें दाने से वेई मंगवा लई। जब वो मरोउ ना सो ऊनें ऊकी मताई की आँखें मंगावे की एक चिट्ठी लिखकें, अपनी मताई नौ पौंचा दओ। ऊमें लिखो तो कै ई सोतन के लरका खों माँ डारौ। का भओ दानें ने बीचई में बा चिट्ठी पड़ लई सो फारकें औरई लिख दई कै ईये पियार सें राखियो। डुकरिया नें चिट्ठी के पड़तैजई कुँवर खों छाती सें लगा लओ वो उतै घर की नाई फिरन लगो। ऊनें उड़न खटौला चलावो सीक लओ आग बरसाउत की और बुजाउत की तुमरियन को भेद जान लओ। औ मताई की आँखन खों देख लओ। जौ सब सीखकें कुँवर ने कई कै अब चलो चइये। एक दिना डुकरिया सपरन गई सो कुँवर उड़न खटौला पै बैठकें मताइयन की आँखें लैकें औ दोई तुमरियां ऊमें धरकें उड़त बनौं। डुकरिया नें उये पछयाव सो ऊपे आगी बरसाकें राख कर दओ। कुँवर नें बाघन को दूध लैकें सब मताइयन की आँखे चिपका दईं सो उनें खूब नौनो दिखान लगो। जब बनखंडी नें जो हाल सुनो के जो नठया तौ बचइ गओ। मोई डुकरिया की डुकरिया मर गई औ सौतन खों आँखें मिल गई। ऊ हत्यारी नें सोच कें कुँवर सें स्यामकरन घुरवा लेवे की कै दई। कुँवर घुरवा लेवे कजरी बन में पौंचो उतै ऊनें भौत घुरवा चरत देखे। ऊमें एक मरियल टट्टू हतौ वो ओई पै चड़ बैठो औ चड़तन की देर भई कै आसमान में उड़न लगो। सात दिना घुरवा नेंचे आय ऊपर जाय पै कुँवर नईं गिरौ सो नईं गिरो। घुरवा प्रसन्न होकें अपने चार रक्षक दाने के संगे कुँवर के संगे चल दओ। उन दानन में भौत गुन हते। पैलो छन में मिहल बना सकत तो, दूसरौ पाताल लोक को देख दैततौ, तीसरौ एक लात में धरती फार देत तौ और चौथो दो ठौ पारन खों बारा कोस लौ दूर कर देततौ। कुँवर के घरै आवे की देर भई कै उतै भौतई नौने मिहल बनन लगे। बनखंडी खों भौतई बुरओ लगो सो ऊनें कुँवर सें कई के अब विआव और करालो, औ ऊनें परी कैसी बेटी को पतौ ठिकानों बता दओ जो जो होततौ के जोनई बरात बेटी खों विआवे खों आउतती ऊको डेरा पारन के बीच में होत तो। वे रातकें मिल जात ते सो बरात मर जात ती। कुँवर की बरात दाने के मारें बच गई सो राजा नें केतकी के फूल मांगे, दूसरे दाने नें पाताल तक को देखकें ल्या दये काय कें तीसरे नें लात मारकें धरती फार दई ती। कुँवर बउ लुआकें घरै आ गओ सातउँ रानीं फूली नईं समानी काय कै बउ नैनूं कैसो लौंदा, कनैर कैसी डार, कैर कैसो गाबो और चन्दा घांई उन्हार हती। जौ सब देखकें बनखंडी नें राजा से कई कै जब अन्न पानूं खेंहों पिओं के जब ई कुँवर खों माँ डारौ। राजा नें चड़ाई कर दई सो कुँवर नें तुमरियन सें फौज फाटौ बा ड़ारौ। राजा हारकें गरे में गिरमां डारकें कुँवर लौ आओ। कुँवर नें बाप कौ खूब आदर सतकार करौ। सातउँ रानियन नें डायन की सब करतूतें सुना दई। जो सुनकें राजा दंग रै गओ। ऊनें हीरा सौ लरका और रूपे सी बउ पाकै भौतई खुसी मनाईं। और बनखंडी कौं जमीन में जिन्दा गड़वा दओ।
प्रस्तुत कथा में बनखंडी रानी के द्वारा यह दर्शाया गया है कि एक पाप छुपाने के लिए वह अनेक पाप करती है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मानव एक असत्य के लिए हजार असत्य बोलता है किंतु सत्य छिपता नहीं है। असत्य का घड़ा फूटकर, बनखंडी के पापों को बहा देता है जिसका उसे प्रायश्चित करना पड़ता है।
ठगी की कथाएँ
बुंदेलखंड में, ठगों की मुठभेड़, दो ठग, ठग की बेटी या ठग को लरका, ठग औ किसान, बुंदेली की बहुत चर्चित कथाएँ हैं। इन कथाओं में बुंदेलखंड के भोले भाले व्यक्तियों को ठगे जाने का विवरण मिलता है। इनसे शिक्षा ग्रहण कर, किसान ठगी से बचने का उपक्रम करते हैं।
ठगन की मुठभेड़ लोक कथा
एक गाँव में एक सेंटा नाव को ठग रत तौ। ऊ रोजईं रोज काऊ ना काऊ खों ठगतई रात तौ। एक दिना ऊनें का करो कै एक मटकियां लई मांटी की औ ऊपै खूबईं गोवर भर लओ। गोवर के ऊपर नेक घीव धर लओ। और ऊखों लेकें बजारें बेचन चल दओ। जा कत कत कै घीव लैलो घीउ। ऐसोई एक दूसरे गाँव कौ ठग हतो ऊको नाव तो सटकोरा ऊनें कठवा की तरवार चमकैलू ढाल में धरकें बजारै चल दओ औ कन लगो कै तरवार लैलो काऊ तरवार। जबै वे दोऊ बजार में पौंचे सेंटा ने सोची कै मोय रात विरात ठगी खों जाने आउत सो मोय तरवार तौ चानईं आउत, ऐईये ना ठग लौं। सो कन लगो के मोय लैनें तरवार, पै मोलो पइसा नइयां घीव लेने होय तो लेलो। सटकोरा नें सोच लई कै अच्छो उल्लू विदो जो तो सो ऊनें कई कै हव लैलो तरवार। दोई जल्दी फल्दीं जा सोचत घरै आ गये कै अच्छो उल्लू बनाओ। पै घरे जैसई दोइयन नें देखो सो लौटकें एक दूसरे सें मिले औ बोले काय हो घरईं आय सिकार खेली। चलौ ठीक है अब अपन दोई जनैं मिलकें ठगबी औ ऐंसी सला करकें परदेस ठगी खों चल दये। उनन नें एक सहर में पौंच कें एक सेट कौ पतौ ठिकानों लगाकें ऊके व्योपार को पतौ ठिकानों सोउ लगा लओ। उनन नें डांग में हो सेट के चेटका लुक एक सुरंग खुदवा लई औ ऊमें सेंटा चेटका के नैंचे जा दुको। इतै सटकोरा से आके लरकन लौ पौंचो और कन लगो के तुमाये दद्दा दो साल पैलें एक लाख रूपइया को सामान बिना लिखापड़ी के लिआय ते, काय के वे भौत ईमानदार हते, वे अबै चेटका नौं से तक कै सकत, सो वे पइसा देनें के नई। कजन्त बे ना कैयें तौ हम पइसा ना लेयें। लरकन नें जा बात मान लई और मुनीम खों लेकें उते पौंचे और लरकन नें कई कै काय दद्दा तुम पइसा ल्याय ते। सेंटा तो दुकोउ हतो, हऔ बेटा दो लाख देने। जो पइसा जिन राखियो ना ता मोय नरक मिलहै। सौ लरकन नें सटकोरा खों पइसा दै दओ। इतै सेंटा हालउं भग कैं बायरें कड़ आव औ डांग में पौंच गओ। सटकोरा की मनसा में बल आ गओ सो ऊनें सुरंग पै बड़े बड़े पथरा धर दये कै सेंटा कड़ई ना पाये औ सब धन मेंई हड़प लौं। और धन लैकें भग चलो। हतै सेंटा बाटई हैरत रओ पै सटकोरा काय खों आव। सो सेंटा नें भरतारू सोने के काम की पनइयां खरीदी और उनमें सें एक ऊ गली में डार दई जांहुन सटकोरे कड़ने तो। दूसरी पनइयां मीलक दूरी पै डार दई औ दुक कैं बैठ गओ। जबईं सटकोरा कड़ो सो ऊनें नौनी पनइयां देखी औ आगें चल दओ। जब बौ मीलक अंगारूं पौंचो सो उये दूसरी और पनइयां डरी दिखानी। ऊनें कई जे तौ दोउ डरी हो उठा ल्याउन दो। औ वो रूपइयन की थैलिया एक जरिया में दुका कें दूसरी पनइयां उठावे भगत गओ। सेंटा नें ठांड़े होकें नांय मांय देखो, ओर थैलिया उठाकें घरै पौंचो। ऊनें लुगाई सें कई कै जे गाड़ दे औ में गंजी में जांव दुकत। सटकौरा नें लौटकें थैलिया नई पाई सो वौ जान गओ कें सेंटा की चाल आय सो बौ ऊके घरे गओ औ बोलो काय भौजी सेंटे भइया हैं। ऊकी घरवाई बोली इतईं आय मसकरीं करवे, लुआ तौ गये ते तुम औ पूंछत मोसें हो। साँची तौ कओ उनें किते छोड़ आये औ कब लौ आयें। सटकोरा समझ कें पुरा तांय कड़ गओ सो काउनें कै दई कै माते दुके पियांर में, को कये बैरी होय। सटकोरा नें सेंटा की लुगाई सें कंडी की आगी लेंकें गंजी में छुआ दईं गंजी धुंआ देकें बरन लगी। सेंटा की घरवाई चिल्लानी कै काय रूपइयन के पीछूं जान दयें देत अब तौ कड़ आओ बांयरें। सेंटा बायरें आ गऔ। दोई ठग आदो आदो धन बांट कें प्रेम सें रन लगे।
जाति परक कथा
वर्णाश्रम व्यवस्था समाज हित के लिए, कार्य विभाजन की दृष्टि से बहुत महत्वशाली है। बुंदेलखंड में कोरी कौ सगो, बढ़ई कौ कुँवर आदि ऐसी लोक कथाएँ हैं जो इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति करती है। बढ़ई के कुँवर लोक कथा में उसके पैतृक व्यवसाय की महत्ता दर्शाई गई है। कुँवर अपने व्यवसाय की दक्षता से राज्य सुख प्राप्त कर लेता है।
बढ़ई की कुँवर कथा
ऐसें ऐसें एक गाँव में एक बढ़ई रत तौ। ऊकें दो लरका हते, एक किसानी को काम करत तौ, लौरो दद्दा के काम खों देख देख गुन्त व्योंत कर घोका विचारी करत रत तौ। एक दिना लौरो लरका जैठे खों खेत पै रोटी दैवे गओ के बीचई में एक मैंदानू जांगा में नौने मैलन को गुन्त लगाउत रओ। उतै जैठो लरका भूंको डरो रओ। जब बौ घरै आओ तो ऊनें दद्दा सें सब कै दई। बाढ़ई नें लौरे लरका खों घर सें काड़ दओ। खुन्स में आकें वो लरका घरसें कड़कें मरगटा सें मांस के हाड़ उठाकें ऊनें भौतई नोने चावर बनाये और एक गाँव में पौंच के विरादरी की मौंड़ी खों चुरवे दै दये। हाड़न के तो चावर आंय वे काय खों चुरतते, मौंड़ी के बाप मताई नें सोचसाच कैं ऊ लरका के संगे मौंड़ी को विआव कर दओ। जै लोग लुगाई सुख सें रन लगे। एक दिनां लरका नें डांग में जाकें चंदन की नकरिया काट कें भौतई नोनो पलका बनाओ औ लुगाईं सें कईं के जाव इये बजार में बेंच आव। बजार में जा कइयो के ईकी दिखाई के एक हजार रूपइया हैं, कीमत चार दिनां बाद लेलौं। बो पलका ऊ नगर के राजा नें खरीद लओ। बेटी एक हजार रूपइया लैकें घरे आगई। जब रातकें राजा ऊ पलका पै परो तो का देखत कै पलका के मिचवन की पुतैया दूसरी पुतइयन सें बोली कै में नगर के चार चोरन खों मारन जा रई तुम मोओ भार संभारै रइयों औ कछू देर में बा उन चोरन की जीवें काट कें लौट आई। राजा भौतई अचम्भे में पर गओ कै जीके लानें दस हजार रूपइया मारवे खां हते वे पुतइयई नें मांड़ारे। को गोर करै दूसरी पुतइया नें आदमी के मांस खावे वाये शेर खों मांड़ारो और तीसरी पुतइया नें कुँवर की अलफ टार दई। कैजवै कुँवर नये उन्ना पैरे सो उये नागन डस लेये औ कोऊ दूसरौ पैर लेय तो कुँवर बच जै, राजा नें भुंसारें ऐसउ कराओ सो कुँवर बच गओ। चौथी रातें चौथी पुतइया बोली कै कुँवर की वर्षगांठ पै दरवाजे गिरे सें कुँवर की एक अलफ और है। कजन्त फूलन को दुआओ बनादव जै तो वो बच जै। राजा नें एसऊ करौ सो कुँवर की जैई अलफ टर गई। राजा नें बाढ़ई के कुँवर खों बुलाकें इनाम दई और दूसरी हुनर चीज बनावे खों कै दईं सो कुँवर नें कठवा कौ उड़न बछेरा बनाकें दै दओ, राजा को कुँवर तुरतईं ऊपै चड़े गओ, चड़तन की तौ देर भई के घुरवै उड़वे की देर नईं भई। वो उड़त उड़त सात समुन्दर पार एक राजा की बेटी के बाग में पौंचो औ मालिन खों धन देकें उतईं रान लगो। एक दिनां का भओ कै ईनें एक नौनो हार गोकें राजा की बेटी लों पौंचा दओ। बेटी नें कई कै जो कीनें गोओ सो मालन नें कई के मोरी बैनोतिया नें आ गोओ। बेटी ने कई कै उये काल लुआ लियाइये सो कुँवर जनानी पोसाक करकें ऊ लौ पौंचो औ उये सब भेद बता दओ। बेटी तो पैलेई सें ऊसें खुस हती सो उनन को बिआव हो गओ। राजा खों जब जा खबर परी सो ऊनें जल्लादन सें पकरवाकें फांसी की कै दई। जल्लादन नें ऊकी आखरी इच्छा जानन चाई सो ऊनें कै दई कै मरती बिरियां मोय खजरी पै चड़नें। उनन नें कई चड़ जा। कुँवर चड़त चड़त जब पेड़ की टौन पै पौंचो तो भौतई खुस भओ काय कै उतै टंगो तो ऊको उड़न बछेरा। कुँवर ऊपै बैठ कें सतखंडा पै सें रानी खों लुआ- जो सोने के पिंजरा में तोता लयें पैलईं ठांड़ी ती, उड़ गओ। उड़त उड़त वे एक टापू लौ पौंचे। वे जब सबरे सो गये सो चोरन नें ऊको घुरवा दुका लओ। तोता नें का करो के एक एक तिनूंका बीन बीन कें एक टटिया बनाई जी पै बैठकें राजा औ रानी समुद्र पार करन लगे। इतैक में का भओ के एक चौंखरो बउत आ रओ तो सो रानी नें ममता के माये टटिया पै बैठार लओ, ऊ चुखरवा नें टटिया काट दई सो रानी बउत बउत एक राजा के राज में पौंची जां वे बारा वरस लौ सुआ चुनावे की शर्त राख कैं रन लगीं। औ राजा बउत बउत एक भरभूजा के इतै पौंचे सो भार भूंजन लगे। होत करत एक दिना तोता नें बेटी खों ढूँड़ लओ। वो हालउं बेटी लौ सें कुँवर खों ढूँड़वे चल दओ। ढूंड़त ढूंड़त उये कुँवर भरभूंजा के इतै मिलो। वे दोई घुरवा ढूंड़वे के लानें जा कत कै टूटो फूटो घुरवा सुदरवा लेव, गाँवन गाँवन फिरन लगे। उतै का भओ कै चोरन नें ऊ घुरवा खों एक कोरी के इतै बैंच दओ काय के वे चलावो नई जानत ते। राजा जब कोरी के इतै पौंचे सो ऊको लरका घुरवा ठीक करावे ल्याओ। राजा ने घुरवा खों पैचान कें, ऊपै सवारी कर दई औ तोता खों लैकें उड़त उड़त सतखंडा पै पौंचे जां बेटी हती। कुँवर नें बेटी खां बैठार कें अपने राज की गली धर लई। घरै पौंचकें राजा रानी हो राज करन लगे और बढ़ई के कुँवर खों बुलाकें ऊके हुनर के इनाम में अपनी बेटी को विआव ऊ, के संगे कर दओ। और आदौ राज दै दओ। कुँवर जौन मैदान में महलन की गुन्त व्यौंत करत तो उतै ऊनैं भौतई नौने मैहिल बनवाये औ पालकी भेज कें अपने भइया भौजी खों बुला लओ। हती किसा सो हो गई।
अलौकिक कथाएँ
जिज्ञासा ही कथाओं की जननी है। उसकी तुष्टि ही कथाओं का उद्देश्य है। उसके निर्वाह के लिए कौतूहल जागृत करना अनिवार्य है। अलौकिकता का गुण कथाओं को प्राणवान बनाता है। बुंदेली कथाएँ जनजीवन की कथा को इन्हीं गुणों से मंडित कर प्रकट होती हैं। रानी सगनौती की कथा अलौकिकता पूरित है।
रानी सगनौती की कथा
ऐसें ऐसें एक गाँव में एक भौतई गरीब किसान रात तौ। ऊकें बीज को दानों तक ना हतौ सो ऊकी बौनी नईं हो पाई। कुंवार कातिक और अगन कड़ै पूस में वो साव दद्दा लौ बीज खों पौंचो। और बोलो के मोय अबै सगुन मिलौ सो बीज दैदो औ बीज लैंकें चल दओ। जा बीज के सगुन की बात सेट कौ लरका सुन रओ तो सो वो किसान सें बोलो के सगुन काय। किसान नें बार गेंवड़े की गीली मांटी की गोली बनाकें ऊखों दै दई, ईको पतौ जैई गोली दैदे। ऊ मौंड़ा गोली जैम में डार कें देस घूमन खों कड़ गओ। जब बौ वीचाबीच डांग में पौंचों सो उये एक सोरा बरस की मौंड़ी टेरत आय कै मोय संगे लुआंय चलौ मैं गोली सें पैदा भई, रानी सगनौती आंव। मैं तुमांव विपत्ति में संग देओं। कुँवर सगनौती खों लैकें एक राजा के राज में पौंच कें उतई रान लगो और वो राजा के इतै लाख टका की नौकरी जाकै करन लगो, कै जो कौनउं काम ना करै, मैं करो। राजा नें उये नौकरी दे दई। सगनौती औ कुँवर के नौने दिन कटन लगे। इत्ते में का भओ कै उतै हतो एक नाऊ वो राजा औ ई कुँवर के पाँव दाबत तो ऊनें सगनौती खों देख लओ औ राजा सें कै दई कै लखटकिया की नौनी लुगाई तुमांय लाख, और तुमांई रानीं मोय लाख, औ मोई खवासन सबकी सेवा ढेल लाख है। राजा नें कई कै घोकी तो तैनें ठीक है नउआ पै मिलत वा कैसें हैं। सो नउआ नें कई के राजा बेटी के विआव के लाने चार दिना में नये महल लखटकिया सें बनवाव औ बगीचा लगवाव नईं तौ तुमांय लुगाई छुड़ा लैं। राजा नें लखटकिया सें ऐसी कै दई। लखटकिया हऔ केकें, नैंची घिची डारें सगनौती लौ आओ। ऊनें सगनौती खों सब कानिया सुना दई। सगनौती नें कई कै राजा सें नकसा औ एक लाख रूपइया ल्याव। सब हो जै सो वो नकसा औ रूपइया लेताओ। सगनौती नें अपने चार बार दैकें कई के चारउ कौनें गाड़ देव और जौ पाँचवों नउआ के दौरे में गाड़ दइयो। कुँवर नें ऐसयी करौ, सो मैहिल और बगीचा तैयार हो गये पै जैसईं नउआ कौ बायरें कड़ो कै ऊके मूंड़ सें रक्त की धार बउन लगी। राजा औ नउआ जौ सब देखकें रै गये। नउआ नें फिरकूं सला दई कें सामूं की टोइया खुद कें ऊमें भौतई गेरो तला हो जावे ऊमें खूबई पानी भरो होवे और बीच में मातन की मड़िया सोउ बनी रवै। जे सब काम एकई रात में होवे नईतो लुगाई छुड़ा लैं। राजा ने लखटकिया सें जैई कै दई। कुँवर नें सगनौती सें के दई सो रानी नें कई कै तुम एक लौटा में पानूं लैकें टोइया पै चलो उतै मोय काट कें फेंक दिओ औ कइयो कै सगनौती मौय पानी देओ। कुँवर नें ऐसउ करो सौ सब हो गओ। वे दोई प्रानी घरै आकें सो गये। भौरई राजा औ नउवा अचम्भौ करकें रे गये। नउआ नें राजा खों फिरकूं सला दई कै राजा लखटकिया सें बेटी के व्याव को न्योतो मरे पुरखन कौ पौंचवाव। राजा नें लखटकिया खों बुलाकें जा कै दई। कुँवर नें सगनौती खों सुना दई सो बा बोली कै ईके लानें छै मइना की मौलत, और नकरियन की सौ गाड़ी मरगटा पै डरवा लो, और चिट्ठी लैकें आ जाओ। लखटकिया राजा सें चिट्ठी लैकें औ सब कैकैं घरै आ गओ। नउआ मन में भौत खुसी भओ के अब ससुर जौ नई बचत। मरघटा में जितै सो गाड़ी नकरियां डरीं ती उतै सें नैचें नैंचे सगनौती नें घरलुक सुरंग खुदवा लई और सातये रोजे लखटकिया सुरग जावै खों लकइयन पै जा बैठो। आग लगतनई लकइयां बर गईं सबके जान लखटकिया सुरगे चलौ गओ पै वो सुरंग में हो आगओ घरै। इतै नउआ नें राजा सें कई कै अब तौ सगनौती तुमाई हो गई। राजा नें कई ससुर ठैर जा, छै मइना की मौलत है अबै होत काका है। इते कुँवर छै मइना घरैं दुको रओ ईबीचा में ऊनें सुनार खों बुलाकें सोने की कैंची, छुरा, पेटी सब नाऊ को सामान बनवा लओ और भौतईं अजूबा स्यायी सें पुरखन की चिट्ठी लिख लईं। म्याद पूरी होतनई। डाड़ी मूँछें वड़ांय चिट्ठी और सामान लयें, भूत सी सकल बनाकें दरबार में पौंचो और राज सें कई कै लेओ मैं न्यौतो दे आओ। वे भौत खुस भये पै उनें राजन एक दुख है कै उतै उनकी सेवा खों एकउ नाऊ नइयां, सो उनके इतेकई बड़े बड़े बार ठांड़े उतै। सो उननें कई कै राजा अपनों खास घर को नाऊ तुरतईं पौंचा दो। लखटकिया नें नाऊ सें कई कै तुमांय पुरखन नें जा चिट्ठी तोय दई काय कै उतै नाउअन की भौत कमी हैं। सो तोय बुलाओ और लै जे सोने के औजार और पेटी तोय लानें दई। हां उतै पातरन की भौत कमी है, सो उननें एक हजार असरफीं तोय लानें और दईं कै ईकीं पातरें खरीद लियावै। नउआ को जा सुनकें भौत खुस भओ राजा नें सोउ कई कै खबास उलायतो चलो जा, देर जिन कर। राजन कौ तो काम नाउ के सुरग जावे की तैयारी होन लगी। मरघटा में सौ गाड़ी लकइयां गिर गई और ऊ पै हजारन पातरं धर दई, जीके ऊपर नाऊ को बैठ गओ औ ऊपै छुआ दई गई आगी से नउआ को सांसउं मांस को सुरगे चलो गओ। जब छै मइना बीत गये सो खबासन भौत घबरानी सो कुँवर नें ऊसें साँची साँची कै दई। राजा ने लखटकिया की चतुराई देख बिटिया को व्याव ऊके संगे कर दओ। कुँवर दोई रानियन के डोला सजा कें अपने घरै चल दओ। पै का भओ कै जां किसान नें गीली मांटी की गोली दई ती उतै सगनौती फिरकूं गोली बन गई। कुँवर घरै चलो गओ ऊनें बा गोली बीज लौटाउती वैरां किसान खों लौटा दई और जियत जियत लौ सगनौती की याद करत रओ। हती किसा सो हो गई।
प्रस्तुत लोक कथा अलौकिकता पूरित है। क्षणों में बाग और महल बन जाते हैं, गोली से रानी और रानी से गोली बन जाती है। इतना ही नहीं यह कथा कुछ और ही कहना चाहती है। जिस प्रकार रानी सगनौती किसान से कुँवर को सुख पहुंचाती है उसी प्रकार गीली मिट्टी में बीज बोने से किसान धन धान्य से पूरित होता है। अच्छी फसल की प्राप्ति स्वर्ग सुख की प्राप्ति है।
मनोरंजक कथाएँ
कथा का जन्म ही मनोरंजन के हेतु माना गया है। सभी कथाएँ किसी न किसी प्रकार का मनोरंजन करती है। बुंदेली लोक कथाओं में अथाई की बातें, अकबर बीरबल की कथाएँ प्राप्त होती हैं जो मात्र मनोरंजन के लिए होती हैं।
रती भर आदमी कौ मोल
सो बास्सा औ बीरना हते। बास्सा उनसें एक न एक बात पूंछत रैवे करे, वीरना ऊकौ ज्वाव दैवे करे। सो एक दिनां बास्सा नें पूंछ लई कै काय हो बीरना मोओ का मोल कूतो तैंने। आ सुनकें ऊनें दाँत तरैं उंगइया दाब लई कै वीदी तौ आज गरे खों गुन्ठ्यान है मैं कजन्त बास्सा को कितेकउ मोल बताउत तौ ऊखों कनै के कायरे बीरना मोओ इतेकई मोल आहै। सो बीरना नें सात दिनां की मौलत माँग कें कई कै घोक कें बताओ। बास्सा नें मौलत दै दई। चिंता के माये बीरन कौ खाबो, पीबो, सपरवो लुक छूट गओ। एक दिनां राई ना आई सो नदी पै सपरवे चलो गओ, उतै मिलो एक बरेदी। ऊखों बीरना नें सबरी किस्सा सुना दई। बरेदी नें कई कौन बड़ी बात आय ईखों तो मेंई बतादौ। बीरना नें कई कै बता देरे मोंय ऊनें कई ऊंहूं तुमें नई बताउत तुमतो बास्सा सें कइये सो में उनईं हां बता देओं तुम काय खों दुखन दूवरे होत। बीरना नें वरेदी की बात मान लई काय के हारे की न्याव गम्म होत। सातये रोजै वीरना दरबार में पौंचे सो राजा नें कई कै का है मोओ मोल। वीरना नें वरेदी की बात कै दई। बास्सा नें बरेदी खों बुलाकें पूंछो कितेक है रे मोओ मोल। उनें हांस की मुठी खोल कें बता दई कै आपको मोल इतैक है। ऊमें धरी ती एक घुन्ची (गुमची), जी को मोल एक रत्ती हतो। बास्सा नें रत्ती देखतनई कई काय रे मोओ मोल इतैक आ है रे। वीरना ठांड़े ते उतईं, हऔ हुजूर ठीक तौ आय। बास्सन को मोल रती तकई रतये। जो रती ठीक है तौ लो अपन बास्सा हो जो कऊं जा फिर गई तौ अपन बास्सा सोई नई। रेओ। रती फिरें आदमी दौ कौंड़ी कौ नईं रउत वरेदी खों सोउ कै आई। बास्सा खों जो बात साँची जच गई उननें बरेदी खों और बीरना खों खूब इनाम दई।
चतुर किसान की कथाः
ऐसें ऐसें एक गाँव में ऐ चतुर किसान हतो। ऊके लिंगा दो नौने बेलन की जोड़ी हती। एक दिनां ऊ गाँव में हुन ठग कड़े उनके मों में बैलन खों देखकें पानी भर आओ कै अबतौ कैसेउं इये ठगैं चइये। सो उनन नें सोची के किसान खें जीजा बनाव चइये सो वे ऊलों पौंचकें बोले जीजा राम राम। किसान नें कई राम राम, वो समझ गओ कै कछू दार में कारो है, सो ऊनें कई के काय बड़े अवै तक आ पाये। उनन नें कई का करें फुरसतई नईं मिलत आय। सो किसान नें घोक कें अपने हिन्ना सें कई जो उतईं चर रओ तो, कै जाव घरै के दिओ कै भइया आये तोय, रोटी पानी बनाकें घर दिये, और हिन्नें ढील दओ वो कितउं डांग में हिरा गओ जबै किसान ठगन के संगे घरै पौंचो सो पूंछी कै काय रोटी बन गई, मैंनें घरे हिन्नें पौचाओ तो। लुगाई औरई हुसियार हती ऊनें कई हऔ बन गई रोटी सपर तो लेओ। ठगन नें कई कै जो हिन्ना ठगें चइये। रोटी ओटी खाकें उनन नें जीजा सें कई के पांनसे कौ जो हिन्ना देदो हमें सो किसान नें रूपइया लैकें उनन खों बेंच दओ। ठग हिन्न लेंकें घरै पौंचे सो ग्योंड़े सें हिन्ना खों ढील दओ कै जाओ रोटी की कै दिओ घरै। हिन्ना डांग में हिरा गओ। जब वे घरै पौंचे सो उतै ना तो रोटी बनी दिखानी औ न हिन्नई दिखानो। सो वे गुस्सां होत उलटे पावन किसान नें पौंचे के काय खूब ठगो हिन्ना में। किसान नें कई तेंने उये घर ना दिखाव हुये वो कां पौंच जाये। ठग रै गये कै कत तौ सांसी हैं। व्याई करकें परे परे ठगन नें सला करी कै ई ससुर खों नदी में फेंको चइये। तवई ईको धन हर पावी। सो वे ऊ किसान खों गठरिया में बांद कें भुन्सारे के पारै नदी पै लै गये और दिसा फरक्कत खों चले गये। इतैक में उतै गड़रिया छिरियां चराउत आ पौंचो, ऊनें कई काय आ बंदे डरे हो। किसान नें कई हल्ला जिन करो मोओ दूसरो व्याव सोरा साल की मोंड़ी सें जबरईं कर रये सो आ बाँदें लयें जा रये। वो बोलो औ भइया मोओ विआव नई भओ, तैं मोय बांद दै। किसान नें ऊखों कसकें बाँद दओ औ खुदई छिरियां हांकत घरै आ गओ। ठगन नें गठरिया उठाकें गेरे डंड़ा में फेंक दई औ घरै आ कें का देखत कै जीजा ससुर तौ मुलकन छिरियां लयें तौ पैलईं सें आ गओ। जीजा नें ठगन सें कई के तुमईं नें मोय गैरे में नईं फेंको तो से करिया धन मिलो, कजन्त की दार पथरा बाँद कें गैरे में फेंक ते तो सोने चाँदी की ईटें मिलने ती। सो सब ठगन नें कई कै ओ जीजा तोय पाँव परें ऐ हमइयें बाँद कें फेंक देओ। किसान भुन्सरा चार पिछौरा लेकें ठगन के संगे नदी पै गओ औ सबरन खों पथरा बाँद कें एक ठग खों गैरे में पटक आओ। जब भौत देर हो गई तो दूसरो ठग बोलो काय जीजा बो तो आई नई रओ सो किसान नें कई कै ऊ ससुरे नें मुलकन भारी बोझा कौ गठरा बाँद लओ, सो उठ नईं रओ, जाओ उठा आओ। सो बोलो हऔ, किसान नें ओई खों फेंक दओ। बचै दो ठौ कन लगे काय जीजा अबै तक नई आये सो ऊनें कई कै मूरख हो वे तो अपने घरै उखरें जैसे मैं उखरो तो। सो उननें कई कै औ जीजा तोरी जै हो जाय ये हमईंये फेंक दे, हमई खों संग हो जै सो जीजा नें उन दोइयन खों बांद कें और गैरे में फेंक दओ। हती किसा सो हो गई।
प्रस्तुत लोक कथा में किसान की चतुराई का वर्णन है जो सौ ठगों का ठग है। दूसरी महत्व की बात यह है लोभी व्यक्ति विवेक खोकर धन आसक्त हो जाता है जिससे उसके व्यक्तित्व का सत्यानाश होता है। ठगों की मौत का कारण धन का लोभ ही है।
भाग्यवादी कथाएँ
मनुष्य आदिम युग से भाग्य के सहारे रहकर, अपना जीवन यापन करता रहा है। प्रकृति परक दुख सुख, शारीरिक सुख दुख ओर समाज प्रदत्त सुख दुख, सबको भाग्य का विधान समझकर आशावादी बना रहा है। ऐसी मान्यताएँ लोक साहित्य में विद्यमान है। बुंदेली लोक कथाओं- लौरी बिटिया, भाग्य होत बलवान आदि में ऐसे ही भावों की भरमार है।
भाग होत बलवान
ऐसें ऐसें एक गाँव में एक सेटजू हते जिनकें चार ठौ कुँवर हतें। तीन तौ दिन रात धन्दे में वीदे रात ते पै लौरो नेकउ काम नई करबूं करै। काम पियारो सबै होत, चाम पियारों नई होत, सो लौरे लरका पै होन रोजई न्याव मची रत ती सो सबरीं बउएं कयें कै मोओ आदमी कमा कमा कें मरौ जात औ जो नठया सुंगरा सौ सुसात रात। काय आय तौ साँची वो कटी उंगरिया पै नईं मूंतत तौ सो भइया उनन नें ऊखों घरसें काड़ दओ सो कुँवर चलत चलत एक गाँव में पौंचो उतै घसयारे वैंच रये ते चारो, उनन नें इये भूंको लांगो जानकें एक एक पूरा चारे को दे दओ। ई खों बेंच कें कुँवर कौ काम चल गओ। सब कोऊ ऊखों घसयारे कन लगो। इतै होत का है कै इतै के सेट कें कनवा, गुदना लरका हतो सो ऊको विआव नई होत तो एक दिनां सेटजी नें ई घसयारे खों देख लओ सो उननें सोची कै इये कछू रूपइया दैकें कऊं की सगाई चड़वा लयें। सेटजी नें ऐसई करो, कुँवर खों पांनसै रूपइया में अंत के सेटन के नाउ बामन खों दिखा दओ औ सगाई करवा लई। कछू दिनन में विआव हो गओ घरै बउ आई। सो रात कें कनवा पौंचो बउ नौं सो ऊनें कई कै जो तो हमाओ आदमिअई नोंई सो बा डिड़यानीं उतै भीड़ लग गई। बउ हती सत्यवान ऊनें सबसें कई के जौ लौ अन्न पानूं नई खेंओ पिओ जौ लो राजा मोओ न्याय न करदैं। सो राजा नें सुनतनई सेट और बउ खों बुलाओ। बउ नें सब कच्चो चिट्ठा कै दओ औ सेट नें डरन के माये सब उगल दओ। राजा नें तुरतई घसबारे खों बुलाव सो बउ नें तुरतईं चीन लओ कै जेई आंय हमाये आदमी। राजा नें सेट सें कईं के कजन्त तैंने इये आदौ हिस्सा नें दओ तो एंच खाल भुस भर दें। से भइया कुँवर और ऊ बउ के ठाट होन लगे उनें धन संपत्ति खूब मिल गई नये मैहिल बनन लगे। लाखन आदमी उतै मजूरी करन लगे। इतै का भओ के दिनन के फेर में ईके भइया मौजाई भूँकन मरन लगे सो छैऊ पिरानी इतईं तसला गिलारे को काम करन लगे। एक दिनां सेट के कुँवर नें उनन खों पैचान लओ सो उनन खों आदर सतकार सें घरे लिया गओ। अपनी जनीं से ऊनें सबरी कानियां कै दई। उन दोइयन नें भइया भौजाइयन के पाँव छूकें कई कै हम तुमाये लौरे भइया आंय। वे सबई सुनतनईं रे गये और सब मौज में रन लगे। हती किसा सो हो गई।
प्रस्तुत बुंदेली कथा में दर्शाया गया है कि मनुष्य अपने भाग्य के कारण सुख दुख भोगता है। जब तक सेठ के लड़के का भाग्य साथ नहीं देता वह निकम्मा रहता है किंतु भाग्य के साथ देते ही वह कर्मशील बनकर, धन धान्य से पूर्ण हो जाता है।
मित्रों की कथाएँ
लोक साहित्य संस्कृति एवं सभ्यता का अक्षय भण्डार है इसमें मनुष्य के विभिन्न रिश्तों का वर्णन मिलता है। दीवान कौ कुंवर, और परवान को कुंवर, बासुकी नाग की मुंदरी, बढ़ई, परवान, सुनार और राजा कौ कुँवर आदि बुंदेली कथाएँ मित्रों की मित्रता के आदर्शवादी उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। इन सभी में मित्र एक दूसरे को प्राणों की बाजी लगाकर मदद करते हैं।
दो मिन्तों की मिन्तैआई
ऐसें ऐसें राजा के लरका और दीवान के लरका में भौतई गाड़ों मेर हतो। हल्केअई सें वे संगे उठत ते, बैठत ते औ खात ते। होत करत बे बड़े हो गये वे एक दिनां डांग में सिकार खेलन गये सो उनें एक सुंगरा दिखानें वे ओईये पिछयांय गये। पै वो हांतई नईं लगो। लौलइयां लगतनईं वे एक पेड़े के नैंचे पौंचे उतै राजा को कुँवर तो सो गओ पै दीवान कौ जगत रओ। ऊ पेड़े पे रत्ते सुआ सारो। सुआ बोलो के सारो आप बीती कओं के जगत बीती कओं। सारो नें कई पराई बीती सुनाओ हो सुआ, सुआ कन लगो के सारो, जै दो मुसाफर अपने नैंचें सो रये इनमें सें राजा के कुँवर पै भारी आफतें आउनें। जब ईको विआव हुये और बरात सूकी नदी में हुन जैहे सो उतई वे जै। कऊं कोऊ सुनत होय औ बो रीती पालकी पैलें काड़ देवे तो वो बच जै। दूसरी अलफ कुँवर की भाँवरन में है उतै ढाल के सैर खों जीकें, इये ओई वेरा खा लेने। कजन्त कोऊ उये मांड़ारे तौ बच जै। तीसरी अलफ डेरा में है उतै वरिया की डार दूला के ऊपर गिरनें। कजन्त कोऊ कुँवर खों दूसरे पेड़े तरैं ठैरा दे तो बच जै। सारो, कजन्त इतैक पै कुँवर बच गओ तौ चौथी अलफ राजकुमारी के संगे सोउत में है उतै करिया साँप खों काट लेने। कजन्त कोऊ उये मांड़ारे तौ कुँवर बच जे। पाँचई अलफ औरई कररी है। एक दिनां सोउत में राजकुमार की नाक सें नागिन कड़कें कुँवर खों डस ले। कजन्त कोऊ ऐइये मांड़ारे तौ कुँवर बचके भौत दिनन लौ राज करहै। पै सारो एक बात और सुनले। कऊं काउ ने बातें, जै सबरीं सुनकें औ कै दईं तो वो पथरा को हो जै। ई पथरा भये आदमी पै कजन्त राजा को कुँवर अपने पैले लरका को खून छिरक जै तो बो फिरकूं जी उठै। इत्ती कै कें सुआ सारो सो गये पै दीवान के कुँवर खों नींद नईं आई। भुंसरां होत नईं दोई मिन्त घरै आ गये।
कछू दिनन में भइया कुँवर कौ विआव भओ सो दीवान के कुँवर नें पैलऊं सें पालकी काड़ कें, औ ढाल कौ बाघ मारकें, औ दूसरे पेड़े तरें कुँवर खों ठैराकें, औ राजा रानी खों सोउत में साँप सें बचाकें, चार अलफें राजा के कुँवर की टार दईं। आखरी अलफ के लानें कुँवर रात में राजा रानी के मेहलन में जा दुको, उतै राजा औ रानी एकई पलका पै गैरी नींद में सो रये ते, आदी रात के बीचां रानी की नांक सें नागिन दै कड़ी सो कुँवर नें हालउं ऊके दो टूंका करके पलका के नैंचे ढांक दओ, बो तो उतै तैयारई ठांड़ो तो। पै भइया का भओ कै रानी के गाल पै नागन कौ खून गिर गऔ, दीवान कौ कुँवर खों भौतई सांकरो परो कै का करों का ना करौं कजन्त की दारै पोंछत हों तो रानी खों जग जानें औ नईं पौंछत तो रानी खों मर जानें। सो ऊनें, कै रानी जग ना जायें सो अपने मुलाम होंटन सें, रानी के गालन को खून पोंछन चाओ के राजा को कुँवर जग परो। ऊनें कई के तैं इतै का कर रऔ तो, साँची साँची कै नई तौ दो टूंका करैं देत। परवस होकें कुँवर नें सबरी कानिया कै दई, औ कुँवर घिंची लो पथरा को हो गओ। राजा कौ कुँवर रोउन डीपन लगो सो दीवान के कुँवर नें कई के कजन्त तैं पैले कुँवर कौ खून मोये ऊपर छिरक दै तो मैं फिरकूं जी उठौं। इत्ती कैवे की तो देर भई पै उये पथरा को होवे की देर नई भई।
होत करत तीन सालें वीतीं इतै रानी आवान सें रै गई। नमये मइंनें उनकें फूल सो कुँवर भऔ राज भर में खुसी मनाई गई। पै राजा के कुँवर खों तो दीवान के कुँवर की फिकर लगी ती सो ऊनें रानी सें, बल देवे के लानें कुँवर खों मांगो। रानी नें हँसी खुसी सें दे दओ। राजा नें पथरा पै धरकें जैसई कुँवर पै तरवार चलाउन चाई कै हांत कप गऔ, सो तरवार छूट गई। बा तरवार गिरतन मौंड़ा के हांत पै गिरी सो ऊकी छिंगरी कट गई। छिंगरी कटतनईं पथरा पे मौंड़ा के खून कीं कछू बूंदें गिर परीं। भइया बूंदें गिरवे की तो देर भई पै दीवान के कुँवर के उठबे खों देर नईं लगी। ऊ तौ जिन्दा हो गओ। औ दोई मिन्त खुसी सें रन लगे।
प्रस्तुत लोक कथा में मित्रों के अनूठे त्याग का वर्णन है। दीवान का कुँवर मित्र की रक्षा हेतु पत्थर का बन जाता है। राजा का कुँवर शिशु का बलिदान करने को तत्पर हो मित्र को पुनः जीवित करता है। इस तरह दोनों मित्रों के त्याग, स्नेह को देखकर समाज को मित्रता परक शिक्षा मिलती है।
व्यंग्य परक कथाएं
बुंदेली लोक कथाएँ असल की नकल एवं राजा धुन्दपाल की राज ऐसी व्यंग्यपरक कथाएँ हैं जिनमें शासन, समाज एवं व्यवसायी वर्ग पर व्यंग्य व्यंजित हुये हैं। धुन्दपाल कौ राज कथा में राज्य की अंधेरगर्दी का यथार्थ चित्रण चित्रित हुआ है।
धुन्दपाल कौ राज कथा
ऐसें ऐसें एक नगर में धुन्दपाल राजा राज करत ते उनके राज में खूबईं धुन्दमारी मची रत ती। ई राजा कें तीनक बिसी रानी औ सैकराक मौंड़ीं मौंड़ा हते जिनन के नौकर चाकर दो तीनक सो हो गये ते। जै सबरे अई नौकर भौतई हत्यारे हते। रानियन की ओट में जनता सें खूबईं रकम ठगत रतते। इतईं एक हते ठलुआ बुढ़ऊ लाला, जीखों ई राज में सोउ अपनी दार चुरैवे की सूजी सो उननें एक दरी विछाकें बरिया तरें सील ठोकवे कौ काम सुरू कर दओ जो कोऊ राजा नौं काम खों जाय ऊपै मुहर लगवो जरूरी हती। अंधेरगर्दी तौ आय वरिया बारन लालाजू की मैर के बिना कौनउं कामई नईं होततो, कैऊ कागद बिना मौरे लगे होवे के माय दरवार तक सें लौट आउतते। एक दिनां विद गये एक मंत्रीअई उनईं खों लालाजू नें ठग लओ वा फिराद गई राजा नौं सो राजा नें कई जब सबरे कागजन पै वरिया बारे मुन्सीजू की मौर लग रई सो लगे चइये। हां इत्तौ सो जरूर करौ कै बरिया की जांगां मुनसीजू के लानें एक नौनो सो बंगला बनवादो। सो भइया मंत्री तौ लौट आव मों लटकायें औ बरिया वाये मुन्सीजी की तौ चाँदी कटन लगी।
धुन्दपाल के राज में एक ठाकुर सोउ रात तौ जीकें जमीं जायजाद कछू नें हती पै रत हतौ राजन घांई। एक दिनां वो बजार में आठ कुमैंड़े लेंके, बेंचवे पौंचो कै सरकारी अमला सब उठाकें लै गये उतईं ठाओं तो एक हिजरा सो ऊकी पिछोइया लेत कत गऔ मैं तो ड्योड़ी को सारो आंव। ठाकुर दिन भर टपइया में भूंकौ डऔरओ औ घोकत रओ कै ऐसे में मोइये कछू औटपाव करें चइये सो ऊनें एक डेउआ बनवाव जौ कंदा पै धरकें वजारै कड़ गओ। कितउं सें शक्कर कितउं सें चावर, कितउं सें दार, कितउं सें कनक डेउजा में भरी और झोरी में डारत जा कत गओ कै सालेरा को डेउआ, बात ना पूछो कोउआ। कजन्त कोऊ रोकत तौ तौ वो कै देत तौ कै सालेरा को डेउआ, बात ना पूछो कोउआ। बानिया होत डरपौंका होय ना होय जे राजाजू के सारेजू आंय। इतै होत का है कै ठाकुर लगोतो एक पपइया बरेठन सें बा देखत सुनत की नौनी बनी ठनी हती ऊनें एक दिनां कई कै काय लालाजू तुमाये तौ दिन फिरगये मोयेई कौनऊ हिल्ले सें लगा देओ। उननें कई कै भौजी तैं फिकर जिन कर तोय तौ में रानी बनाय देत ऊनें कई लाला नैकी और पूँछ पूँछ। ठाकुर नें कई देख फिर बदमासी ना करिये, बरेठन नें कई कै लाला कैसे हो कैसे नइयां। तुमाअई तौ खेलतेल, तुमसें कटकें कां जैओं। ठाकुर हऔ कैकैं रनवास तांईं कड़ गओ उतै दो तीन रनवासें खाली डरीं तीं काय वे रानीं मर गईं तीं। भइया ठाकुर नें का करौ कै पलकैयन खों बुलाकें डाँटो ससुरे हो कां मर गये तुमें रानी पपइयाजू खों मांयके सें लुबावे जानें, अगर नेकई गलती करी तो तमाई खलइया उतरवा लई जै। पलकैंया डरा गये औ वे ठाकुर साब के संगे चल दये। इते पपइया रानी बनकें, डोला में बैठकें रनवास खों चल दईं। ठाकुर अंगाई अंगाई कत जांय पपइया रानी जू की जै। सौ भइया पपइया जू को रनवास में डेरा हो गओ। पपइया जू को हुकम चलन लगो उनको खरचा एक जागीर सें आउन लगो सो बरेठन और ठाकुर के दिन मौंज सें कटन लगे। राजा नें सोउ जानीं के हमाई कौनउं नईं रानिअई हुये सो वे ऊकी कई मानन लगे।
होत करत दो सालें बीत गई के पपइया जू को पियारो गदा मर गओ सो पपइया जू खूब विलख विलख कें रोंई कै हाय मोये सोढ़र मोय छोड़ कें किते चले गये। राजा औ मंत्रियन नें जानी कै पपइया जू कौ कौनऊ रिश्तेदार आ मर गओ सो राज भर में सूतक मनाओ गओ। कांलो कैं, सब करमचायिन नें औ राजा लौ नें मूँछें घुटवा लईं। एक दिनां राजा पपइया जू नौं तसल्ली देवे पौंचे के काय जू सोढ़र तुमाव को आ हतौ। रानी बोली कै राजा मोय बाप मताई कैं बीसक पचीसक गदा हते उनमें जोउ सबसें नामीं हतौ। राजा सब समझकें चुपकें सें चलो आव औ पपइया जू ऊँसऊ राज करत रईं। ठाकुर साब चैन छानत रये। हती किसा सो हो गई।
इस कथा में विलासी राजा, चतुर लालाजू, शोषक कर्मचारी एवं हुशियार ठाकुर आदि का सजीव चित्रण हुआ है। कथा की समस्त घटनायें शासन के निकम्मेपन की सूचक हैं।
हास्य कथाएँ
बुंदेली कथाओं में हास्य कथाएँ भी प्राप्त होती हैं। इनमें जाति विशेष के अवगुण, पुरूष जाति या नारी जाति को लेकर हास्य निर्मित किया गया है। लुगाई की लोगनों हार, भौतई सूदरौ आदमी ऐसी ही कथाएँ हैं जिनमें नारी जाति एवं कोरी जाति के सरल व्यक्ति की हँसी वर्णित हुई है।
भौतई सूदरौ आदमीः
एक कोरी औ कौरन हते, सो बा बोली के कायखों परौ, उठ वा धुतिया नईं बिननें। कजन्त तैंने धुतिया नें बिन पाई तौ हाट में का बेचे औ लाग बाग कैसें चले। कोरी नें कईं री कै तौ रईं तें साँची। उठा लिया भीतरै सें पुरिया सो ऊखों पूरकें एक आद जोरा बिन लेओ। और उनन नें पुरिया फैला दई और ऊपै कूंच फेरन लगे। इतैक में का भओ कै एक मुरगा उतैं सें दै उड़ो औ ऊनें उड़के एक डोरा टोड़ारौ। कोरी ने कई कोरन सें कै देख तो री जो मुरगा पुरिया टोर रओ, सारे में एकाद सरइया मार दौं, सो उतईं मर जै। सो कोरन नें कई कै ओ तुमाई जै हो जावै, सरइया जिन मारिओ, नईतर जौ इन्द्र नों फिराद कर आये सो इन्द्र तुमाव मूंड़ कटवा लें। इतैक में फिरकूं मुरगा उड़ौ औ पुरिया को डोरा टोर दई, औ जौ मुरगा कूं कूं करकें नरदुआ में घुस गओ। कोरन नें कई कैं काय हो मारई दओ का मुरगे। ऊनें कई तैं सो कैसी हे री, हैरानईं तो कर रओ तो, सो मार दओ। कोरन नें कई के लो समेटो पुरिया नईं तो इन्द्र तुमाव मूंड़ई कटा ले। सो कोरी डरन के मारें उतै जा दुको, जिते हो वो उन्ना बिनततो। दुकें दुकें ऊखों उतईं रात हो गई। चौमासे के दिना हते सो विजरी चमकी औ बादर तड़को, सो कोरी ने कोरन सें पूंछी, कै जो कायरी काय हो रओ। सो कोरन कै कई के राजा इन्द्र के बान आय घलन लगे, मुरगा तुमाए मूंड़ कटावे की फिराद आय कर आओ। तुम बायरें जिन कड़ियो। ऊनें कई के मोय नई कड़नें, तैं तो मोय व्यायी खों करदे कछू। ऊनें पूछी कै का खानें तुमें। बो बोलो मोय तो मठा की मयरी करदैं तुरतईं कोरन नें मयरी बनाकें ताती ताती टाठी में पसा दई, औ कन लगी सुनत हो, तनक व्याई कर लो। ऊनें कई के मोय मुतास तो लगी। बा बोली औ तुमाई जै हो जावे मईं मांगे में मूंत लौ, बायरें जिन कड़ियो। कोरी नें कई के काय री कुलच्छन जां में बिनत हों उतईं आय मुतवाउत है मोय। बा बोली के बायरें इन्द्र के बान घल रये तुम उतै कैसें कड़ौ। कोरी नें कई के मैं बताओं, जौ है मोओ सुआपा सो ईसें मौओ करया बाँद दे। जेसईं बान घलैं, तेसईं मोय तें तान दिये। कोरन ने ऊकौ, सुआपा सें कसकें करया बांद लओ। बो कोरी बायरें मूंतवे चलौ गओ। इतेक में विजरी दे लौंकी औ बादर दे तड़कौ। कोरन नें जानी के हमाये कोरी को राजा इन्द्र मूंड़ आय काटत। सो ऊनें कोरी खों बड़े जोर सें झटका मारो। कोरन हती भौतई मुचंडू, झटका लगतनई कोरी मांगे के गड़ा में मुड़ी के भर ओंदों आन गिरौ। इतेक में सुआपा की हवा सें दिया बुज गओ। अंदयाये में कोरन नें जानी के लो इन्द्र नें मोये कोरी को मूंड आय काट लओ। सो बा कोरी खों थथोलन लगी। कोरी डरन के मायें चिमानों औंदो डरो तो। थथोलत थथोलत जब कोरन पौंची तो ऊके हांतन में कोरी के पौंद पर गये। उन पौंदन खों ऊनें जानी के होय ना होय जे कोरी के कंदा आंय, मूंड़ तो इन्द्र नें काटई लओ। अब मरती विरियां जे भूंके कायखों जांय, सो इनें दो कौर मयरी तौ खुआई देन दो। काय, ऊ ससरी नें बड़े साके सें इनईं के लानें बनाई ती। सो कोरन नें, डेउआ में गरम मयरी भरकें औ पोंदन खों मों जानकें, डार दई। सो कोरी खों पाद आव, कोरन नें कई जिन फूंको मैं तो सिरा सिरा कें खुआ रई। सो कोरी तुरतईं बोलो, अरी में तो ओंदो आय डरौ, तैनें मोय पौंदई बाड़ारै। हती कानिया सो निपट गई।
कहावत परक कथाएँ
बुंदेली लोक साहित्य में कथाओं के अंतर्गत अनेक कहावत पर ऐसी कथायें मिलती हैं जिनमें कुछ ना कुछ तथ्य निहित रहता है। कुल कुल बाती चना चवाती, हमें कौन काउसें मूसर बलदावनें, सूतौ ना पौनी कोरी सें लठमलठा आदि ऐसी कहावत परक कथाएँ हैं जिनमें कथानक छिपा हुआ है।
हमें कौन काउसें मूसर बलदुआवनें
ऐसें ऐसें एक भौतई गरीब अहीर दउआ हतौ। सो बौ एक दिनां अपनों गाँव छोड़कें, धन कमावे के लानें, परदेसे भग गओ। उतै ऊनें रात दिनां एक करकें खूबईं मैनत मजूरी करी। सो ऊकी रती फिर गई। काय कें लक्ष्मी खों ना जातन देर लगत आय और ना आउतन देर लगत आय। जब ऊलों विलात पइसा टका हो गओ सो ऊनें जात की कौनऊं जनीं ढूंड़ कें अपनो विआव कर लओ। ऊकी बा जनी हती भौत् हुसयार। एक दिना अहीर नें कई कै ये अब तौ अपने घरै जायें चइये। पै जात कैसें हैं कै काय गैल गली में डांकुअन कौ तौ भौतई डर है। जौ पइसा टका कैसें ले चलबी। जनी नें कई के तुम ये पोलो मूसर बनवालो। औ ई पइसा कौ सोनों लेकें औ ऊमें भरकें, चैन से चले चलबी। अहीर नें कई कै जा तैंने कई तो साँची हे री, औ ऊनें ऊँसौउ करौ। औ दोई पिरानी अपने घर खों चल दये। चलत चलत एक गाँव में हो गई उनखों रात सो वे एक जात विरादरी के घरै जा परे। ऊ घरकी अहीरन हती भौतई चालाक ऊनें कई कै, जै जोन मूसर लयें भौतई नौनो काय है, औ ओई पै इनन की आँखें काय लगी रती, होय ना होय कछू दार में कारो है। सो ऊनें रात कैं जब वे लोग लुगाई सो गये, सो ऊ मूसर खों बदल लओ। अहीर दउआ बड़े भुनसरां झुलापटे में मूसर खों लेकें, चल दये। घरै आकें उननें मूसर खों खूबईं ठोको, पै ऊमें से कछू नईं कड़ो, काय कैं वो तो हतो नीखर। सो अहीर दउआ टेर देकें रोउन लगे। जनी नें कई कै काय हो कैंसे हो कैंसे नइयां, मुंसेलू होकें रोउत हो। कछू गुन्त करौ, काय कै जां अपन ठेरे हते ओई जनी नें आय अपनौ मूसर बदल लओ। अब ऐंसो करो कै गाड़ी भर मूसर लेंकें ओई गाँव में जाओ जाय। अहीर नें जनी की बात मानकें ऐसई करौ और गाँव में पौंच कें कन लगो एक पुराने मूसर के बदले में दो दो नये मूसर लै जाव। गाँव में पिल्लीं परन लगीं मूसर बलदावे खों। भाग की बात कै बा जनी दुपरै गई ती नदिया पै सपरन ऊकौ सूदरौ आदमी घरै हतौ सो ऊनें सोची कै ई पुराने मूसर के बदले दो नये मूसर लै लेन दै मोय। बो मूसर लैकें गाड़ी लौ आओ अहीर नें दूरई सें चीन लओ औ ऊखों गाड़ी में धरकें उये दो मूसर दै दये। औ अब ऊनें सोची के अब काय खों दो दो मूसर बाँटो मोओ तो काम होई गओ। जो कोऊ अब मूसर बलदुआवे आय सो ऊ ऊसें कान लगो अब हमें कौन काउसें मूसर बलदुआवने। ओई दिनां सें जा कैनांत चल परी।
गद्य पद्य मिश्रित कथाएँ
गद्य पद्य मिश्रित शैली को चम्पू शैली कहते हैं। इस शैली में खांय चिरई के चेनुआं, मटकावें नौनी चोंच, डुकरो औ झोर नौरा आदि की कथाएँ मिलती हैं।
खायँ चिरई के चैनुआँ लोक कथाः
विलात दिनन की बात है कै एक गाँव में एक पीपर कौ पेड़ों हतो, ऊ पीपर के ऊपर एक सौन चिरइया रत ती। ऊ चिरइया के चैनुआं ओई पेड़े पै, घेंसुआ में धरेते। उड़त उड़त एक दिनां उतै हुन एक ठौ कारौ कउआ कड़ौ, ऊनें चिरइया के चैनुआं देखे, कै ऊकी लार खवै खों, चुअन लगी। औ वो तो घेंसुआ नौं पौंचई गओ। उतईं बैठी ती चैनुअन की मताई चिरइया उनें कई के तोय चैनुआं खानें सो खूब खाले पै तैं अपनों मों तो धो आ। कउआ नें सोची कै जा कत तौ ठीक है अबै धोंयआउत में मौं। सो बौ उड़त उड़त कुआँ लौ पौंचो और बोलो-
कुअल कुअल तुम कुअल जती, तैं देय पनुल्ला, धुवै मुमुल्ला।
खायँ चिरई के चैनुआं, मटकावैं नौनी चौंच।
इत्ती सुनकें, कुआँ नें कई के तैं पैले घड़ा तौ लेत आ औ भर लैजा।
सो कउआ तुरतईं मांटी लौ पौंचो औ बोलो कै-
मटुल मटुल तुम मटुल जती, हम कागजती, तैं देय मटुल्ला, बनैं घड़ल्ला।
खिचै पनुल्ला, धुवै मुमुल्ला, खांय चिरई के चैनुआं, मटकावें नौनी चौंच।
मांटी नें कई तोय कौन नाईं करें। पै तें हिन्ना कौ सींग तौ लै आ औ खोद ले जा।
कउआ हिन्ना लौ पौंच कें बोलो-
हिरन हिरन तुम हिरन जती, हम कागजती, हो, कागजती।
तुम देव सिंगुल्ला, खुदै मटुल्ला, खिचै पनुल्ला, धुवै मुमुल्ला।
खांय चिरई के चैनुआं, मटकावैं नौनी चौंच।
हिन्ना नें कई कै तें कुत्ता खों मौसें लरवे लेत आ, लरतन में मोओ सींग टूट जैये सो लै जइये। कउआ हालउं कुत्ता लौ पौंचो औ कन लगो-
कुतुल कुतुल तुम कुतुल जती, हम कागजती, हो कागजती।
तैं लरै हिरन्ना, इंचे सिंगुन्ना, खुदै मटुल्ला, बनै घडुल्ला।
खिचै पनुल्ला, धुवै मुमुल्ला। खांय चिरई के चैनुआं, मटकावै नौंनी चौंच।
कुत्ता नें ऊसें कई कै तैं मोय पैले पीवे दूद तौ लै आ जीसें मो में तागत आजै।
सो में लर जैओं। कउआ दौरतई दौरत भैंसियालौ पौंचो औ कन लगो-
भिसुल भिसुल तुम भिसुल जती, हम कागजती हो कागजती।
तुम देव दुदुल्ला, पिये कुतुल्ला, लरै हिरन्ना, खिचे सिंगुन्ना।
खुदै मटुल्ला, बनै घडुल्ला, खिचै पनुल्ला, धुवै मुमुल्ला। खांय चिरई ….।
सो भैंस नें ऊसें कई के मोय खाबे खों चारो तौ ले आ। कउआ नें चारे सें कई-
चरूल चरूल तुम चरूल जती, हम कागजती हो कागजती।
तुम चलौ चरूल्ला, खाय भिसुल्ला, देय दुदुल्ला, पिये कुतुल्ला।
लरै हिरन सें, खिचै सिंगुल्ला, खुदै मटुल्ला, बनै घडुल्ला, खिचै पनुल्ला,
धुवै मुमुल्ला। खांय चिरई के चैनुआं, मटकावे नौनी चौंच।
औ सब सुनकें चारे नें कई कै तैं लुआर सें हंसिया तौ बनवा ल्या औ काट
लै जा मैं काय तोखों नाईं करें। कउआ उड़कें लुआर लों पौंचो और बोलो-
लुहर लुहर तुम लुहर जती, हम कागजती हो कागजती।
तुम देव हसुल्ला, कटै चरूल्ला, खाय भिसुल्ला, देउ दुदुल्ला।
पिये कुतुल्ला, लरै हिरन्ना, खिचै सिगुल्ला, खुदे मटुल्ला, बनें घडुल्ला।
खिचै पनुल्ला, धुवै मुमुल्ला। खांय चिरई कै चैनुआ, मटकावै नौनी चौंच।
लुआर नें कई के बैठजा इतै में बनादेत तोय। कउआ बैठ गओ सो लुआर नें तातौ हंसिया कउआ की घिंची पै धर दओ। हंसिया के धरतन की तौ देर भई पै कउआ के मरतन की देर नई भई। औ उतै चिरैया हती सो अपने चैनुअन संगे प्रेम सें रान लगी। इतैक में आव डिप्टी हमाई कानिया निपटी।
इस लोक कथा में आतताई कउआ अपने स्वार्थ के लिए दरदर भटकता रहता है। स्वार्थ से ही उसकी मौत होती है। निर्बल के बल राम होते हैं अतः चिरइया की रक्षा हो जाती है। इस तरह अहिंसा की हिंसा पर विजय होती है।
लघुछंद कथाएँ
बुंदेली में लघु छंद कथाएँ प्राप्त होती हैं जिनके द्वारा छोटे छोटे बच्चों का मनोरंजन किया जाता है इन्हें सुनते सुनते वे बुजुर्गों की गोद में सौ जाते हैं। मैं तो कहूंगा कि ये लघुछंद कथाएँ ‘‘लोरी’’ का काम करती हैं। लोरी का प्रभाव शिशुओं पर जादू की तरह होता है। उसी प्रकार पाँच वर्ष के बच्चों पर लघुछंद कथाओं का असर होता है।
मिंदरो की कथाः-
अल्ल में गई दल्ल में गई, दल्ल में सें मिदरो आई।
मिदरो गई डांगे, डांग में सें लकरी ल्याई।
लकरी ऊनें कुमरै दई, कुमरा नें उये मटकी दई।
मटकी ऊनें अहीरे दई, अहीर नें उये भैंस दई।
भैंस ऊनें राजै दई, राजा नें उये रानीं दई।
रानी ऊनें रसिया खों दई, रसिया नें उये ढोलक दई।
बज मोई ढोलक ढम ढम ढम, ढम ढम ढम।
डुकरो की कथा :- इस कथा को कहते समय बुजुर्ग रोते हुए बच्चों को पंजों पर बैठाकर झुलाते हैं-
तेली के रे तेली के, पाँच पसेरी के, उड़ गये तीतुर,
बस गईं मोर, सरीं डुकइयन लै गये चोर।
चोरन के घरै खेती भई, बा डुकइया मोटी भई।
बा मन मन पीसै, मन मन खाय, बड़े गुरूसें जूझन जाय।
बड़े गुरू की छप्पन छुरी, जीसें जीती मदनपुरी।
मन मन बांदे सौ सौ तीर, एक तीर बांदौ तो,
दिल्ली जाय पुकारो तौ। दिल्ली के मैदान में, दै नगाड़ौ बादसा।
अन्य कथा
इस कथा में छोटे छोटे बच्चे खेलते कूंदते नाचते हैं और गाते हैं।
गोरे हैं गुरियान सा, काले हैं कलयान सा, भैंस को सींग पोलो,
पत्ताल पानी डोलो। खाटई खाट मजीरा बाजैं, रामचन्द कौ हांती नाचै।
राजा के कुंवर, मड़इया के नाती, छींकौ तो नाक कटै।
राजा कौ कुँवर बिआउन जात, छींकइयौ ना पादियो, धू तू तू ………..।
प्रस्तुत लघु छंद कथाएँ बाल विनोद करने में अपूर्ण क्षमता रखती हैं। इनके कहने मात्र से रोता बालक खेलने लगता है और खेलने बाला बालक हंसने लगता है।
विविध कथाएँ
बुंदेली लोक कथाओं में विविध कथाओं के अंतर्गत, राजा रानियों की कथाएँ, दानव और परियों की कथाएँ, मानव पशु पक्षी मिश्रित कथाएँ, पतिव्रता की कथाएँ या सभी सामाजिक, उपदेशात्मक या नीतिपरक कथाएँ आती हैं जिनका वर्णन ऊपर किया जा चुका है।
बुंदेली कथाओं में रूढ़ियाँ या अभिप्राय
लोक साहित्य में कथाओं का विशेष महत्व है। ये, मनुष्य के आदिम स्वरूप को अपने में समेंटे है। इनमें प्राचीनतम रूढ़ियाँ व्याप्त हैं। लोक कथाओं संबंधी कुछ रूढ़ियों का विवेचन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस प्रकार किया है जो शिष्ट साहित्य में भी मिलती हैं। 1. कहानी कहने वाला सुग्गा, 2. स्वप्न में प्रिय दर्शन पाकर आसक्त होना, 3. चित्र देखकर किसी पर मोहित होना, 4. भिक्षुओं या बंदरियों द्वारा कीर्ति सुनकर प्रेमासक्त होना, 5. मुनि का श्राप तथा वरदान, 6. रूप परिवर्तन, 7. षट् ऋतु और बारहमासा के माध्यम से विरह वेदना, 8. हंस, कपौत, तोते आदि द्वारा संदेश भेजना।
उपर्युक्त सभी रूढ़ियाँ बुंदेली लोक कथाओं में भी प्राप्त होती हैं। भारतीय लोक साहित्य की अन्य भाषाओं की कथाओं में भी कुछ अभिप्राय मिलते हैं जेसे- शेर को पौरूष का प्रतीक, गाय को सरलता का प्रतीक, गदहा को मूर्ख का प्रतीक, सियार को चालाक का प्रतीक, तोता मैना को परोपकार का प्रतीक, पीपल को ब्राह्मण का प्रतीक, माना गया है। ये सभी अभिप्राय बुंदेली कथाओं में प्राप्त होते हैं। देखिये-
1. देवी देवताओं- शंकर-पारवती, इन्द्र द्वारा मनुष्यों की सहायता। 2. पशु पक्षी वृक्षों द्वारा मनुष्यों की सहायता। 3. परियों द्वारा मदद 4. दानव एवं डायनों की बेटियों द्वारा मनुष्यों की शादियाँ। 5. किसी दिशा का वर्णन 6. करामाती घोड़ा, माला, फूल या घोंटा। 7. उड़न खटोला या उड़न घोड़ा 8. निर्जीव वस्तुओं द्वारा मदद। 9. जादू के असर से मनुष्य का मक्खी, मच्छर, बंदर, कुत्ता या मोती बनना। 10. मनुष्यों का देवी को सिर चढ़ाना 11. राजकुमारों को देश निकाला। 12. लड्डुओं में जहर का मिलाना 13. लड्डुओं में हीरा, मोती, जवाहरात रखना। 14. बिटिया की चोटी में मुहरें गुहना या लाल रखना। 15. जाँघ में लाल छुपाना 16. मनुष्य का आग उगलना। 17. बच्चों की जगह ईंट पत्थर पैदा होना 18. मेंढक की जगह राजकुमार या राजकुमार का रूप परिवर्तन 19. फोड़ा से मेंढक या लड़का पैदा होना। 20. भटा से लड़का पैदा होना 21. साधू या अन्य श्राप से पत्थर होना। 22. पशु से मनुष्य और मनुष्य से पशु बनना। 23. पुनर्जन्म का याद रहना। 24. पात्र की छिंगरी में अमृत रहना 25. बाघ के दूध से आँखें जुड़ना। 26. बकरी या बेरी के वृक्ष से मुहरें गिरना 27. डायन के प्राण तोते में रहना। 28. एक रात में तालाब, महल, बगीचा बनना 29. पशु पक्षियों से मनुष्यों का विवाह होना 30. पतिव्रता द्वारा गदहा को पति स्वीकारना। 31. काठ की पुतलियों का हीरा मोती निगलना या बोलना। 32. काठ की पुतलियों द्वारा राक्षसों का वध कराना 33. अक्सर छोटे राजकुमार या राजकुमार पर विपत्ति आना, 34. उत्तम कार्य हेतु राजा द्वारा बेटी का विवाह कर आधा राज दे देना। 35. फल या फूल द्वारा गर्भाधान होना 36. सत्य के पीछे परेशान होना 37. नौ, ग्यारह, तेरह संख्याओं का अशुभ होना 38. तीन बचनों में बाँधना 39. भाभी या औरत के ताने पर विदेश जाकर सुंदरी का लाना, 40. दूल्हे द्वारा राजा रानी का विछोह करना, 41. पुत्र रक्त से पत्थर से, मनुष्य बनना। 42. लात से धरती फटना या पहाड़ हटना। 43. राजकुमारी के मुँह से नागिन निकलना, 44. दानव या डायन का मनुष्य भक्षण करना, 45. दानव मारकर उसकी नाक कान काटना, 46. चित्र के बाघ का जिन्दा होना, 47. फल खाने या सूंघने से नाक कान लम्बे होना, 48. फूल के कुम्हलाने से विपत्ति की सूचना, खिलने से हर्ष की सूचना, 49. खून गिरने से विपत्ति कीसूचना, 50. राजकुमारी के हँसने से फूल और रोने से मोती झरना। 51. पसीने की कमाई के पैसों से रूपयों का पेड़ उगना। 52. धोखे से मालिन या डायन का रानी बनना, 53. छै महीने या बारह बर्ष की मर्यादा रखना, 54. धर्म की बेटी या बहिन बनाना। 55. खून के स्नान से गर्भ रहना, 56. खौलते तेल के कड़ाह में गिरकर जिंदा होना, 57. असत्य पर सत्य की विजय होना 58. कथाओं का सुखान्त होना। इसके अतिरिक्त असीमित अभिप्राय इन कथाओं में प्राप्त होते हैं।
बुंदेली लोक कथाओं की विशेषताएँ
बुंदेली लोक कथाअें में निम्नांकित विशेषताएं मिलती हैं- 1. आत्माभिव्यंजना की प्रवृत्ति, 2. कौतूहल एवं जिज्ञासा की प्रवृत्ति, 3. देवताओं के प्रति आस्था, 4. मानव कल्याण की भावना 5. सात्विक प्रेम की व्यंजना 6. व्रत पूजन का महत्व 7. उपदेशात्मक प्रवृत्ति, 8. अलौकिकता से मन की तुष्टि 9. मनोरंजन प्रधान उद्देश्य, 10. लोक विश्वासों की अभिव्यक्ति 11. लोक संस्कृति की रूपरेखा। 12. दानव या डायनों का आतंक, 13. परियों के परोपकारी रूप से सुखानुभूति 14. डाकू चोर, ठगों का चित्रण 15. भय एवं विस्मय की स्थिति का चित्रण 16. सुखान्त भावना से आदर्शवादी रूप की स्थापना आदि।
(द) बुंदेली लोक नाट्य एवं लोक नृत्य
मनुष्य का प्रकृति से चिर परिचित, अन्योन्याश्रित संबंध है। जो अटूट है। चिर है। एक दूसरे का परिपूरक है। प्रकृति का उल्लास, उसकी मुस्कराहट, उसका वासन्ती यौवन जीवन में स्फूर्ति, गुदगुदी उठा अल्हड़ता की अंगड़ाई परक उमंग भरता है। हृदय का उछाह गीत बन फूटता है। मन का बेग कथा बन प्रकट होता है तो अन्तस् की भावातिरेक परक तरंग, कायिक क्रियाओं द्वारा, वाणीं को सशक्त एवं प्रभावशालनी बनाने हेतु, हाव भावों के सहारे व्यक्त होती है। इन्हीं हाव भावों का प्रदर्शन लोक नाट्य है। इसमें संगीत, अभिनय एवं थिरकन का त्रिवेणी जैसा संगम होता है। नाटकों में प्रकृति, समाज, व्यक्ति सभी के समग्र रूपों का दिग्दर्शन होता है। यथार्थ स्थिति की सहज अभिव्यक्ति इनकी मूलाधार हे। इनमें जन-जन की, जन-जन के द्वारा, जन-जन के हेतु आनंद प्रदायनी व्यंजना व्याप्त रहती है। ‘‘लोक नाट्य सामूहिक आवश्यकताओं और प्रेरणाओं के कारण निर्मित होने से लोक कथानकों, लोक विश्वासों और लोक तत्वों को समेंटे चलता है और जीवन का प्रतिनिधित्व करता है।’’
प्रकृति की चिर गोद मनुष्य का आदिम पालना है। इसकी मृदुलता मानव को मुस्कराहट देती रही है तो भयंकरता भय प्रदायनी रही है। अतः आदिम मानव इसकी उपासना करने को विवश हुआ है। भय निराकरण हेतु उपासना का ढंग, वीर भावों के प्रति श्रद्धा का अर्पण, आदिम नाट्य रूपों का प्रथम कायिक प्रयास है जो मानव द्वारा प्रकट होते रहे हैं। ‘‘संसार के प्रायः सभी देशों में नाटक के आदि रूप का उदय किसी न किसी धार्मिक भावना अथवा चेतना के फलस्वरूप हुआ है। वीर पूजा की भावना अथवा धार्मिक आवेश जो कि प्रायः प्राणी मात्र के हृदय में किसी न किसी अंश में निहित रहता है, धीरे-धीरे नाटक का रूप धारण कर लेता है यद्यपि अपने आदि रूप में यह नाटक बड़ा ही साधारण और अपरिमार्जित होता है।’’
इस तरह से मैं कह सकता हूँ ‘‘सामाजिक, धार्मिक उत्सवों का उल्लास उमंग का तरलतम रूप बनकर, बुंदेली लोक नाट्यों के माध्यम से पारा बनकर ढुल-ढुल हो ढुलक पड़ा है। चल चपलता के साथ किलक कर किलकारी भरता है। आँख मिचौनी का खेल रचता है। यह आँख मिचौनी चाहे प्रकृति की हो या मानव की लोक नाट्य का आदिम रूप है। या यों कहिए बुंदेली लोक नाट्य है। बुंदेली लोक नाट्यों में धार्मिक, सामाजिक, संस्कार परक, सामूहिक या व्यक्तिगत जीवन के दुखद सुखद क्षणों के चित्रण को प्रधानता रही है।
बुंदेली लोक नाट्यों का वर्गींकरण
बुंदेली लोक नाट्य में प्रकृति, समाज एवं धर्म तीनों ही वर्ण्य विषय के रूप में अपना विशेष स्थान रखते हैं। प्रकृति जब षट् ऋतुओं की माला धारण कर, धरा और सूर्य की गति से ताल मेल कर गतिमान होती है उसी समय फसलें नव परिधान को धानी रंग में रंगतीं हैं। वृक्ष नव पल्लव धारण करते हैं, टेसू के पुष्प मुस्कराते हैं। पक्षियों की चहक कलरव बन जाती है उसी समय मानव पके गेहुओं की बालों को अग्नि यज्ञ में आहुति देता है। प्रकृति जैसा स्वयं स्वांग भरती है वैसा ही मानव उसके साथ गाकर, थिरक कर स्वाँग भरता है। मानव की मुख्य प्रवृत्ति अनुकरण की होती है वही अनुकरण वह टूटे फूटे भावों के माध्यम से स्वांग, नकल, रावला या राई के रूपों में व्यक्त करता है। प्रकृति ही नहीं धार्मिक या पौराणिक या ऐतिहासिक कथाओं को लोक रंग में रंगकर अभिनीत करता है। रामलीला इसका उदाहरण है। बुंदेलखंड में सामाजिक रीति-रिवाजों एवं संस्कारों पर स्वांग भरने का आम रिवाज है। वैवाहिक कार्यक्रम पर, बाबा या जुगिया का खेल बुंदेली का उत्तम लोक नाट्य है। बुंदेली लोक नाट्यों का वर्गीकरण इस प्रकार है।
- धार्मिक, 2. संस्कार परक, 3. सामाजिक, 4. नृत्य मिश्रित, 5. विविध स्वांग,
- धार्मिक स्वांग :- रामलीला, होली का स्वांग, पारी टोरत को स्वांग, धंमकायनें की नकल या स्वांग, नारे सू अटा को स्वांग, माच खेलवे को स्वांग।
- संस्कार परक स्वांगः- भये बदाये को स्वांग, कुआँ पूजत को स्वांग, जुगिया खेलत को स्वांग, (बाबा को स्वांग)।
- सामाजिक स्वांग :- सास बहू को स्वांग, लुगया आदमी को स्वांग, घसारे को स्वांग, लेवी को स्वांग, डाकू को स्वांग, कोरी, चमार, धोबी, ढीमर एवं कलुआ मेहतर को स्वांग, अहीर को स्वांग, फकीर को स्वांग, घटोइया को स्वांग, गधा या मगर को स्वांग।
- मिश्रित स्वांग :- इसमें नृत्य मिश्रित सभी स्वांग आते हैं।
- विविध :- नक्लें-मांड़ों की नकलें, नटों की नकलें एवं नौटंकी।
रामलीला
तुलसी के राम शील शक्ति और सौंदर्य के अवतार हैं उनका चरित्र इतना उत्तम है कि हर मानव के मानस में उस भव्य रूप की पैठ हो जाती है। राम उत्तरी भारत के जन-जन के कंठहार हैं उनकी लीलाओं का अभिनय ही रामलीला है। बुंदेलखंड में कुंवार माह के प्रारंभ होते ही रामलीला शुरू हो जाती है। रामलीला के राम जन्म, ताड़का बध, सीता स्वयंवर, लक्ष्मण परसराम सम्वाद, राम बनोवास, सीता हरण, लंका दहन, रावण बध आदि घटना दृश्य अति उछाह के साथ अभिनीत किये जाते हैं जिसमें करूणा, श्रृंगार, हास्य, वीर, शांत, रस सभी को आनंद प्रदान करते हैं। रामचरित मानस के संबाद नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं। केशव की रामचन्द्रिका के संबादों का मेल रामलीला को अधिक नाटकीयता प्रदान करता है। बुंदेलखंड की रामलीला में रामायण पाठ के अतिरिक्त बीच-बीच में सामाजिक बुराइयों पर व्यंग्ययुक्त प्रश्न होते हैं उनमें उपदेशात्मक वृत्ति का प्रावधान रहता है। रामलीला के सभी पात्र पुरूष होते हैं। जो औरतों का अभिनय भी करते हैं। पात्रों की साज सज्जा प्राकृतिक वस्तुओं से की जाती है। काजल, केवला, खड़िया, चूना, गेवरी, मुर्दा शंख, रोरी, ईंगुर आदि का प्रयोग पात्र अपने चेहरों को रंगने के हेतु करते हैं। चमकीले मुकुट पन्नियों से, राक्षसों के बड़े-बड़े दाँत ज्वाँर के डंठल (गिण्डोलों) से बनाते हैं। मुखाकृतियों के हेतु दफ्ती एवं मिट्टी के विकराल मुखौटे लगाते हैं। रामलीला के रामदल के पात्र ब्राह्मण होते हैं किंतु राक्षस दल के शूद्र भी बन सकते हैं। रावण पर राम की विजय में असत्य पर सत्य की विजय का भाव निहित रहता है। रावण का पुतला जलाने में बुराइयों को जलाने का भाव है। प्रत्येक व्यक्ति में बुराइयाँ होतीं हैं उन्हीं को नष्ट कर स्वयं का सुधार करना ही बुराई रूपी रावण का नाश है। ऐसा उपदेश रामलीला से प्राप्त होता है।
रामलीला की भाषा
रामलीला की भाषा शुद्ध तुलसी के मानस की भाषा न होकर मिश्रित जन-भाषा होती है। केशव दास, राधेश्याम कथावाचक की भाषा इसमें पाई जाती है। साथ ही लोक भाषा का बाहुल्य इसे जनप्रिय बनाता है।
स्वांग
बुंदेली भाषा का स्वांग लोक नाट्य का एक रूप है। यह नाटकों से पूर्व अभिनीत होते रहे हैं इन्हीं से आधुनिक नाटकों एवं एकांकियों का जन्म माना जाता है। हिन्दी साहित्य में स्वांग की परंपरा प्राचीन है सिद्ध कण्हपा के डौमनी आहान गीत में स्वांग का उल्लेख मिलता है। इन डौमनियों के साथ खेलक्रीड़ा करने की प्रक्रिया स्वांग भरना ही थी। बुंदेलखंड की निम्न जातियों में इसका अवशेष आज भी मिल जाता है। रावला स्वांग की एक पंक्ति इसका प्रमाण है। उसरा में सरक आ कोऊ नइयां, कोऊ नइयां री कितऊं नइयां। उसरा में सरक आ कोऊ नइंया। ये पंक्तियां कण्हपा का अनुसरण कर नारी को रसकेलि हेतु पुकारती हैं। कबीर युग में भी स्वांगों का अधिक प्रचार था, होय जहाँ कहिं स्वांग तमाशा, तनक न नींद सताय रे। कबीर के समय स्वांग ही मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। स्वांगों की परंपरा बुंदेलखंड में आज तक मौखिक रही है। इनका संवर्धन एंव परिमार्जन युगों के अनुरूप अवश्य होता रहा है।
होली का स्वांग
होली के त्यौहार पर पुरूष इकट्ठे होकर स्वांग भरते हैं। एक पुरूष औरत का वेष धारण करता है दूसरा रंग विरंगा चेहरा रंग, सिर पर लंबी पूंछ वाली टोपी रखकर चिथड़ों का वस्त्र पहिनता है। इस स्वांग में श्रृंगारिक चेष्टाओं का अभिनय अधिक रहता है। स्त्री पुरूष एक-दूसरे को रंग गुलाल मलकर हाव भावों से कामुक भावनाओं को व्यक्त करते हैं। विदूषक बीच-बीच में हास्य की पुट देता जाता है।
पारी टोरने का स्वांग
बुंदेलखंड में होली के त्यौहार पर पारी टोरने का स्वांग खेला जाता है। इसमें बुंदेली युवक एवं युवतियां भाग लेती हैं। रंगपंचमी के दिन शाम के समय किसी खुले मैदान में एक मजबूत लकड़ी के लट्ठे को जमीन में गाढ़ा जाता है। जमीन से पन्द्रह या बीस फुट ऊंचे लट्ठे के सिरे पर एक गुड़ की पारी (दस सेर के लगभग) बाँधी जाती है। इस लट्ठे को चिकना करने के लिए एक माह पहले से तेल रगड़ा जाता है। स्वांग के समय गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति की उपस्थिति में ग्रामीण छैला छलिया युवकों की टोलियाँ लट्ठे के चारें तरफ नाचतीं हुई आती हैं। कोई एक व्यक्ति साहस कर लट्ठे पर चढ़ता है औरतें उस पर लाठी का प्रहार करतीं हैं। जब व्यक्ति पारी टोर लेता है, उसे सभी औरतें रंग गुलाल लगातीं हैं आँचल के छोर से उसके चरण छूती हैं। विजयी व्यक्ति प्रत्येक रमणी के कपोलों पर गुलाल मलकर उन्हें एक-एक सेर गुड़ देता है।
धंधकायनों को स्वांग
बुंदेलखंड में राम कृष्ण के चरित्रों को लेकर स्वांग भरे जाते हैं। राम का चरित्र रामलीला के द्वारा अभिनीत होता है। तो कृष्ण का रासलीला द्वारा। कृष्ण जन्माष्टमी के दूसरे दिन, बुंदेलखंड में, कृष्ण के दही लूटकर खाने की नकल धंधकायने के स्वांग के रूप में भरी जाती है। एक कोरी सी मटकी को गेरू और खड़िया से रंगा जाता है उसके अंदर दही भरकर ऊपर ककड़ी के कतरे, जलेबी, छुहारे, गरी, नारियल आदि की मालाऐं पहनाई जाती हैं। दो व्यक्ति रस्सी के दोनों छोर पकड़कर दो वृक्षों पर बैठ जाते हैं, मटकी को बीच में लटका दिया जाता है। मटकी की ऊंचाई धरती से बीस फुट के करीब रहती है, नीचे खड़े व्यक्ति पहले चार फिर उनके ऊपर तीन, फिर दो, फिर एक चढ़कर मटकी तोड़ते हैं। ग्रामीण ‘‘हत्ती घोड़ा पालकी, जे कनैया लाल की’’ पंक्ति दुहरा-दुहरा कर गाते रहते हैं।
नारे सू अटा का स्वांग
कवांर में नौ दुर्गा के समय बुंदेलखंड में कुंवारी लड़कियाँ सुअटा का खेल खेलतीं हैं। समापन रात्रि में, ढिरिया विसर्जन के समय औरतें एवं लड़कियाँ गौरा के विवाह का स्वांग करती हैं। बुंदेलखंड में औरतें इस स्वांग के द्वारा कुंवारी लड़कियों को नये जीवन जीने की कला से, अवगत कराने का प्रयास करती हैं।
भाव खेलत को स्वांग
बुंदेलखंड में लोक विश्वास है कि देवी-देवताओं की सवारी औरत या पुरूष, किसी को भी आ जाती है किंतु कारस देव या गइयन बब्बा की सवारी सिर्फ पुरूष को ही आती है। बुंदेलखंड में ओझा (नावते) भोली-भाली ग्रामीण जनता से, झूठे भाव भरने का नाटक कर, उन्हें डरा धमका कर, उनसे मांस मदिरा या भोजन की अन्य सामग्री ठगते रहते हैं। इन स्वागों द्वारा उन्हीं की पोल खोली जाती है। नकल करने वाला व्यक्ति किसान से कहता है।
तोई लुगाई तौ कुलच्छन आय रे। तो अब तो नास होवे कोई है। कै तो तैं देवतन खों, धुंआँ की कौपें, बगदर के हाड़ औ पथरन की जड़ें लियादै नईं तो तोव लरका मर जै। कजन्त जे नईं दै पाउत तो एक बुकरा, पाँच बोतलें, दारू दे दे। बेचारा भोला ग्रामीण अपने सुख की ओर आश्वत हो उनकी दूसरी शर्त मंजूर कर लेता है। प्रस्तुत स्वांग में ठगों से सावधान रहने की शिक्षा दी जाती है।
भये बदाय और कुआँ पूजत को स्वांग
बुंदेलखंड में संस्कार परक स्वांग भी खेले जाते हैं जिनमें जन्म एवं विवाह के स्वांग प्रमुख हैं। बच्चा होने की खुशी में देहातों में रात भर स्वांग होते हैं। स्वांग खेलने वाले पुरूष पात्र स्त्रियाँ बनकर बच्चा जनने के कष्टों का वर्णन करते हैं। पुरूषों की स्वार्थपरता, सास की निष्ठुरता एवं पड़ौसियों की दुष्टता पर छींटा कसी की जाती है। मानव की कमजोरी है कि वह लड़की पैदा होने पर दुखी और पुत्र पैदा होने पर सुखी होता हे। इस मनोवैज्ञानिक सत्य को इन स्वांगों में व्यक्त किया जाता है। विवाह संस्कार का स्वांग जुगिया या बाबा कहलाता है। जब बरात लड़का वाले के घर से लड़की वाले के घर चली जाती है उस समय औरतें जागरण कर, घर की सुरक्षा करने के लिए जुगिया या बाबा खेलती हैं। बुंदेलखंड में यह स्वांग प्रत्येक जाति में होता है। इसमें एक औरत जो स्वस्थ और चंचल होती है, पुरूष वेश धारण कर जुगिया बनती है इसे बाबा भी कहते हैं। औरतों के झुंड के साथ जुगिया मूसल या बेलना लेकर मुहल्ले के पुरूषों को जगाता है। अंत में जुगिया की शादी एक औरत से, सब नेंगाचारों की रस्म अदा कर की जाती है। यही स्वांग अवधी में नकटौरा कहलाता है। ‘‘नकटौरा विवाह के अवसर का एक प्रसिद्ध स्वांग है यह प्रत्येक जाति में प्रचलित है।
सास बहू का स्वांग
बुंदेलखंड में सास बहू में प्रतिदिन झगड़ा हुआ करता है। यह झगड़ा दो परिवारों के आचार विचार एवं संस्कारों का है। सामाजिक कुरीतियां इसमें अपना योगदान करती हैं। सास बहू को बेटी तुल्य स्नेह नहीं दे पाती है बहू सास को माँ नहीं स्वीकारती इसी से झगड़ा उत्पन्न हो जाता है। प्राचीन परंपराऐं एवं नवीनतम रीतियों का तालमेल न होने के कारण भी झगड़ा होता है। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति सास बहू के स्वांग में होती है। एक पुरूष बुढ्ढी सास दूसरा बहू बनता है। सास बहू पर रौब गांठती है बहू उसकी उपेक्षा करती है अंत में बहू पति को लेकर अलग हो जाती है। सास दर-दर की ठोकरें खाने के बाद, बहू की महत्ता स्वीकार कर, पुनः परिवार में सम्मिलित हो जाती है। स्वांग में यह गीत गाया जाता है।-
सास बेंचे हरदी ननद विकवावै, हम ठांड़े देखैं बलम बेचें धनियां।
सास कौं ल्याये धुतिया, ननद कों ल्याये लांगा।
हम कौं ल्याये राजा रंग उचटू चुनरिया।
सास कौं ल्याये लडुआ, ननद कों ल्याये पेरा।
मौ कों ल्याये राजा सूके गुर की डिगरिया।
पुत्र पैदा होते ही उसका पति उसे लेकर अलग हो जाता है। सास, ननद पछतातीं रह जाती हैं।
सास देखें ठांड़ी ननद कें भई बिटिया,
मोरें भये नंदलाल, झुलांय राजा पलना।
लुगया आदमी को स्वांग
बुंदेली स्वांगों में समाज की स्थिति सजीव हो उठी है। लुगया स्वांग में उन पुरूषों पर व्यंग्य किये जाते हैं जो पत्नी के आते ही कुटुम्ब के अन्य सदस्यों को विस्मृत कर देते हैं। इस स्वांग में बूढे माता-पिता, पति-पत्नी एवं बहिन पाँच पात्र रहते हैं। सभी पात्र पुरूष ही होते हैं। पति बना व्यक्ति औरत को कंधे पर विठा कर चलता है। माता-पिता के गले में रस्सी बांधकर उन्हें घसीटता है। ननद उसका पूरा सामान अपनें कंधों पर उठा कर चलती है। माता-पिता जब किसी वस्तु की इच्छा करते हैं तो पुत्र उन्हें दुतकारता है किंतु पत्नी से स्वयं बार-बार इच्छा तृप्ति के लिए पूछता है। इसी अवसर पर एक व्यक्ति आकर सबका परिचय पूंछता है जिसे स्वांगों में पूंछने वाला कहते हैं। यह पूंछने वाला व्यक्ति लुगया पुरूष को डांटकर उपदेश देता है।
कल में चेतो रे दगाबाजी आवौ।
जोरे हांत मरद तिरिया सें, तौऊ न दबै लुगाई।
बैन भनैजे कोऊ न मानैं, सारी नेउत बुलाई।
बाप मताई खों लातन मारैं, तिरिये कंठ लगाई।
फकीर को स्वांग
सामाजिक स्वांगों में फकीर का स्वांग बुंदेलखंड का अति उत्तम स्वांग कहलाता है। इसमें बैरागियों पर कँटीली चोट की गई है। इसके साथ भ्रष्ट कोतवाल, सिपाही, चौकीदार एवं शाहजादे आदि की घिनौनी आदतों का भंडा फोर किया गया है। सभी एक दूसरे से बढ़कर हैं। ऊपर से शिष्ट दिखने वाले अंदर से गिरे हुये हैं। इस स्वांग का कथानक एक वेश्या से चलता है। वेश्या के घर ऐश करने के लिए पहले फकीर आता है फिर चौकीदार, सिपाही, दरोगा एवं शाहजादे सभी आ जाते हैं। दरबाजा देर से खुलने पर सभी वेश्या को डाँटते हैं। वेश्या चतुर है वैरागी को बूढ़ी औरत बनाकर चकिया पीसने बैठा देती है। चौकीदार को उल्टा लिटा कर दियट बना देती है। सिपाही को औरत बनाकर अनाज साफ करने को देती है। जब शाहजादे आते हैं उस समय दरोगा जी को सण्डास में बंद कर देती है। शाहजादे के पूंछने पर वह सबके यथार्थ रूप को प्रकट कर देती है। शाहजादा सभी को दण्ड देता है। इस तरह से स्वांग में समाज के उत्तरदायी व्यक्तियों एवं दुहरे व्यक्तित्व से जीने वालों पर करारा व्यंग्य है। इससे शिक्षा ग्रहण कर ग्रामीण सोचता है वैश्या पैसे की होती है व्यक्ति विशेष की नहीं। उसका सच्चा प्रेम धन से होता है, धन ही उसका पति है और परमेश्वर भी।
डांकू को स्वांग
बुंदेलखंड में अभिनीत डांकू के स्वांग में समाज के दो वर्ग रहते हैं एक वर्ग डांकुओं का होता है, दूसरा वर्ग शोषण करने वाले सेठों का होता है। समाज में उपेक्षित या सताया हुआ व्यक्ति डाकू बनकर चालाकी से सेठ के किवाड़ खुलवाता है, कंजूसी के कारण सेठ धन नहीं देता है, डाकू उसको तेल में डुबो-डुबो कर जलाते हैं। सेठ जलता हुआ मर जाता है किंतु जीते जी धन नहीं देता है। अंत में डाकू धन ले जाते हैं यह धन लड़कियों की शादी, मंदिरों के निर्माण या गरीबों पर व्यय किया जाता है। स्वांग का अंत दुखांत होता है। वेश्या के फेर में पड़े डाकू को कैद हो जाती है और उसे फांसी पर चढ़ा दिया जाता है। डाकू का करूणिम अंत सभी को इस पेशे से विमुख होने का उपदेश देता है। जनता सोचने लगती है, धन दे तो धर्म दे। ताकत दे तो चरित्र दे। मन दे तो प्रेम दे और शासन दे तो न्याय दे।
घसारे का स्वांग
बुंदेलखंड में श्रमिक वर्ग के स्वागों में घसरे का भी एक स्वांग है। इस स्वांग की विशेषता यह है कि श्रृंगार मिश्रित हास्य के सृजन हेतु पात्र को धोखे में डालकर, जन-समूह में निर्वस्त्र कर दिया जाता है। जिस व्यक्ति को घसारे का स्वांग बनाया जाता है उसके हाथों को सीधा कर उसमें एक लाठी बाँध देते हैं। कमर में एक लंगोटी मात्र लगाकर उसमें हंसिया लटका दिया जाता है। घसारे वाला पात्र घास बेचता हुआ गाता है।
लै लो हरे घांस को गट्ठा।
एक मुठी को पूरा बांदे, डेड़ मुठी को गट्ठा।
गैल गली में ररियां कर रओ, धरैं मुड़ी पै गट्ठा।
चुनी भुसी कीं रोटीं खाबौ, पिओ पेट भर मट्ठा।
पौंदन पाछूं हंसिया खौंसें, जोरो बनो दुपट्टा।
मो गरीब पै औ मालिक, जिन करो कोउ रे ठट्ठा।
कलुआ मैतर को स्वांग
इस स्वांग में काली पोशाक पहनकर एक व्यक्ति कलुआ मैतर बनता है। वह झाडू लगाता हुआ यह गीत गाता है।
अरे मोरे कलुआ मैतर आंव रे नगर में, कलुआ मैतर आव रै।
अमाउस पूनें रोटी को लैवो, हरदम कायखों आव रे।
जूंठन-जांठन घरई खों ले गओ, द्वारे पै नईं खाव रे।
जो कऊ कलुआ द्वारे पै खावै, मरकैं नोन भंजावरे।
अंगला बंगला झारत फिर रओ, खोरन-खोरन धाव रे।
धोवियों का स्वांग
धोवियों के स्वांग में धोबी और धोबिन गधे पर कपड़े रखे आते हैं। धोबी अपनी गरीबी का यह गीत गाता है।
कउआ के बोलैं अरे मउआ भुंजे, भर दुपरै लटन की मार।
दिन डूबें अरे डुबरी चड़ी, भोर मची ज्योंनार।
काउऐ कठैला अरे दो-दो दये, काउऐ दये दो चार।
घर को बूड़ो अरे मिलस्या गओ, हंड़िया लै गऔ तला की पार।
ढीमरों का स्वांग
ढीमरों के स्वांग में, एक व्यक्ति बैठी हुई भीड़ पर धोती का जाल फेंक, मछली पकड़ने का अभिनय करता है। स्वांग पुरूषों की ओर इशारा कर, सौंरला, सोंरा तथा औरतों से खड्डिआ, लौंचिआ, सिंगी, सिन्नी आदि शब्दों का उच्चारण करता है। खड्डिआ का अर्थ जीर्ण शीर्ण खपच्ची की तरह चपटे मुँह वाली औरत होता है। सिन्नी सोलह साल की युवती को कहते हैं। लौंचिया अधेड़ अवस्था की प्रतीक है। पुरूषों के लिए सोंरला एवं सौंरा यही अर्थ रखते हैं। इस स्वांग में यह गीत गाया जाता है।
गई-गई रे करौंदा खान, अकेली मोड़ी ढिमरा की।
ऊखों ले गये पकर कैं, सांसऊ गबरू ज्वान। अकेली मोड़ी ढिमरा की।
बेला में ढिंमरिया मौंजे करे, अरे मौजें करे ओ जू मौजें करे।
एक-एक सिंगाय के दो-दो करे, बेला में ढिमरिया मौजें करें।[
अहीरों का स्वांग
बरेदी को स्वांग :- अहीरों या बरेदी के स्वांग में पशु चारन लीला का स्वांग भरा जाता है। बरेदी बना पुरूष भीड़ में किसी व्यक्ति को पड़ा, किसी को बैल एवं छैला को खेला कहता है। औरतों में किसी मोटी औरत को भैंस, युवती से कलुरिया कहता है। स्वांग गीत इस प्रकार है।
अरे जेई आय रे जेई आय जेई आय, मोरी भूरी भेंसिया जेई आय।
मोरि कल्लू कलुरिया जेई आय, कल्लू की बछिया जेई आय।
मोरो डूंडो बेलवा जोउ आय, मोरी पड़ई को बच्छा जोउ आय।
लेबी का स्वांग
बुंदेली लोक साहित्य समय और युग के अनुसार विकसित होता रहा है। इसीलिए वर्तमान सरकार की लेवी वसूली पर नया स्वांग भरा जाने लगा है। इसमें शासन एवं नौकरों पर कटु व्यंग्य कर बतलाया जाता है कि लेवी उन पर लगाई जाती है जिनके फसल पैदा नहीं होती। जमींदार और नेता इससे मुक्त रहते हैं क्योंकि कुछ ही पैसे लेकर नौकर इन्हें लेवी वसूली की छूट दे देते हैं। यही सब बुराइयाँ इस स्वांग में दर्शाइ जाती हैं।
नृत्य मिश्रित स्वांग
बुंदेलखंड के सभी स्वांग अभिनय और नृत्य मिश्रित हैं। इसलिए इन्हें नृत्य मिश्रित स्वांग कहा जाता है।
विविध स्वांग
बुंदेलखंड में जन्मोत्सव या विवाहोत्सव पर भांड़ जाति कुछ नकलें मनोरंजन के लिए करती है जिन्हें भांड़ों की नकलें कहते हैं। भांड़ अपनी नकलों में समाज या व्यक्ति विशेष की हास्य परक स्थिति चित्रित करते हैं। किसी सजी संवरी युवती की नकल करते हुए, भांड़ यह गीत गाते हैं।
काय खों री कारे ढिक गैरे कजरा दये, ओ बिन्नू बूंदा दमकाउत लिलार।
सास ससुर तोरे अंदरा धरे री, लंगड़ा लूला जनम के गमार।
बलम तोरो बारे को हिजरा री, बीते सूने तोय भादों, साउन, क्वाँर।
अवधी में भांड़ों की नकल में इसी भाव का गीत प्राप्त होता है।
कैहि पै दिहिउ ढेपार दार कजरा, सास तोरी अंदरी ससुर तोर लंगड़ा।
तू अलवेली भतार तोर हिजड़ा। केहि पै दिहिउ ढेपार दार कजरा।
नटौं की नकलें
बुंदेलखंड में नट जाति विवाह के अवसर पर नकलें करने के अतिरिक्त गावों-गांवों में, वीर पुरूषों की यशोगाथा गाती हुई खेल तमाशा दिखाती है। गीत के बोल इस प्रकार हैं।
मउआ भूंजू खपरिया में, पारीछत ने घमके दुपरिया में।
गोंउअन की रोटी औ मारूं भटा, पारीछत के मारैं कड़ आय गटा।
भगे फिरंगी महुवे खों जांय, पारीछत राजा खदेरत जांय।
नौटंकी
बुंदेलखंड में लोक नाट्यों के अंतर्गत नौटंकी भी खेली जाती है। इसका रंगमंच चलता फिरता होता है। वाद्य यंत्रों में नगड़िया, नगाड़ा एवं हारमोनियम हैं। नौटंकी में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र, मोरध्वज, दहीवाली, पूरनमल, रूपबसंत आदि की गाथाएँ अभिनीत की जाती हैं। अभिनय करने वाले भांड़ होते हैं। नौटंकी प्रारंभ होने के पहले देवी पूजन की नकल की जाती है। गीत इस प्रकार है।
माई तोरे मड़नो अंदरा पुकारे, देव (लुगाई) घरै हो।
माई तोरी लागी किवरिंयां।
नकलों के उपरांत नौटंकी खेली जाती है। अंत में हास्य के लिए आल्हा गाया जाता है।
अरे हाल सुनो एक नारी को, तीन कुआँ को पानी पी गई चौथी कुइया खारी को।
खसम ससुर को सब धन खा गई, सबरउ पइसा उदारी को।
नरदा ऊपर मूंतन बैठी, पुल बैगओ निवारी को।
बहुरूपिया का स्वांग
बुंदेलखंड में बहुरूपिया का स्वांग भी भरा जाता है। एक व्यक्ति कभी मुनीम कभी कंजूस सेठ या काली माई बन कर घर-घर घूमता है। प्रत्येक घर से उसे दान में आटा या पैसा दिया जाता है। इसे बहुरूपिया का स्वांग कहते हैं।
बुंदेली लोक नृत्य
लोक साहित्य में लोक नृत्य ही पहली विधा है जिसका जन्म प्रकृति के उल्लास के साथ हुआ है। लोक नृत्य में लोक आनंद की रसानुभूति का प्रस्फुटन होता है। लोक नाट्य के संबंध में डॉ. सत्येन्द्र ने कहा है कि लोक नाट्य का जन्म तीन वासनाओं की प्रक्रिया है। ‘‘आकर्षण के उपलब्ध करने की चेष्टा से, अनाकर्षक से बचने की चेष्टा से तथा इन चेष्टाओं के लिए टोने के रूप में प्रत्येक नृत्य में किसी न किसी प्रकार के टोने संकेत से मेघ वर्षा के लिए नृत्य किये जाते हैं। अति वर्षा हो तो उसे रोकने के लिए नृत्य किये जाते हें। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नृत्य किये जाते हैं। देवता का शरीर में आवाहन करने के लिए नृत्य होते हैं। फसल अच्छी हो इसलिए नृत्य होते हैं… विवाह के अवसर पर भी आनुष्ठानिक नृत्य का विधान रहता है ….। लोक नृत्यों का विषय जीवन चक्र भी होता है। यौन संकेत कृषि तथा संतति वृद्धि, भूत प्रेत निवारण, जादू टोना, ऋतु आवाहन, विवाह, जन्म, मृत्यु से सभी किसी न किसी रूप में संकेत मुद्राओं अथवा प्रतीक अभिप्रायों से नृत्यों के द्वारा प्रकट होते रहते हैं।’’बुंदेली लोक नृत्य इन्हीं अभिप्रायों को अपने में समेंटे हैं इन्हीं लोक नृत्यों में शास्त्रीय नृत्यों का मूल छिपा रहता है। शास्त्रीय नृत्य नियम आवद्ध होता है जबकि लोक नृत्य सहज स्वाभाविक स्वछंद होता है। नृत्य शिशु की शैशव क्रीड़ा की तरह स्वाभाविक है। उसमें तारूण्य है, यौवन है, उभार है, गति है और सबसे परे सृजन की तल्लीनता है।
बुंदेली नृत्य की परंपरा सामान्य चेतना के बहाव के साथ चलती है। आदिम युगीन शिकारी प्रवृत्ति से लेकर सामूहिक रूप में इसका प्रदर्शन होता रहा है। बुंदेली नृत्यों में बुंदेलखंड की संस्कृति और सभ्यता अब भी अक्षुण्ण है।
बुंदेली लोक नृत्यों के प्रकार
बुंदेलखंड में कई प्रकार के लोक नृत्य प्राप्त होते हैं। श्री रामचरन हयारण मित्र ने अपनी पुस्तक बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य के अध्याय- बुंदेलखंडी लोक नृत्य- के अंतर्गत कर्मा नृत्य, शैला नृत्य एवं अहारी नृत्य की चर्चा की है किंतु मेरे मतानुसार बुंदेली लोक नृत्यों के प्रकार इस तरह हैं।
- कर्मा नृत्य 2. शैला नृत्य 3. जाति परक कांड़रा नृत्य, चमरउआ नृत्य, ढिमरया नृत्य, अहीरा नृत्य। 4. मेला नृत्य 5. राई नृत्य 6. रावला नृत्य 7. अन्य नृत्य- लाकौर नृत्य, चीकट नृत्य, बहू उतारने का नृत्य, हिजड़ों का नृत्य, बंदर-बंदरियों एवं भालुओं का नृत्य।
कर्मा नृत्यः- कर्मा नृत्य आदिवासी, गौंड़ बैंगा रावतों का नृत्य हैं। यह नृत्य वन संस्कृति का प्रतिनिधि नृत्य है क्योंकि इसे वन्य जातियां ही अधिकतर नाचती हैं। इस नृत्य के तीन विभाग हो सकते हैं।
- पुरूष नृत्यः- इस नृत्य में केवल पुरूष ही सम्मिलित होते हैं।
- स्त्री नृत्य :- यह सुआ नृत्य भी कहलाता है। इसमें स्त्रियाँ कानों में धान की वालें खोंसकर नाचती हैं तथा सुआ की उपासना करती हैं। इस नृत्य में केवल स्त्रियाँ भाग लेती हैं अतः इसे स्त्री नृत्य कहते हैं।
- सम्मिलित नृत्य- इस नृत्य में स्त्रियाँ एवं पुरूष सम्मिलित होकर नाचते हैं। कर्मा नृत्य के गति योजना के अनुसार अन्य प्रकार इस तरह हैं।
- लहकी कर्मा :- इसमें पुरूष वाद्य यंत्र बजाते हैं। एक तरफ से औरतों की टोली हाथ मिलाकर नाचती है, दूसरी ओर से पुरूषों की टोली तीव्र गति से नाचती आती है।
- थापी कर्मा :- यह नृत्य भी सम्मित नृत्य है किन्तु इसकी गति मन्थर होती है।
- झूमर या बैगानी झूमर :- इस नृत्य में स्त्री और पुरूष मण्डलाकार होकर नाचते हैं। इस नृत्य में गति के साथ संगीत की सुमधुर ध्वनि मन को मोह लेती है।
- खलहा कर्मा या झुलनिया :- यह अर्द्ध- मण्डलाकार नृत्य है। इस नृत्य में औरतों के बनाये घेरे के अंदर पुरूष नाचते हैं किंतु पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों के नृत्य में गति अधिक होती है।
कर्मा किसी प्रकार का भी नृत्य हो, इस नृत्य को आदिवासी पूर्ण तल्लीनता से नाचते हैं। मादर की आवाज मेघ सी उमंग उड़ेलती है। जन-जन का मन अपने दैनिक कर्मों की अभिव्यक्ति नृत्य द्वारा करने लगता है। ‘‘जीवन के हर कोने में इस नृत्य की पैठ है। यहाँ तक कि किसी की मृत्यु के बाद भी आदिवासी कर्मा नाचते हैं। अवश्य ही यह नृत्य महा सृजन और जीवन पर अटूट विश्वास का नृत्य है। यदि हम इस नृत्य के प्रतीकों का विलगाव करें तो इस नृत्य का सहायक वाद्य मादर घन गर्जन का प्रतीक है और पुरूषों की झूम वायु का झहराकर बहना है तथा स्त्रियों की लचक हरी-हरी वन शाखाओं का झुकना है। इस प्रकार संपूर्ण नृत्य घन वर्षण का प्रतीक है। आदि मानव वर्षा काल से अवश्य प्रभावित हुआ होगा क्योंकि यह ऋतु संघर्ष और सृजन प्रधान है, कर्म प्रधान है और कला यदि अनुकरण जन्य है तो इस प्रभाविनी ऋतु का अनुकरण लोक चेतना ने अवश्य किया होगा, और यदि कला अक्षुण्ण है तो वह अनुकरण अवश्य आदिवासियों के कर्मा नृत्य में आज भी जीवित है।
शैला नृत्य
शैला नृत्य बुंदेलखंड के पौरूष का नृत्य है इसमें पुरूष मात्र भाग लेते हैं। शैला नृत्य में आदिकालीन शिकारी युग की संस्कृति मुखरित होती है। ‘‘यह नृत्य शिकार युग की सभ्यता का संवरा हुआ अवशेष है। हकवारों के समूह हांका खेलते समय जिस तरह लाठी बजाते हैं, ढोल बजाते हैं और ध्वनि पैदा करते हैं उसी की कलात्मक परिणति शैला नृत्य है।’’ शैला नृत्य में पुरूष अपने हाथों में सूखी लकड़ी के तेल भीगे डंडे लेकर एकत्रित होते हें। नाचने वालों में एक बरेदी तथा मौन धारण कर पशु का स्वांग भरने वाले होते हैं। मौन धारण करने वालों को बुंदेली में मौनिया कहते हैं। ये नाचते समय कमर में झेला पहनते हैं तथा सिर पर मौर बांधते हैं। इस नाच के प्रमुख वाद्य यंत्र ढोलक, रमतूला, कसावरी एवं मजीरा प्रधान हैं। नृत्य में डंड़ों के स्वर का ताल मेल रहता है। मौनिया कभी बैठकर कभी लेटकर या ऐड़ी के बल बैठकर नाचते हैं। बरेदी दिवाई गीत गाता है। अरे भइया औ औ …..।
चित्रकूट के घाट पै भइया भई संतन की भीर रे।
सो तुलसीदास चंदन घिसैं, सो तिलक देत रघवीर रे।
हरौला शैलाः- यह नृत्य हार जीत के निर्णय को लेकर दो गाँव वाले नाचते हैं।
भरौला शैला :- यह नृत्य शादी के अवसर पर नाचा जाता है। नाच पद्धति पूर्वत ही होती है।
झुलनिया शैला :- इस नृत्य में पुरूष बैठकर या झूम-झूम कर मस्ती से नाचते हैं। इसीलिए इसे झुलनिया शैला कहते हैं।
बैठक शैला :- इस नृत्य में पुरूष बैठकर ऐड़ी के बल नाचते हैं। कभी एक पाँव कभी दूसरा पाँव आगे पीछे फेंकते हैं। कभी पीठ के बल लेटकर भी नाचते हैं।
शिकार शैला :- शिकार के हांके का स्वांग भरते हुए नाच को शिकार शैला कहते हें। नर्तक घेरा बनाकर सिमट कर पास आते जाते हैं। डंड़ों का स्वर ताल में मिला रहता है इसी को शिकार शैला कहते हैं।
अटारी शैला :- अटारी शैला में कृष्ण की माखन चोरी की नकल की जाती है। इसमें क्रमशः नीचे चार, ऊपर तीन, उनके ऊपर दो फिर एक पुरूष चढ़कर नाचते हैं इसी से इसे अटारी शैली कहते हैं।
राई नृत्य
बुंदेलखंड का सबसे प्रसिद्ध नृत्य राई नाच है। गुजरात में जैसे अरबी नाच प्रसिद्ध है वैसो ही बुंदेलखंड में राई नाच। बुंदेलखंड में यह बारह मास नाचा जाता है क्योंकि यह मानव के उल्लास का नाच है। जब ही उमंग उमंगती है पाँव थिरकने लगते हैं। मृदंग की थाप पर घुंघरू झनझना जाते हैं। होली के अवसर पर राई नाच में कई बेड़नियां (नर्तकी) नाचती हैं। इसमें फागें गाईं जाती हैं नाचने वाली के साथ मृदंग वाला नाचता है। नाई तेल का जलता पलीता बेड़नी के मुँह के समीप किये रहता है जिससे दर्शकों को उसका चेहरा दिखाई देता रहता है। बेड़नी के अभाव में पुरूष औरत बनकर नाचते हैं। यह नाच पाँच-पाँच रात तक चलता है। बुंदेलखंड में उबौरा (टीकमगढ़) की राई बहुत प्रसिद्ध है इसके लिए उबौरा में महीनों से तैयारियाँ होती हैं। लोग मचानों पर बैठकर राई देखते हैं। ठाकुर परिवार की बहुओं को नृत्य देखने की विशेष व्यवस्था होती है। रंगमंच खुला चौरस मैदान होता है। मृदंग बजाने वाले तथा बड़नी में हार जीत के लिए होड़ लग जाती है। इस नृत्य के बीच-बीच स्वांग भी निकलते हैं जो राई के स्वांग कहलाते हैं। निवाड़ी (टीकमगढ़) ग्राम में कौंसिया बेड़नी (नर्तकी), गजाधर दांगी, (ढोलक बादक) तथा केंचू धोबी (स्वांग भर-भर कर नाचने वाला) दो चार जिलों में प्रसिद्ध थे। कौंसिया नाचने में, गजाधर ढोलक बजाने में और केंचुआ स्वांगों में कभी थके ही नहीं हैं। उनकी हार-जीत का फैसला आपस के समझौते से होता था। कौंसिया बेड़नी लोक कवि ईसुरी की भक्त थी वह सिर्फ उन्हीं की फागें गाती थी और उन्हीं की फागों पर नाचती थी। बिल्कुल जैसे मीरा कृष्ण के पदों पर थिरकती थीं। आज कौंसिया नहीं है, निवाड़ी में राई का वह आनंद नहीं है किंतु कौसिया का गाया गीत आज भी बूढ़े बुजुर्ग ग्रामीणों के अधरों पर मचलता है।
रातें परदेशी संग सोई, छोड़े गई निमोई।
अंसुआ ढड़क परे गालन पै, जुवन भींज गये दोई।
गोरे तन की चोली भींजी, दो दो बेर निचोई।
ईसुर परी सेज के ऊपर, हिलक-हिलक मैं रोई।
यह गीत कौसिया का प्राणिम गीत था क्योंकि बेड़नी का हर कोई होकर भी अपना कोई नहीं होता है। सभी उसके यौवन के ग्राहक होते हैं। जीवन का साथी कोई नहीं होता, मन का मीत कोई नहीं होता। इस गीत को गाते-गाते वह रो देती थी। गजाधर और केंचू गद-गद हो जाते थे। विरह व्याकुल दर्शक चुपचाप सुनते रहते थे कि अन्य टोली नृत्य शुरू कर देती थी। दर्शकों की अपार भीड़ उमड़ती रहती है। राई नृत्य के संबंध में कहा भी है। ‘‘बुंदेलखंड में राई के नाम से जितने दर्शक इकट्ठे होते हैं उतने और किसी नाच तमाशे में नहीं होते।
रावला नृत्य
बुंदेलखंड में धोबी, चमार, बसौर, मैहतर, काछी, ढीमर, अहीर, गड़रिया, कोरी आदि के यहाँ रावला नाच होता है। रावला नाच व्यवसायिक लोगों द्वारा शादियों में नाचा जाता है। इसमें एक पुरूष औरत एवं दूसरा पुरूष विदूषक बनता है। हारमोनियम, सारंगी, मृदंग, झीका, कसावरी एवं रमतूला आदि इसके प्रमुख वाद्य यंत्र हैं। राई नृत्य यदि नारी भावना परक बेड़नी नृत्य है तो रावला उसी का पौरूष रूप है। राई से ही रावला नृत्य निकला है। रावला में स्वांग भी भरे जाते हैं किंतु नृत्य प्रधान होता है। झाँसी और टीकमगढ़ जिलों में श्री जट्टे धोबी मऊरानीपुर का रावला प्रसिद्ध है।
धोबियों का कांड़रा नृत्य
बुंदेलखंड में धोबी जात का नृत्य कांड़रा कहलाता है। कांड़रा फिरकी खाकर नाचा जाता है। जैसे मठा विलोरने में कड़ैनिया (रस्सी) घेर-घेर घूमती है उसी प्रकार नाचने वाला फिरकी में घूमता है। अतः इसे कांड़रा नाच कहते है। दूसरे शब्दों में, घेरे को बुंदेली में कौंड़ा कहते हैं अतः घेरे में नाच करने के कारण इसे कांड़रा नाच कहते हैं। नाचने वाला श्वेत रंग का बागा (पैरों तक नीचा कुर्ता) पहिनता है, पैरों में घुंघरू और सिर पर पाग बांधता है। पाग में हरी पंख की कलगी लगाई जाती है। इस नृत्य में विरहा गीत गाया जाता है। कांड़रा नृत्य धोवियों की शादी में अनिवार्य रूप से नाचा जाता है इस नृत्य के अभाव में बरातें तक लौटा दी जाती हैं। बुंदेलखंड में धोवियों को इस नाच से इतना प्रेम है कि वे अन्य जातियों को इस वेश भूषा में नाचने नहीं देते हैं। विरहा को बुंदेली में बिरा कहते हैं। बिरा इस प्रकार है,।
सोनों होय तो पेरियो, नातर नागे भले दोई कान।
छीता होवे तो व्याइयो, नातर क्वांरे श्री भगवान।
रानीपुरा में मृदंग बजो रे, और मऊ में बजी मोचंग।
नाचत आवत पुरानी मऊ की बरेठन की सांस के गोरे अंग।…
अरे भाले की अनी से टो डारो पलेरा, भाले की अनी सें।
घर नइंया रइया राव जू, घरै नइयां किसोरी महराज।
घरै तो नइयां रनदूला, को आड़ी करत तरवार। भाले की अनी सें ….।
ढिमरया नाचः- बुंदेलखंड में ढींमर जाति शादियों में नाचती गाती हैं। इसे ढिमरया राग या नाच कहते हैं। मुख्य वाद्य यंत्र लोटा, सारंगी होते हैं। लोटे को लोहे की छड़ों से बजाया जाता है। इसमें औरतें या पुरूष औरत बनकर नाचते हैं।
चमारों का नाच :- चमारों के यहाँ रावला नाचा जाता है। नाच के साथ ये रैदास के भजन गाते हैं और स्वांग भी भरते हैं। इनके स्वांग श्लील और अश्लील दोनों होते हैं। वाद्य यंत्रों में सूपा और मटके का प्रयोग करते हैं।
अहीर नृत्यः- बुंदेलखंड में मोनिया नृत्य अहीरों का ही नाच है। अहीरों की औरतें शादियों में झुंड़ बनाकर नाचती हैं।
मेला नृत्य :- मेला नृत्य में औरतें झुंड के झुंड बनाकर नाचती हैं। बुंदेलखंड की रमणियां पैजनों में कंकड़ डालकर घण्टों तक नाचती रहती हैं। कभी हाथ मटकाती है कभी चुटकी बजाती हैं। नाचते-नाचते कभी आगे कभी पीछे जाती हैं। मृदंग की तेज लय पर नृत्य गति चरम सीमा पर पहुँच जाती है।
लाकौर नृत्य :- बरात के डेरे पर औरतें लाकौर जाती है इसी समय औरतें मृदंग पर नाचती हैं। पुरूष कपोलों पर गुलाल मलते जाते हैं।
चीकट एवं बहू उतारने का नृत्य :- बुंदेलखंड में शादी के समय व भात लाने की प्रथा है। इस समय बहिन भाई से चीकट उतारती है। इस समय के नृत्य को चीकट नृत्य कहते हैं। बुंदेलखंड में नई बहू आने पर सास बहू को गोद में लेकर नाचती है इसे बहू उतारने का नृत्य कहते हैं।
देवी नृत्यः- बुंदेलखंड में यह विश्वास है कि देवी की शक्ति पुरूष या औरत में भाव भरने के रूप में आती है। भावावेश वशीभूत हो औरत नृत्य करती रहती है। इसे देवी का नृत्य कहते हैं।
हिजड़ों का नृत्य :- बुंदेलखंड में जन्मोत्सव एवं विवाहोत्सव पर हिजड़े नाचते हैं। ये नाच दिखा, बरातियों या घरातियों से इनाम पाकर चले जाते हैं।
बंदर-बंदरियों एवं भालुओं का नृत्यः- बुंदेलखंड में कंजर या अन्य घुमक्कड़ जातियां गाँव-गाँव में घूमकर बंदर-बंदरियों एवं भालुओं का नृत्य दिखाते हैं। रीछ दो पैरों पर खड़ा होता है और आगे के पैर से राम- राम कर नाचता है। बंदर लाठी लेकर ससुराल नाचता हुआ जाता है। बंदरिया नाचते-नाचते ससुराल आने से इंकार करती है अंत में कुछ शर्तों पर तैयार होकर बंदर के साथ ससुराल चली जाती है। इस नाच से बच्चों का खूब मनोरंजन हो जाता है।
(ई) बुंदेली पहेलियाँ (बुझौवल), कहावतें एवं मुहावरे
लोक साहित्य के अंतर्गत लोक गीत, लोक कथाऊ लोक गाथा, लोक नाट्य एंव लोक नृत्य के अतिरिक्त लोक उक्तियाँ आती हैं। वैसे लोक उक्ति के विशद आकार में सभी लोक साहित्य की विधाएँ सिमट जाती हैं किंतु संकुचित अर्थ में पहेलियाँ, कहावतें एवं मुहावरे ही आते हैं। उक्ति साहित्य में मानव अपने मन के गोपनीय भावों को व्यक्त करता है। बुंदेली पहेलियाँ, कहावतें एवं मुहावरों में बुंदेली लोक मानस, अप्रत्यक्ष संकेतों द्वारा अपने भावों को लघु रूप में व्यक्त कर मनोरंजन करता है। इसीलिए बुंदेली पहेलियाँ, कहावतें एवं मुहावरे उसके अर्जित ज्ञान की सुंदर मणियाँ हैं।
पहेलियाँ
बुंदेली लोक साहित्य में पहेलियाँ असीमित रूप में प्राप्त होती हैं। बुंदेलखंड के रीति-रिवाजों में इनका सहज रूप आज तक विद्यमान है। गौंड़ जाति के विवाह में अभी भी पहेलियाँ बुझाई जाती हैं। पहेलियों में प्रश्नों का उत्तर पाना अनिवार्य है इसीलिए बुंदेलखंड में पहेली को बुझउअल कहते हैं। बुंदेलखंड में विदा के उपरांत जब लड़की को लेने लाते हैं तो मिठाई से भरी मटकियाँ भेजी जाती हैं ये मटकियाँ रंग से रंगी रहती हैं इनके ऊपर वेसन की बाबा और बाई की दो मूर्तियां अंकित होती हैं और बुझउअल के रूप में कुछ दोहे लिखे रहते है जो बाबा के दोहे कहे जाते हैं। ये दोहे बुंदेली बुझउअल ही हैं। मानव एवं प्रकृति एक दूसरे को रहस्य बने हुए हैं। विशेषतः मानव स्वयं अपने आप में एक रहस्य है यह रहस्यात्मक प्रवृत्ति बुंदेली बुझउअल में मुखरित होती रही है। श्री अम्बिका प्रसाद जी दिव्य ने बुंदेली पहेलियों के 6 प्रकार स्वीकारे हैं। ‘‘बुंदेलखंडी बुझउअल के कई भेद हैं जैसे ढकोसला, मेरि, अटपाव, खुंश, अचका, ओलना, गहगड्ड इत्यादि।
ढकोसला :- ढकोसलों में बेमेल बातों का वर्णन होता है। इसके द्वारा मानव में कौतूहल एवं आश्चर्य की सर्जना की जाती है। ढकोसलों का प्रथम चरण लय-युक्त होता है अंतिम दूसरा बेमेल जो निरर्थक होता है। जैसे-
भैंस बमूंरा चड़ गई, लप-लप गूलर खाय।
पूंछ उठा कें देखन लगे, दिवाई के तीन दिना।
खीर पकाई जतन सों, रांटा दओ जराय।
आकें कुत्ता खा गओ, तू बैठी ढोल बजाय।
प्रस्तुत ढकोसलों में अर्थ की गूढ़ता विद्यमान है। व्यक्ति जब प्रयत्न कर उन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है उस समय की उसकी थोड़ी सी लापरवाही उसके श्रम को निरर्थक बना देती हे। उसका संपूर्ण श्रम व्यर्थ होकर मात्र ढकोसला रह जाता है। इस बुझउअल में यही भाव निहित है। आत्मा रूपी भैंस ज्ञान रूपी वृक्ष पर चढ़कर आनंद के गूलर खाने लगती है। इसी समय पूँछ उठाकर देखने से कार्य सिद्धि असिद्धि में बदल जाती है। बुंदेली में पूँछ उठाकें देखत एक मुहावरा है जिसका अर्थ निष्क्रिय होना है। अतः आत्मा मोक्ष पाने के पहले ही काम, क्रोध की ओर झुक जाती है जिससे उसका श्रम या साधना व्यर्थ हो जाती हे। इसी तरह का भाव दूसरे ढकोसले में भी व्यक्त हुआ है।
अटपावः- अटपाव का अर्थ है कुचाल या शैतानी जिसके करने से मानव को स्वयं हानि पहुँचती है। बुंदेली अटपावों में इन्हीं भावों की भरमार है।
चड़ै हलैं ढुंग्गों के ऊपर, चल रये अन्धड़ बाव।
तारी दै कें नाचन लागे, मरवे को अटपाव।
खुंश :- क्रोध का बुंदेली रूप खुंश है। इसमें ऐसे भाव को व्यक्त किया जाता है जिसमें क्रोध पर क्रोध बढ़ता जाता है।
एक तो बसें सड़क के गाँव, दूजे बड़न बड़न सें नियांव।
तीजे पड़े द्रव्य सौं हीन, खुंश के ऊपर खुंश तीन।
मेरि :-खुंश के समान मेरि में भी क्रोध दिलाने वाली बातों का वर्णन होता है। रणभेरि की ध्वनि से जैसे मनुष्य को क्रोध उत्पन्न होता है उसी तरह का भाव मेरि पहेली में रहता है।
लपकी गाड़र गुलैंदो खाय, बैर-बैर मउआ तरें जाय।
लपक गड़इया लुड़िया दई, गडुआ गड़न्त मेरि हो गई।
अचकाः- बुंदेली अचका में अतिशयोक्ति के द्वारा सुकमारिता के भाव प्रकट किये जाते हैं।
एक ल्याय पिया चम्पाकली, लाकै मोरे माथैं धरी।
जो पिय न पकरते मोरी बांय, तो मैं जाती धरती समांय।
एक लऔ खसखस को दानों, नौ बैर पीसौ नौ बैर छानो।
नौ बैर बनाई बाकी खीर, नौ दिन रई पेट में पीर।
ओलना एवं गहगड्डः- ओलना एवं गहगड्ड में अचका की तरह ही आनंद बढ़ाने वाली चीजों का वर्णन होता है।
पहेलियों का वर्गीकरण
बुंदेलखंड की बुझउअल असीमित हैं। इनके दो रूप हैं एक सामान्य दूसरा विशेष। सामान्य में वह पहेलियाँ आती हैं जो अन्य भाषाओं में भी प्राप्त होती हैं। विशेष रूप में वह पहेलियाँ आती हैं जिसमें स्थानीय सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाजों की अभिव्यक्ति होती है। स्थानीय विशेष पहेलियों को इस तरह विभक्त किया जा सकता है।
- प्रकृति परक, 2. कृषि परक, 3. घरेलू, 4. खान-पान संबंधी 5. विविध
प्रकृति संबंधी
मानव प्रकृति का अनुपम उपकरण है। उसने अपनी चिर सहचरी प्रकृति, सूर्य, चांद, तारे, ओस, बादल, ओले, पानी, दिन-रात, गाय-भैंस, घोड़ें, मोर, भौंरा, कोयल, चना, गेहूं, मटर, जामुन, आम, महुआ आदि पर अनेक पहेलियाँ बुझाई हैं। देखिये-
- एक खेत में दो डीला (सूर्य और चन्द्रमा) 2. टाठी भरे रूपइया, कोउ नई परखइया (तारे) 3. टाठी भर राई, सबरें बगराई (तारे) 4. हाड़ पै हरयाई जमीं (मूली) 5. संजा कें बिटिया भई, आदी रातै ज्वान। भुंसारे बूड़ी भई, दिन कड़तन कड़ गये प्रान (ओस)।
- टेड़ी मेड़ी बांसुरी बजावे वाओ को, सीता चली मायकें लौटावे वाओ को (नदी)
- फूलो फूल गदूल को, चटक न मैलो होय, न माली के बाग में न राजा कें होय (चन्द्रमा)
- बाप को नाव सो बेटा को नाव, मताई को नाव और।
मोई बात बताकें पाँड़े जू, तबईं उठइयों कौर (महुआ)
- मुरगा कैसी कलगी औ बुकरा जैसे कान, मोओ अटका बता देव, नई तो खों लगे मसान (छेवला को फूल)
- एक लईं दो फेंक दईं (दातुन)।
कृषि संबंधी
- बारा बाकें वैंदोली, अठारा बाकें भइया।
परी-परी मताई रोवे, ठाड़ों बाप मुरइया। (रहंट लकड़ी का)
- लंबी पूंछ बड़दन्ता, लंक कड़ोरन होय।
रामदल में देखौ री, कऊं हनूमान न होय। (पचा)
- तनक सौ लरका बम्मन को, टींका लगांय चंदन कौ। (उड़द)
- ऐंचक मेंचक टेड़े सें, तीन मुड़ी दस गोड़े सें। (हल चलाने वाला मय बैल।
- रात कें ठांड़ो दिन कें बैठो। (गिरमा-रस्सी)
- तनक सो लरका ऐंठम ऐंठा, कसकें बादें फेंटा। (घास का पूरा)
- हिल्लें न डुल्लें, दिन दूनों बड़नें। (धूरो)
- ठांड़े तो ठांड़े, बैठे तो ठांड़े। (बैल के सींग)
घरेलू पहेलियाँ
- नांय गई मांय गई, मेंदरो सों टांग गई। (ताला)
- ठांड़े हिन्ना चिक-चिक करें, अन्न खायँ न पानी पियें। (किवाड़)
- नदी किनारें बुक्को चरैं, नदी रीत गई बुक्को मरे। (दीपक)
- अत्तिस खिरकीं बत्तिस तार, हलें कम्पनी गिरै तुसार। (चलनी)
- तनक सी टुकिया टुक टुक करें, लाख टका कौ बन्ज करैं। (सुई)
- फरै न फूले छबलन टूटे। (राख)
- अंदयाये घर में ऊंट बलबलाय। (चकिया)
खान-पान संबंधी
अटा में उतरतन देरी में पेट रैगओ। (रोटी), तला में गोपाल नाचैं। (पूड़ी), छै मइना की बिटिया, साल भरको पेट लयें। (गुजिया), खूंटा गड़ो रओ, दल्ल उखर गओ। (महुआ), संजा कें संगत करी, आदी पै रओ पेट। होत भोर लरका भयो, पांडे़जू करो विवेक। (दही), बाप बड़े बेटा बड़े, नाती बड़े अमोल। जिनके सुत ऐसे भये, कोंड़ी कोंड़ी मोल। (मठा), चीकनी कुइया, चीकनों घाट, कूंद परौ रमचन्ना माट। (मालपुआ)
विविध
सांकर टोर समुन्दुर नाकै (बंदूक), काले पार पै बैल दलांके। (कुल्हाड़ी), दस गोड़े दस हांत, पाँच मूंड़ जिउ चार। पनहारी को दोहरा, पांड़े करो विचार। (ठठरी), अपने ऊपर मर्द विठाकें, मर्द के ऊपर चली (पालकी), बामी बाकी जल भरी, बारी ऊपर आग। जवै बजाई बांसुरी, निकरो कारो नाग। (हुक्का), गड़ा में पड़ा लौटे। (जीभ), गोल-गोल सात कोल। (सिर)
कहावतें
बुंदेलखंड में कहावतों को कांनांरो, कहनोंत, टउका या अहाना कानात कहते हैं। बुंदेली कहावतें आकार में लघु होती हैं इनके द्वारा मनुष्य अपने कथन का प्रभाव दूसरे पर डालता है। कहावतों में गागर में सागर भरने का प्रयास होता है। बुंदेली कहावतों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। ‘‘बुंदेलखंड में कौन सा ऐसा विषय है याने कौन सी ऐसी वस्तु है जिस पर कहावत न मिलती हो।’’ विषय विविधता के कारण हम कहावतों को इस प्रकार बाँट सकते हैं।
1. प्रकृति संबंधी कहावतें 2. कृषि संबंधी कहावतें 3. नीति संबंधी कहावतें 4. जाति परक कहावतें 5. भाग्य संबंधी कहावतें 6. स्वास्थ्य संबंधी कहावतें 7. घरेलू कहावतें 8. खान-पान संबंधी कहावतें 9. शिक्षाप्रद कहावतें 10. व्यंग्य प्रधान कहावतें।
1. प्रकृति संबंधी कहावतें
मानव जीवन प्रकृति की छटा को निहार कर उसके रूप पर मुग्ध होकर विहँसता है। उसके साथ जीवन व्यतीत कर उसका सूक्ष्म निरीक्षण करता है। ऋतुओं का क्रम, सूर्य की गति, चन्द्र तारों का निकलना डूबना किस प्रकार मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। मौसम किस प्रकार बदलता है, वायु की गति पूर्व से चलने पर क्या प्रभाव छोड़ती है। पश्चिम से घुमड़ने वाली काली बदली कैसे बरसती है। इन सबका सूक्ष्मातिसूक्ष्म निरीक्षण बुंदेली कहावतों में प्राप्त होता है।
- एक पाख दो गाना, राजा मरै कै साना। 2. जो गरजत सो बरसत नइंयां। 3. जोलौक बरसैं न मघा, तौ लौ भरैं न खेत। 4. सेत बरसें खेत भर, कारे बरसें पारेभर। 5. जौ कऊं बरसैं धुंआधारै, तो कड़ें नदी नारे। 6. पतोरन कुआँ नई भरत। 7. कुआँ की मांटी कुअई खों नईं होत। 8. लम्पा घांई ऐंठत। 9. मघा न बरसे भरे न खेत मैया ने परसे भरे ने पेट।
2. कृषि संबंधी कहावतें
बुंदेली कहावतों में कृषि परक कहावतों के अंदर कृषि संबंधी अनुभवों का विशद वर्णन मिलता है।
- करकैं डारौ खेते डेल, फिर देखो खेती को खैल। 2. खैते चना औ पैटे चना नौनें होत। 3. एक डूंड़ सौ कूंड़ विरोवर होत। 4. तैं मोय डारै ओर मरोर, में तोय डारों कुठीला फोर। 5. सन घनौ बन बेगरो, खिरविर्री बबै ज्वाँर। 6. करी न खेती परे न फन्द, घर-घर डोलें मूसर चंद। 7. खेती धन कौ नास, धनी न होवे पास। 8. लरकन खेती संदेसन बन्ज नईं होत। आदि।
बैलों संबंधी
- बैल विसाउन जात कन्त, बंदरा के जिन देखो दन्त।
- करिया दिखावै पैले पार, कन्त रइयो येई पार।
- बैल मिले कजरा, दाम दियो अंकरा।
- बैल मिलै बेरिया, भईं कुड़ेरौ थैलिया।
नीति संबंधी कहावतें
बुंदेलखंड में नीति परक कहावतें भी प्राप्त होती हैं। जिनके माध्यम से लोक मानव को सद्आचरण की ओर झुकाया जाता है।
- उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी भीक निदान। 2. घरै विआव बऊ पीपरी। 3. राजा करै सो निआव, पांसे परै सो दाँव। 4. जैसी मंसा ऊंसी दशा। 5. कनवा सें कनवां कयें, तुरतईं जै वो रूठ। अतन-जतन सें पूछियों कैसें गई ती फूट। 6. खेती कर आलस करे, भीक माँग सुस्ताय। काठ करइया घी जरै, अट्ठया नासै जाय। 7. आलस नींद किसानैं आंसे, चोरे आंसे खांसी। हँसी मसकरी तिरिये नासै बाबाजू खों दासी। 8. तिरिया तेल हमीर हठ, चड़ै न दूजी बार। 9. ना बात विरानी कइये, न ऐंचा तानीं सइये।
जाति परक कहावतें :- बुंदेलखंड में जाति परक कहावतों में जाति के व्यवसाय तथा मानव स्वभाव का मनोवैज्ञानिक वर्णन मिलता है।
ब्राह्मण- 1. बामुन घिउ देतन नर्रयात। 2. बामुन कुत्ता नाउ, जात देख गुर्राऊ। 3. तीन कनवजिया, तेरा चूले।
कायस्थ- पच्छ पकौ सो सब भकौ, बचो न एकऊ मांस। कायस्थ घर भोजन करो, बची न एकऊ जात। 2. लालाजू तो लै कें मानै।
ठाकुर- 1. ठाकुर सूको हगत, तींतो हगत। 2. भौत ठकुरास परी।
बानिया- 1. दवो बानिया उदार देत। बानियां गड़ो पथरा उखारत।
जानकें मारै बानिया, पैंचान कें मारे चोर। गम्म तेली बानिया खात।
नाऊ- पच्छियन में कउआ औ आदमियन में नउआ। मूंड़ कटै काउ को औ लरका सीकै नाऊ को। बाप मरै काऊ को हंड़िया टांगे नाऊ को। नाऊ-नाऊ की बरात टिपाओ कौ टांगे। नाऊ छत्तीसा होत।
अहीर :- 1. जो अहीर पिंगल पड़ै, एक भूत लागो रयै। 2. अरीर की सूत और सुंगर की सूद एक हो। 3. अरीर, गड़रिया, गूजर, तीन तकैं ऊजर।
सुनार :- 1. सुनार की टुकटुकी लुहार कौ धमंका, सुनार की ढुक ढुक लुहार कौ एक घना। 2. सौ सुनार की एक लुहार की।
कुम्हारः- 1. कुमार की बऊ कौ का देखनें, घूरत-घूरत कंडी बीनत फिन्नें। 2. मांटी कात कुमार सें, तैं का सानैं मोय। एक दिना ऐसो हुये मैंई सान दो तोय।
लुहारः- 1. लोव जानै लुआर जानै, धौकन वारे की बलाय जानै।
पाली या काछीः- 1. काछिन अपने बैर खट्ट नई बताउत।
तेली- 1. तेली के बैल को मूंत मोल बिकत। 2. तेली मुंश करकें का पानी कें सोंसत। 3. तेली को तेल बरै मसालची की छाती फटै। 4. तेली के तीनउं मरैं जब ऊपर टूटे लार। 5. तेल देखो तेल की धार देखो।
गड़रिया- 1. एक तौ गड़ैन ऊपर से लासुन खांय। 2. गड़रिया कैं गाड़रैं नइंयां तौ का टिटकारी भूली जात। 3. ज्यों ज्यों दिन फूलौ, गड़रिया ऊ लौ।
धोबी :- 1. कयें कयें धोबी गदा पै नईं चड़त। 2. तेली सें का धोबी घाटि, ऊ कैं मौंगरा ऊ कें लाट। 3. ग्योंडे़ में खेती करी, कर धोबी सों हेत, अपनी करी की सें कयें, गदन ने चर लओ खेत।
कोरी :- कोरी बीदो कांस में, लयें सरइया हांत में। सूत ना पौनी कोरी से लठमलठा। कोरी कें व्याव, कड़ेरो पाँव परै। ऊंट पै बौ जा लदौ, कुरिया को पर-पर जाय। कोरी की भैंस ने कबै-कबै पसर चरी।
चमार- चमार कैं अड़ाई पसुरिया जादा होत। चिरईंयन चमार नईं अफरत।
दांगी – हार में बामी, गाँव में दांगी, हरदम आंसत।
अन्य- बानिया मित्र न वेस्या सती, कउआ हँस न गिद्दा जती। ढोर कसाई सें मानत। बैस्या, बंदर, अग्नि, जल, कूटी कटक कलार। जै कभऊं होंय ना काऊ के, सूजी, सुआ, सुनार। कोरी कें खेत और जोगी कें बैल, दोइयन नें धरलई मालय की गैल। बामन, भैंस, कनक उर दार, जे भींजें सुख पावें चार। कसाइयन कौ चून उर कुतिंयां खा जांय। ठाकुर जात पुटयायें मानत, बामुन जात जिमांये सें। लाल जू लये दये सें मानत और जात जुतयाये सें।
भाग्य संबंधी कहावतें
बुंदेलखंड के ग्रामीण भाग्यवादी होते हैं। भाग्य का सहारा निराशा में आशा का संचार करता है। इन्हीं भावों की अभिव्यक्ति बुंदेली कहावतों में प्राप्त होती है।
- अपनों तो करमई फूट गओ। 2. चलनी में दूद दोंय, किस्मत खों खोर देंय। 3. बंदरा बैला जैठो पूत, जो वाजे कें कड़े सपूत। 4. पड़े फारसी बेंचे तेल औ जो देखो करमन को खेल।
स्वास्थ्य संबंधी कहवतें
बुंदेलखंड के ग्रामों में ग्रामीण अपना इलाज अपने घरेलू नुक्सों से किया करते हैं। उनकी मान्यता है कि इलाज से ज्यादा परहेज फायदा करता है। वे अपने रोगों के लिए स्वयं डाक्टर हैं उनकी औषधि बुंदेली कहावतों में सुरक्षित है। 1. इलाज सें जांदा परेज फायदा करत। 2. जो सुख चाव सरीर खों, सतुआ सुसुर न खाव। 3. करई औसद के बिना, मिटै न तन को ताप। 4. उठत भोर पानू पियें, हर्र भूंज कें खांय। दूध व्यारी जै करें उन घर वैद न जांय। 5. क्वाँर करेला कातिक दई, मरहै नई तो परहै सई।
घरेलू कहावतें
बुंदेलखंड में घरेलू जीवन पर कई कहावतें प्राप्त होती हैं जिनका प्रयोग नित्य प्रति होता रहता है। 1. घर को भेदी लंका ढावै। 2. घर की कुरइया सें आँख फूटत। 3. बैन बड़ी न भइया, सबसें बड़ौ रूपइया। 4. आवती बहू जनम तौ पूत, सबै नोनों लगत। 5. अपनी मताईं से को भट्टी कयें देत। 6. अपनें बीदें सोत के मायकें जानै आउत। 7. रंदे भात पेटे नईं समात। 8. तिरिया चरित जानै न कोई, खसम मारकें सत्ती होई। 9. जीके जैसे नदिंया नारै, तैसेई ऊ के भरका। जीके जैसे बाप मताई ऊके ऊँसे लरका।
खान-पान संबंधी कहावतें
बुंदेली खान-पान की समग्र सामग्री पर बुंदेली कहावतें कहीं जाती हैं। 1. मांड़े खों तब खाइये, जब ऊ में घीव चुंचाय। 2. गुर खांय गुलगुलन कौ परेज करें। 3. खांई गकरिया गाये गीत औ जै चले चैतुआ मीत। 4. भूंखें बैर अफरैंठांड़ो, गुर में तिली घीव में मांड़ो।
शिक्षा प्रद कहावतें
बुंदेलखंड में जीवन को सुखी बनाने के लिए शिक्षा प्रद कहावतें कहीं जाती हैं।
- माया देख गरवौ नईं, विपत देख जिन रोय।
विपत बुड़ापौ आपदा, एकदिन सबपै होय।
- तुलसी बुरओं न मानिये जो गमार कैं जाय।
बखरी में को नरदुआ, भलौ बुरओ बै जाय।
- रूख चडै़या जल्दी मरै, नदी को पैरनहार।
पर तिरिया संगत करैं, मौत भमें आकाश।
व्यंग्य प्रधान कहावतें
बुंदेली समाज में व्यक्ति के खोटों पर व्यंग्य परक कहावतें कहीं जाती हैं। 1. बाबाजू पड़ेऊ लौटाउत के होते, तो बाबा काय खों होते। 2. पावनन पै साँप मरत है कऊं। 3. कुतियां प्रागन जान लगैं तो हंड़ियां कौ चाटै। 4. अंदरू घुरिया घुनै चना, मसकें जा घना के घना। 5. अरूआ बोले तब मियावनोई बोलै। 6. गदा गदइया सें जीतत नइयां रेंगटा के कान मरोरत। 7. बाप बेटा बराती मताई बिटियां गौरइयां।
विविध
कुटुम्ब परिवार के लोगों पर कुछ कहावतें कहीं जाती हैं। जो इस प्रकार हैं। 1. बाप राज न खाये पान, दाँत निपौरें कड़ाये प्रान। 2. पूत पुतांड़ी सौ भलो। 3. सास मरी बहू बियानी, भये तीन के तीन। 4. दूला ठांड़ो दुआरे में ससुर ग्योंड़े जाय। 5. भर भाँवरन में बिटिया हगासी।
शरीर के अंगों परः- आँख फूटी पीर निजानी। नाक नंगी गरे में हमेल पैरें। नकटी बूची सबसें ऊंची। जीव जरी पै सुआद नौन निबुआ कौ नईं मिलौ।
जीव-जन्तुओं परः- 1. साँप के पाँव सांपई खों दिखात। 2. चिन्टा मारो पानूं काड़ो। 3. केंकरे को जाओ, माटी अकडूड़त।
बुंदेली मुहावरे
बुंदेली लोक साहित्य में पहेली और कहावत की तरह मुहावरों का प्रयोग होता है। बुंदेली मुहावरे आकार में लघु होते हैं इनका प्रयोग भाषा को सशक्त बनाता है और इनकी तीखी चोट लोक मानव को तिलमिला देती है। इनका विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है।
- पौराणिक- बुंदेली मुहावरों में पौराणिक तथ्य निहित रहते हैं। जैसे- कुम्भकरन की नींद सोउत, हनूमान की कूंद कूंदत, अंगद कैसो पाँव रोपैं, सत्य खों हरिसचन्द बनौ, विभीसन जिन होओ, राम-लछमन सी जोरी, सिखण्डी है वौ तौ।
- ऐतिहासिक मुहावरे :- बुंदेली मुहावरों में ऐतिहासिक तथ्यों का भी प्रयोग हुआ है। जैसे-
- आला सौ बांचवो 2. पंमारौ गाबौ 3. उरई की बेला, 4. माहिल हो रब 5. जैचन्द जिन बनो 6. अफलातून बनौ फिरत 7. मानसिंग आय।
संस्कार परक मुहावरे :- बुंदेली मुहावरों में बुंदेलखंड के संस्कारों की अभिव्यक्ति हुई है। जैसे-
- उतै नरा गड़ो का 2. नीं को टका खुदालैं 3. घुटइया कट गई 4. मूँछें मुंड़गई 5. चुरियां फूट गईं 6. माँग पुछ गई 7. उतें मैर थपौ का 8. कथा बचालो।
अंधविश्वास परक मुहावरेः- बुंदेलखंड पिछड़ा क्षेत्र है। यहाँ के लोग अन्धविश्वासों पर अधिक विश्वास करते हैं। उनका रूप मुहावरों में सुरक्षित है।
- घिटला काटों 2. घिटला बांदों गरे सें 3. राई नौन उतरवालो 4. डिठूला लगालो 5. झरवा फुकवा लो 6. देई देवता सुमरलो 7. घटोइया सुमरलो।
व्रत परक मुहावरे :- 1. ऐंतवार उपासे हो का 2. कातिक अना लओ 3. रोजईं ग्यारस 4. घुल्ला जुवां लो।
शकुन परक मुहावरेः- भरी खेप मिली 2. गइया चुखाउत ती 3. धोबन मिली 4 रन्डी देखी ती 5. नीलकन्ठ दिखानों तो 6. कउआ उड़ो तो।
अपशकुन परक मुहावरेः- 1. तेली दिखानो तो 2. रांड़ मिली ती 3. कनवा मिलौ तो 5. छींकतन चले ते 5. बिलइया गैल् काट गई।
भाग्य परक मुहावरेः- 1. भाग सें सब होत 2. करम साथ नईं देत 3. करम फूटे 4. कौन करम लयें लेत 5. लिलार को लिखो होत।
नीति परक मुहावरेः- बुंदेली लोक साहित्य में मुहावरों द्वारा बुंदेली लोक मानव को उपदेश मिलता है। 1. ठेंकर कें जिन उरजो 2. का कैकें का क्वाउत।
क्रोध परक – प्रान ले लों, खाल खेंच दों, मौ टो डारों, ऐंच खाल भुस भरदों,
अन्य :- छाती पै मूंग न दरौ, पिरान जिन खाब, चीकनों मटका है, बिन पेंदी को लोटा, गैल गली कौ रोरा, करिया मौं करो, गम्म खाव आदि।
जाति परक मुहावरे :- 1. ठकुरास भरी 2. बामुन का लरै 3. जैन बानियां छान कें पानी पियत 4. बानियां पतरी दार खात 5. लालाजू लै कें रें 6. धोवियई तो आय 7. चमार है ससुर 8. नउआ होत तो चालांक है 9. गड़इया की टिटकारी आय 10. पूरो कोरी है 11. तेलन की तिलयांद आउत 12. मेंतर सौ लगत 13. भांड़ सों नर्रयात 14. वेड़नी सी नचत 15. हिजरन सों फिरत आदि।
राजनैतिक मुहावरेः- बुंदेली राजनैतिक मुहावरों में राज्य की स्थिति को देखकर इनका प्रयोग होता है।
- राम घांई राज है 2. रावन कैसो राज 3. बीरबल घांई किचरी पक रई ।
सामाजिक मुहावरे :- बुंदेली सामाजिक मुहावरों में सामाजिक जीवन के विविध रूप दिखाई देते हैं। यह मुहावरे सीमातीत हैं।
भूख परक मुहावरे :- 1. पेट में चौंखरे लोट रये 2. भूंकें भजन नई होत 3. पेट में बिलइयां कूंद रईं 4. भूंकें तो कन्डई कड़ जैं 5. भूँकन ओंठ सूक गये।
सज संवरकर चलने परः- चलतन चटकत, गैरो कजरा दयें, घूंघट में ढूँकत, का पटियां पारैं, का गुन्डन बनी।
दुहरे व्यक्तित्व पर – बगला भगत आय, रंगो लड़इया आय, सुन पीतर आय, खतौ नारियल है।
मित्रता पर :- दाँत काटी रोटी है, दो देय एक जिउ है, लुआर बाड़ई से हैं,
विविधः- बुंदेलखंड में कुछ ऐसे मुहावरे प्राप्त होते हैं जिनका प्रयोग विशेष भावों को लेकर किया जाता है।
- नंग्गू की गड़ई करें 2. लोविन को मूंड़, छेवलन की ककई 3. पानूं भरौ सो मेंतर को 4. तरवा चाटत फिरत 5. बांस भिरे में कुन्डवा उपजत 6. घिची में नौ दयें 7. टेंटुआ फसौ 8. टेंटुआ छुड़ावनें, 9. चीर डारौं 10. फार कें दो करदौं 11. सकला सौं भूंजों 12. बकला उदेरदों 13. बुकरा सो पौंलो 14. चिन्टी सो कुचरों 15. दाँत झरा दों 16. गतके में पिरान लेओ 17. टका से पिरान देंव 18. कुआँ में गिरों 19. मरो मांय।
बुंदेलखंडी लोक साहित्य
अन्य जनपदों की भाँति बुन्देलखंड का लोक-साहित्य का भंडार बहुत प्रचुर है और उसके विविध रूप देखने को मिलते हैं- (1) लोकगीत, (2) कथा-कहानी, (3) कहावतें और (4) पहेलियाँ। लोकगीतों को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं। प्रथम तो वे गीत, जिनकी रचना गत पचास वर्ष के भीतर कुछ ज्ञात लोक-कवियों ने की है और द्वितीय प्रकृत लोकगीत, जो एक परम्परा से प्रचलित चले आ रहे हैं और जिनके निर्माताओं का पता लगाना हमारे लिए कठिन है। इस प्रकार के गीतों के निम्नलिखित प्रकार हैं-
(1) जन्म, विवाह आदि संस्कारों के गीत ।
(2) माता के भजन ।
(3) लम्बे कथा-गीत, जिनमें पँवारे मुख्य हैं। ये प्रायः माता की मान्यता के अवसर पर ही गाये जाते हैं। जगदेव का पँवारा बुन्देलखंड में बहुत प्रसिद्ध है।
(4) राछरे – ये भी अधिकांश लम्बे कथा गीत हैं। ये सावन में गाये जाते हैं।
(5) बाबा के गीत – ये तीर्थयात्रियों के गीत हैं, जिन्हें पैदल तीर्थयात्रा करते समय यात्रियों की टोलियाँ गाती हैं। इन्हें टिप्पे या लटेरा भी कहते हैं।
(6) फागें – ये फाल्गुन के गीत हैं।
(7) रामारे.- ये खेती के गीत हैं, जो कार्त्तिक के महीने में फसल की बोनी करते समय गाये जाते हैं। इनके दिनरी, बिलवारी आदि कई प्रकार हैं। उनमें केवल ध्वनि का अंतर होता है, गीत वही रहते हैं।
(8) दिबारी- ये दिवाली के अवसर पर गाये जानेवाले अहीरों के गीत हैं।
(9) सैरों-भौजपुर के बिरहों की तरह ये कृषकों और चरवाहों के मुक्तक गीत है।
(10) गोटें- ये बुन्देलखंड की अहीर जाति के देवता कारस देव के गीत हैं, और लोकगीतों का एक प्रकृत प्राचीन रूप उपस्थित करते है। कथा- कहानियों में ऐसी अनेक कहानियाँ हैं, जो पंचतंत्र, जातक, कथासरित्सागर आदि में हमें मिलती हैं। वास्तव में ये कहानियाँ हमारे देश में इतनी व्यापक कि उनको किसी एक जनपद में सीमित करना ठीक नहीं होगा। सर्वत्र किसी-न-किसी रूप में उनके अभिप्राय बिखरे पड़े हैं। प्रेम-कथाओं की ऐतिहासिक परंपराओं की दृष्टि से सारंगा सदाब्रज या वृक्ष की कथा-जो बुन्देलखंड में प्रचलित है- विशेष महत्त्वपूर्ण है। यह ग्यारहवीं शताब्दी में लिखी गई ‘सदावत्स सावलिंगा’ नामक एक जैनकथा का रूप है, जिसके विभिन्न संस्करण राजस्थान से लेकर बिहार में भी हमें मिलते हैं।
कहावतों के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। यदि मैं कहूँ कि बुन्देलखंड का कहावत-साहित्य बहुत प्रचुर है, तो यह मेरा मोह होगा । वास्तव में इस प्रकार का जो जनपदीय साहित्य मिलता है, वह अधिकांश में हमारे देश की प्राचीन साहित्यिक परंपरा का अवशेष है। उसका तुलनात्मक अध्ययन देश की सांस्कृतिक एकता को सिद्ध करने के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण हो सकता है। बुन्देली की अनेक ऐसी कहावतें हैं, जो जातक कथाओं की कथाएँ हैं। कुछ कथाएँ तो ज्यों-की-त्यों मिलती हैं। जैसे-
बिद्या पड़े सजीवनी निकरे मत्त के हीन-यह संजीव जातक है।
मेरा विश्वास है कि इस प्रकार की कहावतें केवल हिन्दी स्थानीय भाषाओं में ही नहीं, बँगला, गुजराती आदि में भी प्रचलित होंगी।
लोककवि
बुन्देलखंड के लोक-कवियों में ईसुरी, भुजबल, ख्याली, विश्वनाथ, गंगाधर आदि के नाम विशेष रूप से लिये जा सकते हैं। इनमें ईसुरी सबसे श्रेष्ठ है। इसकी चौपदी फागें गाँव में गाई जाती हैं।
बुन्देली का प्रकाशित लोक-साहित्य
बुन्देली के लोक साहित्य के संबंध में बहुत थोड़ा काम हुआ है। स्व0 श्रीशिवसहायजी की कहानियों के संग्रहों को छोड़कर गीतों आदि के अच्छे संग्रह प्रकाशित नहीं हुए। इधर कुछ दिनों से कुछ कार्यकर्त्ताओं और और विश्वविद्यालयों के शोधकर्त्ता विद्यार्थियों का ध्यान अवश्य इस ओर आकृष्ट हुआ है। परिणामस्वरूप राठ के श्रीश्यामसुन्दरजी बादल ने फाग-साहित्य पर निबंध लिखकर साहित्य सम्मेलन की साहित्यमहोपाध्याय की उपाधि प्राप्त की है। वहीं के एक दूसरे सज्जन कड़-साहित्य, अर्थात् ख्याल-साहित्य पर शोध कर रहे हैं। लखनऊ वि0 विद्यालय के एक प्राध्यापक श्रीरामेश्वरप्रसादजी अग्रवाल ने अभी हाल में ही पी-एच0डी0 की उपाधि के लिए बुन्देली भाषा पर महानिबंध लिखकर दिया है। झाँसी के श्रीगौरीशंकर जी द्विवेदी ने बुन्देलखंड के कवियों पर शोध किया है और बुन्देल वैभव के नाम से उन्होंने तीन खंडों में बुन्देलखंड में उत्पन्न हुए लगभग चार सौ कवियों का विवरण उपस्थित किया है। यहाँ स्व0 ओरछा-नरेश, श्रीवीरसिंहदेव की आर्थिक सहायता से आज से लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व टीकमगढ़ में पं0 श्री बनारसीदासजी चतुर्वेदी द्वारा जनपदीय कार्य की जो चेतना उत्पन्न की गई, उसका उल्लेख आवश्यक जान पड़ता है। पाक्षिक ‘मधुकर’ के द्वारा बुन्देलखंड के लोक-साहित्य की बहुत कुछ लुप्त सामग्री का उद्धार हुआ है।
इन पंक्तियों के लेखक ने भी ओरछेश की आर्थिक सहायता से लोक-साहित्य का अध्ययन करने के उद्देश्य से ‘लोकवार्त्ता-परिषद्’ नामक एक संस्था की स्थापना की थी। उसके द्वारा ‘लोकवार्त्ता’ नाम की एक पत्रिका भी प्रकाशित होती रही। स्वयं मेरा बुन्देली कहावतों का एक संग्रह उत्तर- प्रदेश-सरकार के सूचना-विभाग से प्रकाशित हो रहा है। इसी प्रकार बुन्देली भाषा का कोष भी हिन्दुस्तानी एकेडेमी प्रकाशित करने जा रही है।
लेखकों और कवियों का झुकाव
यह एक हर्ष की बात है कि बुन्देलखंड में हिन्दी के जो श्रेष्ठ लेखक और कवि हैं, वे जनपदीय शब्दों के प्रयोग की ओर झुक रहे हैं। प्रसिद्ध उपन्यासकार श्रीवृन्दावनलालजी वर्मा ने अपने उपन्यासों में स्थान-स्थान पर ठेठ बुन्देली शब्दों और मुहावरों का सुन्दर प्रयोग किया है। उससे यह सिद्ध होता है कि एक समर्थ लेखक के हाथ में पहुँचकर जनपदीय शब्द कितने शक्तिशाली एवं अर्थगाम्भीर्य-युक्त बन सकते हैं। श्रीसियारामशरणजी गुप्त ने अपनी सबसे हाल की रचना ‘अमृत-पुत्र’ में तो मानों विशेष रूप से बुन्देली शब्दों ढूँढ़कर बिठाया है। भुकभुका, झिमट, बिदक, उजागर आदि शब्द हमें वहाँ मिलते हैं।
वर्तमान कवि
वर्तमान कवियों में जो बुन्देली में रचना कर रहे हैं- उनमें सर्वश्री रामचरणजी, बंशीधर पंडा, शिवानंद बुन्देला, हरिप्रसाद हरि, ओमप्रकाश, कृष्णानंद व्यास आदि के नाम लिये जा सकते है। परन्तु मुझे यह कहना चाहिए कि अवधी तथा भोजपुरी के कवियों में जो ताजगी और विषय की नवीनता देखने को मिलती है, बुन्देलखंडी कवियों में उसका नितांत अभाव है।
परिशिष्ट सोहर
पैले पैर को सपनो सुनो मोरी सासो जी महाराज ।
राम लखन दोऊ भैया अँगन बिच तप करें महाराज ।
बैया लयें बेला भर तेल साँतिया लिख रई महाराज ।
भौजी बैठी माँझ मझोटे हार नोने जो रई महाराज ।
माँयँ सें आ गई बारी बैया ने हँस बोलियो महाराज ।
भौजी हुइयें तुमारें नंदलाल हार हम ले लैहें महाराज ।
रँगो बैया तोरी तुतुलियां घिया गुर मों भरों महाराज।
जो बैया हुइयें नंदलाल हार तुम लै लियो महाराज ।
भोर भयें भुनसारें ललन प्यारे हो गये महाराज ।
धीरें धीरें बाजें बधैयाँ धीरें सखी सोहरे महाराज ।
जो सुन पैहें ननदिया हार मोरे लै लैहे महाराज ।
भोर भयें भुनसारें ननद बाई आ गई महाराज ।
कैसी बाजें बधयाँ, कैसे धीरें सोहरे महाराज ।
भौजी के जन्मी धिया सो धीरे सोहरे बाज रये महाराज ।
भौजी के जनमे नंदलाल धिया तुम जनों महाराज ।
गाँव के ढिमरा पकर मँगवैयो महाराज ।
अक्का धतूरे की जरें खुदवा मँगवैयो महाराज ।
घिस सिललुड़िया पिसवैयो कटोरन छानियो महाराज ।
सो मोरी बैया खों दियो पियाय हार मोरे बच जैहें महाराज ।
माँयँ से आ गये राजा बीरन वे हँस बोलियो महाराज ।
जो पूजै सो देव, बहिन मोरी जिन मारो महाराज ।
कासी के पंडित बुलैयो बेद बचवैयो महाराज ।
लरका के आजुल कौ गोत सुनवाइयो महाराज ।
आजा उनके राजा महाराजा आजी पटरनियाँ महाराज ।
भैय्या उनके अर्जुन भीम बहिन सुहद्रा सी महाराज ।
लरका के नाना कौ गोत बाँच सुनवाइयो महाराज ।
नाना उनके असल चमार नानी जोरे जूतियो महाराज ।
भैय्या उनके मृदंग बजावें बहन जग बेड़नी महाराज ।
मो जग बेड़नी कौ लाला कोऊ जिन खिलाइयो महाराज ।
तोरे नई भौजी लाला, गरब जिन करियो महाराज ।
जे अर्जुन भीम के लाला सबई खिलाइयो महाराज ।
विवाह का गीत (टीका के समय का)
(टीका के समय का)
कँहना के भले कोटिया जिनने कोट उठाये।
कँहना के भले साजना चढ़ ब्याउन आये।
कँहना के भले मालिया जिन बाग लगाये।
कँहना की बेटी कोकिला फुल बीनन आईं।
सागर के भले कोटिया जिन कोट उठाये।
अमुक से भले साजना चढ़ ब्याउन आये।
कोट नबै, परवत नबै, सिर नबाव न जावै।
माथौ आजुल जू कौ तब नबै जब साजन घर आये।
माथौ काकुल जू कौ तब नबै जब साजन घर आये।
माथौ बीरन जू कौ तब नबै जब साजन घर आये।
माथौ बाबुल जू कौ तब नबै जब साजन घर आये ।
माथौ चाचुल जू कौ तब नबै जब साजन घर आये ।
माथौ जीजुल जू कौ तब नवे जब साजन घर आये ।
माथौ मौसिल जू कौ तब नबै जब साजन घर आये ।
माथौ परोसी जू कौ तब नबै जब साजन घर आये ।
नौरता का गीत
पीपरियाँ झकझालरीं नारे सुअटा, जा तरें लगौ हैं बजार।
बिरजीं गौरा बेटी पाट खों, नारे सुअटा, हिमाचल पाट भरायँ ।
बिरजी कलानी बेटी पाट खों, नारे सुअटा, राजा बाबुल पाट भरायँ।
लागन दो बेटी हाटली, नारे सुअटा, बैठन देव पटवा दुकान।
बसन दो बेटी नगर ओरछो, नारे सुअटा, बसन दो घने रंगरेज ।
लग गई मोरे बाबुल हाटुली, नारे सुअटा, बैठ गये पटवा दुकान ।
बस गयो बाबुल नगरओरछो, नारे सुअटा, बैठ गये घने रंगरेज ।
चुनरी रँगइयो बड़े मोल की, नारे सुअटा, अलिन गलिन मँहकाय।
आदी में लिखियो मोरो मायको, नारे । सुअटा, आदी में लिखियो ससरार।
इक ढिग लिखियो माई जाये बीरना, नारे सुअटा, जौन बहिन लुवावन जायँ।
मईं जो लिखियो बारी भुजाइयाँ, नारे सुअटा, जिन पूँछें हँस बात ।
उतईं जो लिखियो बारी बहिनियाँ, नारे सुअटा, जिनमें खेलन हम जायँ।
एक छोड़ में लिखियो सास-ससुर खाँ,
नारे सुअटा, जी में परदा करत दिन जाय ।
एक छोर में लिखियो जेठ जिठानी खाँ,
नारे सुअटा, जिने परदा करत दिन जाय ।
मईं जो लिखियो देवर-देवरानी खाँ,
नारे सुअटा, जी में हँसत खेलत दिन जाय ।
एक छोर में लिखियो बारी ननदिया खाँ,
नारे सुअटा, जीभ पैयाँ परत दिन जाय ।
इक ढिग लिखियो सखि सहेलरी,
नारे सुअटा, घुँघटा पपीहा दोऊ मोर ।
लाउन में लिखियो लौरी सांत खाँ,
नारे सुअटा, बैठत उठत दब जाय ।
पाटौ पैर के बेटी निग चलीं,
नारे सुअटा, पूँछें रामा के री लोग।
कौना की कहनो नँदन-नातनी,
नारे सुअटा, कौना की परम अधार।
अपने अजुल की नँदन-नातनी,
नारे सुअटा, बाबुल की परम अधार।
अपने भइयन की कहयो बाँदुली, नारे सुअटा, पूरी सुहाग भरायँ ।
पोपरियाँ झक-झालरी नारे सुअटा,…………….
अमान सिंह कौ राछरौ
सदा न तुरइया फूले अमाना जू
सदा न सावन होय।
सदा न राजा रन चढ़े।
सदा न जीवन होय।
राजा मोरे असल बुन्देला कौ राछरौ
सबकी बहिनियाँ झूले हिंडोला ।
तुमरी बहिन बिसरे परदेश।
नौआ पठै दो बमना पठै दो ।
बहया जू कौ दिन धर आये ।
राजा मोरे…..
हम बिदेसै ना जायें माई।
ना बहया जू लुआवन जाय।
नौआ खों गलियाँ बिसर गई।
बभना खों गई सुध भूल।
राजा मोरे…..
किनकी बेटा तुम लैहौ कजरियाँ।
किनके छुओ दोई पाँव ।
बहिन सुहद्रा की लैबूँ कजरियाँ।
उनईं के लटक छूबूँ दोई पाँव।
राजा मोरे…..
काना बँधे भाई अलल बछेरा।
काना जीन पलान।
घुड़सार बँधे राजा नील से घुड़ला।
घोड़ा टँगे जीन पलान ।
राजा मोरे…..
काना धरे माई सिर स्वाफा ।
काना धरे हथयार ।
बकचन घरे बेटा सिर के स्वाफा ।
खूँठा टंगे हथयार।
राजा मोरे…..
टेरो नौए, टेरो बमने ।
अमाना सिंह के करे सिङ्गार ।
नौआ जो खोटे सँमारें अमाना जूको ।
बमन जो तिलक लगाये ।
राजा मोरे…..
झपट अटरियाँ चढ़ गये अमाना जू।
तकता लाये हात।
तकतन मों देखें राजा अमाना ।
हन हन स्वाफा बाँधे ।
राजा मोरे…..
झपट अटरियाँ उतरे अमाना जू।
नौआ, बमना देव टिराय ।
अपुन खाँ सज लये लीले से घुड़ला ।
बहिन खाँ डोला सजाव ।
राजा मोरे…..
देव जो माता हमें सोने टकोलना ।
हम बहिन लुआवन जाये ।
जो तुम बहनियों लुवावन जात हौ बेटा ।
धनियाँ की मत लये जाव ।
माई मोरी धॅँगवा धँधेटे कौ राछरौ ।
झपट अटरियाँ चढ़े अमाना जू ।
धनियाँ बहिन लुवावन जायें।
जो तुम बहनि लुवावन जाओ राजा ।
हमरी विदा दये जाय ।
राजा मोरे…..
चाय धन रैयो चाये धन जैयो ।
बहिन लुवाय घर आँवँ ।
अपुन खाँ सज लये लीले से घुड़ला ।
नैन खाँ घुड़ला सजाव ।
राजा मोरे…..
लहर-लहर डोला सजे हैं।
पचरंग सजे कहार ।
छींकत घुड़ला पलाने राजा जू।
बरजत भये असवार ।
राजा मोरे…..
गाँव के जेंवड़े नकन न पाये।
रीती मिली पनहार ।
के तौं फोरों तोरी सिर की गगरिया ।
के तौ पलट घर जाँवँ ।
राजा मोरे…..
ना तो फोरो राजा सिर की गगरिया ।
ना तुम पलट घर जाव ।
हम तौ कह ये राजा कुवल पनहारी ।
हमरे हैं कौन विचार ।
जौंनईं सगुन तुम घर सें ल्याय होव ।
बोई सगुन लय जाव ।
राजा मोरे…..
आँगें रे नौआ, पाछें रे बमना।
घुड़ला कुदायँ चले जायें।
गाँव के जेंवड़े निकर ना पाये।
हिन्नी काट गई गैल ।
राजा मोरे……
कै. तौ मारों हिन्नी तोय भरकें तुपकिया,
के तौ पलट घर जाँवँ।
ना तुम मारो राजा मोय भरके तुपकिया,
ना तुम पलट घर जाव ।
हम तो कहये राजा बन की हिरनियाँ,
हमरे हैं कौन विचार ।
जौनईं सगुन तुम घर से ल्याये होव
बोई सगुन लयें जाव ।
राजा मोरे……
आगें रे बमना पाछे रे बमना ।
घुड़ला कुदायें चले जायें।
गाँव के जेंवड़े नकन न पाये ।
करिया नाग डरे फन्नाय ।
कै तोय मारों भरकें तुपकिया।
कै तौ पलट घर जाँवँ ।
ना तुम मारो राजा मोय भरकें तुपकिया
ना तुम पलट घर जाव ।
हम तौ कहये बन के जिवधारी
हमरे हैं कौन बिचार ।
जोनईं सगुन तुम घर से ल्याय होव
बोई सगुन लयें जाओ।
माई मोरी धँगवा धँधेरो कौ राछरौ ।
घुड़लन धुँघरियाँ बजत जाँयें
उड़ै गगन की धूर।
कुसमानी पगड़ी बाँधें राजा अमाना जू ।
खुरसें गुलबिया फूल ।
डोला खाँ लगी ड़ोंड़ा लायची ।
गलियन महकत जाँयें ।
राजा मोरे……
रात चले दिन धाइये,
पौंचे अकोड़ी माँझ ।
ऊँचे अटा चढ़ हरें नैन सुहद्रा,
बिरन कहूँ न दिखायें।
घुड़ला जो पाँचौ द्वारे में
दोरें ठिये दयें जाय ।
राजा मोरे……
झपट अटरियाँ उत्तरी सास भभा जू ।
बिरना ठाँड़े द्वार।
उतरौ दुलैया जू ऊँचे अटा सें ।
बिरन ठाँड़े द्वार ।
राजा मोरे…..
टेरौ रे देवरा, टेरौ रे जेठा।
सारे सें कर लेब मिलाप ।
पैयाँ परत रुपैया हो दीन्हे ।
भेंट करत मुहरे पाँच ।
बार बखरियाँ जीजा जो भेंटे ।
सहोदरा चौकन माँझ ।
कौना की जो भीजीं सुरंग चुनरियाँ ।
कौना की पचरँग पाग ।
बहिन की भींजी सुरंग चुनरिया ।
भैय्या की पचरंग पाग।
सोना टकोलना हाते दये हैं।
लरक छुये दौऊ पाँव ।
राजा मोरे……
कारस देव की गोट
डगरी ऐलादी अपने खोटन द्वार, हो-ओ-ओ ।
करवावें दौनियाँ बगरन माँझ हो-ओ-ओ ।
ढीलैं पड़ैला भुवरी भैंस कौ, हो-ओ-ओ ।
ढीलैं बछला नगनाचन गाय कौ हो-ओ-ओ।
को जो लगाबे बाकी मनकिया भैंस हो-ओ-ओ।
को जो लगाबे बाकी नगनाचन जाय हो-ओ-ओ।
गोरे लगावें बाकी मनकिया भैंस हो-ओ-ओ।
राजू लगावें नगनाचन गाय सो हो-ओ-ओ ।
जन ऐलादी ने धरलई नौ मन दुधुआ की खेप हो-ओ-ओ।
डुरयालये पड़ैला भुवरी भैंस के हो-ओ-ओ ।
डुरयालये बछला नगनाचन गाय के हो-ओ-ओ।
डगरां भवानी उरद बजार सो, हो-ओ-ओ ।
मदकौ मातौ हतिया डोलत् तौ बा आड़ी गैल हो-ओ-ओ।
तव मदतिया सें बोली भुमानो, हो-ओ-ओ।
अरे भैय्या गोरे कका कहौं कै बीर सो हो-ओ-ओ ।
हतिया हटाले जौ मोरी आड़ी गैल कौ हो-ओ-ओ ।
झँझकै पड़ौला भुवरी भैंस कौ हो-ओ-आओ।
तड़पै बछला नगनाचन गाय को हो-ओ-ओ ।
छलकै मोरी दुधुआ की दुहेली खेप हो-ओ-ओ।
हतिया हटालैं भैया मोरी आड़ी गैल सें हो-ओ-ओ।
हतिया पै कौ महतिया दै रओ ऐलादी खों जुवान सो हो-ओ-ओ।
तीरे संग की बिटियाँ कड़ गईं दो-दो बार हो-ओ-ओ ।
तैं गलियन में रारैं बिटिया जिन बड़ाइयो हो-ओ-आओ।
ना तोरौ बछला कहिये नगनाचन कौ हो-ओ-ओ।
डोर पकरकें झझकलेयें हो-ओ-ओ ।
ना कहिये पड़ैला मनकिया भुवरी भैंस कौ हो-ओ-ओ।
जौ हतिया कइये मेरौ रजन दरबार को हो-ओ-ओ।
अरी सिरियानो हतियाबाईजू जौ मोरे बस कौन रओ हो-ओ-ओ।
अरे हतिया पै कौ महतिया तोरे बसको ना हाये हो-ओ-ओ ।
तौ हतिया पै की जंजीरें नैंचे खों दै सरकाय हो-ओ-ओ ।
मैं हतिया हटा लओं आड़ी गैल सों हो-ओ-ओ।
जब हतिया पैके महतियाने, जँजीरें नैंचे खो दईं सरकाय हो-ओ-ओ ।
ऐलादी ने सत्तसमारियो, लै लये गुरुअन के गुरुनाम हो-ओ-ओ ।
उर ईसुर के चरन रही मनाय हो-ओ-ओ।
लटक कैं परलये धरती के पाँव सो हो-ओ-ओ ।
दायने अँगूठा तर दाब लई हतिया की जँजीर हो-ओ-ओ।
हतिया चिक्कारों उरद बाजार सो हो-ओ-ओ ।
हटा लओ भुमानी में बा आड़ी गैल सें हो-ओ-ओ।
तब हतिया पै कौ मतिया गओ-गओ राजन के दरबार हो-ओ-ओ
अब ना करौं तोरी चाकरी, बैंच खाओं नकटियाँ घास हो-ओ-ओ
बेटी इक उपजी गूजर कैं बल की अपरंपार हो-ओ-ओ।
बानें तेरौ हतिया पछारौ उरद बाजार हो-ओ-ओ ।
बाके सनमंध राजा हैं लिये करवाये हो-ओ-ओ ।
राजन के दौरे छरिया डोलत ते राजन के द्वार हो-ओ-ओ ।
एक के कातन दो धाये, और दो के कातन दस पाँच हो-ओ-ओ।
गयेबा गूजर के दरबार हो-ओ-ओ ।
अरे राजू तोरे तत्पर बुलौआ राजन ने करवाये हो-ओ-ओ।
ना मैंने राजन को जोतें जोतीं नां पटे लये लिखवाये हो-ओ-ओ।
उर ना राजन कड़ुआ मैंने कड़ियो हो-ओ-आओ।
आज कौन बिध बुलाआ मेरौ जरूरी कराइयो हो-ओ-ओ ।
जगदेव को पँवारी
कसामीर काह छोड़े भुमानी नगरकोट काह आई हो ओ माँ !
कसामीर कौ पापी राजा सेवा हमारी न जानी हो-ओ, माँ !
नगरकोट धरमायन राजा कर कन्या बिलमाई हो ओ माँ।
कन्या कर बिलमावे बारौ राजा पलना डार झुलाई हो-ओ, माँ।
पलना डार झुलावे बारौ राजा मुतियन चौक पुराये हो ओ माँ।
मुतियन चौक पुराने बारौ राजा कंचन कलस घराये हो-ओ, माँ।
देवी जालपा राजा धरमासन खेले पाँसासार हो-ओ, माँ।
कोना के पाँसे रतन सँवारे कौना के पाँसे लाल हो-ओ, माँ।
देवी के पाँसे रतन सँवारे धरमासन के पाँसे लाल हो-ओ, माँ।
पैले पाँसे डारे: धरमासन परौ न एकऊ दाव हो-ओ, माँ।
दूजे पाँसे डारे भुमानी परै पचीसऊ दाव हो-ओ, माँ।
हँस-हँस पूछे भइया लंगरवा को हारौ को जीतो हो माँ।
हार चलौ धरमासन राजा जोती मोरी आद भुमानी हो-ओ, माँ।
मनसें चलीं मोरी आद भुमानी सात समुद खाँ जाय हो-ओ, माँ।
सात समुद पै डोलै भुमानी डोलै डोलै बरन छिपाये हो-ओ, माँ।
मलिहा-मलिहा टेरे भुमानी, मलहा के नाव लिबाओ हो-ओ, माँ ।
आज बसालओं बारू रेत में भोरई उतारौं पैले पार हो-ओ, माँ।
पाँच टका गांठी के खोलौ जबईं उतारों पैले पार हो-ओ, माँ।
गरब न कर मलहा के बारे गरबई होत बिनास हो-ओ, माँ।
गरब करो लंका के रावन सोने की लंका बिनासी हो-ओ, माँ।
गरब करौ बन की गुमचू ने लाल बरन मौं कारे हो-ओ, माँ।
गरब करौ चकइ चकवा नें सोनें की रैन बिछोई हो-ओ, माँ।
गरब करों रतनाकर सागर जल खारे कर डारै हो-ओ, माँ।
पैली चुरू जल अचये भुमानी समुद गये खलयाये हो-ओ, माँ।
दूजीं चुरू जल अचये भुमानी समुदा कीच गिलाये हो-ओ, माँ।
तीजी चुरू जल अचये भुमानी समुदा धूर उड़ाय हो-ओ, माँ ।
उठ राजो मच्छ बिनती करत है जिया-जौन भर जायें हो-ओ, माँ ।
जैसें तैसें समुद भरा दो अबईं उतारों पैले पार हो-ओ, माँ।
कारी घटा उर पीरी बदरिया जे दोऊ उनईं आयें हो-ओ, माँ ।
सात समुद पै जल बरसाये, बरसे घोरा-घोर हो-माँ, माँ ।
भरे समुद में सिंघा नचावें जलऊ न डूबै पाँव हो-ओ, माँ।
मनसें चलीं आद भुमानी हुलानगर खाँ जाय हो-ओ, माँ।
हूलानगर में डोलै भुमानी लेवै सबके भाव हो-ओ, माँ।
मनसें चलीं मोरी आद भुमानी जगदेव जू के रावरन जाय हो-ओ, माँ ।
आवत देखो जगदेव जू की रानो मन में गई मुसकाय हो-ओ, माँ ।
आव-आव री मोरी आद भुमानी जीयरा के परम अधार हो-ओ, माँ ।
काये पटरन डाटौं बैठका काये पखारों दोऊ पाँव हो-ओ, माँ।
चंदन पटरी डाटों बैठका काये पखारों दोऊ पाँव हो-ओ, माँ ।
ताते से माँड़ें माई सिमई बना जो उर सुरअनदूद हो-ओ, माँ।
सोने के थार परोसे बारां रानी, रूपे कचुल्लन हद हो-ओ, माँ ।
पाँच गिरास करे जग-तारन थार दये सरकाय हो-ओ, माँ।
उठ-उठ देखें मोरी आद भुमानी जगदेव जू कुंवर न दिखायँ हो-ओ, माँ ।
टका कौ चाकर कहये पुवाँरों घर आवें तीसरे पार हो-ओ, माँ ।
मनसें चलीं मोरी आद भुमानी दल पंगरे की रावरन जाय हो-ओ, माँ ।
सीस उगारें भाई लटें फिकारें कैसी आईं माज दुपारी हो- ओ माँ ।
तोरी सभा में को है ऐसो राजा, जो मोरे माथ ढोंकै हो ओ, माँ।
थान दसक मँगवाये दक्ष पँगरे माथे दकन न होयँ हो-ओ, माँ ।
कै मोरे माथे ढाँकै रे जगादेव के उरहई कौ रहया राव हो-ओ, माँ।
जो कछु देवै राजा रे जगादेव तीसों चौगनों देयों हो-ओ, माँ।
जगदेव देबै देस-परगनों मैं देयों राज तिहाई हो-ओ, माँ ।
जगदेव देबै इक दो घुड़ला मैं घुड़सार हँकाँओं हो-ओ, माँ।
जगदेव देबै इक दो हतिया मैं इतलार हँकाँओं हो-ओ, माँ ।
जगदेव देबै मोरें रुपइया मैं देओं खिचटा भराय हो-ओ, माँ ।
तामें के पत्र मँगाये जगतारन जगदेवजू की रावरन जाय हो-ओ माँ ।
आवत देखौ आद भुमानी जगदेवजू मन में गये मुस्क्याय हो-ओ, माँ ।
आव, आव रो मोरी आद भुमानी कानों टार ये पाँव हो-ओ, माँ।
तोई लों आई धारा नगरी के दै-दै हसायँ दान हो-ओ, माँ ।
आठ दार राजा गुपत चलये नमअयें दियो प्रगट चढ़ाये हो-ओ, माँ।
घरिमक बिलमों मोरा आद भुमानी मैं रनवासे जावँ हो ओ माँ ।
का रनियन के लेव बुलौआ, करें दान में दान हो-ओ, माँ।
नारी कभऊँ न निदरौ माता नारी कंचन खान हो-ओ, माँ।
नारी सें नर ऊपजें माता, धुरू पैलाद समान हो-ओ, माँ ।
नारी से राजा करन भये माता, दै लये सवाये दान हो-ओ, माँ ।
देवी जालपा ठाड़ीं दुआरें माँगें सीस कौ दान हो-ओ, माँ।
देव देव रे धारा नगरी के राजा, तोरी कलऊ नामना होय हो-ओ, माँ।
नौं गगरा राजा ततये धराये दसयें समोकनहार हो- ओ, माँ ।
सपर-खोर ठाँमो भये जगदेव, दै नरसिंगी खौर हो-ओ, माँ।
फूलाबाग लौं चलिये माता दै दँयों सीस कौ दान हो-ओ, माँ ।
राजा जगादेव खाँड़े अड़ाये रनियाँ ने ओर लये थार हो-यो, माँ।
पापिन कहये जगदेव की रानी कटवावे पिया के सीस हो-ओ, माँ।
ऐसो दान लिहों न राजा तोरी रनियाँ बदन मलीन हो-ओ माँ।
मोरे मायके में नइयाँ, ससुरे में नइयों थोरो देत लजाओं हो-ओ माँ ।
मोरे बलम को पतरी सी घिचिया, कय बुजबल देओं चड़ाय हो-ओ, माँ।
तोरे भुजबल कौ का करहों लहों पिया कौ दान हो-अ, माँ।
सीस काट तब राजा आँगे घरे, आद भुमानी लये सँवार हो-ओ, माँ।
रुंडा की माँछी बिड़ारत रइयो दलपाँगरे की रावरन जाँवँ हो-ओ, माँ ।
इक बन चाली, दो बन चाली, तिजबन पौंची जाय हो-ओ, माँ।
आबत देखौ दलपंगरे राजा, मन में गयो मुसक्याय हो-ओ, माँ।
इति या न ल्याई घुरला न ल्याई बायनों सो दाब लियाई हो-ओ, माँ।
ऊपर से पटका टारे भुमानी दलपंगरे करौ कलेऊ हो-ओ, माँ।
थार उतार धरे घरती पै सीस रहे मुसक्याय हो-ओ, माँ।
कागद करत कायथ कौ रै गओ उर नौआ कौ टोटा हो-ओ, माँ।
दान कबूले ते दलपंगरे देव चौगने दान हो-ओ, माँ।
घरियक बिलमों भोरी आद भुमानी मैं रनवासे जाँबँ हो-ओ, माँ ।
का रनियन के लेब बुलौआ, करें दान में हान हो-ओ, माँ।
कठवा का पुतली बाली तुरत दान महा कल्यान हो-ओ, माँ ।
भीतर घुसत जाँय दलपंगरे फेरत जाँयँ किबार हो-ओ, माँ।
देवी जलपा ठाँड़ी दुआरें माँगे हमाये सीस हो-ओ, माँ।
टका की मजूरी तुम कर खैयो मैं राँटा कर खाँवँ हो-ओ माँ।
सोने कुठरियन धँसो दलपंगरो, पवन लगे न बाव हो-ओ माँ।
देवी जालपा सत की आगरी पौंची मानकचौक हो-ओ, माँ।
देवी जालपा सत की आगरी भौंटा दये उपराज हो-ओ, माँ।
हौलें हौलें काटौ मोरी माता जिअरा खाँ दरद न होय हो-ओ, माँ ।
कै दलपंगरे कोड़ी कर दओं के तौ करौं पाखान हो-ओ, माँ ।
न माय माता कोड़ी करियो ना कटियो पाखान हो-ओ, माँ।
अपने भुवन की छिड़ियाँ बना चड़ आव चड़ जाव हो-ओ माँ ।
मनसें चली मोरी आद भुमानी हुलाबाग खों जाय हो-ओ, माँ ।
ऐसे साँकरे का परे माता आईं चरेरे धाय हो-ओ माँ ।
दये दान लैहों न माता रुंडा से मुंडा निकारौ हो-ओ माँ ।
ऐसे दान लिहयो न माता तोरी, कलऊ में नामना होय हो-ओ, माँ।
देवी जालपा सत करी आगरी रुंडा से मुंडा निकारौ हो-ओ-माँ।
रामा रे
रामा हो-ओ-ओ-ओ …………..भाई रे रामा हो-ओ-ओ
कुइला पै की पनहरिया, भाई रे कैसे बदन मलीन । रामा
कै तोरे हरला कुइला गिरे, भाई रे, कै बिचली पनिहार। रामा
ना मोरे हरला कुइला गिरे, भाई रे, ना बिचली पनिहार। रामा
पंछी बिचले दो जने भाई रे, इक दर्जी इक मनिहार । रामा
का जो ल्यावे दर्जी कौ लरका, भाई रे, का जो ल्यावे मनिहार। रामा
चुलिया ल्यावे दर्जी कौ लरका, भाई रे, हरला ल्यावे मनिहार । रामा
कोना की चोली उमाने भई, भाई रे, कोना के ढीले गाढ़े हार। रामा
दर्जी की चोली उमाने भई भाई रे, मनिहार के ढीले गाढ़े हार। रामा
साँजें बिरियाँ चाबिये चुलिया में पर जाये दाग । रामा
कै तोरे मिंत तमोरिया, भाई रे, कै गमा के लोग। रामा
ना मोरे मिंत तमोरिया भाई रे, ना मोरे गमा के लोग। रामा
घरई के देवरा लाड़ले बेई, भाई रे, ल्यावें महोबिया पान । रामा
साँजें लिरियाँ चाबिये, भाई रे, चुलिया में पर गये दाग। रामा
अरे, अरे भइया बरेठवा, भाई रे चुलिया के दाग छुटाव । रामा
जो हम तुमरे दाग छुटेंहें, भाई रे, का छुटवाई देव। रामा
सेरक कुदवा सासो दैहें, भाई रे, सेरक देयँ दुकाय । रामा
तोरे कुदवन को का करहों, भाई रे, मोरें गदहा लौंग चबायँ । रामा
दैहों दैहों हात मुदरिया, भाई रे, और गरे कौ हार। रामा
सिल धर फोरो तोरी हात मुदरिया, भाई रे, समुद बहाऊँ तोरो हार ।
लैहों, लैहों पिया के दोऊ खिलौना, भाई रे, और पिया कौ सिंगार ।
पिया के दोऊ जुबनवा भाई रे, मैं पापिन रखवार। रामा
दो बिधन्ता जे दये भाई रे, दो जो देते और। रामा
दो तो राखती बारे बलम कों और दो जो देती तोय। रामा
कुछ प्रसिद्ध लोक-कवियों की चौपदी फागें
जग में होय उजेरो जीकों राधा कौ मुख नीकौ ।
उते हिरात परब हीरन की कुंदन कौ रंग फोकौ,
जौ रंग रूप पाइये काँसों, बिरन करे जो झींकौ।
ईसुर सदा स्वाद बानी लयँ, सुक्ख सनेह अमी कौ ।
रैयो मनमोहन से बरकी तुम नइ भईं अहिर की।
होत भोर जमने न जैयो, दैकें कोर कजर की,
उनकौ राज उनहँ को रैयत, सिर पै बात जबर की।
ईसुर कात तला में बसकें, सैये सान मगर की,
हंसा फिरें बिपत के मारे, अपने देस बिना रे ।
अब का बैठें ताल तलैयाँ छोड़े समुद किनारे ।
चुन-चुन मोती उगले जिनने ककरा चुनत बिचारे
ईसुर कात कुटुम अपने सें मिलबी कौन दिना रे,
लै लो सीताराम हमारी, चलतीं बेराँ प्यारी।
ऐसी निगा राखियो हम पै, नजर होय न दुआरी ।
मिलकें कोऊ बिछुरत नइयाँ जितने हैं जिउधारी ।
ईसुर हंस उड़न की बेरा झुक आई अँदयारी।
बूँदा दमें बेंदी के नैचें, प्राण लेत है खैंचें।
नैंचें आड़ लगी सेंदुर की, दमकत भोंय दुबीचें।
गुड़ी तीन माथे में परतीं, बैठो दाब रँगीचें ।
कयें गंगाधर बीदन बीदी, पल भर पलक न मीचें।
सजनी हर बिन फागुन फीके, हमें लगेंना नीके ।
लिख राखीं बिरहा की पातीं, हात भेजिवे कीके ।
उन बिन पहर काटिये कैसें, रंज आपने जीके ।
चन्द्रसखी आवें मनमोहन, स्याम लगनियाँ जीके ।
मोरी जा कहियो गिरधर से सखी दरस बिन तरसें ।
का ना बनी बिगर गई हमसें, हरी निकर गये घरसें।
किये पठायँ को जाय कुबर कें, को लै जाबे करसें ।
चन्द्रसखी राधे के अँसुआ चौमासे से बरसें ।
गुदना लसत भौंह बिच बाँकौ, परत चन्द्र में टाँकौ ।
के तौ परौ सेज के ऊपर, सोवे कंत रमा कौ।
गरल कंठ लै आन बिराजो, के तौ पती उमा कौ।
कै तौ गोद लिये ससि बुध खाँ, कै तो नग पन्ना कौ ।
कवि ख्याली लग जाय नजर ना, पट घूँघट ले ढाँकौ।
मोती धन्न तोय मुख चूमत, रहत कपोलन झूमत।
दै ठोकर ठोड़ी के ऊपर, ठसक भरौ नित घूमत ।
बेसर बीच बास तें पायो, चलत हलत दें लूयत ।
खूब चंद तैं ही बड़भागी, मुख पर करत हुकूमत ।
फाग के एक दंगल में ईसुरी ने इसका यह उत्तर दिया.
साँकर कर्नफूल की होते, इन मुतियन की कोते ।
बैठत उठत निगन नियोरन में, परे जाल पै सोते ।
राते लगे माँग के नैचें, अंग-अंग सब जोते।
ईसुर इन खाँ देख देख कें, सबरे जेबर मोते
बुन्देलखंडी कानातें
- 1. अंड कौ मृदंग
(एरंड की लकड़ी का ढोल नहीं बन सकता। उसी प्रकार कोई व्यर्थ का काम करना ।)
- अंत मता सो मता ।
- अक्कल बिन पूत लडें ‘गर से।
लरका बिन बऊ डेंगुर सी।
- अकेली हरदसिया सबरो गाँव रसिया ।
- अड़की ऊँट लगौ, पै अड़की तो चहये ।
(अड़की में ऊँट बिकता है, परन्तु अड़की तो चाहिए ।)
अड़की की डुकरो, टका मुड़ावनी ।
- अधिक स्याने की बाँसें से उड़ाई जात ।
- अपनी अटकें गदा सें दद्दा कने परत ।
- अपनी अपनी दार न्यारी न्यारी टार ।
- अपनी ब्याई कौ का लुवाइत।
- अपनी अटकें सौत के मायके जानें परत।
- अपने मों घनाबाई
(अपने मुँह अपनी प्रशंसा करना।) - अबै तौ बिटिया बापई की ।
(अर्थात्, अभी कुछ नहीं बिगड़ा। अब भी बात सँभाली जा सकती है। हिन्दू-विवाह-प्रथा के अनुसार पूरी सात भाँवर पड़ने के पश्चात् ही लड़की को भार्यत्व प्राप्त होता है। उसके पूर्व छठी भाँवर तक वह पिता की ही मानी जाती है। उसी से कहावत बनी।)
- अरे-दरे खों गुपला नउआ ।
(इधर-उधर के काम के लिए गोपाल नाई।)
- असी कोस ससरार गैवड़े से काँछ खोलें।
- आँक टाँक उर काजरे।
देव टका भर आगरे।।
(अर्थात्, लिखावट के अक्षर, सिलाई के टाँके और काजल, ये थोड़े गहरे ही अच्छे होते हैं।)
- आलसी निगइया असगुन की बाट हेरे।
- आला कौ का गाइ ये सुघर लबार चाहये ।
- उड़ौ चून पुरखन के नाँव ।
- ऊधौ बन आये की बात ।
(अर्थात्, काम बन जाने पर सभी प्रशंसा करते हैं।)
- 20. एक दिना कौ पाउनों दो दिना को पई, तीसरे दिनारये तौ बेसरम सई।
- ऐसी सुहागिन सें तौ राँड़ई भले।
- औंगन बिना गाड़ी नई ढँड़कत ?
- कड़बारे के कोदों खायें ठसक के मारें मरी जायें।
- काँढे सें पूँछ नहयाँ, चेरियाँ नाँव ।
(रीढ़ की हड्डी के पास तो पूँछ कटी हुई है फिर भी नाम है, चँवरधारिणी ।)
- काँसे कौ सुर काँसे मँई रन दो।
- कानीं अपनो टेंट तौ निहारत नइयाँ, औरन की फुली पर पर देखें।
- काने सें कनवाँ कओ तुरतईं जावे रूठ ।
हराँ हराँ के पूँछि से कैसें गईती फूट ॥
28.कुजाँगाँ खता और ससुर बैद ।
29.कुतियाँ प्रागे जेयँ तौ हँड़िया को चाट
- कोरी कौ सुआ का पढ़े? तगा पौनी ।
- कोलू के बैल खों नाहर खाय, अपनी घानी उतर जाय ।
- खर खाई उर कुत्तन जूँठी।
- खुरपी को टेड़ो बैंट मिलई जात ।
- गदन खाओ खेत पाप न पुन्न ।
- गाँज बरै पूरन को लेखौ ।
(घास का पूरा ढेर जल रहा है और हिसाब एक-एक पूले का लगाते हैं।)
- गाँव कौ समदी पोंदन की ओट।
- गाये गीत कौ का गाइये ।
रँधे भात कौ का राँधिये ।
- जेवड़ें आई बरात बौड़ार कातबे बैठ ।
- गोऊँ खेत में लरका पेट में, पासनी करौ दिन धरई दो।
- गोरी कौ जुबना चुटकन में।
- घरई की कुरइया से आँख फूटत।
- घर की बिटिया घुरहगनू ।
- घर-घर के निपटलो बराती भौत हैं।
- घर बरौ सौ बरौ चोंखटन की ऐंड़ तो खुल गई।
(घर जला सो जला, चूहों की अकड़ खुल गई।)
- घर बैठे मुतियन चौक पूरत ।
- घर में नहयाँ चून चनन कौ, ठाकुर बरी करावें ।
- घिसे बिना चिलक नईं आऊत ।
- चित्त चँदेरी मन मालअ में ।
(चित्त चँदेरी में और मन मालवा में। .अर्थात्, अस्थिर चित्त।)
- चित्त मोरी, पट्ट मोरी अंट मोरे बाय कौ।
- चूले खों लूगर बताबो ।