खंड-1 लोक : परिचय एवं विस्तार
March 28, 2025खंड-3 बुंदेली लोक साहित्य का विकास एवं वर्गीकरण
March 29, 2025पहले ‘बालक अभिप्राय’ के विविध रूपों को विश्व संकलित वार्ता काशों से तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया जा सकता है, यथा- मिस्र की पुराण-कथा में ‘होरस’ की ऐसी ही अवस्था है। होरस का पिता ओसिरिस उसके भाई सेत द्वारा एक कफन में जिन्दा वन्द कर समुद्र में बहा दिया जाता है। सेत राजा हो जाता है। ओसिरिस की स्त्री आइसिस मारी-मारी फिरती है। तभो होरस का जन्म होता है। सेत को पता लग जाता है। वह माँ-बेटे को एक मकान में बन्दी बना देता है। सेत होरस को मार डालना चाहता है कि कहीं वह अपने पिता के राज्य का दाबेदार न बने। किन्तु थोक आइसिस को इस संकट को सूचना दे देता है। आइसिस होरस को लेकर भाग कर बूटो (Buto) पहुँचता है। वहाँ होरस को नगर की कुमारी देवी उआजीत (Uazit) को सौंप वह ओसिरिस की खोज में निकल जाती है। यह देवी संपिणी था। इस कथा में होरस के पिता नहीं, माता मारी-मारी फिरती है, बंदी हो जाती है, फिर वह होरस से बिछुड़ भी जाती है, उसका पालन पोषण सर्पिरणी (देवी) करती है। यूनान में जियस का पिता क्रोनस तो स्वयं हो अपने पुत्र का शत्रु है, क्योंकि भविष्यवक्ता ने बताया है कि उसका पुत्र ही उसे मारेगा। अतः जियस को जन्म लेते हो या तो कोट की एक गुफा में ले आकर छिपाया गया, या वह गुफा में ही पैदा हुआ, और वहाँ गुप्त रूप से उसका पालन-पोषण डिक्टाश्रन देवियो ने और क्यूरेटाज न किया। डायोनीसियस जब गर्भ में छः महीने का था, उसकी मां सेमेले (Semele) की मृत्यु हो गयो। सेमेले की भस्म से डायोनोसियस को उसका पिता उठा लाया। तीन महीने अपनी जांघ को काट कर उसमें रखा पूरे नौ महीने हो जाने पर जिग्रस ने उसे हर्मीज़ को सौंप दिया, उसने इनो ओर अथमस को सौंप दिया। उसकी विमाता हेरा उसके प्राणों की ग्राहक थी। उसे ओर भो कई दिव्य व्यक्तियों के पास पालन-पोषण के लिए रहना पड़ा। अपोलो की मां लीटो को पुत्र के साथ मारे-मारे फिरना पड़ा है। बालक अपोलो ने माँ को पाशविक ट्टियोस के अत्याचारों से रक्षा करना पड़ा है-लीटो को हेरा के भय से मारे-मारे फिरना पड़ा है और एक गुप्त स्थान पर अपोलो को जन्म देना पड़ा है।
भारत में तो बाल देव के वर्णन वैदिक काल से ही मिल जाते हैं। इन्द्र के बालपन का जो वृत्त वेदों दिया गया है, वह भी ऐसे हो बाल-देवी के समकक्ष है। पैदा होते ही उसे माँ से पृथक् होना पड़ा है, तया दूसरों के हाथों ही उसका पालन पोषण हुआ है। कुमार जो मूलतः बाल-देव ही हैं, उनकी स्थिति भी कुछ विचित्र है। उनकी कथा में मूलरूप में माता पिता हीनता का तत्व विद्यमान है, क्योंकि विविध वृत्तों पर ध्यान दिया जाय तो विदित होगा कि पार्वती ने इन्हें गर्भ में धारण नहीं किया। उन्हें अग्नि ने धारण किया, इस भय से अस्ति कुछ काल तक भागती-छिपती फिरी थी तो अंगिरा ने धारण किया, तब अग्नि ने। वह भी उस तेज को धारण किये न रह सकी, गंगा जी को दिया, गंगाजी ने कृत्तिकाश्री (षड्मातृकाओं) को दिया। उन्होंने उसका पालन-पोषण किया। सर-भू भी कुमार का नाम है, उन्हें सरपत से उत्पन्न माना है। इस प्रकार जब मां हो नहीं तो, पिता कहाँ ? पिता तो सदैव हो विकल्पित होता है। फिर भी यदि पितृत्व स्वीकार भी किया जाय तो मातृहीन तो मानना हो पड़ेगा। ऐसे बालकों की कथा में यही होता है कि वह कई स्थानों पर पलता है। यहाँ पहले तो गर्भ हो कई स्थानों पर गया है, फिर ‘षड्मातृकाओं’ का विश्लेषण करदें तो छः माताओं ने पालन किया।
उधर गणेश जी बाल-देव के रूप में आते हैं, उनकी स्थिति कुमार से उल्टी है। कुमार की माता नहीं थी, गणेश के पिता नहीं। बिना पिता के जन्म हुआ है- अर्थात पिता नहीं। एक जंगल में एकांत गुफा में वह त्याज्य-माता के साथ रहता है। यह सब लोक कथा के अनुरूप हैं।
जैन वृत्तान्तों में हनुमान जन्म भी माँ की असहावावस्था में हुआ है। उनको माँ अंजना को सास-ससुर ने चरित्र दोष के सन्देह में निकाल दिया था। ऐसो असहायावस्था में हो हनुमान जी का जन्म हुआ था। जैन क्षेत्र के ‘प्रद्युम्न चरित्र में प्रद्युम्न जन्म के समय ही माँ-बाप से पृथक् कर दिया गया। उसे एक दैत्य पूर्व-जन्म की शत्रुता के कारण उड़ा ले गया और एक पत्थर के नीचे दबा दिया। वहाँ से उसे विद्याधर कालभँवर और उसकी पत्नी ले गये, और उसका पालन-पोषण किया। उसने वाल्यावस्था में ही अनेक अद्भुत पराक्रम दिखाये।
धर्मगाथा के क्षेत्र में ऐसे कितने ही बालकों का उल्लेख है जिन्हें असहायावस्था में दिखाया गया है। प्रह्लाद को भी धर्मगाथा में ऐसी असहायावस्था में दिखाया गया है जैसे उसके माता-पिता या अभिभावक हैं ही नहीं। स्वयं उसका पिता हो उसका शत्रु बन गया है। प्रह्लाद बालक को अनेक घातक कष्टों में से होकर निकलना पड़ा है। प्रह्लाद को पहाड़ से नदी में गिराया गया, जेल में भूखों मारा गया, आग में जलाया गया, उत्तप्त स्तम्भ से बाँधा गया, किंतु सब संकटों से वह बच गया।
इसी प्रकार भारत में अनेक लोक कथाएँ हैं जिनमें बालवीर का जन्म असहायावस्था में होता है, या जन्म के उपरान्त ही वह असहायावस्था या अनाथावस्था में पड़ जाता है। यह असहायावस्था या अनाथावस्था वाला बालक या तो बाल्यकाल में ही चमत्कार दिखाता है, या बाद में आकर अत्यन्त प्रवल दिखायी पड़ता है। (1) उदयन-कथा में मृगावती को गरुड़ उड़ा ले गया। पिता-रहित स्थिति में उसका जन्म हुआ। साधुओं के आश्रम में पालन-पोषण हुआ। (2) शकुन्तला को अप्सरा उड़ा ले गयी। पति से विद्युक्तावस्था में भरत का जन्म हुआ। यह भरत सिहों से खेलता था। (3) राजा नल के जन्म के समय उसकी माँ मंझा को राजा प्रथम ने महल से निष्कासित कर दिया था। उसे चाण्डालों को सौंप दिया कि इसे मार डालो। पर चांडालों ने दया कर उसे छोड़ दिया। वह जंगलों में भटकती फिरी, ऐसे ही वियावान में हीस के लता गुल्म में नल उत्पन्न हुआ। नाल काटने के लिए और जन्म के गीत गाने के लिए देवो आयी थी। तब मंझा और नल को एक सठ साथ ले गया। उसके यहाँ दोनों का पालन-पोषण हुआ। बाल्यावस्था में ही नल ने दानव को मारकर मोतिनी से विवाह किया था।
सब इन समस्त रूपों की तुलना में यह स्पष्ट विदित होता है कि इनमें चार तत्व है- (1) परित्यक्तावस्था, (2) अजेयतत्व, (3) द्वियौनत्व, (4) आदि-अन्तैक्य। इनसे कथा के चार रूप प्रस्तुत होते हैं (1) बाल कथा, (2) वीर-कथा, (3) काम-कथा तय (4) धर्म कथा या मोक्ष-कथा। इन चारों तत्वों के योगायोग में भारत, यूनान तथा अन्य देशों को धर्मगाथाएँ तथा लोक-गाथाएँ पल्लवित हुई है- धर्मगाथाओं में यह बालक ‘देवता’ बन गया है, बाल-कथाओं में विलक्षण बालक। यह बाल रूप वैयक्तिक मनोमूल का भी उतना ही परिणाम है जितना कि संग्रहीत मनोमूल का। संगृहीत मनोमूल सृष्टि-आदि-मूल बालक का वाहन बना है। वैयक्तिक मनोमूल का आधार ‘प्रथम मानव’ है। इस समस्त सारिणी को पृष्ठ 67 पर दिये गये चित्र से समझा जा सकता है।
इस प्रकार इन लोक तत्वों के सूत्रों का विवरण और इतिहास प्रस्तुत किया जा सकता है। (ज) तब इन तत्वों का साहित्य उसकी ऊंची से ऊँची अभिव्यक्ति में खोजना अपेक्षित होगा, क्योंकि जिस प्रकार साहित्यकार जानबूझ कर अलंकार, रीति, वृत्ति, छन्द, रस आदि का उपयोग करता है और अपनी अनुभूति उसके द्वारा प्रकट करता है वैसे ही अनजान और जान में वह इन लोकतत्वों का भी उपयोग अपनो अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए करता है। इन अनुभूतियों के इस माध्यम का किस कवि ने साहित्यिक सौन्दर्याभिवृद्धि के लिए किस प्रकार उपयोग किया है, यह जानना आज आवश्यक हो गया है, क्योंकि साहित्य शास्त्र में जिन जड़ तत्वों के उपयोग से काव्य सृष्टि के अध्ययन का उल्लेख हुआ है, उनका जोवन की गहराइयों से उतना सम्बन्ध नहीं। ऐसा हो अध्ययन धर्म और आस्थाओं का भी करना होगा। उनसे लोक-विकास के साहित्य को और मानवीय सभ्यता को क्या मिला है, यह अनुसंधान भो अपेक्षित होगा। वस्तुतः मानव का समस्त प्रयत्न अपने स्वरूप की समग्र उपलब्धि के लिए है। इस उपलब्धि की सफलता के लिए लोकतात्विक अध्ययन आज अनिवार्य सा प्रतीत होता है।
लोकवार्ता के तत्व तथा लोक-मानस
लोकवार्ता[1] के अन्तर्गत वह समस्त अभिव्यक्ति आती है जिसमें आदिम मानस के अवशेष आज भी दिखायी पड़ते हैं। आाज की वैज्ञानिक दृष्टि यह मानती है कि विश्व को प्रत्येक मानव जाति ने अपनी यात्रा का आरम्भ आदिम वर्बर अवस्था से किया है। मनुष्य को दैवी उद्भावना और दिव्य महत्ता-युक्त आरम्भ में विश्वास करना आज मूर्खता समझी जाती है। बर्बरावस्था से विकसित होकर मनुष्य ने प्राज को सभ्यता उपार्जित की है। जैसे विकसित होने पर भी मनुष्य आदिम मनुष्य का ही रूपान्तर है उसी प्रकार मनुष्य को अभिव्यक्तियों में भी आदिम अभिव्यक्ति के अवशेष रह ही जाते हैं। वे अवशेष लोकवार्ता है और लोकवार्ता-शास्त्र के अध्ययन की वस्तु है। किन्तु लोकवार्ता जिन अवशेषों का अध्ययन करती है, वे अवशेष केवल मूल आदिम मनुष्य के हैं इस बात को निश्चयपूर्वक आज किसी भी शास्त्र अथवा विज्ञान को कहने का अधिकार नहीं है। क्योंकि प्रारंभिक आदिम मनुष्य इतना प्राग-ऐतिहासिक है और मनुष्य के अनुमान के भी इतने परे हैं कि उसके सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना अवैज्ञानिक माना जायगा। वस्तुतः लोकवार्ता के अवशेषों के अध्ययन का अर्थ है कि उस आदिम लोक-प्रवृत्ति को समझा जाय जिसके परिणामस्वरूप लोकवार्ता प्रस्तुत होती है यह लोक-प्रवृत्ति जब-जब जहाँ-जहाँ जिस मात्रा में विद्यमान मिलेगी, वहाँ तब उसी परिमाण में लोकवार्ता भी मिलेगी। विश्वामित्र बौर वशिष्ठ, राम और कृष्ण, विक्रमादित्य तथा गोरखनाथ के सम्बन्ध में हमें एकानेक लोकवार्ताएँ मिलती है। ऐतिहासिक दृष्टि से ये व्यक्ति और इनके विषय की ये लोकवार्ताएँ आदिम मनुष्य के द्वारा उद्भावित नहीं। विश्वामित्र तथा वशिष्ठ की लोकवार्ताएँ वैदिक काल की देन है, राम घोर कृष्ण की वार्ताएँ पौराणिक काल की। विक्रम की कहानियां डेढ़-दो हजार वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुई होगी और गोरख की सात सौ आठ सौ वर्ष पूर्व ये सभी लोकवार्ताएँ है, बाज इनका इसी रूप में लोकवार्ता के अध्येता उपवास करते है। क्योंकि विश्वामित्र, वशिष्ठ, राम-कृष्ण, गोरख के नाम किसी विशेष ऐतिहासिक काल के हो सकते है, पर उनकी वार्ताएँ उन तत्त्वों से मुक्त है जो लोक-प्रवृत्ति के हैं। ऐतिहासिक काल की इनकी वस्तु लोक में पहुंचते ही लोक प्रवृत्ति के अनुकूल ढल गयी। फलतः लोकवार्ता की वस्तु की नहीं, लोकवातों की प्रवृत्ति की विशेषताएँ समझने की आवश्यकता है, और इसी प्रवृत्ति में हमें आदिम मानव की प्रवृत्ति के अवशेष देखने को मिलेंगे। प्रत्येक वार्ता में दो बातें स्पष्टतः मिलती है: एक कोई न कोई आधार-तथ्य, दूसरे इसका स्वरूप। तथ्य तो तथ्य है, सूर्य तो सूर्य है, पर उसका स्वरूप क्या है ? प्राकृतिक विज्ञान-वेत्ता के लिए वह एक अग्निपिंड है और उसका मात्र भौतिक स्वरूप ही उसे मान्य है। पर लोकवार्ताकार के लिए यह सूर्य एक मनुष्य की भाँति है, उसके माँ है, उसके स्त्री है, स्त्री फूहड़ है आदि। तय है कि गोरखनाथ एक योगी हुए हैं, और उन्होंने एक प्रवल सम्प्रदाय भारत में चलाया। किन्तु गोरखनाथ के उस ऐतिहासिक तथ्य को लोकवार्ता ने एक अद्भुत स्वरूप दिया है। लोकवार्ता का मूल रहस्य इस त्वरूप में ही है, यह स्वरूप ही उस प्रवृत्ति का परिणाम है, जिसे लोक प्रवृत्ति कहते हैं। इस लोक-प्रवृत्ति में ही हमें आदिम मानव की प्रवृत्ति के अवशेष मिलते हैं, इन्हीं अवशेषों के परिणामों का अध्ययन लोकवार्ता के अध्ययन का विषय होता है। आधुनिक लोकवार्ता-वेत्ता इस लोकवार्ता-प्रवृत्ति का हो अध्ययन विशेषतः करते हैं। लोकवार्ता को जन्म देने वाली लोक प्रवृत्ति को लोक मानस से सम्बन्धित माना जा सकता है। यह लोकमानस उस प्रवृत्ति से बिल्कुल भिन्न और अद्भुत होता है, जो सभ्य तथा संस्कृत मनीषिता को प्रकट करती है, और जिसे मुनि-मानस से सम्बन्धित माना जा सकता है। इस दृष्टि से समस्त मानव समुदाय के मानसिक स्वरूप को तीन भागों में बाँट सकते हैं। प्रथम लोक-मानस, द्वितीय जन-मानस, तृतीय मुनि-मानस। लोक-मानस वह मानसिक स्थिति है जो आज आदिम मानस की परंपरा में है, उसी का अवशेष है। आज के सभ्य समाज के मानसिक स्वरूप में इसे सबसे नीचे का धरातल माना जा सकता है। मुनि-मानस वह मानसिक स्थिति है जो मानव-समाज ने सभ्यता के विकास के साथ-साथ उपार्जित की है। यह आज के समाज के मानसिक स्वरूप का सबसे ऊँचा धरातल माना जा सकता है। मध्य की स्थिति जन-मानस की है। लोकमानस से लोकवार्ता का जन्म होता है। मुनि-मानस से दर्शनशास्त्र तथा विज्ञान और उच्च कलाओं का। जन-मानस साधारण व्यवसायात्मक बुद्धि से संबंध रखता है। यह केवल व्यवहार में ही परिणति पाता है, और व्यवहार में हो विलीन हो जाता है, कोई अन्य मूर्त अभिव्यक्ति इससे नहीं होती। फलतः यदि हम लोक-मानस को समझ लें तो हम लोकवार्ता की विशेषताओं को भी समझ लेंगे।
[1] 1. (अ) मैरेट ने गोम्मे के एक उद्धरण के द्वारा फोकलोर के क्षेत्र का स्वरूप वहुत ही स्पष्टतः पष्टतः प्रस्तुत किया है; वह उद्धरण यों हैः- ‘Folklore may be said to include all the culture of the people which has not been worked into the official religion and history, but which is and has always been of self growth”- Psychology and Folklore by R. R. Marett, p. 76,
(आ) बर्न महोदय ने “हैंडबुक आव फोकलोर” में लोकवार्ता के अन्तर्गत आने वाले विषयों का निर्देश करके उसके क्षेत्र को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार लोकवार्ता के विषयों को तीन प्रधान समूहों में बाँटा जा सकता है। प्रत्येक समूह में निम्नलिखित बातें हो सकती हैं-
- वे विश्वास और आचरण-अभ्यास जो सम्बन्धित हैं – 1. पृथ्वी और आकाश से, 2. वनस्पति जगत से, 3 पशु जगत से, 4. मानव से, 5 मनुष्य निर्मित वस्तुओं से, 6. श्रात्मा तथा दूसरे जीवन से, 7. परा-मानवी व्यक्तियों से (जैसे देवताओं, देवियों तथा ऐसे ही अन्यों से) 8. शकुनों-अपशकुनों, भविष्यवाणियों, आकाशवाणियों से, 9. जादू टोनों से, 10. रोगों तथा स्यानों की कला से ।
- रीति-रिवाज- 1. सामाजिक तथा राजनीतिक संस्थाएँ, 2 व्यक्तिगत जीवन के उद्गार, 3. व्यवसाय-धन्धे तथा उद्योग; 4. तिथियाँ, व्रत तथा त्यौहार; 5.खेल-कूद तथा मनोरंजन ।
3.कहानियाँ, गीत तथा कहावतें – 1.कहानियाँ (अ) जो सच्ची मान कर कही जाती हैं। (आ) जो मनोरंजन के लिए होती हैं, 2. गीत, सभी प्रकार के, 3. कहावतें तथा पहेलियाँ, 4. पद्यबद्ध कहावतें तथा स्थानीय कहावतें।
अतः यह स्पष्ट है कि दुर्गा भागवत अथवा एनसाइक्लोपीडिया आव सोशल साइंसेज के ‘फोकलोर’ निबंध के अनुसार लोर को लिटरेचर या साहित्य का पर्याय मानकर केवल मौखिक अभिव्यक्ति को ही लोकवार्ता नहीं माना जा सकता ।
लोक-मानस
लोक-मानस लोक साहित्य के निर्धारण में सबसे प्रमुख तत्व है। अभी कुछ समय पूर्व तक मनोविज्ञान केवल चेतन मानस को ही स्वीकार कर के चलता था। फ्रायड ने अपने अनुसंधान से अवचेतन मानस का अनुसंधान अथवा उद्घाटन किया। यद्यपि फ्रायड के मत में अनेकों संशोधन हुए हैं फिर भी अवचेतन मानस की सत्ता में अव संदेह नहीं रह गया। फ्रायड ने अवचेतन मानस के निर्माण के कारण-स्वरूप कुण्ठा को स्वीकार किया था। किन्तु ‘प्राणिशास्त्र’ उत्तराधि-करण को असिद्ध नहीं कर सका है। हमारे पूर्वजों का दाय हमें हमारे जन्म के साथ मिला है। हमारी प्रवृत्तियाँ उस दाय का परिणाम हैं। वे प्रवृत्तियाँ उस दाय का परिणाम हैं जो हमारे निर्माण के मूल स्वरूप का आधार हैं। इन प्रवृत्तियों का स्थान भी तो मानस में ही होगा। चेतन-मानस में तो ये विद्यमान मिलती नहीं, ये तो अवचेतन मानस की भांति मनुष्य के समस्त व्यक्तित्व को ही प्रेरित और निर्माण करने वाली हैं। फलतः दाय में प्राप्त मानस का स्थान अवचेतन मानस में ही हो सकता है। इस प्रकार अवचेतन मानस के दो भेद स्वीकार करने होंगे। एक सहज अवचेतन, दूसरा उपार्जितावचेतन। यह सहज अवचेतन ही लोक मानस है। हम नहीं कह सकते कि इस मानस के संबंध में मनोविश्लेषक अवचेतनवादियों ने कितना विचार किया है, किंतु इस मानस की सत्ता में सन्देह नहीं किया जा सकता। आज के मानव को आदिम मानवीय वातों से क्यों रुचि है ? क्यों आज का महान् वैज्ञानिक और घोर बुद्धिवादी भी असंभव तथा अद्भुत लोक कहानियों में आकर्षण अनुभव करता है। क्यों आज भी हम किसी न किसी रूप में, किसी न किसी, प्रकार के ऐसे विश्वासों को प्रचलित पाते हैं जिन की वैज्ञानिक व्याख्या नहीं हो सकती, जो बौद्धिकता के लिए सहज ही अमान्य हैं। आज बीसवीं सदी के उत्कृष्टतम मनुष्य में भी हम जब वह रंगत देख पाते हैं जो स्पष्ट ही आदिम मानव की वृत्ति का अवशेष ही कहा जा सकता है, तो लोक-मानस की उपस्थिति स्वीकार ही करनी पड़ती है। श्री हर्बर्ट रोड जैसे साहित्यशास्त्री ने भी ऐसे मानस की सत्ता की ओर संकेत किया है। यद्यपि उन्होंने उसे यह नाम नहीं दिया है। रीड महोदय का कहना है कि :
Such lights come, of course, from the latent memory of verbal images in what Freud calls the pre-conscious state of mind or from still obscurer state of the unconscious in which are hidden not only the neural traces of repressed sensations but also those inherited patterns which determine our instinct. [Form in Modern Poetry, p. 36.7]
यह इनहैरिटैड पैटर्न ही हमारा लोक मानस है।
इस लोक-मानस की सत्ता का उद्घाटन करने का श्रेय लोकवार्ताविदों को देना पड़ेगा। मैरेट महोदय ने लिखा है:
“ठीक जिस प्रकार भीड़ (क्राउड) का मनोविज्ञान होता है उसी प्रकार उस समूह का भी मनोविज्ञान हो सकता है जिसे सर जेम्स फेजर ‘मानव-राशि’ (Multitude) अथवा कम प्रिय शब्दों में ‘लोक’ (फोक) कहेंगे।” इन शब्दों से प्रकट होता है कि 1620 के लगभग इस लोक मनोविज्ञान की संभावना की ओर संकेत ही किया जा रहा था। इस लोक मानस की स्थिति के विषय में मैरेट ने आगे कहा :
“भीड़ तो मनुष्यों के अस्थायी ओर अनियमित संघ को कहते हैं। ऐसी दशा में यह कुछ विशिष्ट प्रकार के कार्यों और आवेशों को प्रदर्शित करती है, इनकी व्याख्या और विश्लेषण काफी सफलता से किया जा चुका है। अतः इसी प्रकार मनुष्य-राशि तो मानो एक स्थायी भीड़ है और एक ऐसी भीड़ है जो अपनी सामूहिक प्रवृतियों को परंपरा के रूप में चिरगामी कर सकती है, और इस परम्परा में वह विशेष प्रकार के आचरण को प्रकट करती है जो निश्चय ही पृथक रूप से अध्ययन करने योग्य हैं आदि।
मैरेट ने यही बताया है कि इस दिशा में कुछ प्रयत्न हुए है। उसने एम. लैवी व्रुह्ल का नाम लिया है जिसने ‘सामूहिक मानस’ अथवा ‘असभ्य जाति’ की मनोवृत्ति पर लिखा है। दूसरा नाम मि. ग्रैहम वैलेस का लिया है, उन्होंने उसी दृष्टि से आधुनिक राष्ट्र के जन-मानस का वर्णन किया है। किन्तु साथ ही उन्होंने इस बात पर खेद प्रकट किया है कि-
हमारे पास बहुत सी विस्तारव्यापी सामग्री के रहते हुए भी लोक के मनोजीवन के विशद् चित्रण का ही किंचित उद्योग नहीं हुआ है, फिर उसको उस सामान्य विश्लेषण के लिये कैसे कहा जाय जिसके द्वारा यह स्पष्ट किया जाता है कि अपनो स्पष्ट अभिव्यक्तियों में वह प्रत्यक्षतः इतनी सामाजिक संघटनाशील (gregarious) कैसे और क्यों है। [पृ. 124।]
अतः 1920 के लगभग से इधर विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ। लोक-वार्ताविदों ने लोक-मानस की सत्ता को स्थापित किया। आज ‘लोक मनोविज्ञान’ (फोक साइकोलॉजी) एक महत्वपूर्ण मानस-विज्ञान है, जिसकी परिभाषा ‘कोष’ में इस प्रकार मिलती है।
लोक मनोविज्ञान-जनों का मनोविज्ञान जिसको लोगों (पीपिल्स) के विशेषतः आदिमों के विश्वासों, रिवाजों, रूढ़ियों आदि के अध्ययन में काम में लाया जाता है, तुलनात्मक अध्ययन भी इसमें आ जाता है।
लोक-मानस की सत्ता का यह उद्घाटन वैज्ञानिक अथवा ज्ञान के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण घटना है, और उसने इस समय तक की विविध घातक सामूहिक मोविज्ञान विषयक अवैज्ञानिक मान्यताओं और सिद्धान्तों को हटाकर एक शुद्ध वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान किया है। यह बात फ्रांज बोआज (Franz Boas) को पुस्तक ‘दो माइण्ड आफ प्रिमिटिव मैन’ में दिये गये तद्विषयक इतिहास से भली प्रकार समझी जा सकती है। उसे यहाँ संक्षेप में दिया जाता है।
सामूहिक मनोविज्ञान में जातीय मनोविज्ञान (Racial Psychology) का बहुत जोर रहा है। लिन्ने ने ‘जातीय रूढ़ रूपों’ (Racial Types) का वर्णन करते हुए प्रत्येक जाति के विशेष मानसिक लक्षणों का उल्लेख किया। ऐसे मनोवैज्ञानिक उद्योगों के मूल में यही स्थापना काम कर रही थी कि उच्च मानसिक उपलब्धियों के लिए उच्च वंश परम्परा होती है। वूलेन विल्लियर्स (1727), जोह्न बेड्डो, तथा ए. प्लूज ने भी विविध जातियों के मानसिक लक्षणों का निर्धारण किया है।
गोबीन्यू ने इसी सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए शरीराकार और मानसिक क्षमता का संबंध स्थापित किया। प्रत्येक जाति (Race) की शारीरिक विशेषता होती है, और उसी के अनुसार मानसिक संस्थान का निर्माण होता है।
गोबीन्यू ने ‘जातीय मानस’ के सिद्धान्त को प्रणाली का आधार प्रदान किया। इस सिद्धान्त ने सर्वप्रथम ठोस वैज्ञानिक प्रभाव भी बहुत डाला। इसके समस्त वैज्ञानिक अध्ययन के चार निष्कर्ष थे:
- जंगली जातियों की जो स्थिति आज है वही सदा से रही है ओर ऐसी ही रहेगी, भले ही वे कितनी हो ऊँचो संस्कृतियों के संपर्क में क्यों न आयी हो।
- जंगली जातियों जीवन के किसी सभ्य डरें में रहती चली जा सकती हैं, यदि वे जन जिन्होंने जीवन के उस दरें को निर्मित किया उसी जाति को श्रेष्ठतर शाखा के हैं।
- ऐसी ही अवस्थाओं की तत्र आवश्यकता है जब दो सभ्यताएं एक दूसरे से आदान प्रदान करती हैं, और अपने तत्वों से मिलाकर एक नयी सभ्यता का निर्माण करती हैं, दो सभ्यताओं का सम्मियण कभी नहीं हो सकता।
- उन सभ्यताओं के पारस्परिक सम्पर्क बहुत ऊपरी होते हैं, वे एक दूसरे में कभी भिद नहीं सकती, और सदा परस्पर अलग अलग रहेंगी, जो सभ्यताएँ ऐसी जातियों में उद्द्भुत हुई हैं जो एक दूसरों के लिए विजातीय है।
क्लैम्म (1843) ने मानव जाति के दो भेद स्वीकार किये हैं। एक कर्तृत्व शील या ‘पुरुष अर्द्ध’ और ‘रम्य’ (पैसिव) या ‘स्त्री अर्द्ध’। यह विभाजन सांस्कृतिक आधार पर किया गया है। पारसी, अरब, यूनानी, रोमन, जर्मन जातियां, तुर्क, तारतार, क्षोर कैसस, पेरू के इन्का और पॉलीनीसिया निवासी-‘पुरुष’ पक्ष वाली जातियां हैं- मंगोल, नोग्रो, पापुअन, मलायो, अमेरिकन, इंडियन, आदि ‘स्त्री’ पक्ष वाली जातियाँ हैं। पुरुष जातियों का पोषण हिमालय प्रदेश में हुआ, वहीं से विश्व में फैली। इनकी मानसिक विशेषताएं हैं – प्रवल संकल्प शक्ति, शासन की इच्छा, स्वाधीनता, स्वच्छन्दता, क्रियाशीलता, चंचलता, विस्तार की भावना, तथा यात्रा-प्रियता, हर क्षेत्र में विकास, खोज और परीक्षा की ओर स्वाभाविक रुचि, घोर हठ तथा संदेह। वुत्ते ने भी बलैम्म के मत को स्वीकार किया।
कार्ल गुस्तव केरस (1849) ने बताया कि इस पृथ्वी की जातियों में अपने ग्रह (planet) के ही लक्षण प्रतिबिम्बित होने चाहिये-अपने ग्रह पृथ्वी पर रात होती है, दिन होते हैं, प्रातः होता है और सायं भी। इसी प्रकार यहाँ चार जातियां हो सकती हैं। दिवस जाति- यूरोप निवासी तथा पश्चिमी एशिया निवासी, रात्रि जाति- नीग्रो लोग। प्रातः जातियाँ मंगोल। सायं जातियाँ- अमेरिकन इण्डियन। दिवस जातियों की खोपड़ी बड़ी होती है। रात्रि जातियों की छोटी। प्रातः-सायं वाली मध्यम। केरस विविध जातियों का आकृति-निदान भी करता है। केरस ने समस्त जातियों में तीन को विशेष महत्व दिया है: सत्य के निर्माता हिन्दू, सौंदर्य-निर्माता मिस्त्री, मानवीय प्रेम के निर्माता यहूदी। अमेरिकन लेखकों में सैम्युल जी. मोर्टन का नाम उल्लेखनीय है। इस लेखक ने विविध जातियों के अध्ययन के बाद यह मत स्थापित किया कि मानव समूह का जन्म एक से नहीं अनेक स्रोतों से हुआ है और प्रत्येक जाति की जातीय विशेषताएँ उनकी शारीरिक गठन से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। इस सिद्धान्त को जे. सो. नौट्ट तथा जार्ज आर. ग्लिडन ने नीग्रो लोगों की गुलामी को पुष्ट करने के लिए काम में लिया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि नीग्रो जाति का उद्भव ही गुलामी के लिए हुआ है।
हाउस्टन स्टीवार्ट चैम्बरलैन ने बताया कि जातियों के मूल उद्भव तक जाने की आवश्यकता नहीं। आज तो जातियों के भेद विद्यमान हैं। इस यथार्थ की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हमें तो केवल यह जानना है कि यह जातिगत भेद क्यों है और कैसे है? तब वह इंगलिश जाति को यूरोप में सबसे बलवान जाति बताता है और उसके कारणों पर भी प्रकाश डालता है, गोबीन्यू और चैम्बरलेन का प्रभाव मैडिसन ग्राण्ट पर भी पड़ा। उसने विश्व की महान विभूतियों को नौदिक रखत का परिणाम बतलाया है, और कहा है कि विश्व में मनुष्य में विकार नीग्रो तथा काली आँखों वाली जातियों से होगा।
लोथाप स्टोड्डार्ड ने स्थापित किया कि जब दो जातियों से मिश्रित संतति होती है तो उत्तम विशिष्टताओं का ह्रास ही होता है।
ई. वान ईक्स्टेट (E. Von Eickstedt) ने जातीय मनोविज्ञान (Race Psychology) की नींव डालने की चेष्टा की। वह आधुनिक गेस्टाल्ट-मनोविज्ञान से प्रभावित है, और यही मान कर चलता है कि जब जातीय भेद प्रत्यक्ष है तो उनके मनोविज्ञान के तत्व भी स्पष्ट ही दिखायी पड़ते हैं। इन तत्वों का शारीरिक गठन से सम्बन्ध होगा ही, क्योंकि शारीरिक गठन और मानसिक आचार से मिलकर ही जातीय इकाई बनती है।
आधुनिक काल में मनोवैज्ञानिकों के कई सम्प्रदाय मिलते हैं :
- वह संप्रदाय जो यह मानता है कि जाति ही मानसिक आचार और संस्कृति का स्वरूप निर्धारित करती है। यह दृष्टिकोण प्रबल भावनामूलक मूल्यों के कारण है। इस युग में राष्ट्रीय भावना के स्थान में जातीय भावना को महत्व मिल रहा है।
- वह संप्रदाय है जिसे शारीरिक मनोविज्ञान में विश्वास है। यह मानता है कि शरीर के विन्यास के अनुरूप ही मानसिक स्वरूप होता है। इसका परिणाम यह है कि आज यह विश्वास किया जाता है कि मनोवैज्ञानिक परीक्षण से मनुष्य की सहज बुद्धिमत्ता, भावना-प्रवणता, संकल्प शक्ति के रूप को जाना जा सकता है।
- वह संप्रदाय है, जो उत्तराधिकरण (heredity) को मान्यता देता है। इसका सिद्धान्त है: संस्कार नहीं, प्रकृति (Nature, not nurture)। दूसरे और तीसरे संप्रदाय का परिणाम यह हुआ है कि लोग परिस्थितियों के प्रभाव को नगण्य समझते हैं, समस्त मानसिक निर्माण का मूल उत्तराधिकरण मानते हैं।
- वह सम्प्रदाय है जो परिस्थितियों के प्रभाव को भी स्वीकार करता है, फिर भी यूजेन फिशर की भाँति यह मानता है, कि उत्तराधिकरण से प्राप्त जातीय भेद भी उन परिस्थितियों के विकारों में व्याप्त रहते हैं।
- वह सम्प्रदाय है जो हर्डर के साथ यह मानता है कि इन समस्त प्राणि शास्त्रीय (biological) सांस्कृतिक अन्तरों का मूल कारण प्राकृतिक परिस्थितियाँ ही हैं।कार्ल रिट्टर ने भौगोलिक प्रभाव को और भी अधिक पुष्ट किया।
- वह सम्प्रदाय जो न जातिवाद को मानता है, न परिस्थितियों को वरन् जो विश्व भर में मानव की समान स्थिति को स्वीकार करता है और केवल ‘ऐतिहासिक सांस्कृतिक’ भेद स्वीकार करता है। यह दृष्टिकोण हर्बर्ट स्पेंसर, ई0 वी. टेलर, एडाल्फ वास्टिअन, लीविस मोर्गन, सर जेम्स जार्ज फ्रेजर के उद्योगों का परिणाम है, जिन्हें आधुनिक काल में डारखीम तया लेवी बहुल ने और परिपुष्ट किया है। वुट ने फोक-साइकालोजी में भी ऐसे ही दृष्टिकोण को बल दिया है। इस मत से विश्व-भर में मानव-मानस की मौलिक समतंत्रता (Sameness) सिद्ध होती है, वह चाहे किसी जाति का क्यों न हो। इस प्रकार विश्व-व्यापी एक मानव-मानस की स्थिति में विश्वास इस ‘लोक-मानस’ के सिद्धान्त के द्वारा पुष्ट हुआ है। [यहाँ तक ब्रोआज की पुस्तक के आधार पर]
इस ऐतिहासिक दृष्टि-बिन्दु से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह ‘लोक-मानस’ की उद्भावना सामूहिक लोक मनोविज्ञान के क्षेत्र में एक यथार्थवादी वैज्ञानिक और सबसे महत्वपूर्ण स्थापना है जो ऐतिहासिक क्रम में आज उपलब्ध हुई है।यहाँ हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि जब हम मानव-मानस में आज ‘लोक-मानस’ की स्थिति का उल्लेख करते हैं तो हमारा अभिप्राय उस उत्तराधिकरण के सिद्धांत से नहीं जो जातीय दृष्टि से उसे ग्राह्य मानते हैं। मानव ने जन्म लेते ही अपनी आदिम अवस्था में जो मानसिक उपलब्धियाँ प्राप्त कीं वे उसकी सहज मानवीय प्रकृति बन गयीं। वे ही निरन्तर मानस की परम्परा में मानव को मानव बनाने के लिए सूत्र रूप में उत्तराधिकरण के रूप में, युग-युग में मानव मानव में अवतरित होती चली जाती हैं। और आदिम दाय के रूप में कहीं अवचेतन के अन्तर्गत मूल मानसिक प्रकृति के रूप में सभ्यातिसभ्य मानव में भी विद्यमान रहती हैं।
लोक-मानस के तत्व
फ्रेजर ने यह स्थापित किया था कि ‘लोक-मानस’ के दो प्रधान लक्षण है-1. लोक मानस विवेकपूर्वी (Prelogical) होता है। उसने प्रिलाजिकल कहा है। लोजिक अथवा कार्य कारण के यथार्थ क्रम को समझ सकने वाले मानस के उद्घाटित होने से पूर्व की स्थिति से सम्बन्ध रखने वाली मन की प्रकृति। किन्तु जैसा कि ‘विफोर फिलासफी’ नाम की पुस्तक में कहा गया है, “Scholars who have proved at length that primitive man has a pre-logical mode of thinking are likely to refer to magic or religious practice, thus forgetting that they apply the Kantian categories, not to pure reasoning but to highly emotional acts’, p.19। क्योंकि वस्तुतः वे तर्क तो कर सकते थे। कार्य कारण क्रम की आवश्यकता वे समझते थे। पर सम्भवतः किसी भी क्रम को ही वे कार्य-कारण समझ सकते थे। कार्य कारण में व्याप्त यथार्थ कारणत्व और कार्यत्व उनके लिए महत्व नहीं रखते थे। अतः ‘लोक-मानस’ को ‘विवेक पूर्वी’ नहीं कहा जा सकता। फेजर महोदय ने तो त्रिलाजीकल उसे इसलिए माना है कि उनकी व्याख्या में विरोधी तत्वों (contradictions) का समीकरण रहता है।
- फ्रेजर ने दूसरा लक्षण स्थापित किया कि वह मिस्टिक अथवा रहस्यशील होता है। क्योंकि वे अपने अनुभवों की व्याख्या में पराप्राकृतिक शक्तियों का आश्रय लेते हैं। पर यह पराप्राकृतिक शक्तियों की शरण लेना वस्तुतः उनके मानस की मूल विशेषता नहीं। यह तो उनकी एक विशेष मूल मनोस्थिति का परिणाम है। वे क्यों पराप्राकृतिक शक्तियों की कल्पना करते हैं यह जानने को चेष्टा करने से ही हम मूल ‘जोक-मानस’ के तथ्य से परिचित हो सकेंगे।
वस्तुतः मूल सृष्टि कालोन मनुष्य में विद्यमान सबसे प्रथम अपने जन्म की सहज प्रतिक्रियाओं का प्रतिफल है- ‘लोकमानस’। आज फ्रायड के सिद्धान्तों से इतना तो अवश्य ही सिद्ध होता है कि उत्पन्न होते समय भी बालक में मूल काम-भाव व्याप्त रहता है जिसे हम रति कह सकते हैं। रति विस्तार चाहती है। बाह्य से आनन्दमय सम्पर्क। किन्तु बाह्य से अपनी रक्षा का भाव भी उसमें सहज है। इसका प्रतिरूप है भय। रति और भय के दो मूल सहज भाव आदिम मानव में जन्म से आये। रति ने ‘रिचुअल’ अथवा अनुष्ठानों (विधि) के रूप खचे किये, भय ने टैबू अथवा निषेध और वर्जन के रूप। उस ‘विधि-निषेध’ के कर्म में हम आदिम मानव में जिस मनोस्थिति को विद्यमान देखते हैं वह सबसे पहले अभेद द्योतक बुद्धि प्रतीत होती है। ‘लोक मानस’ ‘निज’ और जड़ ‘पर’ के स्वरूप को भिन्न भिन्न नहीं देख-समझ सकता। उसके लिए समस्त सृष्टि उसो के समान सत्ता रखती है। वह व्यक्ति विशेषो (subjective) और वस्तु-विशेषी (objective) भेद करने की सामर्थ्य नहीं रखता। वह किसी वस्तु को वस्तु के रूप में नहीं देख पाता। उसे प्रत्येक वस्तु अपने समान धर्मवाली ही विदित होती है। वह सूरज को निकलते देखता है, आकाश में चढ़ते देखता है और डूबते देखता है। तो वह उसे अपनी तरह ही आते और जाते देखता है और समझता है, ओर अपने इस ज्ञान को वह यथार्थ ज्ञान मानता है। यह ज्ञान रूपक की भांति नहीं, न यह ज्ञान उसके अपने व्यक्तित्व का विस्तार है कि जिसे अपने से इतर सृष्टि को समझने या जानने या अभि-व्यक्ति को सुविधा के लिए अपने ही रूप का प्रतिरूप मानता है।
इस यथार्थ का भाव उसमें बहुत प्रवल है। उसके लिए ऐसी समस्त बातें यथार्थ सत्ताशील हैं जो उसे प्रभावित कर सकें, जो उसके हृदय और मस्तिष्क पर एक छाप छोड़ सकें। इस मानसिक स्थिति में स्वप्न भी उतने ही यथार्थ हैं जितने कि जागृत अवस्था के दृश्य। ऐसे हो कितने हो ऐतिहासिक कथानक मिल जाते है जिनम स्वप्न की वार्ता को पूर्ण आस्था के साथ स्वीकार किया गया है। हरिश्चन्द्र ने स्वप्न में महर्षि विश्वामित्र को पृथ्वी दान में दे दी और जगकर भी उस सत्य का पालन किया। बहुत से लोग स्वप्नों से अपने लिए मार्गदर्शन की प्रेरणा ग्रहण करते हैं। फारहों[1] ने तो यह बात लेखबद्ध भी कर दा है कि उन्हाने कितने ह। कार्य स्वप्नों को प्रेरणा से किये। इसी प्रकार भ्रम दृश्य (hallucinations) भा आदिम मन के लिए मिथ्या नहीं सत्य थे। जमोरिया के अस्सढ़द्दन के सरकारी विवरणों में यह उल्लेख किया गया है कि उनका सेना जब सिनाई रेगिस्तान में होकर जा रही थो ओर बहुत थकी-मादी थी तो उन्हें दो सिरों वाले हरे उड़ने वाले सांप दिखायी पड़े थे। तात्पर्य यह है कि भ्रम-दृश्य जैसा वस्तु भ्रम के रूप में उनके लिए अस्तित्व नहीं रखती थी। जो उन्हें दिखायी पड़ा, भले ही वह भ्रम हो, पर जिसने उनके हृदय अथवा मस्तिष्क को प्रभावित किया, उसे वे अस्वीकार नहीं कर सकते थे, उसको सत्ता उन्हें यथार्थतः माननी पड़ती थी।
इसी प्रकार, तीसरे, वे जीवित और मृतक में भी कोई विशेष भेद नहीं कर सकते थे, स्वप्न में अथवा जागृत स्मृति में मर जाने वाले सजीव मानस चित्रों के आवर्तन से उसे मृतक भी जीवित की भाँति सत्तावान ज्ञात होते थे। वस्तुतः तो उनसे भी अधिक।
चौथे, अंश और समग्र वस्तु में भी वे कोई भेद नहीं कर सकते थे। शरीर का एक अंश भी, सिर का एक बाल ही क्यों न हो, उसके संपूर्ण शरीर के ही तुल्य ग्रहण किया जाता था। कहानियों में मिलने वाले अभिप्रायों में हमें ऐसे बहुत से अभिप्राय मिल जायेंगे, जिनमें किसी व्यक्ति के बाल को आग में तपाने से उस व्यक्ति को बुलाया जा सकता है। इस ‘अभेदवाद’ में ही यह मान्यता भी आती है कि नाम भी व्यक्ति से अभिन्न है। अनेकों क्षेत्रों में अपने से बड़ों के नाम भूमि पर लिखने का घोर निषेध है, इस निषेध के पीछे यही भावना काम करती है कि नाम पर पैर पड़ेंगे, और यह ऐसा ही है जैसे स्वयं नामधारी पर पैर पड़े हों। इसो विश्वास का एक रूप हमें माध्यमिक राज्यों के मिस्र राजाओं की एक रिवाज में मिलता है। ये लोग प्यालों पर अपने शत्रुओं के नाम खुदवा देते थे, और उन्हें एक विशेष संस्कार के साथ फोड़ डालते थे, इससे वे विश्वास करते थे कि अब उनके शत्रुओं का नाश हो गया। आज भी ब्रज के गाँवों में स्त्रियाँ दिवाली और होली पर वैरियरा को कूटतो हैं, वे अपने कुटुम्ब के प्रत्येक व्यक्ति का नाम लेकर उसके वैरियरा का उल्लेख करके पृथ्वी पर मूसल कूटती हैं। वे यथार्थ में विश्वास करती हैं कि इससे शत्रु कुचल जायेंगे।[2] वे यह भेद भी नहीं कर सकते थे कि कार्य कोई और वस्तु है और संस्कारानुष्ठान कोई और। एक किसान अपनो सफल फसल को देखकर यह नहीं कह सकता था कि यह सफलता उसकी मेहनत का फल था या उसके द्वारा किये गये अनुष्ठान का। उसके लिए दोनों ही एक तत्व बनकर उपस्थित होते हैं।
इसी प्रकार उसके लिए भावांश (concept) भी मूर्त स्वरूप वाले होते थे। उदाहरण के लिए ‘प्राण’ उसके लिए मूर्त वस्तु है जिसे वह ले-दे सकता है, अथवा बाँट भी सकता है। सत्यवान के शरीर से यम प्राण नाम का पदार्थ निकाल ले गये, और सावित्री को वह पदार्थ लोटा भी दिया। मृत्यु भी मूर्त वस्तु की भाँति परिकल्पित है। यम भी मृत्यु का मूर्त रूप है।
यह बात भी यथार्थ है कि आदिम मानस ‘कार्य कारण’ के भ्रम पर तो विश्वास करता था, पर वह उसे एक व्यक्तित्व हीन प्राकृतिक व्यापार मानने को तैयार नहीं था। वह प्रत्येक कार्य का कारण चेतना और ‘इच्छा’ से संयुक्त किसी पदार्थ को मानता था, इसलिए जैसा हेनरी फेंकफर्ट आदि ने लिखा है, कार्यकारण की स्थापक प्रश्न-प्रणाली से वे ‘कैसे’ और ‘क्यों’ का उत्तर नहीं ढूंढ़ते थे, वे ‘कौन’ की कल्पना करते थे। वे यह तो मानते थे कि यह जो वर्षा होती है अथवा रात-दिन होते हैं उनका कारण अवश्य है, पर वह कारण कोई सिद्धान्त विशेष नहीं हो सकता, कोई व्यक्तित्व ही हो सकता है। कोई व्यक्ति है जो बादलों को भेजता है और वर्षा कराता है। सूर्य एक व्यक्ति है, वह आता है और जाता है। इसी प्रकार प्रत्येक व्यापार के लिए वे कारणों की कल्पना करते थे।
कारण और कार्य में इस मूर्त चेतन व्यक्तित्व की स्थापना के हो साथ वे उनमें इच्छा के भी दर्शन करते थे। मृत्यु या जीवन पदार्थ रूप तो है ही, उनके आदान-प्रदान में इच्छा का भी तत्व है। इस इच्छा तत्व और मूर्तत्व से सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण होता है, तब गुणों और दोषों के रूपों की कल्पना आदिम मानस करने लगता है। इसी स्तर पर देवताओं और असुरों का जन्म होता है।
कार्य और कारण को कल्पना में वे किसी भो निकटस्थ तत्व को कारण स्वीकार कर सकेंगे, भले ही वह यथार्य कारण न हो। केवल दो की संबद्धता हो कारण रूप में पर्याप्त है। मिस्र में यह माना जाता रहा है कि आकाश स्त्री है, और पृथ्वी पिता। आकाश पृथ्वी के ऊपर लेटा हुआ था किन्तु वायु के देवता शू ने दोनों को पृथक कर दिया और आकाश को ऊपर उठा दिया। शू को उस रूप में मानने का कारण केवल यही है कि उन्हें आकाश और पृथ्वी के बीच में वायु का संचार दिखायो देता था। द्यावा-पृथ्वी को भारतीय परिकल्पना में भी माता-पिता स्वीकार किया जाता है।
वह विविध तत्वों और व्यापारों में संघर्ष भी देखता है, और इच्छा-व्यापार-युक्त उसे मूर्त रूप देता है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट हो सका है कि आदिम मानव की मनोवैज्ञानिक स्थिति में निम्नलिखित तत्व होते हैं-
- समस्त सृष्टि मनुष्य के ही तुल्य है। यदि इस सृष्टि में वह स्वयं ‘मैं’ है तो सृष्टि का प्रत्येक अन्य अंग उसके लिए ‘तू’ है।
- प्रत्येक व्यापार, गुण आदि उसके लिए मूर्त अथवा पदार्थवत सत्ता रखता है, मृत्यु, जीवन, प्राण आदि उसके लिए पदार्य रूप ही है जिनका आदान-प्रदान हो सकता है।
- तुल्य और तुलनीय, अंश और अंशी, चिह्न-प्रतीक और प्रदाता अथवा लक्ष्य में श्रभेद होता है।
- देश काल के भेद से होने वाली आवृत्ति में भी मूल विद्यमान रहता है।
- प्रत्येक व्यापार अथवा तत्व ‘इच्छा’ से भी संयुक्त होता है।
- व्यापारों में कार्य कारण परंपरा होती है पर कोई भी कारण निकटता, संबद्धता, पूर्वकालिकता के तत्त्व से युक्त होने पर कारण हो सकता है।
- वह विविध प्राकृतिक तत्वों में संघर्ष भी लक्षित करता है। सूर्य और रात्रि में संघर्ष होता है। सूर्य परास्त होता है आदि।
इन तत्वों के साथ ही यह बात परिलक्षणीय है कि आदिम मानव समस्त सृष्टि से अपने व्यक्तित्व का तटस्थ नहीं रख सकता था। वह मनतः और कर्मतः मानसतः और भावतः सृष्टि के समस्त व्यापारों का अंग होता। अतः तुल्य-मूर्त विधान को मान्यता के साथ वह अपने लिए उपयोगी अनुपयोगी तत्वों को अपने द्वारा प्रस्तुत करता था। इस प्रस्तुत की अनुठान अथवा रिचुअल कहा जा सकता है। इसके द्वारा वह प्रकृति के विविध तत्वों के संघर्ष व्यापार में सहयोग देता था।
प्रकृति से वह सहयोग भाव से चलता था। प्रत्येक प्रकृति के व्यापार में वह अपने लिए किसी प्रकार का अर्थ भो ग्रहण करता था। शकुनों का उद्भावना इसी स्थिति का परिणाम है।
ऊपर लोक-मानस के जो तत्व प्रस्तुत किये गये हैं, उन्हें संक्षेप में हम केवल चार कोटियों में विभाजित कर सकते हैं। वे हैं:-
- यथार्थ और कल्पना में भेद करने की असमर्थता। – प्राकल्पना (फेटैसी थिंकिंग)
- प्राणि-अप्राणि, ‘जड़ चेतन’ को आत्मा से युक्त जानना-आत्मशीलता (ऐनिमिस्टिक थिंकिंग)
- यह विश्वास होना कि तुल्य से तुल्य पैदा होता है । टोना विचारणा (मैजिकल थिंकिंग)
- यह विश्वास होना कि विशेष विधि से कार्य करने से इच्छित फल अथवा अभीष्ट प्राप्त होगा। आनुष्ठानिक विचारणा (रिचुअल थिंकिंग)
- इन मानसिक तत्वों के परिणाम निम्नलिखित होंगे-
- सत्य और स्वप्न में अभेद इससे वह इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि उसके दो अस्तित्व हैं-एक वह जो शरीर से सम्बद्ध है, दूसरा वह जो शरीर छोड़ कर ‘स्वप्न’ में घूमता फिरता है।
- शरीर और छाया में अभेद छाया को भी उतना ही महत्वपूर्ण मानना और अपना स्वरूप मानना, जितना शरीर को।
- मृतक को भी सोया हुआ मानना, और यह समझना कि उसका दूसरा व्यक्तित्व ‘आत्मा’ कहीं भटक गया है, वह संभवतः फिर कभी लौटेगा। अतः उसके शव को सुरक्षित करके उसके साथ भोजन आदि की वस्तुएँ रखने को व्यवस्था की गयी।
- भूत-प्रेतों में विश्वास इसी वृत्ति का परिणाम है। कितनी ही ऐसी आदिम अथवा असभ्य जंगली जातियों हैं जो पशुओं, पेड़ों और पत्थर तक के भूतों अथवा प्रेतों को मानती हैं।
- अचरों, जड़ों अथवा अप्राण पदार्थों को आत्मतत्व से युक्त देखना जिससे वृक्ष, पहाड़, नदी, नाले चेतन मानवों की भाँति काम करते माने जाते हैं।
- क्रम के संयोग से वस्तुओं में कार्य-कारण की कल्पना जिसे काक-तालोय भी कह सकते हैं। उदाहरणार्थ कभी कई दिनों से मेह पड़ रहा है, और बंद नहीं होता, तभी किसी से तवा उल्टा होकर आँगन में गिर पड़ा, इसके बाद ही संयोग से मेह बन्द हो गया; तो आँगन में उल्टा तबा रखना मेह बन्द होने का कारण मान लिया गया।
- तुल्य से तुल्य को प्रभावित करना- पुतलों में सुई चुभोकर मनुष्य की मृत्यु में विश्वास करना।
- अंश से अंशी को प्रभावित करना किसी के नाम, वस्त्र, शरीर के अंश, बाल, नाखून, आदि से उसे प्रभावित करना।
- इसी विश्वास से टोने करने वाले भोपों अथवा जादूगरों अथवा स्यानों का प्रादुर्भाव।
- विशेष विधि से अनुष्ठान करने से बलात् अभीष्ट की सिद्धि – इसी के फलस्वरूप मंत्र से अथवा अनुष्ठान से फल-सिद्धि मानी जाती है। ‘पुत्रेष्टियज्ञ’ इसी वृत्ति का परिणाम है।
- संतान-धारण और संभोग क्रिया में कार्य कारण की स्थिति का अज्ञान- ऐसी आदिम जातियाँ आज भी हैं जो यह नहीं समझती कि पिता के कारण पुत्र पैदा होता है। आज भी स्त्रियाँ और पुरुष देवी-देवताओं और पीरों-पैगम्बरों से संतान की याचना करती मिलती हैं, वह इसी मूल आदिम विश्वास का ही अवशेष है।
- आदिम मानव व्यक्ति के अस्तित्व को नहीं मानता, वह तो ‘दल’ के अस्तित्व को ही मानता है। इसी के परिणामस्वरूप ऐसे समाजों में यह स्थिति मिलेगी कि एक लड़का अपने दल के समस्त वयोवृद्ध व्यक्तियों को पिता या पिता-तुल्य मानता मिलेगा।
इसी मनोवृत्ति का परिणाम यह भी है कि किसी-किसो आदिम जाति में एक दल की समस्त समवयस्क स्त्रियों, पुरुष को बहिनें मानी जाती हैं। और उस दल की समस्त समवयस्क स्त्रियाँ उसकी पत्नी के समकक्ष, जिसमें उसका विवाह हुआ है।
इस सम्बन्ध में ही आर. आर. मैरेट ने “साइकोलोजी एण्ड फोकलोर” (1920) नाम के निबन्ध संग्रह में लिखा है: “यह कथन जोड़ना और है कि यद्यपि लोकवार्ताविद का धर्म, मेरी दृष्टि में, यही है कि वह अपनी विषय वस्तु को स्थिर न मानकर परिवर्तनशील ही माने, जीवित माने, मृत नहीं, फिर भी इसके यह अर्थ नहीं कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ऐन कोई स्थायी छाया के समूह होंगे ही नहीं जो चित्रकला (Kinematographic) को प्रणाली से देखने पर प्रतिफलित होंगे, ऐसा कुछ भी नहीं मिलेगा जिसे अपेक्षाकृत स्थिरशील मानकर उस परिवर्तन की नाप-तोल का साधन बनाया जा सके। उलटे मनुष्य की आन्तरिक प्रकृति के अध्ययन से तो यही घोषित करने की ललक होती है कि “plus ca Change plus i’ est to me’me Chose”. यह मानना न्याय संगत ही होगा कि मानव जाति (स्पीसीज) ने वनमनुष्यों (एप्स) से किसों विधि से अपना सम्पूर्ण विच्छेद तो सदा के लिए कर लिया पर तब से अब तक वह अपने रूप को प्रत्यक्षतः वैसा ही बनाये रख सकी। (पृष्ट 16)
यही विद्वान आगे लिखता है :
“किन्तु सम्य मानस के क्षेत्र में प्राचीन पाखंड छिपे पड़े हैं। एक क्षण के लिए भी किंचित विवेक वेतन (रेशनल) का प्रयत्न शिथिल होते ही मानस क्षेत्र में ये सामने आकर उपस्थित हो जाते हैं। (पृ. 22)
यही लेखक आगे लिखता है कि :
“यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि लोकवार्ता में अवशेषों के अविशिष्ट रहने पर विचार किया जाता है तो ये अवशेष क्यों बचे रहते हैं? ये भी अन्य बातों को तरह समाप्त वयां नहीं हो जाते।” लेखक कहता है “इसका ठीक उत्तर यह है कि ये इसीलिए बचे रहते हैं कि ये लोक के उस जीवन के वे उपलक्षण हैं जिनकी निरन्तर पुनरावृत्ति होती रहती है और जिनमें ही केवल दीर्घकाल में यह अवशिष्ट रहने की आन्तरिक क्षमता रहती है।” इससे स्पष्ट है कि लोक जीवन में जो परम्परागत अवशेष रहता है, उस अवशेष के साथ वह मानस भी अवशेष के साथ रहता है जिसका उस अवशेष के साथ सम्बन्ध है। वस्तुतः जब तक मानस में उस अबशेष के लिए आग्रह नहीं हो तब तक कोई वस्तु अवशेष की भाँति परम्परा से परम्परा में जा नहीं सकती। मूलतः ये मानस की मूल वृत्तियाँ हैं जो मानव के आदिम से आदिस रूप को अपने अन्दर बचाये हुए हैं।
समस्त मानसिक संस्थान में अब हम ‘लोक मानस’ की स्थिति को और भी भली प्रकार समझ सकते हैं-
पहिले समस्त मानस के दो बड़े भेद किये जा सकते हैं: 1 – चेतन तथा 2. अवचेतन। तीसरा भेद अर्द्धचेतन का भी मानना होगा। यह अवचेतन और चेतन के बीच का अवकाश नहीं, यह चेतन की परिधि के रूप में है, चेतन की आवश्यक सीमा। श्रवचेतन के दो बड़े भेद होंगे; उपार्जित अवचेतन, जो मनोविश्लेषणवादियों के अनुरूप स्थिति रखता है और कुण्ठाओं तथा दमित वासनाओं का बना हुआ है। 2. उत्तराधिकारेय मानस। यही लोक-मानस है। इसके निर्माण में दो तत्व है: 1. आदिम उत्तराधिकरण यह मानव के मन की गति का प्राकृतिक दाय है। 2. ऐतिहासिक उत्तराधिकरण- आदिम काल से चलकर आज तक उस प्राकृतिक आदिम मानसिक संस्थान के सूत्रों से संलग्न होकर इतिहास क्रम में विविध संस्कारों और संस्कृतियों के विकास से उपलब्ध मानसिक संस्कार जो आज हमारी रुचि ओर प्रवृत्ति के मूल में श्रलक्षित विद्यमान मिलते हैं।
प्रश्न यह है कि लोक-मानस को यह स्थिति ‘व्यक्तिगत’ है या सामूहिक। ऊपर से यह प्रश्न कुछ हास्यास्पद प्रतीत होता है। मानस का संबंध मस्तिष्क से है। मस्तिष्क किसी शरीर का ही अंश हो सकता है। अतः मानस तो किसी व्यक्ति में ही हो सकता है। किन्तु बात इतनी सरल नहीं। मानव का मनुष्य से संबंध है। मनुष्य का शरीर से। शरीर व्यक्तिपरक होता है। इसके होते हुए भी हम ‘मानव’ की एक ऐसी स्थिति भी मानने को बाध्य होते है जो मात्र ‘व्यक्तिगत’ नहीं। यह मानव क्या है? क्या इसके शरीर नहीं है ? है ! पर वह व्यक्तिरूप में नहीं मिलेगा। व्यक्ति व्यक्ति में व्याप्त जो शरीर धर्म है वस्तुतः मानव का वही शरीर है। क्या यह नहीं पूछा जा सकता कि सृष्टि में जो अरबों मनुष्य है, उनमें से प्रत्येक को हम मनुष्य ही क्यों मानते हैं ? जातिवादियों ‘रेसथ्योरी’ मानने वालों ने छोटे मस्तिष्क[1] या सिर बाले नीग्रो और विशाल मस्तिष्क वाले यूरोपियनों में भेद माना है, उनकी विविध शक्तियों में अन्तर माना है उनके द्वारा होनेवाले हानि-लाभ को भी आंकने की चेष्टा की है। पर उन्हें ‘मनुष्य’ सभी ने माना है। यही नहीं सबसे आदिम जंगली मानव से लेकर आज के सभ्यातिसभ्य मनुष्य को भी मानव कहा जाता है। ऐसा क्यों ? कोई ऐसा धर्म अथवा लक्षण अवश्य है जो समान रूप से सब में व्याप्त है। वह प्रत्येक शरीर में प्रकट होता है, किन्तु सब में समानता है। यही मानव है जिसमें संसार में फैले हुए प्रत्येक मनुष्य का रूप समाया हुआ है। इस मानव की सत्ता ही उसमें मानस को सत्ता की स्थिति की भी सूचना देती है। जब ‘मानव’ है तो उसका मानस भी होगा। यह मानस वह मानस होगा जो ऐतिहासिक कालक्रम से आदिम से लेकर आज तक और भौगोलिक क्रम से समस्त विश्व में प्रत्येक मस्तिष्क में ‘सामान्य मानस-धर्म’ के रूप में विद्यमान है। इस अर्थ में ‘लोक मानस’ मात्र व्यक्तिगत नहीं। व्यक्तिगत रूप में स्थित भी वह सामान्य मानस है जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति का मानस मानस कहलाता है, बोर जिसके कारण हो मानव मानव के लिए प्रेषणीय हो पाता है। इसी अर्थ में यह सामूहिक भी है क्योंकि समस्त मानव समूह में अपनी सामान्यता के कारण यह धर्म के रूप में विद्यमान प्रतीत होता है। जैसा ऊपर बताया जा चुका है आज यह लोकवार्ताविदों के द्वारा सिद्ध हो चुका है कि मानव-मात्र समान मानस धर्म रखता है।
लोक-मानस उस मानव-मानस का ही एक अंश और अंग है। इस लोक-मानस का प्रत्यक्षीकरण किसी व्यक्ति के द्वारा नहीं होता। व्यक्ति में विद्यमान रहते हुए भी मनोवैज्ञानिक इस मानस की झाँकी अभिव्यक्ति के माध्यम से ही कर पाते हैं। अनादिकाल से आज तक और सृष्टि में ओर से छोर तक मनुष्य मात्र की जितनी भी अभिव्यक्तियाँ हैं, उनके विश्लेषण से ही लोक-मानस की स्थिति और उसके स्वरूप का ज्ञान होता है।

लोक-मानस और मानव-प्रकृति :
उक्त विवरण से कुछ ऐसा आभास मिलता है कि लोक-मानस और मानव-प्रकृति को अभिन्न मान लिया गया है। वस्तुतः मानव-प्रकृति तो मनुष्य के स्वरूप का मूल है और मानस उसका एक अंग मात्र। मानव-प्रकृति मानस की दिशा निर्धारक प्रकृति है। मानव प्रकृति के, रूढ़ मूल स्वरूप के अनुसार जो मानस ढला, वह जिस प्रकार से ऐतिहासिक भौगोलिक क्रम में प्रतिक्रियावान अथवा क्रियावान होकर विकसित होता हुआ, पर अपने रूड़ मूल की सीमाओं अथवा तत्वों को न त्यागता हुआ, चला आया है, वही लोक-मानस है। यह आदिम मानस ‘प्रिमिटिव माइंड’ भी नहीं है, और ‘जन मानस’ भी नहीं है। यह तो मात्र वह प्राकृतिक आदिम रूढ़ मूल मानस है जो ऐतिहासिक अथवा भौगोलिक स्थितियों के परिणाम को किसी भी रूप में ग्रहण नहीं करता। इस आदिम शब्द का प्रयोग आज विद्यमान आदिम जातियों के लिए भी होता है। यतः आज आदिम मानस से आदिम जातियों की मानसिक विशेषताओं का ही ज्ञान होता है। निश्चय ही यह लोक मानस नहीं। लोक मानस का किसी वर्ग अथवा जाति विशेष से संबंध नहीं। वह तो सर्वत्र मानस के मूल में विद्यमान तत्व है। यह जंगल में भी और शहर में भी मिलेगा।
लोक-मानस क्यों हमें आज जन मानस से भी भिन्न मानना होगा। जन को यदि जाति ‘रेस’ का पर्याय माना जाय तो वस्तुतः लोक-मानस उसका विरोधी है। लोक-मानस की अवस्थिति ऐसे जन-मानस के सिद्धान्त को भ्रामक सिद्ध करती है। किन्तु आज जन शब्द रेस अथवा जाति के अर्थ में नहीं आता। आज जन शब्द से जनता का भी अर्थ ग्रहण किया जाता है। जनता शब्द भी विश्व भर के सामान्य मनुष्य का वाचक है। अतः जन मानस उस सामूहिक ‘कलैक्टिव’ मनोविज्ञान का एक रूप है, जो वस्तुतः मानस के चेतन पक्ष पर बल देता है। जन-मानस किसी युग का वह साधारणीकृत मानस होता है, जिसमें चेतन रूप में सामाजिक संस्कार-बद्धता के साथ युग के विधि-विषेधों के परिणाम से उदभूत चेतन वृत्तियाँ फलित होती हैं। इसका सम्बन्ध चेतना-ग्राह्य वृत्तियों से है। इन मानसिक वृत्तियों की पृष्ठभूमि सामाजिक संस्कारों को चेतना और युग-चेतना के साधारणीकरण से प्रस्तुत होती है। इसी कारण यह लोक-मानस से भिन्न है।
लोक तत्व और लोक-मानस
संगृहीत मानस (Collective Mind) के संबंध में एक और दृष्टि से विचार करना भी आवश्यक है। लोकवार्ता के विविध पर्तों का उल्लेख करके संगृहीत मानस से लोक-मानस के अन्तर को और अधिक वैज्ञानिक आधार पर प्रकट करने की आवश्यकता है, इसे सप्रमाण मनोवैज्ञानिक अथवा मनोविश्लेषक प्रयोग से और यथार्थ परीक्षण पूर्वक करना होगा। इसे हम यों प्रस्तुत करते हैं: और जिस शाब्दिक अभिव्यक्ति अथवा वारणी में जितना यह लोक मानस अधिक मात्रा में मिलेगा, उतनी ही वह लोक-साहित्य के अन्तर्गत आ सकेगी। मैरेट महोदय ने लिखा है कि, ऐतिहासिक परिस्थितियों बदलती है, जबकि मनोवैज्ञानिक स्थितियों अपेक्षाकृत स्थायी होती हैं। लोक-साहित्य के विद्यार्थी को दोनों के साथ ही न्याय करना चाहिये। logy and Folklore (P.121)” क्योंकि आज लोकवार्ता मात्र अवशेषों का ही अध्ययन नहीं है, लोक-मानस के साथ लोक आज मानव में जीवित है। लोक साहित्य के द्वारा हम उसे आज उसके इतिहास के साथ विद्यमान रूप में अध्ययन करते हैं। वस्तुतः लोक साहित्य के अध्ययन का अभिप्राय इसी लोक-मानस का उद्घाटन करना है।
लोकतत्व
लोकतत्व की एक चर्चा यों की जाती है (अ) “अतः हमें यह मानना ही चाहिए कि इन रूमानी वैदिक संवादों (उर्वशी-पुरुरवा तथा यम-यमी संवादों) में उस साहित्यिक शैली का अवशेष हमें मिलता है जो अनिवार्यतः लोक-कविता (folk-poetry) के स्वभाव की थी, और जो संहिताओं की कट्टर धर्मानुष्ठानिक कविता से भिन्न थी, किन्तु जो परवर्ती वैदिक युग में मर गयी थी।”(आ) “जायसी सच्चे पृथिवी पुत्र थे। वे भारतीय जनमानस के कितने सन्निकट थे, इसकी पूरी कल्पना करना कठिन है। गाँव में रहने वाली जनता का जो मानसिक धरातल है, उसके ज्ञान की जो उपकरण सामग्री है, उसके परिचय का जो क्षितिज है, उसी सीमा के भीतर हर्षित स्वर से कवि ने अपने गान का स्वर ऊँचा किया है। जनता की उक्तियाँ, भावनाएँ और मान्यताएँ मानो स्वयं छन्द में बँध कर उनके काव्य में गुँथ गयी हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि लोकतत्व के विविध पर्त प्रतीत होते हैं। ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि लोकतत्व जीवनव्यापी हैं, और प्रत्येक मानव में उसके जन्म से ही बद्धमूल हैं। ये उसकी प्रकृति के ही अंग हो गये हैं। हमने लोक-मानस पर प्रकाश डालते हुए यह स्थापना की थी कि मानवी मानस पहले तो दो विभागों में बाँटा जा सकता है जिन्हें आज का मनोविज्ञान चेतन तथा अवचेतन मानस कहता है। चेतन मानस की क्रिया-प्रक्रियाओं का विचार शुद्ध मनोविज्ञान का विषय रहा है। अवचेतन की क्रिया-प्रक्रिया का अनुसंधान करने वाला नया विज्ञान मनोविश्लेषण-विज्ञान कहलाता है। फायड-जुग-एडलर के त्रिगुट ने इस अवचेतन के विविध पहलुओं को स्पष्ट किया है, किन्तु वास्तविक वात यह है कि यह अवचेतन मानस भी दो स्तर वाला है (क) इसका चेतना-संपक्ति अवचेतन मानस ऊपरी पर्त है। इसे ऐतिहासिक या उपार्जित अवचेतन कह सकते हैं। मनोविश्लेषण का अब तक का पक्ष वस्तुतः इसी स्तर से सम्बन्धित था। यह दमित और कुण्ठित भावना का वह कोश है जो चेतना के अत्याचार से क्षुब्ध हो पीछे छिप गया है, और घायल सर्प की भाँति बदला लेने के लिए कटिवद्ध अवसर को ताक में फुकारता रहता है।
(ख) इस अवचेतन का निचला स्तर उत्तराधिकारावतरित सहज मानस का है। मानव ने जिस दिन पहले-पहल आँख खोली उस दिन उसे जो दिव्या दिव्य अनुभूति हुई वह उसके समस्त अस्तित्व में समा गयी। उसके शरीर का रोम-रोम और अणु अणु उस प्रकृति से अभिभूत हो गया। इसे कोई चाहे तो आदिम मानस (primitive mind) कह सकता है। यह आदिम मानस प्रत्येक मानव को आज भी उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ है। इस पर हम अन्यत्र भली प्रकार विचार कर चुके हैं।
(i) यहाँ हम इस बात की ओर संकेत करना चाहते हैं कि यह मानस दमित या कुंठित चेतन का रूप नहीं बल्कि यह हमारे सहज मानस की तरह या हमारे समस्त मानवीय मानस के लिए बीज की तरह सहजात है। यह विश्व के समस्त मानव मात्र में विद्यमान है और वस्तुतः इसी की मौलिक अवस्थिति के कारण विश्व भर के मानव सामान्य प्रक्रियाओं में समान प्रतीत होते हैं। यह मानस देशब्यापी भी हैं और कालव्यापी भी हैं।
(ii) इसकी देश-व्यप्ति स्थिति भौगोलिक सीमाओं में इसे विश्व भर में व्याप्त सिद्ध करती है। यह लोक मानस का भौगोलिक पक्ष है। इस मूल या आदिम लोक मानस में वे तत्त्व भी विद्यमान हैं जो भौगोलिक पृष्ठभूमि से सामग्री ग्रहण कर सकते हैं, और अपने प्रवृत्ति-मूल को अक्षुण्ण रखते हुए भी क्षेत्रीय मानव के स्वरूप को भौगोलिक वातावरण में पनपने योग्य बना सकते हैं। इसी के कारण स्थानीय संस्कृतियों का निर्माण होता है।
(iii) इसकी कालव्यापी स्थिति ऐतिहासिक पक्ष को प्रकट करती है। मूल उद्भव के काल से लेकर आज पर्यन्त यह मानस मानव-मानव में अवतरित होता चला आया है। इसके सहज आदिम मूल में ऐसे तत्व भी विद्यमान हैं जो काल की गति से होने वाले संघातों से प्राप्त विषयों और सामग्रियों को ग्रहण कर सकें, और उन्हें अपने अनुकूल रखते हुए भी, मानव के स्वरूप की विविध ऐतिहासिक युगों के अनुकूल ढालते रहें।
(iv) यह मानस ही मूलतः लोकतत्व का निर्धारक है। यह मनुष्य की प्रत्येक अभिव्यक्ति में किसी न किसी प्रकार से विद्यमान अवश्य रहता है। यह न तो संगृहीत मानस (collective mind) है, और न उपाजित हो। उपार्जित की चर्चा तो ऊपर की जा चुकी है। संगृहीत मानस से भी इसका भेद समझ लेना आवश्यक है।
लोक मानस तथा संगृहीत मानस
वैसे तो सी.जी. जुंग ने लिखा है कि “आधुनिक मनोविज्ञान अवचेतन कल्पना की उद्भावनाओं को अवचेतन में घटित होते रहने वाले व्यापारों को आत्म-छबियों के रूप में, अथवा अवचेतन मानस-मूल (unconscious psyche) के निज विषयक कथन के रूप में मानता है। ये दो कोटियों में रखे जाते हैं। प्रथमतः ऊहाएँ (स्वप्नों को मिलाकर) जो निजत्व के गुणों से युक्त होने के कारण निर्विवादेन विगत निजी अनुभवों से विस्मृतः या दमित बातों से संबंधित होती हैं, और इनको व्यक्तिगत विस्मृति (amnasis) से पूरी तरह समझाया जा सकता है। दूसरे, वे ऊहाएँ (स्वप्नों को मिलाकर) जो निवैयक्तिक प्रकृति को होती है, जिन्हें व्यक्ति के अपने विगत-कालीन अनुभवों के रूप में नहीं परिणत किया जा सकता, और ऐसे ही जिन्हें व्यक्तिशः उपार्जित किसी वस्तु के रूप में नहीं समझाया जा सकता। ये कहा-चित्र निविवादेन धर्मगाधिक मानको (type) से अपना निकटतम साम्य रखते हैं। अतः हमें यह मानना पड़ेगा कि ये सामान्य मानव मूल मानसिकता के किसी संगृहीत (और निजी नहीं) निर्माणतत्त्रों के समवायी हैं, और मानव शरीर के निर्मायक तत्त्वों की भाँति उत्तराधिकारागत (inherited)। इसी को जुग महोदय ने ‘संगृहीत अवचेतन’ का नाम दिया है।[1] जुंग महोदय ने जिस रूप में ‘संगृहीत मानस’ की परिभाषा दी है, वह एक प्रकार से प्रायः वही है जो हमारे लोक मानस की है। केवल एक महत्वपूर्ण अन्तर प्रतीत होता है, वे उसे निर्माणतत्वों के समवायी मानते हैं। हमने उसे आरंभिक आदिम मूल मानसिकता के रूप में ग्रहण किया है, यद्यपि हमने भी उसकी प्रवृत्ति में निरंतर निर्मायक तत्वों का शील परिलक्षित किया है। ऐसा लगता है जैसे जुग उस मानस को पूर्णतः अवचेतनानुरूपी समझते हों; और मानते हो कि चेतन प्रक्रियायों के क्षीण होने पर ही इनका दमित भावनाओं की तरह उद्धरण होता है। हमने यह माना है कि यह मानव में अवचेतनस्थ होते हुए भी मानव की प्रत्येक अभिव्यक्ति को किसी-न-किसी रूप में वेधित करता है। चेतन में भी एक विशिष्ट व्यापार रहता है जिसे मनोविज्ञान की व्याख्या से नहीं समझाया जा सकता।
वस्तुतः यह अन्तर मागों का ही अन्तर प्रतीत होता है। हम मानवीय अभिव्यक्तियों को प्रकृति में लोक मानसिकता की परंपरागत व्याप्ति देखकर लोक-मानस की सत्ता का साक्षात्कार कर चुके थे। जुग महोदय ने अपने मनोविश्लेषण के अनुसंधान में संगृहीत तत्वों के इस आक्षेप को भी अवचेतन में स्फुरित होते पाया है। हमें यहीं यह संदेह होता है कि क्या निर्माण मूलक अनुभव अवचेतन को उत्तराधिकार में मिल सकते हैं ? इसलिए हमारा लोकमानस आदिमतम मानव को प्रथम मानसिकता का परिणाम हो सिद्ध होता है। अस्तु जुग का यह संगृहीत मानस तो प्रायः हमारे लोक-मानस का ही प्रतिरूप है, किन्तु ‘संगृहीव्र मानस’ की एक और परिभाषा भी हो सकती है। मानव को समष्टि में मानवता-विशेषित जो सामान्य चेतन प्रक्रिया मिलती है, वह भी ‘संगृहीत मानस’ (collective mind) कहा जा सकता है। यह संगृहीत मानस तो निष्कर्ष प्राप्त मानस है, अथवा व्यष्टि व्याप्त चेतना प्रक्रियाओं का समष्टिरूपेण गृहीत मानस का अमूर्त (abstract) प्रतिपादन मात्रा।
किन्तु यह समस्त ऊहापोह हमने यहाँ इसलिए को है कि हम लोक-मानस की सत्ता को वैज्ञानिक धरातल पर ओर भी अच्छी तरह समझ सकें। इसी लोक-मानस की अभिव्यक्ति जहाँ जिस परिमाण में मिलती है, वहाँ उसो मात्रा में लोकतत्व विद्यमान रहता है। इस दृष्टि से लोकतात्विक अध्ययन का मूल लक्ष्य भौगोलिक और ऐतिहासिक दोनों पक्षों में लोकतत्व का अनुसंधान करना होगा।
[1] इन्ट्रोडक्शन टू दि साइंस ऑफ मैथालाजो, पृ.102-103
लोक-तत्व की विद्यमानता की मान्यता में प्रगति
लोकतत्व की तात्विकता को लेकर आज हमने जिस लोक मानस का प्रत्यक्षीकरण किया है, उससे लोकतत्व के क्षेत्र में एकदम क्रान्ति प्रस्तुत प्रतोत होती है। इसे क्रान्ति न भी कहें तो विकास कह सकते हैं और इस विकास को ये सीढियां हो सकती हैं लोकतत्व के अध्ययन को सीढ़ियों क्रमशः
(अ) सभ्यता विरहित जंगली जातियों में, प्रगतिरुद्ध आदिम प्राणियों में, अर्थात् प्रिमिटिव या।
(आ) सभ्यता विरहित अनपढ़ ग्रामीण समाज में,
(इ) सभ्यता विरहित निरक्षर नगर समाज में,
(ई) अर्द्धसभ्य अर्द्ध-शिक्षित नगर समाज में,
(उ) सभ्य समाज में।
इससे यह स्पष्ट है कि धीरे-धीरे लोकतत्व की सत्ता का विस्तार होता गया है, और आज संपूर्ण मानव-समाज में उच्च से उच्च स्तर पर भी स्वीकार किया जाने लगा है। इसी का यह परिणाम है कि अब जंगली लोगों के लोक-साहित्य को ही अध्ययन का विषय नहीं बनाया जाता, नगरों के नागरिकों से भी लोक-साहित्य के संकलन की प्रथा आरम्भ हो गयी है। इसी को ऐतिहासिक दृष्टि से देखने के लिए अब साहित्य में भी लोकतत्व के अनुसंधान के प्रयत्न होने लगे हैं।
किन्तु लोकतत्व और लोक-मानस के क्षेत्र को आज और भी विस्तृत रूप दे दिया गया है। उसमें इतने ‘पारिभाषिक लोक-मानस’ की प्रत्यक्ष व्याप्ति की यावश्यकता नहीं। सामान्य अर्थ में सामान्य लोक से सम्बन्धित बातें भी लोकतत्व युक्त मानी जाती हैं। उदाहरण के लिए किसी साहित्यिक अभिव्यक्ति को लें तो उसमें ये तन्तु मिलेंगे-
(क) भाषा वर्ग में-
(अ) लोक प्रचलित सामान्य लोकभाषा या जनपदीय भाषा;
(आ) इसमें लोक-प्रचलित मुहावरे,
(इ) इसमें ठेठ ग्राम्य या जनपदीय शब्द;
(ई) इसमें प्रयुक्त लोकोक्तियाँ;
(उ) लोक ज्ञान-विज्ञान विषयक ठेठ किन्तु पारिभाषिक शब्दावली;
(ऊ) विविध ज्ञान-विज्ञान से लिये गये पारिभाषिक शब्दों की लोकतात्विक परिणति।[1]
(ख) छन्द वर्ग में-
(अ) वे छन्द जिनको शास्त्रों ने स्वीकार नहीं किया;
(श्रा) वे गीत जो किसी लोकाचार का आवश्यक अंग रहे हैं;
(इ) वे गीत और छन्द जो अत्यधिक लोक प्रचलित होने के कारण उच्च साहित्य द्वारा परित्यक्त हो गये हैं;
(ई) वे छन्द जिनके निर्माण का आधार अशास्त्रीय पद्धति हो:
(3) तुकें या टेके।
(ग) प्रतिपादक वर्ग में –
(अ) ऐसे उपमान या श्रवर्ण्य जो लोक-क्षेत्रीय हों;
(आ) संदर्भित कथांश या नाम जो लोक-प्रचलित हों या लोकवार्ता परक हों;
(इ) विविध रीति-रिवाज, लोक-विश्वास, लोक ज्ञान-विज्ञान, देवी-देवता, पूजा-अनुष्ठानादि;
(ई) धर्म गाथा विषयक प्रसंग।
(घ) प्रतिपाद्य वर्ग में –
(i) (अ) कथावस्तु में लोककथा या पुराण-कथा का कथानक,
(आ) उस कथानक के कथा-मानक रूप (tale type);
(इ) कथा-मानक रूपों में अभिप्राय (motif);
(ई) अभिप्रायों में मूल मानक।
(ii) (अ) प्रतिपाद्य दर्शन और सिद्धान्त;
(आ) चेतन पक्ष तथा अवचेतन पक्ष;
(इ) मूल मानक की दार्शनिक और सैद्धान्तिक प्रणालियाँ।
ऊपर जो विश्लेषित विस्तृति साहित्यिक अभिव्यक्ति के तंतुओं की दी गयी है, उसमें उन तन्तुओं के लोकतात्विक पक्ष की ओर संकेत साथ ही दिया गया है, इससे यह प्रकट हो सकता है कि लोकतत्व का क्षेत्र अब समग्र अभिव्यक्तिपरक हो गया है।
[1] जैसे सिद्धों के ‘ख-सम’ (= शून्य) को परमतत्व के अर्थ में संतों ने भी ग्रहण किया पर उसमें लोक क्षेत्र में प्रचलित अर्थ (खसम = पति) भी, स्वीकार कर लिया। इस प्रकार विशिष्ट पारिभाषिक शब्द को लोक-भूमि पर लाकर उसे अपने लिए पुनः पारिभाषिक बना लिया।
लोकतत्व के अध्ययन -
इस समग्र लोकतत्व के अध्ययन के लिए अब तक जो प्रयत्न किये गये हैं उनके प्रकारों का संक्षेप में यहाँ अवलोकन करना समीचीन होगा। इस दिशा में सब से प्रथम प्रयत्न ‘लोक-क्षेत्रीय वर्तमान लोकवार्ता के संकलन’ का दृष्टिगत होता है। यह संकलन आदिम या जंगली-जातियों से पूरी-पूरी तरह किया जाना चाहिये। विश्व भर के प्रिमिटिव कहे जाने वाले लोगों की वार्ता का संकलन होकर उसका कोश प्रस्तुत होना चाहिये। (क) दूसरा प्रयत्न इसी प्रकार ऐतिहासिक लोकवार्ता का संकलन-अर्थात् विश्व-साहित्य में उपलब्ध उसी सामग्री का संकलन जिनमें लोक-क्षेत्रीय लोकवार्ता के तत्व विद्यमान हो। उदाहरणार्थ, लोकक्षेत्र के संकलन में एक ‘चोर शिरोमणि’ की कथा मिलती है। यह चोर राजा और राज्य के समस्त अधिकारियों को मूर्ख बनाता है और उन्हें छलता है। यह तो वर्तमानकालिक वार्ता है। यही वार्ता ऐतिहासिक अस्तित्व भी रखती है। (1) कई हजार वर्ष पूर्व मिस्र में चौथे राजकुल का आरम्भकर्ता खूफू महान् था। उसका युग पिरेमिडों का युग है। यूनान के प्रसिद्ध इतिहासकार हेरोडोटस को एक पुजारी ने खूफू महान् से पूर्व के एक सम्राट रहम्प्सिनिटस विषयक एक लोक कहानी सुनायी। इस सम्राट ने अपने खजाने का पक्का भवन बनवाया। कारीगर ने उसकी दिवाल में एक ऐसा पत्थर लगाया जो बाहर से निकाल लिया जा सकता था और उससे खजाने में घुसा जा सकता था। इस कारोगर ने यह रहस्य अपने दो लड़कों को बताया। कारीगर की मृत्यु के बाद दोनों भाई पत्थर हटा कर खजाने से खजाना चुराने लगे। इसमें ये अभिप्राय आये है राजा ने इस चोर को पकड़ने के उपाय किये। खजाने की चोरी करते समय एक भाई जाल में फंस गया। उसके कहने से दूसरा भाई उसका सिर काट ले गया। वह भाई अपने भाई के घड़ को उस बड़ के रक्षका को धोखा देकर चुरा ले गया। राजा ने अपनी लड़की को चोर को पकड़ने भेजा। चोर उससे मिला और भाई का सिर काटने और उसका धड़ चुरा ले जाने की बात उसे बतायो। लड़की जब उसे पकड़ने लगी तो वह उसके हाथ में एक कटा हाथ देकर चम्पत हो गया। राजा ने मुनादी करा के उसे क्षमा किया और अपनी लड़की से उसकी शादी कर दी। आज भारत में लोक क्षेत्र से संकलित ‘चोर शिरोमणि’ की कथा का और इस मिस्र के चोर-शिरोमणि के कथा-विधान का साम्य प्रत्यन्त स्पष्ट है। अतः ऐसी सामग्री को साहित्य और वार्ता से एकत्र करके उन्हें इतिहास क्रम में प्रस्तुत करना तथा इनका भी कोश बनाना चाहिये। (ख) तब ऐसो सामग्री में से तुलनाएँ प्रस्तुत करना। इन तुलनाओं से साम्य-वैषम्य के मुगों और क्षेत्रों का निर्वाचन करना। (ग) क्या-सामग्री की इस तुलना के द्वारा (1) ‘मूल-कहानियों’ का रूप निर्धारण करना। (2) मूल कहानियों में से ‘कथा-मानको’ (tale type) का निरूपण करना, (3) कथा मानकों से अभिप्रायों का संकलन, (4) अभिप्रायों में से आदि मूलक अभिप्रायों की स्थापना, (5) अभिप्रायों के धर्मगाथा और लोककथा में प्रयाग। (घ) इस रूप में प्रस्तुत मूल कहानियों, कथा मानकों और अभिप्रायों का जातिगत क्षेत्र, भौगोलिक क्षेत्र, ऐतिहासिक परिवर्तन-संवर्द्धन, इनको यात्राएं तथा आदान-प्रदान आदि पर विचार। (ङ) अन्य लोक-साहित्यिक रूपों का भी इस प्रकार संकलन-विश्लेषण-अध्ययन। (च) इसी के साथ अभिप्राय के आदिमूल मानक (arch type) पर विचार; उदाहरणार्थ- ‘बालक अभिप्राय’ (child motif) लिया जा सकता है।
बालक अभिप्राय-
पहले ‘बालक अभिप्राय’ के विविध रूपों को विश्व संकलित वार्ता काशों से तुलनात्मक दृष्टि से प्रस्तुत किया जा सकता है, यथा- मिस्र की पुराण-कथा में ‘होरस’ की ऐसी ही अवस्था है। होरस का पिता ओसिरिस उसके भाई सेत द्वारा एक कफन में जिन्दा वन्द कर समुद्र में बहा दिया जाता है। सेत राजा हो जाता है। ओसिरिस की स्त्री आइसिस मारी-मारी फिरती है। तभो होरस का जन्म होता है। सेत को पता लग जाता है। वह माँ-बेटे को एक मकान में बन्दी बना देता है। सेत होरस को मार डालना चाहता है कि कहीं वह अपने पिता के राज्य का दाबेदार न बने। किन्तु थोक आइसिस को इस संकट को सूचना दे देता है। आइसिस होरस को लेकर भाग कर बूटो (Buto) पहुँचता है। वहाँ होरस को नगर की कुमारी देवी उआजीत (Uazit) को सौंप वह ओसिरिस की खोज में निकल जाती है। यह देवी संपिणी था। इस कथा में होरस के पिता नहीं, माता मारी-मारी फिरती है, बंदी हो जाती है, फिर वह होरस से बिछुड़ भी जाती है, उसका पालन पोषण सर्पिरणी (देवी) करती है। यूनान में जियस का पिता क्रोनस तो स्वयं हो अपने पुत्र का शत्रु है, क्योंकि भविष्यवक्ता ने बताया है कि उसका पुत्र ही उसे मारेगा। अतः जियस को जन्म लेते हो या तो कोट की एक गुफा में ले आकर छिपाया गया, या वह गुफा में ही पैदा हुआ, और वहाँ गुप्त रूप से उसका पालन-पोषण डिक्टाश्रन देवियो ने और क्यूरेटाज न किया। डायोनीसियस जब गर्भ में छः महीने का था, उसकी मां सेमेले (Semele) की मृत्यु हो गयो। सेमेले की भस्म से डायोनोसियस को उसका पिता उठा लाया। तीन महीने अपनी जांघ को काट कर उसमें रखा पूरे नौ महीने हो जाने पर जिग्रस ने उसे हर्मीज़ को सौंप दिया, उसने इनो ओर अथमस को सौंप दिया। उसकी विमाता हेरा उसके प्राणों की ग्राहक थी। उसे ओर भो कई दिव्य व्यक्तियों के पास पालन-पोषण के लिए रहना पड़ा। अपोलो की मां लीटो को पुत्र के साथ मारे-मारे फिरना पड़ा है। बालक अपोलो ने माँ को पाशविक ट्टियोस के अत्याचारों से रक्षा करना पड़ा है-लीटो को हेरा के भय से मारे-मारे फिरना पड़ा है और एक गुप्त स्थान पर अपोलो को जन्म देना पड़ा है।
भारत में तो बाल देव के वर्णन वैदिक काल से ही मिल जाते हैं। इन्द्र के बालपन का जो वृत्त वेदों दिया गया है, वह भी ऐसे हो बाल-देवी के समकक्ष है। पैदा होते ही उसे माँ से पृथक् होना पड़ा है, तया दूसरों के हाथों ही उसका पालन पोषण हुआ है। कुमार जो मूलतः बाल-देव ही हैं, उनकी स्थिति भी कुछ विचित्र है। उनकी कथा में मूलरूप में माता पिता हीनता का तत्व विद्यमान है, क्योंकि विविध वृत्तों पर ध्यान दिया जाय तो विदित होगा कि पार्वती ने इन्हें गर्भ में धारण नहीं किया। उन्हें अग्नि ने धारण किया, इस भय से अस्ति कुछ काल तक भागती-छिपती फिरी थी तो अंगिरा ने धारण किया, तब अग्नि ने। वह भी उस तेज को धारण किये न रह सकी, गंगा जी को दिया, गंगाजी ने कृत्तिकाश्री (षड्मातृकाओं) को दिया। उन्होंने उसका पालन-पोषण किया। सर-भू भी कुमार का नाम है, उन्हें सरपत से उत्पन्न माना है। इस प्रकार जब मां हो नहीं तो, पिता कहाँ ? पिता तो सदैव हो विकल्पित होता है। फिर भी यदि पितृत्व स्वीकार भी किया जाय तो मातृहीन तो मानना हो पड़ेगा। ऐसे बालकों की कथा में यही होता है कि वह कई स्थानों पर पलता है। यहाँ पहले तो गर्भ हो कई स्थानों पर गया है, फिर ‘षड्मातृकाओं’ का विश्लेषण करदें तो छः माताओं ने पालन किया।
उधर गणेश जी बाल-देव के रूप में आते हैं, उनकी स्थिति कुमार से उल्टी है। कुमार की माता नहीं थी, गणेश के पिता नहीं। बिना पिता के जन्म हुआ है- अर्थात पिता नहीं। एक जंगल में एकांत गुफा में वह त्याज्य-माता के साथ रहता है। यह सब लोक कथा के अनुरूप हैं।
जैन वृत्तान्तों में हनुमान जन्म भी माँ की असहावावस्था में हुआ है। उनको माँ अंजना को सास-ससुर ने चरित्र दोष के सन्देह में निकाल दिया था। ऐसो असहायावस्था में हो हनुमान जी का जन्म हुआ था। जैन क्षेत्र के ‘प्रद्युम्न चरित्र में प्रद्युम्न जन्म के समय ही माँ-बाप से पृथक् कर दिया गया। उसे एक दैत्य पूर्व-जन्म की शत्रुता के कारण उड़ा ले गया और एक पत्थर के नीचे दबा दिया। वहाँ से उसे विद्याधर कालभँवर और उसकी पत्नी ले गये, और उसका पालन-पोषण किया। उसने वाल्यावस्था में ही अनेक अद्भुत पराक्रम दिखाये।
धर्मगाथा के क्षेत्र में ऐसे कितने ही बालकों का उल्लेख है जिन्हें असहायावस्था में दिखाया गया है। प्रह्लाद को भी धर्मगाथा में ऐसी असहायावस्था में दिखाया गया है जैसे उसके माता-पिता या अभिभावक हैं ही नहीं। स्वयं उसका पिता हो उसका शत्रु बन गया है। प्रह्लाद बालक को अनेक घातक कष्टों में से होकर निकलना पड़ा है। प्रह्लाद को पहाड़ से नदी में गिराया गया, जेल में भूखों मारा गया, आग में जलाया गया, उत्तप्त स्तम्भ से बाँधा गया, किंतु सब संकटों से वह बच गया।
इसी प्रकार भारत में अनेक लोक कथाएँ हैं जिनमें बालवीर का जन्म असहायावस्था में होता है, या जन्म के उपरान्त ही वह असहायावस्था या अनाथावस्था में पड़ जाता है। यह असहायावस्था या अनाथावस्था वाला बालक या तो बाल्यकाल में ही चमत्कार दिखाता है, या बाद में आकर अत्यन्त प्रवल दिखायी पड़ता है। (1) उदयन-कथा में मृगावती को गरुड़ उड़ा ले गया। पिता-रहित स्थिति में उसका जन्म हुआ। साधुओं के आश्रम में पालन-पोषण हुआ। (2) शकुन्तला को अप्सरा उड़ा ले गयी। पति से विद्युक्तावस्था में भरत का जन्म हुआ। यह भरत सिहों से खेलता था। (3) राजा नल के जन्म के समय उसकी माँ मंझा को राजा प्रथम ने महल से निष्कासित कर दिया था। उसे चाण्डालों को सौंप दिया कि इसे मार डालो। पर चांडालों ने दया कर उसे छोड़ दिया। वह जंगलों में भटकती फिरी, ऐसे ही वियावान में हीस के लता गुल्म में नल उत्पन्न हुआ। नाल काटने के लिए और जन्म के गीत गाने के लिए देवो आयी थी। तब मंझा और नल को एक सठ साथ ले गया। उसके यहाँ दोनों का पालन-पोषण हुआ। बाल्यावस्था में ही नल ने दानव को मारकर मोतिनी से विवाह किया था।
सब इन समस्त रूपों की तुलना में यह स्पष्ट विदित होता है कि इनमें चार तत्व है- (1) परित्यक्तावस्था, (2) अजेयतत्व, (3) द्वियौनत्व, (4) आदि-अन्तैक्य। इनसे कथा के चार रूप प्रस्तुत होते हैं (1) बाल कथा, (2) वीर-कथा, (3) काम-कथा तय (4) धर्म कथा या मोक्ष-कथा। इन चारों तत्वों के योगायोग में भारत, यूनान तथा अन्य देशों को धर्मगाथाएँ तथा लोक-गाथाएँ पल्लवित हुई है- धर्मगाथाओं में यह बालक ‘देवता’ बन गया है, बाल-कथाओं में विलक्षण बालक। यह बाल रूप वैयक्तिक मनोमूल का भी उतना ही परिणाम है जितना कि संग्रहीत मनोमूल का। संगृहीत मनोमूल सृष्टि-आदि-मूल बालक का वाहन बना है। वैयक्तिक मनोमूल का आधार ‘प्रथम मानव’ है। इस समस्त सारिणी को पृष्ठ 67 पर दिये गये चित्र से समझा जा सकता है।
इस प्रकार इन लोक तत्वों के सूत्रों का विवरण और इतिहास प्रस्तुत किया जा सकता है। (ज) तब इन तत्वों का साहित्य उसकी ऊंची से ऊँची अभिव्यक्ति में खोजना अपेक्षित होगा, क्योंकि जिस प्रकार साहित्यकार जानबूझ कर अलंकार, रीति, वृत्ति, छन्द, रस आदि का उपयोग करता है और अपनी अनुभूति उसके द्वारा प्रकट करता है वैसे ही अनजान और जान में वह इन लोकतत्वों का भी उपयोग अपनो अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए करता है। इन अनुभूतियों के इस माध्यम का किस कवि ने साहित्यिक सौन्दर्याभिवृद्धि के लिए किस प्रकार उपयोग किया है, यह जानना आज आवश्यक हो गया है, क्योंकि साहित्य शास्त्र में जिन जड़ तत्वों के उपयोग से काव्य सृष्टि के अध्ययन का उल्लेख हुआ है, उनका जोवन की गहराइयों से उतना सम्बन्ध नहीं। ऐसा हो अध्ययन धर्म और आस्थाओं का भी करना होगा। उनसे लोक-विकास के साहित्य को और मानवीय सभ्यता को क्या मिला है, यह अनुसंधान भो अपेक्षित होगा। वस्तुतः मानव का समस्त प्रयत्न अपने स्वरूप की समग्र उपलब्धि के लिए है। इस उपलब्धि की सफलता के लिए लोकतात्विक अध्ययन आज अनिवार्य सा प्रतीत होता है।

चित्र की व्याख्या
[इस चित्र में बालक-अभिप्राय के मूल तथा विकास को समझाया गया है। नोचे का विन्दु मूल-स्थपित (Arch type) का द्योतक है। यह स्थपित दो संभावनाओं से जन्म ले सकता है: (1) ‘सृष्टि आदिक बाल’ की लोक मानसिक स्मृति से। (2) प्रथम मानव की अपनो वाल स्थिति की मनोमूलक या लोक मानसिक स्मृति से। यह वाल अभिप्राय स्वस्तिक की भाँति चार भुजाओं में बँटकर चार तत्वों की प्रतिष्ठा करता है और चार प्रकार की कथाओं को जन्म देता है। ये कथाएँ धर्म और लोक में एक बिन्दु की दो भुजाओं की भाँति साथ-साथ चलती मिलती हैं।]
बुंदेलखंड जनपद एवं उसकी सांस्कृतिक परम्परा
भारत देश के मध्य स्थित भूभाग को बुंदेलखंड कहते हैं। यहाँ की प्रमुख भाषा ‘बुन्देली’ है। इस जनपद को प्राचीन काल से ही विभिन्न नामों से पुकारा जाता रहा है। किन्तु बुन्देलों के शासन काल से इसे बुंदेलखंड कहते हैं। आज यह प्रदेश उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश के जिलों में विभक्त है। सागर, दमोह, छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, झाँसी, बाँदा, हमीरपुर, जालौन आदि इसके प्रमुख जिले हैं। इस प्रदेश की सीमा समय-समय पर शासकों के राज्य विस्तार के साथ घटती बढ़ती रही है। सामान्य रूप से इसकी निम्नांकित सीमाएँ मान्य हैं। पूर्व में- टोंस और सोन नदियाँ अथवा बघेलखण्ड या रीवा राज्य तथा बनारस के निकट बुन्देला नाला है। पश्चिम में- बेतवा, सिन्ध और चम्बल नदियाँ, विन्ध्याचल श्रेणी तथा मालवा, सिन्धिया का ग्वालियर राज्य और भोपाल राज्य हैं। पूर्वी मालवा इसी में आता है। उत्तर में- यमुना और गंगा नदियाँ अथवा इटावा, कानपुर, फतेहपुर, इलाहाबाद और मिर्जापुर तथा बनारस के जिले हैं। दक्षिण में- नर्मदा नदी और मालवा है। संक्षेप में, बुंदेलखंड की सीमा के लिए ये पंक्तियाँ कहीं जाती हैं।
इत जमुना उत नर्मदा इत चम्बल उत टोंस।
छत्रसाल सौं लरन की रही न काहू होंस।।
प्रस्तुत पंक्तियों में छत्रसाल के शासन की सीमा के अतिरिक्त बुंदेलखंड की सीमा का भी निर्देश है।
सांस्कृतिक परम्परा :
बुंदेली संस्कृति मधु सदृश है। इसमें अनेकता में एकता है। यहाँ की आर्य एवं अनार्य संस्कृति दूध-पानी की तरह मिली है। इस चित्रण में, विभिन्न संस्कृतियों की परम्पराएँ खप-पच गई हैं। प्रमाण हेतु बुंदेलखंड की यह बुझौवल है-
भैंस बँदी है ओरछा, पड़ा हुशंगाबाद।
लगवैया है सागरै, चपिया रेवा पार।।
यह बुझौवल बुंदेलखंड की एकता दर्शाती हैं महोबा की कजलियाँ, सागर, मंडला, चंदेरी आदि हर जगह बोईं जातीं हैं। ओरछा की साउन तीज नरसिंहपुर में भी होती है। आल्हा की ओजमयी गाथा महोबा में ही नहीं, बुंदेलखंड के कोने-कोने में गाई जाती है। फागें, भगतें और विवाह गीत सभी जगह प्राप्त होते हैं। विवाह चाहे झाँसी में हो या होशंगाबाद में गीत एक ही गाया जाता है। ‘कोट नबै परबत नबै, आजुल जू को माथौ जब नबै जब, साजन आऐं। इससे इस भूभाग की सांस्कृतिक एकता दर्शनीय हो जाती है।
(अ) राजनैतिक विकास :
बुंदेलखंड की भूमि ने प्रागैतिहासिक काल से अनेक राज्यों के उत्थान-पतन, युद्ध-विप्लव आदि देखे हैं। प्रागैतिहासिक स्थिति का वर्णन पुराणों में उपलब्ध होता है। वैवश्वतमनु की वंश परम्परा में महाराज ययाति के पुत्र यदु को चर्मवती, वेत्रवती तथा शुक्तिमती की वीरांगनाओं का सिंचित प्रदेश मिला था। इसी का नामक कालान्तर में महाराज चिदि के नाम पर चेदि पड़ा। इस प्रकार चेदि नाम शुरू में चम्बल और केन के बीच, यमुना के दक्षिणी प्रदेश अर्थात् केवल उत्तरी बुंदेलखंड का था। रामायण काल में विन्ध्याचल में अनार्यों की अधिकारिक बस्तियाँ थीं। निषाद, गुह, शबर आदि जातियाँ तथा ताड़का, सुबाहु, मारीच, कबन्ध आदि असुरों की क्रीड़ा स्थली यहीं थी। साथ ही आर्यों के उपनिवेश भी स्थापित हो गये थे। अत्रि, वाल्मीकि, भारद्वाज, विश्वामित्र आदि आर्य ऋषियों की यज्ञ वैदिकाओं की पवित्र भूमि भी यहीं थी। ‘‘इस प्रकार आर्य द्रविड़ संस्कृति का सन्धि स्थल आधुनिक बुंदेलखंड (बघेलखण्ड) भी जान पड़ता है। आज भी इस क्षेत्र की कोल, भील, गौंड, सहारिया, खेरूवा आदि अर्द्धविकसित जातियों में अपनी-अपनी भाषाऐं सुरक्षित हैं।’
कालान्तर में इसी भूमि पर मौर्य, गुप्त, हूंणों, चन्देलों, गौंड़ों तथा बुन्देले राजाओं का राज्य रहा है। बृहत्तर बुंदेलखंड की सीमा समय-समय पर राज्यों की सत्ता के अनुसार घटती बढ़ती रही है। महाराज छत्रसाल बुन्देला के राज्य की सीमा रेखा यमुना, नर्मदा, चम्बल तथा टोंस नदियाँ हैं। ‘‘इसका विस्तार जबलपुर को लाँघकर मंडला जिले तक, भोपाल लाँघकर भेलसा, सिरोंज, साँची और सीहोर तक, पूर्व में समस्त बघेलखण्ड का भूभाग जो विन्ध्य वासिनी देवी के मंदिर के द्वार को छूता था, छत्रसाल की अधीनता में आ गया था।’’
अँग्रेजी शासन काल में यह प्रदेश रियासती राज्य एवं अँग्रेजी शासन में विभक्त रहा है। स्वतंत्र भारत अन्तर्गत विन्ध्यप्रदेश एवं उत्तरप्रदेश में बँटा रहा है। आज भी उत्तरप्रदेश में मध्यप्रदेश के जिलों के रूप में समस्त प्राचीन बुंदेलखंड भारत का अंग बना हुआ है। भाषा, संस्कृति और सभ्यता ही इसकी भिन्नता दर्शाती है।
(ब) सामाजिक विकास :
बुंदेलखंड की सामाजिक विकास परम्परा भी राजनैतिक परम्परा की तरह, समय के साथ परिवर्तित होकर विकसित होती रही है। समाज में सम्मिलित कुटुम्ब की व्यवस्था थी, त्याग, परोपकार, कर्तव्यनिष्ठा और सेवाभाव इसके आधार स्तम्भ थे। परिवार का वयोवृद्ध मुखिया होता था। ‘मुखिया मुख सौ चाहिये, खान पान में एक’ मुखिया इसी आदर्श का पालन करता था। सास बहू का कलह ननद भौजी का विषाक्त व्यवहार, पारस्परिक स्वार्थपूर्ण भावना ऐसे कारण हैं जिनसे यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न होकर टूट रही है। गरीबी एवं अशिक्षा इसमें अपना योगदान दे रही है। समाज में बाल-विवाह, अनमेल विवाह, बहु विवाह जैसी कुरीतियाँ व्याप्त हैं। सती प्रथा प्रकोप भी बुंदेलखंड में फैला रहा है। राजाराम मोहन राय एवं अँग्रेजी शासन के सुधारों से उसका अंत हो गया है। समाज में गरीबी है, अतः दहेज की समस्या नहीं है। देश में मुसलमानों के भय एवं अशिक्षा के कारण बाल विवाह जैसी कुप्रथायें प्रचलित थीं। गड़रियों में डला भाँवरें डाली जातीं थीं। जिसका अर्थ है- दो गर्भवती स्त्रियों में सगाई हो जाती थी। समान सन्तान होने पर रिश्ता टूट जाता था। समाज में बाल विवाह, विधवा समस्या को फैलाने में सहायक थे। लड़कियाँ युवतियाँ बनने तक विधवा हो जाती थीं। निम्न जातियों में पुनः विवाह हो जाते हैं। सवर्णों में नहीं होते थे। अब सवर्णों में भी पुनर्विवाह शुरू हो गये हैं, जो आर्थिक एवं मानवीय दृष्टि से हितकर हैं। बुंदेलखंड में प्राचीन समय में पर्दा प्रथा नहीं थी। स्त्रियाँ श्वसुर, जेठ से खुलकर बात करतीं थीं। लड़कियाँ अपने विवाह का प्रस्ताव, पिता के समक्ष स्वयं रखतीं थीं। मुसलमानों के भय के कारण, पर्दा प्रथा का प्रचार हिन्दुओं में कड़ाई से हुआ है। मुसलमानों के द्वारा अपहरण भय से बुन्देला ठाकुरों में, कन्या वध की प्रथा आज से 600 वर्ष पूर्व तक रही है। अँग्रेजी शासन व्यवस्था के एक्ट नं.08 सन् 1870 ई. से इस प्रथा का अन्त हो गया है। स्वतंत्र भारत में बहु विवाह एवं बाल विवाह पर रोक लगाकर, नारी शिक्षा को महत्व दिया गया है। हिन्दू कोड बिल के अनुसार तलाक की व्यवस्था की गई है, जिससे पति के शोषण से भारतीय नारी मुक्ति पा सकती है।
(स) आर्थिक विकास :
बुंदेलखंड गरीब देश है यहाँ की भूमि पहाड़ी, जंगलयुक्त है। यहाँ पर उत्तम फसल पैदा नहीं होती है। पानी के अभाव से फसलें सूख जाती हैं। अकालों के कारण यहाँ का किसान, उत्तरोत्तर गरीब होता जाता है, इसीलिए बुंदेलखंड का किसान कर्ज में जन्मता और कर्ज में ही मर जाता है। यहाँ की मुख्य फसलों में समां, कोदों, फिकार, जुऑर, मक्का एवं जवा पैदा होते हैं। ये अनाज वर्ष भर खाने को नहीं हो पाते हैं अतः विवश होकर, मनुष्य को महुओं पर जीना पड़ता है। कहा भी है-
मउवा, मेवा, बेर, कलेवा, गुल गुच बड़ी मिठाई।
जो कऊं जै चीजैं चानें होबे, डागै करौ सगाई।।
महुआ और बेर यहाँ के मुख्य खाद्य फल हैं। गुल गुच गरीबों की सबसे प्रिय मिठाई है। बुंदेलखंड में मुख्य व्यवसाय मजदूरी है। बुंदेलखंड की खैरूआ जाति, खैर (कत्था) बनाने के लिए, महीनों तक मय परिवार के जंगलों में भटकते फिरते हैं। सौंर, कोल, भील लकड़ी, गोंद एवं चिरौंची बेचकर अपना जीवन यापन करते हैं। हजारों व्यक्ति चेतुआ बनकर, मालवा में चैत काटने जाते हैं। गरीब वर्ग ऊमर, गूलर, बिरचुन, लटा, करौंदा एवं डंगरा फोड़ खाकर अपना पेट भरता है। फसल बिगड़ जाने पर बेर एवं करौंदा ही इन्हें जीवनदान देते हैं।
साल करौंटा लै गई, राम बांद गये टेक।
बेर करौंदा जा कयें, मरन न देंओं एक।
बुंदेली कहावत भी है, ‘समय कचैया (कचरिया) कुसमय बेर’ मनुष्य की क्षुधा तृप्ति करते हैं। बुंदेलखंड की निर्धनता का मुख्य कारण अशिक्षा, उपजाऊ भूमि का अभाव, वैज्ञानिक तरीकों का अभाव एवं आवागमन के साधनों का अभाव है। स्वतंत्र भारत की सरकार का, इस उपेक्षित क्षेत्र पर ध्यान गया है जिससे आवागमन के साधनों में विशेष सुधार हुआ है। जंगली पड़ती भूमि को खेती के योग्य बनाया जा रहा है जिससे किसानों का आर्थिक सुधार हो रहा है।
(द) धार्मिक विकास :
बुंदेलखंड छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। यहाँ के अधिकांश राजाओं की प्रवृत्ति धार्मिक रही है जिससे यह जनपद धर्म प्रधान है। बुंदेलखंड में आदि शक्ति देवी की उपासना होती है। विन्ध्यवासिनी यहाँ की आदि देवी हैं। अनार्य एवं आर्य दोनों के, शिव उपास्य देव हैं। देवगढ़ एवं खजुराहो में इनके विशाल मन्दिर इसी के प्रतीक हैं। ‘‘भक्ति काल के पूर्व यहाँ शिव की उपासना प्रचलित थी देवगढ़ और खजुराहो के मन्दिर उस युग के स्मारक हैं। काल के प्रभाव से इस प्रान्त में धर्म के स्थान को अन्य विश्वास, परम्परागत रूढ़ियों, ग्रामीण देवी-देवताओं ने ले लिया है। लोग भूत-प्रेत, गुनियों तथा औलियों पर अधिक विश्वास रखते हैं। वे अपने सांसारिक अभावों की पूर्ति तथा दुःख दर्द निवारण के लिए उन्हीं की शरण लेते हैं।’’
बुंदेलखंड की स्त्रियों में धर्म भावना अधिक पाई जाती है। पुत्र प्राप्ति, सुहाग रक्षा, गृह समृद्धि हेतु वे अनेकानेक व्रत एवं उपवास करती हैं। मोतीझरा, चेचक आदि रोग निवारण हेतु वे देवी को नित जल चढ़ाती हैं। देवी पूजन के समय मन्दिर की दूरी, पैंड़ भरकर पूरी की जाती है। अशिक्षित निम्न वर्ग के लोग गौंड़, भील, सौंर, सहारिया, सेरूआ, धोबी, चमार, बसोर, मेहतर आदि अनगढ़ पत्थरों तथा वृक्षों को पूजते हैं। इनके प्रमुख देवता करुआ बाबा, डोंगरबाबा, गौंड़बाबा, कुअत बाबा, घटोइया, सिद्ध बाबा, भैंसासुर आदि हैं। इन सभी देवताओं की सवारी धुल्ला के सिर आती है। देवता को प्रसन्न करने के लिए शराब, बकरा, धूप, लोभान, नारियल, सेंदुर तथा घिटला (सुअर का बच्चा) चढ़ाया जाता है। दशहरे के दिन बुंदेलखंड के दतिया एवं कुढ़ार के राजा क्रमशः महिषासुर मर्दिनी देवी एवं विन्ध्यवासिनी देवी के सम्मुख उन्मत्त भैसों की बलि चढ़ाते रहे हैं। स्वतंत्र भारत में राजाओं के साथ ही यह प्रथा भी समाप्त हो गई है।