शिशु एवं आहार

शिशु के जीवन के प्रारंभ से स्वस्थ जीवन-यापन उचित शारीरिक, मानसिक विकास हेतु आहार, बिहार, दिनचर्या व्यायाम्, मनोरंजन, मालिश इत्यादि का विशेष ध्यान रखना होता है शिशु के जन्म के साथ ही उसकी आहार संरचना प्रारंभ हो जाती है। इसका विस्तृत ज्ञान का रहना अत्यावश्यक है। प्राचीन काल मे शिशु जन्म के तुरन्त पश्चात् ‘स्वर्ण प्राशन’ सोने की सलाई से शहद या शुद्ध गाय का घी नवजात शिशु की जीम पर चटाने से वह मान्य किया गया है कि यह शिशु को दीर्घायु निरोगी, सुडौल, सुंदर पुष्ट, ओजस्वी वैभवशाली बनाये रखने का प्रथम व अंतिम टीका भी है। इसका विस्तृत विवरण चक्रपाणि एवं चरक संहिता में पाया गया है।

शिशु गर्भधारण के साथ ही उसके आहार का चिंतन प्रारंभ हो जाता है। गर्भ धारित मां का भोजन पोष्टिक हरी भाजी, दूध गेहूं जी, दालें शालि या साठी चांदल, सिंघाड़ा, कमलनाल, मूंग, कुल्थी, शतावरी, असगंध इत्यादि मधु, अम्ल, लवणयुक्त आहार फल, पपीता, केले, सेद, चुकंदर, नाशपाती, अधिक होना चाहिये सब्जियों में सोयाबीन, पालक, बथुआ, मैथी, बैंगन, लोकी, ककड़ी आदि का प्रयोग अधिक करना चाहिये। गर्भकाल में मां को बाल पोषण का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिये। मां यदि स्वस्थ्य होगी तो गर्भस्थ शिशु भी स्वस्थ रहेगा। चूंकि शिशु का पोषण मां के आहार पर आश्रित होता है। यदि आहार पोष्टिक नहीं होता है तो शिशु मंदबुद्धि व दुर्बल रहेगा।

 

मातृ शिशु कल्याण में बुन्देलखण्ड

मातृत्व सुरक्षा आहार

चरूआ का पानी

हरीरा/बिस्वार के लड्डूनवजात सुरक्षा के आहार जन्मघुंटी

कुरनदान

अकरकरा

अजवाईन

वायविंडंग

बायफल्ली

सोंठ

हल्दी

सेरबेरका

पीपरा

असगंध

कमरकस

काला नमक

सोंठ

पीपल

लेडीपीपल

कमरकस

हल्दी

लवंग

काली मिर्च

असगंध

शतावर

खारक

किसमिस

अजवाइन

खोपरा

बादाम

नीम, बबूल, धाय की गोंद

गुड

शुद्ध घी

जायफल

गटारन

खारक

बादाम

आमी हल्दी

हर्र

हर्रा

वच

बंशलोचन

मुरेर फल्ली

माजूफल

सुहागा

काला नमक

शहद

 

 

गर्भवती माताओं को प्रतिदिन 2500 कैलोरी ऊर्जा व 55 ग्राम प्रोटीन दिया जाना चाहिये। गर्भवती महिला को ऐसा पौष्टिक आहार चाहिये जो गर्भधारण के समय के उसके वजन में शिशु जन्म के समय 11. 5 किलो की वृद्धि हो जाती है। माँ के आहार के साथ उसकी दैनिक कार्यों पर भी शिशु के ऊपर प्रभाव होता है। शारीरिक श्रम अवश्य करना चाहिये। गर्भवती को धार्मिक ग्रंथों, महापुरूषों के जीवन का इतिहास का पठन-पाठन करना चाहिये यह मानसिक विकास शिशु पर पड़ता है।

शिशु के जन्म के बाद कम से कम 2 वर्ष तक उसके खान-पान पर विशेष ध्यान देना चाहिये। नवजात शिशु को मां का पीले रंग का दूध अवश्य पिलाना चाहिये। यह अत्यंत पौष्टिक, शिशु की बीमारियों से जुझने की प्रतिरोधी क्षमता प्रदान करता है। इस दूध की बहुत कम मात्रा ही शिशु के लिये पर्याप्त होती है। जन्मोपरांत 6 माह तक शिशु को मां का स्तनपान ही कराना चाहिये। 4-5 माह में स्तनपान से पेट नहीं भरता है। अतः शिशु को अर्धठोस आहार भी देना चाहिये। प्रत्येक 2-3 घंटे मे दूध प्रारंभ में पिलाया जाना चाहिये। आयु के बढ़ने पर 3 से 4 घंटे के अंतर से निर्मित किया जा सकता है। बच्चा जब तक दुग्धधारी (दूध पीने वाला हो) तो 4 घंटे के अंतर से दुग्धपान करावें। यदि विपरीत स्थितियों में माँ का दुग्ध का अभाव हो जाता है तो बकरी या गाय का दुग्धपान या धात्रीपान करावें।

कहावत भी है-

दूध, दूध माय का और दूध गाय का। अन्य दूध घाय का। अर्थात् मां का दूध सर्वोत्तम है। गाय का दूध अन्यतम श्रेष्ठ है। अन्य दूध अच्छा नहीं है।

बच्चे की आयुवृद्धि के साथ उसकी भूख बढ़ती है जब सातवें माह में खड़े होने का प्रयास करें तो मां के दूध के अतिरिक्त थोड़ा साबूदाना दूध में पका कर दें। दाल का पानी, दाल, चावल, चावलों की खीर, मुलायम खिचड़ी, शहद खिला सकते है। एक वर्ष के लगभग होने पर आलू, केला, फल का रस, अंड़ा, चिकन का सूप इत्यादि भी दिया जा सकता है।

बच्चों की ऋतुओं का भी प्रभाव होता हे वैसे बच्चों को प्रोटीन, विटामिन ए व डी की आवश्यकता अधिक होती है। यदि पोष्टिक आहार पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुंचता है तो बच्चों के विकास उन्नति एवं उचित पोषक अभाव में रोग प्रतिरोध क्षमता का ह््रास होने लगता है, बच्चा रोगी होने लगता है।

अतः सर्दी के मौसम में बच्चे के शरीर में गर्मी का संचार रहे तो दूध में केसर, जायफल डाल देना चाहिये। अंडा देना भी उचित है बाजरा, गुड़, शहद बादाम व अन्य हलवा, पौष्टिक आहार देना चाहिये ताकि शरीर की ऊष्णता बढ़ी रहे।

गर्मी के दिनों में हम आहार को परिवर्तन कराते हुए सब्जियों, तरकारियों, ताजे फल, दूध, दही, लस्सी छांछ पनीर वाले जवा-गेहूं का सत्तू इत्यादि देना चाहिये।

वर्षा ऋतु में भी ग्रीष्म के आहार के साथ कभी-कभी नीबू सिरका, इमली की चटनियों के खिलाने में बहुत लाभप्रद होता है।

ऋतु अनुसार बच्चों के कपड़े, सर्दी में ऊनी, गर्मी में मुलायम सूती, मखमल तंग बदन से चिपके नहीं पहनाना चाहिये। बारिश मे भी सूती कपड़े पहनाना चाहिये।

बच्चों की प्रतिदिन नीम पत्र के साथ गर्म जल द्वारा ज्यादा से ज्यादा 4 मिनिट स्नान कराना चाहिये। नहलाने के पहले तिल, सरसों या नारियल तेल की मालिश हलके हाथ से करें ताकि उसके शरीर के विकास में लाभप्रद हो।

अतः भोजन में प्रोटीन्स, कार्बोहाइड्रेटस, चिकनाई, खनिज लवण व विटामिन्स के रूप में पोषक तत्व आवश्यक होते हैं। चूंकि प्रकृति में ऐसा तत्व कोई नहीं होता, जिसमें सभी पोषक तत्व हों।

अतः अलग-अलग तत्वों हेतु विभिन्न भोजन कराना चाहिये ।

भोजन के संबंध में

  • प्रति पौंड भार पर – 50 कैलोरी
  • 6 पौंड भार पर – 300 कैलोरी
  • आयु – 6 माह के बच्चों को – 600 कैलोरी
  • 6 वर्ष के ऊपर बच्चे को – 1300 कैलोरी

नवजात शिशु सुरक्षा हेतु भारतीय चिकित्सा एवं घरेलू चिकित्सा का बहुत महत्वपूर्ण प्रत्येक क्षेत्रवार का घरों में उपलब्ध संसाधनों के आधार पर बहुत व्यवस्थित ज्ञान समाहित है। जन्मघुंटी का स्वयं निर्माण कर सेवन कराने से अनेकों रोगों के प्रतिरोध उपाय होते है। काला नमक, जायफल, गटारन, खारक, बादाम आमी, हल्दी, हरे हर्श वच वंशलोचन, गुरेर फल्ली, जूल, सुहागा, इत्यादि को दिन में 2-3 बार चटाने में उदर वमन, कास, ज्वर इत्यादि रोग नहीं हो पाते है।

इसी प्रकार गर्भिणीचर्या हेतु सोंठ, पीपल, लेंडीपीपल, कमरकस, हल्दी, लवंग, कालीमिर्च, किशमिश, खारक, अजवाइन, खोपरा, बादाम शुद्ध घी, दूध, गुड़ सिंघाड़ा, कमलनाल, असगंध शतावरी के साथ गोंद केसर लड्डू बनाकर मां को सेवन कराये जाते है ये दुग्ध वृद्धि एवं पोषक तत्त्व प्रदान करते है।

बच्चों के आहार में शुद्ध दूध व जल की व्यवस्था रखना चाहिये इसे अत्यधिक उबाल कर छानकर साफ स्वच्छ कटोरी चम्मच के माध्यम से पिलाना चाहिये।

मां व शिशु के उचित आहार व्यवस्था पोषक तत्वों विभिन्न प्रतिदिन की आवश्यक आहार संरचना अनुसार ग्रहण कराने से बच्चा व मां स्वस्थ, निरोग, ओजस्वी, मेघावी, सुडौल, दीर्घायु होते है। चूंकि कहावत भी है कि यदि आहार उचित न हो व शरीर का वजन संतुलित न हो तो – ‘आहार मारे या भार मारे’।

बुन्देलखण्ड में आहार द्वारा भी चिकित्सा का महत्व रहा है- पुरातन काल में आहार अत्यंत प्रभावी, असरकारक चिकित्सा, जन-जन में पूरे बुन्देलखण्ड में दादी-मां, बहुओं के बीच में वैद्यों द्वारा परामर्श में लायी जाती रही है। इसमें दो रोग अनुसार आहार का निर्माण, पेजा, महेरी, विलेपी, सत्तु, लंघने इत्यादि का बहुत बड़ा महत्व रहा है। आदिकाल में इस आहार को माध्यम बनाकर कार्याकल्प तक की जा रही थी। इसमें पंचकर्म (स्नेहन-स्वेदन, वमन, विरेचन, वस्ति, नस्य) इत्यादि कर्म करने के बाद रोगियों को औषधी चिकित्सा दी जाती थी। राजे-महाराजे अपनी प्रजा की स्वास्थ्य की रक्षा हेतु खेल-कूद, योद्धाओं के कुश्ती मलखंब की शिक्षा के साथ अच्छा आहार देने में प्रजा को सहयोग करती थी। तभी गामा जैसे पहलवान एवं ध्यानचंद जैसे हॉकी के खिलाड़ी विश्व में इतिहास बनाकर छोड़ गये। इस चिकित्सा से संबंधित कई विद्वानों ने गीत, संगीत, कविताओं, चौपाईयों के माध्यम से अनेकों पुस्तक ही लिख दी हैं। यह साहित्य आज भी पढ़ने, देखने और सुनने को मिलता है।

अंकुरित खाद्य पदार्थों में पाचक तत्व अधिक होने के कारण इनका सेवन फायदेमंद होता है। यदि- मेथी दाना, खसखस, मनुक्का, खड़े मूंग, काले चने, बादाम, किसमिस इनको अंकुरित कर सेवन करने से मधुमेह, रोगप्रतिरोधक क्षमता, मोटापा, दीपन-पाचन, उच्च रक्तचाप, थकान व शरीर में बढ़ रहे चिकनाई को ये अनाज कम करते हैं। ये सेवन की विधि घर-घर में समाहित है।

केसर – केसर का प्रयोग बुन्देलखण्ड में अर्वाचीन काल से प्रचलित रहा है। केसर एक बहुत ही मंहगी उपज है। एक किलो केसर लगभग तीन लाख का पड़ता है। यह ठंडे प्रदेशों में हमारे देश में हिमाचंल, हिमालय की तराइयों में ज्यादा होता है। यह शरीर को हर तरह से स्वस्थ रखने में सहायक होता है, बूढ़े बच्चे सभी सेवन करते हैं।

टमाटर – टमाटर बुन्देलखण्ड की एक प्राचीन खेती रही है। यह दिल के लिए, मधुमेह के लिए, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए, कब्ज दूर करने के लिए बहुत लाभकर रहा है।