भारतीय संस्कृति में प्रत्येक कार्य वसुधैव कुटुम्बकं, सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय की भावना से होता है। भारतीय व्रत-पर्व श्रृंखला में माघ, कार्तिक, वैशाख और अधिक मास धार्मिक कार्यों के लिये विशेष माने गये हैं। इन चार महीनों में तीर्थ स्थान का वास और नित्य प्रति स्नानादि के अनन्त फल प्राप्ति के साधन बताये गये हैं।

बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति में धर्म प्राणतत्व है। यहाँ लोक संस्कृति की धारा में धर्म, जीवन धारा की भाँति प्रवाहित होता है। बुन्देलखण्ड में पारिवारिक संरचना में नारी एक ध्रुव है, जो किसी भी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं। वह परिवार के मंगल के लिये अनवरत प्रयास करती है, चाहे वह भौतिक चेष्टाओं के द्वारा या फिर आध्यात्मिक उपक्रम के द्वारा। व्रत-उपवास, तीज-त्योहार, रीति-रिवाज, परम्परायें, दान-दक्षिणा और धर्म सभी नारी के बल पर ही टिके हुए हैं।

बुन्देलखण्ड में तो सूर्य की पहली किरण ही कुछ न कुछ पूजा-पाठ, तीज-त्यौहार, व्रत-उपवास लेकर आती है। बुन्देलखण्ड की धार्मिक परम्परा में कार्तिक स्नान, विष्णु शालिग्राम तुलसी पूजन दीपदान की अनूठी रीति है। कार्तिक माहात्म्य के द्वितीय अध्याय के अनुसारः-

“कार्तिके मासि ये नित्यं तुलासंस्थे दिवाकरे।

प्रातः स्नास्यन्ति ते मुक्ता महापार्ताकिनोऽपि च।। 

स्नानं जागरणं दीपं तुलसीवनपालनम्।

कार्तिके मासि कुर्वन्ति ते नरा विष्णुमूर्तयः ।।”

 

यूँ तो कार्तिक मास में स्नान के साथ ही विष्णु शालिग्राम की, तुलसी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माणी के दिये बीजों से धात्री या आँवला और लक्ष्मी के दिये बीजों से मालती की उत्पत्ति हुई। धात्री, मालती और तुलसी को क्रमशः रजोगुण, सतोगुण और तमोगुण युक्त माना गया है, किन्तु धात्री और तुलसी में विष्णु की अधिक प्रीति रही है। इसीलिए कार्तिक में तुलसी के पास विष्णु पूजन की परम्परा चली आ रही है। तुलसी की महिमा के बारे में वर्णन मिलता है। तुलसी का एक पत्ता भी राधा, रुकमणी, सत्यभामा और लक्ष्मी के प्रेम निवेदन से भारी है। कार्तिक माहात्म्य के अठारहवें अध्याय के अनुसार :-

“तुलसीकाननं राजन् गृहे यस्यावतिष्ठते। 

तदगृहं तीर्थरूपं तु नायान्ति यमकिंकरा:।।9।। 

सर्वपापहरं पुण्यं कामदं तुलसीवनम् । 

रोपयन्ति नर श्रेष्ठास्ते न पश्चन्ति भास्करम् ।। 10।।

दर्शनं नर्मदायास्तु गंगास्नानं तथैव च। 

तुलसीवनसंसर्गे सममेतत् त्रयं स्मृतम् ।। 11।।”

 

तुलसी के बिना घर आंगन सूना और संस्कार हीन लगता है। तुलसी के छोटे पौधे की उपस्थिति से घर में भागवत ऊर्जा संचारित होती है। कहते हैं कि सहस्रों घड़े अमृत से स्नान करने से भगवान विष्णु को उतनी तृप्ति नहीं मिलती, जितनी वे तुलसी का एक पत्ता चढ़ाने से प्राप्त कर लेते हैं। महिलाएं नियमित तुलसी की पूजा-अर्चना करके तुलसीनामाष्टक का पाठ करती हैं। तुलसीनामाष्टकः-

“वृन्दा, वृन्दावनी, विश्वपूजिता, विश्वपावनी।

पुष्पसारा, नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी।।

एतन्नामाष्टकं चैव स्तोत्रं नामार्थसंयुतम्।

यः पठेत् च सम्पूज्य सोऽश्वमेधफलं लभेत ।।”

 

कार्तिक स्नान करने वाली महिलाएँ दीपावली के बाद राधा-कृष्ण का प्रतीक मानकर अपनी सामर्थ्यानुसार एक या दो जोड़ा का आमंत्रण करती हैं। पंडित तथा पंडिताइन का राधा कृष्ण के रूप में तिलक करना, फूलों का गजरा पहनाना, पंडिताइन को टीका माहुर लगाना सुहाग सामग्री के साथ रूचि के अनुसार भोजन कराकर दक्षिणा देकर उनके चरण छूकर आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।

कार्तिक शुक्ल पक्ष नौमी तिथि ‘इच्छा नौमी’ कहलाती है। इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा करती हैं, हल्दी से एक सौ आठ बिन्दी रखती हैं। सुहाग सामग्री चढ़ाकर एक सौ आठ परिक्रमा लगाकर, सेठ-सेठानी जो आंवले भर सोना प्रतिदिन दान करते थे, उसकी कहानी कहती हैं। आरती करने के बाद आँवले के वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करने की परम्परा का निर्वाह करती हैं।

बुन्देलखण्ड / भारतीय संस्कृति में आस्थावान स्त्री पुरुष जीवन भर या जीवन में कम से कम दो कार्तिक स्नान का लाभ उठाते हैं और उसके बाद उद्यापन करते हैं। कार्तिक शुक्लपक्ष की दशमी तिथि और शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी (जिसे बैकुण्ठ चौदस भी कहा जाता है) को तुलसी के गमला में हल्दी से राधा कृष्ण का चित्र बनाते हैं। एक सौ आठ हल्दी की टिपकियाँ रखकर षोडशोपचार से पूजा की जाती है। चूड़ी, बिन्दी, माहुर, मेंहदी वस्त्रादि समर्पित की जाती है। महिलायें किसी भी 108 वस्तु से (लड्डू, मूंगफली दाना, जलेबी आदि) परिक्रमा लगाती हैं। तुलसी जी की कहानी जैसे लक्ष्मी जू और तुलसा जी’, ‘रुकमणी और तुलसा जी’ की या बूढ़ी बऊ की कहानी इस प्रकार कहती हैः-

ऐसे-ऐसें एक बूढ़ी बऊ हतीं। उनके मौड़ा-मौड़ी कोऊ न हते। वे अकेली रत हतीं। रोज अपनो काम करवें और संझा के पुरा-पाले के लड़का बिटियाँ बुला के किसा कहानी सुनाऊत्ती। बऊ पूजा रचा खूब करत हती। रोज भुनसारें घर की झारा बटोरी करके गोबर सें दोरे और तुलसन के ढिंगा लीपत हती। सपर खोर के तुलसन खों ढारें, पूजा करें, और भक्ति भाव से कैवें “जै पनमेसुरी तुलसा मैया एकादशी खों मरना देइया, द्वादशी को तपना, चन्दन लकइया, जमना जी को तट, श्री किशन को कंधा, जा जनम दइयो, वा जनम दइयो”।

तुलसा मैया की रोजई सेवा पूजा होवे। अकेलें तुलसी मैया सोचन में दूबरी होन लगीं। काये सें, कि बऊ की उमर धीरें-धीरें कम हो रई हती। एक दिना भगवान ने तुलसा जी से पूछी, काये तुलसा जू तुम दूबरी काये हो रईं? तुलसी जी ने बहानो बना दओ और कन लगी कछु नइयाँ महाराज। भगवान तो पल-पल के जानन हारे। सो वे फिर से कन लगे तुलसा कछु बात तो है। अब तुलसा जू ने सांची-सांची कै दई कै महाराज एक बऊ है वे रोज बड़ी भक्ति भाव से ढारती और पूजा करती और कैबू करती कि हे! “तुलसा मैया एकादशी को मरना देइयो, द्वादशी को तपना, चन्दन लकईयां, जमुना जी को तट और आपको कंधा, जा जनम दइयो वा जनम दइयो”।

सो महाराज सब तो मिल जै है पर आपको कंधा काँय से मिले। जाने बऊ कबै चली जाय? भगवान कन लगे “तुलसा चिन्ता फिकर न करो। हम जो घंटा टांगे जात जब बऊ चली जाँय तो तुम घंटा बजा दियो हम आ जै हैं”। कृष्ण भगवान घंटा टांग के चले गये। एक दिना तुलसा जी ने भगवान की परिच्छा लई, उनने घंटा बजा दवो। भगवान आ गए। उनने तुलसी जी से पूँछी काये बऊ चली गईं? तुलसी जू ने कई महाराज हमने तो आपकी परिच्छा लई हती। भगवान ने हँस दओ और तनक दैर बैठ कें फिर चले गये। कछु दिना बाद बऊ एकादशी खों किवार लगाकें परीं सो वे तो परीं रै गईं।

दूसरे दिना भौत देर हो गई। बऊ को कछु ऐरौ चारौ न मिलो तो पुरा-पाले वारे कन लगे “आज जा डुकइया अवै तक नई उठी ?” सबने साँकर खटकाई। बऊ न बोलीं न ऐरौ मिलो। धुवा उचका के किवार खोले तो बऊ चल बसींतीं। पुरा-वारन ने तैयारी करी। वे उठाईं न उठीं, खूबई गरई हो गईं तीं। अब तो परौसी उल्टो-सीदो बतकाव करन लगे। कैसी पापिन है, भाई भक्ति पूजा पाठ करत ती, पाखन्डन हती, देखौ उठाई नइँ उठ रई। पुरा वारे सें भूके प्यासे बैठे हैं। तुलसा मैया सोच रईं कि आज बऊ अबै लौं ढारवें नई आईं हैं। अब तुलसा जू ने घंटा बजा दओ। भगवान घंटा बजतनईं गरूड़ पै सवार हो कें।

भीड़ में एक छोटे बालक कौ रूप धर कैं आ गये। आर्के कन लगे “इते का हो गओ, काये की भीड़ लगी।” फिर से पुरा वारे बऊ के लाने उल्टी सीधी बातें कन लगे। भगवान ने फिर से कईं “हमें देखन तो दो।” भगवान ने जल्दी खेल के बहाने अरथी के चारऊ चक्कर काट के बऊ के कान में कै दई “बऊ हम आ गए”, और अपनों कंधा छुआ दओ। अब तो बऊ फूल सी हरई हो गई, उर उठ गई। भगवान चारऊ तरफ घूम-घूम के अपनों कंधा छुआ देवें। सब जनें शमशान घाट की तरफ ले जान लगे। भगवान ने कई जमना की तरफ ले चलों। कछु जनें बोले “चलो एई लरका की बात मान लो।”

सब जनें जमना जी की तरफ ले गए। घाट पै उनकी चिता बनाई, उनकी देह चिता पै धरी, फिर दाह संस्कार भओ। सब जनन ने जमना जी में स्नान करे। भगवान जमना जी स्नान खों गये सो लोप हो गये। सब आदमियन ने देखों कि वौ छोटो लरका कां गओ। जमना जी से बाहर नई आओ। हम सब जनें इतैई बैठे जब तक वो लरका न दिखें। भगवान जमना जी से प्रकट भये मोर मुकुट लगाए पीताम्बर पैरे चतुर्भुजी रूप में सब खों दरशन दये। सब ने कई “जै पनमेसुरी बऊ तुमाये पीछे आज हमें भगवान के दरशन भये। बोलो तुलसा मैया जी जय ! शालिग्राम भगवान की जय।”

महिलायें आरती करती हैं

“नमो नमो तुलसा महारानी नमो नमो।”

आरती के पश्चात् एक सौ आठ परिक्रमा लगाते समय गाती हैं :-

 

बोलो री सखी सब रामहिं रामा – 2

  1. कहा रहबैं तुलसा, कहाँ शालिग्रामा, सो कहाँ के रहबइया मोरे श्री भगवाना।

बोलो…………..

घरूवन् रहवें तुलसा, डबियन शालिग्रामा, सो सिंहासन के रहबइया मोरे श्री

भगवाना।। बोलो…………………..

  1. कहा जै बें तुलसा, कहा शलिग्रामा, सो काहे के जिबइया मोरे श्री भगवाना।

बोलो…………………

लड्डू जै बें तुलसां, पेड़ा शालिग्रामा, सो माखन के खबइया मोरे श्री भगवाना।

बोलो…………………..

  1. कहा पीबें तुलसा, कहा शालिग्रामा, सो काहे के पिवइया मोरे श्री भगवाना।

बोलो……………………

लोटा पीबें तुलसा, गडुआ शालिग्रामा, सो झाड़ी के पिवइया मोरे श्री भगवाना।

बोलो……………………..

  1. कहा चाबें तुलसा, कहा शालिग्रामा, सो काहे के चबइया मोरे श्री भगवाना ।। 

बोलों………………………..

लौंगे चाबैं तुलसा, इलायची शालिग्रामा, सो बीड़ा के चबइया मोरे श्री भगवाना।।

बोलो……………………

 

निम्न लिखित गीत में तुलसा मैया के उदास होने का कारण पूछती हैं काय मोरी तुलसा अनमनी, उर कैसी बदन मलीन?

  1. कै तुमरों कछु गिर गयौ कै काऊ कछु दीन्ह?
  2. न मौरो कछु गिर गयौ, न काऊ कछु दीन्ह?
  3. रूकमन मौ सें लर परी, मोरे झुनझुन डारी तोर।
  4. कृष्णा गड़ाई मुद्रिका, रानी रुकमन नौ लख हार
  5. ओईं कों ओलन छोलना, तुलसा खाँ झुन-झुन गड़ाओ

आओ मोरी तुलसा पाहुनी काहो काहा रचो ज्यौनार

दार बनाओ रज मूँग कीं उर राम मुलायम चाउर

चन्दन गार कढ़ी करौ उर लौंगन देव बधार

मड़ला तो पइये झकोर के उर बरला चतुर सुजान

सोने के थार परोसिये रूपे कचुलरन दूध    

जैव लों मोरी तुलसा पाउवनी कओ कैसी बनी ज्यौनार।

 

पूजन की प्रक्रिया पूरी होने पर तुलसा मैया के नीचे बैठकर भोजन करती हैं। देव प्रबोधिनी एकादशी के दिन प्रत्येक घर एवं मंदिरों में विधि विधान से तुलसी शालिग्राम का विवाह होता है। कार्तिक पूजन में तुलसी घरूवा के समीप पकवान के घर द्वार बनाये जाते हैं। जिनके अन्दर दीपक जलाकर रखा जाता है।

इस मास में जितेन्द्रिय होकर नियमित रूप से स्नान, नियमित जाप और हविष्य से एक बार भोजन एवं देवार्चना से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है। जीवन में सुख समृद्धि का आगमन होता है। इस प्रकार कार्तिक मास की उपासना सम्पन्न होती है।