चंदेरी मध्‍य प्रदेश के गुना जिले के उत्‍तर पूर्वी कोने में और बुंदेलखण्‍ड क्षेत्र के दक्षिणी भाग में स्थित है। चंदेरी का किला कीर्ति दुर्ग नामक एक गिरि दुर्ग है। बेतवा नदी के किनारे तीन ओर से पहाडि़यों से घिरा यह क्षेत्र बहुत ही सुरम्‍य है। चंदेरी शहर दो भागों में विभाजित है- बूढ़ी और नई चंदेरी। बूढ़ी चंदेरी के अवशेष बेतवा के पश्चिम में लगभग 100 मीटर ऊँची पहाड़ी पर फैले हुए हैं। इसी बूढ़ी चंदेरी को महाभारतकालीन शिशुपाल की राजधानी माना जाता है। नई चंदेरी वहाँ से करीब 12 किलोमीटर उत्‍तर-पश्चिम में है। दोनों ही स्‍थल प्राचीन एवं पौराणिककालीन हैं। चंदेरी नगर को घेरे हुए विंध्‍यशैल शिखर हैं, जिन पर समय-समय पर राजप्रसाद, महल,अस्‍तबल, कोठियाँ, मंदिर एवं किलों का निर्माण एवं जीर्णोंद्धार होता रहा।

        चंदेरी के लिए ललितपुर, टीकमगढ़, झाँसी(150 किलामीटर), गुना, ग्‍वालियर से बस सेवाएं नियमित मिलती हैं। चंदेरी से 40 किलोमीटर की दूरी पर निकटतम रेलवे स्‍टेशन ललितपुर है तथा जिला मुख्‍यालय गुना रेलवे स्‍टेशन 115 कि.मी. दूर है।

        चंदेरी किला नगर के करीब 80 मीटर ऊपर एक पहाड़ी पर बना हुआ है। किला उत्‍तर से दक्षिण तक दो किलोमीटर लंबा एवं और पूर्व से पश्चिम में एक किलोमीटर चौड़ा है। किले के चारों ओर करीब सात किलोमीटर लंबी ऊँची दीवार है, जिसमें तीन मज़बूत बुर्ज- उत्‍तर में कमल बुर्ज, दक्षिण में गदा बुर्ज और पश्चिम में भदभदा बुर्ज हैं। कहा जाता है कि चंदेरी का किला 7 परकोटे से घिरा हुआ था, परंतु 6 परकोटे जो प्रस्‍तर के थे, नष्‍ट हो चुकेहैं। मात्र एक परकोटा बुंदेला शासकों के समय का शेष है, वह भी टूटा-फूटा है। किले में पहुँचने के लिए पहले पाँच दरवाजों को पार करना पड़ता था, पर अब केवल तीन ही बचे हैं। किले पर चढ़ते समय पहले खूनी दरवाजा पड़ता है। चंदेरी के मालवा दरवाज़े और दिल्‍ली दरवाज़े पर शार्दूल ( हाथी को दबोच रहे बाघ ) की आकृतियाँ बनी हुई हैं। ऐसी आकृतियाँ दिल्‍ली के पुराने किले के उत्‍तरीदरवाज़े पर देखने को मिलती हैं। खूनी दरवाज़ा एवं खिड़की दरवाज़ा भी अपने वैभव को अपने सीने में छिपाए खड़े हुए हैं।

        चंदेरी किले के ध्‍वंसावशेष पहाड़ों के शिखरों पर आज भी दर्शनीय हैं, जो वर्तमान में अतीत के वैभव की दास्‍तान मूक रूप से कह रहे हैं।दो बुर्जों के मध्‍य बादल महल का विशाल दरवाज़ा है, जो कि दोहरी महराब वाला है। यह दरवाज़ा 17 मीटर ऊँचा एवं 8 मीटर चौड़ा है। स्‍थापत्‍य कला की दृष्टि से बादलमहल दरवाज़ा बहुत ही उत्‍कृष्‍ट है। इसके साथ सिंहपुर महल, किला कोठी, कुशक महल, जामा मस्जिद,बत्‍तीसी बावड़ी, शहजादी का रोजा, जागेश्‍वरी देवी का मंदिर, कल्‍याण राय मंदिर बैजू बावरा की समाधि जैसी भव्‍य ऐतिहासिक इमारतें यहाँ हैं। इनमें महल-वास्‍तु एवं हिन्‍दू-मुस्लिम संस्‍कृति एवं स्‍थापत्‍य कला को मिश्रित कर आश्‍चर्यजनक ढंग से दर्शाया गया है। इनके अतिरिक्‍त पहाड़ों के समतल शिखरों पर तथा तलहटी मैदानों में जो भवनों के ध्‍वंसावशेष बिखरे पड़े हैं, वह शिल्‍प कला के उत्‍कृष्‍ट प्रतीक हैं तथा अपनी प्राचीनता स्‍वयं प्रकट करते हैं। खूनी दरवाज़े के पास कल्‍याणराय ( वेंकटेश्‍वर भगवान ) का मंदिर दर्शनीय है।

        यहाँ की अवशिष्‍ट वर्तमान इमारतें सल्‍तनत, मुगल एवं बुन्‍देला युगीन हैं। जामा मस्जिद (सन् 1312), दिल्‍ली दरवाज़ा (सन् 1411), कुशक महल (सन् 1445), बादल महल दरवाज़ा(सन्1450), बत्‍तीसी बावड़ी (सन् 1480), शाहजादी का रोजा (15 वीं सदी) मालवा गेट (1495 ई.), बैजू बावरा की समाधि, मुगलकालीन किला तथा कोठी,कल्‍याण राय मंदिर एवं सिंहपुर महल बुन्‍देला शासनकालीन इमारतें हैं।

        चंदेलों ने नौवीं सदी से बारहवीं सदी तक यहाँ से प्रतिहारों को खदेड़ कर चंदेरी परिक्षेत्र को अपने अधिकार में ले लिया। चंदेलों के पश्‍चात् मध्‍यकाल में दिल्‍ली क सुल्‍तानों इल्‍तुतमिश, नासिरूद्दीन, बलबन एवं अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार मालवा सहित चंदेरी पर रहा। मुहम्‍मद तुगलक तो अपने दक्षिण अभियानों के समय चंदेरी को अपनी सेना की रसद एवं युद्ध सामग्री कर भंडार केन्‍द्र बना लिया करता था। 1342 ई. में इब्‍नबतूता के अनुसार चंदेरी मध्‍य भारत का बड़ा व्‍यवसाय का केन्‍द्र था, जहाँ 384 हाट-बाज़ार, 360 सराय, 1200 मस्जिदें एवं 14000 मकान थे।

        एक विद्रोह को दबाने पर मालवा के सुल्‍तान महमूद खिलजी ने अपने मंत्री मेदनीराय को चंदेरी का सूबेदार बना दिया था। चित्‍तौड़ के राणा सांगा की सहायता से मेदनी राय 1520 ई. में चंदेरी का स्वतंत्र शासक बन गया। खानवा का युद्ध (1527 ई.) में राणा सांगा को सहायता देने के कारण 1528 ई. में बाबर ने चंदेरी के किले को घेर लिया। बाबर ने चंदेरी के युद्ध के पश्‍चात्‍ मेदनीराय के सैनिकों के कटे हुए सिरों की मीनार बनवाया। मेदनीराय ने उसके सुलह के प्रस्‍ताव का ठुकराकर लड़ाई जारी रखा। चूँकि चंदेरी पहाड़ों से घिरा सुरक्षित नगर था, जिस पर पहुँचना कठिन था।

        बाबर ने एक ही रात में पहाड़ी को कटवाकर चंदेरी नगर में तोपखाना पहुँचा कर चंदेरी किले को ध्‍वस्‍त कर दिया था। मेदनी राय ने अपने बुन्‍देली सैनिकों के साथ अंतिम दम तक मुगलों से लोहा लिया और अपने प्राणों की आहुतियाँ दी। रानी ने अन्‍य सैकड़ों महिलाओं के साथ किले के अंदर ही जौहर किया। चंदेरी की सेना की जिस दरवाज़े पर पराजय हुई थी, उस दरवाज़े से सैकड़ो राजपूतसैनिकों का खून बह आया था। वर्तमान में इस दरवाज़े को खूनीदरवाज़ा कहा जाता है।

        बाबर ने मेदनीराय से चंदेरी छीनकर अहमदशाह को प्रशासक बनाया था, परंतु जहाँगीर के समय गोदाराय ने चंदेरीपर अधिकार कर लिया था। सन् 1616 ई. में ओरछा के बुन्‍देला राजवंशीय बार-बानपुर के राजा भरत सिंह बुन्‍देला ने गोदाराय से चंदेरी को छीन लिया था और बार-बानपुर की जगह चंदेरी को राजधानी बनाया। चंदेरी को 1810 ई. में ग्‍वालियर के सिंधिया ने तात्‍कालीन शासक मोर प्रह्लाद से छीन लिया था। सन् 1857 ई. में क्रांतिकारियों की सहायता से चंदेरी पर बुन्‍देला राजा मर्दन सिंह का कब्‍जा हो गया। 1858 ई. में अँग्रेजों ने चंदेरी को जीतकर पुन: ग्‍वालियर के सिंधिया को दे दिया। तब से देश के स्‍वतंत्र होने तक चंदेरी ग्‍वालियर राज्‍य का हिस्‍सा बना रहा। चंदेरी अपने ऐतिहासिक महत्‍व के साथ कला में भी अग्रणी है। चंदेरी की साडि़याँ आज विश्‍व प्रसिद्ध हैं।