झाँसी नाम का उल्‍लेख होते ही वीरांगना महारानी लक्ष्‍मीबाई का नाम स्‍वत: स्‍मरण हो जाता है। झाँसी को बुन्‍देलखण्‍ड का हृदय स्‍थल कहा जाता है। उत्‍तर प्रदेश का यह शहर देश के प्रत्‍येक भाग से रेल एवं सड़क मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है। वर्तमान में बुन्‍देलखण्‍ड की राजनैतिक गतिविधियों का केन्‍द्र भी झाँसी ही है। भारत के प्रथम स्‍वतंत्रता संग्राम के दौरान मार्च, 1858 में झाँसी के मज़बूत किले के बल पर रानी लक्ष्‍मीबाई की सेना ने अँग्रेजों की फौज का बारह दिन तक डटकर सामना किया था। झाँसी पर आक्रमण करने वाली अंग्रजी फौज के सेनापति जनरल ह्यूरोज ने भी झाँसी के किले की गणना भारत के प्रसिद्ध किलों में की।

        झाँसी शहर का पुराना नाम बलवंत नगर था। बंगरा पहाड़ी पर स्थित इस किले का निर्माण ओरछा के महारजा वीरसिंह देव प्रथम (1605-27 ई.) ने 1613 ई. में कराया था। उस समय पहाड़ी के आसपास क्षेत्र निर्जन था, इसलिए किले की सुरक्षा व्‍यवस्‍था का दायित्‍व गुसांई सैनिकों को सौपा गया था। राजेन्‍द्र गिरी को किलेदार नियुक्‍त किया तथा पूर्वी भाग में किलादरवाज़ा की ओर गुसाँईपुरा बस्‍ती बसा दी गयी थी, जो आज भी झाँसी शहर में हैं। कहा जाता है कि ओरछा के जहाँगीर महल से महाराजा वीरसिंह देव प्रथम, जैतपुर के राजा को इस निर्माणधीन किले के संबंध में जानकारी दे रहे थे, उसी दौरान उन्‍होंने वहाँ (जहाँगीर महल) से इसे देखा, जहाँ से इसकी आकृति झाँई-सी (परछाई की तरह) दिखाई देने के कारण यह किला झाँई-सी कहलाया, जो बाद में झाँसी हो गया।

        झाँसी का किला ओरछा नगर की सुरक्षा के लिए बतौर सुरक्षा-चौकी के रूप में बनाया गया। था। बुंदेलखण्‍ड में मराठों के पदार्पण से ओरछा लगर का पराभव हुआ और झाँसी को अभ्‍युदय एवं विकास का सुअवसर मिल गया। अँग्रेजों एवं मराठों की सत्‍तात्मक खींचतान एवं संघर्ष ने झाँसी को अधिक प्रसिद्धि दिलाई। अँग्रेजों ने झाँसी को मध्‍य रेलवे का जंक्‍शन बनाकर एवं चारों ओर से सड़क मार्ग से भी जोड़कर इसे एक आधुनिक एवं बुन्‍देलखण्‍ड का जाना-माना महत्‍वपूर्ण नगर बनने का अवसर प्रदान किया। विश्‍व प्रसिद्ध झाँसी किला बंगरा पहाड़ी की पूर्वी श्रेणी पर लगभग चार हेक्‍टेयर में निर्मित है। यह किला गिरि दुर्ग है, जिसकी चारों दिशाओं में उभरी–सी कोनियाँ हैं। किले का प्रथम मुख्‍य प्रवेश द्वारा बड़ा-बाजार की ओर पूर्व दिशा को है। पहाड़ी को काटकर टेढ़ा-मेढ़ा, चार मोड़ें देकर यहाँ प्रवेश मार्ग बनाया गया है। इस प्रवेश मार्ग की प्रत्‍येक मोड़ पर सुदृढ़ दरवाजे बनाये गये। हैं। दूसरा छोटा निकास छार किले के पश्चिमी-दक्षिणी परकोटा प्राँगण में से एक गुर्ज के पास से दक्षिणमुखी पहाड़ी खंदक में खुलता है। यह आपात द्वार है।

        किले के पूर्वी भाग के परकोटा भित्ति बाजू अर्थात् उत्‍तर दिशाकी ओर से दक्षिण की ओर चलते हुए एक संकीर्ण गलियारे में प्रविष्‍ट होते हैं। गलियारे के दायें परकोटा भित्ति में हनुमान जी की प्रतिमा स्‍थापित है। यहाँ पर पूर्वाभिमुखी घूमकर किले के प्रथम दरवाजे में प्रविष्‍ट होते हैं। दरवाजे के अंदर दक्षिण की ओर मुड़कर अंदर परकोटा प्राँगण में पश्चिम की ओर मुडकर पूर्वाभिमुख दूसरे दरवाजे में प्रविष्‍ट होते हैं। इस दूसरे दरवाजे के अंदर पहरेदारों की बैठकें बनी हुई सुदंर हवेली है। अंदर प्राँगण में दायें ओर ऊँचे मैदान में बारादरी, बैठक और उसके पीछेआवासीय भवन बने हैं।

           इस दूसरे परकोटा प्राँगण में ऊँचाई पर श्री विनायक (गणेश) जी का विशाल मंदिर है। इस दरवाजे की मोड़ में अनेक बैठकें, दुमंजिले भवन है। परकोटा भित्ति में बाहर की ओर तोप के लिए अनेकछिद्र बने हुए है। तीसरे दरवाजे से पश्चिम चलकर पहाड़ी के नीचे वाले चौथे दरवाजे के सामने पहुँचते हैं, जिसके बाद ऊँचे परकोटे से घिरा प्राँगण है। यह किला प्राँगण महल दरवाजे के ठीक सामने नीचे है। इस दक्षिणी प्राँगण की परकोटा भित्ति के दायें किनारें से उत्‍तरकी ओर चढ़ाई चढते हुए कुछ पश्चिम की ओर मुड़ने पर महल के दरवाजे के सामने पहुँच जाते हैं।

          बंगरा पहाड़ी के शिखर पर निर्मित महल का प्रवेश द्वार का भव्‍य दरवाजा ऊँचा, दुमंजिला तथा बहुत बड़ा है। दरवाजा में फाटक के बाद ड्योढ़ी है, जिसके बाद महल प्राँगण में पहुँचते हैं। इसी प्राँगण के पश्चिमोत्‍तर भाग में म‍हल था, जिसे अँग्रेजों ने नष्‍ट कर उस स्‍थल पर अपने सैनिक कार्यालय कक्ष निर्मित कर लिये थे। महल के चारों ओर परकोटा है, जिसके भीतरी अंग में बरामदे निर्मित हैं। बरामदों की छतों में प्रकाश छिद्र हैं। झाँसी किले के परकोटा भित्तियों में गोल, चौपाला एवं चौपाला चाँदे कुल मिलाकर 28 बूर्जें हैं, जो लगभग 12 फुट से लेकर 60 फुट तक ऊँचे हैं। बुर्जों के द्वार भीतरी प्राँगण में हैं, परकोटा एवं बुर्जों पर चढ़नेके लिए चौड़ी सुविधानजक सीढि़याँ हैं। परकोटा भित्ति 6 से 8 फुट चौड़ी हैं, जिसके शिखर भाग पर 4 से 6 फुट का गलियारा है तथा बाहर की ओर पाँच-छह फुट ऊँची सुरक्षा ओट दी गयी है, जिसमें कँगूरों के बीच से तोप के गोलों के लिए अनेक छिद्र हैं।

         महल प्राँगण के उत्‍तरी पूर्वी कोणमें एक विशाल दरवाज़ा हैं, इस दरवाजा के बाहरी भाग में एक ऊँचा चौकोर फाँसी घर है। फॉंसी घर के पास से पूर्व एवं पश्चिम दिशाओं की ओर सीढ़ीदार मार्ग है। पूर्वी भाग की सिढि़याँ मार्ग है। पूर्वी भाग की सीढि़याँ एक चौक के लिए हैं, जिसके चारों ओर ऊँचा परकोटा है। परकोटे की गुर्जें एवं आंतरिक आवासी कक्ष सुंदर एवं कलात्‍मक हैं। पश्चिमकी ओर जाने वाली सीढि़याँ दूसरे प्राँगण को जाती हैं। इसमें शिव मंदिर, चौक प्राँगण के मध्‍य की परकोटा भित्ति में से दोनों चौकों को जोड़ता एक दरवाज़ा हैं।

         राज महल के पीछे स्थित उत्‍तरी-पश्चिमी परकोटा जो पहाड़ी के शीर्ष भाग पर बना है, अपेक्षाकृत कम ऊँचा (लगभग 12-15 फुट) है, परन्‍तु परकोटा के नीचे के भूमि तल तक पहाड़ी का सीधा ढाल लगभग एक सौ फुट है। ऐसा कहा जाता है कि लक्ष्‍मीबाई 3 अप्रैल 1858 ई. का अंग्रेजी फौज को चकमा देकर इसी परकोट से पीठ पर दामोदर राव को बाँध कर घोड़े पर सवार होकर पीछे के पहाड़ी ढ़ाल पर कूद कर काल्‍पी की ओर कूच कर गयी थीं।

        महल प्राँगण के पश्चिमी उत्‍तरी कोने की बुर्ज रिहायशी है, जो ऊँची एवं दुमंजिली है, छत ढालदार है। महल के दक्षिणी-पश्चिमी परकोटा के आंतरिक भाग में आवासीय बुर्जं एवं कक्ष हैं। यहीं से एक द्वार महल परकोटा से बाहर किला परकोटा के अंदर निर्मित नीचे एक प्राँगण में खुलता है। इस लंबे से प्राँगण में अनेक रिहायसी कमरे हैं। इसी प्राँगण के दक्षिणी पार्श्‍व की एक गुर्ज के पास से छोटा द्वार है, जो पहाड़ी की दक्षिणी ढाल (खंदक) में किला परकोटा के बाहर खुलता है। अब इस दक्षिणी छोटे द्वार के सामने से चढ़ाई मार्ग बनाकर परकोटा भित्ति के दक्षिणी भाग में नवीन सैनिक मार्ग दरवाज़ा बना लिया है। वर्तमान में यही झाँसी के किले का मुख्‍य द्वार है।

       झाँसी का किला दुर्ग-वास्‍तु का अनूठा प्रतीक तथा सामरिक दृष्टि से भी महत्‍वपूर्ण है। प्रवेश मार्ग चार-पाँच सुदृढ़ दरवाजों में से होकर टेढ़ा-मेढ़ा चढ़ाईदार है। पहाड़ी के शिखर पर राजमहल है, तो ढलान में महल परकोटा है। महल परकोटा के बाहर एवं किला परकोटा के मध्‍य पहाड़ी के नीचे भाग में पाँच प्राँगण हैं, जिनमें सैनिकों के आवासीय कक्ष,युद्ध सामग्री भंडारण कक्ष, शस्‍त्रागार एवं अन्‍नगार कक्षों की समुचित व्‍यवस्‍था है। महल प्राँगण के चारों ओर परकोटों में सेवक-सेविकाओं एवं विश्‍वस्‍त सैनिक लिए समुचित आवासीय व्‍यवस्‍था है। किले की बुर्जों पर दूर तक मार करने वाली गुलाम गौस, कड़क बिजली आदि तोपे थीं।

         अपने निर्माण वर्ष 1613 से 1742 ई. तक झाँसी किला ओरछा राज्‍य के बुन्‍देला राजाओं के अधिकार में ही रहा। बुन्‍देला ने एक समझौते के तहत 1742 में झाँसी का इलाका पुणे के पेशवा को प्रदान किया। पेशवा का प्रतिनिधि नारोशंकर झाँसी का प्रथम शासक था। नारोशंकर के झाँसी में आगमन से प्राचीन वैभपूर्ण ओरछा नगर का पराभव एवं विनाश और झाँसी नगर का अभ्‍युदय हुआ।

         नारोशंकर ने झाँसी किला अपने अधिकार में लेकर, नगर स्‍थापित करने की दृष्टि से किले पूवोत्‍तर भाग में विशाल नगर परकोटा बनवाया। इसमें सभी ओर से आने-जाने के दस दरवाजे- खाण्‍डेराव दरवाजा, दतिया दरवाजा, उन्‍नाव दरवाज़ा, ओरछा दरवाजा, बड़ागाँव दरवाजा, लक्ष्‍मी दरवाजा, सैयर दरवाजा, भाडैरी दरवाजा एवं झरना दरवाजा के नाम से जाने जाते थे। इन दस दरवाजों के अतिरिक्‍त परकोटे में चार खिड़कियाँ-गनपत की खिड़की, खाण्‍डेराव एवं दतिया दरवाजाके बीच, अलीगोल की खिड़की, दतिया एवं उन्‍नाव के बीच, सुजान खाँ की खिडकी, भाड़ैर एवं बड़ागाँव दरवाजा के बीच, सागर खिड़की लक्ष्‍मी एवं सागर दरवाजा के बीच थी। आज भी पुराना झाँसी शहर इसी परकोटे के अंदर है। झाँसी का परकोटा अपने अधिकांश दरवाजों और खिड़कियों के साथ अच्‍छी हालत में है।

       नारौशंकर के बाद पेशवा ने महादजी गोविंद (1757-60 ई.) बाबूराव कौनेर (1760-64 ई.) को झाँसी परिक्षेत्र का मामलदार बनाया। सन्‍1766 ई. में पेशवा नारौशंकर के भतीजे विश्‍वासराव लक्ष्‍मण को झाँसी का मामलतदार बनाया, जो लगभग दस वर्ष तक रहे। सन् 1777 ई. में रघुनाथ हरि निंबालकर झाँसी के मामलदार बनाये गये थे, जिनके बाद क्रमश: शिवराव भाऊ (1794-1815 ई.) रामचंद्र राव, रघुनाथ राव (1835-38 ई.) कोर्ट ऑफ वार्ड्स (अँग्रेजी रेजीडेंस 1838 -42) गंगाधर राव लक्ष्‍मीबाई (1843-53) झाँसी के प्रबंधक मामलतदार रहे थे।

        सन् 1853 में गंगाधर राव का नि:संतान निधन हो गया। मरते समय गंगाधर राव एवं लक्ष्‍मीबाई ने गुरसराय के निंबालकर जातीय आनंद राव वासुदेव को गोद लिया था, जो लक्ष्‍मीबाई की सौतेली माता चिमणा बाई का भाई था। इसे अंग्रेजी सरकार ने हिंदू धर्म संस्‍कृति के प्रतिकूल, वंश से बाहर का कहकर अमान्‍य कर दिया। अँग्रेजों ने झाँसी का प्रशासन अपने हाथ में लेकर, लक्ष्‍मीबाई को पाँच हजार रुपया मासिक पेंशन देकर, नगर में ही स्थित रानीमहल निवास के लिए दिया। झाँसी किला एवं परिक्षेत्र अँग्रेजों के सीधे नियंत्रण में हो गया था। लक्ष्‍मीबाई पेंशन प्राप्‍त कर रानीमहल में रहने लगी थीं।

        सन् 1857 ई. में लक्ष्‍मीबाई को विद्रो‍हियों ने रानीमहल से किले में पुन: लाकर झाँसी की रानी बना दिया था। विद्रोहियों के दमन के लिए ह्यूरोज महू से भोपाल होकर झाँसी आया। वह विद्रोहियों के मोर्चों वाले किलों राहतगढ़, बरौदिया, मदनपुर, सौरई, मड़ावरा, महरौनी, बानपुर,कैलगुवाँ एवं तालबेहट को तोड़ता हुआ झाँसी जा पहुँचा, जिसने कैमासिन देवी पहाड़ी के पृष्‍ठ भाग में अंग्रजी सेना एवं तोपखाने का मोर्चा लगाया। झाँसी किले की सैनिक व्‍यवस्‍था का अध्‍ययन किया। ह्यूरोज ने लक्ष्‍मीबाई को किले में घेरे रहने की ऐसी योजना बनाई कि उसे बाहर से किसी प्रकार की सहायता प्राप्‍त होसके। उसने इस तरह इस तरह से सेना तैनात की कि लक्ष्‍मीबाई की सहायता के लिए चरखारी से आ रहे तात्‍या टोपे, बानपुर एवं शाहगढ़ के विद्रोही राजा मर्दनसिंह, झाँसी किले की ओर आ ही नहीं पाये।

        उसने किले के प्रवेश द्वार के एक रक्षक को भी अपने पक्ष में कर लिया था। तोप से दक्षिणी-पूर्वी परकोटा की गुर्ज को गिरादिया था। परकोटे पार कर अंग्रेजी सेना किलाके प्रवेश द्वार तक जा पहुँची। लक्ष्‍मीबाई की सेना परकोटा भित्ति के ऊपर से साहसपूर्वक लड़ी, परन्‍तु एक रक्षक द्वारा किले का ओरछा फाटक खोल दिये जाने से अंग्रेजी सेना झाँसी शहर में प्रविष्‍ट हो गयी। किले के पूर्वी-दक्षिणी परकोटेके भीतर विद्रोहियों ने अंग्रेजी सेना से कड़ा संघर्ष कर उसे उलझाया, तभी किले के पश्चिमी भाग के पहाड़ी परकोटे के पीछे से पहाड़ी पर जो 12-15 फुट नीची है, से रानी लक्ष्‍मीबाई घोड़े पर सवार होकर, सरदारों एवं सेविकाओं के साथ काल्‍पी की ओर निकल गयी थीं।

        अंग्रेजी सेना ने किले पर अधिकार स्‍थापित कर लिया था और इसे ग्‍वालियर के सिंधिया के अधिकार में कर दिया, जो सन्1858 से 1886 तक सिंधिया के कब्‍जे में रहा। सन् 1886 से 1947 तक यह अंग्रेजी फौज के पास रहा। 1947 से यह किला भारतीय पुरातत्‍व के संरक्षण में हैं और बुन्‍देलखण्‍ड के सबसे संरक्षित किलों में से एक है। किले के पास ही राजकीय संग्रहालय स्थित है। वर्तमान में पर्यटन विभाग तथा झाँसी विकास प्राधिकारण के संयुक्‍त प्रयास से किले में लाइट एण्‍ड साउण्‍ड का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। प्रतिदिन सैकड़ों पर्यटक वीरांगना के इस किले में भ्रमण के लिए आते हैं। यह किला बुन्‍देलखण्‍ड परिक्षेत्र का प्रमुख पर्यटन केन्‍द्र है।