यह व्रत शरद पूर्णिमा (क्वार पूर्णिमा) से शुरू किया जाता है। पूर्णिमा के दिन (बिना नमक) फलाहार का नियम है। इसके बाद गणेश चौथ के पहले 2-3 दिन तक सेंधा नमक लेकर एक समय रोटी, पीपल के तवे पर बना कर भाजी और घुइॅया की सब्जी दूध, दही सब ले सकते हैं व सबेरे समय चाय, फल, पेड़ा, बर्फी बगैरह फलाहार ले सकते हैं। नमक एक बार ही लेने का नियम है। गणेश चौथ के दिन शाम को गणेश जी की पूजा होती है। उसमें चार कथा गणेश जी की कही जाती है। पूजा में 1 नारियल व गाँठ के लिए सफेद कपड़ा हल्दी लगाकर वहीं रख लेते है। पूजा हो जाने पर अरग दिया जाता है।

गणेश जी को अरग देते समय (इकट कुआँ, विकट की बारी, गौरा ईश्वर खेलें सारी, बँधे बिछड़े छूटें मिले, जी कारन गणेश रहें) ऐसा पाँच बार कह कर दूध से अरग देते हैं। तुलसी के सामने घी का दिया जलाकर चंद्रमा को अरग देते हैं यह कह कर (उठो दुधन्ती, उठो पुतन्ती उठ बारे की मॉय, चंदा सूरज अरग देत हैं, घी को दियला लेव)। ऐसा पाँच बार कहकर अरग देते हैं। फिर नारियल लड़कों से फुड़वाते हैं। पूजा के सामने ही कपड़े पर हल्दी लगा कर उसमें सवा रुपया, कनेर का लाल फूल, पंचरत्नी, 1 सुपाड़ी, चंदन, रोली, चावल और नारियल का एक छोटा टुकड़ा बिना लगे सावितपान गाँठ में बाँध लेते हैं। धागे से बाँधते हैं व बिना नमक का फलाहार एक समय करते हैं। दूसरे दिन पंचमी से भगवान चौकी पर पूरे जाते हैं। चौकी के नाप का एक सफेद कपड़ा (पटका) चौकी बिछाकर, इसी तरह रोज पूजा होती है। दो निर्जला व्रत करने का नियम हैं सो दो में से कोई भी एकादशी निर्जला कर लेते हैं।

पंचमी से दीपावली के दिन भगवान पूरे जाते हैं। इसके बाद दीपावली के दूसरे दिन गाय की पूजा करते हैं व मौन रखकर दिया रखते हैं (30 आटा के दिये बनाकर फुलबत्ती रखकर घर में पहले भगवान व तुलसी के पास दरवाजे पर, गाय के पास रास्ते में जो भी मंदिर या पीपल के पेड़ बिना बोले ही एक-एक दिया सब जगह रखते हुये मंदिर जाते है। पूरे दिए रखने के बाद ही बोलते हैं। इसके बाद 5 दिन तक भगवान खोये रहते हैं पूरे नहीं जाते। (कथा कहानी रोज होती है) भगवान को 5 दिनों में 5 मंदिरों में ढूंढ़ने जाते हैं। पॉचवें दिन मंदिर में कदम भेंटने जाते हैं वहीं पूजा होती है, कथा कहते हैं, एक कदम की डाल व फल तोड़ लाते हैं व पाँच, सात पथरिया लेकर आते हैं दूसरे दिन चौकी पर पूजा में उन्हें चढ़ाते हैं व पंथामाई जो वहाँ से लाते हैं उनकी भी पूजा वहीं होती है।

इच्छा नवमीं की पूजा के बाद ऑवला के पेड़ की पूजा व कथा करते हैं। फिर हाथ में जवा लेकर उसके बाद कभी भी राई दामोदर का निमंत्रण (ब्राह्मण व ब्राह्मणी काे भोजन कराते हैं) पूजा आरती के बाद उन्हें भोजन कराते हैं साथ ही सामर्थ्य के अनुसार श्रृंगार का सामान व वस्त्र देते हैं। एकादशी के दिन निर्जला व्रत रखते हैं, इतवार व मंगलवार दोनों एकादशी व आखिरी 5 दिन में फलाहार का विधान है। जिसमें नमक नहीं लेते। एकादशी के दिन से ही आटे के पाँच-पाँच टका बना कर नदी में डालते हैं और टका डालते समय (गंगा के दानी, काहे हिलोर पानी, पहले धर दे टका, तब हिलोर पानी) ऐसा कहते हैं। व पूर्णिमा के दिन शाम को नदी में जाकर आटा के 30 टका डालते हैं। व आटा के 30 दिया जलाते हैं और एक पुटठे में रखकर नदी में प्रवाह करते हैं।

एकादशी को मियाँबिलार बनाकर 5 दिन (पूर्णिमा) तक पूजा होती है। विर्सजन व पंथामाई का वहीं नदी पर ले जाकर होता है। मंदिरों के दर्शन करते हुये घर में आ जाते हैं चौदस या उनका भी इसके बाद पूर्णिमा के दिन कृतिका लग जाती है और जब तक नहीं उतरती निर्जला व्रत करते हैं। उतरने के बाद नहा धोकर सब घर परिवार के साथ पारण होता है। कार्तिक पूजने के बाद शाम को गाँठ किसी पंडित से खुलवा लेते हैं गणेश चौथ का व्रत रखकर कार्तिक महीने के स्नान पूरे किये जाते है।