शिवपुरी जिले के टोंगरा ग्राम का सूर्य मंदिर
July 2, 2024बुंदेलखंड विश्वकोश योजना की वेबसाइट व संस्कृत समिति के कार्यो की समीक्षा
July 4, 2024ग्वालियर जिले के आलमपुर में मध्यकालीन सूर्यमन्दिर हैं, इसे भी ‘बालाजी सूर्यमन्दिर’ के नाम से जाना जाता है।
उक्त सूर्य मन्दिरों के अतिरिक्त अनेक स्थानों पर सूर्य की रथारूढ़ आसन एवं स्थानक प्रतिमायें मिली है। कुछ वर्षों पूर्व उ.प्र. राज्य पुरातत्व सर्वेक्षण (झॉंसी इकाई) द्वारा किये गये सर्वेक्षण में ललितपुर जिले के वैदपुर (महरौनी विकासखण्ड) में गॉंव के टीले के पार्श्व में बड़े प्रस्तार फलक पर 1.8 मीटर ऊँची रथारूढ़ सूर्य की विशाल प्रतिमा मिली है. जिसका काल 11वीं सदी अनुमान किया गया है। इसी जिले के जखौरा ब्लाक के दैलवारा ग्राम में शिवमन्दिर की एक रथिका में सप्तअश्वरूढ़ सूर्य की प्रतिमा (माप 28 मीटर ×.30मी) प्रतिष्ठित होने की जानकारी मिली है। इसी जिले के ग्राम सीरौन खुर्द में चीरादार बउआ नामक स्थान के धोबन बउआ देवस्थान पर सर्वतोभद्र स्तम्भ के अधोभाग में सूर्य का स्थानक रूपांकन मिला है। इसी जिले के ग्राम सिरसी में बूचीमाता, रमेसरा तथा सलावन ग्रामों में सूर्य की उदीच्यवेषधारी स्थानक प्रतिमायें प्राप्त हुई है। जिला जालौन के कालपी नगर में लंकामीनार परिसर में बने दक्षिणात्म शैली के चित्रगुप्त मंदिर में नवग्रह मूर्तियों के साथ सूर्य की सुन्दर प्रतिमा प्रतिष्ठित है।
झॉंसी सग्रहालय में महोबा से 10वीं-12वीं सदी की रथारूढ़ द्विभुजी सूर्य की प्रतिमा के अतिरिक्त तीन अन्य प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं।
मध्यप्रदेश राज्य पुरातत्व द्वारा कराये गये उत्खनन एवं सर्वेक्षण से अनेक सूर्य प्रतिमाओं की जानकारी प्रकाश में आई है। यह सभी 10 से 12 वीं सदी के मध्य की हैं। इनमें जबलपुर जिले के पनागर तथा भेड़ाघाट (चौंसठजोगिनी मंदिर) नरसिंहपुर जिले के बरहटा, गुना जिले के सकर्स तथा खजुराहो के आठ मंदिरों में सूर्य की दुर्लभ प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं। इनके अतिरिक्त नवग्रह पट्टों तथा सती स्तम्भों में सूर्य की प्रतिमा तथा प्रतीक चित्रांकन सैकड़ों स्थानों पर मिलता है। उल्लेखनीय है कि बुन्देलखण्ड में सती स्तभ्म बहुतायत से प्राप्त होते रहते हैं। अनेक स्थानों पर सूर्यकुण्ड भी मिले हैं, जिनके निकट प्राचीन सूर्य मन्दिर रहे होंगे- ऐसा अनुमान किया जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन काल में बुन्देलखण्ड में सूर्योपासना की सशक्त परंपरा थी तथा 5 वीं सदी से 12वीं सदी तक सूर्यमन्दिरों एवं प्रतिमाओं का प्रचुर मात्रा में निर्माण हुआ।
वर्तमान काल में इस अंचल में सूर्यपूजा की सशक्त परंपरा बुन्देलखण्ड के लोक जीवन में प्राप्त हुये हैं प्रत्येक रविवार को अनेक व्यक्ति सूर्यपूजा एवं व्रत करते हैं। सूर्यपूजा का प्रमुख पर्व मकर संक्रान्ति ‘बुड़की’ के नाम से उल्लासपूर्वक तीन दिनों तक मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि इस अंचल में दीवाली तथा होली को छोड़कर केवल बुड़की ऐसा पर्व है जो तीन दिनों तक व्यापक रूप से मनाया जाता है। इसमें प्रथम दिन मकर संक्रांति के एक दिन पूर्व “तिलैया” मनाते हैं इस दिन तेल तथा तिल से बने विविध व्यंजन (पकवान्न) बनाने एवं खाने की परंपरा है। दूसरे दिन ‘संकरात’ मनाते हैं। इस दिन किसी तालाब या नदी पर जाकर शरीर पर तिल मलकर स्नान करने एवं सूर्य पूजा के उपरान्त तिल तथा खिचड़ी दान करने की परंपरा है। गॉंवों में संक्रान्ति के दिन बैलगाड़ियों में बैठकर नरनारी बालक – वृद्ध निकट की किसी नदी, तालाब, सूर्य मंदिर या सूर्यकुण्ड पर जाते हैं, बैलों को सजाया जाता है। उन पर कशीदाकारी की गई झूलें डाली जाती है। बैलगाड़ियों की दौड़ प्रतियोगितात्मक होती है। तीसरे दिन ‘भंवरात’ मनाई जाती है। इस दिन छप्पन प्रकार के व्यंजन (पकवान) बनाये जाते हैं। रात में वाहनों के प्रतीक मिट्टी से बने वाहन खिलौनों की पूजा की जाती है। इनमें हाथी, घोड़ा, गड़िया (बैलगाड़ी या भैंसागाड़ी) की पूजा करते हैं इन सभी में चार चार पहिये लगे होते हैं। इनमें ‘गौने’ रखकर उनमें पकवान भरते हैं। गौनों की संख्या परिवार के सदस्यों की संख्या के बराबर होती है।
पकवानों में अनेक तरह के लड्डू यथा मूंग, सफेद तिली, खील, लइया, देवल, रामदाना आदि के लड्डू, नमकीन खुरमा, मीठे खुरमा, सेव मठरी, पपड़िया आदि आदि होते है। घर के पूजागृह में गोबर से लीपकर उस पर आटा का चौक पूरकर उसके ऊपर लकड़ी का इतना बड़ा पाटा रक्खा जाता है। कि परिवार के सदस्यों की संख्या के समतुल्य मिट्टी या धातु के बने हाथी, गड़िया, आदि रक्खे जा सकें। इन खिलौनों पर ‘गौनें’ कसकर उनमें व्यंजन भरकर रात्रि में घर. पर बड़ा बालक इनकी पूजा करता है। बालक के अभाव में घर की सयानी महिला पूजा करती है। इनमें से जितने बालक बालिकायें होती हैं। उतनी गोनें लदे वाहन, खिलौने अगले दिन प्रभात में बालक बालिकाओं को दे दिये जाते हैं। वह इन वाहन खिलौनों को पट्टिओं के सहारे खींचते हुए किसी बाग में या गॉंव के बड़े चबूतरे पर ले जाते हैं गॉंव के सभी बालक वहीं एकत्र होते हैं तथा परस्पर मिलबॉंटकर उन व्यंजनों एवं पकवानों को खाते हैं। घर पर बची शेष गौने, व्यंजन सहित सुरक्षित रख दी जाती है। उन्हें अगली ‘बसंतपंचमी’ के दिन खाली किया जाता है तथा पुनः पूजा करके गौनों में रक्खे व्यंजन परिवार के सदस्य मिल बॉंटकर खाते हैं। खाली गौने सुरक्षित रख ली जाती हैं। ताकि अगली भंवरात पर काम में आवें।
इसके अतिरिक्त माघ माह में सूर्यपूजा का विशेष लोक-पर्व होता है। माघ माह के अंतिम रविवार को सूर्यपूजा की जाती है। इसके लिये खुले ऑंगन या घर के बाहर चबूतरे पर गोबर से लीपकर उस पर गेहूँ के आटा से गोलाकार चौक पूरा जाता है। उसके केन्द्र के आटे से बनी अठवाई (छोटे आकार की पूड़ी) वृत्ताकार सजाते हैं तथा बीच में गोल कटोरी में खीर रखते हैं। यह रचना सूर्य की तरह बन जाती है। उसका पूजन करके खीर अठवाई का प्रसाद बॉंटा जाता है। कहानी कही जाती है।
इस प्रकार लोक जीवन में सूर्य पूजा के विविध स्वरूप प्रचलित हैं। बुन्देलखण्ड की संस्कृति तथा परंपराओं के अनुशीलन के लिये इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी समझना आवश्यक है।