ओरछा नरेश महाराज मधुकर शाह के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में सं. १६०० वि. में उत्पन्न हुये। आप सं. १६४९ वि. से १६६२वि. तक ओरछा राज्य के महाराज पद पर सुशोभित रहे। आप कवि हृदय के साथ भागवत भक्त थे। इनकी काव्य में यही भाव की झांकी मिलती है –
“प्रभु तुम अपनौकर मोय जानौ।
रामसाह मधुकर कौ बेटा,
ता नातै माय मानौ।
कुंठी तिलक छाप उरमाला,
ये ई भक्त कौ बानौ।
बचन कहित सुधि रही,
न मोकौ हतो प्रेम कौ सानौ।
देवदरस अब आदि बिहारी,
लखौ सो सकल जमानौ ।
जौपुर नृपति परीक्षा कारन,
कपट रूप कौ ठानौ।
जो प्रन पूरौ होय न मेरौ,
तुरतई दैहै तानौ।
तातै लाज राख दो प्रन की,
जम भक्त पहचानौ।
प्रभु तुम अपनौ कर मोय जानौ”
इस प्रकार रामसाह ने अपना परिचय देते हुये अपने संस्कृतिनिष्ठ पिता महाराज मधुकर साह के कंठी, तिलक एवं छाप की प्रतिष्ठा में अपना, प्रान-पन का संकल्प व्यक्त किया है। मधुकर साह ने अकबर जैसे महाशक्तिमान सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन कर भरे दरबार में तिलक लगाकर गये और अप्रतिम वीरता व साहस का प्रदर्शन किया। तभी से तिलक मधुकर साही तिलक कहलाया। मधुकर साह ने संस्कृति की रक्षा कर देश का भाल ऊंचा रखा। महाराज रुद्र प्रताप ने १५८८वि. में ओरछा को अपने राज्य की राजधानी बनाया –
“नृप प्रताप रुद्र सुभये तिनके जनु रनरुद्र।
दया दान को कल्पतरु, गुननिधि सील समुद्र।”
रुद्र प्रताप के भारती चन्द्र और मधुकरशाह दो पुत्र हुये। भारती चन्द्र के बाद मधुकर शाह ओरछा की गद्दी पर बैठे। किन्तु महाराज रुद्र प्रताप के समकालीन दरवारी कवि खेमराज ने अपनी रचना प्रताप हजारा में इनके नौ पुत्रों का वर्णन किया है –
“प्रथम भारतीचन्द्र, द्वितीय मधुकर सा जानों।
कीरत उदयाजीत सिंह, आमन पहिचानों।
भूपत भूपत शाह चान चाह न तिहीन का।
प्रागदास दुर्गेस स्याम, सुन्दराहि हीन का
कह ‘खेमराज’ गढ़ ओरछे, गढ़ कुढ़ारपति मानिये,
नव पुत्र रुद्रप्रताप के सो नौऊँ खण्ड बखानिये ।”
उदयजीत को मऊ और महेवा की जागीरें दी गई। जिनके वंशज छत्रसाल हुये। छत्रसाल ने पन्ना राज्य की आधारशिला रखी। अमान दास को पंडारा, भूपतिशाह को कुण्डरा, चन्दनदास को कटेरा प्रागदास को हरसपुर (ललितपुर), दुर्गादास को दुर्गापुर (दतिया राज्य में) और घनश्याम दास का मंगवा की जागीरें मिली।