
धर्म दर्शन एवं अध्यात्म समिति
July 23, 2024
मनहरदेव
July 25, 2024स्थिति
वर्तमान मध्यप्रदेश के दतिया जिले में झाँसी आगरा मुख्य रेल लाइन पर, सोनगिरि नाम से ही रेलवे स्टेशन है। स्टेशन से लगभग 4-5 किलोमीटर की दूरी पर यह जैन तीर्थ अवस्थित है। सोनगिरि में प्राकृतिक रमणीयता से परिपूर्ण पहाड़ पर प्राचीन सतत्तर (77) शिखर युक्त जैन मंदिर हैं, तलहटी में आबादी भी है जिसे ‘सनावल’ गाँव के नाम से जानते हैं। पर्वत के अतिरिक्त तलहटी में अठारह जैन मंदिर और पन्द्रह धर्मशालायें भी तीर्थ यात्रियों की सुविधा हेतु निर्मित हैं। आधुनिक निर्माण जारी है।
इतिहास
सोनागिरि का प्राचीन नाम श्रमणांचल, श्रमणगिरि और स्वर्णगिरि रहा है। जैन परम्परा के अनुसार सोनागिरि से करोड़ों साधुओं ने निर्वाण की प्राप्ति की और अष्टम तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभु के समवशरण का भी यहाँ अनेक बार आगमन हुआ था।
णंगाणंग कुमारा कोटी पंचद्ध मुणिवरे सहिआ।
सोनगिरिवरसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥
अर्थात्
श्रीपुर के महाराजधिराज श्री अरिंजय, मालव देश के महामण्डलिक सम्राट धनंजय और तिलिंग देश के महाबली नरेश अमृत विजय और 1500 अन्य राजा- महाराजाओं ने इस तीर्थ से चन्द्रप्रभु भगवान के समवशरण में दीक्षा ली। महाराज अरिंजय के विलक्षण सुपुत्र नंग और अनंग दोनों राजकुमारों ने उत्तम राजभोग त्यागकर भरी जवानी में चन्द्रप्रभु की देशना से प्रभावित होकर जिनदीक्षा ली और उज्जैन के महाराज श्रीदत्त इन्हीं मुनिवरों के प्रभाव से 2000 राजाओं के
साथ दिगम्बर मुनि हुये थे। सोनागिरि क्षेत्र पर भट्टारकों की चार गद्दियाँ रही थीं जो ग्वालियर के भट्टारकों की शाखा के रूप में स्थापित हुई थीं। सोनागिरि मूलतः बलात्कारगण के भट्टारकों का था।
पुरातत्व
इस तीर्थ स्थल को प्रकृति ने अपनी भरपूर छटा से संवारा, इतिहास ने स्तुत्य गौरव प्रदान किया और अध्यात्म ने इसे तपोभूमि बनाकर निर्वाण के कारण सिद्ध क्षेत्र बनाया।
दर्शनात-पापजलभृत्खण्डनोद्दण्डमारुतः
वन्दानपुण्यजलधिप्रवृद्ध्या पूर्णचन्द्रकः
परिक्रमणतोऽ शेष तीर्थ शुद्धि प्रदायकः
पूजनाद्भावतः सर्वचिन्तितार्थफलप्रदः ।।
भव्य जिनालयों के अतिरिक्त इस पर्वत के दो चमत्कारिक स्थल भी चर्चित हैं। एक तो ‘नारियल कुण्ड’ जो एक शिला में नारियल के आकार का कटा हुआ है। दूसरा- ‘बाजनी शिला’ एक विशेष शिलाखण्ड जिसे बजाने से धातुई प्रतिध्वनि मिलती है। अधिकांश जिनालय प्राचीन मंदिर निर्माण शैली पर निर्मित हैं। इनमें मंदिर संख्या 52 प्राचीन शैली का विशाल जिनालय, मंदिर संख्या 59 गुम्बज वाला मंदिर और मंदिर संख्या 6 की रचना मेरू शैली पर आधारित है। चक्कीनुमा होने के कारण इसे पिसनहारी का मंदिर भी कहा जाता है। सोनागिरि का सत्तावनवाँ मुख्य जिनालय तीर्थंकर चन्द्रप्रभु का है जो प्रकृति के क्रीड़ांगन में अपनी विशालता, रमणीयता और सिद्धता के लिये विख्यात है। इस जिनालय में मूलनायक तीर्थंकर चन्द्रप्रभु की 12 (बारह) फुट उत्तुंग कायोत्सर्ग प्रतिमा है। शिल्पकार ने इस मूर्ति में देशी पाषाण पर सर्वांग शौष्ठव का इतना सजीव उत्कीर्णन किया है कि चन्द्रप्रभु को विहंमित और ध्यानस्थ मूर्ति के सामने जाते ही दर्शक भाव विभोर ही नतमस्तक हो जाता है। इसके गर्भगृह में दो लेख देवनागरीलिपि में हैं। एक शिलालेख में 1233 वि.म. अंकित है। चन्द्रप्रभु प्रतिमा के एक शिलालेख में संवत् 335 मात्र पढ़ने में आता है। विद्वानों का मत है कि यह 1335 संवत् रहा होगा। प्रथम अंक 1 दब या मिट गया प्रतीत होता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रतिमा पर्वत में ही उकेरी गई है। आगे इसी जिनालय में 6.50 फुट ऊँची पार्श्वनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा है। आगे की वेदिका पर तीर्थंकर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभु और शान्तिनाथ की श्वेतवर्ण प्रतिमायें हैं। अंत में नौ फणों वाली पद्मासन मुद्रा में सुपार्श्वपाथ की मूर्ति है जिसका चिन्ह स्वास्तिक नीचे अंकित है।
चन्दाप्रभु भगवान के विशाल मंदिर के आगे उत्तुंग मानस्तम्भ है। पर्वत पर प्रकृति नटी की क्रीड़ा, मंदिर की सतत् भक्ति, मानस्तम्भ और सरोवर आदि इस तीर्थ में अत्यन्त शोभायमान और मनोहारी दृश्य प्रस्तुत करते हैं। वर्षा ऋतु में तो यह तीर्थ और भी रमणीक हो उठता है। कल-कल करते झरने, कलरव का संगीत सुनाते पक्षी और धवल आकाश के नीचे हरियाली के गलीचों पर नाचते मोर मदमस्त गुंजारते हैं। इस कृति-लेखक के शब्दों में-
चाँदी जहाँ धरा पर बिछती, नभ सोना बरसाये
चन्द्र प्रभु के मंदिर में जहाँ चंदा दूध नहाये
सूरज से सँवरे सोनागिरि, बन्दों रे तीरथ श्रमणगिरि ।
प्रतिवर्ष होली के अवसर पर यहाँ विशाल जन पदीय मेला आयोजित होता है। वर्तमान प्रबंधकारिणी समिति की ओर से तीर्थ पर नवनिर्माण और सज्जा की उत्तम व्यवस्था की गई है। यात्रियों के विश्राम आदि की अच्छी सुविधायें भी लगभग निःशुल्क उपलब्ध हैं। देश के केन्द्र में होने और प्राकृतिक पावन परिवेश इत्यादि अनेक कारणों से यहाँ महावीर स्वामी के सिद्धान्तों पर आधारित एक जैन-विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रयास विचाराधीन है।