हरि गुणगान
August 2, 2024प्रातः स्तुति
August 2, 2024“परिक्रमा पश्चात् सभी श्री राधाकृष्ण की आकृति वाले वस्त्र को चारों ओर से सावधानीपूर्वक खींचकर वेदिका के ऊपर से उठाती हैं और उसे झूलना झुलाती हैं। झूलना गीत “अपने गोपाल जू खौं पलना पसार झुला दउरी”..
गीत
“झुला दो सखी पालना, झूले नंदलाल
काहे को तेरो बनो पालना, काहे की लागी डोर
काहे के लागे फूंदना, झूले नंदलाल, झूला दो…..
अगर चंदन के बनो है पालना, रेशम लागी डोर
मोतिन के लागे फूँदना, झूले नंदलाल झुला दे……. । झूल सखी पालना।
काहू गुजरिया की नजर लगी है, खीज करे लालना (२)
झुला दो मैया पालना, झूले नंदलाल, झुला दो सखी पालना।
राई नोन उतारो जसोदा, किलक उठे ललना
झुलें नंदलाल, झुला दो सखी पालना…।”
भगवान उठाना
“रथ टेकें जइयो जी बंसी के बजइया, मेरे प्राण आधार…..२
कहाँ गई गउयें, कहाँ गयें ग्वाले, कहाँ गये बंसी के बजावन हार, रथ टेके जइयो…..
वन गई गउयें वनई गये ग्वाल, कृष्ण गये अपनी ससुराल, रथ टेके जइयो………
आ गई गऊयें, आ गये ग्वाल, बंसी बजावत आये नंदलाल, रथ टेके जइयो……..”
झूलना की क्रिया समाप्त होने पर वस्त्र को स्थिर कर दिया जाता है और यह कल्पना की जाती है कि भगवान श्री कृष्ण रथ में बैठकर चल दिये हैं। उन्हें रोकने हेतु गीत गाया जाता है “रथ ठाँड़ो करियो हो, वंशी के बजइया”
विसर्जन
“जमुना में कूद पड़े, बिहारी लाल, जमुना में कूद पड़े !
खेलत गेंद गिरी जमुना में, सो कूदत काउ न लखे, बिहारी लाल,
घाटन घाटन फिरती जसोदा, सो मेरो लाल काउन लखे बिहारीलाल ।
खेलत गेंद गिरी जमुना में, सो कूदत काउ न लखे बिहारी लाल.…..
घाटन घाटन फिरती जसोदा, सो मेरो लाल काऊ न लखे बिहारी लाल…….
नाग नाथ हरि बाहर आये, सो फन पर निरत करे, बिहारी लाल……
गोकुल नगर में बजत बधइयाँ सो घर-घर आनन्द भये, बिहारीलाल….”
“इति चौकी पूजा संपूर्ण”
* * *
अब सभी सखियाँ उस वस्त्र के विसर्जन हेतु तट की ओर बढ़ते हुए गाती हैं- “यमुना में कूँदे पर कनैया मोरे, बूढ़त काउ ने लखै’…….। विसर्जन पश्चात पुनः वेदिका के पास आकर अपनी-अपनी हथेली पर जल छोड़ते हुए गाती हैं ‘डारो ढेली, उठे हवेली, अन्तकाल न जाऊँ अकेली”…….।’ पूरा समूह प्रस्थान कर गीत गाता हुआ अपने-अपने घर वापिस आकर तुलसी पूजा परिक्रमा कर पारिवारिक कार्यों में संलग्न हो जाता है”। यह क्रम द्वादशी तक निरंतर चलता है।
धन्वन्तरी त्रयोदशी से भगवान हिरा (खो) जाते हैं। उनकी खोज में समूह सर-सरिता के तट पर निरंतर पाँच दिनों तक भटकता रहता है। इस अवसर पर गाये जाने वाले गीत “जिनके हम दासी बेइ न मिले”….’ तथा “तोरे लाने श्याम, हम भये रन-बन के ….” आदि। खोये हुए श्याम कार्तिक शुक्ल तीज को काल्पनिक रूप में पाँच दिन बाद उन्हें पुनः प्राप्त हो जाते हैं। इसी अवधि में कतकारियों के समूह को मार्ग में गोप रूपी पुरुष समूह दधि मांगने हेतु छेंकता (रोकता) है। महिला समूह को रोककर पुरुषों का गोप रूपी समूह महिलाओं पर आक्षेप करता है। यथा-
“देव-देव दधि दान, खड़ी बातों में क्यों बहलाती हो
चोरी-चोरा बेच-बेच सूनें में कड़ जाती हो।
आज मिलीं मग बीच लली अब काहे को पछताती हो।
देव-देव……………….
भर-भर मटकी दहिया बेचो छाछ हमें बतलाती हो।
चंचल चतुर चाल चटकीली बातें बहुत बनाती हो।
रस गोरस में नीर मिलाकें ताही से गाढ़ो कराती हो।
नैन बान से तान प्यारी चित्त को और चुराती हों।
देव-देव ……………….”
महिला समूह की ओर से कोई एक महिला उत्तर देती हुई कहती है-
“झगड़ो न श्री कृष्णराय, मोय छेड़ो न पर नारी हूँ
बरसाने से आई गुजरिया, नन्दगांव को जाती हूँ
आना जाना लगो रहत नित, ये ही डगर हमारी है।
झगड़ो न श्री कृष्ण राय……………
बचपन में बहु दही चुराये सो सब गम्में खाई हूँ
ग्वाल-बाल सब संग में लेके छेड़त हो परनारी।
झगड़ो न श्री कृष्ण राय…………….
यही सिखायो जसोदा मैया बिगड़ी चाल तुम्हारी है
छीन छीन तुहारी प्रेम पिछोरी मुरली मधुर सुहाई है।
झगड़ो ने श्री कृष्ण राय……………..
जाय कहूँ मैं कंस राय से पड़ जै है मुश्किल भारी
उतर जाय हल मस्ती तनकी बहुत गरूरी छाई है।
झगड़ो न श्री कृष्ण राय……………..”
इस भाँति कभी-कभी तो घण्टों महिला समूह एवं पुरुषों के मध्य सूर, रसखान आदि प्राचीन कवियों से लेकर अर्वाचीन कवियों के छन्दों के माध्यम से प्रश्नोत्तरी का क्रम चलता रहता है। निरक्षर महिलाओं को श्रुत परम्परा से प्राप्त अनेक ऐसे छन्द याद होते हैं जिन्हें किसी पुस्तक में नहीं खोजा जा सकता है। अन्त में महिला समूह द्वारा दधिदान के रूप में पुरुष मण्डली को कुछ द्रव्य देकर छुटकारा पाया जाता है।
हिराने हुये भगवान मिल जाने पर कार्तिक शुक्ल तीज से कार्तिक पूर्णिमा तक पुनः पूर्ववत स्थान एवं वेदिका पर भगवान श्री कृष्ण की आकृति निर्माण, पूजा अर्चन, कथा-कहानी श्रवण आदि का कार्यक्रम निरंतर चलता रहता है। इसी अवधि में कतकारियों द्वारा अपने-अपने घरों में सुविधानुसार राइ-दामोदर (राधा दामोदर) के रूप में ब्राह्मण पति-पत्नि को आमंत्रित कर उनका वस्त्राभूषण से श्रृंगार कर भोजन कराकर बिदाई दी जाती है। इस अवसर पर कतकारी समूह की सभी महिलाओं को आमंत्रित कर भोजन कराये जाते हैं।
कार्तिक माह में कुछ विशेष तिथियों पर विशेष प्रकार के कार्यक्रम होते हैं। कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी (नरक चउदश) को करइ तुमरिया तथा अद्दाझारौ हाथ में लेकर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके खड़ी होकर तुमरिया तथा अद्दाझारौ के पौधा को अपने ऊपर चारों ओर घुमाते हुए कहती हैं- “अद्दाझारौ करइ तुमरिया,
रोग दोष लै जाय दिवरिया” कहकर उसे तालाब में फेंक देती हैं। कार्तिक शुक्ल नवमी (इच्छा नौमी) को पूरे नगर, ग्राम की परिक्रमा करना होती है, जिसे राछरी फेरना कहते हैं। परिक्रमा पश्चात् पुनः तालाब पर जाकर अपनी डलिया टिपरिया छीप आदि को धोती हैं तथा बाल धोकर स्नान कर वेदिका के पास छोटे-छोटे गड्ढा खोदकर जबा और धान भरकर ऊपर से मिट्टी डालती है जिसे खोंड़ियाँ गाड़ना कहते हैं। दोपहर बाद आंवले के वृक्ष के नीचे सभी कतकारी एकत्र होकर पूजन करती हैं।
विशेष रूप से 108 बाती जलाकर आरती कर सुहाग का सामान चढ़ाकर 108 परिक्रमा लगाती हैं। सभी इच्छा भोजन करती हैं। कार्तिक शुक्ल दशमी (तुलसी दशमी) को लाड़ले पाननै होते हैं। यह सेंधा नमक खाने का अंतिम दिवस होता है। इसके पश्चात् अन्न का भोजन एवं सेंधा नमक का प्रयोग पूर्णतः बन्द हो जाता है। तुलसी दशमी को तुलसी के घरूआ में हल्दी या पीले रंग से राधा कृष्ण की आकृति बनाकर उसका पूजन सुहाग सामग्री चढ़ाकर तथा परिक्रमा करने के पश्चात् भोजन भी तुलसी की छाया मैं बैठ कर करती हैं।
कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णमासी तक पाँच दिनों की अवधि में फलाहार कर व्रत किया जाता है। इन्हें पचभीखें कहा जाता है। अंतिम तिथियों में कृत्तिका नक्षत्र आ जाने पर कृतिका का व्रत निराहार एवं निर्जला के रूप में किया जाता है। कृत्तिका नक्षत्र समाप्त होने पर स्नान करने को ‘चुन्ना-पुन्ना की बुड़की’ लेना कहा जाता है। स्नान पश्चात् स्वामी कार्तिकेय का दर्शन कर उन्हें खिचड़ी चढ़ाई जाती है। चुन्ना-पुन्ना की बुड़की लेते समय एक पपड़िया पर सूखा आटा रख उसे सर पर रख कर बुड़की लेते समय कहती हैं- “चुन्न चुन्न तुम लो, पुन्न-पुन्न (पुन्य) हमें दो”।
कार्तिक स्नान की निरंतर एक माह से अधिक चलने वाली साधना महिलाओं में एक नई शक्ति एवं सामर्थ्य उत्पन्न कर देती हैं। वे पुनः अगले कार्तिक आने की प्रतीक्षा करना प्रारंभ कर देती हैं।