बुन्देली जनजातियों की लोकसंस्कृति को भी व्यापक प्रसार मिला। मतलब यह है कि 8वीं-9वीं शती में लोकचेतना के आन्दोलन ने इतना जोर पकड़ा कि संस्कृत और प्राकृत भाषाएँ एक खास वर्ग तक सीमित रह गईं और लोकभाषा बुन्देली का विकास हुआ। प्रमाण के लिए तत्कालीन शिलालेखों में ‘चैंतरा’ और ‘बारी’ जैसे लोकशब्दों को लिया जा सकता है और 12वीं शती के जगनिक कृत ‘आल्हखंड’ में बुन्देली महाकाव्य की रचना हुई है ।
खजुराहो के मन्दिरों में लोकोत्सवों और लोकनृत्यों के दृश्यों, गाँव और नगरों में प्राप्त स्तम्भों से लोककलात्मक मूर्तिशिल्प के प्रभाव का पता चलता है। चन्देल-नरेश वाक्पति (845-60 ई.) तो क्रीडागिरि में किरात स्त्रिायों से लोकगीत और लोकसंगीत सुनकर आनन्दित होता था। सम्राट कीर्तिवर्मन (1040-1100 ई.) के समय कृष्ण मिश्र का ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक अभिनीत किया गया था और चन्देलकालीन रंगशाला के अवशेष महोबा उत्तर प्रदेश में आज तक विद्यमान हैं।
जनता के मनोविनोद के लिए रंगशालाओं या मन्दिरों के महामंडपों का उपयोग किया जाता था। ऐसे उदाहरणों से स्पष्ट है कि लोकनृत्य और लोकनृत्य के साथ लोकाभिनय भी लोककला-प्रदर्शन का विशिष्ट अंग था। इस दृष्टि से लोकनाट्य स्वाँग इसी समय विकसित हुआ था। लोकधर्म और लोकविश्वास को अनुसरित करनेवाले अभिनय भी होते थे, क्योंकि चन्देलकालीन समाज में कृषि और धर्म सम्बन्धी विविध रीतियाँ प्रचलित थीं और अनार्य जातियों में तंत्र-मंत्र के प्रभाव के कारण भूत-प्रेत में दृढ़ विश्वास था।
देवी का ‘भाव’-अभिनय, उत्सव-यात्रा में नृत्यादि के साथ अभिनय, नकल, मूक अभिनय तो होता ही था, मन्दिरों में नृत्यपरक अभिनय भी प्रचलित थे। चन्देल-नरेश परमर्दिदेव (1165-1203 ई.) के समय लाखा पातुर इतनी विख्यात थी कि दिल्ली के पृथ्वीराज चैहान ने उसकी माँग की थी। जनश्रुति है कि वह खजुराहो के उत्सवों में नृत्य करने में सर्वाधिक कुशल मानी गई थी। नृत्य और अभिनय की प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती थीं, पर यह कहना कठिन है कि इनमें लोकनाट्य भी सम्मिलित थे।
परमर्दिदेव के मन्त्री नाटककार वत्सराज के ‘षट् रूपकम्’ से स्पष्ट है कि वसन्तोत्सव में उसके रूपक मंचित किए गए थे जिनमें ऐसे भी थे जो लोकनाट्य कहे जा सकते हैं और जिनसे यह भी सिद्ध है कि भँड़ैती जैसी लोकनाट्य-कला उस समय विद्यमान थी। संक्षेप में, लोकनाट्यका उद्भव 10वीं शती में हो चुका था और आदिकाल में यह विधा निरन्तर विकास करती रही।
आपने बुन्देली कहावतों का भाषा वैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय अनुशीलन कर मध्यप्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग के सेवासदन महाविद्यालय बुरहानपुर मप्र में विभागाध्यक्ष के रुप में पदस्थ रहे।
बुन्देली धरती के सपूत डॉ वीरेन्द्र कुमार निर्झर जी मूलतः महोबा के निवासी हैं। आपने बुन्देली कहावतों का भाषा वैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय अनुशीलन कर मध्यप्रदेश शासन उच्च शिक्षा विभाग के सेवासदन महाविद्यालय बुरहानपुर मप्र में विभागाध्यक्ष के रुप में पदस्थ रहे। अखिल भारतीय साहित्य परिषद मालवा प्रांत, हिन्दी मंच,मध्यप्रदेश लेखक संघ जिला बुरहानपुर इकाई जैसी अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष रहे। आपके नवगीत संग्रह -ओठों पर लगे पहले, सपने हाशियों पर,विप्लव के पल -काव्यसंग्रह, संघर्षों की धूप,ठमक रही चौपाल -दोहा संग्रह, वार्ता के वातायन वार्ता संकलन सहित अनेक पुस्तकों का सम्पादन कार्य किया है। आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से कहानी, कविता,रूपक, वार्ताएं प्रसारित हुई। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में शताधिक लेख प्रकाशित हैं। अनेक मंचों से, संस्थाओं से राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित एवं पुरस्कृत किया गया है। वर्तमान में डॉ जाकिर हुसैन ग्रुप आफ इंस्टीट्यूट बुरहानपुर में निदेशक के रूप में सेवायें दे रहे हैं।
डॉ. उषा मिश्र
सेवा निवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी केमिस्ट्री और टॉक्सिकोलॉजी गृह विभाग, मध्यप्रदेश शासन।
नाम – डा. उषा मिश्रा पिता – डा.आर.सी अवस्थी पति – स्व. अशोक मिश्रा वर्तमान / स्थाई पता – 21, कैंट, कैंट पोस्ट ऑफिस के सामने, माल रोड, सागर, मध्य प्रदेश मो.न. – 9827368244 ई मेल – usha.mishra.1953@gmail.com व्यवसाय – सेवा निवृत वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी ( केमिस्ट्री और टॉक्सिकोलॉजी ) गृह विभाग, मध्यप्रदेश शासन। शैक्षणिक योग्यता – एम. एससी , पीएच. डी. शासकीय सेवा में रहते हुए राष्ट्रीय – अंतराष्ट्रीय कान्फ्रेंस में शोध पत्र की प्रस्तुति , मिनिस्ट्री ऑफ़ होम अफेयर, गृह विभाग द्वारा आयोजित वर्क शॉप, सेमिनार और गोष्ठीयों में सार्थक उपस्थिति , पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज सागर में आई. पी. एस., डी. एस. पी. एवं अन्य प्रशिक्षणु को विषय सम्बन्धी व्याख्यान दिए।
सेवा निवृति उपरांत कविता एवं लेखन कार्य में उन्मुख, जो कई पत्रिकाओं में प्रकाशित। भारतीय शिक्षा मंडल महाकौशल प्रान्त से जुड़कर यथा संभव सामजिक चेतना जागरण कार्य हेतु प्रयास रत।