
“दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी चरखारी” से “दी जय हिन्द थियेट्रिकल कंपनी तक”
August 12, 2024डॉ. गंगाप्रसाद गुप्त ‘ बरसैंया’
August 21, 2024नाट्यशास्त्र की परम्परा भारतदेश की सांस्कृतिक धरोहर है। भारत देश के कोने-कोने में नाट्य और लोक नाटय परम्परा शताब्दियों से अविच्छिन्न रुप से सतत् सक्रिय रही है।नाटक या रंगमंच के क्षेत्र में जहां शास्त्रीय परम्परायें हैं वहीं लोकनाट्य की निर्झरणी स्वच्छंद व उन्मुक्त भाव से पथरीले,कंकरीले, कंटकाकीर्ण मार्ग में विचरण करती हुई जन-जन के मन को आकृष्ट करती हुई आज भी विद्यमान है। वैदिक काल से आज तक नाटक व रंगमंच के विविध आयाम हमारे सामने प्रत्यक्ष हैं। किंवदंती है कि एक बार इन्द्रादि देवताओं ने ब्रह्माजी के समक्ष जिज्ञासा व्यक्त की कि कुछ ऐसा कार्य हो जिसमें देखने,सुनने में आनन्द प्राप्त हो तब समस्त वेदों के ज्ञाता ब्रह्मा जी ने नाट्यवेद का निर्माण किया।
पंचम वेद में उन्होंने ऋग्वेद में पढ़ना-बोलना, सामवेद में गीत योजना, यजुर्वेद में अभिनय तथा अथर्ववेद में श्रृंगार रस को ग्रहण किया। नटराज शिव जी ने इस नाट्य वेद में अपना तांडव नृत्य और भगवती उमा के कोमल नृत्य से सम्पूर्णता प्रदान की गयी।भाव प्रकाशन के लिए भगवान शंकर ने नान्दी को आदेश दिया कि तुम ब्रह्मा जी के समक्ष गन्धर्व-वेद का स्पष्टीकरण करो तब नान्दी ने वैसा ही किया।
शेष ज्ञान प्राप्त करके नट की विचित्र परिकल्पना कर डाली। उनके सामने पांच ऋषि प्रकट हुए और ब्रह्मा जी ने इस ऋषि समुदाय को नाट्य वेद समर्पित किया। ऋग्वेद के पणि-सरमा,यमी-यम, इन्द्र-इन्द्राणी,उर्वशी-पुरुरवा आदि कथोपकथन सूत्र भारतीय नाटक के उत्स हैं। संवाद नाटक का प्राण तत्व हैं। ऋग्वेद के दसवें मण्डल की ऋचाओं में नाटकीय तत्व संवाद का बीज रुप शनै शनै वृद्धि पाता गया। रामायण ,महाभारत, भवभूति,भास,भारवि,शूद्रक, कालिदास आदि के रुप में नाटक का विकास हुआ।नाटक “काव्येषु नाटकं रम्यं” के अनुसार काव्य की सर्वश्रेष्ठ विधा है। आचार्य भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र में लिखा है कि
“न तत् ज्ञानम् न तत् शिल्पं, न सा विद्या न सा कला। न स योगी न तत् कर्म, नाट्येस्मिन यन्न दृश्यते”।।
विश्व में जो भी प्रकाशमान ज्ञान, शिल्प,विद्या,कला,योग तथा कर्म हैं वह सब नाटक के माध्यम से रंगमंच पर प्रदर्शित किया जा सकता है। भरत मुनि ने नाटक के प्रकार, उनके भेद,उपभेद, नृत्य संगीत, वेशभूषा,अभिनय, वृत्तियां, संवाद, रंगमंच रचना पात्र आदि के साथ ऐसा कोई भी पक्ष नहीं जिसका विवेचन भरत मुनि ने नहीं किया हो।कालिदास जी मालविकाग्निमित्र में कहते हैं – “नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाप्येकं समाराधनम्”। अनेक प्रकार की रुचि रखने वाले लोगों को तृप्त करने की समग्र क्षमता नाटक में है। नाटक के उद्देश्यों में सर्वप्रथम १- विनोदजननम् अर्थात मन बहलाने वाला। २-हितोपदेशजननम् अर्थात हितकर उपदेश करने वाला।३-विश्रान्तिजननम् अर्थात शांति देने वाला होता है।(१) इसके साथ नाटक धर्म, यश, आयु, कल्याण और बुद्धि का सम्वर्द्धन भी करता है।
अरस्तू ने भावों के रेचन या परिष्कार को ही नाटक का उद्देश्य माना है। हिन्दी में नाट्य साहित्य विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में आरम्भ हुआ। संस्कृत,उड़िया के दण्डनाच, नाटक,बंगला की जात्रा, मालवा का माच, बुन्देलखण्ड का जोगिया एवं बाबा, निमाड़ का ठोठ्यो, गम्मत और स्वांग, बघेलखण्ड का नटकौरी और छाहुर, गुजरात का भवाई,राजस्थान का कठपुतली रास, महाराष्ट्र का तमाशा,गोंघल और दशावतार, कर्नाटक का यक्षगान,असम के अंकिया, केरल का पोरोटुनाटकम, तमिलनाडु का नेरुकुन्तू,हिमाचल प्रदेश का रली, बिहार का विदेशिया, जट्ट जटिनी,आदि देश के विभिन्न प्रांतों ने इस परम्परा को पुष्ट किया।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने नाटक विधा को अलग ऊंचाई प्रदान की। उनके अनुसार नाटक शब्द का अर्थ है नट की क्रिया। नट कहते हैं विद्या के प्रभाव से अपने या किसी वस्तु के स्वरुप में फेरकर दृष्टिरोचन करना। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अनेक नाटक,प्रहसन लिखे। इस युग में महाकवि केशव दास जी की रामचंद्रिका, प्राण चंद्र चौहान कृत हनुमन्नाटक, यशवंत सिंह कृत प्रबोधचंद्रोदय, गिरिधरदास कृत नहुष, राजा लक्ष्मण सिंह कृत कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम का अनुवाद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत विद्या सुंदर नामक बंगाली नाटक का अनुवाद। अनूदित नाटकों में शेक्सपियर के नाटक एज यू लाइक इट,टेम्पेस्ट, रोमियो जूलियट, ओथेलो आदि अनुवाद प्रचलित रहे। ये अनुवाद पारसी कम्पनियों के रंगमंच पर भारत के भिन्न-भिन्न भागों में अभिनीत होते रहे।
पारसी थियेटर की परम्परा यही से प्रारम्भ हुई। ये मूलतः ईरानी थे जो ईरान से आकर सांवरकाठा में बस गए। इन्होंने अपनी नाटक मंडलियां बनाईं। एक अक्टूबर 1853 को पारसी थियेटर की शुरुआत हुई। पारसी थियेटर के व्यस्थापक, संस्थापक फराम जी गुस्ताद दलाल थे जो फलुघुस नाम से जाने जाते थे। पारसी रंगमंच भारतीय परम्परागत रंगमंच से भिन्न था। सन १८७५ में पारसी थियेटर विक्टोरिया कम्पनी ने बनारस में शकुंतला नाटक खेला जिसपर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र व उससमय के साहित्यकारों ने भारतीय संस्कृति के साथ खिलवाड़ पर अफसोस व्यक्त किया। इसके बाद पारसी थियेटर को मदद करने वाले आगा हश्र कश्मीरी,पं नारायण प्रसाद बेताब, राधेश्याम कथावाचक इनको पुराणों, ऐतिहासिक धार्मिक कथाओं, घटनाओं पर नाटक लिखने लगे थे।
इस मंडली का पहला नाटक रुस्तम सोराब खेला गया।नारी पात्रों का अभिनय पुरुष पात्र ही करते थे। दादा पटेल ने रंगभूमि पर नारी पात्रों का प्रवेश दिलाया। वेशभूषा और परदे तड़क भड़क वाले रहा करते थे। इस प्रकार पारसी थियेटर लोकरंजन का सबसे बड़ा माध्यम बना। कलकत्ता, बम्बई तथा बड़े नगरों में पारसी एलफिंस्टन थियेट्रिकलम कम्पनी तथा अल्फ्रेड कम्पनियों का बोलबाला होने लगा।उससमय आगाहश्र कश्मीरी दि ग्रेट शेक्सपियर थियेटर कम्पनी कलकत्ता का स्वयं संचालन कर रहे थे।इन सभी थियेटर्स में आगाहश्र द्वारा रचित नाटकों की धूम रहती थी।पारसी थियेटर की तर्ज पर हिन्दी रंगमंच की शुरुआत हुई।
बनारस में श्री शीतला प्रसाद त्रिपाठी ने जानकी मंगल नाटक तैयार किया जिसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने लक्ष्मण के चरित्र का निर्वहन किया। यहीं से अनेक नाट्य मंडलियों की स्थापना हुई। रामलीला नाटक मण्डली १८८९,आर्य नाट्य सभा १८७०, कवितावर्द्धिनी सभा १८७०, भारतेन्दु नाटक मण्डली १९०८,रत्नाकर रसिक मण्डल १९३३, नटराज १९५४,प्रगति १९६८, रंगशाला १९५५,रंगवाणी १९५५राष्ट्रीय नाट्य परिषद १९४९,उदयन १९७२, नाट्य भारती सहित रंगमंच की दिशा में सक्रियता बढ़ी।
बुन्देलखण्ड के चरखारी राज्य के नाट्यप्रेमी महाराजा अरिमर्दन सिंह जू देव ने बुन्देलखण्ड की जनता को पारसी थियेटर का आनन्द देने के लिए चरखारी को पारसी नाटकों का सशक्त केंद्र बनाने का संकल्प लिया और उसमें सफलता भी मिली। उन्होंने दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी चरखारी की स्थापना की। वहां एक भव्य रंगशाला का निर्माण किया तथा नाटककार आगाहश्र कश्मीरी को चरखारी लाकर राजकीय अतिथि का सम्मान दिया। यहां वह ढाई वर्ष रहे तथा उन्होंने अपने सर्वोत्तम नाटक सीता बनवास,राम अवतार की रचना की, इनका मंचन कराया। उस समय बुन्देलखण्ड के छोटे छोटे अन्य राज्यों के सुदूर क्षेत्रों से जनता नाटक देखने आती रही। देश में चरखारी पारसी थियेटर का महत्वपूर्ण केन्द्र बना।
चरखारी उत्तर प्रदेश राज्य में महोबा से २१ किमी दूर स्थित है। यहां के बुन्देला शासकों ने वहां मंगलगढ का भव्य दुर्ग, कलात्मक प्रवेश द्वार, ड्योढ़ी दरवाजा ,सरोवर,महल मंदिर बनवाकर बुन्देलखण्ड का कश्मीर बनाने की कोशिश की थी। यहां के शासक राजा अरिमर्दन सिंह जू देव एवं उनकी महारानी ने भव्य रंगशाला बनवाई,स्वयं रंगकर्मी के रुप में रंगमण्डल का विकास किया।आगाहश्र कश्मीरी जैसे श्रेष्ठ नाटककारों जिन्होंने पन्द्रह नाटक मंचित किये। जनवरी १९२६ से मई १९२८ तक वह चरखारी रहे। उनको पर्याप्त मानदेय देकर सम्मानित किया। आगाहश्र कश्मीरी के दो लिपिक बरजोरे और गोकुल प्रसाद डुलिया द्वारा नाटकों का सफल मंचन व लेखकीय सहयोग प्रदान किया गया।
चरखारी में भरत के नाट्यशास्त्र के अनुसार तीन प्रकार के रंगमण्डल का शुभारंभ किया जिसमें सबसे बड़े नाप का पहला चतुरस-१९२९६ फीट,दूसरा मध्यम नाप का विकृष्ट-९६४८ फीट, सबसे छोटा त्रिकोणाकारीय मुक्ताकाशी मंच का रचना विधान किया। इसमें चौकोर आकार के दोनों रंगमण्डपों में आकार की लम्बाई चौड़ाई में दो का अनुपात रखा।इस रंगमण्डप का आकार १२०७५ फ़ीट है ।इस लम्बाई में रंगपीठिका-मंच की गहराई ४० फीट सम्मिलित है। शेष अस्सी फीट में दीर्घा तथा गलियारे,३६ फीट का मंच ,जमीन से चार फीट की ऊंचाई रखी गई। ध्वनि प्रेषण की समुचित व्यवस्था के लिए छत पर मिट्टी के घड़े लटकाकर पारम्परिक विधि से ध्वनि ईको नियंत्रण की व्यवस्था की गई।
थियेटर की स्वनियंत्रित रंगदीपन व्यवस्था,यवनिका विधान, दृश्य सज्जा, चित्रकला विभाग, वेश सजा अभिनय विभाग, नृत्य विभाग, संगीत विभाग आदि की व्यवस्था थी। दृश्य सज्जा के लिए तीस दृश्य परिवर्तक,सीनरी शिफ्टर कर्मचारी थे।(३) चरखारी थियेटर उससमय का सर्वश्रेष्ठ वर्चस्व वाला रंगमंच रहा। इसमें १२० कलाकार, कार्यकर्ताओं के साथ पूरी टीम थी। तत्कालीन समय में चरखारी राज्य का वजट साठ हजार रुपए वार्षिक था। ब्रिटिश शासन के पालिटिकल ऐजेंट चरखारी थियेटर को फिजूलखर्ची बताने लगे। महाराजा अरिमर्दन सिंह चरखारी छोड़ कर दिल्ली चले गए। महारानी नेपाल वाली ने बहुत प्रयास किया परन्तु थियेटर अनाथ हो गया। प्राचीन रंगशाला की सामग्री कोड़ियों के भाव बेचना शुरू किया।
स्वतंत्रता के बाद हमीरपुर जालौन के सांसद श्री मन्नूलाल द्विवेदी ने बहुत प्रयास किए “दी जयहिंद थियेट्रिकल कम्पनी चरखारी” की स्थापना की, धनाभाव के कारण सारे प्रयास निष्फल हुए। १९४३-४४ के आसपास पारसी कम्पनियों का प्रभाव कम हुआ और १९३६ में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ १९४२ में कमलादेवी चट्टोपाध्याय ने मुम्बई में भारतीय जन नाट्य संघ की नींव रखी। भारतेन्दु के बाद प्रसाद के नाटकों का मंचन हुआ। प्रसाद के नाटकों में गीत योजना को विद्वानों ने पारसी रंगमंच का प्रभाव बताया। गोविन्द बल्लभ पन्त, जगन्नाथ प्रसाद मिलिन्द, हरिकृष्ण प्रेमी, लक्ष्मी नारायण मिश्र,सेठ गोविंददास, उदयशंकर भट्ट, उपेन्द्र नाथ अश्क,आदि नाटककारों ने रंगमंच के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इसके बाद वृन्दावन लाल वर्मा, जगदीश चन्द्र माथुर,मोहन राकेश, सुरेन्द्र वर्मा, धर्मवीर भारती, विष्णु प्रभाकर,आदि की परम्परा विकसित हुई। नाटकों के समानांतर एकांकी, नुक्कड़ नाटक,मोनोप्ले,गीतिनाट्य, रेडियो रुपक के विकास के साथ दूरदर्शन के सैकड़ों चैनलों में आज धारावाहिक और फिल्मी जगत हावी है। ऋग्वेद से प्रारम्भ रंगमंच अपनी यात्रा तय करता हुआ बुन्देलखण्ड के लोक नाट्य कांडरा, रावला, ढिमरयायी, रास,बाबा-जोगिया,रामलीला,भंडैती, नौटंकी, खोइया,मौंनियां से होते हुए लोकधर्मिता का परिचय देते हुए जन-जन के जीवन में रस सृष्टि का माध्यम बना हुआ है।
१- नाट्यालोचन- डॉ श्याम नारायण पाण्डेय, पृष्ठ -२-३
२-लोकनाट्य परम्परा में नौटंकी – डॉ लखनलाल खरे, पृष्ठ -३७-३८
३-सांस्कृतिक बुन्देलखण्ड -अयोध्या प्रसाद गुप्त ‘कुमुद’पृष्ठ-१३६-१३७
प्रोफेसर डॉ सरोज गुप्ता, अध्यक्ष हिन्दी विभाग
पं दीनदयाल उपाध्याय शासकीय कला एवं वाणिज्य
महाविद्यालय सागर म प्र पिनकोड ४७०००१