
श्रेयांसगिरि
July 26, 2024
दूधई
July 26, 2024द्रोणगिरि अर्थात् सेंधपा नाम से जाना जाने वाला यह जैन क्षेत्र छतरपुर जिले में विद्यमान है। टीकमगढ़ छतरपुर रोड़ पर बड़ा मलहरा कस्बे के निकट सेंधपा तीर्थ की स्थिति सागर-कानपुर मुख्य मार्ग पर है।
सदातोया युगल काठिन एवं श्यामली सरिताओं के मध्य कुण्डलाकार पहाड़ पर स्थित तीस जैन मंदिरों वाले बुन्देलखण्ड के सेंधपा तीर्थ को सिद्ध तीर्थ द्रोणगिरि इसलिये कहा जाता है कि निर्वाण काण्ड में जिस द्रोणगिरि का उल्लेख निम्न प्रकार है-
फलहोड़ी बड़ गामे पच्छिम
भायम्मि द्रोणगिरि सिहरे।
गुरुदत्तादि मुणिदां णिव्वाण
गया णमो तेसिं ॥
उक्त सभी स्थितियाँ इस प्राचीन सेंधपा तीर्थ के चारों ओर जैन समाज मानती है।
उदाहरण के लिये इस पहाड़ को द्रोणागिरि मानते हुये पूर्व दिशा में दो- तीन किलो मीटर पर एक बस्ती के अवशेष विद्यमान हैं। बड़ा गाँव भी पूर्व दिशा में आगे जाकर स्थित है जिसका तीर्थ के रूप में वर्णन इस कृति में टीकमगढ़ जिले के बड़ा गाँव क्षेत्र के रूप में पहले ही किया जा चुका है। इसी तरह मुनिवर गुरुदत्त आदि का साधना स्थल इस पर्वत पर स्थित गुफा को ही माना गया है। कहा जाता है कि भगवती आराधना में शिवकोटि के जिस द्रोण मत का उल्लेख किया गया है, वह यही द्रोणगिरि पर्वत है। गुरुदत्त महामुनि की मुक्ति यहीं विषेले कीड़े के काटने से या यहाँ की गुफा में अग्नि प्रज्वलन के कारण समाधि लेने से हुई थी। इसलिये सेंधपा में इस गुफा को गुरुदत्त निर्वाण भूमि-गुफा कहा जाता है। आज भी यह गुफा तपस्या करने लायक है। गुफा के अन्दर का रास्ता कहीं बहुत दूर जाकर खुलता था लेकिन अब यह मार्ग बंद हो चुका है।
पुरातत्व
पर्वत पर स्थित 28 जिनालय पहाड़ी के प्राकृतिक सौन्दर्य से और अधिक रमणीक लगते हैं। जिससे यह स्थल वंदना के साथ पर्यटन योग्य भी है। यों तो मंदिरों की रचना सामान्य है परंतु पुरातात्विक दृष्टि से यह चंदेल कालीन प्रतीत होते हैं। इनका निर्माण ग्यारहवीं से लेकर तेरहवीं सदी में हुआ है। इसलिये प्राकृत भाषा में रचित निर्वाण काण्ड से पुरातत्व का मेल कदाचित नहीं खाता। हालाँकि पौराणिक मान्यताओं के कारण सेंधपा, द्रोणगिरि तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। स्थानीय लोगों का यह कहना उनका क्षेत्रीय मोह दर्शाता है कि मंदिरों की संरचना काल से पर्वत के द्रोणगिरि होने की तुलना करना आवश्यक नहीं है साहित्यिक-सांस्कृतिक साक्षों से यह द्रोणगिरि तीर्थ मान्य होता है।
प्रातः स्मरणीय संत शिरोमणि गणेश प्रसाद जी वर्णी ने इस तीर्थ को दीर्घ काल तक अपना साधना स्थल बनाया था। वे इसे बुन्देलखंड का लघु सम्मेद शिखर कहते थे। वर्णी जी की प्रेरणा से ही यहाँ संस्कृत विद्यालय और उदासीन आश्रम संचालित किया गया था। जिसे चलते हुए अब पचास वर्ष से अधिक अवधि बीत चुकी है।
जिनालय
बड़े मंदिर में संवत् 1549 की आदिनाथ प्रतिमा एवं मेरु मंदिर संख्या 21 की परिकर सहित प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ प्रतिमा महत्वपूर्ण है। मंदिर क्रमांक 24 स्थित 13 फुट ऊँचे और 4 फुट गोलाकार चंदेलकालीन मान-स्तंभ में 3 दिशाओं में 18-18 इंच ऊँची खड़गासन मूर्तियाँ द चौथी तरफ पद्मासन प्रतिमा, इनके ऊपर 24-24 के हिसाब से 96 मूर्तियाँ 3″ ऊँची खड़गासन मुद्रा में हैं। नीचे के हिस्से में 4 पद्मासन मूर्तियाँ एवं इनके नीचे 18″ की 4 देवी मूर्तियाँ निर्मित हैं। कला व पुरातत्व की दृष्टि से यह मान-स्तंभ दर्शनीय है। शिखर जी तीर्थ के समान इस पहाड़ पर भी चन्दाप्रभु, आदिनाथ इत्यादि ‘टोंकें’ वंदनीय हैं।
द्रोणगिरि तीर्थ में अनेक प्राचीन शिलाखण्ड क्षेत्र की पुरातन महिमा के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। पर्वत के नीचे सेंधपा ग्राम में भी 2 प्राचीन जिनालय हैं। यहीं पर्यटकों के लिये धर्मशालायें भी उपलब्ध हैं। पुराणों में द्रोणगिरि तीर्थ के दर्शन का विशेष महत्व प्रतिपादित किया गया है।