दमोह जिला की साहित्यिक परम्परा
June 13, 2024शिवपुरी जिले की साहित्यिक परम्परा
June 13, 2024प्रो. जवाहर लाल चौरसिया “तरुण”
परम पुनीत, पुण्यतोया नर्मदा की गोद में ललित-पालित जबलपुर महानगर का इतिहास असाधारण ही नहीं, पुराण प्रमाणित भी है। पुराण प्रबोधित “त्रिपुर” और इतिहास संबोधित “त्रिपुरी” ही वर्तमान जबलपुर है। ई. पू. द्वितीय शताब्दी में त्रिपुरी का प्राकृत रूप तिपुरि व कलचुरि काल में अपभ्रंश रूप तिऔरी ही जन साधारण में लोकप्रिय था। अलबरुनी ने अपने विवरण में इसी नाम का उल्लेख किया है। आज का तेवर नाम उसी तिऔरी का विकसित अपंभ्रंश रूप है। इसी क्षेत्र या प्रदेश को प्राचीन “डाहल” या चेदि प्रदेश भी कहा जाता रहा है।
इस प्रकार सुदूर अतीत- से परम वैभवशाली कलचुरी काल और फिर गोंड राज्यकाल के मध्ययुगीन स्वातंत्र्य संघर्षों व बलिदान की जीवंत प्रतीक महारानी दुर्गावती, वीर नारायण व उनके वंशज शंकर शाह रघुनाथ शाह से लेकर स्वातंत्र्य संकल्प व तेजस्विता के प्रतिमान नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में सम्पन्न कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन (1939) तक की सहस्त्राधिक शताब्दियों की सुदीर्घ कालावधि, विभिन्न नामों रूपों में जबलपुर महानगर व क्षेत्र की भौगोलिक व सामरिक, पौराणिक व ऐतिहासिक, आर्थिक व सामाजिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक, धार्मिक व दार्शनिक, साहित्यिक व कलात्मक अस्मिता और व्यक्तित्व को निरंतर रूपायित रेखांकित करती रही है।
महर्षि जाबालि के आशिषदान और अरबी “जबल” (पर्वत) के व्यावहारिक अर्थानुदान से आज वही त्रिपुरी “जबलपुर” नाम से विख्यात है। अमल-धवल संगमर्मरी परिधान में परिवेषित उन्मुक्त नर्मदा का तरंगित सौन्दर्य, उस तरल निर्मल दर्पण में अपनी छवि निहारते विंध्याचल के शिखर, हरित मखमल से दूर्बादलों के विस्तार और अगणित ताल तलैयों की तालबद्ध स्वर लहरियों पर झूमते हरे-भरे वनों का विमुग्ध वैभव इस प्रांगैतिहासिक ऐतिहासिक नगर को प्रकृति माता के सहज स्नेह दान रूप में सतत् सुलभ रहे हैं। यही स्नेह जब मानवीय श्रम के सांचे में कलात्मक हाथों ढाला और सँवारा गया तो तीरे-तीरे, ग्वारीघाट, तिलवाराघाट, लम्हेटाघाट, भेड़ाघाट और इन घाटों से संलग्न असंख्य मंदिरों के रूप में रंजित-व्यंजित हुआ।
भेड़ाघाट स्थित भव्य चौंसठ योगिनी प्रांगण व शिव मंदिर, गढा स्थित पचमठा, देवताल, बाजनामठ आदि जहाँ मध्यकालीन भक्तिधाराओं एवं कला, वैभव के जीवन्त साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, वहाँ मदनमहल और नरहरि बाबा की गुफा न केवल गोंड़ राजवंशों की स्मृति सजीव करती हैं वरन् राम कथा के अद्वितीय चितेरे गोस्वामी तुलसी दास के “अचेत बालपन” और कृपा सिंधु नर रूपै हरि” उनके गुरु की साधना स्थली पर नवीन शोधालोक हेतु आमंत्रित भी करती हैं। इस जिज्ञासु प्रश्न के साथ कि अनेक वाराह प्रतिमाओं व मंदिरों से पूरित यह क्षेत्र ही कहीं “सूकर खेत” तो नहीं है ?
मध्ययुग में स्वतंत्रता व नारी-स्वाभिमान हेतु जीती और जूझती महारानी दुर्गावती और फिर उन्हीं के वंशज शंकर शाह रघुनाथ शाह ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में तोपों के मुँह पर अपने सीनों को सटा, अपने चिथड़े-चिथड़े तन से स्वतंत्रता का मूल्य चुकाया था। परवर्ती स्वतंत्रता संग्राम में इस नगर और क्षेत्र के रण बांकुरों और बलिवीरों ने अपने गर्म लहू से स्वतंत्रता का अभिषेक किया एवं अपनी प्राणधारा से उसके पांव पखारे थे। स्व. बालमुकुन्द त्रिपाठी, श्रीमती सुभद्रा कुमारी, लक्ष्मण सिंह चौहान, सेठ गोविन्द दास, द्वारका प्रसाद मिश्र, भवानी प्रसाद तिवारी, माणिकलाल चौरसिया, नरसिंह दास अग्रवाल, व्योहार राजेन्द्र सिंह आदि असंख्य नाम-रूप उसी स्वातंत्र्य मंदिर के ज्ञात-अज्ञात नींव के पत्थर हैं।
साहित्य क्षेत्र में, कलचुरि कालीन कवि राजशेखर व बब्बर (रे धणि मत्त मअंगज गाविणि खंजण लोअणि चंद मुही) से प्रस्फुटित सर्जनधारा ही आधुनिक काल में नवयुग की भंगिमाओं प्रेरणाओं सहित सर्वश्री मंगल प्रसाद विश्वकर्मा (रेणुका), श्रीमती सुभद्रा कुमारी (मुकुल आदि.) केशव प्रसाद पाठक (त्रिधारा व अन्य) रामानुजलाल श्रीवास्तव (उनींदी रातें/ चला चली में) भवानी प्रसाद तिवारी (प्राण पूजा, प्राण धारा), द्वारका प्रसाद मिश्र (कृष्णायन), सेठ गोविन्ददास तथा अन्य अनेक नामों-रूपों में प्रवाहित होती रही है।
आज भी साहित्य-मनीषी रामेश्वर शुक्ल अंचल और व्यंग्य-विदग्ध हरिशंकर परसाई विश्व साहित्य क्षितिज पर इस नगर व क्षेत्र की कीर्ति पताका फहरा रहे हैं। इसी सतत प्रवाहित साहित्यधारा में सत्येद्र मिश्र, झलकनलाल वर्मा छैल, गोविन्द प्रसाद तिवारी, इन्द्रबहादुर खरे, पन्नालाल श्रीवास्तव नूर, नर्मदा प्रसाद खरे, श्रीबाल पाण्डे, पूरन चंद श्रीवास्तव, भूपेंद्र फिक्र, प्रभात तिवारी, मलय, राम कृष्ण श्रीवास्तव, श्रीमतीरत्न कुमारी, राम नारायण मिश्र, राम किशोर अग्रवाल मनोज, प्रेमचंद “मजहर” और इधर जवाहर लाल “तरुण” मधुकर खरे, राम कृष्ण दीक्षित “विश्व” रामशंकर मिश्र, मोहन “शशि” राजकुमार सुमित्र, कृष्णकुमार “पथिक” राजेन्द्र ऋषि, सुरेन्द्र मृण्मय, श्याम श्रीवास्तव, ओंकार तिवारी, कामता तिवारी, आदि कवि गीतकार, प्रो. हरिदत्त दुबे, देवीदयाल मस्त, ज्ञानरंजन, कुंदन सिंह परिहार, सुरेशकुमार वर्मा, आदि कथाकार एवं प्रो. जगदीश व्यास, हरिकृष्ण त्रिपाठी, श्याम सुन्दर सुल्लेरे, डॉ. राम दयाल कोष्ठा “श्रीकान्त”, डॉ. विश्वभावन देवलिया, डॉ. कैलाश-नारद, रासबिहारी पाण्डेय, राम ठाकुर, आदि निबंधकार व्यंग्यकार अपनी-अपनी आस्था, सामर्थ्य व दृष्टिकोण से अर्घ्यदान करते आ रहे हैं।
इस तरंगिणी में, राष्ट्रीयता के समर्पित रंगों व ऊर्जस्वित तरंगों के रूप में पृथक् पहिचान बनाने वाले कवि हैं- श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान, भवानी प्रसाद तिवारी, गोविन्द प्रसाद तिवारी, और इधर प्रकाशित तमसा के दिनकरो, नमन के कवि जवाहर लाल तरुण ।
पत्रकारिता – क्षेत्र में, इस माटी से जुड़कर माखनलाल चतुर्वेदी (कर्मवीर), द्वारका प्रसाद मिश्र (सारथी), कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर (नवभारत), भवानी प्रसाद तिवारी (प्रहरी), मायाराम सुरजन (देशबन्धु), नित्य गोपाल तिवारी (जबलपुर समाचार) भगवतीधर वाजपेयी (युगधर्म), कुंजबिहारी पाठक (सांध्य प्रदीप), रामेश्वर गुरु, निर्मल नारद (राष्ट्रीय/प्रादेशिक पत्रकारिता), दुर्गाशंकर शुक्ल (परिवर्तन), हीरालाल गुप्त, राजकुमार तिवारी सुमित्र (नवीन दुनिया), राधेश्याम शर्मा (युगधर्म/ट्रिब्यून), अजित वर्मा (जयलोक), राजेन्द्र अग्रवाल (जनपक्ष), कामता तिवारी “राज”, (युवा संकल्प) आदि अन्य प्रखर व जुझारु पत्रकारिता के व्यक्तित्व व उत्तरदायित्व के निर्वहन में जुटे रहे हैं।
“वसुधा” (हरिशंकर परसाई), शताब्दी (ओंकार ठाकुर), कृति परिचय (ललित श्रीवास्तव), पहल (ज्ञानरंजन) इस नगर से प्रकाशित होने वाली विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाएं रही हैं। अभी अभी साहित्यिक पत्रिका के नितांत शून्य को भरने का प्रयास करते हुए “आंचलिका” के प्रकाशन की पहल की जा रही है।
नगर का कलात्मक व्यक्तित्व जिन रंगों रूपों से संवरता रहा है, उनमें दादा देशपाण्डेय (भातखण्डे संगीत महाविद्यालय के संस्थापक/पोषक), उनके सहयोगी श्री पचभाई, श्री केलकर व शिष्य मणिक लाल चौरसिया, धनोप्या, श्रीमती मालती हर्षे, अरुण वकील, बसंत रानडे (वायोलिन), आनंद जोशी (गायन), शारदा संगीत महावि. के संस्थापक गोविन्द अग्रवाल व साथी, श्री नरसप्प अल्वा (नृत्य), शशिन यादव (छायाकार), अमृतलाल बेगड़, डॉ. राम मनोहर सिन्हा, डॉ. हरि भटनागर (चित्रकला), कुन्दन (मूर्तिकला), सुन्दर लाल रूप कुमार सोनी (सितार वादन), बागड़देव (बांसुरी वादन), राजीव जैन (वायोलिन), एवं कु. स्वाति मोदी (नृत्य), व अन्य स्मरणीय उल्लेखनीय हैं। दिलीप राजपूत, विष्णु चौरसिया और जयंत भारद्वाज भी इधर चित्रकला में चर्चित हस्ताक्षर हो गये हैं।
जबलपुर महानगर को संस्कारधानी का सार्थक व्यक्तित्व प्रदान करने हेतु वर्तमान में दो विश्वविद्यालयों, आठ विराट भव्य और मझोले शासकीय महाविद्यालयों, प्रायः पैंतीस निजी महाविद्यालयों, शताधिक उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों, एक ललित कला संस्थान, दो पालीटैकनिक संस्थाओं, दशाधिक सरस्वती शिशु मंदिरों, नर्सरियों व अन्य शिक्षा संस्कार गृहों और उनके सहस्रों आचार्यों, प्राचार्यों से सम्पन्न (किन्तु विपन्न) यह क्षेत्र एक महत्वपूर्ण शिक्षा केन्द्र/संस्कार स्थली के रूप में मान्य व प्रतिष्ठित है।
जबलपुर उच्च न्यायालय अपने ऐतिहासिक फैसलों के निमित्त राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहा है।
प्रसिद्ध उर्दू /हिन्दी कथाकार सरदार रतन सिंह और वर्तमान में साहित्य मर्मी लक्ष्मेन्द्र चोपरा जैसे आकाशवाणी केन्द्र-निदेशकों की कल्पनाशीलता और दूरदर्शन की सुविधा संभावना इस सम्पूर्ण क्षेत्र की साहित्य कला संस्कृति की भव्य धरोहर के साथ नवीन आयामों के द्वार भी खोलती जा रही है।
पं. जवाहर लाल नेहरु द्वारा आवेश के क्षणों में “गुण्डों का शहर” संबोधन से लांछित और सर्वोदय संत विनोबा जी द्वारा “संस्कारधानी विशेषण की स्नेहोदात्तता से प्रबोधित जबलपुर-बीस किलोमीटर की त्रिज्यागत परिधि में परिव्यास जबलपुर महानगर अनेक उपनगरीय क्षेत्रों में क्षेत्रीय विशिष्टताओं सहित, विविध आयामों में विकसित होता जा रहा है। आयुध निर्माणी, तोपगाड़ी, निर्माणी, वाहन-निर्माणी, आयुध भण्डारण केन्द्रीय संस्थान, तथा अन्य अनेक निर्माणियों तथा सैनिक छावनियों को प्राकृतिक मोहक परिवेश में समेटे यह महानगर सामरिक दृष्टि से आज देश का अत्यंत महत्वपूर्ण व संवेदनशील केन्द्रीय स्थल माना जाता है।
“एक भारतीय आत्मा”, भवानी मिश्र, डॉ. राम कुमार वर्मा के सर्जन के प्रथमोन्मेष, गजानन माधव मुक्तिबोध की काव्य क्रांति और फिर महर्षि महेश योगी का आंरभिक जीवन, आचार्य रजनीश का कैशोर्य व युवा अध्ययन- अध्यापन-चिंतन, सुप्रसिद्ध राष्ट्रचिन्तक कुप. सी. सुदर्शन का सत्याग्रहगत जेल गमन, छात्र जीवन व प्रतिभा विकसन्, और रामकथा के अनुपम व्याख्याकार पं. रामकिंकर उपाध्याय का जन्म व बचपन इस नगर ने खुली आँखों देखा है और “दूर रहकर भी बहुत तुम पास मेरे हो” की अनुभूति से बटी अपनत्व की डोर आज भी यह नगर अपने हृदय के हाथों थामें हैं- पकड़े है हारिल की लकड़ी की तरह ।
बेतरतीब बस्तियों की अनियंत्रित बेकाबू और दरिद्रता व अभाव की चुभीली डाढ़ो, अतिक्रमणों से सिमटती-सकुचती सड़कों और यातायात नियमों को धता बताते वाहनों, लुप्त होते मैदानों और यत्र-तत्र बेतरह उगते, सिर उठाते आबादीदानों, मकानों दुकानों, संस्कृति पर फिकरे उछालते खर-दूषणों और पर्यावरण को नोंचते खसोटते प्रदूषणों के बावजूद ऊँघते अनमने जंगलों, श्याम और किमि कहऊं बखानी, के सौंदर्य के प्रतिमान पर्वत शिखरों, वनवासी-गिरिवासी निश्छल बंधुओं जैसे छल-छल झरनों और उन झरनों के नेह-मगन सांवरी शिलाओं, तापों अनुतापों से झुलसते तन-मन पर चंदन लेपती, अमृत बरसाती मेघमालाओं, टौरियों तालों-तलैयों और विपुल सहोदरा सरिताओं के सजल अर्घ्य स्वीकारती, चिर कुमारिका शिव-आराधिका, पुण्य सलिला नर्मदा के अमृतदान से सिंचित संस्कारित जबलपुर महानगर की सर्जनाकुलता, आध्यात्मिक आस्था, धर्म पिपासा व भक्ति भावना के अनुरूप ही, अनेक संस्थाएँ अपने सांस्कृतिक धार्मिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन अनेक रूपों में करती आयी हैं।
जबलपुर साहित्य संघ, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, मिलन, मित्रसंघ, गुंजनकला सदन, संगीत समाज जैसी वरिष्ठ संस्थाओं के साथ-साथ अब हिन्दी मंच भारती, ऋतम्भरा, प्रबुद्ध भारती, संस्कार भारती, उदित लेखक संघ, मंचदीप, प्रलेस, मध्यप्रदेश आंचलिक साहित्यकार परिषद आदि अपनी सेवाओं व योगदान हेतु जानी मानी संस्थाएँ हैं।
इन सभी संस्थाओं, शासकीय अशासकीय संस्थानों-प्रतिष्ठानों, जनतंत्र का मंत्र जाप करते राजनेताओं, पत्रकारों, शिक्षालयों, संस्कारगृहों और उनसे संबद्ध, शिक्षाविदों, प्रबुद्ध चिन्तकों, सर्जकों की क्षमता, कल्पनाशीलता, कर्मप्रवणता और इस माटी के प्रति उनकी निष्ठा की प्रत्यक्ष साक्षी व ईमानदार आईना है यह शहर-उनका और मेरा प्यारा शहर जबलपुर। गुंडों का शहर, पत्थरों का शहर, संस्कारों का शहर, कवियों-कलाकारों-कलमकारों का शहर, रंगों-रेखाओं-आकारों और स्वरित झनकारों का शहर। माँ नर्मदा का बेटा और वरदान-विभूषित होकर भी अभिशप्त, ताप-तप्त, प्रेम प्रवाहिणी अमृतमयी के अंचल में भी प्यासा-प्यासा आज का जबलपुर शहर। यह मेरा है, तेरा है, इसका है, (जो भी यहाँ आ जाये) उसका है… मगर इस शहर का कौन है? प्रश्न मुखर है… उत्तर… मौन है दिशाएँ मूक हैं … हृदय में हूक है…।। मगर… कबतक… अरे ! कब तक…?