हमीरपुर की साहित्यिक परम्परा
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June 14, 2024श्री अयोध्या प्रसाद कुमुद
भगवान वेदव्यास ने कालपी में जन्म लेकर तथा पुराणों की रचना करके साहित्य की जो धारा इस जनपद में प्रवाहित की उसने एक साहित्यक परम्परा का निर्माण किया है जिसका व्यवस्थित स्वरूप 16वीं शताब्दी में ही देखने को मिलता है। किन्तु प्रियर्सन, शिव सिंह सेंगर, मिश्र बंधु, डॉ. रामकुमार वर्मा, बुंदेल वैभवकार गौरी शंकर द्विवेदी, शंकर, बुंदेलखण्ड-बागीशकार “प्रचण्ड” तथा नागरी प्रचारिणी सभा की शोध रिपोर्टों के अनुशीलन से इस जनपद में एक सशक्त साहित्यिक परम्परा प्रमाणित होती है।
इस परम्परा में सर्वप्रथम नाम आता है, ब्रम्ह कवि का। इनका सर्वविदित नाम बीरबल था, जो मुगल सम्राट अकबर के मंत्री थे। इनका असली नाम महेवादास दुबे, पिता का नाम गंगा दास, जाति ब्रम्ह भट्ट है। विद्वानों के अनुसार ब्रम्ह भट्ट से “भट्ट” निकालकर उपनाम “ब्रम्ह” रक्खा गया। इनकी कोई रचना ग्रंथाकार नहीं मिलती। स्फुट छंद लगभग 200 मिले, जिनका विषय भक्ति और उपदेश है। । कृष्ण की बाललीला और मान के छंद भी हैं। दरबारी परम्परा के प्रभाव स्वरूप उनके छंदों में रूप सौंदर्य और नायिकाओं के विभिन्न चित्र हैं। अलंकार योजना में उन्होंने नये-नये उपमानों का प्रयोग किया। इसीलिए कहा जाता है-
“उत्तम पद कवि गंग के, उपमा में बलबीर, केशव अर्थ गंभीरता, सूर तीन गुन धीर।”
बुंदेल वैभव के अनुसार इसी युग के राजा टोडरमल खत्री की जन्मभूमि कालपी थी और उनका भवन अब तक मौजूद है। किन्तु इसके लिए अन्य कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि रहीम, जिनका पूरा नाम अब्दुर्रहीम खानखाना था, कालपी के गवर्नर रहे। यह तथ्य गजेटियरकार तथा मआसिर उल उमरा द्वारा भी प्रमाणित है। वे जनपद के भले न हों किन्तु उनके यहाँ प्रवास से जनपद की साहित्यिक परम्परा को अवश्य ही बल मिलता होगा।
जनपद में एक अन्य सशक्त कवि रतिभान, प्रणामी ग्रंथ (निरंजनी मत) के प्रवर्तक रोपन गुरू की शिष्य परम्परा में पांचवीं पीढ़ी में हुए। इन्होंने जैमिनीपुराण का सरल और सरस भाषा में काव्यानुवाद किया और अनुदिन साहित्य-परम्परा में उसका उल्लेखनीय स्थान है। इसके अतिरिक्त इनके भक्ति व वेदान्त विषयक छंद भी मिलते हैं। रचनाकाल सं. 1688 ठहरता है।
जनपदीय साहित्याकाश के अत्यन्त जाज्वल्यमान नक्षत्र हैं आचार्य श्री पति। यह हिन्दी के सर्वांग निरूपक अष्ठ आचार्यों में से एक थे तथा लगभग साहित्यिक ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है। शिवसिंह सरोज तथा प्रियर्सन का यह उल्लेख कि वे पयागपुर बहराइच केथे त्रुटिपूर्ण है। श्रीपति के अंत:साक्ष्य-
“सुकवि कालपी नगर को, द्विजमनि श्रीपति राइ।
जस सम स्वाद जहान को, जानत सब समुदाइ।।”
से उनका कालपी वासी होना प्रमाणित है। सभा की शोध रिपोर्टों में एक अन्य काशी निवासी श्री पति का उल्लेख है- वस्तुतः यह कालपी वाले ही हैं जो बाद में काशी में रहने लगे थे। “काव्य-सुधारक” में उन्होंने स्वयं लिखा है-
“सुकवि कालपी नगर को, श्रीपति सुमति अगार, अब काशीवासी भयौ, जानत सब संसार”
ना.प्र. सभा की शोध रिपोर्टों, मिश्र बंधु विनोद तथा बुंदेलखण्ड के अनुसार फतेसिंह कायस्थ, कोंच निवासी थे। वे फारसी, संस्कृत, उर्दू के ज्ञाता थे। वे पन्ना नरेश सभा सिंह के दरबार में रहे। राष्ट्रीय ख्याति के सूफी संत “खुर्रमशाह” जिनका तकिया कोंच में था, के शिष्य थे। शाह साहब हिन्दी, संस्कृत, अरबी, उर्दू फारसी के विद्वान थे। उनके पास रहकर फतेसिंह ने फारसी सीखी। तकिया के वर्तमान सज्जीदा नशीन शाह मुजफ्फर अली “कौकव” दे भी इसकी पुष्टि की। इन्होंनें गुर्रा (मुहर्रम) का फारसी से हिन्दी में अनुवाद किया। अंतसाक्ष्य देखें-
“प्रथम हती या फारसी, सो मति दीनी राख, खुर्रमशाह प्रताप तें, बरनी भाषा भाष।
“कमलाजन” और “कमल” दो नामों से जिस कवि का उल्लेख शोध रिपोर्टों में मिलता है- वह एक ही व्यक्ति है। पूरा नाम है-कमलाजन कायस्थ, निवासी कोच, रचनाकाल सं. 1847 वि. । इनकी एक हौं कृति “दस्तूर मलिका” का उल्लेख शोध रिपोर्टों मिश्र बंधु विनोद तथा दीवान प्रतिपाल सिंह ने किया। इस कृति का उद्देश्य कविता के माध्यम से अक्षर से लेकर आय व्यय तक का विवरण रखने का सम्पूर्ण ज्ञान कराना है।
इसी काल में बेतवा तटवर्ती कोटरा निवासी कवि “चेतराम” का उल्लेख मिश्र बंधुओं ने किया। इनकी दो पुस्तकें प्रह्लाद चरित्र व स्फुट छंद बताई गई। परवर्ती कृति में भक्ति विषयक छंद हैं। “बुन्देलखण्ड” इसी काल के श्री दुर्गाप्रसाद अकोढी (उरई जालौन रोड पर) का उल्लेख मिलता है। इन्होंने “अभय-मंजरी” में हनुमान विषयक छंद लिखे। बंशगोपाल बंदीजन नामक कवि का उल्लेख ग्रियर्सन शिवसिंह सरोज तथा गजेटियर में मिलता है। यह जालौन के भाट वंश में उत्पन्न हुए। इनका जन्मकाल 1845 ई. है। दीवान प्रतिपाल सिंह के अनुसार इनका ग्रंथ “भाषा सिद्धांत” है, जो रीति का प्रतीक होता है।
इस क्रम में कालपी के वकील बाबू, मथुरा प्रसाद “लंकेस” का उल्लेख भी जरुरी है। मिश्रबंधु विनोद एवं “बुंदेल वैभव” के अनुसार इनका जन्मकाल सं. 1899 तथा रचनाकाल सं. 1925 है। वे अपने को रावण का अवतार कहते थे। उनकी निम्न कृतियां मिलती हैं-रावण दिग्विजय, रावण वृन्दावन यात्रा, रावण शिवस्वरोदय तथा दोहावली। इनमें रावण के शौर्य और विजय अभियानों की चर्चा है। इन्होंने अपनी लंकेश नाम की सार्थकता में कालपी में एक लंका मीनार का निर्माण कराया। इनमें राम-रावण युद्ध के चित्रों में रावण को नायक चित्रित किया गया है। रावण की स्मृति में बना, उत्तर भारत में यह अकेला भवन है। इसको मुक्ताकाश रंगमंच की कल्पना के साथ बनाया गया है।
आधुनिक काल में रीति परम्परा के सशक्त कवि कालीदत्त नागर की चर्चा किये बगैर यह आलेख अधूरा रहेगा।। मिश्र बंधु ने उन्हें कालीप्रसाद उरई तथा दी. प्रतिपाल सिंह ने कालीप्रसाद छविनाथ उरई लिखा। वस्तुतः उनका सही नाम कालीदत्त नागर था, पिता छविनाथ पत्नी अन्नपूर्णा पुत्र छन्नूलाल थे तथा गुजराती ब्राम्हण थे। उनके कवि स्वरूप की चर्चा सं. 1951 में श्री वेंकटेश्वर प्रेस बम्बई से “हनुमत्पताका प्रकाशित होने के बाद शुरु हुई। यह “सीता अन्वेषण की कथा” पर आधारित लघु प्रबंध है। इसी वर्ष रसिक यंत्रालय से “गंगा गुण मंजरी” तथा “छवि रत्नम् छपी। इसमें पूर्ववर्ती में गंगा विषयक छंद हैं तथा परवर्ती में शिवनख वर्णन है।
रामरत्न शर्मा “रत्नेश” कालपी निवासी पं. गिरधारी लाल गुबरेले के पुत्र थे। जन्मतिथि मार्ग शीर्ष शुक्ल 8 सं. 1918 है। ये “रसिक समाज” तथा कवि मण्डल “कानपुर” के अध्यक्ष रहे। कृतियां है- रत्नेश शतक, राधा सुधानिधि का भाष्य, लक्षणा-व्यंजना, सनाढ्य वंशावली, दिनचर्या, कर्मपद्धति तथा नायिका भेद । इसमें रत्नेश शतक प्रौढ़तम कृति है। इसमें भक्ति और श्रंगार विषयक 101 छंद हैं।
कौंच निवासी पं. रामचरण लाल की दो कृतियों “रामायण पचासा” तथा “सनातन धर्म दर्पण” का उल्लेख मिलता है। पं. नाथूराम शुक्ल “सेवक” (कोंच, जन्म.सं. 1941) ने वकालत करते हुए धर्म व भक्ति प्रधान कवितायें लिखीं। जिनमें सीता गुण मंजरी, मंगल विनोद, बजरंग विजय तथा स्फुट कविताओं में नगर-बिहार, फुलवारी एवं धनुष यज्ञ शामिल हैं।
कोशकार मुंशी धनूसिंह, हरदोईगूजर (जन्म 1890 ई) मूलतः शिक्षक थे। इन्होंने “वीरेन्द्र उपनाम से सामयिक कवितायें लिखीं “दुखियां किसान” नामक काव्यग्रंथ के कुछ अंश जिला जालौन के एजूकेशनल गजट में छपे। इनमें उस समय के कृषकों की दुरवस्था का कारुणिक चित्र है। 1925 ई. में इनका “हिन्दी अभिनव कोश” प्रकाशित हुआ था। जो हिन्दी के प्रारम्भिक कोशों में एक है। इसी काल में कौंच नगर में मोहनलाल दाऊ, मन्नूलाल चौधरी भी हुए इन्होंने लोकगीतों विशेषतः फड़ साहित्य के क्षेत्र में बहुत कार्य किया, खूब लिखा। पं. श्री मन्नूलाल चौधरी का कोंच में रामलीला प्रारम्भ कराने तथा कुछ संवाद को काव्यांशों में लिखने का श्रेय है।
द्वारिका प्रसाद गुप्त “रसिकेन्द्र” कालपी (1889-9943 ई) जनपद के उन कवियों में है, जिन्होंने देश के प्रारम्भिक कवि सम्मेलनों में मंचों से जन-जागरण लिखा था। हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, गुजराती, उर्दू और संस्कृत भाषाओं के ज्ञाता थे। साहित्यकार “राजकवि” और “कवीन्द्र” की उपाधियों के अतिरिक्त “राष्ट्रीय गीत पुरस्कार, का भी सम्मान मिला। वे कालीकवि के शिष्य और राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के बहनोई थे। इससे साहित्यिक गोष्ठियां आये दिन होती रहती थीं।
पं. कालीचरण दीक्षित “फणीन्द्र कोंच सन् (1893-1942) संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। “संस्कृतम्” अयोध्या में उनकी संस्कृत कवितायें प्रायः छपती रहती थीं तथा वहाँ से “काव्यसूरि” की उपाधि मिली थी।
पं. रामनाथ चतुर्वेदी “विप्र” (सं. 1953-1992) संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान तथा संस्कृत पाठशाला कोंच के प्रधान थे। “संस्कृतम् अयोध्या में उनकी रचनायें भी प्रायः छपती थीं तथा “काव्यसूरि” की उपाधि भी मिली थी। इन्होंने संस्कृत की “रसमंजरी” और “शिशुपाल वध” का काव्यानुवाद किया। हिन्दी कवि सम्मेलनों का मंच राष्ट्रीय ख्याति के ओजस्वी कवि डॉ. आनन्द का बहुत ऋणी है। “झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई” महाकाव्य ने इन्हें अमर बना दिया। अन्य कृतियां हैं- सन् अड़तालीस, एम.एल.ए. राज्य दारूण शफा, पब्लिक इंटरेस्ट “चीन और पाकिस्तान” तथा स्फुट छंद ।
हिन्दी नीति साहित्य को महत्वपूर्ण योगदान देने वाले कविवर दीनानाथ “अशंक” का उल्लेख भी. आवश्यक है। अर्शक जी का सबसे बड़ा योगदान यह है कि इन्होंने संस्कृत की नीति सूक्तियों तथा कई ग्रंथों का काव्यानुवाद किया। जनपद के हास्य रसावतार गाँधीराम फोकस (सं 1965) की फुटकर रचनाओं का संग्रह है- “लोटपोट चालीसा” शिवशंकर लाल उपाध्याय (पनहारा) अचल (सं. 1966) तथा पं. दशाराम मिश्र “कक्का दहगवां (सं. 1967) का नाम भी जोड़ा जा सकता है। “कक्का” जी ने बुन्देली हास्य व्यंग्य को नई दिशा दी।
श्री भगवान दास शुक्ल दास” कोंच (सं. 1969-2042) ने उ.प्र. न्यायिक सेवा में रहकर भी साहित्य साधना की। गीता गीत (गीता का हिन्दी काव्यानुवाद) तथा गीत-रामायण उनकी प्रकाशित कृतियां हैं। इसी काल में कन्हैया लाल मिश्र “कमलेश” (सं. 1970) के चिंतन प्रधान गीतों की लय ने वेदना को नये आयाम दिये। उनके काव्य संग्रह अमरलता, अंर्तर्ज्योति तथा विजयिनी ज्योति है। रामेश्वर दयाल श्रीवास्तव “प्रमत्त” (सं. 1970) ने गाँधीवादी आन्दोलन से प्रभावित होकर काव्य रचना की।
बालकृष्ण शर्मा “विकास” (सं. 1972) से जनपद की गीतिधारा को दर्शन पूर्ण चिंतन दिया। उन्होंने उर्दू गजल-शैली में भी लिखा। उनके प्रकाशित संग्रह हैं पर्वगीत, गुलदस्ता-ए-गजल तथा राष्ट्रीय धारा के दो सशक्त कवि सुन्दरलाल सक्सैना “सुन्दर” कोटरा तथा सूर्यप्रसाद दीक्षित इसी कालखण्ड में हुए। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी श्री सक्सैना की रचनाओं में ब्रिटिश शासन् के विरुद्ध क्रांति का स्वर है।
कु. विमला सक्सैना (1919-1943 ई) के गीतों में वेदना तथा करूणा सजीवता के साथ मुखरित हुई। उनकी 20 वर्षीय आयु में प्रकाशित गीत संग्रह “आहुत” में चितन की प्रौढ़ता और गीतों की उत्कृष्टता देखकर आश्चर्य होता है। पं. ब्रम्हानन्द मिश्र “मीय” (सं. 1977) के “उद्धव-संवाद” तथा “प्रताप गौरव” काव्य में उनका गहन अध्ययन परिलक्षित है। उन्होंने खड़ी हिन्दी और बुन्देली में समान अधिकार के साथ लिखा। श्री रामबाबू अग्रवाल (सन् 1920) ने जहाँ एक ओर बाल साहित्य के संवर्द्धन में योगदान दिया वहीं उनके कविता संग्रह ” आलोक दर्शन” में चितन की प्रगाढ़ता भाषा की प्रांजलता तथा सरसता है। डॉ. भागीरथ सिंह नूपुर ने पौराणिक आख्यानों को अपने काव्य के विषय बनाये। श्री कृष्ण दीक्षित “विद्रोही” इस कालखण्ड के चर्चित कवि रहे ।
लक्ष्मीबाई रत्नावली, कनक-भवन तथा “अंगद” नामक उनके काव्य मंचों के आधार से पर्याप्त ख्याति पा चुके हैं। श्रेष्ठ गीतकार के रूप में प्रतिष्ठित सिन्दूर जी की चर्चित प्रकाशित कृतियां हैं। हँसते लोचन रोते प्राण, सिन्दूरी संझा, तिरंगा जिन्दाबाद। दिनकर शुक्ल अपनी प्रकाशित कृति “किरणमयी” खण्ड काव्य जिसमें मीना बाजार का ऐतिहासिक संस्थान है, बद्रीप्रसाद पांचाल योगेश अपने गीत संग्रह “दीपमाला” सत्य नारायण गोबरेले” सनागो अपने कविता संग्रह “धूप के बीज” “योगेश्वरी प्रसाद” अलि अपने कविता संग्रह “बात कर गये नयन” के प्रकाशनों से अपेक्षाकृत अधिक चर्चित हुए। जनपद के कुछ कवि म.प्र. में सेवारत रहकर जनपद की काव्य प्रभा वहाँ बिखराते रहे हैं- इनमें गोपाल पंकज, शारदा प्रसाद उदैनियां “मनोज” तथा गोविन्द प्रसाद चतुर्वेदी उल्लेखनीय हैं। यह तीनों व्यक्ति सशक्त गीतकार के रूप में सामने आये ।
श्री चतुर्वेदी ने दमयन्ती पर महाकाव्य लिखकर ख्याति पाई। बुन्देली भाषा के सशक्त कवि और मौलिकता के धनी श्री शिवानन्द बुन्देला की रचनाओं में राष्ट्रीयता और दर्शन प्राधान्य है। श्री राधेश्याम दांतरे के प्रणय गीत, राष्ट्रीय कवितायें और व्यंग्य भी काफी चर्चित हैं। उनकी व्यंग्य रचनाओं तथा राष्ट्रीय कविताओं पर उनके राजनीतिक चितन का स्पष्ट प्रभाव है। स्व. श्याम सुन्दर गुप्त श्याम जी की राष्ट्रीय भावना प्रधान कवितायें तथा व्यंग्य संख्या में कम होने के बावजूद मूल्यांकन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
हिन्दी कवि सम्मेलनों के मंच पर शिवानन्द बुन्देला, परमात्मा शरण शुक्ल “गीतेश”, रवीन्द्र शर्मा, कु. नीलम कश्यप, राममोहन शर्मा “मोहन” तथा यज्ञदत्त त्रिपाठी, अधिक चर्चित हुए। नवगीत विधा में बजरंग विश्नोई “विस्थितियों” संग्रह तथा अनेक पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से अग्रगण्य हैं। राधेश्याम योगी, हरिश्याम पारथ, दिनेश चन्द्र द्विवेदी, हरिनारायण श्रीवास्तव “विकल”, महेन्द्र “गुप्त” आदर्श प्रहरी, अवध बिहारी लोइया “कण”, सुशील श्रीवास्तव, विनोद भावुक, असित मित्तल, रवि मिश्र, रविरिक्त, असीम मधुपुरी, डॉ. रेनू, अरूण नागर, श्याम सुन्दर “कोमल”, तथा महेन्द्र “मृदुल” अपनी साधना में जुटे हैं।
उनके कृतित्व का स्वरूप निर्धारण करने में अभी समय लगेगा। हिन्दी गद्य शैली का विकास इस जनपद में सं. 1978 वि. में प्रकाशित ठा. छोटेलाल उमरी के लघु उपन्यास पतिव्रता-द्रोपदी के प्रकाशन से देखने को मिलता है। जनपद के राष्ट्रीय ख्याति के गद्यकारों में बाबू कृष्ण बल्देव वर्मा तथा बृजमोहन वर्मा की चर्चा अत्यावश्यक है। बाबू कृष्ण बल्देव वर्मा (1871-1931 ई) कालपी के खत्री परिवार में पैदा हुए।
श्री ब्रजमोहन वर्मा (1900-1937 ई) इस जनपद के श्रेष्ठतम गद्यकार कहे जा सकते हैं । उनके निबंधों का संग्रह “साहित्य-सौरभ” का संपादन पं. बनारसी दास चतुर्वेदी ने करके उसे ज्ञानमण्डल से प्रकाशित कराया। डॉ. चतुष्पाद के नाम से उन्होंने अनेक पत्रिका ओं में व्यंग्य कवितायें भी लिखीं। बाबू मूलचन्द्र अग्रवाल दैनिक विश्वमित्र कलकत्ता के “पत्रकार की आत्मकथा” पं चतुर्भुज शर्मा की विद्रोही की आत्मकथा तथा आलोक, उनके स्फुट लेखों, डॉ. ब्रजवासी लाल तथा डॉ. रामशंकर द्विवेदी के शोधपूर्ण निबंधों राधेश्याम दांतेरे के उपन्यास “वसुन्धरा” तथा उनके सम्पादकीय अग्रलेखों में जनपद की विकसित गद्य शैली मिलती है। “प्याज की परतें” सहकारी लेखन द्वारा लिखा गया उपन्यास है। जिसे 11 लेखकों ने मिलकर लिखा।
श्री कालीचरण बसेडिया “कान्त” पं. महादेव प्रसाद चौधरी तथा रामस्वरूप स्वर्णकार पंकज के नामों की चर्चा आवश्यक है।