
जालौन जनपद का साहित्यिक सर्वेक्षण
June 14, 2024
संस्कृत साहित्य को बुन्देलखण्ड की देन
June 17, 2024डॉ. श्रीमती आशा सिन्हा
“भवभूतेः सम्बन्धात् भूधर भूख भारती भाति ।
एतत्कृत कारुण्ये किमन्यथा रोदति ग्रावा ।।”
संस्कृत नाट्य साहित्य में कालिदास के पश्चात् ख्यातिलब्ध नाटककारों में “करुण एवं रसो एकः” मत को प्रतिपादित करने वाले महाकवि भवभूति अग्रगण्य हैं। भवभूति के व्यक्तित्व और कृतित्व की प्रशस्ति अनेक भावुक समालोचकों ने की है।
“कवयः कालिदासाद्या भवभूतिर्महाकविः”
भवभूति स्वभावतः गम्भीर किन्चित उग्रमनोवृत्ति के सर्जक थे। इसलिये दुरालोचकों पर उद्दीप्त रोष दीर्घकाल तक बना रहा। उनकी वैष्णवी भक्ति भावना का किसी अन्य मत मतान्तर से प्रतिबद्ध विरोध न था। सर्वत्याग में चरित्र की गरिमा श्रेष्ठता मानने वाले महाकवि ने एक ओर मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र का आदर्श प्रतिष्ठित किया तो दूसरी ओर नारी की क्षमा त्याग, प्रेम करुणा का तथा “इयं गेहे … लक्ष्मी का सजीव प्रीत्यकंन कर दाम्पत्य प्रेम की सार्थकता प्रतिपादित की। वे गम्भीर अन्तर्वृत्तियों के कुशल प्रणेता होने के नाते साहित्य निर्मिति में सर्वोत्तम होने की अभिलाषा रखते थे। मालती माधव नाटक की रचना के पश्चात् संभवतः रसिक जन भवभूति की काव्यशक्ति के प्रति आकर्षित हो मुग्ध हुये तभी उन्होंने उत्तरराम चरित में स्पष्ट कथन किया कि-
“सर्वथा व्यवहर्तव्यं कुतो ह्यवचनीयता ।
यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः ।।”
अपनी रुचि व प्रेरणानुप्तार निर्भय होकर काव्य व्यवहार करना चाहिये कविता कैसी भी हो निन्दा के हाथ से कवि का छुटकारा नहीं, दुर्जन, स्त्रियों के सतीत्व और वाच्य साधुत्व की सदैव निन्दा ही करते हैं। इस प्रकार से छिद्रान्वेषियों पर व्यंग्योक्ति करते हुये महाकवि भवभूति ने आवेशित होकर अपनी जन्मस्थली “पदमपुर” को छोड़कर मध्यभारत की पद्मावती नगरी को अपनी कर्मभूमि बनाया।
पद्मावती प्राचीनकाल से नागरराजाओं की राजधानी तथा विद्याकेन्द्र के रूप में प्रसिद्ध रही है। वर्तमान में वह पुरातन रूप से बदल कर “पवाया” या “पद्मपवाया” नामक एक छोटे से ग्राम के रूप में विद्यमान है। यह गाँव मध्य प्रदेश के ग्वालियर से नैऋत्य की ओर 42 मील की दूरी पर स्थित है।
खजुराहो के वि. सं. 1058 ई. स. 1000-01 के शिलालेख में पद्मावती का वर्णन इस प्रकार है-
“आसीद प्रतिभा विमान भवनैराभूषिता भूतले
लोकानामधिपेन भूमि पतिना पद्मोत्थ वंशेन या।
केनापीह निवेशिता कृतयुग त्रेतान्तरे श्रूयते
सच्छास्त्रे पठिता पुराण पटु भि: पद्मावती प्रोच्यते ।।”
उत्तुंग प्रासादों से सुशोभित कृतयुग और त्रेतायुग के बीच में पद्मवेश के किसी राजा के द्वारा स्थापित तथा पुराण वेत्ताओं द्वारा उत्तम शास्त्रों में वर्णित अप्रतिम पद्मावती नगरी थी।
महाकवि भवभूति ने संभवतः यहीं अपना निवास बनाकर “मालती माधव”, नाटक के कथानक का घटनास्थल इसी पद्यावती से उद्ग्रहीत किया है। वर्णन प्रसंगों में तत्रस्थ नदियों, तालाबों, देवालयों और प्रासादों का चित्रण है। पद्मावती पारा और सिन्धु नदियों के संगम पर स्थित है। इसका वर्णन भा. भा. के चतुर्थ अंक में माधव के कथन के माध्यम से प्रस्तुत हुआ है।
“तदुत्तिष्ठ पारा सिन्धु सम्भेद मवगाह्य नगरीमेव प्रविशावः।।”
प्राचीन नाम से सम्बन्धित पारा और सिन्धु नदी को वर्तमान में सिन्ध और पहूज पार्वती नदी के नाम से जाना जाता है। इस संगम के निकटस्थ श्मशान में कराला नामक चामुण्डा देवी का मन्दिर है, यहीं पर मालती माधव नाटक की नायिका मालती को बलि हेतु, अघोरघण्ट कापालिक ने कुकृत्य करने का साहस किया था।
पवाया की नैऋत्य दिशा में 2 मील पर मिन्धु नदी का सुन्दर झरना प्रवाहित हो रहा है। यहीं पर ई. सं. 17वीं शती में जहाँगीर बादशाह के परममित्र ओरछा नरेश वीरसिंह जूदेव द्वारा निर्मित धूमेश्वर नामक शिव मन्दिर अद्यापि विद्यमान है। इस प्रपात का सुन्दर प्राकृतिक अवलोकन भवभूति ने “मालती माधव” के नवम अंक में बिम्बित किया है।
“अयमसौ भगवत्या सिन्धोर्दारित रसातलस्तट प्रपातः”
यत्रत्य एवं तुमुलो ध्वनिरभ्बुगर्भ
गम्भीर नूतन घनस्तनित प्रचण्डः
पर्यन्त भूधर निकुंज विज्रम्भमाणो
हे एष कण्ठ सित प्रतिमामे ति ।।”
यह है पवित्र सिन्धु नदी का पृथ्वी तल को विदीर्ण करने वाला जल प्रपात ।
उपर्युक्त वर्णन में महाकवि ने वर्षाकालीन प्रकृति का अत्यधिक मनोहारी चित्र, मेघों की गर्जना को गणेश गर्जना से साम्य निरुपित करते हुये चित्रित किया है। चित्ताकर्षक इस वर्णन से यह ध्वनित होता है कि शिवपुरी से नरवर डबरा होते हुये ग्वालियर जाने वाले मार्ग के पार्श्व में स्थित पद्मावती (वर्तमान पवाया) नगरी “मालती माधव की दृश्यस्थली होने के साथ ही भवभूति की कर्मस्थली रही है, जो वृहद् बुंदेलखण्ड के भौगोलिक क्षेत्र के अन्तर्गत है। डॉ. वा. वि. मिराशी जी द्वारा स्वीकृत “काल प्रिय नाथ” का मन्दिर पद्मावती से निकट ही है तथा प्राचीन काल में यहाँ से सीधा मार्ग कालपी की ओर जाता था, इसी मार्ग से सन् 1857 ई. में झाँसी की वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई कालपी से वापस होकर ग्वालियर आई थी। यह निर्विवाद तथ्य है कि मालती माधव नाटक का प्रथम अभिनय पद्मावती में न होकर काल प्रिय नाथ की यात्रा प्रसंग पर हुआ था। नाटक की प्रस्तावना में सूत्रधार के कथन से यह स्पष्ट संकेत मिलता है।-
“मारिष सुविहितानि रंग मंगलानि संनिपतितश्च भगवतः कालप्रियनाथस्य यात्रा प्रसंगेन नानादगन्तवास्तयो महाजन ममाजः। आदिष्टश्चारिंम विद्वज्जन परिषदा यथां केन चिदपूर्वप्रकरणेन वयं विनोदयितव्या इति ।।
सूत्रधार की निम्नोक्ति से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि भवभूति के नाटकों का अभिनय किसी राजाश्रय की रंगभूमि पर न होकर नटों की रंगस्थली पर अभिनीत किया गया था।
भट्ट श्रीकण्ठपदलास्छनो भवभूतिर्नमि कविर्निसर्ग सौहृदेन
स्वकृतिमेवं प्रायगुण भूय सीमस्माकं समर्पितवान् ।।
इसी प्रकार महावार चरित में सूत्रधार भवभूति से मैत्री सम्बन्ध स्थापित करते हुये कहता है:
भवभूतिर्नाम जतुकर्णीपुत्रः कविर्मित्र धेव्यमस्माकं ।”
जिस कालप्रियनाथ के यात्रा प्रसंग पर भवभूति के नाटकों ने सफल अभिनय द्वारा सहृदय जन को रसाभिभूत कर दिया था वह स्थान तत्कालीन भारत में कन्नौज के दक्षिण में यमुना के दक्षिणी तटपर स्थित कालप्रिय नामक नगर है, वहाँ पर (वराह पुराण) पौराणिक प्रमाणों के अनुसार कालप्रिय नामक सूर्य का प्रसिद्ध देवालय था।
“कालप्रिये च मध्यान्हेऽप रान्हे चात्र नित्यशः।।”
वर्तमान में बुन्देलखण्ड में स्थित जिला जालौन के अन्तर्गत “कालपी” तहसील के नाम से जाना जाता है। इस नगर की बाहरी सीमा में आज भी “कापलदव का टीला” नाम से एक ऊंचा (टीला पर्वत) विद्यमान है। अनुमानतः वहीं कालप्रियनाथ का पुरातन मन्दिर भी अवशेष रूप में स्थित होगा। तीर्थस्थल के दर्शनार्थ भक्तगण आते होंगे और उसी समय नटसमुदाय लोकानुरंजन के लिये नये-नये नाटकों को अभिनीत करता था। ऐसे ही यात्रा प्रसंग पर महाकवि भवभूति के तीनों नाटकों का मंचन हुआ था। मालती माधव के मंगलाचरण में प्रस्तुत सूर्य स्तुति इसका प्रमाण है।
“कल्याणानी त्वमसि महसां भाजनं विश्वमूतें
धुर्यालक्ष्मामिह मयि भृशं धेहि देव प्रसीद ।
यद्यत्पापंवं प्रतिजहि जगन्नाथ नम्रस्यतस्न्ये
भद्रं भद्रं वितर भगवन्भूयसे मंगलाय ।।”
भवभूति को अपनी कुलीनताविद्वत्ता कवित्वशक्ति पर अभिमान था। वे अज्ञान व मात्सर्य से कल्पित कुछ अनिर्वाच्य रहस्य को जानते थे उनकी कवित्वशक्ति, निरीक्षण शक्ति भी उच्चकोटि की थी तभी तो “महावीर चरित के प्रथम पांच अंकों की रचना करके उसे समकालीन रसिक विद्वानों के समक्ष परीक्षणार्थ प्रस्तुत किया। तत्कालीन रसिकों ने उनके नाटकों की आलोचना की। ऐसे दोषदर्शियों से सन्तप्त होकर भवभूति ने प्रत्युत्तर में कहा-
“ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्य वज्ञां
जानन्ति ते किमपि तान्प्रति नैश यत्नः ।
उत्पत्स्यतेऽस्ति मम् कोऽपि समान धर्मा
कालोह्यु निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ।।”
ऐसे अज्ञानी मूर्ख जन के प्रति यह मेरी कृति नहीं है। परन्तु मेरा कोई समान गुण वाला प्रशंसक पुरुष उत्पन्न होगा। ऐसा मुझे विश्वास है क्योकि काल असीम है और पृथ्वी भी विशाल है।
महाकवि भवभूति का संस्कृत भाषा पर असाधारण प्रभुत्व था, वाणी उनकी कृतियों में हृदयानुगामिनी है। भाषा का अन्तर्गुण प्रवाहमयता तथा प्रभावात्मकता है। प्रकृत्या कवि के लिये अभिव्यक्ति अपने समस्त सम्भार, लालित्य तथा रागमयता सहित जिह्वाग्र में प्रतिष्ठित होती है, भाषा वाग्देवी सरस्वती का अमृतोपम वरदान है, वाणी पुत्रों के यश को विकीर्ण करने हेतु वाक्देवी स्वयं सरला साध्वी की गुण पुष्टता के साथ प्रत्यक्ष साकार होती है। ऐसी महाकवि भवभूति की वशवर्तिनी थीं सरस्वती ।
“यं ब्राहमणमियं देवी वाग्वश्येवानुवर्तते।।”
यद्यपि भवभूति के नाटकों में करुण रस का प्राधान्य है “कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते” तथापि अन्य रसों का परिपाक भी अपनी उत्त्कृष्ट आभा के साथ उनकी कृतियों में रसाप्लावित है। महावीर चरित में वीररस (प्रधान) की ओज निहित है। मालती माधव में श्रृंगार रस की कलात्मक प्रतिष्ठा है, उत्तर रामचरितं में करुणरस की अजस्त्र (अपिग्रावा रोदत्यपि दलति वज्रस्य हृदयम्) धारी प्रवाहित है। अन्य समस्त रसों का भी अंग रूप में वैविध्यपूर्ण समाकलन उनके नाटकों की रसात्मकता को जीवन्त रूप देता है। भवभूति ने प्रेम के बहुविध रूपों की प्रभवत्ता का चित्रांकन किया है वह मर्यादित और श्लिष्ट श्रृंगारी भावना के शिल्पी हैं। उ.रा.च. में सीताराम का दाम्पत्य प्रेम आदर्श मर्यादा एवं सहकार का कीर्ति स्तम्भ है।
“अद्वैतं सुख दु:खयोरनुगतम् सर्वास्वरस्थास य
द्विश्रामों हृदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः।
कालेनावर्णा त्यपात्परिणिते यत्प्रेम सारे स्थितं
भद्रं तस्य सुमानुषस्य कथमप्येकं हितत्प्रार्थ्यते ।।”
मालती माधव का प्रणयभाव आदर्श प्रेमी प्रेमिका के सहज अनुराग से सुरभित है। मकरन्द के प्रेम में आदर्श मैत्री भाव की सम्पुष्टि है। अन्यान्य पात्रों का सहज स्नेहभाव उत्कृष्ट एवं पवित्र है, उनकी स्नेहाभिव्यक्ति “व्यतिषजति पंदार्थान्नूतरः को ऽपिहेतुर्न ।की अलौकिक भावन स्नेहधारा से सर्वत्र पुलकमान है। श्रेष्ठ कवि की समर्थ अभिव्यक्ति सदैव लक्षणा की अपेक्षा लक्ष्याभिमुखी होती है, भावसान्द्रता के साथ अपेक्षित शिल्पसौष्ठव का सन्तुलित व्यवहार भवभूति की कृतियों को अपने समकालीन कवियों की रचनाओं से पृथक् विशिष्ट पहचान देता है। काव्यपथ के अनुसन्धाता कवि जहाँ नवीन उद्भावना के प्रति क्रियाशील रहते हैं वहीं पूर्वानुवर्ती शुभ श्रेष्ठ परम्परा के वाल्मीकि, व्यास आदि महान विभूतियों के प्रति भी पूर्णतः समादरित भाव व्यक्त करते है।
“इदं कविभ्यः पूर्वेभ्यो नमोवाकं प्रशास्म हे”।
विन्देम देवतांवाचममृतामात्मनः कलाम् ।।
साहित्य सृजन विशेषतः रंगकर्म “नाट्यरचना” का पथावरोहण भवभूति के अन्तस की सद्प्रेरणा का सुफल था। उनके करुणापथ पर भला कौन रसिक विपथ हो सकता है, जिसमें वासन्तीराग, प्रेम और मर्यादा पगपग पर सहृदय के चित्त का कल्याण करने को मुकुलित है। मा. मा. में कवि ने यह स्वीकारोक्ति दी है। वस्तुतः नाटक में कोरा पाण्डित्य ही रोचक नहीं होता, उसमें वाणी की प्रौढ़ता, अर्थ की गुरुता तथा वाणी औदार्य सर्वाधिक ग्रह्य होते है।
“यत् प्रौढ़ित्वमुदारता च वचसां यच्चार्थतो गौरवं ।
तच्चेदस्ति ततस्तदेव गमकं पाण्डित्य वैदग्ध्ययोः ।।
अतः भवभूति के कल्पोनिष्ठ नाटकों का रंगमंच प्रदर्शन लोक रन्जनार्थ जिस कला भूमि “कालपी” पर हुआ, वह बुन्देलखण्ड को संस्कृत साहित्य का विशिष्ट एवं गौरवपूर्ण अवदान है।