शिवपुरी जिले की साहित्यिक परम्परा
June 13, 2024ललितपुर जनपद के हिन्दी साहित्य के इतिहास की रूपरेखा
June 14, 2024डॉ. सियाराम शरण शर्मा
हिन्दी साहित्य जगत के सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास सम्राट डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा ने लिखा है – “पन्द्रहवीं शताब्दी से बुन्देलों का विकास हुआ। ये शक्ति सम्पन्न रहे हैं, परन्तु बहुत सा समय दिल्ली के पठान और मुगल बादशाहों के संघर्ष में चलता रहा। महाराज छत्रसाल ने तो लगभग सम्पूर्ण जीवन ही, बुन्देलखंड के इस रक्षा प्रयत्न में लगाया। महाराज छत्रसाल के पूर्वज ओरछा नरेश महाराज वीर सिंह देव (प्रथम) थे। इन्होंने ही झाँसी का वर्तमान किला बनवाया था- निर्माण काल 1510-1513 झाँसी को पहले बलवन्त नगर कहते थे। किले के बनने के पहले इस स्थान पर एक विशाल देवी दुर्गा मंदिर था। संभव है कि एक छोटा सा गढ़ भी रहा हो। चौदहवीं शताब्दी के चन्देल काल का एक शिलालेख यहाँ पाया गया है। उस मंदिर के भग्नावशेष किले में यहाँ वहाँ आज भी दिखलाई पड़ते हैं। इस स्थान का नाम झाँसी क्यों पड़ा ? इस सम्बन्ध में एक लोक परम्परा है। झाँसी का किला बनने के उपरान्त ही जैतपुर के राजा, महाराज वीरसिंह देव के साथ ओरछा के किले पर बैठे थे। जैतपुर नरेश ने यहाँ के किले को देखकर पूछा- “यह झांई सी क्या दिखलाई पड़ रही है?
” महाराज वीर सिंह देव ने किले के निर्माण की बात बतलाई और कहा कि “आज से उस स्थान का नाम “झांई-सी” रहेगा- उसी का अपभ्रंश हैं झाँसी। जो राज्य मराठों को दिया गया था, समयान्तर पर उसके कई भाग हो गये। झाँसी गोविन्द पंत बुन्देलों को मिली। यह सरदार 1757 की पानीपत की लड़ाई के पहले ही युद्ध में मारा गया। पानीपत संग्राम के कारण सारी राज्य व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई। कुछ वर्ष तक अवध के नबाब की सेना के गोसाईं सरदार झाँसी का राज्य करते रहे। 1775 के उपरान्त मराठों से उनका संघर्ष हुआ और झाँसी पर मराठों का अधिकार फिर हो गया। इस बार नेवालकर वंश था। सन् 1805 में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हुआ, परन्तु राज्य नेवालकर वंश का रहा। इस वंश के अंतिम राजा गंगाधर राव थे, जिनकी महारानी लक्ष्मीबाई – वह लक्ष्मी बाई जिन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज शक्ति का अनुपम वीरता के साथ मुकाबला किया और जिनके नाम से झाँसी अपने को धन्य समझती है, और सदा समझती रहेगी।”
झाँसी के जनकवि भग्गीदाउजू “श्याम” (1857) गंधीगर टपरा में रहते थे, इनका जन्म ब्राम्हण परिवार में हुआ था। कहा जाता है कि भग्गी दाउजू ने रानी और 1857-58 के झाँसी में स्वातंत्रय युद्ध का पूरा “रायसो” लिखा था। इसकी खंडित प्रति में केवल नत्थे खां से हुए युद्ध का ही वर्णन है, अंग्रेजों से हुए युद्ध का नहीं। इस रचना में केवल 42 छंद हैं, 28-28 मात्राओं के चार चरण वाले इस छंद को मंज कहते हैं। और यह गेय है। इन रचनाओं में झाँसी के वीरों के युद्धोन्माद और रानी लक्ष्मीबाई के प्रति उनकी भक्ति का बड़ा ही ओज पूर्ण वर्णन हुआ है। प्रत्येक मंज की अंतिम ध्रुव पंक्ति है- “जो झाँसी की लटी तकै सुन ताय कालका खाई।”
युद्ध सज्जा करते हुए झाँसी के वीरों का कवि ने इस प्रकार वर्णन किया है :-
“करे ज्वान सन्मान पान मुख सिर पै बंधी पगाई, लयें सैफसेंती कम्मर में बिछुआ बंक ठठाई।
भरौ जौम सब रौम रौम में कब होय ठक्काठाई, जो झाँसी की लटी तकै सुन ताय कालका खाई।
श्री चतुरेश नीखरा, झाँसी, सं. 1925 वि. ने भी “हनुमान पच्चीसी” और झाँसी की रानी का ‘रायसा’ लिखा, किन्तु वे दोनों अप्रकाशित रहे, झाँसी का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है-
“सब गुन रासी, प्रकासी ऊवनासी वासी, खासी झांसी, सुधा सी या झांझी कासी ।”
सं. 1940 वि. से चतुरेस नीखरा ने कविता लिखना प्रारम्भ किया था और प्रायः तीस वर्ष तक वे निरंतर कविता करते रहे।
झाँसी के जन कवि श्री गंगा प्रसाद सुनार के सम्बन्ध में यह जनश्रुति हे कि इन्होंने रानी लक्ष्मीबाई का एक पूरा ‘रासो’ ही कवित्तों में बनाया था, परन्तु न तो इनका कोई प्रामाणिक जीवन वृत्त ही मिलता है और न उनका यह रासो किन्तु उनके कुछ छंदों का डॉ. भगवानदास माहौर ने उल्लेख किया है, उनके कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं-
“बाई श्री लच्छमी प्रतच्छ लच्छमी कौ रूप, गंगाधर रानी ताकी कीरति बखानी है।”
“जान के अकेली सब गंगाधर रानी कों, सहित समाज दल टीकमगढ़ साजों हैं।
छीन लई मऊ फेर रानीपुर जब्त कियो, लैकें, पड़वान आन सागर पै गाजौ है।
कहै गंगापरसाद या धोकें झाँसी पै, डार दयौ डेरा फेर गोला खूब दागौ है।
प्रबल जवाहर सिंह निकर कें पसर करो, नत्थे खां जमादार खेत छोड़ भागौ है ।।”
वैश्य कवि चतुरेश और लघुदास भाई-भाई थे, लघुदास बड़े और चतुरेश छोटे, दोनों सैर, ख्याल आदि सब कुछ लिखते थे, इनमें चतुरेश जी अपनी निर्भीकता और दबंगी के कारण अधिक जनप्रिय और प्रसिद्ध थे, रानी लक्ष्मीबाई की वीरता का यश निर्भीकता से गाया है। झाँसी के किले पर आक्रमण करने वाले अंग्रेजों पर पड़ी मार का वर्णन चतुरेश ने बड़े ही उल्लास से किया है-
“जंडल गवंडल कंडल लाठ औ लवंडल के, रुंडल विन मुंडल कमंडल से ढडढड़ात ।”
कवि लघुदास की स्फुट रचनायें सैरों में ही प्राप्त होती है, यथा-
“लघुदास कयं बखान, ज्ञानवान चित धरै, सतसंग रंग अंग अंग, प्रेम मन भरैं।
मन वांछित फल पावत, कलिकाल ना डरैं, दुख भंग होत छिन में, सतसंग के करैं।
सठ सुधरत सतसंग से, जानत सकल जहान। कृपा करत रघुवीर सोइ, कयें “लघुदास” बखान।।”
संतावनी क्रान्ति के पूर्व रीतिकालीन श्रंगारी काव्य में हृदयेश जी बहुत ही प्रसिद्ध थे, इनका “विश्ववश करन” बुन्देलखंड शोध संस्थान ने प्रकाशित किया है। इसमें रीतिकालीन काव्य की अद्भुत झलक है, पूरा ग्रंथ नायिका भेद और अलंकारों का रत्नकोष है।
श्री हीरालाल व्यास “हृदयेश” का जन्म सं. 1851 में व्यास कुल झाँसी में हुआ था और महारानी लक्ष्मीबाई के स्वतंत्रता संग्राम में युद्ध करते हुए सन् 1857 में इस वीर ने प्राणोत्सर्ग किया था।
श्री हृदयेश झाँसी के महाराजा श्री गंगाधर राव के राज कवि थे। दरबार की ओर से इनको पालकी की सवारी और 51/- रु. नानासाई तथा दशहरे के दरबार में सिरोपा (पाग पिछोरा) सम्मानार्थ भेंट किया जाता था। इनका “विश्ववश करन” 556 छन्दों में है। इस ग्रंथ की समाप्ति कवि ने सं. 1904 में की, उसने अपने ग्रंथ के सम्बन्ध में कहा है-
“चतुर नरन की सुख करन, लखत वरन रस पंथ। परत सरस रस सुनत सन्, विश्ववश करन ग्रंथ।”
“हृदयेश” जी ने बड़े सुन्दर ढंग से अपने ग्रंथ के मंडन और खंडन करने वालों की एक ही छन्द में वन्दना की-
“मण्डन के करतान कौं, नमस्कार कर जोर। खण्डन के करतान कौं, नमस्कार सिर ढोर।”
हृदयेश जी रस सिद्ध कवि थे। कुछ लोगों का कहना है कि झाँसी के युद्ध और विजन (कत्ले आम) के बहुत दिनों बाद तक भी वे जीवित रहे। कुछ लोगों का कहना है कि हृदयेश जी झाँसी में अंग्रेजों के साथ हुए युद्ध में ही मारे गये थे। झाँसी के कविवर रामचरण हयारण “मित्र” ने अपने एक लेख में लिखा है-1857 के स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की (अर्थात् अपनी रानी की गौरव रक्षा के लिए जिन सपूतों ने समर भूमि में लड़ते-लड़ते बलिदान किया, उनमें कविवर हृदयेश जी भी थे। कलम और तलवार दोनों के धनी।” एक हृदयेश कुमार का नत्थे खां के युद्ध में मारे जाने का उल्लेख मदनेश जी ने अपने रासो में किया है।
हृइदेश और कवि पजनेस दोनों घनिष्ट मित्र थे। उनमें परस्पर काव्य चर्चा तो होती ही थी, दोनों जोड़ के कवित्त भी लिखा करते थे। रीतिकाल की परम्परा में हृदेश शास्त्रीय कवियों की कोटि में आते हैं। इनका “विस्ववसकरन” रीति ग्रंथ है, जिसमें नायिका, नायक भेद या (दूती लक्षण, सात्विक भाव वर्णन, संयोग-वियोग, लक्षण, हाव-लक्षण संयोग के अंतर्गत हाव वर्णन वियोग के अन्तर्गत मान वर्णन आदि) विस्तार से वर्णन किया गया है, परन्तु इनके उदाहरण ललित और सरल हैं, जो इन्हें रस सिद्ध कवि के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। पजनेस जी रानी के समकालीन थे और हृदयेश जी के मित्र थे।
इतिहास में डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यास “झाँसी की रानी” में पजनेश जी का उल्लेख किया है और परिशिष्ट में उनके काव्य का नमूना भी दिया है। झाँसी के लोग पजनेश जी को पारेसुर मुहल्ला, झाँसी का निवासी बताते हैं। खेद है कि इस रस सिद्ध कवि की भी रानी विषयक कोई कृति या उसका कोई अवशेष भी अभी तक नहीं मिल सका।
लक्ष्मीबाई रासो” प्रणेता बुन्देलखंड के प्रमुख कवि पं. मदनमोहन द्विवेदी “मदनेश” हैं। 1857 के बाद के युग में बुन्देली में लिखा गया यह सर्व प्रथम महा काव्य है। डॉ. भगवानदास माहौर ने इस ग्रंथ का सम्पादन करके बुन्देली भाषा एवं साहित्य के लिए एक महान कार्य किया है। डॉ. माहौर ने लिखा है-
मदनेश जी का यह ग्रंथ रासो परम्परा का अंतिम रत्न है। बुन्देलखंड का यह सर्वश्रेष्ठ काव्य है। आधुनिक युग का यह सर्व प्रथम मौलिक महाकाव्य है और रानी लक्ष्मीबाई सम्बन्धी तो यह सर्व प्रथम महाकाव्य है ही।” झाँसी के स्वातन्त्र्य युद्ध में इस काव्य का अपना विशेष महत्व है। माहौर जी ने यह भी लिखा है कि अंग्रेजी राज्य के घोर आतंक के मारे उसे वे छिपाये ही रहे। इस महाकाव्य में बढ़िया बुन्देली में कवित्त, सवैये, अमृत-ध्वनि, किरवान, सैर और आल्ह आदि नाना प्रकार के सुगठित छन्द हैं। झाँसी की जन वीरता का चित्रण कवि ने इस प्रकार किया है-
“बहु कुरिया कृपान ले धाय। सूरन के जिन मान घंटाय ।।
बाढई हनै दुहत्थ बसूला। फांकहि भट भुज सिर उर मूला ।।
गह कर बका कड़ेरे धाए। भुंटा से जिन मूंड गिराए।
पैनी कर कुलार गहि काछी। तिनने मार दई है आछी।
बड़ी जात गहि आयुध नाना। लरे सुभट सो करों बखाना ।।”
मदनेश जी ने अपने इस “लक्ष्मीबाई रासो” की रचना संवत 1961 के पूर्व की होगी। इसके एक भाग समाप्ति की पुस्तिका में तिथि का निर्देश इस प्रकार है: “नि. भा. कृ. भृगौ सं. 1961” यह एक काव्य ग्रंथ है, कोई ऐतिहासिक अभिलेख नहीं है। पात्र एवं घटनायें जनश्रुति से प्राप्त हैं। कवि कल्पनोत्थित नहीं हैं। कवि ने स्पष्ट कहा है- “जैसे सुनवें तें जानत हों।”
कवि मन्नू भाट जाति के ब्रह्म भट्ट थे, पिता का नाम कुंजी भाट है।
यह भड़ौआ यानी निन्दा काव्य लिखने में सिद्ध हस्त थे। भले आदमी इनकी वाणी के प्रहार से सतर्क रहते । वे एक अच्छे कुशल कवि थे। उदाहरण देखिए-
“एक पाद ऊरध त्रिपाद की विभूति सवै, श्री मुख सहस्त्र पाद अध्रिज अरस जात ।
श्रीपति स्वयं शंभू अंब, तप तेज सबै, “मन्नू कवि” नजर निछावरें करत जात ।
यत्र यत्र धरत पदारविन्द रामचन्द्र, तत्र तत्र भूमि भूरि भाग सों भरत जात ।
देवी देव बृन्दन के इन्द्रन उपेन्द्रन के, मुकुट महेन्द्रन के पांवड़े परत जात ।।”
इस कवि की तीखी वाणी ने अवश्य ही नत्थे खां और अंग्रेजों से रानी के युद्ध का ओजस्वी वर्णन किया हो गया, किन्तु प्राप्त नहीं।
लोक कवि ईसुरी हमारे जनपद का पृथ्वी पुत्र हैं, उनकी फागें यहाँ के जन-जीवन में जिस गहराई में प्रविष्ट हुई है, उस गहराई तक अभी हमारे शोधकर्ता नहीं पहुँच सके हैं। जब हम ग्रामीण वातावरण में ईसुरी की फागों को सुनते हैं तो उसका रसास्वादन भी हमें भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। सब अपने अपने ढंग से उसके गुनगुनाने के साथ ही भाव-विभोर हो जाते हैं। ईसुरी की फागें आप बीती हैं, काल्पनिक नहीं यथार्थ हैं “परबीती नई कात ईसुरी सत जो खुद पै बीती, वेदन कए न गाय ईसुरी” इस प्रकार उसने वेद-पुराणों का गायन नहीं किया, उसने यथार्थ जीवन के निकट की बात कही हैं। उसने तो सांची फागें कहीं है। ईसुर सिद्ध तेउ बन पाउत, जीने दुनिया छानी।” उसकी रचनायें सोद्देश्य हैं।
वह धरती का कवि है, आकाश कुसुम की बात वह नहीं कहता, अपने काव्य को उसने लोक से मिला दिया है। लोक जीवन का वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत किया है। उसने लोगों को संगठित रहने और मिलकर कार्य करते रहने के लिए प्रोत्साहित किया है “तन-मन दोउ जनैं गम खायें, करौ फैसला चायें”। उसने तत्कालीन शासन् में व्याप्त भ्रष्टाचार, अन्याय शोषण, महँगाई, निर्धनता, बरबादी, दमन आदि का खुलकर चित्रण एवं विरोध किया है। कानूनगो, पटवारी, सरकारी कर्मचारी किस प्रकार जनता का शोषण करते हैं, रिश्वत लेते हैं, परस्पर लड़ाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं इस ओर भी ईसुरी का ध्यान है।
ईसुरी के लोकगीत जीवन की सामूहिक चेतना के प्रतीक हैं, उनमें हमें जन-जीवन के सभी पक्षों के दर्शन होते हैं। इसमें गाँव का जन-जीवन गाता है, रोता है, हँसता है, व्यंग्य करता है, प्रेम करता है, स्वच्छन्द बिहार करता है, रूप दर्शन पर रीझता है और कटाक्ष करता है। अपनी धरती से उसे प्रेम है, वह वहीं जीना और मरना चाहता है-
“यारो इतना जस कर लीजी, चिता अंत न दीजौ।
चलत सिरम कौ बहत पसीना भसम कौ अंतस भीजौ।
गंगा जू लौं मरै ईसुरी, दाग बगौरा दीजौ ।।”
रजऊ के प्रति वह पूर्ण रुपेण समर्पित हैं, उसमें भी लोक जीवन का भाव है-
“मानस कबै कबै फिर होने, रजऊ बोल लो नौने ।
चलती बेरा प्रान छांड दये, कोके संगे कीनें ।।”
झाँसी का यह सौभाग्य है कि बाबू श्याम सुन्दर दास के पश्चात् “सरस्वती” का सम्पादन हिन्दी साहित्य के द्विवेदी युग के प्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जनवरी 1903 ई. से 1904 ई. तक “सरस्वती” के सम्पादन का कार्य झाँसी में ही रहकर करते रहे। “साहित्य संदेश” अप्रैल 1939 ई. के अंक में अपनी “आत्म कहानी” में उन्होंने लिखा है- “जब मैं झाँसी में था। तब वहाँ के तहसीली स्कूल के एक अध्यापक ने मुझे कोर्स की एक पुस्तक दिखाई। नाम था तृतीय रीडर। उसने उसमें बहुत से दोष दिखाए। उस समय तक मेरी लिखी हुई कुछ समालोचनायें प्रकाशित हो चुकी थीं। इससे उस अध्यापक ने मुझसे उस रीडर की भी आलोचना लिखकर प्रकाशित करने का आग्रह किया। मैंने रीडर पढ़ी और अध्यापक महाशय की शिकायत को सही पाया।
नतीजा यह हुआ कि उसकी समालोचना मैंने पुस्तकाकार में प्रकाशित की। इस रोडर का स्वत्वाधिकारी था प्रयाग का इंडियन प्रेस । अतएव इस समालोचना की बदौलत इंडियन प्रेस से मेरा परिचय हो गया और कुछ समय बाद उसने “सरस्वती” का सम्पादन कार्य मुझे दे डालने की इच्छा प्रकट की। मैंने उसे स्वीकार कर लिया। यह घटना रेल की नौकरी छोड़ने के एक साल पहले की है।” आचार्य क्षेमचन्द्र सुमन ने अपने 14 अक्टूबर, 1980 के एक पत्र में मुझे लिखा था – “द्विवेदी जी के समकालीन एक सीताराम बाथम थे और दूसरे श्री रामेश्वर प्रसाद शर्मा थे।
श्री रामेश्वर प्रसाद शर्मा “सरस्वती” के सहकारी सम्पादक भी थे।” तात्पर्य यह है कि आचार्य द्विवेदी जी का पत्रकारिता एवं साहित्यिक जीवन झाँसी में ही प्रारंभ हुआ। द्विवेदी जी खड़ी बोली के उन्नायक हैं। झाँसी प्रवास में ही राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त, उनके अनुज श्री सिया राम शरण गुप्त एवं मुंशी अजमेरी तथा सेक्सरिया पुरस्कार प्राप्त कवयित्री राम कुमारी चौहान उनके सम्पर्क में आई। खड़ी बोली में काव्य का विकास यहाँ द्विवेदी जी के मार्गदर्शन में ही आरम्भ हुआ।
एक ओर जहाँ आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी खड़ी बोली के प्रवर्तक माने गये वहीं उनके प्रसाद एवं प्रेरणा में श्री मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रकवि से विभूषित हुए। खड़ी बोली के उत्थान में गुप्त जी का योगदान स्तुत्य रहा है। राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त वस्तुतः तीन युगों का प्रतिनिधित्व करते है। उस समय खड़ी बोली को ब्रज भाषा से टक्कर लेनी थी, राष्ट्रकवि गुप्त जी के माध्यम से द्विवेदी जी ने यह बीड़ा उठाया, उनकी रचनाओं को “सरस्वती” में प्रकाशित किया। राष्ट्रीय आंदोलन को आगे बढ़ाने में गुप्त जी का महत्वपूर्ण योगदान है। जब देश में स्वातंत्र्य संघर्ष छिड़ा तो “भारत भारती” का उसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
गीता की भांति आन्दोलन कारियों के हाथ में भारत भारती थी, बापू ने उनको राष्ट्र कवि का नाम दिया था। उन्होंने प्राचीन भारतीय कथाओं को आधुनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया। रामकथा को लेकर गुप्त जी ने साकेत एवं पंचवटी ग्रंथों का प्रणयन किया। उर्मिला, लक्ष्मण और कैकेयी के चरित्र के उन पक्षों को प्रस्तुत किया जो इनके पूर्व की राम कथा में नहीं मिलते हैं। “साकेत” पर पूर्णतया गाँधीवाद का प्रभाव है। राम का चरित्र इससे प्रभावित हुआ है।
राष्ट्रकवि गुप्त जी की अन्य रचनायें यशोधरा, द्वापर, विष्णुप्रिया, उच्छ्वास, सिद्धराज, जयद्रथ वध, नहुष, जयभारत, गुरुकुल हिन्दू, लीला, त्रिपथगा, झंकार, चन्द्रहास, तिलोत्तमा, कुणाल गीत, अजित, शकुन्तला, प्रदक्षिणा, काबा और कर्बला, रत्नावली, अनघ, वकसंहार, वन वैभव, सैरन्ध्री, किसान-पत्रावली, अर्जन और विसर्जन, वैतालिक शक्ति, रंग में भंग, विकट भट, भूमि भाग, हिडिम्बा, अंजलि और अर्घ्य, राजा-प्रजा, पृथ्वी पुत्र, दिवोदास, युद्ध, गुरुतेगबहादुर, विश्व वेदना, आदि हैं। अनूदित रचनाओं में मेघनाद वध, वृत्र संहार, पलासी का युद्ध, स्वप्न वासवदत्ता, वीरांगना, रुवाईयत उमर खय्याम, विरहिणी ब्रजांगना, प्रतिमा, अविस्मारक, अभिषेक आदि ।
गाँधीवादी संत कवि श्री सियाराम शरण गुप्त दु:ख, वेदना और करुणा के कवि हैं। दलित और उपेक्षितों के प्रति उनमें ममत्व था। शोषण, बेगार, ऋणग्रस्तता, निर्धनता, जमीदारों एवं पूँजीपतियों के अत्याचारों से पीड़ित मानव को अपने काव्य का विषय बनाया। सत्य अहिंसा में उनकी अटूट आस्था थी। गाँधी जी एवं बिनोवा के सिद्धान्तों के वे पूर्ण समर्थक रहे हैं। अपनी लेखनी में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया। जयहिन्द, बापू एवं आत्मोत्सर्ग आदि रचनायें इस बात की साक्षी हैं। समाज में साम्प्रदायिक सद्भाव लाने के लिए उन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भरपूर प्रयास किया ।
गुप्त जी की प्रमुख रचनायें इस प्रकार हैं- मौर्यस विजय, अनाथ, आर्द्रा विषाद, दूर्वादल, बापू, अमृतपुत्र एवं सुनन्दा (खंडकाव्य), पुण्यपर्व (नाटक), उन्मुक्त (गीति नाट्य), गोद, अंतिम आकांक्षा, नारी (उपन्यास), मानुषी (कहानी संगह), आत्मोत्सर्ग, पाथेय, मृण्मयी, दैनिकी, नकुल, नोआखाली में, जयहिन्द, गोपिका (काव्य), झूठ सच (निबंध संग्रह) अनुरूपा (कविता संग्रह), गीता संवाद एवं बुद्धवचन (अनुवाद)। प्रसिद्ध उपन्यास ‘नारी’ का अनुवाद कई भाषाओं में हुआ। “अमृत पुत्र” का अंग्रेजी अनुवाद अनुवादक ए. जी. शेरिफ ने किया। अभी हाल ही में सियाराम शरण गुप्त रचनावली का पांच खंडों में महत्वपूर्ण प्रकाशन किया गया है।
स्व. मुंशी अजमेरी “प्रेम” साहित्य मर्मज्ञ, गायक, कवि और मनीषी एक साथ सब कुछ थे। राष्ट्रकवि डॉ. मैथिलीशरण गुप्त के वह बालसखा थे, आजीवन वे चिरगाँव में रहकर उन्हीं के सम्पर्क में रहे। मुंशी जी संस्कृत और बंगला साहित्य के उद्भट विद्वान थे। उनका अध्ययन गहन था। कला और साहित्य की बारीकियों को समझने और समझाने में उनकी आँख जौहरी की भांति काम करती थी। खड़ी बोली, ब्रजभाषा, डिंगल, और बुन्देली भाषा में कविता लिखने में वे सिद्धहस्त थे। बुन्देली भाषा के वे जबर्दस्त वकील थे। बुन्देली भाषा को ब्रज और बंगला भाषा से भी अधिक मधुर और कोमल मानते थे।
ओरछा नरेश उनकी काव्य रचना से अत्यधिक प्रभावित थे, उन्होंने राज्य में उन्हें पेंशन के रूप में मासिक वृत्ति देना प्रारम्भ कर दी थी। उनके द्वारा रचित ग्रंथों में “हमला सजा, मधुकर शाह, गोकुलदास, चित्रांगदा, भालूराम-साधूराम संवाद, संस्मरण (बंगला अनुवाद) प्रकाशित हो चुके हैं। “प्रेम पयोनिधि” का प्रकाशन बाद में हुआ है। उनके अन्य अप्रकाशित ग्रंथों में कबीरदास (नाटक), राम लीला के पाँच नाटक, श्रीपाल चरित आदि अनेक ग्रंथ हैं। एकादशी (ग्यारह कविता बद्ध कहानियां), मनोरमा, कुछ एकांकी एवं रामकथा (बाल रामायण) और जेहा जी (पद्य कहानी) भी अप्रकाशित है। उनके पौत्र श्री विद्यासागर शर्मा ने मुंशी अजमेरी एवं पं. गुलाबराय जी के अप्रकाशित साहित्य को बहुत कुछ प्रकाश में लाने का कार्य किया है।
स्व. मुंशी अजमेरी “प्रेम” के ज्येष्ठ पुत्र स्व. पं. गुलाब राय हिन्दी जगत के शिरोमणि कवि हैं। मुंशी जी की भांति वे भी विद्वान थे। उनका “सुमिरनी” नायक काव्य ग्रंथ उत्कृष्ट है। संगीत आदि जीवन्त भावनाओं से युक्त उनका साहित्य आदरणीय है।
कवि मदनेश के पश्चात् झाँसी के कवि-लेखकों की रानी लक्ष्मीबाई विषयक कृतियाँ इस प्रकार हैं। इनमें श्री लाड़ली प्रसाद श्रीवास्तव, “झाँसी की रानी” नाटक, श्री र. वि. धुलेकर का झाँसी की रानी का संक्षिप्त चरित, मास्टर रुद्रनारायण सिंह का रानी का ओजस्वी चित्र, पं. राम लाला पाण्डेय का रानी का आत्म परिचय, श्री बालकृष्ण टेंगरो का रानी सम्बन्धी वृहद् काव्य, घासीराम व्यास, नाथूराम माहौर घनश्याम दास पांडेय, श्रवण प्रसाद मिश्र “अवजेश”, राघवेन्द्र, राम किशोर मिश्र “किशोर, गौरी शंकर गिरीश, भगवानदास ज्योतिषी “दास”, रामचरण हयारण मित्र, सेठ राधाकृष्ण बड़ौनिया, सेठ बनवारी लाल आदि कवियों ने झाँसी की रानी विषयक वीर काव्य लिखकर जन जीवन में राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया।
उपन्यासकार वृन्दावन लाल वर्मा का “झाँसी की रानी” उपन्यास विशेष रूप से उल्लेखनीय है। डॉ. भगवानदास माहौर के अनुसार झाँसी की रानी मानों केवल 1857 का ही नहीं अपितु समस्त सशस्त्र क्रांतिकारी आन्दोलन का प्रतिनिधित्व करती हुई अहिंसात्मक सत्याग्रह के इस एकान्त श्रेय के दावे को ललकारती हुई आई।”
झाँसी की काव्य परम्परा में श्री भगवान दास ज्योतिषी “दास” एक लोक कवि के रूप में प्रसिद्ध हुए, राष्ट्रीय गीतों से उन्होंने जन-जन को आंदोलित किया, उदाहरण देखिए-
“भारत मां ने दो लाल दिए, दुख टाल जगत में जाहर, वर वीर सुभाष जवाहर।”
कवीन्द्र नाथूराम माहौर की ब्रजभाषा, खड़ी बोली और जनपदीय भाषा बुन्देली में प्रचुर रचनायें प्रकाशित और अप्रकाशित हैं। बुन्देलखंड रामायण महासभा झाँसी ने बुंदेलखण्ड कवि भूषण और खनियाधाना नरेश श्री खलक सिंह जूदेव ने कवीन्द्र की उपाधियां देकर सम्मानित किया था। उनके प्रकाशित ग्रंथ हैं- वीर वधू, सुरसुधा निधि, वीर बाला, दीन का दावा, व्यंग्य विनोद और गोरी बीबी आदि। व्यंग्य विनोद का एक उदाहरण –
“गंगा तेरे घाट के पंडा रहे मुटाय, मुंह मांगी नित दच्छिना, माँगे मुँह फैलाय ।।”
कवि दंगलों एवं फड़ों के वे जनक कहे जाते हैं। इनके नाम से “माहौर मंडल” ख्याति प्राप्त रहा, जिसने अनगिनत कवियों को जन्म दिया। वे बुन्देलखंड के अनेक राज दरबारों में समादृत हुए। उनकी राष्ट्रीय रचनाओं ने स्वतंत्रता आन्दोलन को तीव्र गति प्रदान की-
“दीन दुखियों का दिली दोस्त था दिलेर शेर। नौजवान भारत सभा का हिय हार था।
देश बलि बेदी पर सर को निसार दिया, भगतसिंह सच्चा तू ही एक सरदार था ।।”
बुन्देलखंड भूषण” वीर कवि श्री अम्बिका प्रसाद अम्बिकेश जब मंच से ओजस्वी कविता पढ़ते थे, तो श्रोताओं में वीररस हिलोर लेने लगता था। वे प्रायः पढ़ते समय म्यान से कटार निकाल लिया करते थे। बीर बाई साब बावनी, वीर छत्रसाल दशक, वीर पाकिस्तान पचीसी, पंच पच्चक पच्चीसी, वीर चीन पच्चीसी, के अतिरिक्त राम-कृष्ण अवतार, षटऋतु, नायिका भेद आदि की रचनाओं का सृजन किया है।
हिन्दी जगत की प्रमुख कवयित्री श्रीमती रामकुमारी चौहान के काव्य में भारतेन्दु युग के पश्चात् के समस्त काव्य प्रवाह की पृष्ठभूमि निहित है, उनका कविता काल द्विवेदी युग से प्रारम्भ होता है। उनकी रचनाओं में उनका प्रतिबिम्ब उभरा है। वे एक ओर विरह-पीड़ा की कवयित्री हैं तो दूसरी ओर राष्ट्रीय भावनायें उनकी कविताओं में सर्वत्र विद्यमान हैं। उनकी “निःश्वास” कृति सं. 1992 प्रकाशित हुई, इस कृति पर कवयित्री को सन् 1935 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 25वें नागपुर अधिवेशन में अ.भा. सेक्सरिया पुरस्कार प्राप्त हुआ था। अन्य अप्रकाशित रचनाओं में कणिका, झलक, आशा कुसुम, आकांक्षा, चाह, झंकार, रेखा, स्मृति के फूल, जीवन रेखा, पद्य-प्रसूत, निर्माण, कल्पना के कण, कलिका कुंज, अतीत की झांकी, बलिदान, महारानी लक्ष्मीबाई, एवं दुर्गावती वीरांगनायें। खंड काव्य तारावती एवं अमर सुभाष ।
आचार्य श्री घनश्याम दास पाण्डेय का जन्म प्रसिद्ध कवि भूमि मऊरानीपुर में हुआ। अनेक भाषाओं पर आपको अधिकार था। आपने हिन्दी व संस्कृत में सहस्त्रों रचनायें की हैं। हरदौल चरित्र, छत्रसाल बावनी, प्रतलोल्लास, नरसी मेहता, व्यंग्य विनोद, गाँधी गौरव, बाल विवाह, विडम्बना, कूट प्रश्नावली आदि उनकी प्रमुख रचनायें हैं। एक भावपूर्ण उदाहरण देखिये –
“सिया के वियोग में विलाप करें राघवेन्द्र, लखन बुझायें नाथ शोक सब दीजे छंड।
बोले राम शोक नहीं राज त्यागवे को हमें, शोक नहीं मातु कैकेई ने जो दियी है दंड।
विप्र ‘घनश्याम” एक चूक उर साल रही, बेर-बेर बाकी हूक हिये में उठे प्रचण्ड।
चित्रकूट शैल दुर्गवास भलौ हतौ तौ न, सिया हरी जाती जो न छोड़ते बुन्देलखण्ड ।।”
श्री नरोत्तमदास पाण्डेय कविवर श्री घनश्याम दास पाण्डेय के सुपुत्र थे। वे ओरछा राज्य के राजकवि थे। असमय में ही उनका निधन हो गया। उनकी रचना का एक उदाहरण देखिए-
“टेरयो जबै “मधु” ने जननी कह, है अनुरक्त सी भक्त अधीना।
धाम से आय गई अति आतुर, हंस हूँ को निज संग न लीना।
पांय पियादे प्रमोद पगी चली, चार भुजा यो सजाय प्रवीना ।
एक में पंकज, एक में पुस्तक, एक में लेखिनी, एक में बीना।”
बुन्देलखण्ड विभूति राष्ट्रीय कवि श्री घासीराम व्यास का भी जन्म स्थान मऊरानीपुर है। वीर ज्योति, जवाहर ज्योति एवं श्याम संदेश आपकी उत्कृष्ट काव्य रचनायें है। सहस्त्रों रचनाओं का आपने सृजन किया है। व्यास जी का राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत एक छन्द देखिए-
“सुवन स्वतंत्र निज देश का बढ़ा दे मान, घटा दे गुमान शाह कामी कूर कोही का।
राजपूतिनों के नीके दूध को पुनीत कर, सबक सिखा दे उसे छुद्र छल छोही का।
कुंद पड़ सिंह-सा दहाड़ शत्रु सेना पर, विश्व को दिखा दे “व्यास” विक्रम सिरोही का।
बेजा मत मान लेजा लेजा शीघ्र भेजा फाड़, नेजा पर टांग दे कलेजा देश द्रोही का ।।”
श्रीमती रामकुमारी चौहान की छोटी बहन श्री मती राजरानी चौहान वीरता, शक्ति एवं वेदना की कवयित्री रही हैं। आप झाँसी में जिला परिषद की सदस्या भी रही हैं। राष्ट्रीय भावना उनकी रचनाओं में कूट-कूट कर भरी हुई थी, उनकी “आवाहन” कविता की कुछ पंक्तियां देखिए-
“मां थोड़ा सा हमको बल दे, प्राणों में विद्युत चंचल दे।
विश्व चकित कर दें हम तुझसा, ओ मां भारत की अबलायें।
माँ कैसे हम तुझे बुलायें।”
पं. हरदास शर्मा “श्रीश” ग्राम सकरार झाँसी के निवासी थे, भारत वर्ष के अनेक कवि सम्मेलनों में आप अपनी राष्ट्रीय रचनाओं से प्रशंसित हुऐ हैं। आपकी रचनायें अनेक पत्र-पत्रिकाओं विशेषकर सुकवि में प्रकाशित होती रही हैं। कवि बुन्देलखण्ड भूमि की वन्दना करता हुआ कहता है-
“परिमाल, आल्हा, छत्रसाल से दिए हैं शूर, तू है वीर-भूमि दिव्य शक्ति उर-धारिणी ।
वेद-व्यास, तुलसी की, केशव की छाई कीर्ति, धन्य कवि भूमि, पुण्य प्रतिमा-प्रसारिणी ।।
रघुकुल-सूर्य, चित्रकूट में रमें थे यहीं, अति रमणीक तीर्थ, भूमि मोक्ष कारिणी ।।
“श्रीश” गुण गाऊं पढ़ चूम-चूम, झूम-झूम, हे बुन्देल-भूमि हिन्द मानस बिहारिणी ।।”
श्री रावत रामपाल सिंह चन्देल “प्रचण्ड” श्रीमती रामकुमारी चौहान के अनुज एवं श्रीमती राजरानी चौहान के अग्रज थे। उपनाम “प्रचण्ड” के अनुसार वे वीररस के ओजस्वी कवि रहे हैं। पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
“कवि समर अग्नि की ज्वाल दिखा, मत दीप शिखा का छेड़ गान ।
रहने दे नूपुर रुनझुन धुन, ले वीर गान की तीव्र तान ।।”
ब्रज भाषाचार्य सेवकेन्द्र त्रिपाठी (राम सेवक त्रिपाठी) झाँसी के निवासी थे। अनेक भाषाओं जैसे अंग्रेजी संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, अरबी, फारसी, बंगला, मराठी के आप ज्ञाता थे, विभिन्न भाषाओं में उनकी रचनायें लोकप्रिय हैं। आपने मीरा मानस, ताजमहल, सूरदास, छत्रसाल आदि अनेक खंड काव्य लिखे हैं। ब्रजभाषा में रचना करने में आप सिद्धहस्त थे। मीरा के विषपान का एक भावपूर्ण छन्द देखिए –
“नाचै लग्यौ पीय प्यालो कर में उमंग संग नाचन लग्यौ है विष अधर अंगारी आजु।
नाचन लगी हैं मीरा लगन मगन मन, नाचन लग्यौ है मोद मन के मंझारी आजु ।
नाचन लगे हैं शंभु विरुद बखान कर, स्वागत कौ नाचै सुर गगन बिहारी आजु ।
लोच भरे लोचन हू नाचें लगे प्याले मांहि, लोचन में सोच भरयौ नाचै गिरधारी आजु ।”
बुन्देली कवि स्व. श्री रामचरण हयारण “मित्र” सम्पादक प्रवर श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने मित्र जी को बुन्देली लोक संस्कृति का प्रतीक कहा है। उनके शब्दों में “मित्र जी शुद्ध अर्थों में जनपद जन हैं। अपने जनपद के पशु, पक्षी, नदी, सरोवर, वृक्ष तथा मानव से उन्हें प्रेम है, वृक्षों के विनाश से वे तिलमिला उठते हैं। अगर कोई नवीन प्रतिमा उनके सामने आती हैं तो वे प्रफुल्लित हो उठते हैं। व्यास (स्व. घासीराम व्यास) की कीर्ति रक्षा के लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। मित्र जी आजीवन बुन्देली भाषा एवं साहित्य की सेवा में तत्पर रहे। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- भेंट, सरसी, ओरछा दर्शन, साधना, लौलैया, गीतादर्शन, लोक गायनी, बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य, उदय और विकास आदि। देश के पत्रों एवं पत्रिकाओं में उनकी रचनायें प्रकाशित होती रही हैं।
बुन्देलखण्ड के प्रमुख साहित्यकार स्व. श्री गौरीशंकर द्विवेदी “शंकर” ने इस प्रखंड के अज्ञात एवं अल्पज्ञात कवियों का जीवन परिचय एवं कृतियों का विवरण अपने “बुन्देल वैभव” (तीन भाग) तथा अन्य अप्रकाशित, सुकवि सरोज (दो भाग) में दिया है। गीता गौरव, कामरूप कथा महाकाव्य, महारानी झाँसी वीरांगना लक्ष्मीबाई, ईसुरी प्रकाश, शंकर नवनिधि, बुन्देली लोक गीतकार आदि रचनायें प्रकाशित हैं। “गीता मानस ज्ञान “मंजरी” एवं नारी निष्ठा (सचित्र) में उनके जीवन व्यक्तित्व एवं कृतित्व का वर्णन है। आपके तीन सहस्त्र से अधिक शोध पूर्ण लेख प्रकाशित हो चुके हैं। आचार्य केशव, उनके पुत्र कविवर बिहारी दास और तुलसीदास विषयक शोधों द्वारा हिन्दी संसार को नवीन प्रकाश मिला है।
स्व. श्री हरिकेश मिश्र “हरिकेश” उत्कृष्ट पत्रकार, सम्पादक, समीक्षक, शोधकर्ता, कवि एवं साहित्यकार रहे हैं। महारानी लक्ष्मीबाई महाकाव्य बुन्देली भाषा में प्रकाशित हुआ है। “हरदौल” काव्य अप्रकाशित है। बहु संख्यक कवितायें आपने लिखी हैं। “बन्दो वर बुन्देलखंड, बुन्देली बानी में कविता अत्यधिक लोकप्रिय है। उनके महारानी काव्य ग्रंथ को उ.प्र. शोध संस्थान ने उनके मरणोपरांत पुरस्कृत किया है। स्व. हरगोविन्द गुप्त चिरगाँव की साहित्य साधना की पृष्ठभूमि इतनी विशाल है कि यहाँ उसका वर्णन करना संभव नहीं है। वे बुन्देली साहित्य के महारथी हैं। अनेक कृतियाँ प्रकाशित हैं।
झाँसी में साहित्यकारों, कवियों एवं शोध कर्ताओं की लम्बी सूची है। उनका साहित्यिक योगदान भी विशिष्ट उल्लेखनीय है। किन्तु यहाँ उनकी कृतियों का विवेचन करना संभव नहीं है, उन्हें मात्र स्मरण किया जा रहा है। इन कवियों एवं साहित्य सेवियों में पं. गोविन्ददास जिन्होंने साहित्य की सभी विधाओं पर सशक्त कलम चलाई है। श्री कृष्ण कथा मूल, प्रिया या प्रजा उनके उत्कृष्ट महाकाव्य है (डॉ. भगवान दास माहौर) जिन्होंने बुन्देलखंड के अज्ञात एवं अल्प ज्ञात साहित्य पर शोध कार्य करके उसे प्रकाशित कराया है तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास में उनका स्थान निर्धारित किया है। पं. मुंशी लाल पटैरिया “शशिधर” जिन्होंने बुन्देली गीत काव्य रामायण की रचना की है। अन्य कृतियों में पांचाली (महाकाव्य), एकांकी, संग्रह, कहानियां, बापू चरितामृत, वेश्यायन प्रकाशित हो चुकी हैं।
कन्हैया लाल शर्मा “कलश”, सम्पादक बुन्देली वार्ता, बुन्देली भाषा एवं साहित्य के उद्भट विद्वान, बुन्देली व्याकरण के लेखक तथा अन्य अनेक शोध पूर्ण पुस्तकों के रचयिता, कवि एवं साहित्यकार, अभिनव ईसुरी श्री ओम प्रकाश सक्सेना ‘प्रकाश’, (रणभेरी, देश की पुकार, प्रकाशित कृतियां, अनेक देश की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित, बुन्देली भाषा एवं साहित्य में रचना, फागों में जन जीवन का यथार्थ चित्रण) बुन्देली कवि श्री अवध किशोर’ अवधेश (श्रमणा शबरी के राम (महाकाव्य), अंजलि, ब्रजनन्दन, बुन्देल भारती, कविता बाला, नाटिका, वाटिका, श्री चित्रगुप्त, समय सुहावन गारी, श्याम सुधा, आधुनिक कीर्तन, मानस प्रवचन आदि प्रकाशित तथा बहुसंख्यक काव्य अप्रकाशित), बुन्देली के लोकप्रिय कवि स्व. श्री जगदीश सहाय खरे “जलज” का बुन्देली काव्य साहित्य में उत्कृष्ट स्थान रहा है, उन्होंने विशुद्ध बुन्देली में रचनायें की हैं। उसमें जन-जीवन का यथार्थ चित्रण हुआ है। उनका काव्य बुन्देली साहित्य की अपार निधि है।
झाँसी के अन्य उल्लेखनीय कवियों में सर्व श्री स्व. राम किशोर मिश्र “किशोर” घनश्याम दास गोस्वामी, रामभरोसे हयारण, “अभिराम, लक्ष्मी प्रसाद शुक्ल, “श्रीवत्स”, छोटे लाल हयारण “लाल”, स्व. कवि हीरासिंह, स्व. गौरीशंकर “गिरीश”, स्व. राजा राम रावत “पीड़ित, स्व. राजा राम साहू “विक्रम” राजीव सक्सेना, स्व. भगवानदास “दास” भौडेले आदि उल्लेखनीय हैं। वर्तमान में बुन्देली व खड़ी बोली के बहु संख्यक कवि काव्य रचना में संलग्न हैं, हाल ही में कुछ संकलन प्रकाशित हुए हैं, जिनमें इनकी रचनाओं के साथ जीवन परिचय भी है। श्रीमती रेखा सिंह हिन्दी काव्य जगत की उत्कृष्ट कवयित्री हैं, इनकी कविताओं के संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। इनके काव्य विकास पर पृथक् से विस्तार पूर्वक लिखे जाने की आवश्यकता है। इस प्रकार झाँसी जनपद की काव्य परम्परा उत्कृष्ट रही है, इसने हिन्दी साहित्य को प्रभावित किया है। इस पर सविस्तार समीक्षात्मक ग्रंथ तैयार किया जाना चाहिए।
“बांकुरे बुन्देलन के खंगन के खेल देख,
ससक सकाय शत्रु होत रन बोना से।
धन्य भूमि जहाँ वीर आनत न शंक मन,
तंत्र से न मंत्र से न जादू से न टोना से।
छीने छत्र, म्लेच्छन मलीने कर लीने यश,
कीने काम कठिन अनेक अन होना से।
जाके सुत होना सुठि लोना मृगराजन कौ,
हँस-हँस बाँध लेत मंजु मृग छौना से।”
– राष्ट्रकवि घासीराम व्यास