बलभद्र मिश्र
July 16, 2024रामसाह
July 16, 2024केशवदास
जन्म – सं. १६१२ वि. बुन्देलखण्ड (ओरछा) में
निधन – सं. १६७४ वि.
जीवन परिचय
रचना – रामचन्द्रिका, कविप्रिया, रसिक प्रिया, विज्ञानगीता, वीरसिंह जू देव, चरित जहॉंगीर जस चन्द्रिका, रतन वावनी, नखशिख, रामालंकृत मंञ्जरी आदि।
रचनाशैली – श्रृंगार, नायिका रूप, रति, गुण-दोष और रामकाव्य (रामचन्द्रिका) एवं वीर रस (रतन वावनी) का प्रयोग हुआ है। केशवदास वैसे श्रृंगाररस के प्रवर्तक कवि माने जाते है।
आचार्य केशवदास का जन्म सं. १६१२वि. में बुन्देलखण्ड में ओरछा के पं. काशीनाथ मिश्र के घर हुआ था। केशवदास ने अपना वंश का बखान इस दोहे में दिया है।
“सनाढ्य जाति गुनाढ्य है, जगसिद्ध शुद्ध सुभाव।
सुकृष्णदत्त प्रसिद्ध है महि मिश्र पंडित राव।
गणेश सो सुत पाइयो बुध काशीनाथ अमाघ।
अशेष शास्त्र विचारि कै जिन जानियों मत साध।
उपज्यो तेहि कुल मंदमति शठ कवि केशव दास।
रामचन्द्र की चन्द्रिका भाषाकरी प्रकाश ।”
इससे स्पष्ट हो जाता है कि पं. कृष्णदत्त दादा और पं. काशीनाथ मिश्र इनके पिता थे। इनका परिवार ओरछा में ‘दरबारी’ कवि के रूप में रहा और सम्मान पाता रहा। केशवदास ने गुरुपद को इस पद में स्वीकार किया –
“गुरु करिमान्यो इन्द्रजीत तनमन कृपा विचारि।
ग्राम दये इक बीस तब, ताके पांच परवारि ।।”
यही नहीं केशवदास ने ओरछा जन्म भूमि को धरती पर धन्य माना है –
“नदी बेतवा तीरजहं तीरथ तुंगारण्य।
नगर ओरछा महुँ बसै, धरती तज में धन्य ।
दिन प्रतिजहं दूनो लहे जहॉं दया अरुदान।
एक तहां केशव सुकविजानत सकल जहान।। “
उपासना काल में भक्ति प्रधान काव्य की रचना को एक चुनौती रूप में स्वीकार करते हुये आचार्य केशव ने ‘राम-चन्द्रिका’ जैसे महाकाव्य की रचना की। वैसे अपने आश्रित महाराजाओं की प्रशंसा में इन्होंने रति श्रृंगार काव्य की रचना की है। किन्तु राम काव्य में संस्कृत एवं बुन्देली मिश्रित काव्य से कविता में ओज, माधुर्य तथा भाव व्यंजना के दर्शन भी इनके काव्य में होते है। भाषा में ओज का दृगदर्शन धनुष-भंग की काव्यरचना में बड़े सुन्दर ढंग से निरूपित हुआ है –
“प्रथम टंकोर झुकि झारि संसारमद,
चण्ड को दण्ड रहयो मंडिनव खंड को ।
चालि अचला थालि दिगपाल बल,
पालि ऋषिराज के बचन पर चण्ड को।
सोधु दै ईस को बोधु जगदीश को,
क्रोध उपजाय भृगुनन्द वीरखण्ड को।
बांधिकर, स्वर्ग को, सिधि अपवर्ग, धनु,
भंग को शब्द गयो भेदि ब्रह्माण्ड कौ।”
यही भाव तुलसी की कवितावली में तुलनीय है –
“डिगति उर्वि, अति गुर्वि, सर्व पब्बै समुद्र-सर।
ब्याल बधिर तेहिकाल, बिकल दिगपाल चराचर।।
दिग्गचंद लरखरत परत दसकंधु मुख्ख भर।
सुर-विमान हिमानुभानु संघटत परसपर।।
चौके विरंचि संकर सहित, कोलुकमठ अहि कलमल्यौ।
ब्रह्मांड खंड कियो चंड धुनिज बहि राम सिव धनु दल्यौ।।”
कविवर ‘केशवदास’ भाषा के पंडित और श्रृंगार रस के प्रणेता थे। कविता के नव रसों में श्रृंगार को उन्होंने प्रधानता दी है। वैसे अपने काव्य में आचार्य केशवदास ने सभी रसों, विधाओं, काव्यलंकारों का किन्तु रसराज श्रृंगार को उन्होंने रसों का नायक माना है। यही उनके इस काव्य में देखने को मिलता है –
“नबहूँ रस को भावहू,
तिनके भिन्न विचार।
सबकौ ‘केशवदास’ कहि,
नायक है सिंगार।”
इसमें बुन्देली भाषा की मिश्रित पुट देखने को मिलती है। आचार्य केशवदास ने गतागत की कितनी सुन्दर परिभाषा की है जो इस पदावली में दृष्टव्य है।
” उल्टौ सूधौ बांचिए,
एकहि अर्थ प्रमान।
कहत गतागत ताहि कवि,
केशवदास सुजान।”
काव्य में उपमा उपमेय और नायिका भेद का वर्णन आवश्यक माना गया हैं। इसका एक सुन्दर उदाहरण कवि केशवदास के काव्य में मुग्धा नायिका भेद दर्शनीय है –
“कनक छनी सी कामिनी,
काये कटि सौं छीन ।
जो कुच कंचन के बने
मुख कारौ किहि कीन ?”
यह छंद वास्तव में आचार्य केशव ने अपनी शिष्या राय प्रवीण की काव्य परीक्षा लेने हेतु रचा था। कवि प्रिया (शिष्या) राय प्रवीन ने इसका उत्तर अपने आचार्य को उनकी ही भाषा में इस प्रकार दिया था –
“कटि कौ कंचन काढि कै,
कुच नितम्ब भर दीन।
जोबन ज्वर के जोर में,
मदन मुहर कर दीन।”
कवीन्द्र केशवदास सौन्दर्य और गुण वर्णन के अद्वितीय चितेरे रहे। उन्होंने इसी सौन्दर्य और गुण वर्णन का अपनी कविप्रिया में कितनी सुन्दरता से चित्रित किया है –
” राय प्रवीन की सारदा
सुचि रुचि रंजित अंग।
बीना पुस्तक धारिनी,
राज हंस युत संग।
वृषभ बाहिनी अंग युत,
वासुकि लसति प्रवीन।
सिव संग सोहे सर्वदा,
सिवा कि राय प्रवीन।”
यही साहित्य विकास के चरणों से समय की परिधि से आगे चलता श्रृंगार काल के साहित्य का आधार बना। किन्तु दैहिक सुन्दरता का निखार अलंकारों से द्विगणित हो जाता है। यही भाव कवि ‘केशवदास’ ने इस काव्य में दिये है –
“जदपि सुजाति सुलच्छन,
सुवरन सरस सुवृत्त ।
भूषन बिनु न राजहि,
कविता, वनिता, भित्त।”
काव्य बिना अलंकारों के और नारी बिना आभूषण (अलंकारों) के सुन्दर नहीं माना जा सकता। यही कवि का मानना है। किन्तु प्रकृति और नारी सौन्दर्य का प्रशंसक अपने अंतिम समय में कहने को विवश हुए –
“केशव केसनि असकरी
जस अरिह न करहि।
चन्द्र बदनि मृग लोचनी
बाबा कहि कहि जाहि।”
आचार्य केशव का निधन सं. १६७४ वि. में हुआ। सौन्दर्यानुभूति और संवेदनात्मक आत्मानुभूति दोनों का सुन्दर समन्वय यहॉं हुआ है। यही भाव आगे के श्रृंगार काल के काव्य में देखने को मिलेंगे।