बुन्देली लोक नाट्य का उद्भव-काल (1000-1400 ई.)
August 12, 2024लोक चेतना का पुनरूत्थान (1841-1910 ई.)
August 12, 202413वीं शती तक चन्देलों के राज्य में यह प्रदेश शान्त रहा, लेकिन 14वीं-15वीं शती में विदेशी आक्रमणों से बिखरने लगा था। तभी ग्वालियर पर तोमरों का अधिकार हो गया और लगभग एक सौ वर्ष साहित्य और कला की प्रगति के लिए उल्लेखनीय रहे। तोमरनरेश डूँगरेन्द्रसिंह (1424.54 ई.) और मानसिंह (1486-1516 ई.) के समय कविवर विषणु दास और संगीतकार बैजू बावरा द्वारा विष्णु पदों और ध्रुवपदों की रचना तथा उनकी गायकी की प्रतिष्ठा कला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण थी।
देसी संगीत के आन्दोलन ने लोककलाओं और लोकाभिनय को प्रोत्साहन दिया। दूसरा आन्दोलन था भक्ति-आन्दोलन, जिसने उस समय की अनुकूल परिस्थिति में लीलापरक लोकनाट्यों का विकास किया। रासलीला का लोकरूप ब्रज से प्रभावित होकर जन्मा और रासलीला का भी विकास हुआ। मध्यकालीन बुन्देलखंड में रियासतें ही थीं, कुछ मुगलों के अधीन और कुछ स्वतन्त्र।
सामन्तवाद और दरबारीपन दोनों में था, इस लिये राई लोकनृत्य का प्रचलन अधिक लोकप्रिय हुआ और भोगलिप्सु सामन्तों तथा रसिक जनता ने उसे बहुत प्रश्रय दिया। मनोविनोद और चुहलबाजी के लिए विदूषक जैसे पात्र उससे जुड़ गए। इस प्रकार वह नृत्यपरक लोकनाट्य में परिवर्तित हो गया। विदेशी संस्कृति की प्रतिक्रिया बौद्धिक मस्तिष्क से लोकचेतना में आई और स्वाँग लोकनाट्य में व्यंग्यप्रधान होकर अभिव्यक्त हुई। इस कारण आदिकालीन स्वाँग अब काफी चुटीला हो गया और लोकचेतना को झकझोरने के लिए यह अनिवार्य भी था।
मध्ययुग की देन नौटंकी लोकनाट्य थी, जो तत्कालीन विलासितापरक वातावरण और पर्सियन शैली के नाटकों से जन्मी थी। दूसरे जनपदों में उसे भगत, स्वांग और संगीत कहा जाता है, पर बुन्देली प्रदेश में भगतें देवी के भजन हैं, जबकि स्वाँग नौटंकी या संगीत से बिल्कुल भिन्न है। यहाँ नौटंकी सम्भवतः हाथरस से आई और बुन्देली रंग से रंजित होकर प्रचलित हुई। उसमें भाषा का खड़ापन और उर्दुआना अन्दाज वैसा ही रहा, केवल स्वर बुन्देली का हो गया था।
ग्वालियर के तोमरों के आश्रित रचे गए कथाकाव्यों में प्रमुख ‘छिताई कथा’ (1516 ई. के लगभग) के कई स्थलों में अखाड़े का वर्णन मिलता है। विश्णु दास की कृति ‘महाभारत’ (1435 ई. के लगभग) से लेकर बोधा कवि के प्रबन्ध ‘विरह वारीश’ (संवत् 1812 अर्थात् 1755 ई. के लगभग) तक तीन सौ वर्षों के ग्रन्थों में अखाड़ों का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि मध्ययुग में अखाड़ा एक लोकप्रिय संस्था थी।
काव्य, संगीत, नृत्य, नाटक आदि ललित कलाओं की प्रतियोगिता और प्रदर्शन के सर्वमान्य मंच ये अखाड़े राज्याश्रित और लोकाश्रित थे। छिताई कथा के छन्द 210 से स्पष्ट है ‘नित नवरंग अखारे होई। नट-नाटक-आवई सब कोई।।’ नट तो लोकनाट्य का प्रमुख पात्र था। अखाड़ों के नाटक लौकिक प्रेम से अधिक जुड़े थे। उनमें मनोविनोद और दरबारीपन का प्रभाव था, लेकिन धार्मिक नाटक भी मंचित होते थे।
प्रेम-श्रंगार-परक लोकनाट्यधारा के साथ धार्मिक या भक्तिपरक लोकनाट्यधारा भी चलती रही। सगुण भक्ति के लोकनाट्य अधिक थे, निर्गुनिया कम। निर्गुनियों में अब काँड़रा लोकनाट्य ही शेष है। काँड़रा पहले लोकनृत्य था, जो निर्गुनिया भजन पर होता था। बाद में आख्यानक होने पर वह लोकगीतनाट्य बन गया तथा काफी लोकप्रिय हुआ। ग्वालियर के निकट बरई गाँव से मानसिंह तोमर ने ‘राछ’ नामक रंगशाला बनवाई थी । तत्कालीन कवि खड्गसिंह ने अखाड़े का निर्माण भी इसी जगह बताया है…..
‘पर्वत घाटी बाँधी जहाँ, खेले भूप अहेरैं तहाँ।
डाँग बँधाई महल जु भए, तहँ तहँ भूप अखारैं ठाए।।’
‘राछ’ शब्द ‘रास’ से निकला है। इस वन्य प्रदेश की रंगशाला में लोकनाट्य ही खेले जाते थे। ‘भँड़ैती’ भी इस युग में सर्वप्रिय लोकनाट्य थी। वैसे आदिकाल में उसकी मौजूदगी के संकेत मिलते हैं, पर उसे उतना विकास नहीं मिल सका, क्योंकि उस समय का सांस्कृतिक परिवेश उसके लिए उतना उपयुक्त नहीं था जितना मध्ययुग का। मध्ययुग की दरबारी संस्कृति में वह पल्लवित-पुष्पित हुआ। आचार्य केशव की ‘रामचन्द्रिका’ में भँड़ैती के द्वारा भाँड़ों के सम्मान पाने का उल्लेख इस तथ्य का साक्षी है कि 17वीं शती में लोकनाट्य उत्कर्ष पर था।