
आधुनिक काल (1911-1986 ई.)
August 12, 2024
“दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी चरखारी” से “दी जय हिन्द थियेट्रिकल कंपनी तक”
August 12, 2024लोकनाट्यों का वर्गीकरण कई दृष्टियों से किया जा सकता है, लेकिन यहाँ बुन्देली के सात प्रमुख रूपों की क्रमबद्धता उनके विकास के आधार पर निश्चित की गई है। स्वाँग सबसे प्राचीन है क्यों कि बुन्देली के जन्म से जुड़ा है। राई लोकनृत्य के रूप में मध्ययुग से शुरू का है और लोकनाट्य के रूप में भी शेष नाट्यरूपों से पहले प्रचलित हुआ है।
भक्ति-आन्दोलन से प्रेरित रासलीला- रामलीला के बाद की है। इतना अवश्य है कि रासलीला के अनुकरण पर रामलीला की नई शैली प्रारम्भ हुई है। काँड़रा लोकनृत्य सगुण भक्तिपरक लीलाओं के समानान्तर उनकी प्रतिक्रिया मे जन्मा, पर लोकनाट्य के रूप में बाद में विकसित हुआ। भँड़ैती स्वाँग का ही अंकुर है जो ‘भाण’ के रूप मे चन्देल-कालीन रूपककार वत्सराज के ‘कर्पूर-चरित’ मे दिखाई पड़ता है।
मध्ययुग के सामन्ती परिवेश मे महफिली हास-परिहास से भाँड़ों का मसखरापन और नकल प्रचलित है। 18वीं-19वीं शती की दिल्ली और अवध की महफिलों मे भाँड़ों का बहुत जोर रहा जिससे पूरा उत्तर भारत प्रभावित हुआ। नौटंकी 20वीं शती के प्रारम्भ मे यहाँ प्रचलित हुई और किसी नए नाट्यरूप की उद्भावना नहीं हुई।
बुन्देलखण्ड में प्राचीनकाल में चरखारी पारसी थियेटर का केंद्र रहा है। संस्कृत नाटककार भवभूति के नाटकों का मंचन कालपी के निकट कालप्रियनाथ मन्दिर की विशाल रंगशाला में हुआ करता था । भवभूति ने ‘उत्तर रामचरितम्‘ की प्रस्तावना में स्वंय स्वीकार किया है कि कालप्रियनाथ-यात्रा के समय कालप्रिय नाथ मंदिर की रंगशाला में उनके नाटकों उत्तर रामचरितम्, मालती माधव तथा महावीरचरितम् का प्रथम मंचन हुआ था।