
करगुवाँ जी
July 25, 2024
ललितपुर
July 26, 2024स्थिति
उ.प्र. के झाँसी से ललितपुर जाने वाले बस मार्ग पर बेतवा नदी के पास पवा नामक ग्राम से तीन कि.मी. पूर्व में यह जैन तीर्थ स्थित है। पावागिरि या पवा जी, झाँसी से 45 कि.मी. और ललितपुर से भी लगभग 45 कि.मी. की दूरी पर है। बस मार्ग के अतिरिक्त रेल से पावागिरि पहुँचने के लिये मध्य रेलवे के बसई स्टेशन से 13 कि.मी. और तालबेहट से 13 कि.मी. दूरी पार कर भी यहाँ पहुँचा जा सकता है।
इतिहास
यहाँ बावड़ी की खुदाई में प्राप्त एक मूर्ति के अभिलेख में वि.सं. 299 और तीर्थ का नाम ‘पावा’ उत्कीर्ण है। जिससे इस क्षेत्र की प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है। यहाँ के एक प्राचीन भोंयरे में उपलब्ध मूर्तियों में एक मूर्ति पर सं. 1299 और चार पर सम्वत् 1345 उत्कीर्ण है। यह क्षेत्र लगभग दो सौ वर्ष पूर्व प्रकाश में आया है।
अतिशय एवं सिद्धता
मूल पावागिरि के लिये निर्वाण कांड की यह गाथा शास्त्रोक्त है-
पावागिरिवर सिहरे सुवव्ण भद्दाई मुणिवरा चउरो।
चलणाणई तडग्गे णिव्वाण गया णमों ते सिं ॥
जिसका हिन्दी भाषाकृत निर्वाण काण्ड में इस तरह उल्लेख है-
स्वर्णभद्र आदि मुनिचार, पावागिरिवर शिखर मझार।
चेलना नदी तीर के पास मुक्ति गये बन्दों नित तास ॥
के अनुसार, पावागिरि नाम की पहाड़ी से, जिसके निकट चेलना नदी प्रवाहित है स्वर्ण भद्र आदि मुनिवर मुक्ति को प्राप्त हुये और इसी निर्वाण के कारण यह पावन सिद्ध तीर्थ माना जाता है।
यद्यपि यह अभी विवादग्रस्त है कि असली पावागिरि सिद्ध तीर्थ यही (पावा) है अथवा निमाड़ क्षेत्र का जैन तीर्थ ‘ऊन’। इसीलिये इस पवा की उतनी उन्नति नहीं हो सकी जितनी सामाजिक मान्यता प्राप्त दूसरे पावागिरि तीर्थ के नाम से ‘ऊन’ की।
गाथा/किंवदन्ती
एक ग्रामीण गाथा पवा में प्रचलित है जिसके अनुसार यहाँ स्थित ‘भूरे बाबा के चबूतरा’ में जो छिद्र हैं उसमें एक विशालकाय श्वेत नागदेव कभी कभी निकलते थे। प्रचलित किंवदन्ती के अनुसार एक बार जैन धर्मावलम्बी दो नायक अपनी बारातों सहित शादी करने जाते हुए संयोगवश यहीं एक साथ रुके, रात्रि में आपसी मनोविनोद में क्लेश हुआ और प्रातः ज्ञात हुआ कि वे दोनों नायक मारे गये। जैन मत के अनुसार उन दोनों ने व्यंतर योनि पाई। एक को सर्प की योनि प्राप्त हुई और उन्हीं के नाम पर एक यह भूरे बाबा का चबूतरा कहलाता है एवं दूसरे रमतूला बाबा का भी स्थान यहाँ नियत है। इसलिये आस- पास के रूढ़िवादी नर-नारी अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु कभी कभार यहाँ आते रहते हैं।
पुरातत्व
यहाँ ‘सिद्ध की पहाड़ी’ एवं ‘पावा की पहाड़ी’ के मध्य बेलना नदी, (कहलाता यह बेला नाला था) जिसे स्थानीय जैन, पौराणिक नदी ‘चेलना’ ही मानते हैं, के तट पर यह तीर्थ अवस्थित है। बुन्देलखण्ड में सात प्राचीन भोंयरे (भू-गृह) प्रसिद्ध हैं जो क्रमशः देवगढ़, सेरोन, करगुवाँ, चंदेरी, थूवौन, पपौरा और एक इसी पावागिरि में विद्यमान हैं। यहाँ के, लगभग 4×5 फुट प्रवेश द्वार वाले 1800 वर्ष प्राचीन भोंयरे में, द्वितीय प्रवेश द्वार के बाद लम्बे गर्भगृह में दो फुट ऊँची बेदी पर काले तेलिया पत्थर की तीन प्रतिमायें सामने और तीन बायीं ओर स्थित हैं। सामने की मूर्तियों में तीर्थकर पार्श्वनाथ की 35 इंच ऊँची, आदिनाथ की 37 इंच और तीसरी तीर्थंकर संभवनाथ की लगभग 24 इंच ऊँची हैं। इन पर अपभ्रंश भाषा में सम्वत् 1199 और 1345 के अभिलेख पार्श्व में अंकित हैं। बायीं ओर तीर्थंकर नेमिनाथ की 25 इंच ऊँची सम्बत् 1345 की, मल्लिनाथ की 19 इंच ऊँची सम्वत् 1299 की तथा तीसरी तीर्थकर जितनाथ की 22 इंच ऊँची संवत् 1345 की भव्य मूर्तियाँ दर्शनीय हैं। यह छहों मूर्तियाँ पद्मासन अवस्था में स्थापित हैं। इस गर्भ गृह के सामने क्षेत्रपाल (श्रितपाल) जी की मढ़िया है। अन्य मूर्तियाँ सम्वत् 299 से लेकर 1345 तक की कालावधि की हैं। यहाँ एक प्राचीन ‘पुर’ के अवशेष, नायक की गढ़ी के खण्डहर, परकोटा, बुलन्द दरवाजा, द्वारपाल, कक्षावशेष, वावड़ी आदि, इतिहास के अनेक रहस्य छिपाये हुये हैं। गढ़ी का निर्माता महाराज वृशिंक देव का एक प्रिय नायक था। कुछ लोग इस गढ़ी को किसी विशाल जिनालय का ही अवशेष मानते हैं। वृशिंक देव वानपुर के किन्ही नरेश का नाम था जिनके अन्तर्गत इस पावापुर तीर्थ के निकट का तालबेहट भी आता था।
नये निर्माण में तीन मंदिर और एक मानस्तम्भ जुड़ा है। इनमें श्वेत मंगमरमर की बाहुबलि और महावीर स्वामी, शांतिनाथ व चन्द्रप्रभु की भव्य और आकर्षक मृतियाँ हैं। वर्तमान में क्षेत्र का काफी विकास हुआ है। दाँयी और सिद्ध गुफा नामक मंदिर है, इसमें एक बड़े शिलाखण्ड पर चार मुनियों के चरण चिन्ह अंकित है। स्वर्ण भद्र आदि मुनियों के यही चरण चिन्ह वताये जाते हैं।
पं. सागरमल जैन वैद्य विदिशा ने अनेक प्रमाण देते हुये कभी यह सिद्ध करने का श्रमपूर्ण प्रयास किया था कि पौराणिक पावागिरि यही पवा है न कि वर्तमान ऊन-तीर्थ ।