श्री जगदीश झा
September 16, 2024श्री रामभरोसे हयारण ‘अभिराम’
September 16, 2024जन्म – 14 अक्टूबर सन् 1922
जन्म स्थान – फुटेरा ग्राम (झाँसी)
जीवन परिचय – आचार्य केशवदास के वंशज, अनासक्त साहित्य – सेवी पं. द्वारिकेश मिश्र का जन्म फुटेरा ग्राम (झाँसी) में सन् 1922 के 14 अक्टूबर को हुआ था। आपके पिता स्वनामधन्य पं. तुलसीदास मिश्र थे। आपने पाठशालीय शिक्षा कक्षा 4 तक ही प्राप्त की है किन्तु स्वाध्याय से संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी एवं उर्दू का यथेष्ट ज्ञान अर्जित किया जो इन विषयों के शोध स्तर से कम नहीं। श्री द्वारिकेश जी ने अनेक उत्कृष्ट अभिनन्दन ग्रन्थों के अतिरिक्त कई साप्ताहिक एवं दैनिक समाचार विचार पत्रों का सम्पादन किया है। अनेक गद्य – पद्य ग्रन्थों की विवेचनापूर्ण भूमिका लिखी है। आकाशवाणी के विविध केन्द्रों से आपकी कविताएँ तथा विभिन्न विषयक अनेक महत्वपूर्ण वार्ताएँ प्रसारित हुई हैं। आपका प्रचुर काव्य एवं कला – साहित्य समय – समय पर विभिन्न पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करता है। गाँधीवादी विचारधारा से उत्प्रेरित समाज – सेवा एवं कांग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में भी आपकी सेवाएँ अविस्मरणीय हैं। श्री द्वारिकेश जी मिश्रा ने बुंदेली महाकाव्य ‘बुँदेलिन’ का प्रणयन किया है जो अभी प्रकाशनाधीन है।
श्री मिश्र जी ने श्रीराम प्रेस, झाँसी के माध्यम से हिन्दी साहित्य की जो सेवा की है उसे भुलाया नहीं जा सकता है। हिन्दी – साहित्य की विभिन्न विधाओं से सम्बद्ध रचनाएँ जो आपके मुद्रणालय में मुद्रित होती हैं उनमें आप प्रूफ सम्बन्धी अशुद्धियों एवं लेखकों की वर्तनी से सम्बद्ध त्रुटियों का ही निराकरण नहीं बल्कि उन्हें भाषा – शैली तथा भावगत अनेक गुणों से उत्कृष्ट भी कर दिया करते हैं जो उनकी उदारता का परिचायक है। विख्यात तुलसी – पीठ, कासगंज (उ.प्र) ने विशिष्ट साहित्य सेवा के उपलक्ष्य में उन्हें ‘विद्यावारिधि’ की सम्मानोपाधि भेंट की है।
बुंदेलखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों से बुंदेली एवं हिन्दी के जो विद्वान उनसे परामर्श, संशोधन हेतु आया करते हैं उन्हें वे यथेष्ट समय एवं उचित सुझाव देकर सर्वथा लोकैषणा से दूर अनासक्त भाव से हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि किया करते हैं जो आज के युग में असंभव नहीं तो दुर्लभ तो अवश्य है।
द्वारिकेश जी कृत आलोचनाओं, पुस्तकों की भूमिकाओं, कहानी इत्यादि में उनकी गद्य – शैली के दर्शन होते हैं जो अत्यन्त प्रौढ़, संयत एवं प्रांजल हैं। उनका वाक्य गठन सुगठित तथा सम्बद्ध है। मिश्र जी ने बुंदेली तथा खड़ी बोली दोनों में काव्य रचना की है और इन दोनों में ही उनकी पूरी पैठ है। उनकी काव्य – भाषा विषयानुकूल भाव – संपृक्त तथा प्रवाहपूर्ण है। उनके बुंदेलिन महाकाव्य में बुन्देली संस्कृति के सभी अंगों की सुन्दर झलक देखने को मिलती है। उसकी भाषा ठेठ बुँदेली के शब्दों से शब्दों से संपृक्त अवश्य है किन्तु सामान्य बुंदेली समझने वाले को भी अग्राह्य नहीं। द्वारिकेश जी की खड़ी बोली की रचनाओं में हिन्दी का एक परिष्कृत एवं प्रौढ़ स्वरूप सामने आता है। जिसमें फारसी, अरबी के शब्दों का आश्रय प्राय: नहीं लिया है। मिश्र जी के काव्य में श्रृंगार, वीर एवं शान्त रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। उनकी अलड्कार योजना भी भावाभिव्यंजक तथा आकर्षक है।