बुन्देलखण्ड में वैदिक काल से यज्ञ (हवन) का महत्व रहा है। हवन नित्य प्रतिदिन सभी घरों में अवश्य होता रहा है। इसका सामाजिक स्वास्थ्य में घर, ग्राम, नगर, प्रदेश, देश की वायु शुद्धि रहे यह कल्पना रही है। इसे व्यापक प्रोत्साहन भी नित्य-प्रतिदिन सभी जनमानस एक दूसरे को देते रहे हैं। हवन का विशाल रूप यज्ञ रहा है। यज्ञ के पर्याय-अग्निहोत्र, इष्टि, होम, ताग, यज्ञ, हवन आदि शब्द सर्वसाधारण यज्ञों के लिए प्रयुक्त होते हैं। यद्यपि ज्योतिष्टोमयाग, दर्शपौर्णमासयाग, अश्वमेघ यज्ञ, बाजपेय यज्ञ, राजसूय यज्ञ, अग्निहोत्र आदि नाना प्रकार के साधारण व विशिष्ट यज्ञों का वर्णन ब्राह्मण ग्रन्थों, श्रौतसूत्रों तथा गृह्यसूत्रों में विविध-विधानपूर्वक प्राचुर्येण मिलता है। ग्राम स्तर अथवा शहरों में भी सूक्ष्म रूप से साधारण सा यज्ञ या हवन निरंतर होना पाया जाता है।

                  वायु का दूषित होना एवं इससे शुद्ध करने का एकमात्र पुरातन अनुष्ठान था। मनुष्य देह से उत्पन्न अपान वायु, प्रस्वेद, मूत्र, पुरीष, श्वास, शिंगघाण, ष्ठीवन आदि से निवासस्थान की छत, फर्श व भित्तियां शनैः शनैः दोषों को एवं कीटाणुओं को अपने अन्तस्तल में सुरक्षित करती रहती हैं। तन्निवारणार्थ तुत्थ मिश्रित चूने के विषनाशक जल से सारी दीवारों की पुताई की जाती है। बाह्य वातावरण को दूषित करते हैं उसकी शुद्धि हवन के वाष्प व धुऐं के द्वारा की जाती है। दूषित वायु से स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है। अतः वायु शुद्धि के लिए हवन एक अत्यंत प्राचीन सर्वोत्तम विधि थी।

हवन हेतु सामग्री – छरीला, तालीसपत्र, तेजपात, शीतलचीनी, अगर, तगर, गूगल, चन्दन, मलयागिरी, पुष्पकरमूल, दालचीनी, तुम्बरु बीज, खस, बालछड़, नागरमोथा, इलायची दोनों, कपूर कचरी, पानड़ी, बावची, गिलोय, बायबिडंग, देव-दारू इन सबको 100-100 ग्राम समभाग लें। इनमें से गूगल, बालछड़, चंदनचूरा असली श्वेत, तुम्बरू बीज और तगर 300-300 ग्राम लेकर कूट लें। इसमें कपूर, केसर, जावित्री, जायफल और लबांग हवन करते समय थोड़ा-थोड़ा मिला लें। केशर को आहुति घृत में मिला दें। सामग्री को बन्द डिब्बों में सुरक्षित रखें। यज्ञ करते समय इसमें शुद्ध घृत, बूरा, मेवा आदि मिलाकर प्रातः सायं अग्निहोत्र करें।

हवन कुण्ड – ताम्बा, चांदी, पीतल, लोहा आदि धातुओं या मिट्टी का बना हुआ अथवा भूमि को खोदकर बनाना चाहिए। कुण्ड का ऊपरी भाग 1 फुट, नीचे पेंदी में चौथाई अर्थात तीन इंच चौड़ा और ऊंचाई भी 1 फुट होना चाहिए।

यह रिवाज बुन्देलखण्ड में रहा। हवन में उपयोगी संमिधायें की प्रथा भी बुन्देलखण्ड में थी इनमें- आम, गूलर, पीपल, बड़, देवदार, चीड़, चन्दन, ढाक, पिलखन की सूखी लकड़ियां को उक्त कुण्ड में डालकर हवन यज्ञ किये जाते थे।

हवन जीवाणु जनित रोग एवं उपचार के लिए धुंआ एवं गंध रामबाण जैसा कार्य करती है। गुणवत्तायुक्त पूर्ण सामग्री एवं औषधियों से किया गया हवन हमारे आसपास के वातावरण में सभी प्रकार की जीवाणुओं को खत्म करने की शक्ति रखता है। यह वैज्ञानिकी तौर पर सिद्ध हो गया है तथा पेटेंट भी चुका है कि रोगकारक बैक्टीरिया पर हवन का धुंआ असरदार है।

बुन्देलखण्ड में यज्ञ हवन का देवी के प्रति समर्पण, विवाह, यज्ञोपवी, विभिन्न कथाओं, भागवत, सत्यनारायण कथा एवं अन्य पूजनों में अद्यतन भी पूर्ववत स्थापित है। यह वायु शुद्धि, आत्मा शुद्धि, आध्यात्मिक शुद्धि एवं अपनी इच्छाशक्ति को मजबूत रखने की एक शैली भी रही है। पूजन के प्रति परिवारों, माताओं, बहिनों, युवाओं, बच्चों में एक गंभीर ज्ञान बचपन से ही पिरोया जाता रहा है। यह एक स्वस्थ, दीर्घायु एवं सुडौल प्रक्रिया घर-घर में रही है। इसलिए बुन्देलखण्ड महान रहा है।

हवनों का महत्व –

जो गूगल का हवन करावें। क्षय के कीटाणु न आयें।

धुंआ गरि जेहिं घर मायें। तब मलेरिया नहीं आवें।।

क्वांर करेला कातक दई, मरहों नहीं तो परहो सई।