संस्कृत साहित्य को बुन्देलखण्ड की देन
June 17, 2024पारिवारिक लोक नृत्य
June 24, 2024आम तौर पर सभी नृत्य सार्वजनिक एवं सामाजिक होते हैं। इन सामाजिक नृत्यों में मनुष्य का व्यक्तिगत लाभ, प्रतिष्ठा जैसी भावनायें आदि सम्मिलित नहीं रहती है। वरन् इन नृत्यों से समाज का प्रत्येक वर्ग आनन्दित होता है और उमंग से भरकर उत्साहित होता है। इन नृत्यों में सामाजिक भावना का समावेश होता है। ये नृत्य सरल, सर्वगम्य सर्वसुलभ होने के साथ स्वसृजित होते हैं। इनमें अप्रयत्नशील सरलता होती है और इनके विविध रूपों में एकरूपता झलकती है। ये नृत्य जीवन की परम्पराओं, अनेकों संस्कारों तथा उनके अध्यात्मिक विश्वासों पर आधारित होते हैं। ये नृत्य नियमों में बँधे नहीं होते हैं तथा सामूहिक रूप से नृत्यित किये जाते हैं। बुन्देली सामाजिक नृत्य कई प्रकार के होते हैं।
सैरा नृत्य
सावन, भादों के माह में जब धीमी धीमी बूंदें गिरती हैं और खेतों में कोई काम नहीं होता तब गांव के पुरुष जन मिल बैठते हैं। सैरा नृत्य पुरुष प्रधान नृत्य है। इस नृत्य में सभी पुरुष जन अपने-अपने हाथों में लकड़ी की छोटी डंडियां लेकर बजाते हैं तथा मण्डलाकार द्विपंक्तिकार तथा युगलाकार में डंडियों की एक साथ मिली जुली ध्वनि से थाप सर्जना करते हुये गाते हैं
साउन सुहानी अरे मुरली बजे, भादों सुहानी मोर।
टिरिया सुहानी जबई लगे, ललुआ झूलै पौर के दौर।।
इस नृत्य को कतकिया या राई दामोदर नृत्य भी कहते हैं। इसकी गायिकी भी तान खींचकर की जाती है। इस गायिकी में सामाजिक कटु सत्य की सुन्दर ढंग से विवेचना भी होती है और नृत्य के समय केवल दो पंक्तियॉं ही गायी जाती है। यथा –
पहले लिबुआ अरी बहु जात है, करिया काट गओ गैल।
कै दुख रे लुहारी संसार कै, कै मिलें बलम नादान।।
ऊँची अटरियों ओ गोरी चढ़ गई लै बेला में तेल।
छोटे देख रे जब बालम, कहुँ ठाड़े भटक दय तेल।।
पाई
पाई पद रौली में मिलता है जब सैरा गाते हुये नृत्य की गति बढ़ती है तब इसे गाया जाता है। इसके गाते ही नृत्य की छवि मनमोहक हो उठती है। नृत्य करते लोगों की भाव भंगिमाओं से मन मयूर नृत्य करने लगते हैं। पाई पद के शब्द निम्नवत् हैं –
बही जाऊँ मोरे राजा हिलारों में, मरी जाऊँ मोरे राजा मरोरों में।
फरबन फरबन आ गई नरबदा पिड़री भींजै हिलोरों में।
जंघियन जंघियन आ गई नरबदा, करहन भींजै हिलोरों में।
करहन करहन आ गई नरबदा, छतियें भीजें हिलोरों में।
मरी जाऊँ जार्मोरे राजा हिलारों में।
रैया
इसे बुन्देलखण्ड की नारियां अपने कोकिला कंठ से कजली के दिन नृत्य करते हुये गाती हैं –
घरर घरर नदियां बहे, अरै रैया, गोरी धन माहो अन्हाय,
काहे की सिल सपरय भई, काहैं कै जल स्नान,
सुले की सिल सपरय भई, अरै मैय्या गंगा के जल स्नान,
सपर खोर ठांड़ी भई अरै रैया सूरज की रख लैया,
सूरज देवता तुम्ही बड़े अरै रैया तुम से बड़ोरे नइयां कॉय।
सैरा नृत्य के चतुर्थ चरण में राक्षरों की गायिकी भी होती है।
सैरा नृत्य के पंचम चरण में कहीं-कहीं कजली की गायिकी भी होती है अतः यह चरण कजली ही कहलाता है। वर्षा ऋतु में कजली की गायिकी और नृत्य में पैरों की थाप का अद्भूत संयोग सुमधुर होता है।
कै मोर रामा आज बिरज में, श्याम बने हरि रै हारी उलियन कुलियन फिरत कचेरा
के हरे रामा हां हां रे समालिया है कोई चूड़ि पैरन हारौ रे हारी।
दिवारी नृत्य
इसे दीपावली के अवसर पर विशेषकर अहीर जाति के लोगों द्वारा किया जाता है इस नृत्य में समाज के अन्य वर्गों के लोग भी सम्मिलित होते हैं। यह विशुद्ध रूप से पुरुषों का ही नृत्य है।
इस नृत्य की विशेषता यह भी है कि इसमें गीत पहले गाया जाता है तथा नृत्य बाद में किया जाता है। इस नृत्य के सामान्यतः दो-दो पंक्तियों के होते हैं तथा जब इनका गायन होता है तब कोई वाद्य यन्त्र नहीं बजता। केवल गायक अपने दाहिने हाथ में लाठी को उठाकर ऊँचे स्वर में गायन करता है उसका दूसरा बॉंया हाथ उसके बॉंये कान पर रहता है और जैसे ही उसकी दूसरी पंक्ति समाप्त होती है, तुरन्त ही ढोल, लुटिया आदि बज उठते हैं और नृत्य की भंगिमायें प्रारम्भ हो जाती हैं। दिवारी नृत्य की गायिकी की पंक्तियॉं बड़ी सुन्दर होती है।
आज जुदैया तीज की रे भौजी खिलन ने देय,
सखियां ठांडी खोर में मोरो जीरा लहरिया लेय रे।
पिया बजारे जात हो, बेई चीजें लाइयो चार,
सुआ परेबा किलकिला अरे बगला की उनहार रे।
मोनिया नृत्य
यह पुरुष प्रधान नृत्य है तथा दिवारी नृत्य की भांति होता है इसमें गायन नहीं होता है। नर्तक मौन रहते हैं एवं अपने हाथों में मोर पंख लेकर नाचते हैं। यह नृत्य भगवान कृष्ण को समर्पित रहता है। चूंकि इस नृत्य के नर्तक गण मौन रहते हैं अतः इसे मौनिया नृत्य कहते हैं। परन्तु इन मौनिया नर्तकों के साथ एक गायक अलग से रहता है जो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम व योग योगेश्वर श्री कृष्ण से सम्बन्धित गीतों को गाता चलता है। भगवान श्री राम के वीरोचित स्वरूप का वर्णन इस मौनिया गीत में श्रृंगार की चेष्टाओं का भी आर्विभाव करता है –
स्वांग नृत्य
एक व्यक्ति विभिन्न प्रतिष्ठित चरित्रों का रूप बनाकर गाँव में घूम-घूम कर सबका मनोरंजन करता है। वह व्यक्ति बहुरूप धारण करने के कारण बहुयपिया कहलाता है। कभी वह नारद का रूप धारण करता है, कभी वह शंकर जी का रूप बनाता है, कभी वह कुअँर हरदौल का रूप बनाता है। जो भी रूप वह बनाता है उसी के अनुरूप वह बोलता भी है। स्वांग के कुछ बोल निम्नवत् हैं –
लक्ष्मन पूंछे राम लंका को कौन गली जाये रे।
जब जाने पिया लंका में अमर बने रहे।
झिंझिया नृत्य
यह नृत्य विशुद्ध रूप से स्त्रियों तक ही सीमित है तथा केवल शरद पूर्णिमा की रात्रि में टेसू झिंझिया के विवाह के अवसर पर स्त्रियां अपने सिरों पर झिंझिया रखकर नृत्य करती हैं। पुरुषों के लिये तो इस नृत्य को देखना भी वर्जित होता है। सभी स्त्रियां चक्राकार रूप में घूमते हुये चलती हैं तथा अपने दोनों हाथों को घुमाकर स्वयं भी घूम-घूम कर इसे करती हैं तथा गातीं हैं।
हाय मोरे नार की,
रातें डुको डुकरा से लड़ी थीं।
राई नृत्य
यह नृत्य मुख्यतः बेड़नियों का नृत्य है जिसे बसन्त पंचमी पर गुना जिले के वियावान जंगल में कुडीला पहाड़ी पर स्थित रामानन्दी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा सम्बन्धित मन्दिर के आस-पास रात्रि में राई की मशाल की रोशनी में किया जाता है। ये बेड़निया अविवाहित होती हैं तथा मुख्य रूप से ईश्वर के समक्ष ही नृत्य करती हैं।
कुछ लोग अब अपनी मनोकामना पूर्ण होने पर भी इस नृत्य का आयोजन करवाते हैं। यह नृत्य स्त्री प्रधान नृत्य है तथा इसमें बेड़निया के साथ ढ़ोलक बजाने वाला भी नृत्य में शामिल रहता है। इस नृत्य के साथ फागें गाई जाती है। ये फागें अध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती तथा दुनिया की वास्तविकता का बोध भी कराती हैं। ईसुरी की फाग बहुत ही उच्चकोटि की है।
बखरी रइयत है भारे की, दई पिया प्यारे की,
कच्ची भींत उठी माटी की, छाई पूस चारे की।
बेबन्देज बड़ी बेबाड़ा, जौ में दस द्वारे की,
एकऊ नई किबार किबरियां, बिना कुची तारे की।
”ईसुर” चाये निकारो, जिदनां, हमें कौन बारे की।
इस नृत्य में बेड़नियां अपने लहरों को इस तरह से हवा में लहराती हैं कि जैसे मट्ठा विलोरते समय मथानी चलती है। बुन्देलखण्ड में मथानी को रई कहते हैं अतः इस नृत्य का नाम राई नृत्य पड़ा। इस नृत्य की यह विशेषता है कि इसमें एक बार क्लाकवाईज तथा उसके बाद ऐन्टी क्लाकवाईज़ घूमा जाता है। राई के पुष्प के नीचे का भाग घूमा कहलाता है। इस घूमा की बनावट गोल लहरदार होती है। राई नृत्य के समय बेड़नियां जब चक्राकार मण्डल में घूमती हैं तब घूमा की आकृति सी बन जाती है। अतः इस राई का नाम बड़ा सापेक्ष है। बेड़नियों द्वारा आम तौर पर इसे किया जाने के कारण इस नृत्य को बेड़नी नृत्य के नाम से भी जाना जाता है।
जवारे नृत्य
यह नृत्य वर्ष में दो बार पड़ने वाली नवरात्रि में ही किया जाता है जिसमें स्त्री व पुरुष दोनों ही नृत्य करते हैं। स्त्रियाँ अपने सिरों पर जवारों से भरे पात्रों को ऊर्ध्वाकार श्रृंखला रूप में रखकर झूम-झूम कर नाचती हैं। तथा हाथों को हवा में लहरा-लहरा कर मैया भवानी के दर्शनों का लाभ पाना चाहती हैं। बुन्देली लोक जीवन में स्त्री एक प्रेरणा स्त्रोत है। एक ओर जहॉं वह प्यार, ममता, त्याग और तपस्या की मूर्ति है वहीं दूसरी ओर वह अत्याचार अनाचार के विरुद्ध लड़ने वाली चण्डी का रूप धारण कर लेती हैं। शायद इसी कारण वर्ष में सभी त्योहार एक बार होते हैं परन्तु नवरात्रि प्रेरणादायी बनकर वर्ष में दो बार मनायी जाती है और लोग बार-बार मॉं के दर्शनों से अपने आप को लाभान्वित करना चाहते हैं। परन्तु मैया के मठ का द्वार सकरा है अतः दुविधा में पड़कर गाते हैं –
कैसे के दरसन पाँऊरी, माई तेरी सकरी दुअरिया,
सकरी दुअरियां, मइया चन्दन किवरिया, धरम ध्वजा फहराये।
माई तेरी सकरी दुअरिया,
माई के द्वारे एक बाँझ पुकारे, देव ललन घर जाँऊरी।
माई तेरी सकरी दुअरिया।
होली नृत्य
फागुन की पूर्णिमा को होलिका दहन के पश्चात् युवकों युवतियों की अलग-अलग टोलियों निकलती हैं जो परम्परागत वाद्य यन्त्रों को छोड़कर टीन आदि थपथपाते हुये नाचते एक दूसरे को रंग से सराबोर करते अबीर, गुलाल, इत्र लगाते चलते हैं। इस मस्तानो रंग बिरंगी बेला में होली की सुन्दर फागें गाई जाती हैं जिनमें श्रृंगार रस उफनाता दिखलाई पड़ता है। भगवान श्रीकृष्ण यमुना के तट पर गेंद खेल रहे थे। उन्होंने गेंद फेंकी और उसी समय एक गोपिका वहॉं से निकली। तुरन्त ग्वालों ने उस गोपिका को घेर लिया और उस पर गेंद उठाने का दोष मढ़ दिया। उस गोपिका से गेंद बरामदगी का वर्णन लोक जीवन की श्रृंगार प्रियता व रसिकता का बोध कराता है –
तैने मेरी गेंद चुराई, तैने ही लंगर तैने ही,
ढ़रकट ढरकत तोनों आई, तैने लई उठाई।
तैने मेंरी गेंद चुराई, तैने ही लंगर तैने ही,
झपटि हात चोली में डारो, एक गई दो पाई,
तैने ही लंगर तैने ही।
ढ़कोली नृत्य
नारियल के खोखे से डोरा निकाल कर बने वाद्य यन्त्र को बजाते हुये जो शारीरिक चेष्टायें की जाती हैं वे ढ़कोली नृत्य की श्रेणी में आती हैं। यह नृत्य बालकों का नृत्य है। इसमें बालकवृन्द खूब चटखारे ले लेकर किसी बूढ़े व्यक्ति की नकल अथवा उसको चिढ़ाते हुये गाते हैं –
बब्बा बब्बा कां गये ते, पातर छोड़ बिला गये ते
पातर लै गओ कौआ, बब्बा हो गये नउआ।
नउआ से मुड़ाई मूंड, बब्बा हो गये डूंढ़,
डूंढ़ पै धरो अंगरा, बब्बा हो गये बंदरा।
बंदरा ने खाई पाती, बब्बा हो गये हांती,
बब्बा घूमें खेत में, बब्बा रय गये पेट में।
इस नृत्य में ढ़कोली वाद्य यन्त्र प्रधान होता है अतः उसी पर आधारित इस नृत्य का नाम हो गया। ढ़कोली वादक ही इस नृत्य का प्रमुख आकर्षण होता है।
ये नृत्य विभिन्न रस्मों की अदायगी के अवसर पर परिवार जनों द्वारा ही किये जाते हैं। इनमें कलश नृत्य, लाकौर या वधावा नृत्य, चीकट नृत्य आदि आते हैं। इन नृत्यों के समय ढ़ोलक ही वाद्य यन्त्र होता है तथा गीतों की लय पर ही इन नृत्यों को किया जाता है। नृत्य तो अपने हृदय के उल्लास पूर्ण भावों को शारीरिक भाव भंगिमाओं के माध्यम से प्रस्तुति का पर्याय होते हैं। आनन्द का सूचक होते हैं और उल्लासित होने हेतु प्रेरणास्पद होते हैं।