घन वाद्य यन्त्र
June 25, 2024उनाव का सूर्य मंदिर
July 2, 2024बुन्देलखण्ड में गीतों के गायन में जहाँ उपर्युक्त यन्त्र सुलभ नहीं हो पाते हैं वहाँ दैनिक क्रियाओं के सम्पन्न होते समय जो कार्यरत यन्त्र अथवा क्रियायें होती हैं, उन्हीं से गीतों को थाप, ताल और लय प्राप्त हो जाती है। ये कार्यरत यन्त्र तथा श्रम क्रियायें लोक जीवन की स्वाभाविक संगीत साधना की परिचायक हैं।
प्रातः काल सूर्योदय की बेला में जब यहाँ की स्त्रियां चक्की पर आटा पीसते हुये गाती हैं तब चक्की की घर्र-घर्र ध्वनि से ही उन्हें अपने गीत के लिए लय व ताल मिल जाती है। इस चक्की को यहां पर जंतसार भी कहते हैं जो कि सम्भवतः यन्त्र शाला का अपभ्रन्श है। डॉ० रामस्वरूप श्रीवास्तव ने अपनी पुस्तक बुन्देली लोक साहित्य के पृष्ठ संख्या 112 पर जो निमाड़ी की चक्की गीत लिखा है उसमें इस चक्की को सभी रागों में रानी की पदवी से अलंकृत करते हुये कहा गया है-
सब रागण में राणी, चक्की सब रागण में राणी।
एक पग पैताल में धरयो, दूजों गगन आसमान।
तीजो पग धरयो, घर भीतर,
चक्की सब राग में राणी।
खेत में पानी लगाने के लिये रहट चल रहा है। उससे पानी निकलकर नाली में गिर रहा है। घर में महिला चौपायों का गोबर साफ करके उससे कंडे थापने की यह थपथपाहट उसके गीत को ताल व लय से सराबोर कर रही है। गॉंव की गोरी की थपथपाहट का सुन्दर चित्रण है इन पंक्तियों में –
थप थप थापे ऊपरी और सिर सिर लटकारे केश
हो तोई पूछों गोरी, तेरे बालम कैसे भेषॽ
धोबी अपने गधे पर गन्दे कपड़े लादकर नदी, पोखर पर सफाई के लिये जाता है। नदी पर वह कपड़ों को जल में फच फचाता है और यही फच फचाहट उसके गीत की स्वर लहरी को कर्ण प्रिय बना देती है। जब वह कपड़ों को घाट के पत्थर पर पटकता है तब घमाहट का शब्द होता है। इस घम घमाहट का सुन्दर शब्द चित्र इस गीत में श्रवण योग्य –
मोटी रोटियां पकायै रे बरेहिन,
बिन ही चलै के होई घाट।
घम घमाघम घामड़ घामड़,
घम घमाघम घामड़ घामड़।
कपड़ों की धुलाई के समय धोबी लोग आमतौर पर छियो गाते हैं। एक ग्राम बाला की चोली व अंगिया मैली हो गई जिसे वह स्वच्छ धुलाना चाहती है। छियोराम की धुन से सराबोर उसकी यही इच्छा इन पंक्तियों में उजागर है –
अंगिया चुलियां मैली हुई गई, बिन धाबी को गॉंव,
कै धुबिया पिया लाइ बसावौ, कै धुबिया कै जॉंऊ।
छियो राम छियो, छियो राम छियो।
जब कभी हम अति उत्साहित होते हैं तब दोनों हाथों से ताली बजाते हैं। यही ताली गीतों में ताल देने का कार्य भी करती है। दोनों हाथों के आपसी सहयोग से ही आनन्द के ताली रूपी स्वर प्रस्फुटित होते हैं। इसीलिये वादन की प्रक्रिया में दोनों हाथों का सम्मिलन अति आवश्यक होता है। एक हाथ से ताली बज ही नहीं सकती। इसीलिये तो बृज में श्री कृष्ण और राधा जी के प्रेम की ताली एक हाथ से न बजने की संज्ञा देते हुये महाकवि ईसुरी कहते हैं –
ब्रज में राधा और गिरधारी करै खुलासा यारी,
विगरे जात नेंक न हटकैं उनके बाप मतारी।
कै सुन लेव भई कैबे खां कहे की नइयां गारी,
ईसुर कहै बजत न देखी एक हात से तारी।
तत् सुषिर, अवनद्ध तथा धन वाद्य यन्त्र को आमतौर पर मिलते हैं परन्तु कुछ वाद्य यन्त्र ऐसे भी हैं जो परिस्थितियों के अनुसार लोक अपने भावों को मूर्त रूप देने एवं रस की तरंगिणी में बहने के लिये तैयार कर लेता है।
ढोकली
यह ऐसा यन्त्र है जिसमें नारियल के खोखे का उपयोग होता है। नारियल में जिस स्थान पर तीन छेद होते हैं उनमें से एक छेद के अन्दर डोरा डालकर नीचे लकड़ी की एक तीली बॉंध दी जाती है। जिससे डोरा खींचने पर निकले नहीं। बस ढ़कोली बजने को तैयार। नारियल खोखे को पैर दबा लिया जाता है तथा डोरे को ऊपर की ओर खींचा जाता है और दूसरे हाथ की अंगुलियों से डोरे को खींच खींच कर छोड़ा जाता है जिससे मधुर ध्वनि निकलती है। इसी ध्वनि पर बच्चों का गायन और नृत्य होता है। इस वाद्य यन्त्र तथा इस पर जो नृत्य किया जाता है, दोनों को ही ढ़कोली कहते हैं। ढ़कोली बजाते समय शरीर की जो चेष्टायें कमर के द्वारा की जाती हैं उन्हें भी नृत्य की संज्ञा दी जा सकती है।
झंगड़
यह ऐसा यन्त्र है जिसका उपयोग दैवी प्रकोप को शान्त करने के लिये घुल्ला (ओझा) द्वारा किया जाता है। यह यन्त्र बहुत ही आसानी से तैयार हो जाता है। इसमें एक बड़े मुँह का मटका लिया जाता है। उसके मुँह पर कॉंसे की थाली उलट कर रख दी जाती है। बस झंगड़ वाद्य यन्त्र तैयार हो गया। इसे बजाने के लिये घुल्ला कॉंस की थाली पर लोहे का चूरा फैंक कर प्रहार करता है जिससे अजीब सी ध्वनि निकलती है। इसी ध्वनि के आधार पर ही पीड़ित व्यक्ति अपने शरीर के हाव भाव व्यक्त करता है।
नाहर धौंकनी
भूत, प्रेत आदि बाधाओं के शमन हेतु इस नाहर धौकनी नामक विशेष वाद्य यन्त्र प्रयोग घुल्लाओं, ओझाओं अथवा तान्त्रिकों द्वारा किया जाता है। यह तन्त्र बड़ा ही साधारण है मिट्टी की एक घैलिया के मुंह पर चमड़े से मढ़ दिया जाता है। फिर चमड़े के बीचो बीच एक छोटा सा छेद करके मोर पंख की जड़ को इस छेद से घैलिया के अन्दर डाला जाता है। मान्त्रिक या ओझा, अभिमन्त्रित जल से हाथ की अंगुलियों को गीला करके, जब मोर पंख की टहनी पर नीचे से ऊपर की ओर अंगुलियां फिराता है तो शेर की दहाड़ जैसी ध्वनि निकलती है। शायद इसी कारण इस यन्त्र का नाम नाहर (शेर) धौकंनी पड़ा। नाहर धौकनी के बजने से उपस्थित जनसमुदाय पर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है जिसके वशीभूत होकर जनसमुदाय, मान्त्रिक (तान्त्रिक) की बातों पर विश्वास सहजता से करने लगता है –
चलौ मैय्या के दुआरे।
जितै सब भूत हारे ।।
नाहर धौकंनी ने कछु।
सुभ सबद उचारे।।
इन वाद्य यन्त्रों से लोक जीवन के गायन को ताल और लय मिलती है जिससे हर्ष एवं आनन्द के वातवारण का सृजन होता है और मन मयूर थिरकते हुये आत्म विभोर हो उठता है इसीलिये तो –
बाल्मीकि रामायण के 128वें सर्ग के श्लोक संख्या 10 में भगवान श्रीराम जी से विनय करते हुये कहा गया है –
तुर्यसंघातनिर्घेषैः कान्चीनूपुरनिः स्वनैः।
मधुरैगीत शब्दैश्च प्रीति बुध्यस्व शेष्व च ।10।
श्री राम जी आप विधि वाद्यों की मधुर ध्वनि कान्ची तथा नूपरों की झनकार और गीत के मनोहर शब्द सुनकर सोयें और जागे।