आयुर्वेद चिकित्सा के प्रारंभकर्ता आचार्य चरक ही मान्य रहेंगे। जनमानस में यह प्रस्तुत भी किया है। प्रथम स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य के संरक्षण दिया जाना, द्वितीय रुग्ण (रोगी) मनुष्य की पीड़ा प्रसमन हेतु तीन अतिमहत्वपूर्ण सूत्र प्रतिपादित किया जाना- 1. संशोधन, 2. संशमन, 3. निदान व परिचर्या।

संशोधन को प्राथमिकता इस उद्देश्य से दिया गया था कि संकुचित संशोधित दोषों को पुनः प्रकोपित होने से संरक्षित किया जाना। इन्हें सभी विधाओं से देश, काल, ऋतु, आयु अनुसार स्थापित करना होता है। स्थान व अस्वस्थ होने के उपयुक्त है या नहीं इसका आंकलन किया जाना आवश्यक होता है। पंचकर्म भी एक शोधन प्रधान पद्धति प्रथम चिकित्सा में स्थापित है। पंचकर्म एवं शोधन चिकित्सा द्वारा इस प्रकार से दोषों को हरण किया जाता है, या शरीर से निकाला जाता है, यह प्रयोग किये जाते हैं। पंचकर्म में विभिन्न कर्मों के साथ दोषों से सुरक्षित किया जाता है। सिद्धांतः अमाशय के लिए वमन विरेचन, पक्वाशय के लिए विरेचन वस्ती, उर्ध्व विकारों लिए नस्य, योनि गर्भाधान, मूत्राशय के विकारों हेतु उत्तर वस्ति, रक्तमोक्षण प्रक्रिया से उत्क्रमित मार्ग से दोषों को निकाला जाता है। इसका प्रयोग तंत्र से होता है।

ब्रह्मा के सुश्रुत संहिता में एक लाख श्लोक व एक हजार अध्याय को बनाया। यह सुश्रुत संहित सूत्र 1/4 में उल्लेखित भी है।

ब्रह्मा ने मानव की आयु वृद्धि पर अत्यंत विचार कर आयुर्वेद को आठ अंगों में विभक्त करा है- 1. शल्य, 2. शालाक्य, 3. काय चिकित्सा, 4. भूत विद्या तंत्र-मंत्र विष इत्यादि, 5. कुमारयभृत्य (बाल रोग), 6. अंग अगदतंत्र, 7. रसायन, 8. बाजीकरण। ये आयुर्वेद के आठ अंग बनाये गये हैं।

इनके पश्चात् अन्य उपांगों का भी निर्माण किया गया है। जिनमें शरीर विज्ञान, क्रियाशाली, द्रिव्यगुण, रसशास्त्र और भैषज्यकल्पना, पदार्थ विज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान, अष्टांग हृदय, रोग विज्ञान, स्वस्थवृत, स्त्रीरोग एवं प्रसूतितंत्र इत्यादि उपांगों का भी अध्ययन वृहत रूप में कराया गया है।

यह पूरी प्रक्रिया आयुर्वेद के अध्ययन में अलग-अलग विभागों का पुस्तक निर्माण, वृहद शोध एवं गुरु-शिष्य परम्परा में अध्ययन-अध्यापन कराया जाता रहा है।