सेरोन
July 26, 2024चाँदपुर
July 26, 2024उ.प्र. के ललितपुर और म.प्र. के टीकमगढ़ जिला मुख्यालयों को जोड़ने वाले पक्के मार्ग में, बानपुर विद्यमान है।
इस तरह ऐतिहासिक बानपुर, ललितपुर रेलवे स्टेशन से पात्र पैंतीस किलोमीटर के बस मार्ग पर स्थित है। बानपुर से टीकमगढ़ की दूरी लगभग 10 कि.मी. है।
इतिहास
भारत के 1857 कालीन प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बानपुर के राजा मर्दन- सिंह ने उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण स्वतंत्रता संग्राम कर झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई को न केवल सहयोग किया वरन् स्वराज्य की स्थापना हेतु समूचे बुन्देलखण्ड में विदेशी सत्ता के विरूद्ध संगठन तैयार कर नींव शिला का कार्य किया था। मर्दन सिंह ओरछा गद्दी की वंश परम्परा में ही राज्य के विभाजन उपरांत बानपुर में सिंहासनारुढ़ हुये और अपने साहस एवं शौर्य से खोये हुये क्षेत्रों को प्राप्त कर, चंदेरी-तालबेहट क्षेत्र भी बानपुर में सम्मिलित कर लिया था। अंततोगत्वा संघर्ष करते करते अंग्रेजों ने उन्हें नजरबंद कर लिया और स्वतंत्रता के लिये संघर्ष करते हुये वे 22 जुलाई 1879 को गौ-लोकवासी हुये। बानपुर अपनी वर्तमान ऐतिहासिक धरोहर के साथ ही अतिशय जैन तीर्थ की कलात्मक धरोहर के लिये भी दर्शनीय है। यहाँ का सहस्रकूट चैत्यालय सचमुच अद्वितीय है। अत्यंत प्राचीन शिल्प और तीर्थंकर मूर्तियाँ तो उल्लेखनीय हैं ही। पार्वती नंदन गणेश की भी भारत प्रसिद्ध पाषाण प्रतिमा बानपुर के गणेश गंज में दर्शनीय है। कस्बे का बड़ा जैन मंदिर न केवल प्राचीन है वरन् कलात्मक होने के कारण दर्शनीय भी है।
अतिशय
बीसवीं सदी के तीसरे दशक तक यहाँ स्थित जैन क्षेत्रपाल निर्जन होने के कारण चोरों के छिपने का अड्डा बन गया था। तभी यहाँ एक जिन छुल्लक महाराज श्रुतिसागर जी पधारे और कुछ ऐसा अतिशय हुआ कि वे इसी क्षेत्र पर ठहर गये और जैन धर्मावलम्बियों को प्रेरित कर इसे जैन तीर्थ के रूप में पुर्नस्थापित कर जीर्णोद्धार कराते हुये आबाद करा दिया। एक नागराज और एक बंजारे की किंवदंतियाँ भी यहाँ थी पर उन्हें प्रमाणिकता नहीं मिल सकी। क्षेत्र की मुख्य मूर्ति शांतिनाथ तीर्थंकर प्रतिमा के अपने आप बढ़ते रहने की जन श्रुतियाँ भी सुनने को पहले मिल जाती थीं जो अब चुक गई हैं।
पुरातत्व
बानपुर में स्थित दो प्राचीन जैन मंदिरों के अतिरिक्त महरौनी मार्ग पर 280×200 फुट के प्रांगण में प्राचीन जैन मंदिरों का एक समूह स्थित है। इस तीर्थ क्षेत्र को पहले यहाँ क्षेत्रपाल ही कहते थे।
मंदिर संख्या-एक एवं दो
नागर शैली शिखर युक्त इस संयुक्त जिनालय के प्रथम बाह्य भाग में 5’4″ उत्तुंग खड़गासन तीर्थंकर एवं अन्दर की वेदिका पर सं. 1142 की पद्मासन प्रतिमा तीर्थंकर ऋषभनाथ की है। लगे हुये दूसरे मंदिर के बाह्य भाग में 8 फुट उत्तुंग शान्तिनाथ एवं अन्दर के भाग में 8 फुट 6 इंच ऊँची तीर्थंकर की मूर्ति खड़गासन में दर्शनीय है।
मंदिर संख्या-तीन
इस मध्य मंदिर की मण्डपाकार संरचना में मुख्य द्वार के ऊपरी तोरण पर क्षेत्रपाल प्रतिमा जड़ी हुई है और बाह्य दीवालों पर तीनों और पौराणिक प्रतिमाओं का खजुराहो-शिल्प सा उत्कीर्णन है जिनमें शासन देवी-देवता, शिव- पार्वती आदि के कलात्मक दृश्य हैं।
अन्तः वेदिका पर सं. 1541 की धवल श्वेत संगमरमर से निर्मित पद्मासन तीर्थंकर की प्रतिमा और श्री चरण जी विराजमान हैं।
'बड़े बाबा' का मंदिर
यह एक विशिष्ट जिनालय है जिसमें सं. 1001 की 18 फुट उत्तुंग तीर्थकर शांतिनाथ को विशाल और भव्य खड़गासन मूर्ति के दोनों ओर तीर्थकर कुन्थनाथ एवं अरहनाथ की सात-सात फुट खड्गासन प्रतिमायें अवस्थित हैं। यह त्रिमूर्ति अत्यंत आकर्षक और चमत्कारिक है। यद्यपि इस तरह की त्रिमूर्ति की संरचनायें बुन्देलखण्ड के अन्य कतिपय तीर्थों में भी दर्शनीय हैं पर बानपुर के इस तीर्थ की त्रिमूर्ति पर स्थित शिलालेख से जहाँ इसके निर्माण सम्वत् 1001 की प्राचीनता सम्बन्धी पुष्टि होती है वहीं मूर्ति पर अंकित घुटनों तक बिखरी तीर्थकर की केश-राशियाँ यह परिलक्षित करती हैं कि इसकी रचना तीर्थकर के तपःकाल की है। इसलिये बाँयी मूर्ति कुन्थनाथ को न होकर आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ की होना ज्यादा पुष्ट होता है। मंदिर के पृष्ठ भाग में एक पद्मासन अत्यंत भव्य प्रतिमा महावीर स्वामी की शीर्ष रहित विराजमान थी। जो स्थानांतरित हो चुकी है। वर्तमान में इस मंदिर का शिखर युक्त नवनिर्माण किया जा चुका है।
सहस्त्रकूट चैत्यालय
क्षेत्र के पूर्वी भाग में भारतीय स्थापत्य कला का अद्भुत प्रतीक सहस्रकूट चैत्यालय एक दर्शनीय सृजन है। उत्कृष्ट नागर शैली का सुगढ़ शिल्प, दसवीं सदी के इस जिनालय के प्रत्येक पाषाण में परिलक्षित होता है। 22 फुट चौड़े आसन पर 50 फुट उत्तुंग चैत्यालय के चारों ओर द्वार हैं, अन्तः भाग के बीच में तीन फुट ऊँचे अधिष्ठान पर एक शिखरनुमा आठ फुट गुणा चार फुट के शिलाखण्ड में चारों ओर एक हजार आठ जिनेन्द्र भगवान की मूर्तियाँ नगीने की तरह जड़ी हुई हैं।
बाह्य भाग में दरवाजों से लगे हुये स्तम्भों पर आधारित चारों ओर चार मण्डप आच्छादित हैं। चारों दरवाजों पर द्वारपाल- दिकपाल हैं। तोरणों पर नवग्रह, ऊपर-नीचे मदमस्त हाथी और शेर के साथ कलशवाहिनी शासन देव-देवियों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। यक्ष- यक्षिणियाँ, नृत्यरत युगल और विभिन्न मुद्राओं में शासन देवियाँ अलंकृत हैं। शिखर, बारह पटलों के माध्यम से पर्वताकार उत्तरोत्तर तीक्ष्ण होते हुये अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होता है। शिखर के अन्त में आमलक, घट पल्लव और कुम्भ-कलश शोभायमान हैं। शिखर पर मध्य भाग से ऊपर पूर्व तथा पश्चिम में दो देवियों का निर्माण झरोखों में शिल्प-सज्जा के साथ वातायन बनाते हुये इस तरह सामंजस्य पूर्ण निर्माण किया है कि हवा और रोशनी का अन्दर प्रवेश गहराई तक संभव हो सके। आसन से शिखर तक की सम्पूर्ण रचना का शिल्प-अलंकरण अद्वितीय है। पौराणिक गाथाओं पर आधारित दृष्य, मकरवाहिनी गंगा, कर्मवाहिनी यमुना और दिगम्बर मूर्ति भी तलवार एवं नरमुण्ड कर में लिये हुये जैसी मूर्तियाँ उपलब्ध हैं। अहिंसा और हिंसा का यह समन्वय दर्शनीय है।
यद्यपि सहस्रकूट चैत्यालय की रचना बहुत कम क्षेत्रों पर उपलब्ध है। देवगढ़, पटनागंज, कोनी आदि कुछ क्षेत्रों में अवश्य निर्माण हुआ है परन्तु बानपुर का सहस्रकूट चैत्यालय देश में अपनी तरह का सुन्दर सृजन है।
एक हजार वर्ष से अधिक प्राचीन इस कलाकृति के रचना काल के बारे में प्राचीनता के सूत्र म.प्र. के टीकमगढ़ जिले में अहार जैन क्षेत्र के एक शिलालेख में मिलते हैं।
बानपुर से लगभग 35 किलोमीटर दूर अहार जैन क्षेत्र के मूलनायक तीर्थकर शान्तिनाथ की उत्तुंग मूर्ति के पादमूल में वि. संवत् 1237 का उक्त शिलालेख देवनागरीलिपि का संस्कृत, में अंकित है
ग्रहपतिवंशसरोरुहसहस्त्ररश्मिः सहस्त्रकूटैर्यः वाणपुरे व्यधितासीत् श्रीमानि ।
ह देवपाल इति ॥1 ॥
श्री रत्नपाल इति तत्तनयो वरेण्यः पुण्यैकमूर्तिर- भवद्वसुहाटिकायां।
कीर्तिर्जगत्रय
परिभ्रमणश्रमार्त्ता यस्य स्थिराजनि जिनायतनच्छलेन ।।2 ।।
एकस्तावदनूनबुद्धिनिधिना श्री शान्तिचैत्याल ।
यो दिष्ट्यानन्दपुरे परः परतरानन्दप्रदः श्रीमता। येन श्रीमदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे। सोऽयं श्रेष्ठिवरिष्ठगल्हण इति श्रीरल्हणाख्याद।
भूत् ॥3 ॥ तस्मादजायत कुलाम्बरपूर्णचन्द्रः श्रीजाहडस्तदनुजोदय चन्द्रनामा। एकः परोपकृतिहेतुकृतावतारो धर्मात्मकः पुनरमो
घसुदानसारः ॥4॥ ताभ्यामशेषदुरितौघशमै क हेतु निर्मापितं भुवनभूषणभूतमेतद् । श्रीशांतिचैत्यमतिनित्यसुखप्रदा
तृ मुक्तिश्रियो वदनवीक्षणलोलुपाभ्याम् ॥5 ॥ संवत् 1237 मार्ग सुदी 3 शुक्रे श्रीमत्परमर्द्धिदेवविजयराज्ये ।
चन्द्रभास्करसमुद्रतारका यावदत्र जनचित्तहारकः । धर्मकारिकृतशुद्धकीर्तनं तावदेव जयतात् सुकीर्त्तनम् ।।6 ।।
वाल्हणस्य सुतः श्रीमान् रूपकारो महामतिः । पापटो वास्तुशास्त्रज्ञस्तेन बिम्बं सुनिर्मितम् ।।7।।
उक्त शिलालेख के प्रथम श्लोक से ही पुष्ट हो जाता है कि ग्रहपति वंश- रुपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिये सूर्य के समान श्रीमान देवपाल ने बानपुर में सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराया था। यह भी कि इसके सृजनकर्ता वास्तुशिल्पी पापट रहे हैं। देवपाल, अहार प्रतिमा के निर्माता के तीन पीढ़ी पूर्व के थे अर्थात् दसवीं सदी का काल बानपुर के सहस्रकूट निर्माण का अनुमानित है। ‘अनेकान्त’ पत्र ने 1963 में एक लेख में इस निर्माण का उल्लेख कर रचना काल ईस्वी सन् 945 माना है।
यों भी गुप्तोत्तर काल में ही मूर्ति रचना की विविधता मिलती है और सहस्रकूट की रचना इसी किस्म की है। कूट का अर्थ होता है चोटी (जिसका प्रयोग जिनालय के रूप में कर लिया गया) और सहस्त्र अर्थात् एक हजार। जबकि सहस्त्रकूट चैत्यालय में एक हजार मूर्तियों की स्थापना केवल श्वेताम्बर जैन समाज में होती है। दिगम्बर क्षेत्र के सहस्रकूटों में मूर्तियों की संख्या एक हजार आठ निर्मित की गई है। आदि पुराण पर्व 25 श्लोक 224 में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की स्तुति इन्द्र द्वारा एक हजार नामों से की गई थी। संभवतः इसी आधार पर सहस्रकूटों का कुछ क्षेत्रों में यथा सम्मेद शिखर, दिल्ली आदि में भी निर्माण हुआ था परन्तु जैन धर्म में बहुदेवतावाद की परिकल्पना मान्य नहीं हो सकी। इसलिये सहस्रकूट चैत्यालय दसवीं ग्यारहवीं सदी के बाद शायद अन्यत्र निर्मित नहीं हुये।