बिहारी लाल
July 16, 2024प्राणनाथ
July 16, 2024भूषण
जन्म – सं. १६७० वि. बुन्देलखण्ड में
शैली – वीररस, पूर्ण ओजस्वी काव्य।
जीवन परिचय
ग्रंथ – शिवा वावनी, छत्रसाल दशक, शिवराज भूष्ज्ञण
बुन्देलखण्ड की वीर प्रसवना भूमि में उत्पन्न कविवर भूषण महाराज छत्रसाल के दरबारी कवि थे। आप स्वाभिमान और ओजस्वी काव्य के लिये प्रसिद्ध रहे। इनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी और भाई चिंतामनी, मतिराम, जटाशंकर थे। कविवर भूषण शास्त्र और शस्त्र दोनों में पारंगत थे उनहोंने आश्रयदाता वीर केशरी छत्रसाल और बाद में वीर शिवाजी की वीरता का यशोगान कर उन्हें आक्रमणकारियों को परास्त करना और संस्कृति-धाम की रक्षा के लिये प्रोत्साहित किया। भूषण को इन राजाओं से मान-सम्मान मिला। कहते है कि चित्रकूट के महाराज रुद्र ने इन्हें ‘कवि भूषण’ की उपाधि से अलंकृत किया था। इसलिये यह भूषण के नाम से जाने जाते है। इनका असली नाम पता नहीं है।
कविवर भूषण विलक्षण ‘वीरकाव्य’ की रचना करने में सिद्धहस्त थे। राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक असमंजस की परिस्थितियों में उन्होंने सच्चे कवि होने का प्रमाण अपनी ओजपूर्ण, शौर्य और समाज के निर्देशात्मक काव्य का निर्माण कर प्रशस्ति अर्जित की थी। कविवर भूषण ने तत्कालीन मुगल सम्राट के विरुद्ध संघर्षरत वीर छत्रसाल जैसे बुन्देली आन-बान-शान को स्थापित करने वालों को अपने काव्य का आधार प्रदान किया। किन्तु बाद में वीर शिवाजी ने उद्भट वीरता से प्रभावित होकर भूषण ने ‘शिवा वावनी’ जैसी वीर रस से ओत-प्रोत काव्य ग्रन्थ की रचना की थी। देश के स्वाभिमान के प्रति सजग भूषण स्वयं स्वाभिमानी थे। कहते है एक बार जब वह छत्रसाल के राज्य से पालकी में बैठकर निकल रहे थे। तब छत्रसाल ने उन्हें बड़ा मान-सम्मान दिया और स्वयं उनकी पालकी में कंधा दिया। इससे प्रसन्न होकर भूषण ने जो कविता की रचना से छत्रसाल की प्रशंसा की वह अद्वितीय है –
” राजत अखण्ड तेज, छाजत सुजस बड़ौ
गाजत गयंत दिग्गज हिय साज कौ।
जाहि के प्रताप खो मलीन आफताब होत,
तापि तजि दुजन करत वहु ख्याल कौ।
साजि सजि गज तुरी पैदरी कतार दीन्हें,
‘भूषण’ भनत ऐसे दीन प्रतिपाल कौ।
और राव राजा एक मन में न स्याऊँ अब,
साहू कौ सराहौ कै सराहौ छत्रसाल कौ।”
भूषण ने अपनी ओजस्वी वाणी से छत्रसाल और शिवाजी की वीरता चहुँ ओर फैला दी थी। जिससे जनसत्ता उनके साथ हुई और मुगल शासन कभी इनके क्षेत्रों में अपनी पैठ स्थापित नहीं कर सका। भूषण की कविता ने देश-काल-समाज को उत्पीड़न और प्रताड़ना के विरुद्ध घूम-घूम कर संघर्ष करने का आवाहन किया। उनकी ललकार की गूंज उनके काव्य में स्पष्ट परिलक्षित होती है-
“दाराकीन दौर यह, रार नही खजुवा की।
वाधिवो नही है, कैधों वीर सहवाल को।
मठ विश्वनाथ न वास ग्राम को कुलू को,
देवी को न देहरा, न, मन्दिर गोपाल को।”
कविवर भूषण ने ब्रज-बुन्देली, के साथ, अवधी का समावेश अपने काव्य में किया है। क्योंकि बुन्देली भाषा ओजपूर्ण काव्य के लिये एक उपयुक्त माध्यम है। बुन्देलखण्ड जैसे वीरता का प्रतीक माना जाता है उसी प्रकार बुन्देली भाषा वीर रस प्लावन के लिये प्रसिद्ध है। भूषण की इस कविता में रस का दर्शन बहुत अच्छा बन पड़ा है।
“महाराज सिवराज तेरे त्रास साह भाजे,
जिनके तो गढ़ कोट ऐसे के लसत है।
आरिन में अरुआ, अटारिन में आकज में,
आंगन अरुसिन के बाग विलसत है।
भौहरिन भीतर भुजंग भूत फैले फिरें,
प्रेतन के पुंज पौर पैठत लसति है।
चारु चित्र सारिन में चौक चुरेले फिरें
खासे आम खासन में राक्षस हंसत है।”
उनके काव्य में रस-छन्द-अनुप्रास स्वतः, प्रगट होते जैसे छत्रसाल की तलवार के प्रति इस दोहे में है –
“प्रतिभट कटक कटीले केति-काटि काटि,
कालिका सी किलकी कलेऊ देती काल को।”
वास्तव में भूषण ने वीर-भूमि की रक्षा करने वाले वीर पुत्रों के यशोगान कर उनमें ओज भर देश की मान-मर्यादा और संस्कृति की रक्षा की थी। वीर रस के उच्च सोपानों से उन्होंने बड़ों-बड़ों के दिल की धड़कनों को बढ़ा दिया था।
“चकित चकत्ता चौकि उठे बार बार,
दिल्ली दहसति चितै काह करषति है।
बिलखि बदन विलखति बिजैपुर पति,
फिरत फिरंगनि की नारी फरकति है
थर-थर कांपत कुतुब साह गोलकुण्डा,
हहरि हबस भूप-भीर भटकति है।
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि
केते बादसाहन की छाती धरकति है।”
इस प्रकार कविवर भूषण ने वीरों की भुजदंडों में अरि मर्दन की भावनाओं को संचारित कर कवि के दायित्व का कुशल निवर्हन किया है और युग प्रवर्तक कवि कहलाये।